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[ शास्त्रया ० स्त०८ श्लो० २
ननु कथमेतत् ? 'इदं रजतं' इत्यत्रेदमंशस्य प्रमाणतोऽपरोक्षत्रस्य, रजतांशस्य च रजताकागऽविद्याश्या साक्ष्यपरोक्षत्वस्येव, अत्र केशादिसंकीर्णतांशेऽविद्यावृत्या साक्ष्यपरोक्षत्वेऽप्याकाशाशे घटवत्स्वावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्यप्रमातृचतन्यामेदाभिव्य मकवृत्त्यभावेन प्रमाणतोऽपरोक्षवाजीवेऽनध्यस्तत्वेन च सुखादिवत् सान्यपरोक्षस्खायोगात्' ? इति चेत् ? अत्रयदन्तियथा केवलसादगम्यस्थापनानाजसादः प्रामाणिकमावत्व-मिथ्यात्वादिधर्मपुरस्कारेण प्रमाणगम्यत्वम् , एवं प्रामाणिकस्यापि नभसः केवलसाक्षिवेद्यसंकीर्णताधर्मपुरस्कारेण केवल साक्ष्यपरोक्षत्वम् , नभःसंकीर्णतावगाय काविद्यावृत्तिप्रतिफलितसाक्षिणा संकीर्णतायास्तदाश्रयतया नभसश्च विषयीकरणात् ।
[आकाश की अपरोक्षता किस प्रकार ?] इस दृष्टान्त के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि केश-मक्खी प्रावि से संकीर्ण आकाश को देखना कैसे सम्भव हो सकता है ? क्योंकि देखने का अर्थ है अपरोक्ष अनुभव करना। किन्तु जिस प्रकार 'इदं रजतम्' इस शुक्तिरजतज्ञान के प्रसङ्ग में इयमंश की प्रमाण द्वारा और रजतांश को अविद्या सम्बन्धी रजताकार वृत्ति द्वारा साक्षिप्रयुक्त अपरोक्षता होती है उस प्रकार केशादि से संकीर्ण आकाश को अपरोक्षता नहीं हो सकती। क्योंकि केशादि की संकीर्णता की प्राकाश में विद्यावृत्ति से साक्षिप्रयुक्त अपरोक्षता सम्भव होने पर भी प्रकाश की अपरोक्षता नहीं हो सकती। क्योंकि अपरोक्षता दो ही प्रकार से होती है-प्रमाण द्वारा अथवा साक्षि द्वारा। प्रमाण द्वारा अपरोक्षता उस समय होती है जब विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य और प्रमातृचैतन्य के अभेद को अभिव्यक्त करने वाली प्रमाणजन्यवृत्ति होती है-जैसे घट को चक्षुजन्य अन्तःकरणत्ति का घटदेश में बहिर्गमन होने पर वृत्त्यात्मना प्रमातृचैतन्य अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्य का भी विषयदेश में संनिधान हो जाने से घटावच्छिन्न चैतन्य एवं प्रमातृवेतन्य के अभेद की अभिव्यक्ति होकर घट की अपरोक्षता होती है- किन्तु प्राकाश के सम्बन्ध में यह सम्भव नहीं है। क्योकि प्रकाश चक्षु के अयोग्य है, अत एवं प्राकाश को चक्षुर्जन्य अन्तःकरणवृत्ति असम्भव है, इसलिये आकाश को प्रमाणतः अपरोक्षता असम्भाग्य है । साक्षि द्वारा भी उस की अपरोक्षता नहीं हो सकती क्योंकि साक्षि द्वारा वही वस्तु अपरोक्ष होती है जो जीव में अध्यस्त होती है-जैसे जीव में अध्यस्त सुख-दुःखादि। किन्तु आकाश बाह्मवस्तु होने से जोव में अध्यस्त नहीं है।
[ केवल साक्षि द्वारा आकाश की अपरोक्षता ] इस प्रश्न के उत्तर में वेवान्ती विद्वानों का कहना है कि जैसे अज्ञान और शुक्तिरजतादि केवल साक्षिगम्य होता है तथापि भावत्व-मिथ्यात्वादि प्रामाणिक धर्मों द्वारा प्रमाणगम्य भी होता है, उसी प्रकार प्रामाणिक प्रकाश केवल साक्षीवेद्य केशादिसंकीर्णतारूप धर्म के साथ केवल साक्षिद्वारा अपरोक्ष हो सकता है, क्योंकि आकाश में केशादिसंकीर्णता वियषक एक अविद्यावृत्ति में प्रतिबिम्बित साक्षोसंकीर्णता को और संकीर्णता के आश्रयरूप में प्राकाश को विषय कर सकता है।
नन्वेवमविद्यावृत्तिविषयतया साक्षिविषयीकृतत्वाद् भ्रमानुमिताविवापरोक्षत्वं न स्यादिति चेत् ?