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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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होने से उसे सत्य मानने पर गौरव होगा" यह कथन विपरीताभिधान है, क्योंकि अनेकभेद में मिथ्यात्वकल्पना की अपेक्षा एक अभेद में ही मिथ्यात्व की कल्पना उचित है। यदि ऐसा न माना जायगा तो सम्पूर्ण पदार्थ में सम्मान के अभेद का निश्चय होने से कालभेद भी नहीं होगा तब अतीत. वर्तमान उभयकालावगाही प्रत्यभिज्ञात्मक सोऽयम' इस प्रकार की बुद्धि भी न हो सकेगी। यदि कालातिरिक्तमात्र में हो सन्मान का अभेव मानकर कालभेद का अभ्युपगम किया जायगा तो घट और पट में भी 'सोऽयम्' इस प्रकार की प्रतीति का अनिष्ट होगा।
[अनुगत न होने से भेद अपारमार्थिकता की शंका का उच्छेद ] यदि यह कहा जाय कि-"सपता एतदेशस्थ तथा देशान्तरस्थ सभी घटादि पदार्थ में अनुगत होने से पारमाथिक है किन्तु भंद पारमाथिक नहीं है, क्योंकि उसकी प्रच्युति यानी प्रतियोगी से व्यावृत्ति होती है, अतः वह अनुगत न होने से पारमाथिक नहीं हो सकता "-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो वस्तु सत्ता से प्रच्युत हो जाती है अर्थात् निवृत्त हो जाती है, उस में सत्ता नहीं होतो, अत: सत्ता भी अनुगत नहीं है । अत एव अनुगत न होने के नात उस पारमाथिक नहीं कहा जा सकता। यदि सत्ता को अमगतत्वेन गहीत होने से अनगत माना जायगा तब तो यह प्राति अनुगतत्व होगा जो भेद में भी सम्भव है । अतः अनुगतत्व प्रतिभास के बल से सत्ता में पारमाथिकत्व और घटादि भेवों में अपारमायिकत्व का अभ्युपगम नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार 'सोऽयं' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा से भी सन्धियी सदूपता की सिद्धि नहीं हो सकतो, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा का निरास किया जा चुका है । यह कह कर पर्यायास्तिकनयानुसारी विद्वान् सत्ताऽद्वैतवादी वेदान्ती का गला पकड़ लेता है तब वह किस दिशा में जाय इसका निर्णय न कर सकने से कांदिशीक बन कर किसी भी दिशा में जाने में अर्थात् अपने पक्ष में उद्भावित दोष का परिहार करने में असमर्थ हो जाता है।
किञ्च, सद्पत्वं ज्ञाने घटादिना सहैवानुभूयते, तत्र प्रमाणत्वेन सच्चाश्रयत्वे विषयं विना ज्ञानस्वरूपाऽप्रतिभासनाद् विषय एव सत्त्वं किं नोपेयते १। ज्ञानस्य सर्वत्रानुगतत्वेन स्वसत्तास्कोरकत्वे विषयस्यापि सामान्यतस्तथात्वेन तवस्य सुवचत्यात्, नीलायाकारणाननुगतत्वस्य चोभयत्र तुल्यत्वात् । एवं विषयं विनाऽभासमानस्य ज्ञानस्योषाधिभेदं विनाविभाव्यमानभेदत्वकल्पनेऽपि विषये तथाकल्पनं सुवचम् । प्रतीतिपरित्यागेन लाघवानुगेधे तु निराश्रयमेव सत्वं कल्प्यताम् ।
[विषय में सत्व की कल्पना अनिवार्य ] उसके अतिरिक्त दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि ज्ञान में सदूपत्व का अनुभव घटादि के साथ ही होता है, जैसे-'घटज्ञाने सत्' 'पटज्ञानं सत्' इत्यादि और यह अनुभव ज्ञान को सत्रूपता में प्रमाण होने से यदि ज्ञान को ही सत्ता का आश्य माना जायगा तो यह प्रश्न स्वाभाविक है कि विषय में हो सत्ता क्यों न मानी जाय? क्योंकि विषय के विना ज्ञानस्वरूप का भान होता नहीं, अतः विषयविनिमुक्त ज्ञानमात्र में ससा के अभ्युपगम में कोई युक्ति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि "ज्ञान सर्वत्र अनुगत है, अर्थात् ज्ञान ज्ञानात्मकसामान्यरूप से सब विषयों से सम्बद्ध है, अत एव यह सब विषयों के साथ स्वयं ही अपनी सत्ता की सिद्धि में प्रयोजक होता है"- तो यह बात विषय के सम्बन्ध