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[ पार्श्वनाथ भगवान को प्रणाम ] दूसरे यय में उन्होंने भगवान् पाश्वनाथ का अभिवादन किया है जिसका भावार्थ यह है किजिन भगवान् का स्मरणमात्र हो विघ्नों के बेसुमार लतासमूह के लिये कुठार स्वरूप है और जिनके अनुराग से अर्थात् जिसके चरणों में प्रीति करने से सम्पूर्ण निधि सन्निहित होती है, एवं जिन्होंने पाप के प्रसार को पूर्ण रूप से निरज कर दिया है, तथा जिनका चरित्र समस्त प्रापत्तिओं के परिहार में पूर्ण समर्थ है वे भगवान् सारे विश्व के लिये प्रणम्य हैं ॥२॥
[जिनेश्वर वाणी की उपासना ] तीसरे पद्य में व्याख्याकार ने जिनेश्वर की वाणी की सर्वग्राह्यता बतायो है। आशय यह है कि-विशुद्धवर्णा सरस्वती याणी जिनेश्वर भगवान के मुखकमल पर उसी प्रकार क्रीडा करती है जिस प्रकार कमल वन में राजहंसी क्रीडा करती है । भगवान की इस वाणो की उपासना कोन समझदार व्यक्ति नहीं करेगा? वह कि पुद्धिमान मनुका गो भयानके उपदेश-वचनों का अनुसरण करना चाहिये ॥३॥
___इस आठवे स्तबक में वेदान्त मत की समीक्षा की जाने वाली है इसलिये प्रथम कारिका में वेदान्त सिद्धान्त की चर्चा का उपक्रम किया गया है-- वार्तान्तरमाहमूलं-अन्ये त्वद्वैतमिच्छन्ति सद्ब्रह्माविव्यपेक्षया ।
सतो यझेदकं नान्यत्तच्च तन्मात्रमेव हि ॥१॥ अन्ये तु = वेदान्तिनः सब्रह्मव = परब्रह्म व आदिः = सकलव्यवहारकापणं, तद्वयपेक्षया - तदाश्रयणेन, अद्वैतमिच्छन्ति - एकमेव तत्वमुपयन्ति । द्वाभ्यामितं द्वीतं, द्वीते मयं द्वैतं, न द्वैतमद्वमिति योगार्थः । कुतः ? इत्याह-यत् = यस्मात्, सतः = परमब्रह्मणः, अन्यत् = स्वातिरिक्तम्, न भेदकम् । तच = भेदकत्वाभिमतं नीलादि च तन्माः मेव = ब्रह्ममात्रमेव, अनवच्छिन्नस्याकाशस्य घट-पटाद्युपाधिमिरिय, अनवच्छिन्नस्य ब्रह्मणो नीलादिभिभदायोगात् ।
[वेदान्तमत का सिद्धान्त कलाप ] अन्य विद्वान-जो येवों के शोष तुल्य उपनिषद् भाग का परिशीलन करने के कारण 'वेदान्ती' कहे जाते हैं, उनका मंतव्य यह है कि-अद्वैत ब्रह्म ही परमार्थरूप में सत् है। कारण यह कि वह सम्पूर्ण जागतिक व्यवहारों का कारण है, क्योंकि वही सम्पूर्ण जगत् का कारण है। प्रतः उससे भिन्न किसी वस्तु की सत्ता पारमाथिक नहीं है। प्राशय यह है कि ब्रह्म अनादिकाल से अविद्या से संश्लिष्ट है। अविद्या में वो शक्ति होती हैं (१) आवरणशक्ति और (२) विक्षेप शक्ति । आवरणशक्ति से अविद्या ब्रह्म के स्वरूप को आच्छादित कर देती है और यह पाच्छावन वस्तुतः ब्रह्म का न होकर जीव