Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
26s
शतिहास 21
राष्ट्रकूटों (राठोड़ों)
इतिहास प्रारम्भ से लेकर रावशीहाजी के मारवाड़ मेंआने तक:
133
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेफ्टिनेन्ट कर्नल हिज़ हाइनैस राजराजेश्वर सरमद राजाए हिन्द महाराजाधिराज श्री सर उम्मेदसिंहजी साहब बहादुर जी. सी. आइ. ई., के. सी. एस. आइ.,
के. सी. वी. ओ., महाराजा साहब,
जोधपुर.
Shree Sudhammaswami Gyanbhandan
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों (राठोड़ों)
का
इबिहास
[प्रारम्भ से लेकर राव सीहाजी के मारवाड़ में आने तक]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों
( राठोड़ों )
का
इतिहास
[ प्रारम्भ से लेकर राव सीहाजी के मारवाड़ में आने तक ]
लेखक
पण्डित विश्वेश्वरनाथ रेउ,
सुपरिन्टेन्डेन्ट प्राकियॉलॉजिकल डिपार्टमेन्ट, और सुमेर पब्लिक लाइब्रेरी, ओधपुर.
जोधपुर, चर्कियॉलॉजिकल डिपार्टमेन्ट,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१६३४.
www.umaragyanbhandar.com
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोधपुर दरबार की आज्ञा से प्रकाशित
प्रथम संस्करण कीमत रु० - २).
जोधपुर गवर्नमेन्ट प्रेस, जोधपुर में छापा गया.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूमिका
इस पुस्तक में पहले के राष्ट्रकूटों (राठोड़ों), और उनकी प्रसिद्ध शाखा कन्नौज के गाहड़वालों का (विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के तृतीय पाद में ) राव सीहाजी के मारवाड़ की तरफ़ आने तक का इतिहास है। ____ इस वंश के राजाओं का लिखित वृत्तान्त न मिलने से यह इतिहास अबतक के मिले इस वंश के दानपत्रों, लेखों, और सिकों के आधार पर ही लिखा गया है । परन्तु इसमें उन संस्कृत, अरबी, और अंगरेजी पुस्तकों का, जिनमें इस वंश के नरेशों का थोड़ा बहुत हालं मिलता है, उपयोग भी किया गया है। यद्यपि इस प्रकार इकट्ठी की गयी सामग्री अधिक नहीं है, तथापि जो कुछ मिली है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि, इस वंश के कुछ राजा अपने स्त्रय के प्रतापी नरेश थे, और कुछ राजा विद्वानों के आश्रयदाता होने के स.थ ही स्वयं भी अच्छे विद्वान् थे।
इनके समय का विद्या, और शिल्प सम्बन्धी कार्य आज भी प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता है। ___ इनके प्रभाव का पता उस समय के अरब यात्रियों की पुस्तकों से,
और मदनपाल के मुसलमानों पर लगाये "तुरुष्कदण्ड" नामक ( जजिया के समान ) 'कर' से पूरी तौर से चलता है। ____ इस वंशकी दान शीलता भी बहुत बढी चढी थी। इन नरेशों के मिले दानपत्रों में करीब ४२ दानपत्र अकेले गोविन्दचन्द्र के हैं । इस वंश की दानशीलता का दूसरा ज्वलन्त प्रमाण दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग ) द्वितीय के, शक संवत् ६७५ (वि. सं. ८१० ई. स. ७५३) के, दानपत्रे का निम्नलिखित श्लोक है:
मातृभक्तिः प्रतिग्राम ग्रामलक्षचतुष्टयम् ।
इदत्या भृमदामानि यस्य मात्रा प्रकाशिता ॥१६॥ (१) सर पार. जी. भण्डारकर का बॉम्के मज़टियर में का लेख। (२) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा. ११, पृ. ११
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २ )
अर्थात् उस (दन्तिवर्मा) की माने, उसके राज्य के ४,००,००० गांवों में से प्रत्येक गांव में भूमि-दानकर, उसकी मातृ-भक्ति को प्रकट किया ।
बहुत से ऐतिहासिक कन्नौज के गहिड़वाल वंश को राष्ट्रकूट वंश की शाखा मानने में शङ्का करते हैं । परन्तु इस पुस्तक के प्रारम्भ के अध्यायों में दिये इस विषय के प्रमाणों से सिद्ध होता है कि, गाहड़वाल वंश वास्तव में राष्ट्रकूटों की ही एक शाखा था; और इसका यह नाम गाधिपुर (कन्नौज) के शासन सम्बन्ध
15
हुआ था।
;' ';
इन राष्ट्रकूटों का इतिहास पहले पहल हिन्दी में हमारी लिखी (भारत के प्राचीनराजवंश' नामक पुस्तक के तीसरे भाग में कृषा था । इसके बाद इस पुस्तक .के, राष्ट्रकूटों और गहड़वालों से संबन्ध रखने वाले, कुछ अध्याय 'सरस्वती' में निकले थे; और इसके प्रारम्भ के कुछ अध्यायों का संक्षिप्त विवरण, और कन्नौज के गहड़वालों का इतिहास 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन ऐण्ड आयर्लेण्ड' : के जर्नल में भी प्रकाशित हुआ था । इसी प्रकार इस पुस्तक के “परिशिष्ट" में दिया हुआ विवरग़ा 'सरस्वती' और 'इण्डियन ऐण्टिंकेरी' में छपा था । इसके बाद गत वर्ष यह सारा इतिहास 'The history of the Rāshtrakūtas' के नाम से जोधपुर दरबार के आर्किया लॉजिकल डिपार्टमैन्ट की तरफ़ से प्रकाशित किया गया था । ऐसी हालत में इस पुस्तक में दिये इतिहास को इन्हीं सबका संशोधित और परिवर्धित रूप कहा जासकता है ।
इस पुस्तक के प्रकाशन में जिन-जिन विद्वानों की खोज से सहायता ली गयी है, उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करना हम अपना कर्तव्य समझते हैं।
A
.
आर्किया लॉजिकल डिपार्टमैंट, "जोधपुर.
( १ ) ई. स. १६२५ में प्रकाशित ।
(२) 'सरस्वती'- जून, जुलाई, और अगस्त १६१७
(३)
(४) मार्च १६२८
(५) जनवरी १६३०
=
ये क्रमश: जनवरी १६३०, और जनवरी १६३२ में प्रकाशित हुए थे ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
विश्वेश्वरनाथ रेउ,
www.umaragyanbhandar.com
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयसूची
विषय
.
."
.:.1
.
.
१ राष्ट्रकूट २ राष्ट्रकूटों का उत्तर से दक्षिण में जाना ३ राष्ट्रकूटों का वंश ४ राष्ट्रकूट और गाहड़वाल ५ अन्य प्राक्षेप ६ राष्ट्रकूटों का धर्म ७ राष्ट्रकूटों के समय की विद्या, और कला-कौशल की अवस्था ८ राष्ट्रकूटों का प्रताप ६ उपसंहार १० राष्ट्रकूटों के फुटकर लेख .." ११ मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट १२ लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट १३ सौन्दत्ति के रट्ट (राष्ट्रकूट).. .. १४ राजस्थान (राजपूताना ) के पहले राष्ट्रकूट " १५ कन्नौज के गाहड़वाल .. .. ... १६ परिशिष्ट .. ...
(कन्नौज नरेश जयश्चन्द्र, और उसके पौत्र राव सीहाजी पर
किये गये मिथ्या श्राक्षेप) २७ अनुक्रमणिका
.. ." १८ शुद्धिपत्र
.
१५५
..
.
१६७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट
वि० सं० से २१२ ( ई० स० से २६९ ) वर्ष पूर्व, भारत में अशोक एक बड़ा प्रतापी और धार्मिक राजा हो गया है । इसने अपने राज्य के प्रत्येक प्रान्त में अपनी धर्माज्ञायें खुदवाई थीं। उनमें की शाहबाजगढ़, मानसेरा ( उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश ), गिरनार ( सौराष्ट्र ), और धवली ( कलिङ्ग ) की धर्माज्ञाओं में "काम्बोज" और "गांधार" वालों के उल्लेख के बाद ही "रठिक," "रिस्टिक" (राष्ट्रिक ), या "लठिक" शब्दों का प्रयोग मिलता है।
डाक्टर डी. आर. भण्डारकर इस 'रिस्टिक' ( या राष्ट्रिक ) और इसी के बाद लिखे "पेतेनिक" शब्द को एक शब्द मानकर, इसका प्रयोग महाराष्ट्र के वंश परंपरागत शासक वंश के लिए किया गया मानते हैं । परन्तु शाहबाजगढ़ से मिले लेख में “यवन कंबोय गंधरनं रठिकनं पितिनिकनं” लिखा होने से प्रकट होता है कि, ये "रिस्टिक" (रठिक) और "पेतेनिक" (पितिनिक) शब्द दो मिन्नजातियों के लिए प्रयोग किये गये थे ।
श्रीयुत सी. वी. वैद्य उक्त (राष्ट्रिक) शब्द से महाराष्ट्र निवासी राष्ट्रकूटों का तात्पर्य लेते हैं, और उन्हें उत्तरीय राष्ट्रकूटों से भिन्न मरहटा क्षत्रिय मानते हैं । परन्तु पाली भाषा के 'दीपवंश' और 'महावंश' नामक प्राचीन ग्रन्थों में महाराष्ट्र निवासियों के लिए "राष्ट्रिक" शब्द का प्रयोग न कर "महारट्टै' शब्द का प्रयोग किया गया है।
(१) अशोक ( श्रीयुत भण्डारकर द्वारा लिखित ), पृ० ३३ (२) अंगुत्तरनिकाय में भी " रहिकस्स " और " पेत्तनिकस्स" दो भिन्न पद लिखे हैं। (३) हिस्ट्री ऑफ मिडिएवल हिन्दू इण्डिया, भा॰ २, पृ. ३२३ (४) हिस्ट्री ऑफ मिदिएवल हिन्दू इण्डिया, भा॰ २, पृ० १५२-१५३. (५) ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी के भाजा, बेडसा, कारली, और नानाघाट की गुफाओं के
लेखों से ज्ञात होता है कि, यह " महारह" जाति बड़ी दानशील थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
डाक्टर हुल्श ( Hultzsch ) " रठिक" अथवा "रट्रिक" ( रष्ट्रिक ) शब्द से पंजाब के "आरट्टों" का तात्पर्य लेते हैं' । परन्तु यदि आरट्टदेशे की व्युत्पत्ति में - आसमन्तात् व्याप्ता रट्टा यस्मिन् स आरट्ट : " इस प्रकार " बहुव्रीहि" समास मानलिया जाय, तो एक सीमातक सारेही विद्वानों के मतों का समाधान हो जाता है । राष्ट्रकूटों के लेखों में उनकी जाति का दूसरा नाम " र " भी मिलता है । इसलिए राष्ट्रकूटों का पहले पंजाब में रहना, और फिर वहां से उनकी एक शाखा का दक्षिण में जाकर अपना राज्य स्थापन करना मान लेने में कोई आपत्ति नज़र नहीं आती।
66
( १ ) कॉर्पस् इन्सक्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, भा० १ पृ० ५६
भारत में " राठी " नाम से पुकारी जाने वाली पांच बोलियां हैं । ( लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भा० १, खण्ड १ पृ० ४९८ ) इनमें शायद पूर्वी पंजाब में बोली जानेवाली बोलीही मुख्य है । ( लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भा० १, खण्ड १, पृ० ६१० और ६६६ ) सर जार्ज ग्रीयर्सन ने वहां पर प्रचलित प्रवाद के अनुसार "राठी" का अर्थ कठोर दिया है । परन्तु वह अपने १३ जून १९३३ के पत्र में उसका सम्बन्ध राष्ट्र" शब्द से होना अङ्गीकार करते हैं । इसलिए सम्भव है पंजाब में स्थित राष्ट्रकूटों की भाषा होने से ही वह राठी नाम से प्रसिद्ध हुई होगी ।
"
( २ ) महाभारत में " आरट्ट " देश का उल्लेख इस प्रकार दिया है:
पंचनद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवनान्युत । ३१ । शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयैर वती तथा ।
चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धु षष्ठा बहिर्गिरेः । ३२ । भारट्टानाम ते देशाः
कर्ण पर्व, अध्याय ४३ )
"
अर्थात्–१ सतलज, २ व्यासा, ३ रावी ४ चनाब, ५ झेलम, और ६ सिन्ध से सींचा जानेवाला पहाड़ों के बाहर का प्रदेश आरट्ट देश कहाता है । ( महाभारत युद्ध के समय यह देश शल्य के अधीन था ) बौधायन के धर्म और श्रौत सूत्रों में भारह देश को अनार्य देश लिखा है ।
( देखो क्रमश: प्रथम प्रश्न, प्रथम अध्याय; और १८ - १२–१३ )
वि० सं० से २६६ (ई० स० से ३२६ ) वर्ष पूर्व, आरहब लोगों ने बलूचिस्तान के करीब, सिकन्दर का सामना किया था । यह बात उस समय के लेखकों के ग्रंथों से प्रकट होती है
1
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट उण्डिकवाटिका से राष्ट्रकूट राजा अभिमन्यु का एक दानपत्र मिला है। उसमें संवत् न होने से विद्वान् लोग उसे विक्रम की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ का अनुमान करते हैं । उसमें लिखा है:
"ॐ स्वस्ति अनेकगुणगणालंकृतयशसां राष्ट्रकु (क) टा
ना (नां) तिलकभूतो मानांक इति राजा बभूव" - अर्थात्-अनेक गुणों से अलंकृत, और यशस्वी राष्ट्रकूटों के वंश में तिलकरूप मानाङ्क राजा हुआ।
इलोरा की गुफाओं के दशावतार वाले मन्दिर में लगे राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग के लेख में लिखा है:
“नवेत्ति खलु कः क्षितौ प्रकटराष्ट्रकूटान्वयम् ।" अर्थात्-पृथ्वी पर प्रसिद्ध राष्ट्रकूट वंश को कौन नहीं जानता। - इसी राजा के, श० सं० ६७५ (वि० सं०८१०=ई० स० ७५३) के, दानप॑त्र में, और मध्यप्रान्त के मुलतइ गांव से मिले, नन्दराज के, श० सं० ६३१ ( वि० सं० ७६६ ई० स० ७०६ ) के ताम्रपत्र में भी इस वंश का उल्लेख राष्ट्रकूटवंश के नाम से ही किया गया है । इसी प्रकार और भी अनेक राजाओं के लेखों, और ताम्रपत्रों में इस वंश का यही नाम दिया है । परन्तु पिछले कुछ लेख ऐसे भी हैं, जिनमें इस वंश का नाम “र?" लिखा है । जैसे:
सिरूर से मिले अमोघवर्ष ( प्रथम ) के लेख में उसे “ट्टवंशोद्भव" कहाँ है ।
(१) जर्नल बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १६, पृ. ६० (२) कुछ लोग इस स्थान पर "राष्ट्रकूटानां" के बदले "त्रैकूटकानां" पढ़ते हैं । परन्तु यह
पाठ ठीक नहीं है। (३) केव टैम्पल्स इन्सक्रिप्शन्स, पृ० ६२; और पाकियालॉजिकल सर्वे, वैस्टर्म इण्डिया,
भा० ५, पृ. ८७ (४) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग ११, पृ. १११ (५) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १८, पृ. २३४ (६ ) जिस प्रकार लौकिक बोल-चाल में “मान्यखेट" का संक्षिप्त रूप "माट”; (यादव)
"विष्णुवर्धन” का “वद्दिग;" और "चापोत्कट" (वंश ) का "चाप' होगया था, उसी
प्रकार "राष्ट्रकूट" (वंश) का भी "र" होगया हो तो प्राश्चर्य नहीं। (७) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १२, पृ० २१८
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
नवसारी से मिले इन्द्र (तृतीय) के, श० सं० ८३६ ( वि० सं० २७१= ई० स० १४ ) के, ताम्रपत्र में अमोघवर्ष को “रट्टकुललक्ष्मी" का उदय करने वाला लिखा है ।
देवली के ताम्रपत्र में लिखा है कि, इस वंश का मूल पुरुष " रट्ट" था। उसका पुत्र “राष्ट्रकूट" हुआ । उसी के नाम पर यह वंश चला है ।
घोसूंडी (मेवाड़) के लेख में इस वंश का नाम “राष्ट्रवर्य" और नाडोल के ताम्रपत्र में राष्ट्रौर्डे लिखा है ।
"राष्ट्रकूट" शब्द में के "राष्ट्र" का अर्थ राज्य और "कूट" का अर्थ समूह, ऊँचा, या श्रेष्ठ होता है । इसलिए इस " राष्ट्रकूट " शब्द से बड़े या श्रेष्ठ राज्य का बोध होता है । यह भी सम्भव है कि, "राष्ट्र" के पहले " महा" उपपद लगाकर इस जाति से शासित प्रदेश का नामही "महाराष्ट्र" रक्खा गया हो ।
आजकल देश और भाषा के मेद से राष्ट्रकूट शब्द के और भी अनेक रूपान्तर मिलते हैं । जैसे:
( १ ) जर्नल बाम्बे ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, १०२५७
( २ ) जर्नल बाम्बे ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ० २४३ - २५१; मौर ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा०५, पृ० १६२
(३) रह के वंश में राष्ट्रकूट का होना केवल कवि कल्पना ही मालूम होती है ।
(४) चौहान कीर्तिपाल का, वि० सं० १२१८ का, ताम्रपत्र ।
(५) जिस प्रकार मालव जाति से शासित प्रदेश का नाम मालवा, धौर गुर्जर जाति से शासित प्रदेश का नाम गुजरात हुआ, उसी प्रकार राष्ट्रकूट जाति से शासित प्रदेश, दक्षिण काठियावाढ का नाम सुराष्ट्र (सोरठ) और नर्मदा और माही नदियों के बीच के देश का नाम राट हुआ। तथा इसी राट को बाद में लोग लाट के नाम से पुकारने लगे । ( भारत का वह भाग जिसमें मलीराजपुर, झाबुआ आदि राज्य हैं शायद राठ कहाता है | ) ( गिरनार पर्वत से मिले स्कन्द गुप्त के लेख में भी सोरठ देश का उल्लेख है । )
इस प्रकार राष्ट्र ( राठ ), सुराष्ट्र (सोरठ), और महाराष्ट्र प्रदेश राष्ट्रकूटों की कीर्ति काही बोध कराते हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
राठवर, राठवड, राठउर, राठउडे, राठडे, रठडा, और राठोड़। डाक्टर बर्नले, राष्ट्रकूटों के पिछले लेखों में “रट्ट' शब्द का प्रयोग देखकर, इन्हें तैलुगु भाषा बोलनेवाली रेड्डी जाति से मिलाते हैं । परन्तु वह जाति तो वहां की आदिम निवासी थी, और राष्ट्रकूट उत्तर से दक्षिण में गये थे। (इस विषय पर अगले अध्याय में विचार किया जायगा । ) इसलिए इस प्रकार के सम्बन्ध की कल्पना करना भ्रम मात्र ही है।
मयूरगिरि के राजा नारायणशाह की आज्ञा से उसके सभा-कवि रुद्रने, श० सं० १५१८ ( वि० सं० १६५३ ई० स० १५१६ ) में, 'राष्ट्रौढ वंश महाकाव्य' लिखा था । उसके प्रथम सर्ग में लिखा है:
"अलक्ष्यदेहा तमवोचदेषा राजन्नसावस्तु तवैकसूनुः । अनेन राष्ट्रं च कुलं तवोढं राष्ट्रौ (ष्ट्रो) ढनामा तदिह प्रतीतः ॥ २६॥"
अर्थात्-उस (लातनादेवी) ने आकाश-वाणी के द्वारा उस राजा (नारायण) से कहा कि, यह तेरा पुत्र होगा, और इसने तेरे राष्ट्र ( राज्यः), और वंश का भार उठाया है, इसलिए इसका नाम 'राष्ट्रोढ' होगा।
(१) इस वंश का यह नाम जसधवल के, कोयलवाव (गोडवाड़) से मिले, वि. सं. १२०८
के, लेख में लिखा है। (२) इस वंश का यह नाम राठोड़ सलखा के, जोधपुर से ८ मील वायु कोण में के वृहस्पति
कुण्ड पर से मिले, वि. सं. १२१३ के, लेख में दिया है। (३) इस वंश के नाम का यह रूप राव सीहाजी के, बीट (पाली) से मिले, वि. सं. ११३०
के, लेख में मिला है। (४) राठोड़ हम्मीर के, फलोधी से मिले, वि० सं० १९७३ के, लेख में राष्ट्रकूट शब्द का
प्रयोग किया गया है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का उत्तर से दक्षिण में जाना एकतो पहले लिखे अनुसार, डाक्टर हुल्शं ( Hultzsch ) अशोक के लेखों में उल्लिखित “रठिकों" या "रट्रिकों' (रष्ट्रिकों), और महाभारत के समय के (पंजाब के) आरट्टदेश वासियों को एकही मानते हैं । ये आरट्ट लोग सिकन्दर के समय तक भी पंजाब में विद्यमान थे। दूसरा अशोक की मानसेरा, शाहबाजगढ़ी ( उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश ), गिरनार ( जूनागढ़ ), और धवली ( कलिङ्ग) से मिली धर्माज्ञाओं में, काम्बोज और गान्धार के बादही राष्ट्रिकों का नाम मिलता है । इससे प्रकट होता है कि, राष्ट्रकूट लोग पहले भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रदेश में ही रहते थे, और बाद में वहीं से दक्षिण की तरफ़ गये थे । डाक्टर फ्लीट भी इस मत-से पूर्ण सहमत हैं।
(१) कॉर्पस इन्सक्रिप्शनम् इण्डिकेरम् , भा० १ पृ० ५६ (२) यद्यपि राष्ट्रक्टों के कुछ लेखों में इन चन्द्रवंशी लिखा है, तथापि वास्तव में ये
सूर्यवंशी ही थे। ( इस पर प्रागे स्वतन्त्ररूप से विच र किया जायगा।)
मारवाड़ नरेश अपने को सूर्यवंशी और श्री रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशज मानते हैं । 'विष्णुपुराण' में सूर्य के वंशज इक्ष्वाकु से लेकर रामचन्द्र तक ६१ राजाओं के नाम दिये हैं, और रामचन्द्र से सूर्यवंश के अन्तिम राजा सुमित्र तक ६ • नाम लिखे हैं । इस प्रकार इक्ष्वाकु से सुमित्र तक कुल १२१ (और 'भागवत' में शायद कुल १२५) राजाओं के नाम हैं। पुराणों से इसके बाद के इस वंश के राजाओं का पता नहीं चनता । ( पुराणों के मतानुसार सुमित्र का समय आज मे करीब ३...(१) वर्ष पूर्व था।)
'वाल्मीकीयरामायण' के उत्तर काण्ड में लिखा है कि, श्री रामचन्द्र के भाई भरत ने गन्धर्वो ( गान्धार वालों ) को जीता था। इसके बाद उसके दो पुत्रों में से तक्षने वहां पर ( गांधार प्रदेश में ) तनशिला और पुष्कल ने पुष्कलावत नाम के नगर बसाये। तक्षशिला को आजकल टैक्सिला कहते हैं । यह नगर हसन अब्दाल से दक्षिण-पूर्व और रावलपिण्डी से उत्तर-पश्चिम में था। इसके खंडहर १२ मील के घेरे में मिलते हैं।
पुष्कलायत पश्चिमोत्तर की तरफ पेशावर के पास था। यह स्थान इस समय चारसादा के नाम से प्रसिद्ध है। - - • -
S
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का उत्तर से दक्षिण में जाना
श्रीयुत सी . वी. वैद्य दक्षिण के राष्ट्रकूटों को दक्षिणी - आर्य मानते हैं । उनका अनुमान है कि, ये लोग, दक्षिण में दूसरी वार अपना राज्य स्थापन करने के बहुत पहले ही, उत्तर से आकर वहां बसगये थे, और इसीसे अशोक के लेखों के लिखे जाने के समय भी महाराष्ट्र देश में विद्यमान थे ।
परन्तु उनका यह अनुमान अशोक के उन लेखों की, जिनमें इस जाति का उल्लेख आया है, स्थिति के आधार पर होने से ठीक नहीं माना जासकता; क्योंकि ऐसे दो लेख उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त से, एक सौराष्ट्र से और एक कलिङ्ग से, मिल चुके हैं ।
डाक्टर डी. आर. भण्डारकर राष्ट्रिकों का सम्बन्ध अपरान्त वासियों से मानकर इन्हें महाराष्ट्र निवासी अनुमान करते हैं । परन्तु अशोक की शाहबाजगढ़ से मिली पाँचवीं प्रज्ञा में इस प्रकार लिखा है:
✓
'योनकंबोय गंधरनं रठिकनं पितिनिकनं ये वपि श्रपरतें "
66
यहाँ पर “रठिकनं” (राष्ट्रिकानां) और “पितिनिकनं" (प्रतिष्ठानिकानां ) का सम्बन्ध “ये वापि अपरान्ताः " से करना ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि ऊपर दी हुई पंक्ति में अपरान्त निवासियों का राष्ट्रिकों से भिन्न होना ही प्रकट होता है ।
इन राष्ट्रकूटों की खानदानी उपाधि “लटलूरपुराधीश्वर" थी । श्रीयुत रजवाड़े आदि विद्वान् इस लटलूर से ( मध्य प्रदेशस्थ बिलासपुर ज़िले के ) रत्नपुर का तात्पर्य लेते हैं । यदि यह अनुमान ठीक हो तो इससे भी इनका उत्तर से दक्षिण में जाना ही सिद्ध होता है ।
श्री रामचन्द्र के पुत्र कुश ने अयोध्या को छोड़कर गंगा के तट पर ( आधुनिक मिरज़ा
पुर
के पास ) कुशावती नगरी बसाई थी । सम्भव है उसके वंशज बाद में, किसी कारण से भरत के वंशजों के पास चले गये हों, और कालान्तर में " राष्ट्रिक ” या
"
((
आरट्ट " के नाम से प्रसिद्ध होकर वापिस लौटते हुए, कुछ उत्तर की तरफ़ और कुछ
गिरनार होते हुए दक्षिण की तरफ गये हों । परन्तु यह कल्पना मात्र ही है ।
नयचन्द्र सूरि की ' रम्भामंजरी ' नाटिका में भी जयचन्द्र को इक्ष्वाकु वंश का तिलक लिखा है । ( देखो पृ० ७ )
T
(१) हिस्ट्री ऑफ मिडिएवल हिन्दू इण्डिया, भा० २, पृ० ३२३ ( २ ) अशोक ( डाक्टर डी. आर. भण्डारकर लिखित ), पृ० ३३ (३) कॉर्पस इन्सक्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, भा० १ ० ५५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
राएकटों का इतिहास सोलंकी राजा त्रिलोचनपाल के, सूरत से मिले, श० सं० १७२ ( वि० सं० ११०७ ई० स० १०५१ ) के, ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, सोलंकियों के मूलपुरुष चालुक्य का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट राजा की कन्या से हुआ था । इससे ज्ञात होता है कि, राष्ट्रकूटों का राज्य पहले कन्नौज में भी रहा था, और इसके बाद छठी शताब्दी के करीब, इन्होंने दक्षिण के सोलंकियों के राज्य पर अधिकार करलिया था।
(१) समादियर्थसंसिद्धौ तुष्टः स्रष्टाऽब्रवीच्चतम् ॥५॥
कान्यकुब्जे महाराज ! राष्ट्रकूटस्य कन्यकाम् । लब्ध्वा सुखाय तस्यां त्वं चौलुक्याप्नुहि संततिम् ॥ ६ ॥
(इण्डियन ऐगिटक्केरी भा० १२, पृ. २०१) (३) मिस्टर जे. डब्ल्यु. वाट्सन ( पोलिटिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट, पालनपुर ) लिखते हैं कि,
फौजपति राठोड़ श्रीपत ने, संवत् १३६ को मंगसिर मुदि ५ बृहस्पतिवार को, अपने राजतिलकोत्सव के समय, उत्तरी गुजरात के १६ गांव चिबदिया ब्राह्मणों को दान दिवे थे। इनमें से एटा नामक गांव अबतक उस वंश के ब्राह्मणों के अधिकार में चला माता है । इसके मागे वह लिखते हैं कि, पहले के अरब भूगोल वेत्तामों ने कसोज की सरहद को सिन्ध से मिला हुआ लिखा है; मलमसऊदी ने सिन्ध का कनौज नरेश के राज्य में होना प्रकट किया है; और गुजरात के मुसलमान इतिहास लेखकों ने करीब नरेश को ही गुजरात का मधिपति माना है।
(इण्डियन ऐण्टिक्केरी, मा. ३,०४१) यहां पर मिस्टर वाट्सन के लेख को उद्धृत करने का कारण केवल यह प्रकट करना है कि, राष्ट्रकूटों का राज्य पहले भी कलौन में रह चुका था, और उस समय भी इनका प्रताप खूब बढ़ा चढ़ा था।
श्रीपत के विषय में हम केवल इतना कह सकते हैं कि, वह शायद कनौज के राठोड़े राज घराने का होने से ही “कनौजेश्वर" महाता था। सम्भव है, जिस समय लाट देश के राजा भुवराज ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव को हराया था, उस समय उस (ध्रुपराज ) ने श्रीपत के पिता को राष्ट्रकूट समझ नौज का कुछ प्रदेश दिलवा दिया हो, और बाद में पिता के मरने और अपने गद्दी पर बैठने के समय बीपत ने यह दानपत्र लिखवाया हो । एटा गाँव का कनौज के रागों द्वारा दिया जाना 'बॉम्बे गजेटियर' (भाग १, पृ. ३२१) में भी लिखा है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का उत्तर से दक्षिण में जाना
इस बात की पुष्टि दक्षिण के सोलंकी राजा राजराज के, ३२ वें राज्य वर्ष ( श० स० १७५ = वि० सं० १९११० ई० स० १०५३) के, येवूर से मिले, दानपत्र से भी होती है । उसमें लिखा है कि, राजा उदयने के बाद उस के वंश के ५६ राजाओं ने अयोध्या में राज्य किया था, और उनमें के अन्तिम राजा विजयादित्य ने सोलंकियों के दक्षिणी राज्य की स्थापना की थी। इसके बाद उसके १६ वंशजों ने वहां पर राज्य किया । परन्तु अन्त में उस राज्य पर दूसरे वंशका अधिकार होगया । यहां पर दूसरे वंश से राष्ट्रकूट वंशका ही तात्पर्य है; क्योंकि सोलंकियों के, मीरज से मिले, श० सं० १४६ के और येवूर से मिले, श० सं० ११९ के, ताम्रपत्रों में जयसिंह का, राष्ट्रकूट इन्द्रराज को जीतकर, फिर से चालुक्य वंश के राज्य को प्राप्त करना लिखा है ' ।
इस जयसिंह का प्रपौत्र कीर्तिवर्मा वि० सं० ६२४ में राज्य पर बैठा था । इससे उसका परदादा - जयसिंह विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में रहा होगा । इन प्रमाणों पर विचार करने से प्रकट होता है कि, विक्रम की छठी शताब्दी में वहां पर ( दक्षिण में ) राष्ट्रकूटों का राज्य था । साथ ही यह भी अनुमान होता है कि, जिस समय सोलंकियों का राज्य अयोध्या में था, उसी समय उनके पूर्वज का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट राजा की कन्या से हुआ होगा ।
·
( १ ) उक्त दानपत्र में उदयन का ब्रह्मा की सैंतालीसवीं पीढी में होना लिखा है ।
66.
(२)
भूयश्चुलुक्य कुलवल्लभराजलक्ष्मीम् ।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
'बभार
(इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० ८, पृ० १२,)
www.umaragyanbhandar.com
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का वंश दक्षिण और लाट (गुजरात) पर राज्य करने वाले राष्ट्रकूटों के समय के करीब ७५ लेख और दानपत्र मिले हैं। इनमें से केवल ८ दानपत्रों में इन्हें यदुवंशी लिखा है। (१) उपर्युक्त ८ दानपत्रों में से पहला राष्ट्रकूट अमोघवर्ष प्रथम का, श० सं• ७८२ (वि० सं० ११७ ई० स० ८६०) का है। उसमें लिखा है:"तदीयभूपःयतयादवान्वये"
(ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, पृ. २६) दूसरा इन्द्रराज तृतीय का, श० सं० ८३६ (वि० सं० ०७१-ई० स० ६१४ ) का है। उसमें इनके वंश का उल्लेख इसप्रकार है:"तस्माद्वंशो यदूनां जगति स वृधे"
(जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ. २६१) तीसरा श• सं० ८५२ (वि० सं० ६८७ ई. स. ६३० ) का, और चौथा श• सं० ८५५ (वि. सं० १६०ई० स० ६३:) का है । ये दोनों गोविन्दराज (चतुर्थ) के हैं। इनमें इनके वंश के विषय में इसप्रकार लिखा है:
“वंशो बभूव भुवि सिन्धुनिभो यदूनाम् ।" (ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ७, पृ. ३६; और इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२, पृ. २४९)
पांचवाँ श० सं० ८६२ (वि० सं० ६६७-ई० स० ६४०) का; और कठा. श. सं० ८८० (वि० सं० १०१५-ई. स. १५८) का है। ये कृष्णराज (तृतीय) के हैं। इनमें भी इनको यदुवंशी लिखा है:___“यदुवंशे दुग्धसिंधृपमाने"
(एपिग्राफिया इण्डिका, मा० ५ पृ० १६२; और भा० ४, पृ० १८१) सातवाँ कर्कराज द्वितीय का, श० सं० ८६४ (वि० सं० १०२९ ई. स. ९७२) का है। इसमें भी उपर्युक्त बातका ही उल्लेख है:
"समभूद्धन्यो यदोरन्वयः।” (इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भा० १२, पृ० २६४) आठयां रद्दराज का, श० सं० १३० (वि० सं० १०६५ ई० स० १०.८) का है। इसमें भी इनका यदुवंशी होना लिखा है:"शोऽपूर्वोस्तीह वंशो यदुकुलतिलको राष्ट्रकूटेश्वराणाम्"
(एपिग्राफिया इण्डिका, भा० ३, पृ. २६८)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
१११
राष्ट्रकूटों का वंश सबसे पहला दानपत्र, जिसमें इन्हें यदुवंशी लिखा है, श० सं० ७८२ (वि० सं० ११७) का है। इससे पहले की प्रशस्तियों में इन राजाओं के सूर्य या चन्द्रवंशी होने का उल्लेख नहीं है।
इन्हीं ८ दानपत्रों में के श० सं० ८३६ के दानपत्र में यह भी लिखा है:
"तत्रान्वये विततसात्यकिवंशजन्मा
श्रीवन्तिदुर्गनृपतिः पुरुषोत्तमोऽभूत् ।” अर्थात्-उस (यदु) वंश में सात्यकि के कुल में (राष्ट्रकूट) दन्तिदुर्ग
हुओं।
परन्तु धमोरी (अमरावती) से, राष्ट्रकूट कृष्णराज (प्रथम) के, करीब १८०० चांदी के सिक्के मिले हैं । इन पर एक तरफ़ राजा का मुख और दूसरी तरफ़ “परममाहेश्वरमहादित्यपादानुध्यांतश्रीकृष्णराज" लिखा है । यह कृष्णराज वि० सं० ८२६ (ई० स० ७७२) में विद्यमान था। इससे प्रकट होता है कि, उस समय तक राष्ट्रकूट नरेश सूर्यवंशी और शैव समझे जाते थे।
राष्ट्रकूट गोविन्दराज (तृतीय) का, श० सं० ७३० (वि० सं० ८६५ ई० स० ८०८) का, एक दानपत्र राधनपुर से मिला है । उस में लिखा है:- .
