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स्याक० टोका एवं हिन्दी विषेचन ]
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किन्त्वज्ञानस्य कल्पितत्वात् तदत्यन्ताभाव एष तभिवृत्तिः । कि तहि तत्वज्ञानस्य साध्यम् ?' इति चेत् ? नास्त्येज्ञानात्यन्तामावबोधात्मकवाधव्यतिरेकेण । तदुक्तम्
"तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थसम्यग्धीजन्ममावतः | ___ अविद्या सह कार्येण नासीदास्त भविष्यति ॥१॥ इति । स चायमधिष्ठानात्मक एव, मिथ्याभूतस्य च बाध एव धंस इत्यभिधीयते । अत एव शुक्तिबोधे रजतध्वंसव्यवहारः, न तु शुक्तिबोधेन रजतध्वंसः संभवति, रजतात्पन्ताभावचोघात्मको बाधस्तु शुक्तिज्ञानात्मक एव भवतीति । 'कथं तहिं सर्वदा सत इच्छा, तदर्थेप्रयत्नविशेषो वा : इति चेत् । नास्माकै परेषामिव मुक्तिभिमा, किन्तु चिद्रूपैव, नित्यावाप्तव च, इच्छा-प्रयत्नविशेषौ तु कण्ठगतचामीकरन्यायेनानवाप्सत्वभ्रमात् । तन्निमिचं चाऽज्ञानमेव । न चैवं मुक्तेः पुरुषार्थत्वहानिः, तद्धि न पुरुषकृतिसाध्यत्वम् , विषभक्षणादेरपि तथात्वापत्तेः । नाभिलपितत्वे सति कतिसाध्यत्वं तत् , गौरवात , लाघवेनाभिलषितत्वमात्रस्येव पुरुषार्थत्वौचिस्यात् । चन्द्रोदये पुरुषार्थत्वमिष्टमेव, प्रवृत्तिविलम्बस्तु कृतिसाध्यताधीविलम्पान् । ततः सिद्धं नित्यावाप्तस्यैव कण्ठगतचामीकरवच्चतन्यस्य पुरुषार्थस्वम् । इत्यस्माकं वेदान्तविवेकस. स्वमिति चेत् ?
[ अज्ञाननिवृत्ति अज्ञानात्यन्ताभावरूप है-पूर्वपच ] यदि यह कहा जाय कि-अज्ञान की नित्ति ध्वंसस्वरूप नहीं है क्योंकि रूपान्तर में परिणत उपादान हो सरूप होता है. जैसे. चर्ण के आकार में परिणत मत्तिकाही घरध्वंस है। चैतन्य का कोई रूपान्तर नहीं होता। अतः अज्ञान का ध्वंस नहीं माना जा सकता । किन्तु अजान कल्पित होने से अज्ञान का अत्यन्ताभाव ही अज्ञान को निवृत्ति है। यदि यह प्रश्न किया जाय कि-'यदि अज्ञान की निवृत्ति प्रज्ञान के अत्यन्ताभाव रूप होगी तो अत्यन्ताभाव साध्य न होने से तत्वज्ञान का साध्य क्या होगा?' तो इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है कि अज्ञान के प्रत्यन्ताभाव का बोधप बाथ ही उसका साध्य है। उससे अतिरिक्त उसका कोई साध्य नहीं है। जैसा कि वेदान्तमत में कहा गया है कि 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यों से ब्रह्मा के सम्याज्ञान का जन्म होते ही यह बोध हो जाता है कि विद्या तथा उसका कार्य न पहले कभी था, न वर्तमान में है और न भविष्य में होगा। अर्थात प्रज्ञान का सार्वविक और सार्वत्रिक प्रभाव है। यही अज्ञान का अत्यन्ताभाव है और यह अभाव अधिष्ठानभूत ब्रह्मस्वरूप ही है । इसी को मिथ्या का बाष स्वरूप होने से ध्वंस कहा जाता है।
इसीलिये शुक्तिस्वरूप से शुक्तिविषयक बोध में रजतध्वंस का व्यवहार होता है न कि शुक्तिबोध से रजतध्वंस की उत्पत्ति होती है। रजतात्यन्ताभाव का बोधरूप रजतबाध शुक्तिज्ञानस्वरूप ही होता है। यहां प्रश्न हो कि-'यदि अज्ञानात्यन्ताभावरूप अज्ञाननिवृत्ति यदि ब्रह्मस्वरूप है तब तो वह चैतन्यात्मना सत-सवासिद्ध है फिर उसकी इच्छा अथवा उसके लिये प्रयत्नविशेष कैसे होगा?' तो इसका उत्तर यह है कि नैयायिकादि के समान वेदान्ती के मत में मुक्ति-मुमुक्षु