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[ शास्त्रवार्ता हत०८ इलो० ३
तदिदमात्मज्ञानमुत्पन्नमात्रमेवानन्तजन्मार्जितकर्माशि विनाशयति, " चीयन्ते चास्य कर्माणि ०" इति श्रुतेः । तेन कर्मक्षयार्थे न कायव्यूहकल्पना, 'स एकधा भवति' 'स त्रेधा' इत्यादिवाक्यानामुपासकविषयत्वात् । न च देहनाशप्रसङ्गः, प्रारब्धप्रतिबन्धात्, 'तस्य तावदेव चिरं यावद् न विमोक्ष्ये, अथ संपत्स्ये' इति श्रुत्याकर्मविपाकेनाऽप्रारूप निवृत्तावपि सस्य ज्ञानाऽनिवर्त्यत्वाभिधानात् । तस्यां चावस्थायां प्रारब्धफलं भुञ्जानः सकलसंसारं बाधितानुवृया पश्यत् आरमाराजे विधिनिधिकारमात्रात् सदाचारः प्रारम्भक्षयं प्रतीक्षमाणो 'जीवन्मुक्तः' इत्युच्यते । अस्य च प्रारब्धतो जन्मान्तरमपि । अत एव सप्तजन्मविप्रत्व कर्मण प्रारब्धे उत्पन्न तत्वज्ञानस्य पुनर्देहान्तरं, प्रारब्धस्य ज्ञानाऽनाश्यत्वादिति केचित् ।
[आत्मज्ञान से कर्मबन्धनों का विनाश ]
उक्त रीति से अर्जित श्रात्मज्ञान उत्पन्न होता है, वह उत्पन्न होते ही अनन्त जन्मों से अर्जित कर्मराशि को नष्ट कर देता है। जैसा कि कहा गया है-
मिद्यने हृदयग्रन्थिः छिद्यते सर्व संशयः । क्षीयन्ते चाऽस्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ||
अर्थ::-परावर जिससे परब्रह्मभिन्नत्वरूप से ज्ञायमान समस्त पदार्थ अवर अपकृष्ट है, अथवा अवर= जिससे कोई चर= श्रेष्ठ नहीं है, एवम्भूत पर यानी इन्द्रिय-वाणी और मन का जो अविषय है उस ब्रह्म का दर्शन प्रखण्ड साक्षात्कार होने पर दृष्टा के हृदय को गांठ - अन्तःकरण के साथ आत्मा का आध्यामिक तादात्म्य छूट जाती है, और सभी संशय निवृत्त हो जाते हैं, तथा समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं ।
यतः आत्मतत्त्वज्ञान से ही सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, प्रत एव कर्मक्षय के लिये भोग की अपेक्षा न होने से तस्वज्ञानी को, भोग द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का युगपद् नाश करने के लिये, कायव्यूह = अनेक विलक्षण शरीरों की रचना को आवश्यकता नहीं होती । 'स एवधा भवति', 'स त्रेधा भवति' इत्यादि श्रुतिवचन जो साधक को दो तीन रूप में अवस्थित होने का निर्देश करते हैं यह तत्वज्ञानी के सम्बन्ध में नहीं, किन्तु उपासक यानी सगुण ब्रह्म की उपासना करने वाले के सम्बन्ध में है ।
[ तत्रज्ञान के बाद त्वरित देहनाश में प्रारब्ध का प्रतिबन्ध ]
यह शंका कि आत्मस्वज्ञान से ही सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने पर तत्त्वज्ञान होते ही 'तत्त्वज्ञानी के देहनाश की प्रसक्ति होगी' नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रारम्भकर्य का आत्मलत्य के ज्ञान से नाश नहीं होता, श्रतः प्रारब्ध कर्म से बेहनाश का प्रतिबन्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि उबत श्रुति तत्त्वज्ञान को प्रारम्यकर्मों से भिन्न समस्त कर्मों का ही नाशक बताती है। क्योंकि ऐसा न मानने पर 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म फल्पकोटिशतैरपि = भोग किये बिना सेकड़ों कल्पों (युगों) में भी कर्म