"यस्मिन्सर्वगुणाश्रये तितिपतौ श्रीराष्ट्रकूटान्वयोजाते यादववंशवन्मधुरिपावासीदलंध्यः परैः।"
(१) हलायुध ने भी अपने बनाये ‘कविरहस्य' में राष्ट्रकूटों का यादव सात्यकि के वंश
में होना लिखा है । कृष्ण तृतीय के, श० सं० ८६२ के, ताम्रपत्र में भी ऐसा ही
उल्लेख है:- "तद्वंशजा जगति सात्यकिवर्गभाज" (२) गोविन्दचन्द्र के वि० सं० ११७४ के दानपत्र में गाहडवाल नरेशों के नाम के साथ भी
- "परममाहेश्वर" उपाधि लगी मिलती है। (३) “पादानुध्यात" शब्द के पूर्व का नाम, उस शब्द के पीछे दिये नाम पाले
पुरुष के, पिता का नाम समझा जाता है । परन्तु “महादित्य" न तो कृष्णराज के पिता का नाम ही था न उपाधि ही । ऐसी हालत में इस शब्द से इस वंश के मूलपुरुष का तात्पर्य लेना कुछ भनुचित न होगा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास ___ अर्थात्-जिस प्रकार श्रीकृष्ण के उत्पन्न होने पर यदुवंश शत्रुओं से अजेय हो गया था, उसी प्रकार इस गुणीराजा के उत्पन्न होने पर राष्ट्रकूट वंश भी शत्रुओं से अजेय हो गया। ___ इससे ज्ञात होता है कि, वि० सं० ८६५ ( ई० स० ८०८ ) तक यह राष्ट्रकूट वंश यदुवंश से भिन्न समझा जाता था । परन्तु पीछे से अमोघवर्ष प्रथम के, श० सं० ७८२ वाले, दानपत्र के लेखक ने, उपर्युक्त लेख में के यादववंश के उपमान और राष्ट्रकूट वंश के उपमेय भाव को न समझ, इस वंश को और यादववंश को एक मानलिया, और बाद के ७ प्रशस्तियों के लेखकों ने भी बिना सोचे समझे उसका अनुसरण कर लिया।
__यहां पर यह शंका की जा सकती है कि, यदि राष्ट्रकूट वास्तव में ही चंद्रवंशी न थे तो उन्होंने इस गलती पर ध्यान क्यों नहीं दिया । परन्तु इस विषय में यह एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा कि, यद्यपि मेवाड़ के महाराणाओं का सूर्यवंशी होना प्रसिद्ध है, तथापि स्वयं महाराणा कुम्भकर्ण ने, जो एक विद्वान् नरेश था, पुराने लेखकों का अनुसरण कर, अपनी बनाई 'रसिकप्रिया' नाम की गीत गोविन्द' की टीका में अपने मूल पुरुष बप्प को ब्राह्मण लिख दिया है:
"श्रीवैजवापेनसगोत्रवर्यः श्रीवप्पनामा द्विजपुंगवोभूत्" ॥
(१) यादव राजा भीम के, प्रभास पाटन से मिले, वि. सं. १४४२ के, लेख में लिखा है:
"वशो ( शौ ) प्रसिद्धो (खौ) हि यथारवीन्दो (न्द्रोः) राष्टोडवंशस्तु तथा तृतीयः॥ यत्राभवद्धर्मनृपोऽतिधर्म
स्तस्माच्छिवं मा ( सा ) यमुना जगाम ॥ १० ॥" प्रर्थात्-जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र ये दोनों वंश प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार तीसरा राठोड़ वंश भी
प्रसिद्ध है। इसमें धर्म नामका पुण्यात्माराजा हुा । उसीके साथ भीम की कन्या यमुना का विवाह हुआ था।
( बॉम्बे गज़टियर, भा. १ हिस्सा २, पृ. २०८-२०६;
भौर साहित्य, खंड १, भा० १, पृ. २७६-२८१)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का वंश वि० सं० १६५३ में बने 'राष्ट्रौढवंश महाकाव्य' का उल्लेख पहले कर चुके हैं । उसमें लिखा है कि, लातनादेवी ने, चन्द्र से उत्पन्न हुए कुमार को लाकर, पुत्र के लिए तपस्या करते हुए, कन्नौज के सूर्यवंशी राजा नारायण को सौंपदिया, और उस सूर्यवंशी राजा के राज्य और कुल का भार वहन करने से वह कुमार “राष्ट्रोढ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
इस से भी उस समय राठोड़ों का सूर्यवंशी माना जाना सिद्ध होता है।
इसी प्रकार कन्नौज के गाहडवाल राजाओं के लेखों में भी उन्हें सूर्यवंशी ही लिखा है:
"आसीदशीतद्युतिवंशजातः क्षमापालमालासु दिवं गतासु ।
साक्षाद्विवस्वानिव भूरिधाम्ना नाम्ना यशोविग्रह इत्युदारः॥" अर्थात्-बहुत से सूर्यवंशी राजाओं के स्वर्ग चले जाने पर, साक्षात् सूर्य के समान प्रताप वाला, यशोविग्रह नाम का राजा हुआ ।
"पुरा कदाचिन तये समेतान्,देवाननुज्ञाप्य गृहाय सद्यः । कात्यायनीमर्द्धमृगाङ्कमौलिः, कैलासशैले रमयाम्बभूव ॥ १२ ॥
- - - - - - - - अन्योन्यभूषापणबन्धरम्यं, तत्रान्तरे द्यूतमदीव्यतां तौ ॥ १४ ॥
- - - - - - - - कात्यायनीपाणिसरोजकोश-विलोलिताक्षक्षपितादथेन्दोः। गर्भान्वितैकादशवार्षिकोऽभूदभूतपूर्वाप्रतिमः कुमारः ॥ २० ॥
- --- - - - - - - तस्मै वरं साम्बशिवो दयालुः, श्रीकान्यकुब्जेश्वरतामरासीत् ॥ २३ ॥ अत्रान्तरे काचन लातनाख्या, समेत्य देवी गिरिजाहराभ्याम् ।। विलीनभूमीपतिकान्यकुब्ज-राज्याधिपत्याय शिशुं ययाचे ॥ २४ ॥
नारायणो नाम नृपः सुतार्थी, यत्रेश्वरं ध्यायति सूर्यवंश्यः । सा रुद्रदत्तेन सहामुनास्मिन्नवातरत्काञ्चनमेखलेन ॥ २८ ॥ अलक्ष्यदेहा तमवोचदेषा, राजन्नसावस्तु तवैकसूनुः । अनेन राष्ट्रं च कुलं तवोढं, राष्ट्रौष्ट्रिो) ढनामा तदिह प्रतीतः ॥ २६॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
यह गाहड़वाल राठोड़ राष्ट्रकूट ही थे । ( यह बात आगे सिद्ध की जायगी ) इसलिए राष्ट्रकूटों का सूर्यवंशी होना ही मानना पड़ता है ।
१४
(१) राष्ट्रकूटों की सब से पहली प्रशस्ति (ताम्रपत्र ) राजा अभिमन्यु की मिली है । यद्यपि इस पर संवत् श्रादि नहीं हैं, तथापि इसके अक्षरों को देखने से इसका विक्रम की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ की होना सिद्ध होता है । इस पर की मुहर में ( अम्बिकाके वाहन ) सिंह की मूर्ति बनी है। कृष्णराज प्रथम के सिक्के पर उसे “परम माहेश्वर" लिखा है | परन्तु राष्ट्रकूटों के पिछले ताम्रपत्रों में सिंहका स्थान गरुड़ ने लेलिया है । इससे अनुमान होता है कि, पिछले दिनों में इनपर वैष्णवमत का प्रभाव पड़गया था । ( भगवानलाल इन्द्रजी ने भी इनके ताम्रपत्रों की मुहरों को देखकर यही अनुमान किया था । जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा. १६, १.६ ) इसीसे भावनगर के गोहिल राजाओं की तरह ये भी सूर्यवंशी के स्थान में चन्द्रवंशी समझे जाने लगे । पहले जिस समय खेड़ ( मारवाड़ ) में गोहिलों का राज्य था, उस समय वे सूर्यवंशी समझे जाते थे । परन्तु काठियावाड़ में जा बसने पर, वैष्णवमत के प्रभाव के कारण, वे चन्द्रवंशी समझे जाने लगे । यह बात इस छप्पय से प्रकट होती है:
"चन्द्रवंशि सरदार गोत्र गौतम बक्खां शाखा माधविसार के प्रवरत्रय जां अग्निदेव उद्धार देव चामुण्डा देवी पाण्डव कुल परमाण प्राय गोहिल चल एवी
विक्रम बध करनार नृप शालिवाहन चकवै थयो ते पछी तेन प्रलादनो सोरठमा सेजक भयो । ”
अशोक की गिरनार पर्वत पर खुदी पांचवीं प्राज्ञा में राष्ट्रकूटों का उल्लेख होने से इनका भी तक प्रदेश से सम्बन्ध रहना पाया जाता है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट और गाहड़वाल
पहले लिखा जा चुका है. कि, राष्ट्रकूट वास्तव में उत्तरी भारत के निवासी थे, और वहीं से दक्षिण की तरफ़ गये थे । पूर्वोद्धृत सोलंकी त्रिलोचनपाल के, श० सं० १७२ के, ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि, सोलंकियों के मूल - पुरुष चालुक्य का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट राजा की कन्या से हुआ था । इसी प्रकार 'राष्ट्रौढवंश महाकाव्य' से भी पहले एकवार कन्नौज में राष्ट्रकूटों का राज्य रहना पाया जाता है ।
राष्ट्रकूट राजा लखनपाल का एक लेख बदायूं से मिला है । ( इस लखनपाल का समय वि० सं० १२५८ ( ई० स० १२०० ) के करीब आता है । ) उस में लिखा है:
१५
" प्रख्याताखिलराष्ट्रकूटकुलजदमापालदोः पालिता । पाञ्चालीभिधदेशभूषणकरी वोदामयुतापुरी |
तत्रादितोभवदनन्तगुणो नरेन्द्रश्चन्द्रः स्वखड्गभयभीषितवैरिवृन्दः । "
अर्थात् - प्रसिद्ध राष्ट्रकूट वंशी राजाओं से रक्षित, और कन्नौज की अलङ्कार रूप, बदायूं नगरी है | वहां पर पहले, अपनी शक्ति से शत्रुओं का दमन करने वाला चन्द्र नामका राजा हुआ
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० १, पृ० ६४
( २ ) श्रीयुत सन्याल इस लेखको वि० सं० १२५६ ( ई० स० १२०२ ) के पूर्व का अनुमान करते हैं । इस पर आगे विचार किया जायगा ।
(३) गाहडवाल चन्द्रदेव के, चन्द्रावती से मिले, वि० सं० ११५० के, दानपत्र में भी, बदायूं के लेख की तरह, कन्नौज के लिए पंचाल शब्द का प्रयोग किया गया है:
66
99
पंचाचूल चुम्बन चणचन्द्रहासो ...
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
( ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० १४, पृ० १६३ )
www.umaragyanbhandar.com
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास गाहडवाल नरेश चन्द्रदेव का, वि० सं० ११४८ ( ई० स० १०६१) का, एक ताम्रपत्र चन्द्रावती ( बनारस जिले ) से मिला है । उसमें लिखा है:
"विध्वस्तोद्धतधीरयोधतिमिरः श्रीचंद्रदेवोनृपः। येनोदारतरप्रतापशमिताशेषप्रजोपद्रवं
श्रीमद्गाधिपुराधिराज्यमसमं दोर्विक्रमेणार्जितम् ॥" अर्थात्-इस वंश में ( यशोविग्रह का पौत्र ) चन्द्रदेव बड़ा प्रतापी राजा हुआ। इसी ने अपने बाहुबल से शत्रुओं को मारकर कन्नौज का राज्य लिया था ।
इस ताम्रपत्र में चन्द्रदेव के वंशका उल्लेख नहीं है।
ऊपरकी दोनों प्रशस्तियों पर विचार करने से प्रकट होता है कि, चन्द्रदेव ने पहले बदायूँ लेकर बाद में कन्नौज पर अधिकार करलिया था । इनमें से पहली प्रशस्ति राष्ट्रकूट-वंशी कहाने वाले चन्द्रकी है, और दूसरी कुछ समय बाद गाहड़वाल-वंशी के नाम से प्रसिद्ध होनेवाले चन्द्रकी । परन्तु इन दोनों राजाओं के समय आदि पर विचार करने से दोनों प्रशस्तियों के चन्द्रदेव का एक होना, और उसका कन्नौज विजय कर वहां पर गाहड़वाल-राज्य को स्थापित करना सिद्ध होता है । इनसे यह भी प्रकट होता है कि, चन्द्रदेव से दो शाखायें चलीं । इसका बड़ा पुत्र मदनपाल कन्नौज का राजा हुआ, और छोटे पुत्र विग्रहपाल को बदायूं की जागीर मिली । यद्यपि वदायूं वाले अपने को राष्ट्रकूट ही मानते रहे, तथापि कन्नौजवाले गाधिपुर-कन्नौज के शासक होने से कुछ काल बाद गाहड़वाल के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा०६, पृ. ३०२-३०५. (२) चंद बरदाई ने भी विग्रहपाल के वंशज लखनपाल को, जिसका लेख बदायूं से
मिला है, शायद जयचंद का भतीजा लिखा है । (३) डिंगल भाषा में “गाइड" शब्द का अर्थ मजबूती और ताकत होता है। इसलिए यह
भी सम्भव है कि, जब इस वंश के नरेशों का प्रताप बहुत बढ़ गया. तब इन्होंने यह उपाधि धारण करली । अथवा जिस प्रकार संयुक्त प्रान्त के रैका नामक ग्राम में रहने से कुछ राठोड़ ' रैकवाल' के नाम से प्रसिद्ध होगये, उसी प्रकार गाधिपुर ( कन्नौज ) में रहने से या वहां के शासक होने से ये राठोड़ भी 'गाहडवाल' कहाने लगे हों; क्योंकि गाधिपुर के प्राकृत रूप “गाहितर" का बिगड़कर गाहड़ होजाना कुछ असम्भव नहीं है। इसके बाद अब सीहाजी आदि का सम्बन्ध कन्नौज से छूट गया, तब वे फिर अपने को राठोड़ कहने लगे थे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट और गाहड़वाल
१७
इस ( गाहडवाल ) नाम का प्रयोग युवराज गोविन्दचन्द्र के, वि० सं० ११६१, ११६२, और ११६३, के केवल तीन दानपत्रों में मिलता है ।
इन सब बातों का सारांश यही निकलता है कि, कन्नौज पर पहले भी राष्ट्रकूटों का राज्य था । उसके बाद वहां पर यथा समय गुप्त, बैस, मौखरी, और प्रेतिहारों का राज्य रहा । परन्तु दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा इन्द्रराज तृतीय के दानपत्र से ज्ञात होता है कि, उसने, अपनी उत्तरी भारत की चढ़ाई के समय, उपेन्द्र को विजय कर, मेरु (कन्नौज) को उजाड़ दिया था । सम्भवतः उस समय वहाँ पर प्रतिहार महीपाल का राज्य था । इस चढाई के बाद ही प्रतिहारों का राज्य शिथिल पड़ गया, और उनके सामन्त स्वतंत्र होने लेंगे । इसीसे मौका पाकर, वि० सं० ११११ ( ई० स० १०५४) के करीब; राष्ट्रकूट वंशी चन्द्र ने पहले बदायूं पर कब्जा कर, अन्त में कन्नौज पर भी अधि "वंशे गाइड वाला ख्ये बभूव विजयी नृपः । "
( 1 )
(२) बाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट राजा ध्रुवराज द्वितीय ने वि० सं० ६२४ ( ई० स० ८६७) में, कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव को हराया था । सम्भवतः इसी भोजदेव के दादा नागभट द्वितीय ने ( राष्ट्रकूट इन्द्रायुध के उत्तराधिकारी ) चक्रायुध से कन्नौज का राज्य छीना था ।
( 1 )
( राजपूताने का इतिहास, आ. १, पृ० १६१, टि. १ ) "कृत गोवर्धनोद्धारं हेलोन्मूलित मेरुणा । उपेन्द्रमिन्दराजेन जिल्ला येन न विस्मितम् "
( जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ० २६१ ) यही बात गोविन्दराज चतुर्थ के, श० सं० ८५२ के, ताम्रपत्र से भी सिद्ध होती है । उसमें लिखा है कि, इन्द्रराज तृतीय ने अपने सवारों के साथ, यमुना
को पार
,
कर, कन्नौज को उजाड़ दिया था :
"तीर्णा यत्तुरगैरगाधयमुना सिन्धुप्रतिस्पर्द्धिनी
येनेदं हि महोदया रिनगरं निर्मूलमुन्मूलितम् ।"
(४) इससे पहले, वि० सं० ८४२ भौर ८५० ( ई० स० ७८५ औौर ७६३) के बीच, राष्ट्रकूट ध्रुवराज का राज्य उत्तर में अयोध्या तक फैल गया था। इसके बाद, वि० सं० ε३२ और ६७१ ( ई० स० ८०५ और ६१४ ) के बीच, राष्ट्रकूट कृष्णराज द्वितीय के सयम उसके राज्य की सीमा गङ्गा के किनारे तक जा पहुची थी; औौर वि० सं० ६६७ और १०२३ ( ई० स० 8४० और 8६६ ) के बीच राष्ट्रकूट कृष्णराज तृतीय के समय उसके राज्य की सीमा ने गङ्गा को पार कर लिया था ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
राष्ट्रकूटों का इतिहास
कार करलिया । इसके बाद कन्नौज की गद्दी इसके बड़े पुत्र मदनपाल को मिली, और छोटा पुत्र इसकी जिंदगी में ही बदायूं का शासक बना दिया गया ।
इसके बाद, जिस समय राजा जयच्चन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र से कन्नौज प्रान्त छीन लिया गया, उस समय उसके वंशज खोर की तरफ़ होते हुए महुई : (फ़र्रुखाबाद जिले) में जारहे । परन्तु, जब वहां पर भी मुसलमानों ने अधिकार करलिया, तब जयच्चन्द्र का पौत्र (वरदाई सेन का छोटा पुत्र) सीहा, वहां से तीर्थयात्रा को जाता हुआ, मारवाड़ में पहुंचा। यहां पर आज तक उसके वंशजों का राज्य है, और वे अपने को सूर्यवंशी राठोड़ जयचन्द्र के वंशज मानते हैं ।
महुई के एक खंडहर को वहां के लोग अब तक "सीहाराव का खेड़ा" के नाम से पुकारते हैं। राव सीहा के वंशज राव जोधाजी थे । इन्होंने, वि० सं० १५१६ ( ई० स० १४५१ ) में, जोधपुर के किले और शहर की नींव रक्खी थी।
रावजोधा के ताम्रपत्र की सनद से पता चलता है कि, लुम्ब ऋषि नामका सारस्वत ब्राह्मण, सीहाजी के पौत्र धूहड़जी के समय, कन्नौज से इन ( राष्ट्रकूट नरेशों) की इष्टदेवी चक्रेश्वरी की मूर्ति लेकर मारवाड़ में आया था, और उसकी स्थापना नागाणा नामक गाँव में की गयी थी ।
किसी किसी हस्तलिखित प्राचीन इतिहास में इस मूर्ति का कल्याणी से लाया जाना लिखा है । परन्तु इस (कल्याणी) से भी कन्नौज के "कल्याण "कटक" का तात्पर्य लिया जाता है ।
इन सब बातों पर गौर करने से राष्ट्रकूटों और गाहड़वालों का एक होना सिद्ध होता है ।
डाक्टर हॉर्नले (Hornle ) गाहड़वाल वंश को पालवंश की शाखा मानते । उनका अनुमान है कि, पालवंशी महीपाल के ज्येष्ठ पुत्र नयपाल के वंशजों ने गौड़ देश में राज्य किया, और छोटे पुत्र चन्द्रदेव ने कन्नौज का राज्य लिया । परन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि न तो पाल वंशियों के लेखों में
( १ ) कुछ लोग इसे दक्षिण का कोंकन मानते हैं । परन्तु उनका ऐसा मानना उपर्युक्त प्रमाण के होते हुए ठीक प्रतीत नहीं होता ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट और गाहड़वाल उनके गाहड़वाल वंशी होने का उल्लेख है, न गाहड़वालों की प्रशस्तियों में उनके पालवंशी होने का । दूसरा, पालवंश का स्वतन्त्र राज्य स्थापन करने वाले गोपाल प्रथम से लेकर, उस वंश के अन्तिम नरेश तक, सब ही राजाओं के नामों के अन्तमें “पाल" शब्द लगा है; परन्तु गाहडवाल वंश के आठ राजाओं में केवल एक राजा के नाम के पीछे ही यह (पाल) शब्द लगा मिलता है ।
तीसरा, केवल एक शब्द के दो पुरुषों के नामों में मिलने से वे दोनों पुरुष एक नहीं माने जा सकते । आगे दोनों वंशों के राजाओं के नाम दिये जाते हैं:पालवंशी राजा
गाहड़वाल वंशी राजा विग्रहपाल.
यशोविग्रह महीपाल
महीचन्द्र
नयपाल
चन्द्रदेव
इनमें के विग्रहपाल और यशोविग्रह में “विग्रह", और महीपालं और महीचन्द्र में 'मही' शब्द समान हैं । इतिहास से प्रकट है कि, पालवंशी. महीपाल बड़ा प्रतापी राजा था । उसने अपने भुजबल से ही पिता के गये हुए राज्यको फिर से हस्तगत किया था; और अपने पुत्र (?) स्थिरपाल और वसन्तपाल द्वारा काशी में अनेक मन्दिर बनवाये थे । परन्तु गाहड़वाल महीचन्द्र एक स्वतंत्र शासक भी नहीं था । ऐसी हालत में, केवल ऐसे समान शब्दों के आधार परही, दो भिन्न पुरुषों को एक मान लेना हठ मात्र है । चौथा, पालवंशियों के शिलालेखों में विक्रम संवत् न लिखा जाकर उनका राज्य संवत् लिखा जाता था।
(१) पालवंशी महीपाल के, वि० सं० १०८३ (ई० स० १०२६) के, शिलालेख
और गाहड़वाल चन्द्र के सब से पहले, वि. सं. ११४८ (ई. स. १०६१) के, ताम्रपत्र में ६५ वर्ष का अन्तर है । ऐसी हालत में इन दोनों के बीच पिता पुत्र का सम्बन्ध मानना ठीक प्रतीत नहीं होता। इसके अलावा चन्द्रदेव का अन्तिम ताम्रपत्र वि. सं. ११५६ ( ई० स० १०६६) का है; जो इस सम्बन्ध में और
भी सन्देह उत्पन्न करता है। (२) पालवंशियों के लेखों में महीपाल का ही एक लेख ऐसा मिला है, जिसमें विक्रम
संवत् (१०३) लिखा है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
राष्ट्रकूटों का इतिहास परन्तु गाहड़वालों की प्रशस्तियों में उनके राज्य संवत् का उल्लेख न होकर विक्रम संवत् का प्रयोग होता था । पांचवां, पालवंशी राजा धर्मपाल का विवाह राष्ट्रकूट राजा परबल की पुत्री से, और पालवंशी राजा राज्यपाल का विवाह राष्ट्रकूट राजा तुङ्ग की कन्या से हुआ था । पहले राष्ट्रकूटों और गाहड़वालों का एक होना सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है । ऐसी हालत में मिस्टर हार्नले का यह अनुमान ठीक नहीं होसकता ।
मिस्टर विन्सेंटस्मिय उत्तरी राष्ट्रकूटों ( राठोड़ों) को गाहड़वालों के वंशज मानते हैं, और दक्षिणी राष्ट्रकूटों को दक्षिण की अनार्य जाति की सन्तान भनुमान करते हैं । परन्तु उपर्युक्त प्रमाणों के होते हुए यह अनुमान भी सिद्ध नहीं होता । इसके अलावा सोलकियों और यादवों की कन्याओं से दक्षिणी राष्ट्रकूटों का विवाह होना भी इन्हें शुद्ध क्षत्रिय प्रमाणित करता है ।। ___ कारमीरी पंडित कलण ने, वि० सं० की बारहवीं शताब्दी में, 'राजतरंगिणी' नामका कारमीर का इतिहास लिखा था । उसके सातवें तरङ्ग के एक कोक से ज्ञात होता है कि, उस समय भी क्षत्रियों के ३६ कुल माने जाते थे । जयसिंह ने वि० सं० १४२२ में 'कुमारपालचरित' बनाना प्रारम्भ किया था । उस में दिये क्षत्रियों के ३६ वंशों के नामों में केवल "राट' नाम ही मिलता है; गाहड़वालों का नाम नहीं दिया है । इसी प्रकार 'पृथ्वीराज रासो' में राठोड़ वंशका नाम ही मिलता है; गाहड़वाल वंश का उल्लेख नहीं है । साथही उसमें जयचन्द्र को राठोड़ लिखा है।
(१) एक वंश में विवाह न करने का नियम पूरी तौर से पालन नहीं किया जाता था।
इस विषय का खुलासा 'अन्य प्राक्षेप' नामक अध्याय की चौथी शङ्का के उत्तर में
मिलेगा ।( देखो पृ. ३१) (२) मी हिस्ट्री मॉफ इण्डिया, ( ई० स० १९२४ ) पृ. ४२६-४१. (३) "प्रख्यापयन्तः संभूति षट्विंशति कुलेषु ये। तेजस्विनो भास्वतोपि सहन्ते नोच्चक: स्थितिम् ॥ १६१७ । "
( तरंग ७)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट और गाहड़वाल
२१
रामपुर ( फ़र्रुखाबाद जिले में ) का राजा, खिमसेपुर ( मैनपुरी जिले में ) का राव, और सुरजई और सौरड़ा के चौधरी भी अपने को जयच्चन्द्र के पुत्र जजपाल के वंशज, और राठोड़ कहते हैं । इसी प्रकार विजैपुर, मांडा आदि के राजा भी अपने को जयच्चन्द्र के भाई माणिकचन्द्र की औलाद में समझते हैं, और चंद्रवंशी गाहड़वाल राठोड़ कहते हैं । इन बातों से भी गाहड़वालों का राष्ट्रकूटों ( राठोड़ों ) की ही एक शाखा होना सिद्ध होता है ।
ऐसी हालत में, इतने प्रमाणों के होते हुए, राष्ट्रकूटों और गाहड़वालों को भिन्न वंशी मानना उचित प्रतीत नहीं होता ।
सेट माहेठ से मिले, वि० सं० १९७६ (ई स० १११८) के, बौद्ध लेखे में गोपाल के नाम के साथ " गाधिपुराधिप " ( कन्नौजनरेश) की उपाधि लगी होने से, श्रीयुत एन. बी. सन्याल उस लेख के गोपाल और उसके उत्तराधिकारी मदनपाल को, और बदायूं के राष्ट्रकूट नरेश लखनपाल के लेख के गोपाल और मदनपाल को एक ही अनुमान करते हैं । उनके मतानुसार, गोपाल ने ईसवी सन् की ११ वीं शताब्दी के चतुर्थ पाद में (अर्थात् - वि० सं० १०७७ - ई० स० १०२० के करीब कन्नौज के प्रतिहार वंश की समाप्ति होने, और ईसवी सन् की ११ वीं शताब्दी की समाप्ति के करीब गाहड़वाल चन्द्र के कन्नौज राज्य की स्थापना करने के बीच ) वहां (कन्नौज) पर अधिकार कर लिया था । इसके बाद गाहड़वाल वंशी चन्द्र ने इसी गोपाल से वहां का अधिकार छीना था । इसी से उपर्युक्त सेट माहेठ के लेख में गोपाल के नाम के साथ “गाधिपुराधिप" की उपाधि लगी है ।
(१) शम्साबाद के लोगों का कहना है कि, कन्नौजके छिनजानेपर जयचन्द्र के कुछ वंशज नेपाल की तरफ़ चले गये थे । ये अपने को राठोड़ कहते हैं । भानसे करीब ५० वर्ष पूर्व तक जब कभी उनके यहां विवाह मादि मांगलिक कार्य होता था, तब वे यहां ( शमसाबाद) से एक ईंट मंगवाते थे । इससे उनका मातृ-भूमि प्रेम प्रकट होता है। ( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० २४, पृ० १७६
(३) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, ( १६२५ ) भा० २१, पृ० १०३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
श्रीयुत सन्याल ने अपने इस मत के समर्थन में सोलंकी त्रिलोचनपाल के, सूरत से मिले, श० सं० ६७२ (वि० सं० १९०७ = ई० स० १०५०) के, ताम्रपत्र से यह श्लोक उद्धृत किया है:
२२
" कान्यकुब्जे महाराज ! राष्ट्रकूटस्य कन्यकाम्
लब्ध्वा सुखाय तस्यां त्वं चालुक्याप्नुहि संततिम् ॥”
इससे, पूर्व काल में किसी समय कन्नौज पर राष्ट्रकूटों का राज्य होना पाया जाता है । परन्तु मि० सन्याल इस शाखा को, और सेट माहेठ से मिले लेख वाली शाखा को एक मान कर अपने पहले लिखे अनुमान की पुष्टि करते हैं। आगे उनके मत पर विचार किया जाता है :
प्रतिहार त्रिलोचनपाल के, वि. सं. १०८४ ( ई. स. १०२७) के, ताम्रपत्रसे और यशः पाल के, वि. सं. १०१३ ( ई. स. १०३६ ) के, लेख से सिद्ध होता है कि, सम्भवतः वि. स. १०९३ ( ई. स. १०३६ ) के बाद भी कन्नौज पर प्रतिहार नरेशों का राज्य रहा था । गाहड़वाल नरेश चन्द्र के वि. सं. ११४८ ( ई. स. १०९१ ) के ताम्रपत्र में लिखा है:
"तीर्थानि काशिकुशिकोत्तरकोशलेन्द्रस्थानीयकानि परिपालयताभिगम्य । हेमात्मतुल्यमनिशं ददता द्विजेभ्यो येनाङ्किता वसुमती शतशस्तुलाभिः ॥"
इस श्लोक में, चन्द्र के काशी, कुशिक, और उत्तर- कोसल पर के अधिकार का उल्लेखकर, उसके किये सुवर्ण के अनेक तुलादानों का वर्णन दिया है । इससे ज्ञात होता है कि, चन्द्र को उन प्रदेशों के जीतने में अवश्य ही कुछ वर्ष लगे होंगे, और इसी से उसने इस ताम्रपत्र के लिखे जाने के बहुत पूर्व ही कन्नौज पर अधिकार करलिया होगा ।
( १ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० १२, पृ० २०१
( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० १८, पृ. ३४
( ३ ) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भा. ५, पृ. ७३१
( ४ ) ऐपिया फिया इविङका, भा. ६, पृ. ३०४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट और गाहड़वाल ऐसी हालत में यह अनुमान करना कि, चन्द्र ने ईसवी सन् की ११ वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में कन्नौज विजय किया था, और इसके पूर्व ( अर्थात्-इसी शताब्दी के चतुर्थ भाग में ) वहां पर बदायूं की राष्ट्रकूट शाखा के गोपाल का अधिकार था युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता ।
श्रीयुत सन्याल, कुतुबुद्दीन ऐबक के ई. स. १२०२ (वि. सं. १२५९) में बदायूं पर अधिकार कर उसे शम्सुद्दीन अल्तमश को जागीर में देदेनेसे, वहां से मिले लखनपाल के लेखेको उस समय से पहले का मानते हैं। ___इस मत के अनुसार, यदि लखनपाल का लेख इससे एक वर्ष पूर्व (वि० सं० १२५८ ई० स० १२०१) का मानलिया जाय, तो उसके और सेठ माहेठ से मिले मदन के, वि० सं० ११७६ ( ई० स० १११८ ) के ( बौद्ध), लेख के बीच करीब ८२ वर्ष का अन्तर आवेगा । यह बदायूं के मदन से लेकर ( उसके बाद की ) लखनपाल तक की ४ पीढियों के लिए उचित ही है। साथ ही यदि उस यवन आक्रमण का समय (जिसमें, श्रीयुत सन्याल के मतानुसार, मदन ने गाहड़वाल नरेश गोविंदचन्द्र के सामन्त की हैसियत से युद्ध किया था), जिसका उल्लेख गोविन्दचन्द्र की रानी कुमार देवी के (बौद्ध) लेख में मिलता है, वि० सं० ११७१ (ई० स० १११४) में मानलिया जाय, और उसमें से मदन के पहले की (चन्द्र तक की) ३ पीढियों के लिये ६० वर्ष निकाल दिये जाँय, तो चन्द्र का समय वि० सं० ११११ (ई० स० १०५४) के करीब आवेगा । ऐसी हालत में अनुमान के आधार पर चन्द्र का जन्म वि० सं० १०६० (ई० स० १०३३) के करीब मान लेने से उसका वि० सं० ११५७ (ई० स० ११००) (अर्थात्-६७ वर्ष की आयु ) तक जीवित रहना असम्भव नहीं कहा जासकता। चन्द्र का वृद्धावस्था तक जीवित रहना, उसके वि० सं० ११५४ (ई० स० १०६७) में अपनी वृद्धावस्था के कारण अपने पुत्र (कन्नौज के) मदनपाल को राज्य–भार सौप देने, और इसके तीनवर्ष बाद वि० सं० ११५७
(१) इलियट्स हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भा. २. पृ. २३२ और तबकातेनासिरी (रेवर्टी का
Raverty's अनुवाद), पृ. ५३० (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० १, पृ०६४ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा०, पृ. ३२४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास (ई० स० ११०० ) में स्वर्गवासी हो जाने से भी सिद्ध होता है। परन्तु उस समय तक उसका पुत्र मदन भी युवावस्था को पार कर चुका था। इसलिए उसने भी वि० सं० ११६१ (ई० स० ११०४) में, शायद अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारणही, अपने पुत्र गोविन्दचन्द्र को अपना युवराज बनालिया था, और वि० सं० ११६७ (ई० स० १११०) में उस (मदन) की मृत्यु होगई । __चन्द्र की मृत्यु वि० सं० ११५७ (ई० स० ११००) में मानी गई है । इससे अनुमान होता है कि, बदायूं के लेख का विग्रहपाल (जिसको चन्द्रका छोटा पुत्र होने के कारण बदायूं की जागीर मिली थी), और उसका पुत्र भुवनपाल शायद चन्द्र के जीतेजी ही मरचुके थे, और चन्द्र की मृत्यु के समय बदायूं पर गोपाल का अधिकार था । यह भी सम्भव है कि, चन्द्र ने अपने छोटे पुत्र विग्रहपाल और उसके पुत्र भुवनपाल के वि० सं० ११५४ (ई० स० १०१७) के पूर्व मर जाने के कारण, विरक्त होकर ही, अपने बड़े पुत्र मदनपाल को कन्नौज का अधिकार सौंप दिया हो । परन्तु चन्द्र के जीवित रहने से, (भुवनपाल के पुत्र) गोपाल के बदायूं की गद्दी पर बैठने पर भी, कुछ काल तक कन्नौज और बदायूं के घरानों में घनिष्ट सम्बन्ध बना रहा हो। इस कारण से, या गोविन्दचन्द्र का जन्म देरसे होने के कारण गोपाल के कन्नौज की गद्दी पर गोद आने की सम्भावना से, या फिर ऐसे ही किसी अन्य कारण से, गोपाल के नाम के साथ भी "गाधिपुराधिप” की उपाधि लगाई जाती हो । परन्तु उस ( गोपाल ) के पुत्र मदनपाल के समय, उन कारणों के न रहने या दोनों घरानों में राजा और सामन्त का सा सम्बन्ध स्थापित हो जाने से, मदन को इस उपाधि के उपयोग करने का अधिकार न रहा हो । फिर यह भी सम्भव है कि, कुछ समय बाद शायद स्वयं गोपाल के नाम के साथ भी इस उपाधि का उपयोग अनुचित समझा जाने लगा हो । हाँ, यदि वास्तव में ही गोपाल ने कन्नौज विजय किया होता, तो बदायूं के लेख में भी इसके नाम के आगे यह उपाधि अवश्य लगी मिलती। ___ बदायू से मिले लेख के लेखक ने (अपने आश्रयदाता के पूर्वज) मदनपाल के, गाहड़वाल-नरेश गोविन्दचन्द्र के सामन्त की हैसियत से किये, युद्ध का उल्लेख इस प्रकार किया है:
"यत्पौरुषात्प्रवरतःसुरसिन्धुतीरहम्मीरसंगमकथा न कदाचिदासीत्"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
राष्ट्रकूट और गाहड़वाल अर्थात्-जिस मदनपाल के अतुल पराक्रम के सामने मुसलमानों के गंगा तक पहुँचने का खयाल भी नहीं किया जाता था।
ऐसी हालत में यदि मदन के पिता गोपाल ने कन्नौज विजय जैसा प्रशंसनीय कार्य किया होता, तो उसका उल्लेख भी वह अवश्य करता। __ इन सब बातों पर विचार कर बदायूं के चन्द्रदेव को, और कन्नौज विजयी चन्द्र को एक मान लेने से सारी गड़बड़ दूर हो जाती है; और साथ ही इसमें किसी प्रकार की आपत्ति भी नज़र नहीं आती।
सोलंकी त्रिलोचनपाल के, वि० सं० ११०७ (ई. स. १०५०) के, ताम्रपत्र में कन्नौज के जिस राष्ट्रकूट घराने का उल्लेख है, वह बहुत पुराना होना चाहिये; क्योंकि उसी घराने में चालुक्य (सोलंकी) वंश के मूल पुरुष का विवाह होना लिखाहै । ऐसी हालत में त्रिलोचनपाल के ताम्रपत्र वाले राष्ट्रकूट वंश, और सेट माहेठ के लेख वाले राष्ट्रकूट वंश के बीच सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव प्रतीत नहीं होता।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्य आक्षेप
इस अध्याय में राष्ट्रकूटों और गाहड़वालों की एकता पर की गई अन्य शङ्काओं पर विचार किया जायगा ।
बहुत से प्राच्य और पाश्चात्य ऐतिहासिक दक्षिण के राष्ट्रकूटों और कन्नौज के गाहड़वालों को एक वंश का मानने में संकोच करते हैं, और अपने मत की पुष्टि में आगे लिखे कारण उपस्थित करते हैं:
१-राष्ट्रकूटों के लेखों में उनको चन्द्रवंशी लिखा है; पन्तु गाहड़वाल अपने ___ को सूर्यवंशी लिखते हैं। २-राष्ट्रकूटों का गोत्र गौतम, और गाहड़वालों का काश्यप है। ३-गाहड़वालों की प्रशस्तियों में उनको राष्ट्रकूट न लिखकर गाहड़वाल..
