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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
ज्ञानाङ्गत्वं तु न, प्रकरणावगतत्वात् श्रवणाङ्गत्वस्य, शान्त इत्यादिवाक्ये दूपणाभावेन स्वार्थाऽपरित्यागात् । कृतेऽपि स्वार्थपरित्यागे ज्ञानोद्देशेन संन्यास- श्रवणयोविंधाने वाक्यभेदाऽपरि हारात, समुच्चयस्य द्वयानतिरेकेणैकसमुच्चयो विधीयत इत्यस्यापि दुर्बवत्वात् । वस्तुतोऽत्र 'ये मध्यमास्तानाग्नये दात्र' इत्यत्रेव सामानाधिकरण्यात् शान्तत्वादिविशिष्टे ककतृ विधानात् जातपुत्र इत्यादाविव शान्तादिपदोपलक्षितावस्थाविशेषविधानाद् वा, पश्येदित्यत्र ज्ञानस्य विध्ययोगात्, प्रकृतैस्तत्साधन श्रवणलक्षकत्वात्, शान्त्यादिविशिष्टैश्रवणक्रियाविधानात् 'सोमेन यजेत' इतिवद् वा न वाक्यभेदः ।
| संन्यास ज्ञान का अंग न होने का कारण ]
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संन्यास ज्ञान का अङ्ग नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकरण से उसमें श्रवणाङ्गत्व सिद्ध है और कोई दोष न होने से 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाक्य में स्वार्थपरित्याग करना उचित भी नहीं है । क्योंकि स्वार्थ का परित्याग करने पर भी ज्ञान उद्देश्य कर संन्यास और श्रवण दोनों का विधान मानने पर वाक्यमेव का परिहार नहीं हो सकता। दोनों के एक समुच्चय का भी विधान दुर्वच है क्योंकि समुच्चय उमय से अतिरिक्त न होने से समुच्चय विधान भी उभय विधान में ही पर्यवसित होता है । सच बात तो यह है कि 'ये मध्यमास्तानग्नये दात्र' इस बाध्य में जैसे मध्यमपद और तत्पद में सामानाधिकरण्य होने से मध्यमत्वविशिष्ट तत्पदार्थ का विधान होता है उसीप्रकार 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाक्य में शान्त दान्त प्रादि पदों में सामानाधिकरण्य होने से शांतत्वादिविशिष्ट एक कर्त्ता का विधान होता है । अथवा 'जातपुत्रः कृष्णकेशः अग्निमादधीत' इस वाय में जातपुत्र और कृष्ण केश शब्द से लक्षणा द्वारा उपस्थित यौवनरूप अवस्थाविशेष का विधान होता है उसीप्रकार 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाध्य में शाक्तादिपद से लक्षणा द्वारा उपस्थित श्रवस्थाविशेष का विधान होता है । अत एव उक्त वाक्य में 'पश्येत्' इस विधिप्रत्ययान्त क्रियापद के होने पर भी ज्ञान की विधि नहीं होती। क्योंकि विधिप्रत्यय का प्रकृतिभूत 'दृश् धातु' लक्षणा से दर्शन के साधनीसूत श्रवण का बाधक होता है अतः उस वाक्य से शान्त्यादि विशिष्ट एक श्रवणक्रिया का विधान होता है । अत: जैसे 'सोमेन यजेत' इस वाक्य से सोमविशिष्टयाग का विधान होने से उसमें वाक्यभेद नहीं होता उसीप्रकार 'शान्तो दान्तः' इत्यादि वाक्य में भी वक्ष्यभेद नहीं हो सकता ।
जन्मान्तरीयतदुपयोगस्तु नानिष्टः, द्वारस्य निष्पन्नत्वात् । 'श्रवणाङ्गत्वे जन्मान्तरीयप्रयाजादिवद् न तदुपयोगः स्यादिति चेत् ? न, अध्ययनादावदृष्टस्यापि जन्मान्तरोपकारकत्वस्य श्रवणदाविव प्रयाजादावदृष्टस्यापि तस्य तदङ्गसंन्यासादावविरोधात् ।
न चैतावता गृहस्थस्यापि श्रवणाधिकारः, विवेकादिवत् संन्यासस्याप्यधिकारिविशेषणत्वात्, जन्मान्तरीयस्य च तस्याऽनिश्चयात् । 'गृहस्थानामपि श्रवणं श्रूयत' इति चेत् १ न, 'घेदानिमं०' इत्यादिविधिविरोधेऽर्थवाद लिङ्गस्य वाक्यत्यात्, 'ब्राह्मणो यजेत' इत्यादिविधिविरोध इव देवानां यागादिश्रवणे | जनकस्य श्रूयत इति श्रद्धावन्तो मैत्रेय्याः श्रूयते इति स्त्रीणा