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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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वाले चार्वाक के प्रति अनुमान द्वारा बाध का उपन्यास निष्फल होता है, क्योंकि अन्य अनुमानों के समात गवक रूप से उपन्यस्यमान अनुमान में भी उसे मिथ्यात्व अभिमत है । उसी प्रकार प्रपश्वमात्र में मिथ्यात्व का साधन करने वाले अद्वैतवादी के प्रति भी प्रत्यक्ष से बाघ का उपन्यास सफल नहीं हो सकता। क्योंकि जो प्रत्यक्ष बायकत्वेन उपन्यस्त होगा वह भी प्रपश्चान्तर्गत होने से अद्वैतवादी को इसमें भी मिथ्यात्व का साधन अभिप्रेत है।' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रपञ्च में मिथ्यात्वसाधन के लिये उपन्यस्तअनुमान भी मिथ्या होने से असाधक होगा। अत एव मिथ्यात्वसाधन के लिये उसका उपन्यास युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि'प्रपञ्च में मिथ्यात्व का साधक यह अनुमान हो प्रपत्र में सत्त्वग्राही प्रत्यक्ष का बाधक है- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षबाध का परिहार होने पर ही इस अनुमान में प्रामाण्य सिद्ध होगा
और अनुमानप्रामाण्य सिद्ध होने पर हो प्रत्यक्षबाध का परिहार होगा। अतः इस अनुमान में प्रत्यक्षबाधकता का प्रभ्युपगम परस्पराश्रयदोष से ग्रस्त है । इतना ही नहीं, अपितु प्रपञ्च को मिथ्या मान लेने पर प्रपञ्च में सत्त्वग्राही प्रत्यक्ष अन्यथासिद्ध न हो सकने से प्रत्यक्ष हो अनुमान का बाधक होगा, क्योंकि यह स्प है कि यदि प्रपञ्च में सत्त्व नहीं माना जायगा तो प्रपञ्च में सत्त्वग्राही 'घट: सन' इत्यादि प्रत्यक्ष को उपपत्ति ही न हो सकेगी, क्योंकि सत्व के विना मी सवनाकार प्रत्यक्ष मानने पर शशशशृंग में भी सबआकार प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। एवं मिथ्यात्व के बिना भी दृश्यत्व न्यायमत के समान वेदान्तमत में उपपन्न हो सकता है। अतः दृश्यत्वसाधक अनुमान प्रत्यक्ष को अपेक्षा दुर्बल होने से उसको प्रत्यक्षबाध्य होना अनिवार्य है।
___हेतुपि दृश्यन्त्र हस्पियत्त्वरूपमनिरुक्तिपराहतम् , तथाहि-तद् यदि दृग-दृश्यस्वरूपसंबन्धविशेषः, तदोमय संघन्धिरूपस्य तस्य मिथ्यात्वे उभयोपि मिथ्यात्वम् , सत्पत्वे थोमयोरपि सत्यत्वं स्यात् । यदि च दृगभेदः, तदा पत्ते तदसिद्धिः, दृशि च व्यभिचारः । यदि च 'दृष्टो घटः' इत्यादिधीसाक्षिको विषयतापरपर्याय आध्यामिको दृगमेदस्तदा प्रतिवाद्यसिद्धिा, वादिनो हग्-दृश्याभेदे भागासिद्भिश्च, आध्यासिकदृगभेदे दृगभेदान्तरस्यानवस्थापत्तिभिया वादिनाध्यनङ्गीकारात् । विरुद्धत्वं च, दृश्यत्वस्य मिथ्यात्वाभावव्याप्तत्वादिति न किञ्चिदेतत् ।
तदेवं व्यवस्थितमेतत्-प्रतीत्यनुरोधेन नाऽद्वैतमेव तत्त्वम्, किन्तु प्रपञ्चोऽपि ब्रह्मवन् परमार्थपन्न वेति ॥ ७॥
[दृश्यत्व हेतु में दोष की परम्परा ] हेत के सम्बन्ध में विचार करने पर हेतु भी निर्दोष नहीं प्रतीत होता क्योंकि दृश्यत्वरूप हेतु को यदि हरिवषयत्वरूप माना जायगा तो विषयत्व का निर्वचन न होने से हेतु का बोध अशक्य हो जायगा-जैसे दृग्विषयत्व यदि दृक्-दृश्य का स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप माना जायगा तो उभयसम्बन्धीरूप सम्बन्ध मिथ्या होने से उभयसम्बन्धी में भी मिथ्यात्व को प्रसक्ति होगी। फलतः दृश्य के समान हग भी मिथ्या हो जायगा। यदि उभयस्वरूपसम्बन्ध को सत्य माना जायगा तो दो. सम्बन्धी में सत्यत्व होने से दृश्य भी सत्य हो जायगा। यदि विषयत्व को हमेदरूप माना जायगा तो प्रपञ्च में दृग का अमेव न होने से हेतु की प्रसिद्धि होगी और हग् में मिथ्यात्व न रहने से