ही लिखा है। ४-राष्ट्रकूटों और गाहड़वालों के बीच विवाह सम्बन्ध होते हैं । ५-अन्य क्षत्रिय गाहड़बालों को उच्च वंश का नहीं मानते ।
आगे इन पर क्रमशः विचार किया जाता है:१-'राष्ट्रकूटों का वंश' शीर्षक अध्याय में इनके वंश के विषय में विचार किया जा चुका है। परन्तु उन प्रमाणों को छोड़ कर यदि साधारण तौर से विचार किया जाय, तो भी ऐतिहासिकों के लिए यह सूर्य, चन्द्र, और अग्निवंश का झगड़ा पौराणिक कल्पना मात्र ही है; क्योंकि एक ही वंश के राजाओं के लेखों में, किसी में उनको सूर्यवंशी, किसी में चंद्रवंशी, और किसी में अग्निवंशी लिख दिया है। आगे इस प्रकार के कुछ उदाहरण उद्धृत किये जाते हैं:___उदयपुर के वीर-शिरोमणि महाराणाओं का वंश, भारत में, सूर्यवंश के नाम से प्रसिद्ध है । परन्तु वि० सं० १३३१ (ई० सं० १२७४ ) के, चित्तौड़गढ़ से मिले, एक लेख में लिखा है:
"जीयादानन्दपूर्व तदिह पुरमिलाखंडसौन्दर्यशोभिक्षोणी प्र (पू) ष्ठस्थमेव त्रिदशपुरमधः कुर्वदुः समृदया।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्य प्राक्षेप यस्मादागत्य विप्रश्चतुरुदधिमहीवेदिनिक्षिप्तयूपो
बप्पाख्यो वीतरागश्चरणयुगमुपासीत हारीतराशेः॥" अर्थात्-( महाराणाओं के वंश के संस्थापक) बप्प नामक ब्राह्मण ने, आनदपुर से आकर, हारीतराशि की सेवा की।
यही बात समरसिंह के, आबू पर्वत पर के (अचलेश्वर के मंदिर के पास वाले मठ से मिले ), वि० सं. १३४२ (ई. स. १२८५) के, लेख से भी प्रकट होती है। राणा कुंभा के समय बने 'एकलिंगमाहात्म्य' में लिखा है:
"आनन्दपुरविनिर्गतविप्रकुलानन्दनो महीदेवः।
जयति श्रीगुहदत्तः प्रभवः श्रीगुहिलवंशस्य ॥" अर्थात्-आनन्दपुर से आने वाला, और ब्राह्मण वंश को आनन्द देने वाला गुहदत्त गुहिलवंश का संस्थापक था।
जयदेव कवि रचित 'गीतगोविन्द' की, स्वयं महाराणा कुंभा की लिखी, 'रसिकप्रिया' नाम की टीका में लिखा है:
___ "श्रीवैजवापेनसगोत्रवर्यः श्रीवप्पनामा द्विजपुङ्गवोऽभूत् ।
हरप्रसादादपसादराज्यप्राज्योपभोगाय नृपोभवद्यः।" अर्थात्-वैजवापगोत्री ब्राह्मण बप्प ने शिव की कृपा से राज्य प्राप्त किया। गुहिलोत बालादित्य के, चाटसू (जयपुर राज्य) से मिले; लेख में लिखा है:
"ब्रह्मतत्रान्वितोऽस्मिन् समभवदसमे" अर्थात्-इस वंश में (परशुराम के समान) ब्राह्म, और क्षात्र तेजों को धारण करने वाला (भर्तृभट) राजा हुआ ( यहां पर कविने "ब्रह्मक्षत्र" में श्लेष रख कर अर्थ को बड़ी खूबी से प्रकट किया है)
इन अवतरणों से प्रकट होता है कि, गुहिलोत वंश का संस्थापक वैजवाप गोत्री नागर ब्राह्मण था । परन्तु क्या ऐतिहासिक इस बात को मानने के लिए तैय्यार हैं !
यही हाल सोलंकी (चालुक्य) वंश का है । सोलंकी विक्रमादित्य ठे) के लेख में लिखा है:
"प्रोस्वस्ति समस्तजगत्प्रसूतेभंगवतोब्रह्मणः पुत्रस्यात्रनेत्रसमुत्पन्नस्य यामिनी. कामिनीललामभूतस्य सोमस्यान्वये.. श्रीमानस्ति चालुक्यवंशः।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास अर्थात्-चन्द्र के कुल में चालुक्य वंश हुआ। यही बात इनकी अन्य अनेक प्रशस्तियों, हेमचन्द्र रचित 'याश्रयकाव्य,' और जिनहर्षगणि रचित 'वस्तुपाल चरित' से भी प्रकट होती है ॥
सोलंकी कुलोत्तुंगचूड़देव (द्वितीय) के, वि. सं. १२०० ( ई. स. ११४३ ) के, ताम्रपत्र में इनको चन्द्रवंशी, मानव्य गोत्री, और हारीतिका वंशज लिखा है।
काश्मीरी कवि बिहण ने, अपने बनाये 'विक्रमाङ्कदेव चरित' नामक काव्य में, इस ( चालुक्य-सोलंकी) वंशकी उत्पत्ति ब्रह्मा के चुल्लू (अंजलि ) के जलसे लिखी है। इसका समर्थन सोलंकी कुमारपाल के समय के वि. सं. १२०० ( ई. स. ११५१ ) के लेख, खंभात के कंथुनाथ से मिले लेख, और त्रिलोचनपाल के वि. सं. ११०७ ( ई. स. १०५० ) के ताम्रपत्र आदि से भी होता है ।
हैहय ( कलचुरी ) वंशी युवराजदेव (द्वितीय) के समय के, बिल्हारी ( जबलपुर जिले ) से मिले, लेख में चालुक्य वंश का द्रोण के चुल्लू से उत्पन्न होना लिखा है। _ 'पृथ्वीराजरासो' में सोलंकियों को अग्निवंशी लिखा है, और इस समय के सोलंकी ( और बघेले ) भी अपने पूर्वज चालुक्य को वशिष्ठ की अग्नि से उत्पन्न दुआ मानते हैं। __आगे चौहानवंश की उत्पत्ति पर विचार किया जाता है:
कर्नल जेम्सटॉड को मिले, वि. सं. १२२५ ( ई. स. ११६८ ) के, हांसी के किले वाले लेख में, और देवड़ा ( चौहान ) राव लुभा के, आबू पर्वत पर के ( अचलेश्वर के मंदिर से मिले ), वि. सं. १३७७ ( ई. स. १३२०) के, लेखमें चाहमान ( चौहान ) वंश का चन्द्रवंशी और वत्सगोत्री होना लिखा है।
वीसलदेव ( चतुर्थ ) के समय के लेख में, नयचन्द्रसूरि रचित 'हम्मीर महा( काव्य' में, और 'पृथ्वीराजविजय' में इस वंश को सूर्यवंशी कहा है । परन्तु 'पृथ्वीराजरासो' में चौहानों का अग्निवंशी होना लिखा है । आजकल के चौहान भी अपने पूर्वज का वशिष्ठ के अग्निकुंड से उत्पन्न होना मानते हैं ।
(१) ऐपिग्राफिया इगिडध, भा. १ पृ. २५७ (२) सोलंकियों की एक शाखा
-
-
-
.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्य प्राक्षेप इसी प्रकार परमार वंशकी उत्पत्ति के विषय में भी मतभेद है:
पद्मगुप्त ( परिमल ) रचित 'नवसाहसाङ्कचरित' में इस वंश की उत्पत्ति वशिष्ठ के अग्निकुंड से लिखी है । इस वंशवालों के लेखों, और धनपाल रचित 'तिलकमंजरी' से भी इस की पुष्टि होती है । परन्तु हलायुध ने अपनी 'पिंङ्गलसूत्रवृत्ति' में एक श्लोक उद्धत किया है । उस में परमारवंशी राजा मुञ्ज को “ब्रह्मक्षत्रकुलीनः ” लिखा है । यह विचारणीय है।
मालवे की तरफ़ के आजकल के परमार अपने को सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के वंशज बतलाते हैं । परन्तु इनके पूर्वजों की प्रशस्तियों आदि से इस बात की पुष्टि नहीं होती। ____ यही हाल प्रतिहार ( पड़िहार ) वंश का है । कहीं पर इस वंश को ब्राह्मण हरिश्चंद्र और क्षत्रियाणी भद्रा की संतान लिखा है, तो कहीं पर वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुआ माना है । ___इन अवतरणों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि, सम्भवतः, इसी प्रकार की गड़बड़ राष्ट्रकूट वंश के विषय में भी की गई है । वास्तव में देखा जाय तो यह सब झमेला पौराणिक कथाओं के अनुकरण से उत्पन्न हुआ है; इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व नहीं रखता। २- विज्ञानेश्वर ने लिखा है कि, क्षत्रियों का गोत्र, और प्रवर उनके पुरोहित के गोत्र, और प्रवर के अनुसार होता है । इससे ज्ञात होता है कि, विक्रम की १२ वीं
"विप्रः श्रीहरिचन्द्राख्यः पत्नी भद्रा च क्षत्रिया । ताभ्यान्तु [ ये सुता ] जाता [ प्रतिहा ] संश्च तान्विदुः ॥ ५ ॥"
(प्रतिहार बाउक का ८९४ का लेख ) परन्तु इसी लेख में, पहले, प्रतिहार वंश का लक्ष्मण से, जो अपने भाई रामचन्द्र का प्रतिहार ( द्वारपाल ) था, उत्पन्न होना ध्वनित किया है:
"स्वभ्रात्रा रामचन्द्रस्य प्रतिहार्य कृतं यतः ।
श्रीप्रति(ती)हारवंशोयमतश्चोन्नतिमाप्नुयात् ॥ [४]" । (२) दक्षिण के कलचुरी वंशी विज्जल के, श० सं० १०८४ के लेख में, मापसको शत्रुता के कारणही, राष्ट्रकूटों को दैत्यवंशी लिख दिया है।
(ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा• ५, पृ० १६) (1) "राजन्यविशा 'पुरोहितगोत्रप्रवरौ वेदितव्यौ" । (पौरोहित्यान् राजविशां प्रनण ते
इत्याह प्राश्वलायन.")
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास शताब्दी तक क्षत्रियों का गोत्र, और प्रवर उनके पुरोहित के गोत्र, और प्रवर के अनुसार ही समझा जाता था । इसलिए संभव है, अन्तिमवार कन्नौज की तरफ़ आने पर, अपने पुराने पुरोहित छूट जाने से, राष्ट्रकूटों ने नये पुरोहित नियत करलिए हों, और इसी से इनका गोत्र बदल कर गौतम के स्थान में काश्यप हो गया हो । अथवा पहले ये काश्यप गोत्री ही रहे हों । परन्तु मारवाड़ में आने पर, पुरोहित के बदल जाने से, इन्होंने गौतम गोत्र धारण करलिया हो।
राजाओं की प्रशस्तियों में, बहुधा, उनके गोत्रों का उल्लेख नहीं मिलता है । सम्भव है, इसीसे ये अपना पुराना गोत्र भूल कर काश्यप गोत्री बन गये हों। इस प्रकार का गोत्र-परिवतर्न अनेक स्थानों पर देखने में आता है । ऐसी हालत में, चिरकाल से एक समझे जानेवाले राष्ट्रकूट और गाहड़वाल वंश को, केवल गोत्रों के आधार पर, एक दूसरे से भिन्न मानलेना उचित प्रतीत नहीं होता । ३-प्रतिहार बाउक का एक लेख जोधपुर से मिला है । उसमें लिखा है:--
"भट्टिकं देवराज यो वल्लमण्डलपालकम् ।
निपात्य तत्क्षणं भूमौ प्राप्तवान् छत्रचिह्नकम् ॥" अर्थात्-जिसने वल्लमंडल के भाटी राजा देवराज को मारकर छत्र प्राप्त किया था। तथा
"[भट्टि ] वंशविशुद्धायां तदस्मात्ककभूपतेः ।
श्रीपद्मिन्यां महाराश्यां जातः श्रीवाउकः सुतः ॥ २६ ॥" अर्थात्-प्रतिहार नरेश कक्के, भाटी वंश की रानी से, बाउक नाम का पुत्र हुआ।
( याज्ञवल्क्य स्मृति, विवाह प्रकरण:
"असमानार्ष गोत्रजां" ( श्लो० ५३ ) की टीका ) विक्रम की दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में होने वाले कवि अश्वघोष के बनाये 'मौन्दरानन्द महाकाव्य में भी इस बात की पुष्टि होती है । उसमें लिखा है"गुरोगोंत्रादतः कौत्सास्ते भवन्तिस्म गौतमाः ॥ २२ ॥"
( सौन्दरानन्द महाकाव्य, वर्ग 1)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्य आक्षेप
३१ इन श्लोकों में यदुवंश का उल्लेख न होकर उसकी 'भाटी' नामक शाखा का उल्लेख मिलता है। क्या इससे यह समझा जा सकता है कि, भाटी और यादव दो भिन्न वंश हैं ? यदि नहीं, तो फिर क्या कारण है कि, गोविन्दचन्द्र के, युवराज अवस्था के, वि. सं. ११६१, ११६२, और ११६६ के, केवल तीन ताम्रपत्रों में गाहड़वाल वंश का उल्लेख होने से ही राष्ट्रकूटों और गाहड़वालों को भिन्न वंशी मानलिया जाय । इसके अतिरिक्त, आज कल भी चौहानों की देवड़ा आदि, और गुहिलोतों की सीसोदिया आदि शाखाओं के लोग अपना परिचय चौहान या गुहिलोत के नाम से न देकर देवड़ा या सीसोदिया आदि शाखाओं के नाम से ही देते हैं। इसी प्रकार प्रसिद्ध हैहयवंशी नरेशों का चलाया संवत् उनकी कलचुरी शाखा के नाम पर ही “कलचुरि संवत्" कहाता है।
४-सारनाथ से महाराजाधिराज गोविन्दचन्द्र की रानी, कुमार देवी, का एक लेख मिला है। उससे ज्ञात होता है कि, वह (कुमारदेवी) (राष्ट्रकूट) महण की नवासी थी, और उसका विवाह गाहड़वाल राजा गोविन्दचन्द्र से हुआ था। संध्याकरनंदी रचित 'रामचरित' में इस महण (मथन) को राष्ट्रकूटवंशी लिखा है। ऐसे विवाह सम्बन्ध अब भी होते हैं। परन्तु उनमें इतना ध्यान अवश्य रक्खा जाता है कि, जिस प्रशाखा में पुरुष उत्पन्न हुआ हो कन्या भी उसी प्रशाखा की नवासी न हो।
(1) चंदेलवंशी क्षत्रियों के लेखों में उनको, अत्रि के पुत्र चन्द्र का वंशज मानकर, चद्रात्रेय
लिखा है । 'पृथ्वीराजरासो', में उनकी उत्पत्ति गाहड़वाल नरेश इन्द्रजित् के पुरोहित हेमराज की विधवा कन्या हेलवती के गर्ग और चंद्रमा के मौरससे लिखी है। पन्तु चंदेल अपने को राष्ट्रकूटों का वंशज बतलाते हैं । इनका राज्य बुंदेलखंड और उसके आस पास था। इसी प्रकार बुंदेले भी गाहहवालों के वंशज माने जाते हैं ? (परन्तु इन में पीछे से, कुछ परमार, चौहान मादि भी मिल गये हैं ?) इस
समय अोळ, टेहरी, पन्ना प्रादि में बुंदेल नरेशों का राज्य है। (२) यद्यपि कोटा राज्य (राजपूताना ) के नरेश चौहान हैं, तथापि वे अपना परिचय
उक्त वंश की हाडा' शाखा के नाम से ही देते हैं। (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६ पृ. ३१६-३२८
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
राष्ट्रकूटों का इतिहास ५-उस समय की प्रशस्तियों को देखने से यह कल्पना ही निर्मूल प्रतीत होती है; क्योकि युवराज गोविन्दचन्द्र के, वि. सं. ११६६ (ई. स. ११०१) के, ताम्रपत्र में लिखा है:
"प्रध्वस्ते सूर्यसोमोवविदितमहाक्षत्रवंशद्वयेऽस्मिन् उत्सन्नप्रायवेदध्वनि जगदखिलं मन्यमानः स्वयंभूः । कृत्वा देहग्रहाय प्रवणमिह मनः शुद्धबुद्धिर्धरित्र्यां उद्धर्नुधर्ममार्गान् प्रथितमिह तथा क्षत्रवंशद्धयं च ॥ वंशे तत्र ततः स एव समभूद्भपालचूडामणिः ।
प्रध्वस्तोद्धतवैरिवीरतिमिरः श्रीचन्द्रदेवो नृपः ॥" । अर्थात्-सूर्य और चन्द्रवंशी राजाओं के नष्ट होजाने से जब संसार में वैदिक धर्म का ह्रास होने लगा, तब स्वयं ब्रह्मा ने उसके उद्धार के लिए चंद्रदेव के रूप में इस वंश में अवतार लिया ।
इससे प्रकट होता है कि गाहड़वाल वंश उस समय भी बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था।
अन्य शुद्ध क्षत्रिय वंशो के साथ इनका विवाह सम्बन्ध होना भी इस शङ्काको निर्मूल सिद्ध करता है। ____ अन्त में सब प्रमाणों पर विचार करने से सिद्ध होता है कि, राष्ट्रकूटों की ही एक शाखा गाहड़वाल के नाम से प्रसिद्ध हुई थी। इस विषय पर पहले "राष्ट्रकूट और गाहड़वाल" नामक अध्याय में भी विचार किया जाचुका है । (१) कुछ लोगों का अनुमान है कि, जिस प्रकार राठोड़ों और सीसोदियों-दोनों ही के वंशों
में चूंडावत, ऊदावत, और जगमालोत नाम की शाखाएं चली हैं, उसी प्रकार संभव है, राष्ट्रकूट वंश में भी कोई दूसरी यादव नाम की शाखा चली हो; और उसी में भागे चलकर सात्यकि नाम का व्यक्ति विशेष भी उत्पन्न हुआ हो । परन्तु पिछले लोगों ने नाम-साम्य को देखकर उसे यादव वंश का प्रसिद्ध सात्यकि ही समझ लिया हो।
परन्तु जिस प्रकार राठोड़ों और सीसोदियों के वंश को कुछ शाखामों के नाम मिलजाने पर भी ये दोनों वंश भिन्न समझे जाते हैं, उसी प्रकार प्रसिद्ध चंद्रवंशी यादव और राठोड़ वंश की यादव शाखा को भी भिन्न ही समझना चाहिये।
इस विषय पर "राष्ट्रकूटों का वंश" नामक अध्याय में विचार किया. आचुका है। इस के सिवाय एकही नाम की और भी अनेक शाखाएं प्रचलित हैं; जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रादि भिन्न भिन्न वर्षों तक में पाई जाती हैं । जैसे-नागदा, दाहिमा, सोनगरा, श्रीमाली, गौड प्रादि ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का धर्म राष्ट्रकूट राजाओं के मिले सब से पहले, अभिमन्यु के, ताम्रपत्र की मुहर में अम्बिका के वाहन सिंह की आकृति बनी है; दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग द्वितीय ) के, श० स० ६७५ (वि० सं० ८१०= ई० स० ७५३ ) के, दानपत्र में शिव की मूर्ति है; कृष्णराज प्रथम के सिक्कों पर “परममाहेश्वर" उपाधि लिखी है; और उसी ( कृष्णराज ) के, श० सं० ६१० (वि० सं० ८२५ ई० स० ७६८ ) के, लेख में शिवलिंग बना है। परंतु इस वंश के पिछले ताम्रपत्रों पर किसी में गरुड़ की, और किसी में शिव की आकृति बनी है।
राष्ट्रकूटों की ध्वजा का नाम "पालिध्वजे" था, और ये लोग "ओककेतु" भी कहाते थे। इनके “निशान" में गङ्गा और यमुना के चिह्न बने थे। सम्भवतः ये चिह्न इन्होंने बादामी के पश्चिमी चालुक्यों के निशान" से ही नकल किये होगें।
(१) "पालिध्वज" के विषय में जिनसेन रचित 'आदिपुराण' के २२ वें पर्व में लिखा है:
"अग्वस्त्रसहसानाब्जहंसवीनमृगाशिनाम् । वृषभेमेन्द्रचक्राणां ध्वजाः स्युर्दशभेदकाः । २१४ । अष्टोत्तरशतं ज्ञेयाः प्रत्येकं पालिकेतनाः ।
एकेकस्यां दिशि प्रोचेस्तरंगास्तोयधेरिव ॥ २२० ॥" अर्थात्-(१) माला, (२) वस्त्र, (२) मयूर, (४) कमल, (५) हम, (६) गरुड़, (७) सिंह, (८) बैल, (९) हाथी, और (१०) चक्र के चिह्नों से ध्वजामों के दस भेद होते हैं। इनमें से हर तरह की एक सौ पाठ ध्वजाओं के प्रत्येक दिशा में लगाने से (अर्थात्-प्रत्येक दिशा में कुल मिलाकर १०८०, और चारों दिशामों में कुल मिलाकर ४३२. ध्वजारों के लगाने से ) "पालिकेतन' (पालिध्वज ) बनता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास पिछले राष्ट्रकूटों की कुलदेवी लातना (लाटना), राष्ट्रश्येना, मनसा, या विन्ध्यवासिनी के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं कि, इनकी कुलदेवी ने "श्येन" ( वाज) का रूप धारणकर इनके "राष्ट्र" (राज्य) की रक्षा की थी; इसी से उसका नाम "राष्ट्रश्येना" हुआ । मारवाड़ के राठोड़ राजघराने के "निशान" में इसी घटनाके स्मारक श्येन (बाज ) की आकृति बनी रहती है। ___ उपर्युक्त विवरण से प्रकट होता है कि, इस वंश के राजा यथा समय शैव, वैष्णव, और शाक्त मतों के अनुयायी रहे थे । जैनों के 'उत्तरपुराण' में लिखा है:
“यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजरजः पिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं
स श्रीमाजिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ॥" अर्थात्-राजा अमोघवर्ष जिनसेन नामक जैन साधु को प्रणाम कर अपने को धन्य मानता था ।
इससे प्रकट होता है कि, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (प्रथम) जिनसेन का शिष्य था । अमोघवर्ष की बनाई 'रत्नमालिका' (प्रश्नोत्तररत्नमालिका ) नामक पुस्तक में लिखा है:
"प्रणिपत्य वर्धमान प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वक्ष्ये । नागनरामरवन्ध देवं देवाधिपं वीरम् ॥
विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेय रत्नमालिका ।
रचिताऽमोघवर्षेण सुधियां सदलतिः ॥ (१) 'एकलिङ्गमहात्म्य' के ग्यारहवें अध्याय में लिखा है:
"स्ववेदादाष्ट्रश्येनां तां सृष्ट्वा स्थाप्याथ तत्र सा ॥ १५ ॥
श्येनारूपं सम्यगास्थाय देवी राष्ट्र वाहि त्राह्यतो वज्रहस्ता ॥ १६ ॥
दुष्टपहेभ्योन्यतमेभ्य एवं श्येनेत्राण मेदपाटस्य कार्यम् ॥ १७ ॥
राष्टश्येनेति नाम्नीयं मेदपाटस्य रक्षणम् ।
रोति न च भगोस्य यवनेभ्यो मनागपि ॥ २२ ॥" इससे प्रकट होता है कि, इसी राष्ट्रश्येना ने मेवाड़ की भी रक्षा की थी। इसका मन्दिर मेवार में, एकलिन महादेव के मन्दिर से १३ कोस के करीब, एक पहाड़ी प बना है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का धर्म अर्थात्-वर्द्धमान ( महावीर ) को प्रणाम करके 'प्रश्नोतररत्नमालिका' नामकी पुस्तक बनाता हूं।
ज्ञान के कारण राज्य छोड़ने वाले अमोघवर्ष ने यह 'रत्नमालिका' नामकी पुस्तक बनायी। महावीराचार्य रचित 'गणितसारसंग्रह' में लिखा है:
"प्रीणितः प्राणिशस्योघो निरीतिनिरवग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहितैषिणा ॥१॥ - - -- - - - - विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः ।
देवस्य नृपतुङ्गस्य वर्द्धतां तस्य शासनम् ॥ ६॥" अर्थात्-अमोघवर्ष के राज्य में प्रजा सुखी है, और पृथ्वी खूब धान्य उत्पन्न करती है । जैनमतानुयायी राजा नृपतुङ्ग (अमोघवर्ष ) का राज्य उत्तरोत्तर वृद्धि करता रहे। ___ इन अवतरणों से भी अमोघवर्ष (प्रथम ) का जैनमतानुयायी होना सिद्ध होता है । सम्भवतः इसने अपनी वृद्धावस्था के समय उक्त मत ग्रहण करलिया होगा।
इन राजाओं के समय पौराणिक मत की अच्छी उन्नति हुई थी, और बहुत से शिव, और विष्णु के नये मन्दिर बनवाये गये थे। ___ इनके समय से पूर्व पहाड़ काटकर जितनी गुफायें आदि बनवायी गयी थीं वे सब बौद्धों, जैनों, और निर्ग्रन्थों के लिए ही थीं । परंतु इन्हीं के समय पहले पहल इलोरा की गुफा का "कैलासभवन" नामक शिव का मन्दिर तैयार करवाया गया था। __इनकी कन्नौजवाली शाखा के अधिकांश राजा वैष्णवमतानुयायी थे, और उनके दानपत्रों की संख्या को देखने से ज्ञात होता है कि, वह शाखा दान देने में अन्य राजवंशों से बहुत बढी चढी थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
36
राष्ट्रकूटों के समय की विद्या और कला कौशल की अवस्था
इनके समय विद्या, और कला कौशल की अच्छी उन्नति हुई थी । इस वंश के राजा, स्वयं विद्वान् होने के साथ ही, अन्य विद्वानों का आदर करने में भी कुछ उठा नहीं रखते थे ।
'राज वार्तिक,' 'न्यायविनिश्चय,' 'अष्टशती' और 'लघीयस्त्रय' का कर्ता तार्किक अकलंक भट्ट; 'गणितसारसंग्रह' का कर्त्ता महावीराचार्य; 'आदिपुराण' और 'पार्श्वाभ्युदय' का लेखक जिनसेन; 'हरिवंशपुराण' का कर्ता दूसरा जिनसेन; 'अत्मानुशासन' का रचयिता गुणभद्राचार्य; 'कविरहस्य' का कवि हलायुधे; 'यशस्तिलक चम्पू,' और 'नीतिवाक्यामृत' नामक राजनैतिक ग्रन्थ का कर्ता सोमदेव सूरि; 'शान्तिपुराण' का कर्ता, कनाडी भाषा का कवि पोन्न (जिसे कृष्ण तृतीय ने “उभयभाषा चक्रवर्ती" की उपाधि दी थी ); 'यशोधरचरित,' 'नागकुमारचरित' और 'जैनमहापुराण' का कर्ता पुष्पदन्त; 'मदालसा चम्पू' का कर्ता त्रिविक्रमभट्ट; 'व्यवहारकल्पतरु' का संपादक लक्ष्मीधर; 'नैषधीयचरित' और ‘खण्डनखण्डखाद्य' बनाने वाला कवि श्रीहर्ष; आदि विद्वान् इन्हीं के समय हुऐ थे ।
( १ ) सर भगडारकर 'कविरहस्य' के कर्ता हलायुध को ही 'अभिधानरत्नमाला' का कर्ता भी मानते हैं । परन्तु मिस्टर वेबर उक्त माला के कर्ता का ईश्वी सन् की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में होना अनुमान करते हैं I
( २ ) करंजा के जैन पुस्तक भंडार में 'ज्जालामालिनीकल्प' नामक एक पुस्तक है। यह कृष्ण तृतीय के राज्य समय, श० सं० ८६१ में, समाप्त हुई थी। दिगम्बर जैन संप्रदाय की 'जयधवला' नामक सिद्धान्त टोका अमोघवर्ष प्रथम के समय बनी थी ।
मङ्खकविकृत 'श्रीकण्ठचरित' से प्रकट होता है कि, काश्मीर नरेश जयसिंह के मंत्री भलकार ने जिस समय एक बड़ी सभा की थी, उस समय कन्नौज नरेश गोविंदचन्द्र ने पति सुइल को अपना दूत बना कर भेजा था :
"ग्रन्यः स सुहलस्तेन ततोऽवन्द्यत पण्डितः । दूतो गोविन्दचन्द्रस्य कान्यकुब्जस्य भूभुजः ॥"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
(सर्ग २५ श्लोक १०२
www.umaragyanbhandar.com
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों के समय की विद्या और कला कौशल की अवस्था ३७ इस वंश के राजाओं की विद्वत्ता का प्रमाण, अमोघवर्ष (शर्व) रचित, 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' अब तक विद्यमान है । इसकी रचना बहुत ही उत्तम कोटि की है । यद्यपि कुछ लोग इसे शंकराचार्य की, और कुछ श्वेताम्बर जैनाचार्य की बनाई हुई मानते हैं, तथापि दिगम्बर जैनों की लिखी प्रतियों में इसे अमोघवर्ष की रचना ही लिखा है । यही बात इससे पहले के अध्याय में उद्धृत किये हुए श्लोकों से भी सिद्ध होती है। ___ इस पुस्तक का अनुवाद तिब्बती भाषा में भी हुआ था। उसमें भी इसके कर्ता का नाम अमोघवर्ष ही लिखा है। ___इसी अमोघवर्ष ने, कनाडी भाषा में, 'कविराजमार्ग' नाम की एक अलङ्कार
की पुस्तक भी लिखी थी। ___ऊपर लिखा जा चुका है कि, इन नरेशों के समय कला कौशल की भी अच्छी उन्नति हुई थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण इलोरा की गुफा का कैलास भवन नामक मंदिर विद्यमान है। यह कैलासभवन राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज (प्रथम) के समय पर्वत काटकर बनवाया गया था । इसकी प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। (१) अपनी कला के लिए जगत्प्रसिद्ध अजंता की गुफाओं में की पहले और दूसरे
नम्बर की गुफायें भी इन राजाओं के राज्य के प्रारम्भकाल में ही बनी थीं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
राष्ट्रकूटों का प्रताप अरबी भाषा में 'सिल्सिलातुत्तवारीख' नामकी एक पुस्तक है । उसे अरब व्यापारी सुलेमान ने, हिजरी सन् २३७ (वि. सं. १०८ = ई. स. ८५१) में, लिखा था; और सिराफ निवासी अबू दुल हसन ने, हि. स. ३०३ (वि. सं. २७३ ई. स. ११६) में, उसे दुरुस्तकर संपूर्ण किया था । उसमें लिखा है:___"हिन्दुस्तान और चीन के लोगों का अनुमान है कि, संसार में चार बड़े या खास बादशाह हैं । पहला, सबसे बड़ा, अरवदेश (बगदाद) का खलीफ़ा; दूसरा चीन का बादशाह; तीसरा यूनान का बादशाह; और चौथा बल्हरा, जो कान छिदे हुए पुरुषों (हिन्दुओं) का राजा है। ____ यह बल्हरा भारत के दूसरे राजाओं से अत्यधिक प्रसिद्ध है, और अन्य भारतवासी इसे अपने से बड़ा मानते हैं । यद्यपि भारतीय नरेश अपने प्रदेशों के स्वतंत्र स्वामी हैं, तथापि वे सबही बल्हरा को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं; और उसके प्रति श्रद्धा दिखलाने के लिए उसके भेजे राजदूतों का बड़ा आदर करते हैं । बलहरा भी अरबों की तरह अपनी सेना का वेतन समय पर देदेता है । उसके पास बहुत से घोड़े और हाथी हैं । उसे धन की भी कमी नहीं है । उसके यहां के सिक्के "तातारिया द्रम्म" कहाते हैं । उनका वजन अरबी द्रम्मों से डेवढा होता है, और उन पर हिजरी सन् के स्थान पर बल्हराओं का राज्यसंवत् लिखा रहता है ।
ये बल्हरा नरेश दीर्घायु होते हैं, और बहुधा इनमें का प्रत्येक राजा ५० वर्ष राज्य करता है । ये राजा अरबों पर बड़ी कृपा रखते हैं । "बल्हरा" इनका वैसा. ही खानदानी ख़िताब है, जैसाकि ईरान के बादशाहों का "खुसरो" है ।
(१) ईलियट्स हिस्ट्री मॉफ़ इण्डिया, भा. १, पृ. ३-४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का प्रताप
बलहरा का राज्य कोंकण से चीनकी सीमा तक फैला हुआ है अक्सर अपने पड़ोसी राजाओं से लड़ता रहता है । परन्तु यह उन है । इसके शत्रुओं में “जुर्ज " गुजरात का राज भी है ।"
. इन खुर्दादबा ने, जो हिजरी सन् ३०० (वि० सं० १६१ = ई० स० ११२ ) में मराथा, 'किताबुलमसालिक उलमुमालिक' नाम की पुस्तक लिखी थी । उस में लिखा है:
. ३३
। यह •
श्रेष्ठ
“हिन्दुस्तान में सबसे बड़ा राजा बलहरा है । " बलहरा " शब्द का अर्थ राजाओं का राजा होता है । इसकी अंगूठी में यह वाक्य खुदा है: - दृढ निश्चय के साथ प्रारम्भ किया हुआ प्रत्येक कार्य अवश्य सिद्ध होता है ।
99
अलमसऊदी ने, हिजरी सन् ३३२ (वि० सं० १००१ = ई. स. १४४ ) के करीब, 'मुरुजुलजहब' नामकी पुस्तक लिखी थी। इसमें लिखा है :"मानकीर नगर, जो भारत का प्रमुख नगर है, बलहरा के अधीन है।
-
( १ ) जिस समय यह पुस्तक लिखी गयी थी, उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम का राज्य था । इसलिए यह वृतांत उसी के समय का होना चाहिए । उसने गुजरात के राष्ट्रकूट राजा ध्रुवराज प्रथम पर भी चढ़ायी की थी। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा ध्रुवराज का राज्य दक्षिण में रामेश्वर से उत्तर में अयोध्या तक फैल गया था । नेपाल की वंशावली में लिखा है कि- " श० सं० ८११ ( वि० सं० ६४६ ई० स०८८E ) में करनाटक वंश के संस्थापक क्यानदेव ने दक्षिण से प्राकर सारे नेपाल पर अधिकार कर लिया था, और उसके बाद उसके ६ वंशज वहां के शासक रहे । श० सं० ८११ में करनाटक का राजा कृष्णराज द्वितीय था, और उसकी सातवीं पीढी में कर्कराज द्वितीय हुआ। उसी से चालुक्य वंशी तैलप द्वितीय ने राज्य छीन लिया था । इससे अनुमान होता है कि, मान्यखेट के राजा ध्रुवराज प्रथम के बाद उसके वंशजों ने, अयोध्या से आगे बढ, नेपाल के कुछ भागपर अधिकार कर लिया होगा, और बाद में कृष्णराज द्वितीय ने आक्रमण कर वहांके सारे देश को ही हस्तगत कर लिया होगा । नेपाल भौर चीन की सीमाओं के मिली होने से सुलेमान ने इनके राज्य का चीन की सीमा तक फैला हुआ होना लिखा है ।
(२) ईलियट्स हिस्ट्री भॉफ़ इण्डिया, भा० १५० १३ । यह वृत्तान्त कृष्णराज द्वितीय के है 1
समय का
( ३ ) ईलियट्स हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भा० १, पृ० १६ २४ | यह हाल कृष्णराज तृतीय के समय का है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
राष्ट्रकूटों का इतिहास इस वंश के राजा, प्रारम्भ से लेकर आजतक ( पीढी दर पीढी ), इसी नाम से पुकारे जाते हैं । हिन्दुस्तान के वर्तमान राजाओं में सब से बड़ा, और प्रतापी यही, मानकीर ( मान्यखेट ) का राजा, बलहरा है । अन्य बहुत से राजा इसे अपना सरदार समझते हैं, और इसके राजदूतों का बड़ा मान करते हैं। इसके राज्य के चारों तरफ़ अनेक अन्य राज्य हैं । मानकीर बड़ा नगर है, और यह समुद्र से ८० फर्सर्ग के फासले पर है । बलहरा के पास एक बड़ी फौज है । यद्यपि उस में बहुत से हाथी भी हैं, तथापि इसकी राजधानी पहाड़ी प्रदेश में होने से उसमें अधिक संख्या पैदल सिपाहियों की ही है । कन्नौज नरेश बयूरी इस वंश के नरेशों का शत्रु है । वलहरा के यहां की भाषा का नाम “कीरिया"
____ अलइस्तखैरी ने, हि. स. ३४० ( वि. सं. १००८ ई. स. १५१ ) में 'किताबुल अकालीम' लिखी थी; और इनहोकल ने, जो हि. स. ३३१ और ३५८ ( वि. सं. १००० और १०२५=ई. स. १४३ और १६८ ) के बीच भारत में आया था, हि. स. ३६६ ( ई. स. १७६ ) में, 'अष्कलउल बिलाद' नामक पुस्तक लिखी थी। वे लिखते हैं:
"बल्हरा का राज्य कर्बाय से सिमूर तक फैला हुआ है। उस में और भी बहुत से भारतीय नरेश हैं । बलहरा मानकीर में रहता है, जो एक बड़ा नगर है।"
ऊपर उद्धृत किये, अरब यात्रियों के, अवतरणों से प्रकट होता है कि, उस समय राष्ट्रकूट राजाओं का प्रताप बहुत बढा चढा था ।
(1) फर्सग करीब तीन मील का होता है । परन्तु सर ईलियट ने अपनी 'हिस्ट्री' में उसे ८
मील के बराबर लिखा है। (२) यह "प्रतिहार" का बिगड़ा हुआ रूप प्रतीत होता है। (३) सम्भवतः इसी को आजकल "कनारी" ( भाषा ) कहते हैं । ( ४ ) ईलियट्स हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भा० १, पृ. २७ (५) ईडियन हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भा. १, पृ. ३४ (६) खंभात ( Cambay) (७) सम्भवतः यह नगर सिन्ध की सरहद पर होगा। इस से राष्ट्रकूटों के राज्य की
उत्तरी नीमा का पता चलता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का प्रताप राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग ने सोलंकी ( चालुक्य ) वल्लभ कीर्तिवर्मा को जीतकर "वल्लभराज' की उपाधि धारण की थी। यही उपाधि उसके उत्तराधिकारियों के नाम के साथ भी लगी रहती थी। इसी से पूर्वोक्त लेखकों ने इन राजाओं को बलहरा के नाम से लिखा है । यह शब्द “वल्लभराज" का ही बिगड़ा हुआ | रूप है।
येवूर ( दक्षिण में ) के पास के सोमेश्वर के मंदिर से मिले लेखसे प्रकट होता है कि, राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज की सेना में ८०० हाथी, और ५०० सामन्त थे ।
(१) सा हैनरी ईलियट, मौर कर्नल टॉड प्रादि का अनुमान था कि, अरब लेखकों ने इस
बलहरा शब्द का प्रयोग वलभी के राजामों या स्वयं चालुक्यों के लिए ही किया है। ( ईलियट्स हिस्ट्री मॉफ इण्डिया, भा० १, पृ. ३१४.३५५ ) परन्तु उनका यह अनुमान निर्मूल है; क्योंकि बलभी का राज्य वि. सं. ८२३ ( ई. स. ७६६ ) के करीब ही नष्ट होचुका था; और चालुक्य राजा मंगलीश के, वि० सं० ६६७ (इ. स. ६१० ) में, मारे जाने पर उसके राज्य के दो भाग होगये थे। एक का स्वामो पुलकेशी हुप्रा । उसके वंशज कीर्तिवर्मा से, वि० सं० ८.१ और ८१. (ई.स. ७४८ और ७५३ ) के बीच, राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग ने राज्य छीनलिया। यह राज्य वि० सं० १०३० ( ई. स. १७३ ) के करीब तक राष्ट्रकूटों के वंश में ही रहा । परन्तु इसके पास पास चालुक्यवंशी तेलप द्वितीयने, राष्ट्रकूट राजा कर्कराज द्वितीय के समय, उसपर फिर अधिकार करलिया। इससे प्रकट होता है कि, वि० सं० ८०५ के करीब से वि० सं० १०३० ( ई० स० ४८ से ६७३ ) के करीब तक पश्चिमी चालुक्यों की इस शाखा का राज्य राष्ट्रकूटों के ही हाथ में था। सोलंकियों की पहली राजधानी बादामी थी। परन्तु तैलप द्वितीय ने, राज्य पर प्रधि. कार कर, कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। दूसरी शाखा का स्वामी विष्णुवर्धन हुआ। उसके वंशज पूर्वी चालुक्य कहाये । उनका राज्य वेंगी में था, और वे राष्ट्रकूटों
के सामन्त थे। (२) जिसप्रकार फ़ारसी तवारीखों में मेवाड़ नरेशों के नामों के स्थान में केवल "राण"
शब्द ही लिखा गया है, उसी प्रकार अरब लेखकों ने भी दक्षिण के राष्टकट
राजाओं के नामों के स्थान में केवल "बल्हरा" शब्द का ही प्रयोग किया है। (३) “योराष्ट्रकूटकुलमिन्द्र इति प्रसिद्धं कृष्णायस्य सुतमष्टगतेभसैन्यम् । निर्जित्य दग्धनृपपंचशतो.. ..
