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[ शास्त्रवाती स्त० ८ दलो०१०
विषय का स्वरूप कभी परोक्ष और कभी अपरोक्ष नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि परोक्षत्व और अपरोक्षत्व विषय का धार्म न होकर वृत्ति का हो धर्म है, परोक्ष-अपरोक्षवृत्ति का विषय होने से हो विषय में परोक्षस्व और अपरोक्षस्व का व्यवहार होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सभी ज्ञान को जो स्वांश में प्रत्यक्ष माना जाता है उसका विरोध होगा।
यदि यह कहा जाय कि-"वत्ति स्वाफारवृत्ति के बिना भासमान होने से शुद्ध साक्षी द्वारा अपरोक्ष होती है किन्तु घट-वह्नि आदि विषयों में साक्षी प्रयुक्त अपरोक्षता, ज्ञान और अज्ञान के विषयरूप में ठीक उसी प्रकार होती है जैसे नयायिक के मत में घटादि विषय में ज्ञान विशेषणतया मानस प्रत्यक्ष की विषयता होती है। आशय यह है कि मन आभ्यन्तरेन्द्रिय है अत एव वह आत्मा और आत्मा के योग्य विशेष गुणों तथा तमतजाति का ही प्रत्यक्ष जनक है । घटपटादि पदार्थ बाह्य होने से मनोग्राह्य नहीं है अत एव मानस प्रत्यक्ष में घटपटावि का भान स्वत त्ररूप से न होकर ज्ञानादि के विशेषणरूप में ही 'घटमहं जानामि' 'घटज्ञानवान प्रह' इत्यादिरूप में होता है ठीक यही स्थिति वेदान्त मत में घटवह्नचादि बाह्य पदार्थों की है । क्योंकि साक्षिजन्य प्रत्यक्ष में वह भी साक्षिग्राहाजान प्रोर अज्ञान के विशेषणरूप में हो भासित होता है। स्वरूप से भी अर्थात-स्वतन्त्र रूप से भी प्रमाण द्वारा अपरोक्षता घटादि में ही होती है । क्योंकि घट के इन्द्रियसंनिकृष्ट होने पर घटाकार वृत्त्यात्मना प्रमातृचैतन्य का विषय देश में बहिर्गमन होने से विषय और अन्तःकरणरूप उपाधिओं के एक
होने के कारण विषय-चतत्य और प्रमालचतन्य में अभेट होता है। अत: वह वत्तिप्रतिबिम्बितचेतन्यरूप फल का व्याप्य अर्थात विषय होता है। ति आदि का ज्ञान अब अनुमान से होता है तब अनुमानप्रमाण से उसको प्रतिपत्ति होने पर भी उसमें प्रमाणाधीन अपरोक्षता नहीं होती क्योंकि उस दशा में अनुमानजन्य वह चाकारवृत्ति का बहिनिस्सरण हो कर विषय देश में गमन नहीं होता अत एव विषय-चैतन्य और प्रमागृचैतन्य में प्रभेद को अभिव्यक्ति न होने से उसमें फलव्याप्यता नहीं होती। किन्तु तत्त्वमस्यादि शब्द से जब ब्रह्मचैतन्य का बोध होता है तो वही चैतन्य प्रमाता और विषय उभयरूप होने से अभिन्न हो जाता है। अत एव शब्द से उसका बोध होने पर भी उसमें स्वरूपतः अपरोक्षता हो सकती है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पर्वत के चक्षः संनिकृष्ट होने पर भी जैसे पृष्ठदेशविशेष यिशिष्टपर्वत अपरोक्ष नहीं होता उसी प्रकार तत्वमस्यादिवावयजन्यकोष स्थल में प्रमातृचैतन्य और विषयभूतत्वतन्य में ऐवय होने पर भी प्रत्रहत्वादिविशिष्ट चैतन्य अपरोक्ष नहीं होता। क्योंकि अखण्यत्वादि धमों में नैसगिक अपरोक्षयोन्यता नहीं होती। यदि प्रमाता और विषय के अभेदमात्र से यदि तत्त्वमस्यादिशब्दजन्यबोध को अपरोक्षज्ञानरूप माना जायगा तो शान सामग्रीरूप हेतु से जो 'अहं ज्ञानवान्' इस प्रकार प्रहमर्थ में ज्ञान की अनुमिति होती है उसको अनुमितिरूपता का उच्छव हो जायगा क्योंकि उस ज्ञान के भी विषय और प्रमाता में ऐक्य होने से उसमें भी अपरोक्षज्ञानरूपता अपरिहार्य होगी। इसके अतिरिक्त विषयअंश में प्रतीयमान स्पष्टता यदि जान का धर्म होगा तो सभी ज्ञान में स्पष्टता का प्रसङ्ग होगा। प्रत एष सभी ज्ञान के अपरोक्ष हो जाने से कोई भी ज्ञान परोक्ष न होगा।
__ यदि यह कहा जाय कि-"विषय में जो स्पष्टता का व्यवहार होता है उसका निमित्त होता है व्यवहार के कारणीभूत ज्ञान की स्पष्टता । अर्थात् जो व्यवहार स्पष्ट ज्ञान से होता है वह व्यवहीयमाण पदार्थ की स्पष्टता को विषय करता है। इसीलिये जब किसी विषय के प्रत्यक्षशान से उस