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स्पा-कटाक्षा एवं हिन्दी विवेचन ।
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अभाव है वही सर्वाभिन्नत्व है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह सर्वाभिनत्य संसारदशा में भी है, तब तो नित्यमुक्तत्व को आपत्ति होगी।
किच, काल्पनिकसर्वतादात्म्येन सर्वज्ञत्वे रथ्यापुरुषस्यापि सर्वज्ञत्वाऽमिमानिनस्तव योगितुल्यत्वं स्थात् | योग्यऽयोगिवृत्तिविशेषोऽपि स्वभावभेदं विना दुर्वचः । मिथ्यास्वभावविशेषाद् विशेष इति तु 'मिथ्या च स्वभावश्च' इत्यत्यन्तन्याहतम् । एतेन "रजी सर्प इव सत्याऽसचाभ्यामनिर्वचनीयत्वाद् मिथ्या प्रपञ्चः" इति निरस्तम् । भ्रान्तिविषयत्वातिरिक्तस्य मिथ्यात्वस्याननुभवात् । "मिथ्यार्थानङ्गीकारे मिथ्याज्ञानस्याप्यङ्गीकस मशक्यत्वे प्राभाकरी न निराक्रियेत" इति तु मन्दप्रलयितम् , मिथ्याज्ञानस्थलीयप्रवृत्यन्यथानुपपत्यैव तमिराकरणादित्यन्यत्र विस्तरः । यदि च ज्ञानगतं मिथ्यात्वं साक्षादेवार्थेऽङ्गीक्रियते तदा ज्ञान विषयसंकरः स्यात् , रजतज्ञानस्यार्थमिथ्यात्वानिमि मिथ्यात्वे च मिथ्यारजतमनुभूतमिति बाधेऽपि मिथ्यात् स्यादिति प्रान्त भ्रान्तिासंकर इति न किञ्चिदेतत् ।
इसके अतिरिक्त यह नातव्य है कि यदि काल्पनिक सर्वतादात्म्य से ब्रह्म को सर्वज्ञ माना जायगा तो रथ्यापुरूष-यानी गलीकुची में भटकने वाला पामर पुरुष भी सर्वज्ञता का अभिमान होने पर वेदान्तमत में योगी के तुल्य हो जायगा, क्योंकि सर्वज्ञता के अभिमानकाल में उस में भी काल्पनिक सर्वतादात्म्य है । इसके उत्तर में यह नहीं कहा जा सकता कि 'योगोगत काल्पनिक सर्वतादात्म्य ही सर्वज्ञता है क्योंकि कौन योगी है-कौन अयोगी है-यह कहना स्वभावभेद के बिना कठिन है। यदि यह कहें कि-मिग्यास्वभावभेद से योगी और अयोगो का भेद सुवच हो सकता है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्वभाव भी है और मिथ्या भी है यह कथन अत्यन्त विरुद्ध है।
'रज्जु में सर्प के समान सत् प्रौर असत रूप में अनिर्वचनीय होने के कारण प्रपच भिध्या है-यह कथन भी निरस्त प्रायः है, क्योंकि भ्रमविषयकत्व से अतिरिक्त मिथ्यात्व अनुभवसिद्ध नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'मिथ्यापदार्थ का अंगोकार न करने पर मिथ्याज्ञान का भी अंगीकार अवश्य होगा अतः प्रभाकर के मिथ्याज्ञान के प्रभाववाद का निराकरण प्रशक्य होगा।' तो यह । कथन मन्दप्रलाप सःश है। क्योंकि प्रभाकर के मिथ्याज्ञान के अभावमत का निराकरण इस आधार पर नहीं किया जाता कि यतः अर्थ मिथ्या है प्रत एव मिश्याज्ञान भी अवश्य है, किन्तु इस आधार पर किया जाता है कि रजतार्थी की शुक्ति आदि के ग्रहण में जो यदा-कदा प्रवृत्ति होती है वह मिथ्याज्ञान को न मानने पर न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-मिथ्याज्ञान यदि अवश्य मान्य है तो मिथ्या विषय भी मानना प्रावश्यक होगा मयोंकि विषय के मिथ्या हये विना ज्ञान मिथ्या नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मिथ्यास्त्र ज्ञान का स्वतन्त्रधर्म है । यदि विषय में भी उसकी कल्पना की जायगी तो ज्ञान और विषय में संकर हो जायगा, क्योंकि दोनों मिथ्या होने से समान हैं। एक बात यह भी है कि यदि रजतज्ञान में अर्थतः मिथ्यात्व होगा तो अर्थरूप निमित्त के मिथ्या होने से मिथ्यारजतमनेनानुभूतम्'='इसने मिथ्यारजत का अनुभव किया। यह भ्रान्ति का ज्ञान भी मिथ्या हो जायगा क्योंकि उसका विषयभूत अनुभव मिथ्या है और विषय के मिथ्यात्व से ज्ञान