. ॥ (इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भा०८, पृ. १३,)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास ___गोविन्द चतुर्थ के, श. सं. ८५२ (वि. सं. १८७ = ई. स. १३०) के दानपत्र से ज्ञात होता है कि, राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज तृतीय ने, अपने अश्वारोहियों के साथ, यमुना को पारकर कन्नौज को उजाड़ दिया था।
थाना के शिलाहार वंशी राजा का, शक संवत् ११५ (वि. सं. १०५० ई. स. १९३) का, एक दानपत्र मिला है । उसमें लिखा है:
"चोलो लोलोभियाभूगजपतिरपतजाह्नवीगह्वरान्तः । वाजीशस्त्रासशेषः समभवदभवच्छैलरन्ध्रे तथान्ध्रः ॥ पाण्डयेशः खण्डितोऽभूदनुजलधिजलं द्वीपपालाः प्रलीना.
यस्मिन्दत्तप्रयाणे सकलमपि तदा राजकं न व्यराजत् ॥” अर्थात्-कृष्णराज (तृतीय) के सामने आने पर चोल, बंगाल, कन्नौज, आन्ध्र, और पाण्डय आदि देशों के राजा घबरा जाते थे। __ इसी दानपत्र में कृष्णराज (तृतीय) के अधिकार का उत्तर में हिमालय से दक्षिण में लंका तक, और पूर्व में पूर्वी समुद्र से पश्चिम में पश्चिमी समुद्र तक होना लिखा है।
चालुक्यवंशी तैलप (द्वितीय) ने, वि. सं. १०३० (ई० स० १७३) के करीब, राष्ट्रकूट राजा कर्कराज को परास्त कर, मान्यखेट के राष्ट्रकूट राज्य की समाप्ति की थी । इसलिए उपर्युक्त ताम्रपत्र उक्त राज्य के नष्ट हो जाने के बाद का है।
इससे प्रकट होता है कि, एक समय राष्ट्रकूटों का प्रताप बहुत ही बढा चढा था, और उसके नष्ट हो जाने पर भी उनके माण्डलिक राजा उसे आदर के साथ स्मरण किया करते थे।
(१) "यन्माद्यद्विपदन्तघातविषमं कालप्रियप्राङ्गणं
तीर्णायत्तुरंगरगाधयमुना सिन्धुप्रतिस्पर्धिनी । येनेदं हि महोदयारिनगरं निर्मूलमुन्मूलितं नाम्नाद्यापि जनैः कुशस्थलमिति ख्याति पर नीयते ॥"
(ऐपिग्राफ़िया इपिडका, भा० ७, पृ. ३६) (२) हिस्ट्री ऑफ मिडिएवल हिन्दू इण्डिया, भा॰ २, पृ. ३४६.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का प्रताप राष्ट्रकूटों का राज्य “रट्टपाटी" या "रट्टराज्य" के नाम से प्रसिद्ध था। स्कन्दपुराण के अनुसार इसमें सात लाख नगर, और ग्राम थे:
"ग्रामाणां सप्तलक्षं च रटराज्ये प्रकीर्तितम् ॥" ___अर्थात्-ट्टों (राष्ट्रकूटों) के राज्य में सात लाख गाँव थे । इनकी सवारी के समय "टिविलि' नाम का बाजा खास तौर से बजा करता था । ___गोविन्दचन्द्र के, बसाही से मिले, वि. सं. ११६१ (ई. स. ११०४) के, ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि, राजा कर्ण और भोज के मरने पर उत्पन्न हुई अराजकता को (राष्ट्रकूटों की) गाहडवाल (शाखा के) नरेश चन्द्रदेव ने ही दबाया था । ___ उसीमें यह भी लिखा है कि, गोविन्दचन्द्र ने "तुरुष्कैदंड' सहित वसही (बसाही) गांव दान किया था। इससे प्रकट होता है कि, जिस प्रकार मुसलमान बादशाह हिन्दुओं पर “जज़िया" लगाते थे, उसी प्रकार (गोविन्दचन्द्र के पिता) मदनपाल ने अपने राज्य में मुसलमानों पर "तुरुष्कदण्ड” नामका कर लगा रक्खा था। यह बात उसके प्रताप की सूचना देती है।
'रम्भामंजरी नाटिका' से प्रकट होता है कि, कन्नौज नरेश जयचन्द्र ने कालिंजर के चंदेल राजा मदनवर्म देव को विजय किया था । जयचन्द्र के पास विशाल सेना थी, और उसका राज्य गंगा और यमुना के बीच फैला हुआ था । (१) स्कन्दपुराण, कुमार खण्ड, अध्याय ३६, श्लोक १३५.
__ "याते श्रीभोजभूपे विबुधवरवधूनेत्रसीमातिथित्वं
श्रीकणे की तिशेषं गतवति च नृपे दमात्यये जायमाने । भर्तारं या व (घ) रित्री त्रिदिवविभुनिभं प्रीतियोगादुपेता
त्राता विश्वासपूर्व समभवदिह स दमापतिश्चन्द्रदेवः ॥" यहां पर कर्ण से हैहय (कलचुरी ) वंशी कर्ण का तात्पर्य है; जो वि.सं. १०६४ में विद्यमान था । परन्तु भोज के विषय में मतभेद है । कुछ लोग उसे परमार वंशी भोज मानते हैं; जो वि० सं १११० के करीब मरा था; मौर कुछ उसे प्रतिहार
(परिहार) भोज द्वितीय अनुपान करते हैं। यह वि० सं०४८० के करीब विद्यमान था। (३) गोविन्दचन्द्र के, अवध से मिले, वि० सं० ११८६ (ई० स० ११२६ ) के, ताम्रपत्र में भी "तुहष्कदंड" का उल्लेख है।
(लखनऊ म्यूज़ियम रिपोर्ट ( १९१४-१५, ) पृ० ४ पौर १०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
उपसंहार
सारेही उद्धृत प्रमाणों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि, पहले किसी समय राष्ट्रकूटों की एक शाखा ने कन्नौज में राज्य कायम किया था । परन्तु कुछ काल बाद उसके निर्बल हो जाने से वहां पर क्रमशः गुप्त, वैस, मौखरी, और पड़िहार नरेशों का राज्य हुआ । इसके बाद वि० सं० ११३७ ( ई० स० १०८० ) के करीब, एकवार फिर, राष्ट्रकूटों की दूसरी शाखा ने कन्नौज विजय कर वहां पर अपने राज्य की स्थापना की । यही दूसरी शाखा कुछ काल बाद
|
“गाधिपुर" (कन्नौज) के सम्बन्ध से गाहड़वाल कहाने लगी । वि० सं० १२५० ई० ० स० ११६४ ) में, शहाबुद्दीनगोरी के आक्रमण के कारण, इस शाखा का अन्तिम प्रतापी नरेश जयच्चन्द्र मारागया । यद्यपि शहाबुद्दीन के लूट मारकर चले जाने पर जयच्चन्द्र का पुत्र हरिश्चन्द्र कन्नौज और उसके आस पास के प्रदेश का अधिकारी हुआ, तथापि यह विशेष प्रतापी नहीं था । इसके बाद जब कुतुबुद्दीन ऐबक, और उसके अनुयायी शम्सुद्दीन अल्तमश ने, उक्त प्रदेश पर अधिकार कर, इस वंश के स्वतंत्र राज्य की समाप्ति करदी, तब जयच्चन्द्र के पौत्र रात्र सीहाजी महुई में जा रहे' । परन्तु कुछ काल बाद वहां पर भी मुसलमानों का अधिकार हो गया, और वह महुई छोड़ कर देशाटन करते हुए, वि० सं० १२६० के करीब, मारवाड़ में आ पहुँचे ।
इस समय उन्हीं राव सीहाजी के वंशज जोधपुर (मारवाड़), बीकानेर, ईडर, किशनगढ़, रतलाम, सीतामऊ, सैलाना, और झाबुआ में राज्य करते हैं ।
( १ ) आईने अकबरी में राव सीहा का खोर ( शम्साबाद ) में रहना और वहीं माराजाना लिखा है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपसंहार हमारे मतानुसार विजयचन्द्र से सीहाजी तक की वंशावली इस प्रकार होनी चाहियेः
विजयचन्द्र
जयच्चन्द्र
माणिकचन्द्र
हरिश्चन्द्र ( वरदायीसेन ) ( प्रहस्त ) जयपाल ( जजपाल )
सीहा
सेतराम राष्ट्रकूटों की तीसरी शाखा ने, सोलंकियों के राज्य को छीनकर, दक्षिण में अपना अधिकार जमाया था । यद्यपि अबतक इसके प्रारम्भ काल का पता नहीं चला है, तथापि सोलंकी ( चालुक्य ) जयसिंह के समय ( विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में ) वहां पर राष्ट्रकूटों के प्रबल राज्य का होना पाया जाता है । इसी को नष्टकर जयसिंह ने फिर सोलंकियों के राज्य की स्थापना की थी। परन्तु करीब २५० वर्ष बाद (वि० सं० ८०५=ई० स० ७४७ के आस पास) राष्ट्रकूट दन्तिवर्मा ( द्वितीय ) ने, सोलंकी कीर्तिवर्मा द्वितीय को हरा कर, एकवार फिर दक्षिण में राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना की । यद्यपि यह राज्य वि० सं० १०३० ( ई० स० १७३ ) ( अर्थात् सवादोसौ वर्ष ) तक राष्ट्रकूटों के ही अधिकार में रहा, तथापि इसके बाद, इस वंश के अन्तिम राजा कर्कराज (द्वितीय) के समय, सोलंकी तैलप (द्वितीय) की चढ़ाई के कारण इसकी समाप्ति हो गयी थी।
दक्षिण के राष्ट्रकूटों की ही दो शाखाओं ने, विक्रम की ८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ से विक्रम की नवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक, लाट ( गुजरात ) में क्रमशः राज्य किया था । इन शाखाओं के राजा दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। ___ इन स्थानों के अतिरिक्त सौन्दत्ति ( धारवाड़-बंबई ), हyडी ( मारवाड़ ),
और धनोप ( शाहपुरा ) में भी राष्ट्रकूटों की पुरानी शाखाओं के राज्य रहने के प्रमाण मिले हैं।
इस वंश की इधर उधर से मिली अन्य प्रशस्तियों का उल्लेख अगले अध्याय में किया जायगा।
(१) सम्भव है वरदायीसेन हरिश्चन्द्र का छोटा भाई हो।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों के फुटकर लेख । राष्ट्रकूट राजा अभिमन्यु का ताम्रपत्र ही राष्ट्रकूटों की सबसे पुरानी प्रशस्ति है । इसके अक्षरों से यह विक्रम की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के निकट का प्रतीत होता है । इसकी मुहर में दुर्गा के वाहन सिंह की मूर्ति बनी है।
इस ताम्रपत्र में शिव की पूजा के लिए दिये दान का उल्लेख है । यह दान अभिमन्यु की राजधानी मानपुर में दिया गया था । बहुत से विद्वान् इस मानपुर को मालवे ( मऊ से १२ मील दक्षिण-पश्चिम ) का मानपुर अनुमान करते हैं । इस ( ताम्रपत्र ) में अभिमन्यु के पूर्वजों की वंशावली इस प्रकार दी है:
१ मानाङ्क
२ देवराज
३ भविष्य
४ अभिमन्यु मध्यप्रदेश ( बेतूल जिले ) के मुलताई गांव से राष्ट्रकूटों की दो प्रशस्तियां मिली हैं । इनमें की पहेली प्रशस्ति में, जो शक संवत् ५५३ ( वि० सं०६८८ =ई० स० ६३१ ) की है, राष्ट्रकूट राजाओं की वंशावली इस प्रकार मिलती है:
१ दुर्गराज २ गोविन्दराज
३ स्वामिकराज
४ नन्नराज
(१) ऐपिप्राफिया इण्डिका, भा• ८, पृ. १६४. (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ११, पृ. २७६.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों के फुटकर लेख
४७
दूसरी प्रशस्ति में, जो शक संवत् ६३१ ( वि० सं० ७६६ = ई० स० ७०९ ) की है, दी हुई वंशावली इस प्रकार है:
१ दुर्गराज
२ गोविन्दराज
३ स्वामिकराज
४ नन्दराज
इस प्रशस्ति में नन्दराज की उपाधि “युद्धशूर" लिखी है, और इस में जिस दान का उल्लेख है वह कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को दिया गया था । इस प्रशस्ति के शक संवत् को यदि गत संवत् मानलिया जाय तो उस दिन २४ अक्टूबर ईसवी सन् ७०६ आता है ।
उपर्युक्त दोनों प्रशस्तियों में के पहले तीनों नाम एक ही हैं; केवल चौथे नाम ही में अन्तर है । इनमें दिये संवतों आदि पर विचार करने से अनुमान होता है कि, सम्भवतः दूसरी प्रशस्ति का नन्दराज पहली प्रशस्ति के नन्नराज का छोटा भाई था; और उसके पीछे उसका उत्तराधिकारी हुआ होगा ।
इन दोनों प्रशस्तियों (ताम्रपत्रों ) की मुहरों में गरुड़ की आकृति बनी है ।
( १ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा० १८, १०२३४ ।
(२) सम्भव है यह दुर्गराज दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा दन्तिवर्मा प्रथम का ही दूसरा नाम हो; क्योंकि एक तो इस लेख के दुर्गराज और दन्तिवर्मा प्रथम का समय मिलता है; दूसरा दन्तिवर्मा का दूसरा नाम दन्तिदुर्ग भी था, जो दुर्गराज से मिलता हुआ ही है; भौर तीसरा दशावतार के मन्दिर से मिले लेखमें दन्तिवर्मा द्वितीय का नाम दन्तिदुर्गराज लिखा है । इसलिए यदि यह अनुमान ठीक हो तो इस लेख का गोविन्दराज दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा इन्द्रराज प्रथम का छोटा भाई होगा ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
राष्ट्रकूटों का इतिहास पथारी ( भोपाल राज्य ) से, वि० सं० ११७ ( ई० स० ८६० ) का एक लेखै मिला है। इसमें मध्यभारत के राष्ट्रकूट-राजाओं की वंशावली इस प्रकार लिखी है:
१ जेजट
२ कर्कराज
३ परबल (वि० सं० ११७) परबल की कन्या, रगणादेवी का विवाह गौड़ ( बंगाल ) के पाल वंशी राजा धर्मपाल से हुआ था, और परबल के पिता कर्कराज ने नागभट ( नागावलोक) को हराया था । सम्भवतः यह नागभट ( नागावलोक) प्रतिहार वंशी राजा वत्सराज का पुत्र होगा । इस नागभट द्वितीय का एक लेख मारवाड़ राज्य के बुचकला गांव ( बिलाड़ा परगने ) से मिला है । यह वि० सं० ८७२ ( ई० स० ८१५ ) को है । परन्तु प्रोफेसर कीलहान इसे भृगुकच्छ से मिले, वि० सं० ८१३ (ई० स० ७५६ ) के ताम्रपत्र का नागावलोक अनुमान करते हैं।
बुद्धगया से राष्ट्रकूट राजाओं का एक लेखें मिला है । उसमें इनकी वंशावली इस प्रकार दी है:
नन्न (गुणावलोक) कीर्तिराज
तुङ्ग (धर्मावलोक)
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६, पृ० २४८ । (२) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग १, पृ. १८५ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा• ६, पृ. ११८ (४) यह नागावलोक शायद प्रतिहारवंशी नागभट प्रथम था. (५) बुद्धगया ( राजेन्द्रखाव मित्र लिखित ), पृ. ११५.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों के फुटकर लेख
तुङ्ग की कन्या, भाग्यदेवी का विवाह पालवंशी राजा, राज्यपाल से हुआ था । यह राज्यपाल पूर्वोक्त धर्मपाल की चौथी पीढ़ी में था । इस लेख में संवत् १५ लिखा है । यह शायद तुङ्ग का राज्य संवत् हो । तुङ्ग का समय वि० सं० १०२५ ( ई० स० १६८ ) के करीब अनुमान किया जाता है ।
बदायूं से राष्ट्रकूट राजा लखनपाल के समय का एक लेख मिला है । यह सम्भवतः वि० सं० १२५८ ( ई० स० १२०१ ) के करीब का है ।
इसमें दी हुई वंशावली इस प्रकार है:
१ चन्द्र
I
२ विग्रहपाल
३ भुवनपाल I
४ गोपाल
५ त्रिभुवनपाल
T ६ मदनपाल
(१) भारत के प्राचीन राजवंश, भा० १, पृ० १८९. ( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० १, ५०६४.
ર
७ देवपाल
८ भीमपाल
शूरपाल
१० अमृतपाल ११ लखनपाल
इस लेख से ज्ञात होता है कि, कन्नौज प्रदेश के अलङ्कार रूप, बदायूं नगर पर पहले पहल राष्ट्रकूट चन्द्र ने ही अपना अधिकार किया था ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
1
www.umaragyanbhandar.com
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
[वि. सं. ६५० ( ई. स. ५६३ ) के पूर्व से वि. सं. १०३६ ( ई. स. १८२ ) के करीब तक ] सोलंकियों ( चालुक्यों ) के येवूर से मिले एक लेख में और मिरज से मिले एक ताम्रपत्र में लिखा है:
"यो राष्ट्रकूटकुलमिन्द्र इति प्रसिद्ध कृष्णाह्वयस्य सुतमष्टशतेभसैन्यम् । निर्जित्य दग्धनृपपंचशतो बभार भूयश्चलुक्यकुलवल्लभराजलदमीम् ॥ + +
+ तद्भवो विक्रमादित्यः कीर्तिवर्मा तदात्मजः ।
येन चालुक्यराज्यश्रीरंतराविण्यभूद्भुवि ॥ अर्थात्-उस ( सोलंकी जयसिंह ) ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण के पुत्र, और आठसौ हाथियों की सेनावाले, इन्द्र को जीतकर फिर से वल्लभराज (सोलंकी वंश) की राज्य-लक्ष्मी को धारण किया ।
( यहां पर प्रयुक्त किये गये "वल्लभराज" पद से प्रकट होता है कि, पहले इस उपाधि का प्रयोग सोलंकियों के लिए होता था । परन्तु बाद में उनको जीतनेवाले राष्ट्रकूटों ने भी इसे धारण करलिया । इसी से अरब लेखकों ने अपनी पुस्तकों में राष्ट्रकूटों के लिए "बल्हरा" शब्द का प्रयोग किया है । यह "वल्लभराज" का ही बिगड़ा हुआ रूप है।)
परन्तु विक्रमादित्य के पुत्र कीर्तिवर्मा ( द्वितीय ) से ( जो उपर्युक जयसिंह से ११ वी पीढी में था ) इस ( सोलंकी) वंश की राज्य लक्ष्मी फिर चली गयी !
(1) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा. ८, पृ. १२-१४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राप्रफ्ट इन श्लोकों पर विचार करने से प्रकट होता है कि, सोलंकी जयसिंह के दक्षिण विजय करने से पहले वहां पर राष्ट्रकूटों का राज्य था, और विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में उसपर सोलंकी जयसिंह ने अधिकार करलिया। परन्तु वि. सं. ८०५ और ८१० (ई. स. ७४७ और ७५३) के बीच राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग द्वितीयने सोलंकी नरेश कीर्तिवर्मा द्वितीय से उसके राज्य का बहुतसा भाग वापिस छीनलिया।
लेखों, ताम्रपत्रों, और संस्कृत पुस्तकों में इस दन्तिदुर्ग द्वितीय के वंश का इतिहास इस प्रकार मिलता है:
१ दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) प्रथम यह राजा पूर्वोल्लिखित कृष्ण के पुत्र इन्द्र का वंशज था । इस शाखा के राष्ट्रकूटों की प्रशस्तियों में सबसे पहला नाम यही मिलता है । ___दशावतार के लेख में इस को वर्णाश्रमधर्म का संरक्षक, दयालु, सज्जन, और स्वाधीन नरेश लिखा है। सम्भवतः इसका समय विक्रम संवत् ६५० (ई. स. ५१३) के पूर्व था।
२ इन्द्रराज प्रथम यह दन्तिवर्मा का पुत्र और उत्तराधिकारी था। इसका, और इसके पिता का नाम इलोरा की गुफाओं में के दशावतार वाले मन्दिर के लेख से लिया गया है । उसमें दन्तिदुर्ग ( द्वितीय ) के बाद महाराज शर्व का नाम लिखा है । इस शाखा के राष्ट्रकूटों की अन्य प्रशस्तियों में दन्तिवर्मा प्रथम, और इन्द्रराज प्रथम के नाम नहीं हैं । उनमें गोविंद प्रथम से ही वंशावली प्रारम्भ होती है। (1) पाकियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट, वैस्टर्न इण्डिया, भा० ५, पृ. ८५; और केवटेम्पल्स
इन्सक्रिपशन्स. पृ० ६२ (२) यहां पर "शर्व" से किस राजा का तात्पर्य है, यह स्पष्ट तौर से नहीं कहा जासकता।
कुछ लोग इसे दन्तिदुर्ग का भाई अनुमान करते हैं, और कुछ इसे प्रमोघवर्ष का ही उपनाम मानते हैं । उपर्युक्त लेख से ज्ञात होता है कि, शर्वने, अपनी सेना के साथ माकर, इस मन्दिर में निवास किया था। सम्भव है दन्तिदुर्ग की ही उपाधि या इसस नाम शर्व हो ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
उक्त दशावतार के लेख में इस इन्द्र को अनेक यज्ञ करनेवाला, और वीर लिखा है । सम्भवतः इसका दूसरा नाम प्रच्छ्रकराज था ।
३ गोविन्दराज प्रथम
यह इन्द्रराज का पुत्र था, और उसके पीछे राज्य का स्वामी हुआ । पुलकेशी (द्वितीय) के, एहोले से मिले, श० सं० ५५६ ( वि० सं० ६९१= ई० स० ६३४ ) के, लेख में लिखा है कि, मंगलीश के मारे जाने, और उसके भतीजे पुलकेशी (द्वितीय) के गद्दी पर बैठने के समय उसके राज्य में गड़बड़ मच गयी थी । इस पर गोविन्दराज ने भी अन्य राजाओं के साथ मिलकर अपने पूर्वजों के गये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने की चेष्टा की । परंतु उसमें इसे सफलता नहीं मिली, और अन्त में इन दोनों के बीच मित्रता हो गयी।
५२
इससे प्रकट होता है कि, यह ( गोविन्दराज प्रथम ) पुलकेशी (द्वितीय) का समकालीन था, और इसका समय वि० सं० ६९१ ( ई० स० ६३४ ) के करीब होगा ।
गोविन्दराज का दूसरा नाम वीरनारायण मिलता है ।
४ कर्कराज (क) प्रथम
यह गोविन्दराज ( प्रथम ) का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसके राज्य - समय ब्राह्मणों ने अनेक यज्ञ किये थे । यह स्वयं भी वैदिकधर्म का माननेवाला, दानी, और विद्वानों का सत्कार करनेवाला था ।
इसके तीन पुत्र थे: – इन्द्रराज, कृष्णराज, और नन्न ।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६, पृ. ५-६
(२) " लब्ध्वा कालं भुवमुपगते जेतुमप्यायिकाख्ये, गोविन्दे च द्विरदनिकरैहत्तराभ्योधिरथ्या । बस्यानीकैर्युधिभयरसज्ञत्वमेकः प्रयातः तत्रावाप्तं फलमुपकृतस्या परेणापि सद्यः ॥ "
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
५ इन्द्रराज द्वितीय यह कर्कराज का बड़ा पुत्र था, और उसके पीछे गद्दी पर बैठा । इसकी रानी चालुक्य (सोलंकी ) वंशकी कन्या, और चंद्रवंश की नवासी थी । इससे प्रकट होता है कि, उस समय राष्ट्रकूटों और पश्चिमी-चालुक्यों में किसी प्रकार का झगड़ा न था । इसकी सेनामें अश्वारोहियों, और गजारोहियों की भी एक बड़ी संख्या थी।
६ दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) द्वितीय यह इन्द्रराज (द्वितीय) का पुत्र था, और उसके बाद राज्य का स्वामी हुआ । इसने, विक्रम संवत् ८०४ और ८१० (ई० स० ७४८ और ७५३) के बीच, सोलङ्की ( चालुक्य ) कीर्तिवर्मा (द्वितीय) के राज्य के उत्तरी भाग, वातापी पर अधिकार कर, दक्षिण में फिर से राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना की थी। यह राज्य इसके वंश में करीब २२५ वर्ष तक रहा था ।
सामनगढ (कोल्हापुर राज्य ) से, श० सं० ६७५ (वि० सं० ८१०= ई० स० ७५३ ) का, एक दानपत्रं मिला है । उसमें लिखा है:
"माहीमहानदीरेवारोधोभित्तिविदारणम् । + +
+ यो वल्लभ सपदि दंडलकेन ( बलेन ) जित्वा । राजाधिराजपरमेश्वरतामुपैति ॥ कांचीशकेरलनराधिपचोलपाण्डव्यश्रीहर्षवज्रटविमेदविधानदक्षम् । कपर्णाटकं बलमनन्तमजेयरत्यै (थ्यै').
नि () त्यैः कियद्भिरपि यः सहसा जिगाय ॥" अर्थात्-इस (दन्तिवर्मा द्वितीय) के हाथी माही, महानदी, और नर्मदा तक पहुंचे थे। ___
+ (१) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग ११, पृ. १११ (२) तलेगांव से मिले ताम्रपत्र में "मजेयमन्यैः" पाठ है। (३) इससे इसका माहीकांठा, मानवा, और उड़ीसा विजय करना प्रकट होता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
राष्ट्रकूटों का इतिहास इसने वल्लभ (पश्चिमी चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा द्वितीय ) को जीत कर "राजाधिराज" और "परमेश्वर' की उपाधियां धारण की थीं; और थोड़े से सवारों को साथ लेकर कांची, केरल, चोल, और पाण्ज्य देश के राजाओं, और (कनौज के ) राजा हर्ष और वज्रट को जीतने वाली कर्णाटक की बड़ी सेना को हराया था।
यहाँ पर कर्णाटक की सेना से चालुक्यों की सेना का ही तात्पर्य है।
इसने दक्षिण विजय करते समय श्रीशैल (मद्रासके कर्नूल जिले ) के राजा को भी जीता था।
इसी प्रकार इसने कलिङ्गं, कोसले, मालव, ला, और टंक के राजाओं, तथा शेषों (नागवंशियों) पर भी विजय प्राप्त की थी। इसने उज्जयिनी में बहुतसा सुवर्ण दान दिया था, और महाकाल के लिए रत्न-जटित मुकुट अर्पण किये थे।
इससे प्रकट होता है कि, यह दक्षिण का प्रतापी राजा था । इसकी माता ने इसके राज्य के करीब करीब सारे ही ( चार लाख ) गांवों में थोड़ी बहुत पृथ्वी दान की थी।
वक्कलेरी से, श० सं० ६७६ (वि० सं० ८१४ ई० स० ७५७ ) का, एक ताम्रपत्रे मिला है । उससे प्रकट होता है कि, यद्यपि श० सं० ६७५ ( वि० सं० ८१०ई० स० ७५३ ) के पूर्व ही दन्तिदुर्ग ने चालुक्य ( सोलंकी) कीर्तिवर्मा (द्वितीय ) के राज्य पर अधिकार करलिया था, तथापि श० सं० ६७६ ( वि० सं० ८१४ ई० स० ७५७ ) तक भी सोलकियों के राज्य के दक्षिणी भाग पर उसी ( कीर्तिवर्मा द्वितीय) का अधिकार था । (1) एहोले के लेख में लिखा है:
"अपरिमितविभूतिस्फीतसामंतसेनामणिमुकुटमयूखाकान्तपादारविन्दः ।
युधि पतितगजेन्दाकन्दवीभत्सभूतो भयविगलितहों येन चकारि हर्षः" ॥ अर्थात्-चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय ने बैसवंशी राजा हर्ष को हरादिया । (२) समुद्र के पास का, महानदी और गोदावरी के बीच का, देश । (1) वा पर दक्षिण कोशज (माधुनिक मध्यप्रदेश) से तात्पर्य है; जो प्रवध प्रांत के
दक्षिणी भाग में था। अयोध्या, और लखनऊ, मादि उत्तर कोशल में गिने जाते थे। (४) नर्बदा के पश्चिम का बड़ौदा के पास का देश । (५) ऐपियाफिया इण्डिका, भाग १, पृ. २०१।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
गुजरात के महाराजाधिराज कर्कराज द्वितीय का श. सं. ६७९ (वि. सं. ८१४ = ई. स. ७५७ ) का, एक ताम्रपत्र, सूरत के पास से मिला है। उससे प्रकट होता है कि, इस दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग द्वितीय) ने, अपनी सोलङ्कियों पर की विजय समय, लाट (गुजरात) को जीतकर वहां का अधिकार अपने रिश्तेदार कर्कराज द्वितीय को देदिया थी ।
इसके दन्तिवर्मा और दन्तिदुर्ग दो नाम मिलते हैं, और इसके नामके साथ निम्नलिखित उपाधियां पायी जाती हैं:
५.५.
महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, पृथ्वीवल्लभ, बल्लभराज, महाराजशर्व, खड्गावलोक, साहसतुङ्ग और वैरमेघ । सम्भवतः यह "खड्गावलोक" उपाधि इसकी दृष्टि का शत्रुओं के लिए खड्न के समान भयंकर होना ही सूचित करती है।
इन सब बातों पर विचार करने से प्रकट होता है कि, यह राजा बड़ा प्रतापी था; और इसका राज्य गुजरात, और मालवे की उत्तरी सीमा से लेकर दक्षिण में रामेश्वर तक फैलगया था ।
इसने पहले आस पास के छोटे छोटे राजाओं को विजय कर मध्यप्रदेश को जीता था । इसके बाद इसे दुबारा लौट कर कांची जाना पड़ा; क्योंकि वहां के राजा ने, अपनी गयी हुई स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए, एकवार फिर सिर उठाया था । परन्तु उसमें काञ्ची नरेश को सफलता नहीं मिली ।
सोसाइटी, भाग १६, १० १०६ ।
( १ ) जर्नल बाम्बे एशियाटिक (२) उस समय गुजरात का शासक गुर्जर जयभट्ट तृतीय था । उसका चेदि सं० ४८६ ( वि० सं० ७६३ ई० स० ७३६ ) का, एक ताम्रपत्र मिला है। शायद इसके बादही दन्तिवर्मा द्वितीय ने वहां का राज्य छीन कर कर्कराज को दे दिया होगा ।
( ३ ) पैठन (निजाम राज्य ) से मिले राष्ट्रकूट गोविन्दराज के दानपत्र में लिखा है कि, इसने अपने राज्य का विस्तार दक्षिण में सेतुबंध रामेश्वर से उत्तर में हिमालय तक, और पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक कर लिया था ।
सं० ६७१) के, लेख में लिखा है:
ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, १०२१
(४) नौसारी से मिले, श० सं० ८३९ ( वि० "काची पदे पदमकारि करेगा भूयः "
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास पूर्वोक्त दशवतार के लेख में दन्तिदुर्ग का संधुभूपाधिप को जीतना भी लिखा है । यह दक्षिण में काञ्ची के पास का ही कोई राजा होगा; क्योंकि लेख में इसके बाद ही कांची का उल्लेख है ।
७ कृष्णाराज प्रथम
यह इन्द्रराज द्वितीय का छोटा भाई, और दन्तिदुर्ग का चचा था; तथा दन्तिदुर्ग के पीछे उसके राज्य का अधिकारी हुआ ।
इसके समय के तीन शिलालेख, और एक ताम्रपत्र मिला है:
पहला विना संवत् का लेख हत्तिमत्तूर से; दूसरा, श. सं. ६६० (वि. सं. ८२५ ई. स ७६८) का, लेख तलेगांव से; और तीसरा, श. सं. ६९२ (वि. सं. ८२७ ई. स. ७७०) का, लेख आलासे से मिला है।
इसके समय का ताम्रपत्र श. सं. ६९४ ( वि. सं. ८२९ ई. स. ७७२ ) का है। ____ वाणी गांव (नासिक) से, श. सं. ७३० (वि. सं. ८६४ ई. स. ८०७) का, एक ताम्रपत्र मिला है । यह राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय का है । इसमें कृष्णराज के विषय में लिखा है:
“यश्चालुक्यकुलादनूनविवुधवाताश्रयो वारिधे
लक्ष्मीम्मन्दरवत्सलीलमचिरादाकृष्टवान् वल्लभः ॥" अर्थात् समुद्र मथन के समय, जिस प्रकार मन्दराचल पर्वत ने लक्ष्मी को समुद्र से बाहर खींच लिया था, उसी प्रकार वल्लभ (कृष्णराज प्रयम) ने भी लक्ष्मीको चालुक्य (सोलङ्की) वंश से खींच लिया ।
(1) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा० ६, पृ. १६१ । (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, पृ. २०६ ( यह लेख कृष्णराज के पुत्र युवराज
गोविन्दराज का है)। ( ३ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा• १४, पृ. १२६ । (४) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० ११, पृ. १५७ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट बड़ोदा से, श. से. ७३४ (वि. सं. ८६९ ई. स. ८१२) का, एक ताम्रपत्र मिला है । यह गुजरात के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज का है। उसमें कृष्णराज प्रथम के विषय में लिखा है:
"यो युद्ध करडूतिगृहीतमुच्चैः शौर्योष्मसंदीपितमापतन्तम् ।
महावराहं हरिणीचकार प्राज्यप्रभावःखलु राजसिंहः ॥ अर्थात्-राजाओं में सिंह के समान बली कृष्णराज प्रथम ने, अपनी शक्ति के घमण्ड और युद्ध की इच्छा से आते हुए, महावराह (कीर्तिवर्मा द्वितीय) को हरिण बनादिया (भगादिया)।
सम्भवतः यह घटना वि. सं. ८१४ (ई. स. ७५७) के निकट की है।
सोलंकियों के ताम्रपत्रों पर वराह का चिह्न बना मिलता है । इसीसे इस दानपत्र के लेखक ने कीर्तिवर्मा के लिए वराह शब्दका प्रयोग किया है ।
___ इससे यह भी प्रकट होता है कि, कृष्णराज के समय कीर्तिवर्मा द्वितीय ने अपने गये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने की चेष्टा की होगी । परन्तु इस कार्य में वह सफल न होसका, और उलटा उसका रहा सहा राज्य भी उसके हाथ से निकल गया।
कृष्णराज की सेना में एक बड़ा रिसाला भी रहता था।
दक्षिण हैदराबाद (निजाम राज्य) की एलापुर (इलोरा) की प्रसिद्ध गुफाओं में का कैलास भवन नामक शिव का मंदिर इसी ने बनवाया था । यह मन्दिर पर्वत को काटकर बनवाया गया था, और यह इस समय भी अपनी कारीगरी के लिए भारत भर में प्रसिद्ध है । यहीं इसने, अपने नाम पर, कनेश्वर नामका एक "देवकुल'' भी बनवाया था, जिसमें अनेक विद्वान् रहा करते थे। इनके अतिरिक्त इसने १८ शिव-मंदिर और भी बनवाये थे । इससे सिद्ध होता है कि यह परम शैव था।
(१) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा. १२, पृ० १५६ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
राष्ट्रकूटों का इतिहास कृष्णराज की निम्नलिखित उपाधियां मिलती हैं:
अकालवर्ष, शुभतुङ्ग, पृथ्वीवल्लभ, और श्रीवल्लभ । इसने बलदर्पित गहप्पं को भी हराया था । ___मि० विन्सैण्टस्मिथ आदि विद्वानों का अनुमान है कि, इस (कृष्ण प्रथम) ने अपने भतीजे दन्तिदुर्ग (द्वितीय) को गद्दी से हटाकर उसके राज्य पर अधिकार करलिया था । परन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि कावी और नवसारी से मिले दानपत्रों में "तस्मिन्दिवंगते" (अर्थात्-दन्तिदुर्ग के स्वर्ग जाने पर) लिखा होने से इसका अपने भतीजे ( दन्तिदुर्ग ) के मरने पर ही गद्दी पर बैठना प्रकट होता है। ____ बड़ोदा से मिले पूर्वोक्त ताम्रपत्र से यहभी प्रकट होता है कि, कृष्णराज के समय इसी राष्ट्रकूट वंश के एक राजपुत्र ने राज्य पर अधिकार करने का प्रयत्न किया था । परंतु कृष्णराज ने उसे दबादियों । सम्भव है वह राजपुत्र दन्तिदुर्ग द्वितीय का पुत्र हो, और उसके निर्बल या छोटे होने के कारण ही कृष्णराज ने राज्य पर अधिकार करलिया हो। ___ यद्यपि कर्कराज के, करडौँ से मिले (श. सं. ८१४ के ) दानपत्र में स्पष्ट तौर से लिखा है कि, दन्तिदुर्ग के अपुत्र मरने परही उसका चचा कृष्णराज उसका उत्तराधिकारी हुआ था, तथापि उस दानपत्र के उक्त घटना से २०० वर्ष बाद लिखे जाने के कारण उस पर पूर्ण रूप से विश्वास नहीं किया जासकता। (१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ३, पृ० १०५ । कुछ विद्वान् लाट (गुजरात) नरेश
कर्कराज द्वितीय का ही दूसरा नाम राहप्प अनुमान करते हैं । सम्भव है इसी युद्ध
के कारण गुजरात के राष्ट्रकूटों की उस शाखा की समाप्ति हुई हो। (२) मॉक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ. २१६ ।। (३) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० ५, पृ० १४६; और जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी,
भा० १८, पृ० २५७। (1) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भा०८, पृ. २६२-२६३ । (५) “यो वंश्यमुन्मूल्य विमार्गभाजं राज्यं स्वयं गोत्रहिताय चक्रे । 'कुछ लोग इस
घटना से जाट (गुजरात ) के राजा कर्कराज द्वितीय से राज्य छीनने का तात्पर्य
लेते हैं । सम्भव है दन्तिवर्मा द्वितीय के बाद उसने कुछ गड़बड़ मचायी हो । (६) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० १२. पृ. २६४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखे (दक्षिण) के राष्ट्रकुट
५६
कृष्णराज का राज्यारोहण वि. सं. ८१७ ( ई. स. ७६० ) के करीब हुआ होगा ।
इसके दो पुत्र थे : --गोविन्दराज, और ध्रुवराज ।
कुछ
लोग हलायुध रचित 'कविरहस्य' के नायक राष्ट्रकूट कृष्ण से इसी कृष्ण प्रथम का तात्पर्य लेते हैं; और कुछ लोग उसे कृष्ण तृतीय मानते हैं । वास्तव में यह पिछला मत ही ठीक प्रतीत होता है । 'कविरहस्य' में लिखा है :अस्त्यगस्त्यमुनिज्योत्स्नापवित्रे दक्षिणापथे । कृष्णराज इति ख्यातो राजा साम्राज्यदीक्षितः ॥
*
कस्तं तुलयति स्थाम्ना राष्ट्रकूटकुलोद्भवम् ।
*
———
*
सोम सुनोति यज्ञेषु सोमवंशविभूषणः । पुरः सुवति संग्रामे स्यन्दनं स्वयमेव सः ॥
अर्थात् - दक्षिण भारत में कृष्णराज नाम का बड़ा प्रतापी राजा है ।
*
77
-
*
*
उस राष्ट्रकूट राजा की बराबरी कोई नहीं कर सकता ।
*
*
वह चंद्रवंशी राजा अनेक यज्ञ करता रहता है, और युद्ध में अपना रथ
*
सत्र से आगे रखता है ।
'राजवार्तिक' आदि ग्रन्थों का कर्ता प्रसिद्ध जैन- तार्किक प्रकलङ्क भट्ट इसी कृष्णराज प्रथम समय हुआ था ।
चांदी के सिक्के
धमोरी ( अमरावती ताल्लुके) से राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज के, करीब १८००, चांदी के सिक्के मिले हैं। ये क्षत्रपों के सिक्कों से मिलते हुए हैं । इनका आकार प्रचलित चांदी की दुन्नी के बराबर है । परन्तु मुटाई दुन्नी से दुगनी के करीब है । इन पर एक तरफ़ राजा का गर्दन तक का चित्र बना है, और दूसरी तरफ़ “परममाहेश्वर माहादित्यपादानुध्यात श्रीकृष्णराज” लिखा है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
( १ ) इस मत के अनुयायी 'कविरहस्य' का रचना काल वि० सं० ८६७ ( ई० स० ८१० ) के करीब मानते हैं ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
८ गोविन्दराज द्वितीय यह कृष्णराज प्रथम का पुत्र, और उत्तराधिकारी था। इसके, पूर्वोक्त श, सं. ६९२ ( वि. सं. ८२७ ई. स. ७७० ) के, ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, इसने गि (गोदावरी और कृष्णा नदियोंके बीच के पूर्वी समुद्र तट के देश) को जीताथा । उस ताम्रपत्र में इसे युवराज लिखा है । इस से सिद्ध होता है कि, उस समय तक इस का पिता ( कृष्णराज प्रथम ) जीवत था। ___इसके समय के दो दानपत्र और भी मिले हैं। इनमें का पहला, श० सं० ६९७ (वि० सं० ८३२ ई० स० ७७५ ) का है। इसमें इसके छोटे भाई ध्रुवराज के नाम के साथ महाराजाधिराज आदि उपाधियां लगी हैं।
दूसरा श. सं. ७०१ (वि. सं. ८३६ ई. स. ७७९) का है । इससे उस समय तक मी गोविन्दराज का ही राजा होना प्रकट होता है; और इसमें ध्रुवराज के पुत्र का नाम कर्कराज लिखा है । परन्तु इन दोनों दानपत्रों से ज्ञात होता है कि, उन दिनों गोविन्दराज नाममात्र का राजा ही था । ___ वाणी-डिंडोरी, बड़ोदा, और राधनपुर से मिले दानपत्रों में गोविन्दराज का नाम न होने से अनुमान होता है कि, सम्भवतः शीघ्रही इसके छोटे भाई ध्रुवराज ने इसके राज्य पर अधिकार करलिया था । वर्धा के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, इस (गोविन्दराज द्वितीय) ने, भोग विलास में अधिक प्रीति होने से,
(१) ऐपिग्राफ़िया इण्डिका, भा. ६, पृ. २०६ ( २ ) इसने यह विजय युवराज अवस्था में ही प्राप्त की थी। जिस समय इसका शिविर
कृष्णा, वेणः, और मुसी नदियों के संगम पर था, उसी समय बेगि-नरेरा ने वहाँ
पहुंच इसकी अधीनता स्वीकार की थी। ! ३) ऐपिप्राफिया इण्डिका, भा. १०, पृ. ८६ (0) ऐपिनाफिया इण्डिका, भा. ८, पृ. १८४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण ) के राष्ट्रकूट राज्य का सारा भार अपने छोटे भाई निरुपम को सौंप रक्खा था । सम्भव है इसीसे इसके हाथ से राज्याधिकार छिन गया हो । ___ पैठन से मिले ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, गोविन्दराज द्वितीय ने अपने पड़ोसी मालव, कांची, और वेंगि आदि देशों के राजाओं की सहायता से एकवार फिर अपने गये हुए राज्य पर अधिकार करने की चेष्टा की थी। परन्तु निरुपम (ध्रुवराज ) ने इसे हराकर इसके राज्य पर पूर्णरूप से अधिकार करलिया।
दिगम्बर जैन संप्रदाय के प्राचार्य जिनसेन ने अपने बनाये 'हरिवंशपुराण' के अन्त में लिखा है:
"शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेषत्तरां पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दत्तिणाम् । पूर्वी श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादि(घि)राजेऽपरां
सोर्या (ग) णामधिमण्डले (लं ) जययुते वीरे वराहेऽवति ॥" अर्थात्-जिस समय, श. सं. ७०५ (वि. सं. ८४० ई. स. ७८३ ) में, उक्त पुराण बना था, उस समय उत्तर में इन्द्रायुधैं का, दक्षिण में कृष्ण के पुत्र श्रीवल्लभ का, पूर्व में अवन्ति के राजा वत्सराज का, और पश्चिम में वराह का राज्य था ।
(१) गोविन्दराज इति तस्य बभूव नाना
सूनुः स भोगभरभंगुरराज्यचिन्तः। मात्मानुजे निरुपमे विनिवेश्य सम्यक
साम्राज्यमीश्वरपदं शिथिलीचकार ॥" अर्थात् कृष्णराज प्रथम के पुत्र गोविन्दराज द्वितीय ने, भोग विलास में फँसकर, राज्य का कार्य अपने छोटे भाई निरुपम को सौंप दिया था। इसीस उसका प्रभुत्व शिथिल हो गया।
(२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ४, पृ. १०७ । (३) कुछ विद्वान् इन्द्रायुध को राष्ट्रकूटवंशी और कन्नौज का राजा मानते हैं। प्रतिहार
वत्सराज के पुत्र नागभट द्वितीय ने इसीके उत्तराधिकारी चक्रायुध को हराकर कन्नौज पर अधिकार करलिया था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
राष्ट्रकूटों का इतिहास
इससे ज्ञात होता है कि, श. सं. ७०५ (वि. सं. ८४० ) तक भी गोविन्दराज द्वितीयं ही राज्य का स्वामी था; क्योंकि पैठने और पट्टदकैल से मिले दानपत्रों में गोविन्दराज द्वितीय की उपाधि " बल्लभ", और इसके छोटे भाई ध्रुवराज की उपाधि “कलिल्लभ" लिखी है ।
--
गोविन्दराज द्वितीय की निम्नलिखित उपाधियां भी मिलती हैं:महाराजाधिराज, प्रभूतवर्ष, और विक्रमावलोक ।
गोविन्दराज का राज्यारोहण वि. सं. ८३२ ( ई. स. ७७५ ) के करीब हुआ होगा; क्योंकि इसके पिता कृष्णराज प्रथम की श. सं. ६९४ (वि. सं. २१ ई. स. ७७२ ) की एक प्रशस्ति मिल चुकी हैं।
६ ध्रुवराज
यह कृष्णराज प्रथम का पुत्र, और गोविन्दराज द्वितीय का छोटा भाई था । इसने अपने बड़े भाई गोविन्दराज द्वितीय को गद्दी से हटाकर स्वयं उस पर अधिकार करलिया था ।
•
यह बड़ा वीर, और योग्य शासक था । इसीसे इसको “निरुपम " भी कहते थे । इसने कांची के पल्लत्रवंशी राजा को हराकर उससे दंड के रूप में कई हाथी लिये थे; चेरदेश के गङ्गवंशी राजा को कैद करलिया था; और गौड़देश के राजा को जीतने वाले उत्तर के पड़िहार राजा वत्सराजे को मारवाड़ (भीनमाल ) की तरफ़ भगादिया था । इसने वत्सराज से वे दो छत्र भी, जो उसने गौड़देश के राजा से प्राप्त किये थे, छीन लिये थे ।
(१) बहुत से लोग यहां पर श्रीवल्लभ से गोविन्द तृतीय का तात्पर्य लेते हैं । यह ठीक नहीं है।
( २ ) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. ३ पृ. १०५
( ३ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा. ११ पृ. १२५ ( यह लेख ध्रुवराज के समय का है )
४ ) वत्सराज के मालवे पर चढाई करने पर यह ध्रुवराज अपने सामन्त लाट (गुजरात ) के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज को लेकर मालवनरेश की सहायता को गया था । इसीसे बत्सराज को हारकर भीनमाल की तरफ भागना पड़ा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
६३
गोविन्दराज द्वितीय के इतिहास में उद्धृत किये 'हरिवंशपुराण' के श्लोक में इसी वत्सराज का उल्लेख है ।
बेगुम्रा से मिले दानपत्र से ज्ञात होता है कि, ध्रुवराज ने (उत्तर) कोशल के राजा से भी एक छत्र छीना था । इसकी पुष्टि प्रोली (वर्धा) से मिले ताम्रपत्र से भी होती है। उसमें ध्रुवराज के पास तीन श्वेतों का होना लिखा है । इनमें दो छत्र वत्सराज से छीने हुए, और तीसरा कोशल के राजा से छीना हुआ होगा ।
I
सम्भवतः ध्रुवराज का अधिकार उत्तर में अयोध्या से दक्षिण में रामेश्वर तक फैल गया था ।
ध्रुवराज के भ्राता गोविन्दराज द्वितीय के इतिहास में श. सं. ६१७, और ७०१ के ताम्रपत्रों का उल्लेख कर चुके हैं । वे दोनों वास्तव में इसी के हैं । पट्टदकल, नरेगल, और लक्ष्मेश्वर से कनाड़ी भाषा की तीन प्रशस्तियाँ मिली हैं । ये भी शायद इसी के समय की हैं ।
1
ध्रुवराज की निम्नलिखित उपाधियां मिलती हैं:
-
कविवल्लभ, निरुपम, धारावर्ष, श्रीवल्लभ, माहराजाधिराज, परमेश्वर आदि । नरेगल की प्रशस्ति में इसके नाम का प्राकृतरूप "दोर" (धोर) लिखा है ।
श्रवणबेलगोला से कनाड़ी भाषा का टूटा हुआ एक लेख और भी मिला है। यह महासामन्ताघिपति कम्बय्य ( स्तम्भ ) रणावलोक के समय का है । इसमें रणावलोक को श्रीवल्लभ का पुत्र लिखा है ।
ध्रुवराज का राज्यारोहणकाल वि. सं. ८४२ ( ई. स. ७८५ ) के करीब होना चाहिये ।
५
( १ ) जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ० २६१
( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० ५, पृ० १६२
(३) इण्डियन ऐग्रिटक्केरी, भा. ११, पृ. १२५; और ऐपिमाफिया इण्डिका, भा. ६, पृ. १६३ और पृ. १६६
( ४ ) इन्सक्रिपशन्स ऐट श्रवणबेलगोला, नं. २४, पृ. ३
(५) विन्सेण्टस्मिय. इसका राज्यारोहण ई. स. ७८० में अनुमान करते हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
राष्ट्रकूटों का इतिहास
जिस समय इसने अपने बड़े भाई गोविन्दराज द्वितीय के राज्य पर अधिकार किया था, उस समय गङ्ग, वेङ्गि, काञ्ची, और मालवा के राजाओं ने ने उन उस ( गोविन्द द्वितीय ) की सहायता की थी । परन्तु इस ( ध्रुवराज ) सब को हरादिया । इसने अपने जीतेजीही अपने पुत्र गोविन्द तृतीय को कंठिका ( कोंकण ) से लेकर खंभात तक के प्रदेश का शासक बनादिया था ।
दौलताबाद से, श. सं. ७१५ (वि. सं. ८५० ई. स. ७९३ ) का, एक दानपत्रे मिला है। इसमें ध्रुवराज के चचा ( कर्कराज के पुत्र ) नन्न के पुत्र शङ्करगण के दान का उल्लेख है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि, उस समय वहां पर ध्रुवराज का राज्य था, और इसने, गोविन्दराज द्वितीय की शिथिलता के कारण राष्ट्रकूट राज्य को दबा लेने के लिए उद्यत हुए अन्य लोगों को देख कर ही, उस पर अधिकार किया था ।
१० गोविन्दराज तृतीय
यह ध्रुवराज का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । यद्यपि ध्रुवराज ने इसे, अपने पुत्रों में योग्यतम समझ, अपने जीतेजी ही राज्य देना चाहा था, तथापि इसने उसे अङ्गीकार करने से इनकार करदिया, और यह पिता की विद्यमानतामें केवल युवराज की हैसियत से ही राज्य का संचालन करता रहा ।
इसकी निम्नलिखित उपाधियां मिलती हैं:
पृथ्वीवल्लभ, प्रभूतवर्ष, श्रीवल्लभ, विमलादित्य, जगत्तुङ्ग, कीर्त्तिनारायण, अतिशयधवल, त्रिभुवनधवल, और जनवल्लभ श्रादि ।
(१) उस समय वेङ्गि का राजा शायद पूर्वी चालुक्य विष्णुवर्धन चतुर्थ था ।
( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ६, पृ. १९३
( ३ ) गोविन्दरान के पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के, नीलगुंड से मिले, श० स०७८८ ( वि० सं० २३ = ई० स० ८६६ ) के लेख से प्रकट होता है कि, गोविन्दराज तृतीय ने केरल, मालव, गौर, गुर्जर, भौर चित्रकूट वालों को तथा कांची के राजा को हराया था, और इसी से वह कीर्तिनारायण कहाता था ।
(एपिग्राफिया इडिका, भा. ५, ४. १०२ )
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
"
www.umaragyanbhandar.com
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट इस के समय के ( ताम्रपत्र मिले हैं । इनमें का पहला श. सं. ७१६ (वि. सं. ८५१ ई. स. ७९४ ) का है । यह पैठन से मिला था। दूसरी श. स. ७२६ (वि. सं. ८६१ ई. स. ८०४ ) का है। यह सोमेश्वर से मिला था। इसमें इसकी स्त्री का नाम गामुण्डब्बे लिखा है । इससे यह भी प्रकट होता है कि, इसने कांची ( कांजीवर ) के राजा दन्तिग को हराया था ।
___ यह दन्तिग शायद पल्लववंशी दन्तिवर्मा होगा; जिसके पुत्र नंदिवर्मा का विवाह राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष की कन्या शंखा से हुआ था ।
__तीसरा, और चौथा ताम्रपत्र श. सं. ७३० (वि. सं. ८६५ ई. स. ८०८) का है। इनमें लिखा है कि, गोविन्दराज ( तृतीय ) ने, अपने भाई स्तम्भ की अध्यक्षता में एकत्रित हुए, बारह राजाओं को हराया था । ( इससे अनुमान होता है कि, ध्रुवराज के मरने पर स्तम्भने, अन्य पड़ोसी राजाओं की सहायता से, राष्ट्रकूट-राज्यपर अधिकार करने की चेष्टा की होगी।)
गोविन्दराज ने, अपने पिता ( ध्रवराज ) द्वारा कैद किये, चेर ( कोइम्बटूर ) के राजा गंग को छोड़ दिया था । परन्तु जब उसने फिर बगावत पर कमर बाँधी, तब उसे दुबारा पकड़ कर कैद करदिया ।
(1) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ३, पृ. १०५ (२) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा. ११, पृ. १२६ (३) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा. ११, पृ. १५७; और ऐपिग्राफिया इण्डिका भा. ६,
पृ. २४२ । (४) स्तम्भ के, नेलमंगल से मिले, श. सं. ७२४ के, दानपत्र में स्तम्भ के स्थान पर शौचखम्भ ( शौचकंभ ) नाम लिखा है
"भ्राताभूतस्य शक्तित्रयनमितभुवः शौचखम्भाभिधानो"। इस दानपत्र से यह भी ज्ञात होता है कि, सम्भवतः उपर्युक्त पराजय के बाद यह शौचखम्भ गोविन्दराज का प्राज्ञाकारी बनगया था। शौचखम्भ का दूसरा नाम रणावलोक था भौर इसने, बप्पय नामक राजकुमार की सुफ़ारिश से, जैन मन्दिर के लिए, एक गांव दान दिया था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
इन ताम्रपत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि, इस ( गोविन्दराज तृतीय ) ने के राजा पर चढ़ाई कर उसे भगादिया; मालत्रे को जीता; गुजरात विन्ध्याचल की तरफ़ की चढ़ाई में, माराशर्व को शमें कर, वर्षाऋतु की समाप्ति तक श्रीभवन ( मलखेड़ ) में निवास रक्खा; शरद् ऋतु के आने पर, तुङ्गभद्रा नदी की तरफ़ आगे बढ़, काञ्ची के पल्लव राजा को हराया; और अन्त में इस की आज्ञा से वेङ्गि । कृष्णा और गोदावरी के बीच के प्रदेश ) के राजा ने आकर इसकी अधीनता स्वीकार की । यह राजा शायद पूर्वी चालुक्यवंश का विजयादित्य द्वितीय होगा ।
संजान के ताम्रपत्र से ज्ञान होता है कि, राजा धर्मायुध और चक्रायुध दोनोंने ही इसकी अधीनता स्वीकार करली थी ।
इसी प्रकार बंग, और मगध के राजाओं को भी इस ( गोविन्दराज तृतीय ) के वशवर्ती होना पड़ा था ।
पूर्वोक्त श. सं. ७२६ के ताम्रपत्र में इसकी तुङ्गभद्रा तक की यात्रा का उल्लेख होने से प्रकट होता है कि, ये घटनायें श. सं. ७२६ (वि. सं ८६१ = ई. स. ८०४ ) के पूर्व हुई थीं ।
I
उपर्युक्त तीसरा, और चौथा ताम्रपत्र वाणी, और राधनपुर से मिला है । ये दोनों मयूरखंडी से दिये गये थे । यह स्थान आजकल नासिक जिले में मोरखण्ड के नाम से प्रसिद्ध है ।
पांचवां, और छठा ताम्रपत्र श. सं. ७३२ (वि. सं. ८६७= ई. स. ८१०) का है; सौतवांश. सं० ७३३ (वि. सं. ८६८ ई. स. ११) का है; और आठवांश. सं. ७३४ (वि. सं. ८६९ = ई. स. ८१२ ) का है। इसमें लाट (गुजरात) के राजा कर्कराज द्वारा दिये गये दान का उल्लेख है ।
(१) डाक्टर वूलर टम गुर्जरराज से चापोत्कटों या अनहिलवाड़े के चावड़ों का तात्पर्य लेते हैं ( ऐपिग्राफिया कटिका, मग येग्रांट, नं० ६११० ५१ ) ( २ ) यह ताम्रपत्र अप्रकाशित है। ( इण्डियन ऐटिकेरी, भा० १२, पृ० १५८ ) (३) वाटसन म्यूज़ियम (राजकोट) की रिपोर्ट ( ई. स. १९२५ - १६२६), पृ० १३ ( ४ ) इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग, १२, पृ० १५६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट नवां ताम्रपत्र श. सं. ७३५ (वि. सं. ८६६ ई. स. ८१२ ) का है । इससे ज्ञात होता है कि, गोविन्दराज तृतीय ने लादेश ( गुजरात के मध्य और दक्षिणी भाग ) को विजय कर वहां का राज्य अपने छोटे भाई इंद्रराज को देदिया था । इसी इन्द्रराज से गुजरात के राष्ट्रकूटों की दूसरी शाखा चली थी।
ऊपर लिखी बातों से पता चलता है कि, गोविन्दराज तृतीय एक प्रतापी राजा था । उत्तर में विन्ध्य और मालवे से दक्षिण में कांचीपुर तक के राजा इसकी आज्ञा का पालन करते थे, और नर्मदा तथा तुङ्गभद्रा नदियों के बीच का प्रदेश इसके शासन में था। _____ कडब ( माइसोर ) से, श. सं. ७३५ (वि. सं. ८७० ई. स. ८१३) का, एक ताम्रपत्र और मिला है । इस में विजयकीर्ति के शिष्य जैनमुनि अर्ककोर्ति को दिये गये दान का उल्लेख है ।
यह विजयकीर्ति कुलाचार्य का शिष्य था, और यह दान गंगवंशी राजा चाकिराज की प्रार्थना पर दिया गया था ।
इस दानपत्र में ज्येष्ठ शुक्ला १० को सोमवार लिखा है । परन्तु गणितानुसार उसदिन शुक्रवार आता है । इसलिए यह दानपत्र सन्दिग्ध प्रतीत होता है ।
पहले गोविन्दराज द्वितीय के इतिहास में 'हरिवंशपुराण' का एक श्लोक उद्धृत किया जाचुका है । उसका दूसरा पाद इस प्रकार है:
“पातींद्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् ।" कुछ विद्वान् इसमें के "कृष्णनृपजे" का सम्बन्ध "श्रीवल्लभे" से, और कुछ "इन्द्रायुधनाम्नि" से लगाते हैं। पहले मत के अनुसार इस श्लोक का सम्बन्ध गोविन्द द्वितीय से होता है । परन्तु पिछले मतानुसार इन्द्रायुध को कृष्ण का पुत्र मान लेने से "श्रीवल्लभ" खाली रहजाता है । इसलिए इस मत को मानने वाले श. सं. ७०५ में गोविन्द द्वितीय के बदले गोविन्द तृतीय का होना अनुमान करते हैं । यह ठीक नहीं है।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग, ३, पृ०५४ (२) तापती और माही नदियों के बीच का देश । (३) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० १२, पृ० १३; और ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा, ४,
पृ. ३४०।
परा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
श. सं. ७८८ (वि. सं. १२३ = ई. स. ८६६ ) की, नीलगुण्ड से मिली, प्रशस्ति में लिखा है कि, गोविन्द तृतीय ने केरल, मालव, गुर्जर, और चित्रकूट ( चित्तौड़ ) को विजय किया था ।
इस का राज्यारोहण काल होना चाहिये । इसने वेंगी के
तरफ़ शहर पनाह बनवायी थी ।
वि. सं. ८५० ( ई. स. ७२३ ) के बाद पूर्वी चालुक्य राजा द्वारा मान्यखेट के चारों
मुंगेर से मिली एक प्रशस्तिं में लिखा है कि, राष्ट्रकूट राजा परबल की कन्या रण्णादेवी का विवाह बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल के साथ हुआ था। डाक्टर कीलहार्न परबल से गोविन्द तृतीय का तात्पर्य लेते हैं । परन्तु सर भण्डारकर परबल को कृष्णराज द्वितीय अनुमान करते हैं ।
११ अमोघवर्ष प्रथम
यह गोविन्द तृतीय का पुत्र था, और उसके पीछे गद्दी पर बैठा ।
इस राजा के असली नाम का पता अब तक नहीं लगा हैं । शायद इसका नाम शर्व हो । परंतु ताम्रपत्रों आदि में यह अमोघवर्ष के नाम से प्रसिद्ध है । जैसे:
I
स्वेच्छागृहीतविषयान् दृढसंगभाजः प्रोद्वृत्तदृप्ततरशौल्किकराष्ट्रकूटान् । उत्खात खड्गनिजवाहुवलेन जित्वा यो मोघवर्षमचिरात्स्वपदे व्यधत्त ॥
अर्थात् उस ( कर्कराज ) ने, इधर उधर के प्रान्तों को दबाने वाले बागी राष्ट्रकूटों को परास्तकर, अमोघवर्ष को राजगद्दी पर बिठा दिया ।
1
परन्तु वास्तव में यह ( अमोघवर्ष ) इसकी उपाधि थी । इसकी आगे लिखी और भी उपाधियां मिलती हैं:
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, १०१०२
( २ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा० २१, १० २५४ (३) देखो पृष्ठ ४८
(४) भारत के प्राचीन राजवंश, भा० १, पृ० १८५ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यख्नेट (दक्षिण ) के राष्ट्रकूट नृपतुङ्ग, महाराजशर्व, महाराजशण्ड, अतिशयधवल, वीरनारायण, पृथ्वीवल्लभ, श्रीपृथिवीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ, महाराजाधिराज, भटार, परमभट्टारक, प्रभूतवर्ष, और जगत्तुङ्ग ।
इस राजा के पास आगे लिखी सात वस्तुऐं राज-चिह्न स्वरूप थीं:
तीन श्वेतछत्र, एक शंख, एक पालिध्वज, एक ओककेतु, और एक टिविली ( त्रिवली)।
इनमें के तीनों श्वेतछत्र गोविन्दराज द्वितीय ने शत्रुओं से छीने थे । अमोघवर्ष के समय के दानपत्रों, और लेखों का वर्णन आगे दिया जाता
इसके समय का पहला, गुजरात के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज का, बड़ौदा से मिला, श. सं. ७३८ (वि. सं. ८७३ ई. स. ८१७) का ताम्रपत्र है। यह कर्कराज अमोघवर्ष का चचेरा भाई था ।
दूसरा, कावी ( भडोच जिले ) से मिला, श. स, ७४६ (वि. सं. ८८४ =ई. स. ८२७ ) का दानपत्रं है। इसमें गुजरात के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज के दिये दान का उल्लेख है।
तीसरा, बड़ौदा से मिला, श. सं. ७५७ (.वि. सं. ८१२ ई. स.८३५)' का ताम्रपत्र है । यह गुजरात के राजा महासामन्ताधिपति राष्ट्रकूट ध्रुवराजे प्रथम का है । इससे प्रकट होता है कि, अमोघवर्ष के चचा का नाम इन्द्रराज था, और उसके पुत्र (अमोघवर्ष के चचेरे भाई) कर्कराज ने, बागी राष्ट्रकूटों से युद्ध कर, अमोघवर्ष को राज्य दिलवाया था। ____ इसके समय का पहला, कन्हेरी ( थाना जिले ) की गुफा में का, श. सं.७६५ (वि. सं. १०० ई. स. ८४३) का लेख है । इससे ज्ञात होता है कि, उस समय
(१) जर्नल बांबे ब्रांच एशियाटिक सोसाइटी, भाग २०, पृ. १३६ (२) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग ५, पृ. १४४ (३) इण्डियन ऐगिटकेरी, भाग १४, पृ. १६६ (४) कुछ विद्वानों का अनुमान है कि, लाट के राजा इसी ध्रुवराज प्रथम ने अमोघवर्ष के
विरुद्ध बगावत की थी। परन्तु अमोघवर्ष के चढाई करने पर यह युद्ध में मारा गया। (५) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा. १३, पृ. १३६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
अमोघवर्ष का राज्य था, और इसका महासामन्त ( कपर्दिपाद का उत्तराधिकारी ) शक्ति सारे कोंकण प्रदेश का शासक था । यह पुनशक्ति उत्तरी कोंकण के शिलाहार वंश का था ।
७०
दूसरा, महासामन्त पुल्लशक्ति के उत्तराधिकारी कपर्दि द्वितीय का, श. सं. ७७५ (वि. सं. ११० = ई. स. ८५३ ) का लेख है। यह पूर्वोक्त कन्हेरी की एक दूसरी गुफा में लगा है । विद्वान् लोग इसे वास्तव में श. सं. ७७३ (वि. सं. १०८ई. स. ८५१ ) का अनुमान करते हैं। इससे पुल्लशक्ति का बौद्धमतानुयायी होना सिद्ध होता है ।
तीसरा, स्वयं अमोघवर्ष का, कोनूर से मिला, श. सं. ७८२ (वि. सं. ११७ = ई. स. ८६० ) का लेखे है। इसमें उसके जैन देवेन्द्र को दिये दान का उल्लेख है । यह दान अमोघवर्ष ने अपनी राजधानी मान्यखेट में दिया था । इस दानपत्र में राष्ट्रकूटों को यदुवंशी लिखा है, और इसीमें अमोघवर्ष की एक नयी उपाधि “वीरनारायण " भी लिखी है। इस लेख से ज्ञात होता है कि, अमोघवर्ष जैन धर्म से भी अनुराग रखता था, और इसने वंकेय के बनवाये, जिन-मन्दिर के लिए ३० गावों में भूमि दान दी थी ।
( १ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा. १३, पृ. १३४
( २ ) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. ६, पृ. २६
"
(३) यह मुकुलवंशी बँकेय, अमोघवर्ष की तरफ से, बनवासी आदि तीस हजार गाँवों का अधिकारी था, और इसने उसकी प्राज्ञा से गंगवाडी की वटाटवी पर चढ़ायी की थी। यद्यपि उस समय अन्य सामन्तों ने इसे सहायता देने से इन्कार कर दिया था, तथापि इसने जाकर ( कडव के उत्तर-पश्चिमस्थित ) केडल दुर्गपर अधिकार कर लिया; और वहां से भागे बढ तलवन ( कावेरी के वामपार्श्व के तलकाड ) के राजा को हराया । इसके बाद जिस समय इसने कावेरी को पारकर, समपद देश पर आक्रमण किया, उस समय अमोघवर्ष का पुत्र बाग़ी होगया, और बहुत से सामन्त भी उससे जा मिले। परन्तु वंकेय के लौटने पर राजपुत्र को भागना पड़ा, और उसके साथी मारे गये। इसी सेवा से प्रसन्न होकर अमोघवर्ष ने उसके बनाये जैन मन्दिर के लिए उक भूमि दान की थी। यद्यपि इस ताम्रपत्र में अमोघवर्ष के पुत्र के बाग़ी होने का उल्लेख है, तथापि श. सं. ७६३ के, संजान के ( प्रमुद्रित ), ताम्रपत्र में " पुत्रश्चास्माकमेक: " ( श्लोक ३६) लिखा होने से इसके केवल एक पुत्र होने का ही पता चलता है । ( उसे इसने अपने जीतेजीही राज्य का अधिकार सौंप दिया था । )
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट चौथा, मंत्रवाड़ी से मिला, श. सं. ७८७ ( वि. सं. १२२=ई. स. ८६५ ) का लेख है।
पांचवां, शिरूर से मिला, श. सं. ७८८ ( वि. सं. १२३=ई. स. ८६६ ) का; और छठा, नीलगुण्ड से मिला, इसी संवत् का लेख है । ये इस के ५२ वें राज्य वर्ष के हैं।
शिरूर के लेख से ज्ञात होता है कि, इस का राज-चिह्न गरुड़ था, और यह "लटलूराधीश्वर" कहाता था । अङ्ग, बङ्ग, मगध, मालवा, और वेङ्गि के राजा इसकी सेवा में रहते थे। ( सम्भव है इसमें कुछ अत्युक्ति भी हो)
सातवां, इसके सामन्त बंकेवरस का, निडगुंडि से मिला लेख है । यह इस (अमोघवर्ष ) के ६१ वें राज्य वर्ष का है। ___ इस के समय के चौथे, संजान से मिले, श. सं. ७६३ (वि. सं. १२८=ई. स. ८७१) के, अमुद्रित ताम्रपत्र में लिखा है कि, इसने द्रविड नरेशों को नष्ट करने के लिए बड़ा प्रयत्न किया था, और इसकी चढ़ाई से केरल, पाण्डय, चोल, कलिंग, मगध, गुजरात, और पल्लव नरेश डरजाते थे। इसने गंगवंशी राजा को,
और उसके षड्यंत्र में सम्मिलित हुए अपने नौकरों को आजन्म कारावास का दण्ड दिया था। इसके बगीचे के इर्दगिर्द की दीवार स्वयं वेंगि के राजा ने बनवायी थी।
