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[ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो० १ प्रतीतिः घटज्ञानेन चावरणान्तनिवृत्तिः। अस्मिन्नपि पक्षे मूल ज्ञान कार्यमेव रजतम् , आवरणसंसर्गपक्षवद् वाधव्यवहार ।
{ 'अनाठो घटः' इसकी उपपत्ति में तीसरा पक्ष ] अथवा यह कहा जा सकता है कि-'अहं मां न जानामि' इस प्रकार जिस चैतन्यनिष्ठ मूलाज्ञानजन्य आवरण का अनुभव होता है वह एक भिन्न ही आवरण है जिसको निवृत्ति 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यों से आत्मतत्व का अपरोक्ष ज्ञान होने पर ही होती है। किन्तु मूलाज्ञामजाय उससे भिन्न एक और भी प्रावरण है जो घटावद्यपिछन्न चतन्य में आश्रित होता है। उसीसे घटादि विषयों में अज्ञानविष्यता की उपपत्ति होती है क्योंकि घटावच्छिन चैतन्य में मूलाज्ञानजन्य वरण रहता है और उसी तन्य में घट भी प्रध्यस्त है। प्रतः घट के जड होने से उसमें प्राधरण का अभाव होने पर भी चैतन्यगत अवरण का दूरविप्रकर्ष-वैशिकविप्रकर्ष न होने से घर में भी उस प्रावरण की विषयता हो जाती है। प्रतः चैतन्यमात्रनिष्ठावरण से भिन्न जो घटाधवस्छिन्न चिद् में मूलाज्ञानअ.न्यावरण होता है उसके द्वारा 'अज्ञातो घटः' इस प्रतीति को उपपत्ति हो सकती है। इस प्रावरण की निवत्ति घटादि ज्ञान से होती है। इस पक्ष में भी शक्तिरजतादि मलाज्ञान काही कार्य है इस पक्ष में उसमें बारव्यवहार भी उसी प्रकार उपपन्न होता है जिस प्रकार शुक्त्यादि में चैतन्यमात्रनिष्ठाज्ञानावरण का अनिर्वचनीय संसर्ग के अभ्युपगम पक्ष में होता है। प्राशय यह है कि शक्त्यवच्छिन्न चैतन्यगत प्रावरणविशिष्ट मूलाज्ञान रजत का उपादान होता है प्रतः शुक्ति ज्ञान होने पर शुवस्यवच्छिन्न चेतापरत आवरण की नियत्ति होने पर उक्तावरणगि शिष्ट मूलाजान को भी निवृत्ति होती है। अतः शुक्तिरजतोपधायकोपादान के साथ शक्तिरजत को निवृत्ति होने से शषितरजत बाधित होता है।
अथवा 'अज्ञातो घटः' इति प्रतीतिस्तूलाज्ञान विषया, सबिलासाज्ञाननिवृत्तिर्वाधः, अज्ञाननिवर्तकं ज्ञानं प्रमाणम्, 'इममर्थ पूर्व ज्ञातवान् , इदानीं न जानामि' इत्यादि व्यवहारसौकर्याय तत्स्वीकारात् । तूलासानानि च मूलाज्ञानकार्याणि, तच्छक्तिविशेपा एव तानि अत एवाऽनादित्वात् तेषां "अनादिभात्ररूपं जाननिवत्यमझान' इति लक्षणयोगात' इत्यन्ये ।
[ 'अज्ञातो पटः' इसकी उपपत्ति में तूलाज्ञानवादी का पक्ष ] . अथवा यह भी कहा जा सकता है कि अज्ञान दो प्रकार का होता है-१ मूलाजान और २तुलाज्ञान । चिन्माविषयक-अमच्छिन्नचैतन्यविषयक प्रज्ञान मूलाज्ञान होता है जो हा साक्षात्कार से ही निवृत्त होता है । अवच्छिन्न चैतन्यविषयक अज्ञान तूलाज्ञान होता है, जो अवस्छेदकोभूत घटादिविषयों के ज्ञान से निवृत्त होता है। जैसे टूल शीघ्र दग्ध हो जाता है-उसी प्रकार अवच्छेदकीभूत विषयों के ज्ञान से ब्रह्मसाक्षात्कार के पूर्व ही नष्ट हो जाने से वह तुलाज्ञान कहा जाता है। इन अज्ञानों में तूलासान हो 'अ.तो घटः' इस प्रतीति का विषय होता है । जब घट का प्रमाणभूत इ.ान उत्पन्न होता है तब वह प्रमाणज्ञान अज्ञान का निवर्तक हाने से उसान से 'अज्ञातो घटः' इस प्रतीरिरूप कार्य के साथ तुलाजान को निवृत्तिरूप बाद हो जाता है। यह ज्ञातव्य है कि मूलशान है भिन्न