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[ शास्त्रया० स्त०८ श्लो०३
विशेष्यांशमात्रोपस्थित्यर्थं तदादरात् । न च शक्तिजन्ययैवोपस्थित्या विरुद्ध प्रकारांशपयुदासेनान्वयः, 'गौनित्यः' इत्यादावपि भागलक्षणोच्छेदात् । 'तत्र विशेषणत्वेनोपस्थितस्य न नित्यत्वान्वययोग्यता' चेत् १ अत्रापि जीवत्वेश्वरत्वाभ्यामपस्थितयो ऽभेदान्वययोग्यतेति तुल्यम् ।-'गोत्वं नित्यम्' इति चोधानुरोधात् तत्र विशेष्यतयोपस्थित्यर्थ लक्षणादर इति चेत् ? अत्रापि विशेष्यतयोपस्थितयोविशेष्याशयोरमेदः संसर्गविधया भायात, इष्टं पाऽखण्डार्थत्वम् , इति लक्षणयैव शुद्धवस्तूपस्थितिः । अत एव निर्विकल्पको वाक्यार्थबोधः, पदार्थस्यैव वाक्याथेत्वात् । न च वाक्यवैयर्थ्यम, पदस्याऽप्रामाण्यात् , बास्योत्थयोधमन्तरेण भेदभ्रमाऽनिवृतेश्च । न हि सः' इति 'अयम्' इति च देवदत्तस्वरूपमात्र विवक्षया प्रयुक्तपदजन्यबोधाद् भेदभ्रम. निवृत्तिः, 'सोऽयम्' इति वाक्याच्च भवति सेति ।
[विशेष्यरूप वाच्यएकदेश में तत्-त्वम् पदों की लक्षणा ] उक्त लक्षणा यानी 'तत्त्वमसि' इस वाक्य से अखण्डार्थप्रतीति के लिये अपेक्षित लक्षणा उस वाक्य के तत और स्वम दोनों पक्षों में होती है और वह भी उन दोनों पक्षों के अर्थों में विशेषणांश को त्याग कर उन पदों के वाच्यार्थ के विशेष्यात्मक एकदेशा चिन्मात्ररूप अर्थ में। क्योंकि यदि दोनों पदों की निमात्र में लक्षणा नहीं मानी जायगी तो चिन्मात्रस्वरूप प्रखण्डार्थ की प्रतीति नहीं हो सकेगी। और त्वम् पवार्थ और तत् पदार्थ के अमेव को अनुपपत्तिरूप लक्षणाबीज का भी समाधान नहीं होगा । विशेषणांश को छोड़कर विशेष्यमात्र में होने वाली यह लक्षणा ही जहदजहरुलक्षणा या भाग (त्याग) लक्षणा कही जाती है। जहवजहल्लक्षणा की व्युत्पत्ति है-'जहती चाऽसौ अजहतीच इति जहदजहतो, जहदजहती चासो लक्षणा चेति जहवजहल्लक्षणा ।'-अर्थात वाच्यार्थ के यत्किश्विद् एक अंश का त्याग करने वाली और वाच्यार्थ के अन्यर्थ का त्याग न करने वाली लक्षणा । भागलक्षणा का अर्थ है-भाग में-एकदेश मात्र में लक्षणा।
[ शक्ति से शुद्ध चैतन्य की उपस्थिति का असंभव । इस लक्षणा के विरोध में यह शंका होती है कि 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में तत और त्वम् पद की, विशेषण को छोड़कर केवल चैतन्यमात्र में शक्ति मानना आवश्यक है क्योंकि अभेद के अन्वयी दोनों पदार्थों का घटक चैतन्यमात्र है और उसकी उपस्थिति भी उन पदों की शक्ति से होती है। यद्यपि शक्ति में विशेषणांश भी उपस्थित होता है किन्तु उन दोनों पदार्थों के घटक विशेषणों में अभेदा अनुपपन्न है । अत एव उनमें अभेदान्वय न होकर विशेष्य में ही अभेदान्वय होता है अतः लक्षणा का काई प्रयोजन नहीं है।"-किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि जोवत्व और ईश्वरत्व परस्पर में भिन्न होने से उन दो रूप से उपस्थित अर्थों में अभेदान्वय नहीं हो सकता। अतः विशेषणों में अमेव न
से विशिष्ट में भी अभेव नहीं हो सकता। क्योंकि. विशिष्ट यह विशेषण और विशेष्य से भिन्न न होने के कारण कोई भी वस्तु विशेषण में अवृत्ति होकर विशेष्यमात्र में वृत्ति नहीं हो सकती। इसलिये विशेष्यांशमात्र की उपस्थिति के लिये लक्षणा का आदर आवश्यक है।