पांचवां, गुजरात के स्वामी महासामन्ताधिपति ध्रुवराज द्वितीय का, श. सं. ७८९ (वि. सं. १२४ ई. स. ८६७ ) का ताम्रपत्रं है। इस में उस (ध्रुवराज द्वितीय ) के दिये दान का वर्णन है।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ७, पृ. १६८ (२) इण्डियन ऐनिटक्केरी, भा. १२, पृ. २१८; ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. ५, पृ. २०३ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ६, पृ. १०२ । (४) इस से ज्ञात होता है कि, यह राजा वैष्णवमत का अनुयायी था। (५) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. ७, पृ. २१२ (६) परन्तु अन्त में जब वेङ्गि के राजा ने अपनी प्रजा को दुःख देना प्रारम्भ किया, तब
अमोघवर्ष ने, उसको और उसके मंत्री को कैद कर कांची के शिवालय में (कीर्तिस्तम्भ
के समान ) उनकी मूर्तियां स्थापित करवायी थीं। (७) शायद इस ध्रुवराज द्वितीय के, और अमोघवर्ष प्रथम के बीच भी युद्ध हुमा या। (८) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२, पृ० १८१
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
राष्ट्रकूटों का इतिहास इसके समय का आठवां, कन्हेरी की गुफा में लगा, श. सं. ७६६ ( वि. सं. १३४ ई. स. ८७७ ) का लेखं है। इससे प्रकट होता है कि, अमोघवर्ष ने, अपने सामन्त, शिलारी वंशी कपर्दी द्वितीय से प्रसन्न होकर उसे कोंकण का राज्य दे दिया था । इस लेख से उस समय तक भी बौद्धमत का प्रचलित होना पाया जाता है । ___पहले, गुजरात के राजा ध्रुवराज प्रथम के, श. सं. ७५७ (वि. सं. ८१२) के ताम्रपत्र के आधार पर लिखा जाचुका है कि, अमोघवर्ष के गद्दी बैठने पर कुछ लोगों ने बगावत की थी, और इसीसे इस (अमोघवर्ष ) के चचेरे भाई कर्कराज ने इसकी सहायता की थी। परन्तु बाद की प्रशस्तियों को देखने से ज्ञात होता है कि, कुछ समय बाद ही अमोघवर्ष का प्रताप खूब बढ़गया था। इसने अपनी राजधानी नासिक से हटाकर मान्यखेट ( मलखेड़) में स्थापन की थी । इसके और वेङ्गि के पूर्वी चालुक्यों के बीच बराबर युद्ध होता रहता था।
(१) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० १३, पृ. १३५ । (२) यह मनखेड़ शोलापुर ( निज़ाम राज्य ) से ६० मील दक्षिण-पूर्व में विद्यमान है। (३) विजयादित्य के ताम्रपत्र में लिखा है:
"गंगारबेलैः सार्धं द्वादशाब्दानहनिशम् । भुजार्जितबलः खनसहायो नवविक्रमः ।। मष्टोत्तरं युद्धशतं युद्धवा शंभोमहालयम् ।
तत्संख्यमकरोद्धीरो विजयादित्यभूपतिः ॥ अर्थात्-विनयादित्य द्वितीय ने राष्ट्रकूटों और गंगवंशियों से १२ वर्षों में १०८ लड़ाइयाँ लड़ी थीं, और बाद में उतनेही शिव के मंदिर बनवाये थे।
इससे ज्ञात होता है कि, विजयादित्य को, राष्ट्रकूटों की घर की फूटके कारण ही, उन पर प्राकम करने का मौका मिला था; और कुछ समय के लिये शायद उसने इनके राज्य का थोड़ा बहुत प्रदेश भी दबालिया था। परन्तु अमोघवर्ष प्रथम ने वह सब वापिस छीनलिया। यह बात नवसारी से मिले ताम्रपत्र के निम्नलिखित श्लोक से प्रकट होती है:
"निमग्नां यचुलुक्यान्धौ रहराज्यश्रियं पुनः ।
पृथ्वीमिवोद्धरन् धीरो वीरनारायणोऽभवत् ॥" अर्थात्-जिस प्रकार वराह ने समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया था, उसी प्रकार ममोघवर्ष ने, चालुक्य वंशरूपी समुद्र में इबी हुई, राष्ट्रकूट वंश की राज्यलक्ष्मी का उद्धार किया।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट सुंडी से, पश्चिमी-गंगवंशी राजा का, एक दानपत्रं मिला है । उससे प्रकट होता है कि, अमोववर्ष की कन्या अब्बलब्बा का विवाह गुणदत्तरंग भूतुग से हुआ था । यह भूतुग, राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के सामन्त, पेरमानड़ि भूतुग का प्रपितामह (परदादा ) था। परंतु विद्वान् लोग इस दानपत्र को बनावटी मानते हैं।
पूर्वोक्त श. सं. ७८८ के लेख के अनुसार अमोघवर्ष का राज्यारोहणसमय श. सं. ७३६ (वि. सं. ८७१ ई. स. ८१५) के करीब आता है। गुणभद्रसूरि कृत 'उत्तरपुराण' ( महापुराण के उत्तरार्ध ) में लिखा है:
“यस्थ प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजरजःपिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्नयुतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोहमद्येत्यलं
स श्रीप्राजिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ॥" अर्थात्-वह जिन सेनाचार्य, जिनको प्रणाम करने से राजा अमोघवर्ष अपने को पवित्र समझता है, जगत् के मंगलरूप हैं। ___ इससे ज्ञात होता है कि, यह राजा दिगम्बर जैनमत का अनुयायी, और जिनसेने का शिष्य था । जिनसेन रचित 'पार्थाभ्युदय काव्य' से भी इस बात की पुष्टि होती है । इसी जिनसेन ने 'आदिपुराण' ( महापुराण के पूर्वार्ध) की रचना की थी। महावीराचार्य रचित 'गणितसारसंग्रह' नामक गणित के ग्रंथ की भूमिका में भी अमोघवर्ष को जैनमतानुयायी लिखा है ।
दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की 'जयधवला' नामक सिद्धान्त टीका भी, श. सं. ७५६ (वि. सं. ०१४-ई. स. ८३७) में, इसीके राज्य समय लिखी गयी थी।
(१) ऐपिग्राफिया इगिडका, भाग ३, पृ. १७६. (२) पाश्र्वाभ्युदय' और 'मादिपुराण' का कर्ता जिनसेन सेन संघका था, और 'हरिवंश
पुराण' (श. सं. ७०५ ) का कर्ता जिनसेन पुन्नाट संघ का (माचार्य ) था । (३) "इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपामगुरुत्रीजिनसेनाचार्यविरचिते मेषतवेष्टिते पारर्वाभ्युदये
भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम चतुर्थःसर्गः।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
राष्ट्रकूटों का इतिहास दिगम्बर जैनाचार्यों के मतानुसार अमोघवर्ष ने, वृद्धावस्था में वैराग्य के कारण राज्य छोड़ देने पर, 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' नामक पुस्तक लिखी थी। परंतु ब्राह्मण लोग इसे शंकराचार्य की लिखी, और श्वेताम्बर जैन इसे विमलाचार्य की बनायी मानते हैं । दिगम्बर-जैन-भंडारों से मिली इस पुस्तक की प्रतियों में निम्नलिखित श्लोक मिलता है:
"विवेकात्यतराज्येन राक्षेयं रत्नमालिका ।
रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥" अर्थात्-ज्ञानोदय के कारण राज्य छोड़ देनेवाले राजा अमोघवर्ष ने यह 'रत्नमालिका' नामकी पुस्तक लिखी।
इससे जाना जाता है कि, यह राजा वृद्धवस्था में राज्य का भार अपने पुत्र को सौंप धार्मिक कार्यों में लग गया था।
इस 'रत्नमालिका' का अनुवाद तिब्बती भाषा में भी किया गया था, और उसमें भी इसे अमोघवर्ष की बनायी ही लिखा है। ___ अमोघवर्ष के राज्य-काल के आसपास और भी अनेक जैनग्रंथ लिखेगये
थे, और इस मत का प्रचार बढ़ने लगा था । ___वंकेयरस का, विना संवत् का, एक लेखें मिला है। इससे ज्ञात होता है कि, यह वंकेयरस अमोघवर्ष का सामन्त और बनवासी, बेलगलि, कुण्डरगे, कुण्डूर, और पुरीगेडे ( लक्ष्मेश्वर ) आदि प्रदेशों का शासक था।
क्यासनूर से मिले, विना संवत् के, लेख से प्रकट होता है कि, अमोघवर्ष का सामन्त संकरगण्ड बनवासी का अधिकारी था
(१) मद्रास को, गवर्नमेंन्ट मौरियण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी की 'प्रश्नोत्तरमाला' की कापी
में भी उसे शङ्कराचार्य की बनायी ही लिखा है । ( कुप्पुस्वामी द्वारा संपादित सूची,
भा॰ २, खण्ड 1, 'सी, पृ. २६४०-२६४१ (२) प्रमोघवर्ष के एक पुत्र का नाम कृष्णाज, और दूसरे का दुय था। (स्मियकी
___ 'भी हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ० ४४६, फुटनोट १) (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ५, पृ० २१२ (1) साउयइण्डियन इन्सक्रिपशन्स, भा॰ २, • ७, पृ. १६२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
७५
गंगवंशी राजा शिवमार का पुत्र पृथ्वीपति प्रथम भी अमोघवर्ष का समकालीन थी
'कविराजमार्ग' नामकी, कानाड़ी भाषा में लिखी, अलङ्कार की पुस्तक भी अमोघवर्ष की बनायी मानी जाती है।
१२ कृष्णराज द्वितीय
यह अमोघवर्ष का पुत्र था, और उसके जीतेजी ही राज्य का अधिकारी बनादिया गया था ।
इसके समय के चार लेख, और दो ताम्रपत्र मिले हैं।
इनमें का पहला ताम्रपेत्र बगुम्रा ( बड़ोदाराज्य ) से मिला है । यह श. सं. ८१० (वि.सं. १४५ ई. स. ८) का है। इसमें गुजरात के महासामन्ताधिपति अकालवर्ष कृष्णराज के दिये दान का उल्लेख है । परन्तु ऐतिहासिक इसे प्रामाणिक मानते हैं ।
इसके समय का पहला, नंदवाडिगे ( बीजापुर ) से मिला, लेख श. सं. ८२२ (वि. सं. १५७ = ई. स. १०० ) का है । परन्तु वास्तव में उसका संवत् श. सं. ८२४ (वि. सं. १५९ = ई. स. १०३ ) मानाजाता है । दूसरों, इसी संवत् (श. सं. =२२ ) का, लेख अरदेशहल्ली से मिला है ।
तीसरा, मुलगुण्ड ( धारवाड़ जिले ) से मिला, लेख श. सं. ८२४ (वि. सं. १५१ = ई. स. १०३ ) का है।
इसके समय का दूसरा ताम्रपत्र श. सं. ८३२ (वि. सं २६७ = ई. स. ९१० ) का है । यह कपडवंज ( खेडाज़िले ) से मिला है । इस में कृष्ण
(१) सी० माबैलडफ् की कॉनॉलॉजी ऑफ इण्डिया,
( २ ) इण्डियन ऐग्रिटक्केरी, भाग १३, पृ. ६५-६६
( ३ ) ऐपिग्राफिया कर्नाटिका, भा० पृ० 8८; इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा. १२, पृ० २२१
पृ० ७३
( ४ ) इण्डियन ऐग्रिटक्केरी, भा० १२, पृ. २२० ।
( ५ ) ऐपिग्राफिया कर्नाटिका, भा० &, नं० ४२, १०६८
(६) जर्नल बाम्बे ब्राँच रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, भा० १०, पृ० १६०
( ७ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० १, पृ० ५३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास प्रथम से कृष्ण द्वितीय तक की वंशावली देकर कृष्ण द्वितीय द्वारा दिये गाँव के दान का उल्लेख किया गया है । इसी में इसके महासामन्त ब्रह्मबक वंशी प्रचण्ड का नाम भी लिखा है; जिसके अधिकार में ७५० गाँव थे, और इन में खेटक, हर्षपुर, और कासहद मुख्य समझे जाते थे।
__चौथा, एहोले (बीजापुर ) से मिला, लेखे श. सं. ८३१ (वि. सं. १६६ ई. स. १०९) का है। इसका वास्तविक संवत् श. सं.८३३ (वि. सं. १६८ ई. स. ९१२) माना जाता है।
कृष्णराज द्वितीय की आगे लिखी उपाधियाँ मिली हैं:- अकालवर्ष, शुभतुङ्ग, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, श्रीपृथ्वीवल्लभ, और वल्लभराज ।
किसी किसी स्थान पर इसके नाम के साथ " वल्लभ" भी जुड़ा मिलता है; जैसे-कृष्णवल्लभ । इसके नाम का कनाड़ी रूप “कन्नर" पाया जाता है ।
इसने चेदि के हैहयवंशी राजा कोक्कल की कन्या महादेवी से विवाह किया था; जो शंकुक की छोटी बहन थी। कोक्कल प्रथम त्रिपुरी ( तेंवर ) का राजा थौं ।
कृष्णराज (द्वितीय) के समय भी पूर्वी चालुक्यों के साथ का युद्ध जारी था।
(१) कृष्णराज ने प्रचण्ड के पिता की सेवा से प्रसन्न होकर उसे ( प्रचण्ड के पिता को)
पुजरात में जागीर दी थी। (२) इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भाग १२, पृ. २२२ (३) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग १, पृ. ४० (४) वेंगि देश के राजा चालुक्य भीम द्वितीय के ताम्रपत्र में लिखा है:
"तत्सूनुमगिहननकृष्णपुरदहने विख्यातकीर्तिगुणगविजयादित्यश्चतुश्चत्वारिंशतम्" अर्थात्-मंगि को मारने, और कृष्णराज द्वितीय के नगर को जलाने वाले (विष्णुवर्धन पञ्चम के
पुत्र गंगवशी ) विजयादित्य तृतीय ने ४४ वर्ष तक राज्य किया। इसके बाद सम्भवतः उसके राज्य पर राष्ट्रकूटों का अधिकार होगया । परन्तु बादमें विजयादित्य के भतीजे भीम प्रथम ने उस पर फिर कब्ज़ा करलिया । (इण्डियन ऐगिटक्केरी भा. १३,पृ. २१३)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७
मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट कृष्णराज द्वितीय के महासामन्त पृथ्वीराम का, श. सं. ७६७ (वि. सं. १३२ =ई. स. ८७५ ) का, एक लेख मिला है । इस पृथ्वीराम ने सौन्दत्ति के एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमि दान दी थी । इस लेख से ज्ञात होता है कि, श. सं. ७९७ ( वि. स. ६३२ ई० स० ८७५ ) में कृष्णराज द्वितीय राज्य का स्वामी होचुका था । परन्तु इसके पिना अमोघवर्ष प्रथम के समय का श. सं. ७९६ (वि. सं. १३४ ई. स. ८७७ ) का लेख मिलने से प्रकट होता है कि, उसने अपने जीते जी ही, श. सं. ७९७ ( वि. सं. १३२ ) में या इससे पूर्व, अपने पुत्र इस कृष्ण को राज्य-भार सौंप दिया था । इसीसे कुछ सामन्तों ने, अमोघवर्ष की जीवितावस्था में ही, अपने लेखों में कृष्णराज का नाम लिखना प्रारम्भ करदिया था। (हम अमोघवर्ष के इतिहास में भी उसका बुढ़ापे में राज्य छोड़देने के बाद 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' नामक पुस्तक बनाना लिखचुके हैं। इस से भी इस बात की पुष्टि होती है।)
कृष्णराज द्वितीय ने आंध्र, बङ्ग, कलिङ्ग, और मगध के राज्यों पर विजय प्राप्त की थी; गुर्जर, और गौड के राजाओं से युद्ध किया था; और लाटदेश के राष्ट्रकूट-राज्य को छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। इसका राज्य कन्याकुमारी से गंगा के तट तक पहुँच गया था ।
आचार्य जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने 'महापुराण' का अन्तिमभाग लिखा था । उसमें लिखा है:
"अकालवर्षभूपाले पालयत्यखिलामिलाम् ।
शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्दान्ते ।" अर्थात्-अकालवर्ष के राज्य समय श. सं. ८२० (वि. सं. १५५ ई. स. ८१८ ) में 'उत्तरपुराण' समाप्त हुआ।
इस से जाना जाता है कि, यह पुराण कृष्णराज द्वितीय के समय ही समाप्त हुआ था।
(१) जर्नल बॉम्बे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, भा. १०, पृ. ११४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
राष्ट्रकूटों का इतिहास कृष्णराज का राज्यारोहण श. सं. ७९७ (वि. सं. १३२ ई. स. ८७५ ) के करीब अनुमान किया जाता है । परन्तु मिस्टर वी. ए. स्मिथ इस घटना का समय ई. स. ८८० (वि. सं १३७ ) मानते हैं। इसका देहान्त श. सं. ८३३ (वि. सं. १६१ ई. स. १११) के निकट हुआ होगा।
कृष्णराज द्वितीय के पुत्र का नाम जगत्तुङ्ग द्वितीय था । उसका विवाह, चेदिके कलचुरी (हैहयवंशी) राजा कोकल के पुत्र, रणविग्रह ( शक्करगण ) की कन्या लक्ष्मी से हुआ था। ___ जिस प्रकार अर्जुन का विवाह अपने मामू वसुदेव की कन्या से, प्रद्युम्न का रुक्म की पुत्री से, और अनिरुद्ध का रुक्म की पौत्री से हुआ था, उसी प्रकार दक्षिण के राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज, जगत्तुङ्ग आदि का विवाह अपने मामुओं की लड़कियों के साथ हुआ था । यह प्रथा दक्षिण में अबतक भी प्रचलित है । परन्तु उत्तर में त्याज्य समझी जाती है। ___वर्धा से मिले दानपत्र से प्रकट होता है कि, यह जगत्तुङ्ग अपने पिता (कृष्ण द्वितीय) के जीतेजी ही मरगया था, इसीसे कृष्णराज के पीछे जगत्तुङ्ग का पुत्र इन्द्र राज्य का स्वामी हुआ। ___ करड़ा के दानपत्र में जगत्तुङ्ग द्वितीय का शङ्करेंगण की कन्या लक्ष्मी से विवाह करना लिखा है । परन्तु उसी से इसका शङ्करगण की दूसरी कन्या गोविन्दाम्बा से विवाह करना भी प्रकट होता है । इसी गोविन्दाम्बा से अमोघवर्ष तृतीय (वदिग) का जन्म हुआ था । शायद यह इन्द्रराज का छोटा भाई हो। (१) कृष्णराज की कन्या का विवाह चालुक्य (सोलंकी) भीम के पुत्र अय्यण से हुमा था।
उसीका पौत्र तैलप द्वितीय या । ( इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा. १६ पृ. १८) (२) "प्रभूज्जगतुङ्ग इति प्रसिद्धस्तदंगजः स्त्रीनयनामृतांशुः ।
मलब्धराज्यः स दिवं विनिन्ये दिव्यांगनाप्रार्थनयेव धात्रा ।" अर्थात्-रूपवान् जगत्तुङ्ग कामक्रीडासक होकर कुमारावस्था में ही मरगया।
यही बात सांगली, और नवसारी के ताम्रपत्रों से भी प्रकट होती है। (३) शायद शङ्करगण की उपाधि रणविग्रह थी। (४) करडा से मिले ताम्रपत्र में लिखा है:
"चेद्यां मातुलशंकरगणात्मजायामभूबगतुंगात् । श्रीमानमोघवर्षों गोविन्दाम्बाभिधानायाम् ॥"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट
७६ (इस ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात होता है कि, जगत्तुङ्ग ने कई प्रदेशों को जीत कर पिता के राज्य की वृद्धि की थी। परन्तु इस ताम्रपत्र में दिये पिछले इतिहास में बड़ी गड़बड़ है।)
१३ इन्द्रराज तृतीय ___ यह जगस्तुङ्ग द्वितीय का पुत्र था, और पिता के कुमारावस्था में मरजाने के कारण ही अपने दादा कृष्णराज द्वितीय का उत्तराधिकारी हुआ । इसकी माता का नाम लक्ष्मी था । इन्द्रराज तृतीय का विवाह कलचुरी ( हैहय कोकल के पौत्र ) अर्जुन के पुत्र अम्मणदेव (अनङ्गदेव ) की कन्या वीजाम्बा से हुआ था। इसकी आगे लिखी उपाधियां मिलती हैं:
नित्यवर्ष, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, और श्रीपृथिवीवल्लभ ।
बगुम्रा से इसके समय के दो ताम्रपत्रं मिले हैं । ये दोनों श. सं. ८३६ (वि. सं. १७२ ई. स. ११५ ) के हैं । इनसे प्रकट होता है कि, इसने मान्यखेट से कुरुन्दक नामक स्थान में जाकर अपना “राज्याभिषेकोत्सव" किया था, और श. सं. ८३६ की फाल्गुन शुक्ल ७ (२४ फरवरी सेन् ११५ ) को उस कार्य के पूर्ण होजाने पर सुवर्ण का तुलादान कर लाट देश में का एक गाँव दान दिया था । (यह कुरुन्दक कृष्णा और पंचगंगा नदियों के संगम पर था।) इसके साथ ही इसने अगले राजाओं के दिये वे ४०० गाँव, जो जब्त हो चुके थे, बीस लाख द्रम्मों सहित फिर दान करदिये थे।
(1) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. १ पृ. २६; जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा.
१८, पृ. २१७ और २६१ (२) मि. विन्सैटस्मिथ इन्द्र तृतीय का राज्यारोहण ई. स. १२ में लिखते हैं। नहीं कह सकते कि, यह कहां तक ठीक है ? क्योंकि इसी ताम्रपत्र में लिखा है:--
"शकनृपकालातीतसंवत्सर [शते] ध्वष्टसु षट्त्रिंशदुत्तरेषु
युवसंवत्सरे फाल्गुनशुद्धसप्तम्यां संपमे श्रीपट्टव (ब) धोत्सवे ।" इसते इस घटना का ई.स. १५ में होना सिद्ध होता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
राष्ट्रकूटों का इतिहास उपर्युक्त दोनों दानपत्रों में राष्ट्रकूटों का सात्यकि के वंश में होना, और इस इन्द्रराज का मेरु को उजाड़ना लिखा है । यहां पर मेरु से महोदय (कन्नौज) का ही तात्पर्य होगा; क्योंकि इसके पुत्र गोविंद चतुर्थ के, श. सं. ८५२ के, दानपत्र से भी प्रकट होता है कि, इसने अपने रिसाले के साथ यमुना को पारकर कन्नौज को उजाड़ दिया था, और इसी से उसका नाम "कुशस्थल" होगया था।
हत्तिमत्तूर ( धारवाड़ जिले ) से, श. सं. ८३८ ( वि. सं. १७३ ई. स. ११६) का, एक लेखं मिला है । इस में इस ( इन्द्रराज तृतीय ) के महासामन्त लेण्डेयरस का उल्लेख है।
जिस समय इन्द्रराज तृतीयने मेरु ( महोदय कन्नौज ) को उजाड़ा था, उस समय वहां पर पड़िहार राजा महीपाल का राज्य था । यद्यपि इन्द्रराज ने वहां पहुँच उसका राज्य छीन लिया, तथापि वह ( महीपाल ) फिर कन्नौज का स्वामी बनबैठा । परन्तु इस गड़बड़ में उस ( पांचालदेश के राजा महीपाल ) के हाथ से राज्य के सौराष्ट्र आदि पश्चिमी प्रदेश निकल गये । ___ 'दमयन्तीकथा' और 'मदालसा चम्पू' का लेखक त्रिविक्रम भट्ट भी इन्द्रराज तृतीय के समय हुआ था, और श. सं. ८३६ ( वि. सं. १७२ ) का कुरुन्दक से मिला दानपत्र भी इसी त्रिविक्रम भट्टने लिखा था। इसके पिता का नाम नेमादित्य और पुत्र का नाम भास्कर भट्ट था । यह भास्करभट्ट मालवा के परमार राजा भोज का समकालीन था, और इसी की पांचवीं पीढी में 'सिद्धांतशिरोमणि' का कर्ता प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य हुआ था। इन्द्रराज तृतीय के दो पुत्र थे:- अमोघवर्ष, और गोविन्दराज ।
१४ अमोघवर्ष द्वितीय यह इन्द्रराज तृतीय का बड़ा पुत्र था, और सम्भवतः उसके पीछे राज्य का अधिकारी हुआ।
(1) इण्डियन ऐपिठक्केरी, भा• १२, पृ. २१४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
५१
शिलारवंशी महामण्डलेश्वर अपराजित देवराज का, श. सं. ११६ ( वि. सं. १०५४=ई. स. ११७ ) का, एक ताम्रपत्रे मिला है । इस से ज्ञात होता है कि, यह (अमोघवर्ष ) राज्य पर बैठने के थोड़े समय बाद ही मरगया था । इसलिए यदि इसने राज्य किया होगा तो अधिक से अधिक एक वर्ष के करीब ही किया होगा । इसका राज्यारोहण काल वि. सं. १७३ ( ई. स. ११६ ) के करीब होना चाहिए ।
देओली से मिले, श. सं. ८६२ ( ई. स. १४० ) के ताम्रपत्र से भी अमोघवर्ष द्वितीय का इन्द्रराज तृतीय के पीछे गद्दीपर बैठना प्रकट होता है । १५ गोविन्दराज चतुर्थ
यह इन्द्रराज तृतीय का पुत्र, और अमोघवर्ष द्वितीय का छोटा भाई था । इसके नाम का प्राकृत रूप " गोज्जिग" मिलता है । इसकी उपाधियाँ ये थीं :प्रभूतवर्ष, सुवर्णवर्ष, नृपतुङ्ग, वीरनारायण, नित्यकन्दर्प, रदृकन्दर्प, शशाङ्क, नृपतित्रिनेत्र, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, साहसाङ्क, पृथिवीवल्लभ, बल्लभनरेन्द्रदेव, विक्रान्तनारायण, और गोज्जिगवल्लभ आदि ।
इसके समय वेङ्गि के पूर्वी चालुक्यों के साथ का झगड़ा फिर छिड़गया था । अम्म प्रथम, और भीम तृतीय के लेखों से भी इस बात की पुष्टि होती है ।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ३, पृ० २७१
( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा०५, पृ० १४२
(३) चालुक्यों के ताम्रपत्रों में भीम तृतीय के विषय में लिखा है:
:
" दण्डं गोविन्दराज प्रणिहितमधिकं चोलप लोल विक्किं
विक्रान्तं युद्धमलं घटित गजघटं संनिहत्यैक एव ।
"
अर्थात् भीमने, अकेले ही, गोविन्दराज की सेना को, चोलवंशी लोलविधि को, और हाथियों की सेनावाले युद्धमल्ल को मारकर
1
..
इस से ज्ञात होता है कि, गोविन्द चतुर्थ ने भीम पर चढ़ायी की थी। परन्तु उसमें उसे सफलता नहीं हुई ।
इस ( गोविन्द चतुर्थ ) ने ग्रम्म प्रथम के राज्याभिषेक के समय उस पर भी चढ़ायी की थी। परन्तु उसमें भी इसे असफल होना पड़ा ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
गोविंद चतुर्थ के समय के दो लेय, और दो ताम्रपत्र मिले हैं । इन में का पहला श. सं. ८४० (वि. सं. १७५ = ई. स. ११८ ) का लेख डण्डपुर ( धारवाड जिले ) से मिला है, और दूसरा श. सं. ८५९ (वि. सं. १८७ ई. स. १३० ) का है ।
८२
इसके ताम्रपत्रों में से पहला श. सं. ८५२ (वि. सं. १८७ = ई. स. १३० ) है । इसमें इसको महाराजाधिराज इन्द्रराज तृतीय का उत्तराधिकारी, और यदुवंशी लिखा है। दूसरा श. सं. ८५५ (वि. सं. १६० = ई. स. १३३ ) का है । यह सांगली से मिला है। इसमें भी पहले ताम्रपत्र के समान ही इसके वंश आदिका उल्लेख है ।
ओली (बरधा ) के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, यह राजा ( गोविन्द चतुर्थ), अधिक विषयासक्त होने के कारण, शीघ्रही मरगया था । इसका राज्यारोहण-काल वि. सं. १७४ ( ई. स. ११७ ) के निकट था ।
( १ ) इण्डियन ऐरिकेरी, भा० १२, पृ० २२३
( २ ) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२, १०२११ ( नं० ४८ )
( ३ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ७, पृ० ३६
(४) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२, पृ० २४६
(५) सांगली से मिले, श० सं० ८५५ ( वि० सं० २६० = ई० स० ४३३ ) के ताम्रपत्र में लिखा है:
"सामर्थ्य सति निन्दिता प्रविहिता नैवाग्रजे करता बंधु स्त्रीगमनादिभिः कुचरितैरावर्जितं नायशः । शौचाशौचपराङ्मुखं न च भिया पेशाच्यमङ्गीकृतं त्यागेनास मसाहसैव भुवने यः साहसाकोऽभवत्" |
अर्थात् गोविन्दराज ने अपने बड़े भाई के साथ बुरायी नहीं की; कुटम्ब की स्त्रियों के साथ व्यभिचार नहीं किया; और किसी पर भी किसी प्रकार की क्रूरता नहीं की । यह केवल अपने त्याग और साहस से ही साहसा के नाम से प्रसिद्ध हुआ था ।
इससे अनुमान होता है कि, शायद इसके जीतजी इसके विरोधियोंने इस पर ये दोष लगाये होंगे, और उन्हीं के खण्डन के लिए इसे, अपने ताम्रपत्र में ये बातें लिखवानी पड़ी होंगी ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
23
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
१६ बदिग (अमाधवर्ष तृतीय ) यह कृष्णराज द्वितीय का पौत्र, और जगत्तुङ्ग द्वितीय का ( गोविन्दाग्बा के गर्भ से उत्पन्न हुआ ) पुत्र था; और गोविन्द चतुर्थ के, विषयासक्ति के कारण, असमय में ही मरजाने पर उसका उत्तराधिकारी हुआ ।
राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज तृतीय के देअोली ( वरधा ) से मिले, श. सं. ८६२ ( वि. सं. १९७=ई. स. १४०) के, ताम्रपत्र में लिखा है :---
"राज्यं दधे मदनसौख्यविलासकन्दो- . गोविन्दराज इति विश्रुतनामधेयः ॥ १७ ॥ सोप्यङ्गनानयनपाशनिरुद्धबुद्धिसन्मार्गसंगविमुखीकृत सर्वसत्त्वः । दोषप्रकोपविषमप्रकृतिश्लथांगः । प्रापत्क्षयं सहजतेजसि जातजाइये ॥ सामन्तैरथ रहराज्यमहिलालम्बार्थमभ्यर्थितो देवेनापि पिनाकिना हरिकुलोलालैषिणा प्रेरितः । अध्यास्त प्रथमो विवेकिषु जगहुँगान्मजोमोधवा
पीयूषाधिरमोघवर्षनृपतिः श्रीवीरसिंहासनम् ॥ १६ ॥" अर्थात्-अमोघवर्ष द्वितीय के पीछे गोविन्दराज चतुर्थ राज्य का स्वामी हुआ । परन्तु जब काम-विलास में अत्यधिक आसक्त होने के कारण वह शीघ्र ही मरगया, तब उसके सामन्तों ने, रह राज्य की रक्षा के लिए, जगत्तुङ्ग के पुत्र अमोघवर्ष से राज्यभार ग्रहण करने की प्रार्थना की, और उसे गद्दीपर बिठाया ।
अमोघवर्ष चतुर्थ ( बदिग ) की निम्नलिखित उपाधियाँ मिलती हैं:श्रीपृथिवीवल्लभ, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक आदि ।
यह राजा बुद्धिमान् , वीर, और शिवभक्त था । इसका विवाह कलचुरि (हैहय वंशी) नरेश युवराज प्रथम की कन्या कुन्दकदेवी से हुआ था । यह युवराज त्रिपुरी ( तेंवर ) का रोजा था। (१) जर्नल बाँबे ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ० २५१; और
ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ५, पृ. १६२ (२) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग १, पृ० ४२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटो का इतिहास __ हेब्बाल से मिले लेखं से पता चलता है कि, बदिग ( अमोघवर्ष तृतीय ) की कन्या का विवाह पश्चिमी गङ्ग-वंशी राजा सत्यवाक्य कोंगुणिवर्म पेरमानडि भूतुग द्वितीय से हुआ था, और उसे दहेज़ में बहुतसा प्रदेश दिया गया था । ___बदिग का राज्याभिषेक वि. सं. २२२ (ई. स. १३५ ) के निकट हुआ होगा।
इसके ४ पुत्र थे:-कृष्णराज, जगत्तुङ्ग, खोट्टिग, और निरुपम । बद्दिग की कन्या का नाम रेवकनिम्मड़ि था, और यह कृष्णराज तृतीय की बड़ी बहन थी।
१७ कृष्णराज तृतीय यह बदिग (अमोघवर्ष तृतीय ) का बड़ा पुत्र था, और उसके पीछे गद्दीपर बैठा । इसके नाम का प्राकृतरूप "कन्नर" लिखा मिलता है। इसकी आगे लिखी उपाधियां थीं:
अकालवर्ष, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, परमभट्टारक, पृथ्वीवल्लभ, श्रीपृथ्वीवल्लभ, समस्तभुवनाश्रय, कन्धारपुरवराधीश्वर आदि । ____ आतकूर से मिले लेख से पता चलता है कि, कृष्णराज तृतीय ने, वि. सं. १००६-७ ( ई. स. १४९-५० ) के करीब, तक्कोल नामक स्थान पर, चोलवंशी राजा राजादित्य ( मूवडि चोल ) को युद्ध में मारा था । परन्तु वास्तव में इस चोल राजा को धोका देकर मारनेवाला पश्चिमी गङ्गवंशी राजा सत्यवाक्य कोंगुणिवर्मा परमानडि भूतुग ही था, और इसी से प्रसन्न होकर कृष्णराज तृतीय ने उसे बनवासी आदि प्रदेश दिये थे । ___ तिरुकलुकण्यम् से मिले लेख में कृष्णराज तृतीय का काञ्ची, और तंजोर पर अधिकार करना लिखा है ।
(१) ऐपियाफिया इगिडका, भाग ४, पृ. ३५१ (2) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा॰ २, पृ. ११ । राजादित्य की मृत्यु का समय वि•सं•
१.०६ (ई. स. ६४९) अनुमान किया जाता है। (३) ऐपिप्राफिया इहिका, भाग ३, पृ. २४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
८५ देओली से मिली प्रशस्ति से प्रकट होता है कि, कृष्ण तृतीय ने कांची के राजा दन्तिग और वप्पुक को मारा; पल्लव-वंशी राजा अन्तिग को हराया; गुर्जरों के आक्रमण से मध्यभारत के कलचुरियों की रक्षा की; और इसी प्रकार
और भी अनेक शत्रुओं को जीता । हिमालय से लङ्का तक के, और पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक के सामन्त राजा इसकी आज्ञा में रहते थे । इसने अपने छोटे भाई जगत्तुङ्ग की सेवाओं का विचार कर, उसकी स्मृति में, एक गांव दान दिया था। इस राजा का प्रताप युवराज अवस्था में ही खूब फैलगया था । ____लक्ष्मेश्वर से मिली, श. सं. ८१ ० ( ई. स. १६८-६ ) की, प्रशस्ति में लिखा है कि, मारसिंह द्वितीय ने इसी ( कृष्ण तृतीय ) की आज्ञा से गुर्जर राजा को जीता था। यह ( कृष्ण ) स्वयं चोल-वंशी राजाओं के लिए कालरूप था ।
क्यासनूर और धारवाड़ से मिले लेखों से पता चलता है कि, इसका महासामन्त चैल्लकेतन-वंशी कलिविट्ट वि. सं. १००२-३ ( ई. स. १४५-४६ ) में बनवासी प्रदेश का शासक था।
__सौन्दत्ति के रट्टों के एक लेख में लिखा है कि, कृष्ण तृतीय ने पृथ्वीराम को महासामन्त के पद पर प्रतिष्ठित कर सौन्दत्ति के रट्ट-वंश को उन्नत किया था। सेउण प्रदेश का यादववंशी वन्दिग ( वद्दिग ) भी इस ( कृष्ण तृतीय ) का सामन्त था।
इसके समय के करीब १६ लेख, और २ ताम्रपत्र मिले हैं। इनमें के ७ लेखों और २ ताम्रपत्रों में शक संवत् लिखे हैं, और ८ लेखों में इसके राज्यवर्ष दिये हैं । उनका विवरण आगे दिया जाता है:
(१) इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, भा० ५, पृ० १६१ (२) ये गुर्जर शयाद अनहिलवाड़े के चालुक्यवंशी राजा मूलराज के अनुयायी थे जिन्हों ने
कालिंजर, और चित्रकूट पर अधिकार करने का इरादा किया था। (३) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० ७, पृ० १०४ (४) बॉम्बे गजेटियर, भा० १, खण्ड २, पृ॰ ४२० (५) बॉम्बे गजेटियर, भा० १, खण्ड २, पृ० ५४२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास पहला, देवली से मिला, ताम्रपत्र श. सं. ८६२ । वि. सं. १९७-ई. स. १४० ) का है । इस में जिरा दान का उलंब है, यह रा ( कृष्णा तृतीय) ने अपने मृत-भ्राता जगत्तुङ्ग की यादगार में दिया था।
पहला, सालोटगी ( बीजापुर ) मे मिला, लेग्वं श. सं. ८६७ ( वि. मं. १००२-ई. म. २१५ ) का है। इसमें इसके मंत्री नारायण द्वारा स्थापित पाठशाला का उल्लेग्व है । उसमें अनेक देशों के विद्यार्थी आकर विद्याध्ययन किया करते थे।
दूसरा, शोलापुर से मिला, लेख श. सं. ८७१ ( वि. सं. १००६ ई. स. १४६ ) का है। इसमें इसको "चक्रवर्ती" लिखा है। तीसरा, आतकूर ( माइसोर ) से मिला, लेख श. सं. ८७२ ( वि. सं. १००७-ई. स. १५०) की है । इससे प्रकट होता है कि, कृष्ण तृतीय ने, चोल-राज राजादित्य के मारने के उपलक्ष में, पश्चिमी गङ्ग-वंशी राजा भूतुग द्वितीय को बनवासी आदि प्रदेश उपहार में दिये थे। ___चौथा, सोरटूर ( धारवाड़ ) से मिला, लेखे श. सं. ८७३ ( वि. सं. १००८ ई. स. १५१ ) का है । और पांचवां, शोलापुर से मिला, लेख श. सं. ८७५ ( वि. सं. १०१४ ई. स. १५७ ) का है ।
छटा, चिंचली मे मिला, लेवं श. सं. ८७६ ( वि. सं. १०११ ई. स. १५४ ) का है।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका. भा०५, पृ० ११२ (२) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा० ४, पृ०६. ( ३ ) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा० ७, पृ. १६४ (४) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा॰ २, पृ० १७१ (५) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा• १२, पृ. २५७ (६) ऐपिग्राफिया इपिडका, भा० ७, पृ. १९६ (७) कीलहान लिस्ट प्रॉफ दि इम्मकिपशन्स ऑफ सदर्न इण्डिया, नं. ६५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण ) के राष्ट्रकूट इसका दूसरा ताम्रपत्रं श. सं. ८८० ( वि. सं. १०१५ ई. स. १५८ ) का है । यह करहाड से मिला है। इससे प्रकट होता है कि, इसने अपनी दक्षिण की विजय के समय चोलदेश को उजाई कर, पाण्ड्यदेश को विजय किया; सिंहल नरेश को अपने अधीन कर, उधर के मांडलिक राजाओं से कर वसूल किया; रामेश्वर में इस विजय का कीर्तिस्तम्भ स्थापन किया; और कालप्रियगण्डमार्तण्ड, और कृष्णेश्वर के मन्दिर बनवाने के लिए गाँव दान दिया।
इसका सातवां लेख शै. सं. ८८४ ( वि. सं. १०११-ई. स. ६६२ ) का है । यह देवीहोसूर से मिला है। ___ इसके समय के विना संवत् के आठ लेख क्रमशः इसके सोर्लहवें, सत्रहवें, उन्नीसवें, इक्कीसवें, बाईसवें, चौबीसवें, और छब्बीसवें राज्य वर्ष के हैं । इनमें सत्रहवें राज्यवर्ष के दो लेख हैं । नवें लक्ष्मेश्वर से मिले लेख में संवत् या राज्यवर्ष कुछ भी नहीं दिया है । ये सब तामील भाषा में लिखे हुए हैं । __इनमें भी इसको काञ्ची, और तंजई ( तंजोर ) का जीतनेवाला लिखी है । इसके छब्बीसवें राज्यवर्ष के लेख में; जिस वीरचोल का उल्लेख है, वह शायद गङ्गवाण पृथ्वीपति द्वितीय होगा।
(१) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा० ४, पृ. २८१ (२) इसकी पुष्टि कृष्णराज के जूरा नामक गाँव से मिले लेख में भी होती है ( ऐपि.
