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॥ अहं ॥ हिन्दी विवेचनालंकृत
स्याद्वादकल्पलताब्याख्याविभूषित जशास्त्रवार्तासमुच्चय॥
अष्टमः स्तबकः
[ व्याख्याकारमंगलाचरणम् ] समवसरणभूमौ रस्म गीर्वाणकीर्णा, सुमततिरतिशोमा जानुघ्नी ततान । जितकुसुपशरास्त्रत्यागपर्थापयन्ती, स जयति यतिनाथ: शहरो वर्धमानः ॥ १॥ स्मरणमपि यदीयं विघ्नवल्लीकुठारः, श्रयति यदनुरागाव संनिघानं निधानम् । तमिह निहतपापच्यापमापद्भिदायामतिनिपुणचरित्रं प्राश्वनाथं प्रणौमि ॥२॥ हंसीव बदनाम्मोजे, या जिनेन्द्रस्य खेलति बुद्धिमांस्तामुपासीत, न कः शुद्धां सरस्वतीम् ॥
[वधमानस्वामी की जय हो ] व्याख्याकार श्री यशोविजयजी महाराज ने अपने पाठवें स्तबक को व्यालमा के प्रारम्भ में दो मंगल पद्यों की रचना की है जिनमें प्रथम पद्य में भगवान महावीर के उत्कर्ष का मङ्गलमय वर्णन किया गया है। इसका भावार्थ यह है कि देवनिर्मित उपदेशपीठ से अलकृत तीन किल्लेमय समवसरण नाम की विशिष्ट रचना की ऊपर की भूमि पर जब भगवान् वाणी बरसाते हैं तो देवगण हर्षातिरेक से उस भूमि पर पुष्पों की वर्षा करते हैं। बरसाई गई पृष्पराशि आनु की ऊंचाई तक पहुँच जाती है और उन पुष्पों से उपवेश भूमि की निरतिशय शोभा का विस्तार होता है। भगवान के आगे प्रसरो हुई पुष्पराशि से ऐसा लगता है कि भगवान ने जो पुष्पधन्वा-कामदेव पर विजय प्राप्त की है उसके कारण उसने आत्मसमर्पण के रूप में अपने समस्त पुष्पास्त्रों का भगवान के सामने त्याग कर दिया है। इस प्रकार पुष्पसमूह से आच्छादित उपदेशमूमि में विराजमान और अहिंसासत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य ओर परिग्रह इन यमों का पालन करने वाले यतियों के स्वामी एवं जगत् के प्राणीमात्र का कल्याण करने वाले वर्षमान भगवान महावीर आत्मोकर्ष के उच्चतम शिखर पर बिराजमान हैं ॥१॥