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[ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो० ७
अतः वेदान्तमत में भी कोई दोष नहीं हो सकता'-तो यह टोक नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्म इयस्वभाव नहीं है अत एव उसमें द्वित्व का अभ्युपगम नहीं हो सकता। यदि द्वयस्वभाव माना जायगा तो एकानेकारमक वस्तु का अङ्गीकार हो जाने से जैन मत का आश्रयण प्रसक्त होगा । जैसा कि ग्रन्थकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने ही अन्यत्र कहा है कि ब्रह्म में विभागनानात्व की कल्पना ही जैन सम्मत नीति में पर्यवसित हो जाती है। क्योंकि एकवस्त की अनेकात्मकता जैनों की ही नीति है।
एतेन 'अज्ञानतद्विषयतोपाध्यवच्छिन्नत्वेन चैतन्यस्य जीश्वेश्वरत्व विभागः' इत्यपि मतं निरस्तम, स्वभावतोऽनवच्छिन्नस्योपाधिमहस्रणाप्यवच्छेत्तमशक्यत्वात् , आकाशेऽपि घटायच्छिम्भवम्य चित्रस्वभावत्व एव सुवचत्वात , अन्यथा तत्संवन्धाऽनिरुक्तेः, अवच्छिना. ऽनच्छिन्नस्वभावब्रह्मोपगमे च परमताङ्गीकागत, स्वनीत्याऽनिर्मोक्षापाताच्चेति । न चावच्छिन्नत्वं विभागरूपमवास्तवम् , अनवच्छिन्नत्वं त्वविभागरूपं वास्तवमिति युक्तम् , विपर्यय. स्यापि सुवचत्वात , अन्यथा "यथा यथाऽर्याश्चिन्त्यन्ते विशीयन्ते तथा तथा" इति व्यामोहेन शून्यताया एवापत्तेरध्यस्ताविद्यमानरूपप्रकाशोपगमेऽधिष्ठानस्याप्यनावश्यकत्वात् , व्यवहार दृष्टी चैकानेकरूपस्यैव घटपानत्वात् ।
[ उपाधिभेद से जीय-ईश्वरविभाग की अनुपपत्ति ] ___अज्ञानात्मकोपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ईश्वर और अज्ञानविषयतात्मकोपाधि से प्रवच्छिन्न चैतन्य जीव-इस प्रकार जोव और ईश्वर के विभाग का समर्थक मत भी निरस्त प्रायः है क्योंकि चैतन्य स्वभावतः अनयच्छिन्न है अत एव सहन उपाधि मिलकर भी उसको अवच्छिन्न नहीं बना सकती। आकाश में जो घटाद्यवच्छिन्तत्व माना जाता है वह मी आकाश को प्रनवछिन्नस्वभ पर नहीं उपपन्न हो सकता किन्तु उसे चित्र-स्वभाय अस्तिकाय' अर्थात् प्रदेशसमूहात्मक मानने पर उपपन्न हो सकता है। अन्यथा आकाश को चित्र स्वभाव न मानने पर उसके साथ घटादि के सम्बन्ध का भी निर्वचन नहीं हो सकता । यदि ब्रह्म को अवच्छिन्न-अनच्छिन्न उभय स्वभाव माना जायगा तो वस्तु को परस्पर विरुद्ध अनेक स्वभावात्मक मानने वाले जैनमत के स्वीकार की प्रापत्ति होगी और वेदान्तनोति के अनुसार मोक्षाभाव की भी प्रापत्ति होगी क्योंकि वेवान्त की यह नीति है कि जिस वस्तु का स्वभाव होता है वह वस्तु कभी उससे मुक्त नहीं होती। अत: यदि अबच्छिन्नत्व अह्म का स्वभाव होगा तो कभी निवृत्त नहीं होगा। अतः ब्रह्म की प्राज्ञानाद्यवच्छिन्नता शाश्वत होने से मोक्षाभाव का प्रसंग दुनिबार होगा ।
[ वास्तव-अवास्तव की प्रमाणशून्य कल्पना अनुचित ) यदि यह कहा जाय कि-"ब्रह्म में प्रज्ञानादि का प्रवछिन्नत्व विभागरूप भेवरूप है और वह प्रवास्तव है; और अनवच्छिन्नत्व अविभावरूप-अभेदरूप है और वह वास्तव है। अतः उपाय द्वारा अवास्तव को नियत्ति होने से मोक्षाभाव की प्रसक्ति नहीं हो सकती"-तो यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि जब विना प्रमाण ही कुछ कहना है तो इसके विपरीत भी कहा जा सकता है कि अभेदरूप अनवच्छिन्नत्व अवास्तव है और मेवरूप अवच्छिन्नत्व ही धास्तव है। अतः इन सब कल्पनाओं का