ग्राफिया इण्डिका, भा० १६, पृ. २८७) इस घटना का समय वि० सं० १००४
(ई. स. ६४७) माना जाता है। (३) कीलहार्स लिस्ट मॉफ दि इन्सक्रिपशन्स ऑफ सदर्न इण्डिया, नं• EL (४) साउथ इण्डियन इन्सक्रिपशन्स, भा. ३, नं० ७, पृ. १२ (५) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ७, पृ० १३५ (६) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ३, पृ० २८५. (७) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ५, पृ. १४२ (८) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ७, पृ. १४३ (E) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ७, पृ. १४० (1.) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ४, पृ. ८३ (११) ऐपिग्राफिया इगिंडका, भा० ३, पृ० २८४ (१२) उस समय काश्ची में पल्लवों का, और जोर में चोलों का राज्य था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास कृष्णराज तृतीय अपने पिता को भी राज्य-कार्य में महायता दिया करता था । इसने पश्चिमी गङ्ग-वंशी राचमल्ल प्रथम को गद्दी से हटाकर उसकी जगह, अपने बहनोई, भूतार्य ( भूतुग द्वितीय ) को गद्दी पर बिठाया था, और चेदि के कलचुरि ( हैहय-वंशी ) गजा सहस्रार्जुन को जीता था । यह सहस्रार्जुन इसकी माता, और स्त्री का रिश्तेदार था । इस ( कृष्ण ) की वीरता से गुजरातवाले भी डरते थे।
इसके २६ वें राज्य-वर्ष का लेख मिलने से सिद्ध होता है कि, इसने कमसे कम २६ वर्ष अवश्य ही राज्य किया था । ___सोमदेवरचित 'यशस्तिलकचम्पू' इसी के समय , श. सं ८८१ (वि. सं. १०१६ =ई. स. १५६ ) में, समाप्त हुआ था। उसमें इसे (कृष्ण तृतीय को ) चेर, चोल, पाण्डय , और सिंहल का जीतने वाला लिखा है। ('नीतिवाक्यामृत' नामक राजनैतिक ग्रंथ भी इसी सोमदेव ने बनाया था।)
कृष्णराज तृतीय के नाम के साथ लगी “ परममाहेश्वर' उपाधि से इसका शिवभक्त होना प्रकट होता है। इसका राज्याभिषेक वि. सं. ११६ (ई.स. १३६ ) के करीब हुआ होगा । यह राजा बड़ा प्रतापी था, और इसका राज्य गङ्गा की सीमा को पार कर गया था।
कनाडी भाषा का प्रसिद्ध कवि पोन भी इसी के समय हुआ था। यह कवि जैन-मतानुयायी था , और इसने 'शान्तिपुराण' की रचना की थी। कृष्णराज तृतीय ने, इसकी विद्वत्ता से प्रसन्न होकर, इसे "उभयभाषाचक्रवर्ती" की उपाधि दी थी।
(१) तामिल भाषा के एक पिछले लेख से राचमल्ल का भी भूतुग के हाथ से माराजाना
प्रकट होता है । (२) सोमदेव ने जिस समय उक पुस्तक बनायी थी, उस समय वह कृष्णराज तृतीय के
सामन्त , चालुक्य परिकेसरी के बड़े पुत्र , वहिग की राजधानी में था। (३) जेनसाहित्य संशोधक, खण्ड २ मा ३, पृ. ३६.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट महाकवि पुष्पदन्त भी कृष्णराज तृतीय के समय ही मान्यखेट में आया था, और वहीं पर उसने, मंत्री भरत के आश्रय में रहकर, अपभ्रंश भाषा के 'जैनमहापुराण' की रचना की थी। इस ग्रन्थ में मान्यखेट के लूटे जाने का वर्णन है । यह घटना वि. सं . १०२९ (ई. स. १७२) में हुई थी। इससे ज्ञात होता है कि, पुष्पदन्त ने यह 'महापुराण' कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारी खोडिग के समय समाप्त किया था । इसी कवि ने 'यशोधरचरित' और 'नागकुमारचरित' भी लिखे थे। इन में भरत के पुत्र नन्न का उल्लेख है। इसलिए सम्भवतः ये दोनों ग्रन्थ भी कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारियों के समय ही बने होंगे।
करंजा के जैनपुस्तकभंडार में की 'ज्वालामालिनीकल्प' नामक पुस्तक के अन्त में लिखा है :
"श्रष्टाशतसैकषष्ठिप्रमाणशकवत्सरेवतीतेषु । श्रीमान्यखेटकटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् ॥ शतदलसहितचतुश्शतपरिणामग्रन्थरचनयायुक्तम् ।
श्रीकृष्णराजराज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्याः ॥" अर्थात्-यह पुस्तक श. सं. ८६१ में कृष्णराज के राज्य समय समाप्त
इससे श. सं ८६१ (वि. सं. १९६-ई. स. १३९) तक कृष्णराज का ही राज्य होना पाया जाता है।
१८ खोहिंग यह अमोघवर्ष तृतीय का पुत्र, और कृष्णराज तृतीय का छोटा भाई था। तथा कृष्णराज के मरने पर उसका उत्तराधिकारी हुआ । करडा (खानदेश) से मिले, श. सं. ८६४ के, ताम्रपत्र में लिखा है:
"स्वर्गमधिरूढे च ज्येष्ठे भ्रातरि श्रीकृष्णराजदेवेयुवराजदेवदुहितरि कुन्दकदेव्याममोघवर्षनृपाजातः। खोट्टिगदेवो नृपतिरभूद्भवनविख्यातः ॥ १६ ॥"
(१) मसाहित्य संशोधक, खण्ड २ अङ्क. ३, पृ. १४५-१६६ (२) इविन्यन ऐपिटक्केरी, भा. १२, पृ. २६४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास अर्थात्-बड़े भाई कृष्णराजदेव के मरने पर, युवराजदेव की कन्या कुन्दकदेवी के गर्भ और अमोघवर्ष के औरस से उत्पन्न हुआ, खोष्टिगदेव गद्दी पर बैठा।
यद्यपि जगतुङ्ग खोटिंग का बड़ा भाई था, तथापि उसके कृष्णराज तृतीय के समय में ही मरजाने से यह राज्य का अधिकारी हुआ।
खोट्टिग की ये उपाधियां मिलती हैं:-नित्यवर्ष, रट्टकन्दर्प, महाराजाधिराज परमेश्वर, परमभट्टारक, श्रीपृथ्वीवल्लभ आदि ।
इसके समय का, श. सं. ८१३ (वि. सं. १०२८ ई. स. १७१ ) का, एक लेखे मिला है । यह कनाडी भाषा में लिखा हुआ है । इसमें इसकी उपाधि, "नित्यवर्ष" लिखी है, और इसके सामन्त पश्चिमी गङ्गवंशी पेरमानडि मारसिंह द्वितीय का भी उल्लेख है । इस मारसिंह के अधिकार में गंगवाडी के १६ हजार (8), वेलवल के ३००, और पुरिगेर के ३०० गाँव थे ।
उदयपुर (ग्वालियर ) से, परमार राजा उदयादित्य के समय की, एक प्रशस्ति मिली है । उसमें लिखा है:
"श्रीहर्षदेव इति खोट्टिगदेवलक्ष्मी ।
जग्राह यो युधि नगादसमः प्रतापः [१२]" अर्थात्-श्रीहर्ष ( मालवा के परमार राजा सीयक द्वितीय ) ने खोडियदेव की राज्यलक्ष्मी छीन ली।
(१) यह इसके नाम का प्राकृतरूप मालूम होता है। पान्तु इसके असली नाम का
___ उल्लेख अब तक नहीं मिला है। (२) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० ११. पृ. २५५ (३) अनंत बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भा॰, पृ. ५०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
२१
धनपाल कवि ने अपने 'पाइयलच्छी नाममाला' नामक प्राकृतकोष के अन्त में लिखा है:
"विकमकालस्सगए, उणतीसुत्तरे सहस्सम्मि । मालवनरिंदधाडीए लूडिए मन्नखेड़म्म || २७६ ॥”
अर्थात् - विक्रम संवत् १०२९ में मालवे के राजा ने मान्यखेट को लूटा । इनसे प्रकट होता है कि, सीयक द्वितीय ने, खोट्टिग को हराकर उसकी राजधानी, मान्यखेट को लूटा था । इसी घटना के समय धनपाल ने, अपनी बहन सुन्दरा के लिए, पूर्वोक्त ( पाइयलच्छी नाममाला ) पुस्तक बनायी थी । इसी युद्ध में मालवे के राजा सीयक का चचेरा भाई ( बागड़ का राजा कङ्कदेव ) मारा गया था, और इसी में खोट्टिग का भी देहान्त हुआ था । यह बात पुष्पदन्त रचित 'जैनमहापुराण' से भी सिद्ध होती है ।
खोट्टिग का राज्यारोहण वि. सं. १०२३ ( ई. स. १६६ ) के करीब हुआ होगा ।
खोट्टिग के समय से ही दक्षिण के राष्ट्रकूट राजाओं का उदय होता हुआ प्रताप-सूर्य अस्ताचल की तरफ़ मुड़गया था । खोट्टिग के पीछे कोई पुत्र न था । १६ कर्कराज द्वितीय
यह अमोघवर्ष तृतीय के सब से छोटे पुत्र निरुपम का लड़का, और खोट्टिगदेव का भतीजा था; और अपने चाचा खोट्टिग के बाद राज्य का अधिकारी हुआ । इसके नाम के रूपान्तर - कक्क, कर्कर, कक्कर, और कक्कल आदि मिलते हैं । इसकी उपाधियां ये थीं :
अमोघवर्ष, नृपतुङ्ग, वीरनारायण, नूतनपार्थ, श्रहितमार्तण्ड, राजत्रिनेत्र, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, परमभट्टारक, पृथ्वीवल्लभ, और वल्लभनरेन्द्र आदि । इन में की “परममाहेश्वर" उपाधि से इसका भी शैव होना सिद्ध होता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास इसके समय का, श. सं. ०१४ (वि. सं. १०२९ ई. स. १७२ ) का, एक ताम्रपत्रं करडा से मिला है । इसमें भी राष्ट्रकूटों को यदुववंशी लिखा है। कर्कराज की राजधानी मलखेड़ थी, और इसने गुर्जर, चोल, हूण, और पापड्य लोगों को जीता था।
गुणकूर ( धारवाड़ ) से, श. सं. २९६ (वि. सं. १०३० ई. स. १७३) का, एक लेख मिला है । यह भी इसी के समय का है । इसमें इसके सामन्त पश्चिमी गङ्गवंशी राजा पेरमानडि मारसिंह द्वितीय का उल्लेख है । इस मारसिंह ने पल्लववंशी नोलम्बकुल को नष्ट किया था । ____ कर्कराज : द्वितीय ) का राज्यभिषेक वि. सं. १०२६ ( ई. स. १७२ ) के करीब हुआ होगा। ___ पहले खोटिंग और मालवे के परमार राजा सीयक द्वितीय के युद्ध का उल्लेख किया जा चुका है। इस युद्ध के कारण ही इन राष्ट्रकूटों का राज्य शिथिल पड़गया था। इसी से चालुक्यवंशी ( सोलङ्की ) राजा तैलपै द्वितीय ने कर्कराज द्वितीय पर चढाई कर अपने पूर्वजों के गये हुए राज्य को वापिस हथिया लिया । इस प्रकार वि. सं. १०३० ( ई. स. १७३ ) के बाद कल्याणी
(1) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग, १२ पृ. २६३ (२) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भाग १२, पृ. २७१ (३) इस तेखप की पितामही राष्ट्रकूट कृष्णराज (द्वितीय) की कन्या थी, और उसका
विवाह चालुक्यवंशी भय्यन के साथ हुमा था। अय्यन का समय वि.सं. १७७ (इ. स. ११.) के करीब था ( इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा. १६, पृ. १८और दि
कॉनॉलॉजी मॉफ इण्डिया, पृ.८६) (७) खारेपाटण से मिले ताम्रपत्र में लिखा है:
"ककलस्तस्य नातृव्यो भुवोभर्ता जनप्रियः ।
मासीत् प्रचण्डयामेव प्रतापजितशात्रवः ॥
समरे तं विनिनित्य तैलपोभून्महीपतिः ।" अर्यात्-खोहिग का भतीजा प्रतापी कर्कराज द्वितीय था । परन्तु तेहप ने, उसे हराकर, उसके राज्यपर अधिकार करलिया।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
के चालुक्य सोलंकी - राज्य की स्थापना के साथ ही दक्षिण के की समाप्ति हो गयी ।
कलचुरी वंशी विज्जल के लेख में तैलप का राष्ट्रकूट राजा कर्कर ( कर्कराज द्वितीय), और रणकंभ ( रणस्तम्भ ) को मारना लिखा है । यह रणस्तम्भ शायद राज का रिश्तेदार होगा ।
३
उपर्युक्त सोलंकी तैलप द्वितीय का विवाह राष्ट्रकूट भम्मह की कन्या जाकब्बा हुआ थाँ 1
से
'विक्रमाङ्कदेवचरित' ( सर्ग १ ) में लिखा है:
राष्ट्रकूट- राज्य
भदान से मिले, शिलारवंशी अपराजित के, श. सं. ११९ के ताम्रपत्र से और उसी वंश के रहराज के, श. सं. १३० के, ताम्रपत्र से भी कर्कराज के समय तैलप द्वितीय का राष्ट्रकूट राज्य को नष्ट करना सिद्ध होता है । यह अपराजित राष्ट्रकूटों का सामन्त था, परन्तु उनके राज्य के नष्ट होजाने पर स्वतंत्र बन बैठा था ।
( १ ) इण्डियन ऐबिटक्केरी, भा० ८, १०१५
( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ५ १०१५ (३) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा० १६, पृ० २१ (४) ऐपिग्राफिमा इण्डिका, भा०३, पृ० २७२ ( ५ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ३ १० २६७
विश्वम्भराकंटक राष्ट्रकूटसमूलनिर्मूलनकोविदस्य ।
सुखेन यस्यान्तिकमाजगाम चालुक्यचन्द्रस्य नरेन्द्रलक्ष्मीः ॥ ६६ ॥
अर्थात् - राज्यलक्ष्मी, राष्ट्रकूट राज्य को नष्ट करने वाले, सोलडी तैलप द्वितीय के पास चली आयी ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
राष्ट्रकूटों का इतिहास श्रवणबेलगोल से, श. सं. १०४ ( वि. सं. १०३९ ई. स. १८२ ) का, एक लेख मिला है । इसमें इन्द्रराज चतुर्थ का उल्लेख है । यह राष्ट्रकूट-नरेश कृष्णराज तृतीय का पौत्र था। इस इन्द्रराज की माता गंगवंशी गांगेयदेव की कन्या थी, और स्वयं इन्द्रराज का विवाह राजचूडामणि की कन्या से हुआ था।
इन्द्रराज चतुर्थ की उपाधियां ये थी:-रहकन्दर्पदेव, राजमार्तन्ड, चलदककारण, चलदग्गले, कीर्तिनारायण आदि ।
यह बड़ा वीर, रणकुशल, और जीतेन्द्रिय था। इसने, अकेलेही, चक्रव्यूह को तोड़कर १८ शत्रुओं को हराया था। यद्यपि कल्लर की स्त्री गिरिगे ने इसे मोहित करने की बहुत कोशिश की, तथापि यह उसके फंदे में नहीं फँसा । इस पर वह सेना लेकर लड़ने को उद्यत होगयी। परन्तु इसमें भी उसे सफलता नहीं मिली।
पश्चिमी गंगवंशी राजा पेरमानडि मारसिंह ने, कर्कराज द्वितीय के बाद, राष्ट्रकूट राज्य को बना रखने के लिए इसी इन्द्रराज चतुर्थ को राजगद्दी पर बिठाने की कोशिश की थी। ( पहले लिखा जा चुका है कि, मारसिंह का पिता पेरमानडि भूतुग राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज तृतीय का बहनोई था । ) यह घटना शायद वि. सं. १०३० ( ई. स. १७३ ) के करीब की है । परन्तु इसके नतीजे का कुछ भी पता नहीं चलता।
इन्द्रराज चतुर्थ की मृत्यु श. सं. १०४ (वि. सं. १०३९ ) की चैत्र वदि - ( ई. स. १८२ के मार्च की २० तारीख ) को हुई थी। इसने जैनमतानुसार अनशनव्रत धारणकर प्राण त्याग किये थे।
(1) इन्सक्रिपशन्स ऐट श्रवणबेलगोल, नं०.५७ (पृ. ५३ ) ए. १७ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, पृ. १५२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्यनेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूटों का वंशवृक्ष १ दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) प्रथम २ इन्द्रराज प्रथम ३ गोविन्दराज प्रथम ४ कर्कराज प्रथम
५ इन्द्रराज द्वितीय
७
कृष्णराज प्रथम
नन्न
६ दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) द्वितीय
८ गोविन्दराज द्वितीय र ध्रुवराज
१० गोविन्दराज तृतीय इन्द्रराज शौचकम्ब
(कम्बय्य, स्तम्भ या रणावलोक) (जगत्तुङ्ग प्रथम )
(गुजरात की दूसरी शाखा इसी से चली थी) ११ अमोघवर्ष प्रथम १२ कृष्णराज द्वितीय ___ जगसुङ्ग द्वितीय दन्तिवर्मा
१३ इन्दराज तृतीय
१६ अमोघवर्ष तृतीय (बद्दिग)
१४ अमोघवर्ष द्वितीय १५ गोविन्दराज चतुर्थ
१७ कृष्णराज तृतीय जगतुङ्ग तृतीय १८ खोड़िग निरुपम रेवकनिम्मडि ( कन्या )
१६ कर्कराज द्वितीय
इन्द्रराज चतुर्थ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
नाम
दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग)
प्रथम
• 01
• 01
इन्द्रराज प्रथम गोविन्दराज प्रथम कर्णराज प्रथम इन्द्रराज द्वितीय वन्तिधर्मा (दन्तिदुर्ग)
द्वितीय
•:0)
01
..
O
मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूटों का नक्शा
उपाधि
कृष्णराज प्रथम
नं० ५ का भाई गोविन्दराज द्वितीय नं० ७ का पुत्र
११ प्रमोघवर्ष प्रथम
परस्पर का सम्बन्ध
मं० १ का पुत्र
नं० २ का पुत्र नं० ३ पुत्र नं० ४ नं० ५ का पुत्र
ध्रुवराज
नं० ८ का भाई गोविन्दराज तृतीय नं० १ का पुत्र
नं० १० का पुत्र
..1
1
..
..]
ज्ञात समय
महाराजाधिराज श. सं. ६७५
श. सं. ६६० (६६२) ६६४ महाराजाधिराज | श. सं. ६९२, (६६७, ७०१ )
७०५
महाराजाधिराज श. सं. ६१७, ७०१, [७१५] महाराजाधिराज श. सं. ७१६, ७२६, ७३०,
७३४, ७३५
महाराजाधिराज श. सं. ७३८, ७४६ [७५७]
७६५, ७७५, (७७३), ७८२, ७८७, ७८८, ७८९ [ ७६९ ]
समकालीन राजा आदि
पश्चिमी चालुक्य कीर्तिवर्मा ।
राहप्प, और कीर्तिवर्मा ।
प्रतिहार वत्सराज
माराशर्व, कांची का दन्तिग,
इन्द्रायुध, वत्सराज ( वराह ), मौर विजयादित्य | शिलारवंशी कपर्दी द्वितीय, पृथ्वीपति, कर्कराज, संकरणगड, प्रौर पुलुकि ।
राष्ट्रकूटों का इतिहास
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
रुग्णराज द्वितीय | नं० ११ का पुत्र · | महाराजाधिराज श. स.[७६७], ८१०, ८२२, कलचुरि कोकल, और शङ्कक.
(८२४), ८२४, ८३१ (८३३)
| ८३२ इन्दराज ततीय.. | नं०१२ का पौत्र | महाराजाधिराज | श.सं.८३६, ८३८ । कलचुरि अम्मणदेव, और | अमोघवर्ष द्वितीय नं० १३ का पुत्र
। प्रतिहार महीपाल । १५ । गोविन्दराज चतुर्थ नं०१४ का भाई.. महाराजाधिराज श. सं.८४०, ८५, ८५२,
८५५ | अमोघवर्ष तृतीय । नं० १३ का भाई महाराजाधिराज
| कलचुरि युवराज प्रथम, और (बद्दिग) ..
| पश्चिमी गंगवंशी पेरमानडि
भूतुग द्वितीय। १७ । कृष्णराज तृतीय / नं० १६ का पुत्र | महाराजाधिराज श. सं. ८६१, ८६२, ८६७, दन्तिग, वपुग, राचमल्ल प्रथम,
चक्रवती | ८७१, ८७२, ८७३, ८७५, | पश्चिमी गंगवंशी भूतुग | ८७६, ८८०,८८१, ८८४ द्वितीय, अणिणग, चोल राजा
|दित्य, कलचुरि सहलार्जुन,
अन्तिग, और पृथ्वीराम। १८ । खोहिग .. ! नं०१७ का भाई.. | महाराजाधिराज | श. सं.८६३ (वि.सं. १०२६) मारसिंह, और परमार सीयक
द्वितीय, १६ | कर्कराज द्वितीय नं०१८ का भतीजा | महाराजाधिराज | श. सं. ८६४, ८६६ . | तैलप द्वितीय, और मारसिंह
द्वितीय २० । इन्द्रराज चतुर्थ : नं० १७ का पौत्र
श.सं. ६०४
मान्यखेट (दक्षिण ) के राष्ट्रकूट
www.umaragyanbhandar.com
शक संवत् में १३५ जोड़ने से विक्रम संवत्, और ७८ जोड़ने से ईस्वी सन् बन जाता है ।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
ἐς
लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट ।
[ वि. सं. ८१४ ( ई. स. ७५७ ) के पूर्व से
वि. सं. १४५ ( ई. स. ८८८ ) के बाद तक ]
प्रथम शाखा
पहले लिखा जाचुका है कि, दन्तिदुर्ग ( दन्तिवर्मा द्वितीय ) ने चालुक्य ( सोलंकी ) कीर्तिवर्मा द्वितीय का राज्य छीन लिया था । उसी समय से लाट ( दक्षिणी और मध्य गुजरात ) पर भी राष्ट्रकूटों का अधिकार होगया ।
सूरत से, श. सं. ६७९ (वि. सं. ८ १४ = ई. स. ७५७ ) का, गुजरात के महाराजाधिराज कर्कराज द्वितीय का, एक ताम्रपत्र मिला है। इससे ज्ञात होता है कि, दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग ) द्वितीय ने अपनी सोलङ्कियों पर की विजय के समय, अपने रिश्तेदार कर्कराज को लाट प्रदेश का स्वामी बनादिया था ।
इन राष्ट्रकूटों और दक्षिणी राष्ट्रकूटों के नामों में साम्य होने से प्रकट होता है कि, लाट के राष्ट्रकूट भी दक्षिण के राष्ट्रकूटों की ही शाखा में थे । १ कर्कराज प्रथम
इस शाखा का सब से पहला नाम यही मिलता है ।
२ भुवराज
यह कर्कराज प्रथम का पुत्र था ।
३ गोविन्दराज
यह ध्रुवराज का पुत्र था | इसका विवाह नागवर्मा की कन्या से हुआ था ।
(1) जर्नल बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा. १६, पृ. १०६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट
४ कर्कराज द्वितीय यह गोविन्दराज का पुत्र था । श. सं ६७६ ( वि. सं. ८१४ ई. स. ७५७ ) का उपर्युक्त ताम्रपत्र इसी के समय का है । कर्कराज द्वितीय राष्ट्रकूट राजा दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) द्वितीय का समकालीन था, और इसे उसी ने लाट देश का अधिकार दिया था।
इस ( कर्कराज द्वितीय ) की निम्नलिखित उपाधियाँ मिलती हैं:
परममाहेश्वर, परमभट्टारक, परमेश्वर, और महाराजाधिराज ।
यह राजा बड़ा प्रतापी, और शिवभक्त था। कुछ विद्वान् इसी का दूसरा नाम राहप्प मानते हैं; जिसे दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम ने हराया था । सम्भव है, इसी युद्ध के कारण इस शाखा की समाप्त हुई हो । ___इसके बाद की इस वंश के राष्ट्रकूटों की प्रशस्तियों के न मिलने से इस शाखा के अगले इतिहास का पता नहीं चलता ।
द्वितीय शाखा। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय के इतिहास में लिख आये हैं कि, उसने अपने छोटे भाई इन्द्रराज को लाट देश का राज्य दिया था। उसी इन्द्रराज के वंशजों की प्रशस्तियों में इस शाखा का इतिहास इस प्रकार मिलता है:
यह दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा ध्रुवराज का पुत्र, और गोविन्दराज तृतीय का छोटा भाई था। इसके बड़ेभाई गोविन्दराज तृतीय ने ही इसे लाट प्रदेश [ दक्षिणी और मध्य गुजरात ] का स्वामी बनाया था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
राष्ट्रकूटों का इतिहास ___गोविन्दराज तृतीय के, श. सं. ७३० ( वि. सं. ८६५ ई. स. ८०८ ) के, ताम्रपत्र में गुजरात विजय का उल्लेव है । इससे अनुमान होता है कि, उसी समय के आस पास इन्द्रराज को लाट देश का अधिकार मिला होगा ।
इन्द्रराज के पुत्र कर्कराज के श. सं. ७३४ के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि, इन्द्रराजने गुर्जरेश्वर को हराया था । यह घटना शायद गुर्जर नरेश के अपने गये हुए राज्य को फिरसे प्राप्त करने की चेष्टा करने पर हुई होगी । उसी ताम्रपत्रमें इन्द्रराज का, मान्यखेट के राष्ट्रकूट नरेश ( अपने बड़े भाई ) गोविन्दराज तृतीय के विरुद्ध, दक्षिण की तरफ के सामन्तों की रक्षा करना लिखा है । सम्भव है कुछ समय बाद दोनों भाइयों के बीच मनोमालिन्य होगया हो । इन्द्रराज के दो पुत्र थे:-कर्कराज, और गोविन्दराज ।।
___२ कर्कराज (कक्कराज) यह इन्द्रराज का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसके समय के तीन ताम्रपत्र मिले हैं। इनमें का पहलो श. सं. ७३४ ( वि. सं. ८६६ ई. स. ८१२ ) का है । इसमें दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय का अपने छोटे भाई इन्द्रराज ( कर्कराज के पिता ) को लाट देश का राज्य देना लिखा है, और कर्कराज की निम्नलिखित उपाधियाँ दी हैं:
महासामन्ताधिपति, लाटेश्वर, और सुवर्णवर्ष
कर्कराज ने, गौड और बङ्गदेश विजेता, गुर्जर के राजा से मालवे के राजा की रक्षा की थी। इस ताम्रपत्र में उल्लिखित दान के दूतक का नाम राजकुमार दन्तिवर्मा था।
इसके समय का दूसरा ताम्रपैत्र श. सं. ७३८ ( वि. सं. ८७३ ई. स.८१७) का, और तीसरा श. सं. ७४६ (वि. सं. ८८१ ई. स. ८२४ ) का है।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६, पृ. २४२ (२) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १२, पृ. १५८ (३) इसमें जिस, वडपद्रक नामक गांव के दानका उल्लेख है वह प्राजकन बड़ौदा के नाम से
प्रसिद्ध नगर है। (४) बर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग २०, पृ. १३५ (५) यह ब्राह्मणपल्ली से मिला है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०१
लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट गुजरात के महासामन्ताधिपति धुबराज प्रथम का, श. सं. ७५७ (वि. सं. ८१२=ई. स. ८३५ ) का, एक ताम्रपत्रं मिला है । उसमें लिखा है कि, इस कर्कराज ने, बागी हुए राष्ट्रकूटों को हराकर ( वि. सं. ८७२ ई. स. ८१५ के करीब ), मान्यखेट के राजा अमोघवर्ष प्रथम को उसके पिता की गद्दी पर बिठाया था। ___ इससे अनुमान होता है कि, गोविन्दराज तृतीय की मृत्यु के समय अमोघमर्ष प्रथम बालक था, और इसी से मौका पाकर उसके राष्ट्रकूट सामन्तों ने, और सोलकियों ने उसके राज्य को छीन लेने की कोशिश की थी । परन्तु कर्कराज के कारण उनकी इच्छा पूर्ण न होसकी । इसके पुत्र का नाम ध्रुवराज था।
३ गोविन्दराज यह इन्द्रराज का पुत्र, और कर्कराज का छोटा भाई था। इसके समय के दो ताम्रपत्र मिले हैं । इनमें का पहला श. सं. ७३५ ( वि. सं. ८६९ ई. स. ८१२) का, और दूसरा श. सं ७४६ (वि. सं. ८८४ ई. स. ८२७) का है । पहले ताम्रपत्र में इसके महासामन्त शलुकिक वंशी बुद्धवर्ष का उल्लेख है, और गोविन्दराज की नीचे लिखी उपाधियाँ दी हैं:
महासामन्ताधिपति, और प्रभूतवर्ष ।
दूसरे ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि, जिस समय यह राजा भडोच में था, उस समय इसने जयादित्य नामक सूर्य के मन्दिर के लिए एक गांव दान दिया था।
(१) इण्डियन ऐगिटक्वेरी, भाग १४, पृ० १६६ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ. ५४ (३) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग ५, पृ. १४५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
राष्ट्रकूटों का इतिहास कर्कराज के, श. सं. ७३४, ७३८, और ७४६, के ताम्रपत्रों, और उसके छोटे भाई गोविन्दराज के श. सं. ७३५, और ७४६ के ताम्रपत्रों को देखने से अनुमान होता है कि, इन दोनों भाइयों ने एक ही समय साथ साथ अधिकार का उपभोग किया था।
४ ध्रुवराज प्रथम यह कर्कराज का पुत्र था, और अपने चचा गोविन्दराज के पीछे राज्य का स्वामी हुआ । कर्कराज के इतिहास में, जिस श. सं. ७५७ ( वि. सं. ८९२ ई. स. ८३५ ) के ताम्रपत्रं का उल्लेख किया गया है, वह इसी का है। उसमें इसकी उपाधियाँ महासामन्ताधिपति, धारावर्ष, और निरुपम लिखी हैं।
बेगुम्रा से मिले, श. सं. ७८९ (वि. सं. १२४ ई. स. ८६७ ) के, ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, इसने अमोघवर्ष प्रथम के विरुद्ध बगावत की थी; इसी से उसे इस पर चढायी करनी पड़ी । शायद इसी युद्ध में यह (ध्रुवराज प्रथम ) मारा गया था।
(1) कुछ लोगों का अनुमान है कि, श. सं. ७३६ (वि. सं. ८६६ ई. स. ८१२ ) में
दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय के मरने पर, जब उसके सामन्तों ने बाबत की, तब कर्कराज, अपने भाई गोविन्दराज को लाटराज्य का प्रबन्ध सौंप, अमोघवर्ष प्रथम की सहायता को गया था। इसीसे बड़े भाई कर्कराज की अनुपस्थिति में गोविन्दराज ने वहां का प्रबन्ध स्वतंत्र शासक की तरह किया हो। यह भी सम्भव है कि, गोविन्दराज का इरादा बड़े भाई के जीतेजी ही उसके राज्य को दवा लेने का होगया हो । परन्तु अन्त में प्रमोघवर्ष की सहायता से वर्कराज ने उस पर फिर से अधिकार कालिया हो । परन्तु उक्त संवत् केलेख की पांचवीं, छठी, और सातवीं पंकियों से दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय का उस समय विद्यमान होना पाया जाता है
(२) इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भाग १४, पृ० १६६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
जाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट
५ अकालवर्ष यह ध्रुवराज का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसकी दो उपाधियां शुभतुङ्ग, और सुभटतुङ्ग मिलती हैं. । इसके, और दक्षिण के राष्ट्रकूटों के बीच भी मनोमालिन्य रहा था। इसके तीन पुत्र थे:-ध्रुवराज, दन्तिवर्मा, और गोविन्दराज ।
६ ध्रुवराज द्वितीय यह अकालवर्ष का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसका, श. सं. ७८९ (वि. सं. १२४ ई. स. ८६७) का, एक ताम्रपत्रं मिला है। उसके 'दूतक' का नाम गोविन्दराज है । यह गोविन्द शुभतुङ्ग ( अकालवर्ष ) का पुत्र, और ध्रवराज द्वितीय का छोटा भाई था। ध्रवराज ने एक साथ चढायी करके आनेवाले गुर्जराजै, वल्लभ, और मिहिर को हराया था। यह मिहिर शायद कन्नौज का पड़िहार राजा भोजदेव ही होगा; जिसकी उपाधि मिहर थी । वल्लभ के साथ के युद्ध के उल्लेख से अनुमान होता है कि, शायद इसने मान्यखेट के राष्ट्रकूट-राजाओं की अधीनता से निकलने की कोशिशें की होगी।
ध्रुवराज ने ढोडि नामक ब्राह्मण को वेन्ना नाम का एक प्रान्त दान में दिया था। इसकी आय से उसने एक सत्र खोला था; जहां पर सदा ( सुभिक्ष और दुर्भिक्ष में ) हज़ारों ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता था। इस (ध्रुवराज ) का छोटाभाई गोविन्द भी, इसकी तरफ़ से, शत्रुओं से युद्ध किया करता था ।
(१) बेगुना से मिले, श०सं. ७८९ के, ताम्रपत्र में लिखा है कि, यद्यपि इसके दुष्ट सेवक
इससे बदल गये थे, तथापि इसने बल्लभ (अमोघवर्ष प्रथम ) की सेना से अपना
पतृकराज्य छीनलिया । (इण्डियन ऐपिटक्केरी, भाग १२, पृ० १८१) (२) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १२, पृ० १८१ (३) उस समय गुजरात का राजा चावड़ा क्षेमराज होगा (४) ऊपर उल्लेख किये, श. सं. ७८६ के, ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात होता है कि, जिस
समय शत्रुमों ने इस पर चढ़ाई की थी, उस समय इसके बान्धव, और छोटा भाई तक भी इससे बदल गये थे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास ७ दन्तिवर्मा
यह अकालवर्ष का पुत्र, और ध्रुवराज द्वितीय का छोटा भाई था । तथा अपने बड़े भाई ध्रुवराज के मरने पर उसका उत्तराधिकारी हुआ ।
૨૦૪
इसके समय का, श. सं. ७८९ (वि. सं. १२४ = ई. स. ८६७) का, एक ताम्रपत्र मिला है । इस में इसकी उपाधियां - महासामन्ताधिपति, और अपरिमितवर्ष आदि लिखी हैं । इस ताम्रपत्र में लिखा दान एक बौद्ध विहार के लिए दिया गया था ।
ध्रुवराज द्वितीय के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि, शायद इसके और ध्रुवराज के बीच मनोमालिन्य हो गया था । परन्तु दन्तिवर्मा के ताम्रपत्र में इस को अपने बड़े भाई ( ध्रुवराज ) का परमभक्त लिखा है । इसलिए जिस भाई से ध्रुवराज का मनोमालिन्य होना लिखा है वह सम्भवतः कोई दूसरा होगा । ८ कृष्णराज
यह दन्तिवर्मा का पुत्र था, और उसके पीछे राज्य का स्वामी हुआ । इसके समय का, श. सं. ८१० ( वि. सं. १४५ = ई. स. ८८८ ) का, एक ताम्रपत्रे मिला है । यह बहुत ही अशुद्ध है । कृष्णराज की उपाधियाँमहासामन्ताधिपति, अकालवर्ष आदि मिलती हैं।
इस (कृष्णराज ) ने वल्लभराज के सामने ही उज्जैन में अपने शत्रुओं को जीता था ।
कृष्णराज के बाद का इस शाखा का इतिहास नहीं मिलता है ।
मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज द्वितीय के, श. सं. ८३२ (वि. सं. १६७ = स. ११० ) के, ताम्रपत्र को देखने से अनुमान होता है कि, उसने श. सं. ८१० ( वि. सं. १४५ = ई. स. ८८८ ), और श. सं. ८३२ (वि. सं. १६७ = ई. स. ११० ) के बीच, लाट देश के राज्य को अपने राज्य में मिलाकर, गुजरात के राष्ट्रकूट राज्य की समाप्ति करदी थी ।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६, पृ. २८७ ( २ ) इण्डियन ऐक्टिवेरी, मा. १३, १.६६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूटों का वंशवृक्ष
(प्रथम शाखा)
१ कर्कराज प्रथम
२ ध्रुवराज
३ गोविन्दराज
४ कर्कराज द्वितीय
(द्वितीय शाखा)
ध्रुवराज (मान्यखेट का राजा)
१ ईन्द्रराज
२-कर्कराज
३ गोविन्दराज प्रथम
४-ध्रुबराज प्रथम
५-अकालवर्ष
६-ध्रुवराज द्वितीय ७-दन्तिवर्मा
गोविन्दराज द्वितीय
८-कृष्णराज
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास लाट (गुजरात) के राष्ट्रकूटों का नक्शा
सख्या
नाम
परस्पर का सम्बन्ध
ज्ञात समय
(प्रथम शाखा) | कर्कराज प्रथम २ ध्रुवराज
नं. १ का पुत्र ३ गोविन्दराज नं.२ का पुत्र
नागवर्मा ४ कर्कराज द्वितीय महाराजा- नं. ३ का पुत्र श. सं. ६७६ राष्ट्रकूट दन्तिवर्मा धिराज
(दन्तिदुर्ग) द्वितीय,
और राष्ट्रकूट
कृष्णराज प्रथम (द्वितीय शाखा) | इन्द्रराज मान्यखेट के
राष्ट्रकूट गोविराजा गोवि
न्दराज तृतीय न्दराज तृतीयका
| छोटा भाई २ कर्कराज | महासाम- नं. १ का पुत्र श.सं. ७३४, राष्ट्रकूट अमोघ|न्ताधिपति
७३८और ७४६| वर्ष प्रथम ३ । गोविन्दराज , नं.२ का भाई | श सं.७३५, राष्ट्रकूट अमोध
और 9४६ | वर्ष प्रथम | ध्रुवराज प्रथम , नं.२ का पुत्र श.सं. ७५७ राष्ट्रकूट प्रमोघ
वर्ष प्रथम ५ अकालवर्ष नं.४ का पुत्र
राष्ट्रकूट अमोघ
वर्ष प्रथम ६ ध्रुवराज द्वितीय , नं. ५ का पुत्र श.सं.७८६ मिहिर (प्रतिहार
भोज) | दन्तिवर्मा
नं. ६ का भाई| श. सं. ७८६ ८ | कृष्णराज नं. ७ का पुत्र श.सं.८१० राष्ट्रकूट कृष्ण
राज द्वितीय
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौन्दत्ति के रह (राष्ट्रकूट) [वि. सं. १३२ (ई. स. ८७५ ) के निकट से
वि. सं. १२८७ ( ई. स. १२३० ) के निकट तक ] पहले लिखा जाचुका है कि, चालुक्य (सोलंकी) नरेश तैलप द्वितीय ने मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज द्वितीय से राज्य छीन लिया था। इन दोनों राजाओं के लेखों से इस घटना का वि. सं. १०३० (ई. स. १७३) के बाद होना प्रतीत होता है। परन्तु वहीं से मिले अन्य लेखों से ज्ञात होता है कि, मुख्य राष्ट्रकूट राज्य के नष्ट हो जाने पर भी, उसकी शाखाओं से सम्बन्ध रखने वाले, राष्ट्रकूटों की जागीरें बहुत समय बाद तक विद्यमान थीं; और वे चालुक्यों ( सोलंकियों ) के सामन्त बनगये थे।
बम्बई प्रदेश के धारवाड़ प्रान्त में भी राष्ट्रकूटों की ऐसी दो शाखाओं का पता चलता है, जिन्होंने वहाँ पर अधिकार का उपभोग किया था। इनकी जागीर का मुख्य नगर सौन्दत्ति (कुन्तल-बेलगाँव जिले में ) था, और इनके लेखों में इनको रह ही लिखा है।
(पहली शाखा)
१ मेरड इस शाखा का सब से पहला नाम यही मिलता है।
२ पृथ्वीराम यह मेरड़ का पुत्र, और उत्तराधिकारी था। इसका, श. सं, ७९७ (वि. सं. १३२ ई. स. ८७५ ) का एक लेखें मिला है। उसमें इसकी जाति रट्ट लिखी है।
यह राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज का सामन्त, और सौन्दत्ति का शासक था। इसके लेख में दिये संवत् से उस समय राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज द्वितीय का विद्यमान
(1) जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. १६४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
राष्ट्रकूटों का इतिहास
होना सिद्ध होता है । परंतु इस ( पृथ्वीराम ) के पौत्र शान्तिवर्मा का श. सं. १०२ (वि. सं. १०३७ ई. स. १८० ) का लेख मिला है। इससे इस ( पृथ्वीराम ) के, और इसके पौत्र (शान्तिवर्मा ) के समय के बीच १०५ वर्ष का अन्तर आता है । यह कुछ अधिक प्रतीत होता है । इसलिए सम्भव है पृथ्वीराम का यह लेख पीछे से लिखवाया गया हो, और इसी से इसके समय में गड़बड़ हो गयी हो। ऐसी हालत में इसके समय राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज द्वितीय का विद्यमान होना न मानकर कृष्णराज तृतीय का होना मानना ही ठीक मालूम होता है।
पृथ्वीराम जैन मतानुयायी था, और इसे वि. सं. ११७ ( ई. स. १४० ) के करीब महासामन्त की उपाधि मिली थी ।
३ पिट्टुग
यह पृथ्वीराम का पुत्र था, और उसके बाद उसका उत्तराधिकारी हुआ । इसने अजवर्मा को युद्ध में हराया था । इसकी स्त्री का नाम नीजिकब्बे था ।
४ शान्तिवर्मा
यह पिट्टुग का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसका, श. सं. १०२ (वि. सं. २०३७ = ई. स. १८० ) का, एक लेख मिला है। इसमें इसे पश्चिमी चालुक्य ( सोलंकी ) तैलप द्वितीय का सामन्त लिखा है । इसकी स्त्री का नाम चण्डिकब्बे था ।
इसके बाद का इस शाखा का इतिहास नहीं मिलता है ।
( दूसरी शाखा )
१ नन्न
सौन्दत्ति के रट्ठों की दूसरी शाखा के लेखों में सब से पहला नाम यही
मिलता है ।
(१) जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा. १०, १. २०४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
OR
सौन्दत्ति (धारवाड) के रट्ट (राष्ट्रकूट)
२ कार्तवीर्य प्रथम यह नन्न का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसका, श. सं. १०२ ( वि. सं. १०३७ ई. स. १८० ) का, एक लेखं मिला है । यह सोलंकी तैलप द्वितीय का सामन्त, और कूण्डि का शासक था । इस ( कूण्डि-धारवाड़) प्रदेश की सीमा भी इसी ने निर्धारित की थी। सम्भव है इसी ने शान्तिवर्मा से अधिकार छीनकर उस शाखा की समाप्ति करदी हो । इसके दो पुत्र थे:-दायिम, और कन्न ।
३ दायिम (दावरि) यह कार्तवीर्य प्रथम का पुत्र, और उत्तराधिकारी था।
४ कन्न (कन्नकैर) प्रथम यह कार्तवीर्य का पुत्र, और दायिम का छोटा भाई था; तथा अपने बड़े भाई दायिम का उत्तराधिकारी हुआ । इसके दो पुत्र थे:-एरेग, और अङ्क ।
५ एरेग ( एरेयम्मरस) यह कन प्रथम का पुत्र था, और उसके पीछे गद्दी पर बैठा । इसके समय का, श. सं १६२ ( वि. सं. १०१७ ई. स. १०४० ) का, एक लेख मिला है। इसमें इसे चालुक्य ( सोलंकी ) जयसिंह द्वितीय ( जगदेकमल्ल ) का महासामन्त, लट्टलूर का शासक, और "पंच महाशब्दों" से सम्मानित लिखा है। यह संगीत विद्या में निपुण था, और इसको “रट्टनारायण" भी कहते थे । इसकी ध्वजा में सुवर्ण के गरुड़ का निशान होने से यह "सिंगन गरुड़" कहाता था। इसकी सवारी के आगे “निशान" का हाथी रहता था, और दक्षिण के राष्ट्रकूटों की तरह इसके आगे भी "टिविलि" नामका बाजा बजा करता था ।
इसके पुत्र का नाम सेन ( कालसेन ) था।
यह कन प्रथम का पुत्र था, और अपने बड़े भाई एरेग का उत्तराधिकारी
हुधा।
(१) कीलहार्न्स लिस्ट ऑफ साउथ इण्डियन इन्सक्रिपशन्स, पृ. २६, नं. १४१ (२) इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भा. १६, पृ. १६४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
राष्ट्रकूटों का इतिहास इसके समय का, श. सं. १७० (वि. सं. ११०५ ई. स. १०४८) का, एक लेख मिला है । इसमें इसे पश्चिमी चालुक्य ( सोलंकी ) त्रैलोक्यमल्ल ( सोमेश्वर प्रथम ) का महासामन्त लिखा है । शायद इस के समय का, इसी संवत् का, एक टूटा हुआ लेख और भी मिला है।
७ सेन (कालसेन) प्रथम यह एरेग का पुत्र, और अपने चचा अङ्क का उत्तराधिकारी था । इसका विवाह मैललदेवी से हुआ था । इसके दो पुत्र थे:-कन, और कार्तवीर्य ।
८ कन्न ( कन्नकैर द्वितीय) यह सेन ( कालसेन ) प्रथम का पुत्र था, और उसके पीछे गद्दी पर बैठा। इसके समय की दो प्रशस्तियां मिली हैं। उनमें का ताम्रपत्र श. सं. १००४ (वि. सं. ११३६ ई. स. १०८२ ) का है । इसमें रहवंशी कन्न द्वितीय को पश्चिमी चालुक्य (सोलङ्की) राजा विक्रमादित्य छठे का महासामन्त लिखा है। इस से यह भी प्रकट होता है कि, कन ने भोगवती के स्वामी (भीम के पौत्र,
और सिन्दराज के पुत्र ) महामण्डलेश्वर मुञ्ज से कई गाँव ख़रीदे थे। यह मुञ्ज सिन्दवंशी था । इस वंश को नागकुल का भूषण भी लिखा है । ____ इसके समय का लेख श. सं. १००६ ( वि. सं. ११४४ ई. स. १०८७ ) का है। इसमें इस को महामण्डलेश्वर लिखा है ।
६ कार्तवीर्य द्वितीय यह सेन प्रथम का पुत्र, और कन द्वितीय का छोटा भाई था। इसको कट्ट भी कहते थे। इसकी स्त्री का नाम भागलदेवी ( भागलाम्बिका ) था ।
इसके समय के तीन लेख मिले हैं । इनमें का पहला सौन्दत्ति से मिला है । इसमें इसको पश्चिमी चालुक्य (सोलङ्की) सोमेश्वर द्वितीय का महामण्डलेश्वर, और लट्टलूर का शासक लिखा है । (१) जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. १७२ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ. ३०८ (३) जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. २८७ (1) जर्नल बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. २१३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौन्दत्ति ( धारवाड ) के रट्ट (राष्ट्रकूट) १११ दूसरा लेखे श. सं. १००६ ( वि. सं. ११४४ ई. स. १०८७ ) का है । इसमें इसको सोमेश्वर के उत्तराधिकारी विक्रमादित्य छठे का महामण्डलेश्वर लिखा है।
तीसरा लेखे श. सं. १०४५ (वि. सं. ११८० ई. स. ११२३ ) का है । परंतु इस संवत् के पूर्व ही इसका पुत्र सेन द्वितीय राज्य का अधिकारी होचुका था।
कन्न द्वितीय, और कार्तवीर्य द्वितीय के लेखों को देखने से अनुमान होता है कि, ये दोनो भाई एक साथ ही शासन करते थे ।
१० सेन ( कालसेन ) द्वितीय यह कार्तवीर्य द्वितीय का पुत्र, और उत्तराधिकारी था। इसके समय का, श. सं. १०१८ ( वि. सं. ११५३ ई. स. १०६६ ) का, एक लेख मिला है । यह चालुक्य ( सोलंकी ) विक्रमादित्य छठे, और उसके पुत्र जयकर्ण के समय विद्यमान था । जयकर्ण का समय वि. सं. ११५६ ( ई. स. ११०२) से वि. सं. ११७८ ( ई. स. ११२१ ) तक माना जाता है। इसलिए इन्हीं के बीच किसी समय तक सेन द्वितीय भी विद्यमान रहा होगा। इस की स्त्री का नाम लक्ष्मी देवी था। ___इसके पिता के समय का श. सं. १०४५ (वि. सं. ११८० ई. स. ११२३ ) का लेख मिलने से अनुमान होता है कि, ये दोनों पिता, और पुत्र एक साथ ही अधिकार का उपभोग करते थे।
११ कार्तवीर्य (कम) तृतीय यह सेन ( कालसेन ) द्वितीय का पुत्र, और उत्तराधिकारी था। इसकी स्त्री का नाम पमलदेवी था। ___ इसके समय का एक टूटा हुआ लेखें कोन्नूर से मिला है। उस में इसकी उपाधियां महामण्डलेश्वर, और चक्रवर्ती लिखी हैं । इससे अनुमान होता है कि, यद्यपि पहले यह पश्चिमी चालुक्य ( सोलंकी) जगदेकमल द्वितीय, और तैलप
(1) जर्नल बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. १७३ (२) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १४, पृ. १६. (३) जर्नल बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा. १०, पृ. 18४ (४) माकिया लॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग ३, पृ. १०३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
राष्ट्रकूटों का इतिहास
तृतीय का सामन्त रहा था, तथापि वि. सं. १२२२ ( ई. स. ११६५ ) के बाद किसी समय, सोलंकियों और कलचुरियों ( हैहयवंशियों ) की शक्ति के नष्ट हो जाने से, स्वतन्त्र बन बैठा । इसने अपने स्वतंत्र हो जाने पर ही चक्रवर्ती की उपाधि धारण की होगी ।
श. सं. ११०६ ( गत ) (वि. सं. १२४४ ई. स. ११८७ ) के एक लेख से ज्ञात होता है कि, उस समय कुंडि में, सोलंकी सोमेश्वर चतुर्थ के दण्डनायक, भायिदेव का शासन था । इससे अनुमान होता है कि, इन रट्टों को स्वाधीन होने में पूरी सफलता नहीं मिली थी ।
खानपुर ( कोल्हापुर राज्य ) से मिले, श. सं. १०६६ ( वत्तमान) (वि. सं. १२००=ई. स. १९४३ ) के, और श. सं. १०८४ ( गत ) ( वि. सं. १२१९ = ई. स. ११६२ ) के, लेखों में; तथा बेलगांव जिले से मिले, श. सं. १०८६ (वि. सं. १२२१ = ई. स. ११६४ ) के, लेखे में भी इस कार्तवीर्य का उल्लेख है ।
१२ लक्ष्मीदेव प्रथम
यह कार्तवीर्य तृतीय का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसके लक्ष्मण, और लक्ष्मीधर दो नाम और भी मिलते हैं । इसकी स्त्री का नाम चन्द्रिकादेवी ( चन्दलदेवी ) था ।
हण्णिकेरि से, श. सं. ११३० (वि. सं. १२६५ ई. स. १२०१) का, एक लेखेँ मिला है । यह इसी के समय का प्रतीत होता है । यद्यपि इसके 1 बड़े पुत्र कार्तवीर्य चतुर्थ की श. सं. ११२१ से ११४१ तक की, और छोटे पुत्र मल्लिकार्जुन की ११२७ से ११३१ तक की प्रशस्तियों के मिलने से लक्ष्मीदेव प्रथम का श. सं. ११३० में होना साधारणतया असम्भव ही प्रतीत होता है, तथापि कन्न द्वितीय और कार्तवीर्य द्वितीय की तरह इन ( पिता और पुत्रों) का शासन काल भी एक साथ मान लेने से यह गड़बड़ दूर हो जाती
(१) बर्न - देश इन्सक्रिपशन्स, भाग २, पृ. ५४७-५४८ (२) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भाग ४, पृ. ११६ (३) बॉम्बे गैज़ेटियर, भा. १५ खण्ड २, पृ. ५५६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौन्दत्ति (धारवाड) के रट्ट (राष्ट्रकूट ) ११३ है। परन्तु जब तक इस बात का पूरा प्रमाण न मिल जाय तबतक इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । इसके दो पुत्र थे:-कार्तवीर्य, और मल्लिकार्जुन
१३ कार्तवीर्य चतुर्थ यह लक्ष्मीदेव प्रथम का बड़ा पुत्र था, और उसके बाद राज्य का स्वामी हुआ ।
इसके समय के ६ लेख, और एक ताम्रपत्र मिले हैं । इनमें का पहला, श. सं. ११२१ (गत ) (वि. सं. १२५७ ई. स. १२०० ) का, लेख संकेश्वर (बेलगाँव जिले ) से मिला है । दूसरी श. स ११२४ (वि. स. १२५८ ई. स. १२०१ ) का है । तीसरा और चौथर्थी श. सं. ११२६ ( गत) (वि. सं. १२६१ ई. स. १२०४ ) का है । पाँचवां श. सं. ११२७ ( वि. सं. १२६१ ई. स. १२०४ ) का है। उसमें इसको लटनूर का शासक लिखा है, और इसकी राजधानी का नाम वेणुग्राम दिया है । उसीमें इसके छोटे भाई युवराज मल्लिकार्जुन का नाम भी है ।
___ इसके समय का ताम्रपत्रं श. सं. ११३१ (वि. सं. १२६५ ई. स. १२०८) का है । उसमें भी इसके छोटे भाई युवराज मल्लिकार्जुन का नाम है ।
छठा लेख श. सं. ११४१ (वि. सं. १२७५ ई. स. १२१८ ) का है।
इसकी उपाधि महामण्डलेश्वर थी। इसकी दो रानियों में से एक का नाम एचलदेवी, और दूसरी का नाम मादेवी था ।
१४ लक्ष्मीदेव द्वितीय यह कार्तवीर्य चतुर्थ का पुत्र था, और उसके बाद गद्दी पर बैठा । इसके समय का, श. सं. ११५१ (वि. सं. १२०५ ई. स. १२२८) का, एक लेखं मिला है।
(१) कर्नदेश-इन्सक्रिपशन्स, भाग २, पृ. ५६१. (२) ग्रेहम्स-कोल्हापुर, पृ. ४१५, नं. ४ (३) कर्न-देश इन्सक्रिपशन्स, भाग २, पृ. ५७१ (४) कर्न-देश इन्सक्रिपशन्स, भा. २, पृ. ५७६ (५) जर्नल बाँबे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०,पृ. २२० (६) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १६, पृ. २४५ (५) जर्नल बॉब एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ० २४० (८) जर्नल बाँबे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. २६.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
राष्ट्रकूटों का इतिहास इसमें इसकी उपाघि महामण्डलेश्वर लिखी है । इसकी माता का नाम मादेवी था । ___इसके बाद की इस शाखा की किसी प्रशस्ति के न मिलने से अनुमान होता है कि, इसी समय के करीब इनके राज्य की समाप्ति होगयी थी, और वहाँ पर देवगिरि के यादव राजा सिंघण ने अधिकार करलिया था । यद्यपि इस घटना का समय वि. सं. १२८७ ( ई. स. १२३० ) के करीब अनुमान किया जाता है, तथापि इस समय के पहले ही कुंडि के उत्तर, दक्षिण, और पूर्व के प्रदेश लक्ष्मीदेव द्वितीय के हाथ से निकल गये थे। ___हरलहल्लि से मिले, श. सं. ११६० (वि. सं. १२९५ ई. स. १२३८) के, ताम्रपत्र में वीचण का रट्टों को जीतना लिखा है । यह वीचण देवगिरि के यादव राजा सिंघण का सामन्त था ।
सीताबलदी से, श. सं. १००८ (१००६) (वि. सं. ११४४ ई. स. १०८७ ) का, एक ताम्रपत्र मिला है । यह महासामन्त राणक धाडिभण्डक ( धाडिदेव ) का है । यह (धाडिभण्डक ) पश्चिमी चालुक्य ( सोलंकी) विक्रमादित्य छठे ( त्रिभुवनमल्ल ) का सामन्त था । इस ताम्रपत्र में धाडिभण्डक को महाराष्ट्रकूटवंश में उत्पन्न हुआ, और लटलूर से आया हुआ लिखा है । ___ खानपुर ( कोल्हापुर राज्य ) से, श. सं. १०५२ (वि. सं. ११८६ ई. स. ११२१ ) का, एक लेख मिला है । इस में रट्टवंशी महासामन्त अङ्किदेव का उल्लेख है । यह सोलंकी सोमेश्वर तृतीय का सामन्त था । परंतु धाडिभण्डक, और अङ्किदेव का उपर्युक्त रट्ट शाखा से क्या सम्बन्ध था इसका पता नहीं चलता है।
बहुरिबन्द ( जबलपुर ) से मिले लेखें में राष्ट्रकूट महासामन्ताधिपति गोलणदेव का उल्लेख है । यह कलचुरि ( हैहयवंशी ) राजा गयकर्ण का सामन्त था । यह लेख बारहवीं शताब्दी का है । परन्तु इससे गोलणदेव का किस शाखा से सम्बन्ध था यह प्रकट नहीं होता । (१) जर्नल बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भाग १०, पृ. २६०; और कॉनॉलॉजी ऑफ
इण्डिया, पृ. १८२ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ० ३०५ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ. ३०५ (४) मार्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग , पृ. ४.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौन्दत्ति (धारवड ) के रट्ट ( राष्ट्रकूट )
सौन्दत्ति (सुगन्धवर्ती) के रहों का वंशवृक्ष
I
३ दायिम
एरेग ७ सेन प्रथम
८ कन्न द्वितीय
१३ कार्तवीर्य चतुर्थ
१४ लक्ष्मीदेव द्वितीय
( पहली शाखा )
१ मेड
२ पृथ्वीराम
३ पिट्टुग
४ शान्तिवर्मा
( दूसरी शाखा )
१ नन्न
T
२ कार्तवीर्य प्रथम
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४ कन्न प्रथम
६ अङ्क
कार्तवीर्य द्वितीय
१० सेन द्वितीय
११ कार्तवीर्य तृतीय
१२ लक्ष्मीदेव प्रथम
मल्लिकार्जुन
२१५
www.umaragyanbhandar.com
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
नाम
(पहली शाखा)
मेड़ २ | पृथ्वीराम
पिट्टग
४ शान्तिवर्मा
(दूसरी शाखा)
नत्र
२ | कार्तवीर्य
प्रथम
दायिम
D
४ कम प्रथम
५ परेग
पङ्क सेन प्रथम
उपाधि
महासामन्त
"
सौन्दत्ति (सुगन्धवर्ती) के रहों का नक्शा
परस्पर का सम्बन्ध
नं. १ का पुत्र नं. २ का पुत्र नं. ३ का पुत्र
नं. १ का पुत्र
नं. २ का पुत्र नं. ३ का भाई
नं. ४ का पुत्र नं. ५ का भाई नं. ५ का पुत्र
ज्ञात समय
श. सं. ७६७
श. सं. ६०२
श. स. ६०२
श. सं. ६६२
श. सं. ६७०
समकालीन राजा आदि
राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज
प्रजवर्मा
सोलङ्की तैलप द्वितीय, और रट्ट कातवीर्य प्रथम
सोलङ्की तैलप द्वितीय, और रट्ट शान्तिवर्मा,
सोलङ्की जयसिंह द्वितीय (जगदेकमल्ल) सोलङ्की सोमेश्वर प्रथम ( त्रलोक्यमल्ल)
११६
राष्ट्रकूटों का इतिहास
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
IS
कन द्वितीय
कार्तवीर्य द्वितीय
सेन द्वितीय
११ कार्तवीर्य
तृतीय
* १२ | लक्ष्मीदेव
प्रथम
१३ कार्तवीर्य
चतुर्थ
मल्लिकार्जुन
१४ | लक्ष्मीदेव द्वितीय
महामण्डलेश्वर नं. ८ का भाई
99
नं. ७ का पुत्र
युवराज
श. सं. १००४, १००६
श. सं. २००६, १०४५
सोलङ्की विक्रमादित्य षष्ठ, और सोलङ्की
नं. ६ का पुत्र
श. सं. २०१८
जयका
महामण्डलेश्वर, नं. १० का पुत्र श. सं. २०६६, १०८४ (गत), सोलङ्की जगदेकमल्ल द्वितीय, और और चक्रवर्ती
और १०८६
सोलङ्की तलप तृतीय
नं. ११ का पुत्र
श. सं. ११३०
महामण्डलेश्वर नं. १२ का पुत्र श. सं. ११२१ (गत), ११२४,
११२६ (गत), ११२७, ११३१,
और ११४१
नं. १३ का भाई श. सं. ११२७ और ११३१
सोलङ्की सोमेश्वर द्वितीय, विक्रमादित्य षष्ठ, और सिंदवंशी मुख
महामण्डलेश्वर नं. १३ का पुत्र श. सं. ११५१
सोलङ्की सोमेश्वर द्वितीय, मौर सोलकी विक्रमादित्य षष्ठ
सौन्दत्ति ( धारवाड ) के रट्ट (राष्ट्रकूट )
११७
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान ( राजपूताना) के पहले राष्ट्रकूट ।
हस्तिकुंडी (हथूडी) की शाखा। [वि. सं. १५० ( ई. स. ८१३ ) के निकट से
वि. सं. १०५३ ( ई. स. १९६ ) के निकट तक ] कन्नौज के गाहड़वाल राजा जयचंद के वंशजों के राजपूताने में आने से पहले मी हस्तिकुंडी (हथूडी-जोधपुर राज्य ), और धनोप ( शाहपुरा राज्य) में राष्ट्रकूटों के राज्य रहने के प्रमाण मिलते हैं।
बीजापुर से, वि. सं. १०५३ (ई. स. १९७) का, एक लेखं मिला है। ( यह स्थान जोधपुर राज्य के गोडवाड़ परगने में है ।) इसमें हथूडी के राठोड़ों की वंशावली इसप्रकार लिखी है:
१ हरिवर्मा
उक्त लेख में सब से पहला नाम यही है ।
२ विदग्घराज यह हरिवर्मा का पुत्र था, और वि. सं. १७३ (ई. स. ११६ ) में विधमान यो।
(1) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ६२, (हिस्सा 1). " (२) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ६२, (हिस्सा 1) ३१४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान ( राजपूताना ) के पहले राष्ट्रकूट
३ मम्मट यह विदग्धराज का पुत्र था । वि. सं. ११६ ( ई. स. १३१. में का विद्यमान होना पाया जाता है।
व
४ धवल
यह मम्मट का पुत्र था।
इसने मालवे के परमार राजा मुञ्ज के मेवाड़े पर चढाई कर जाट को. नष्ट करने पर मेवाड़ नरेश की सहायता की थी; सांभर के चौहान राजा दुर्लभराज से नाडोल के चौहान राजा महेन्द्र की रक्षा की थी; और अनहिलवाड़े ( गुजरात ) के सोलकी राजा मूलराज द्वारा नष्ट होते हुए धरणीवराह को आश्रय दिया था। यह धरणीवराह शायद .मारवाड़ का पड़िहार (प्रतिहार ) राजा था । वि. सं. १०५३ ( ई. स. १९७) का उपर्युक्त लेख इसी धवल के समय का है।
इस ( धवल ) ने, अपनी वृद्धावस्था के कारण, उक्त संवत् के आसपास राज्य का भार अपने पुत्र बालप्रसाद को सौंप दिया था । इसकी राजधानी हस्तिकुंडी ( हथूडी ) थी।
इसके बाद की इस वंश की कोई प्रशस्ति न मिलने से इस शाखा का अगला हाल नहीं मिलता है ।
(1) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ६२, ( हिस्सा १)पृ. ३१४ (२) सम्भवतः इस धवल की या इसके पिता की बहन महालक्ष्मी का विवाह मेवाड़ नरेश
भर्तृभट्ट द्वितीय से हुआ था । मेवाड़ नरेश अल्लट उसीका पुत्र था । (३) धवल ने अपने दादा विदग्धराज के बनवाये जैनमन्दिर का जीर्णोद्धार कर उसमें
ऋषभनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
संख्या
राष्ट्रकूटों का इतिहास
हस्तिकुंडी (हथंडी ) के पहले राठोड़ों का वंशवृक्ष ।
नाम
१ | हरिवर्मा
२ विदग्धराज
३ मम्मट
४ धवल
१ हरिवर्मा 1
२ विदग्धराज
५ बालप्रसाद
हस्तिकुंडी (हथंडी ) के पहले राठोड़ों का नक्शा ।
बालप्रसाद
I
३ मम्मट
४ धवल
परस्पर का सम्बन्ध
नं. १ का पुत्र वि. सं. ६७३
नं. २ का पुत्र
वि. सं. ६६६
नं. ३ का पुत्र वि. सं. १०५३
नं. ४ का पुत्र
ज्ञात समय
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
समकालीन राजा आदि
परमार मुज, चौहान दुर्लभराज चौहान महेन्द्र, सोलङ्की मूलराज, और प्रतिहार घर बी
वराह ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
धनोप ( राजपूताने) के पहले राष्ट्रकूट ।
कुछ समय पूर्व धनोप ( शाहपुरा राज्य ) से राठोड़ों के दो शिलालेख मिले थे । परन्तु इस समय उनका कुछ भी पता नहीं चलता है ।
इन में का एक वि. सं. १०६३ की पौष शुक्ला पञ्चमी का था । उसमें लिखा था कि, राठोड़ वंश में राजा भल्लील हुआ । उसके पुत्र का नाम दन्तिवर्मा था । इस दन्तिवर्मा के दो पुत्र थे :- बुद्धराज, और गोविन्दराज ।
१२१
निलगुड ( बंबईप्रान्त ) से मिले, अमोघवर्ष प्रथम के, लेख में लिखा है कि, उसके पिता गोविन्दराज तृतीय ने केरल, मालव, गौड, गुर्जर, चित्रकूट (चित्तौड़), और काञ्ची के राजाओं को जीता था। इससे अनुमान होता है कि, ये हस्तिकुंडी ( हयूंडी ), और धनोप के राठोड़ भी दक्षिण के राष्ट्रकूटों की ही शाखा के होंगे, और अमोघवर्ष की इस विजय यात्रा के समय इन प्रदेशों के स्वामी बन बैठे होंगे ।
धनोप के पहले राठोड़ों का वंशवृक्ष
भल्लील
दन्तिवर्मा I
बुद्धराज
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
गोविन्दराज
www.umaragyanbhandar.com
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
कन्नौज के गाहड़वाल
[वि. सं. ११२५ ( ई. स. १०६८ ) के निकट से वि. सं. १२८० ( ई. स. १२२३ ) के निकट तक ]
कर्नल जेम्स टॉड ने अपने राजस्थान के इतिहास में लिखा है' कि, वि. सं. ५२६ ( ई. स. ४७० ) में राठोड़ नयनपाल ने अजयपाल को मारकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया था । परन्तु यह बात ठीक प्रतीत नहीं होती; क्योंकि यद्यपि कन्नौज पर पहले भी राष्ट्रकूटों का अधिकार रह चुका था, तथापि उस समय वहां पर स्कन्दगुप्त या उसके पुत्र कुमारगुप्त का अधिकार थी । इसके बाद वहां पर मौखरियों का अधिकार हुआ । बीच में कुछ समय के लिए वैस वंशियों ने भी उसपर अधिकार करलिया र्थों । परन्तु हर्ष की मृत्यु के बाद मौरियों ने एकबार फिर उसे अपनी राजधानी बनाया । वि. सं. ७१८ ( ई. स. ७४१ ) के करीब जिस समय काश्मीर नरेश ललितादित्य ( मुक्तापीड़ ) . ने कन्नौज पर आक्रमण किया था, उस समय भी वह मौखरी यशोवर्मा की ही राजधानी था ।
1
प्रतिहार राजा त्रिलोचनपाल के, वि. सं. १०८४ ( ई. स. १०२७ ) के, ताम्रपत्रसे, और यशः पाल के, वि. सं. १०९३ ( ई. स. १०३६) के, शिलालेख से ज्ञात होता है कि, उस समय कन्नौज पर प्रतिहारों का अधिकार
(1) ऐनाल्स ऐण्ड ऐक्टिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान ( कुक संपादित ), भा० २, पृष्ठ १३० (२) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग २, पृ० २८५-२४७
(३) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग २, पृ० ३७३
(४) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग २, पृ० ३३८ (५) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग २, पृ० ३७६ (६) इण्डिन ऐण्टिक्केरी, भाग १८, पृ० ३४ (७) एशियाटिक रिसर्चेन, भाग ६, पृ० ४३२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
कनौज के गाहड़वाल
१२३ था । इसके बाद राष्ट्रकूट चन्द्रदेव ने, जिसके वंशज गाधिपुर ( कन्नौज ) के स्वामी होने से बाद में गाहड़वाल के नाम से प्रसिद्ध हुए, वि. सं. ११११ ( ई. स. १०५४ ) में बदायूं पर अविकार कर, अन्त में कन्नौज पर भी अधिकार करलियो । ____इन गाहड़वालों के करीब ७० ताम्रपत्र और लेख मिले हैं । इन में इनको सूर्यवंशी लिखा है । “गाहड़वाल" वंश का उल्लेख केवल गोविन्दचन्द्र के, युवराज अवस्था के, वि. सं. ११६१, ११६२ और ११६६ के, तीन ताम्रपत्रों में, और उसकी रानी कुमारदेवी के लेख में मिलता है । यद्यपि इनके ताम्रपत्रों में राष्ट्रकूट या रट्ट शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, तथापि ये लोग राष्ट्रकूटों की ही एक शाखा के थे । इस विषय पर पहले, स्वतन्त्र रूप से, विचार किया जा चुका है। ___ काशी, अवध, और शायद इन्द्रप्रस्थ ( देहली ) परभी इनका अधिकार रहा था।
१ यशोविग्रह यह सूर्य-वंश में उत्पन्न हुआ था । इस वंश का सब से पहला नाम यही मिलता है।
(१) जर्नल रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन ऐण्ड भायलैंण्ड, जनवरी
सन् १९३०, पृष्ठ ११५-११९ (२) दक्षिण के राष्ट्रकूट धुवराज का राज्य, वि० सं० ८४२ मौर ८५० के बीच, उत्तर
में अयोध्या तक पहुंच गया था। इसके बाद कृष्णराज द्वितीय के समय, वि० सं०६३२ और १७१ के बीच, उसकी सीमा बढ़कर गङ्गा के तट तक फैल गयी थी; और कृष्णराज तृतीय के समय, वि. सं. १६. और १०२३ के बीच, उसने गङ्गा को पार कर लिया था। सम्भव है इसी समय के बीच उनके किसी वंशज को या कन्नौज के पुराने राजघराने के किसी पुरुष को वहां पर जागीर मिली
हो, और उसी के वंश में कन्नौज विजेता चन्द्रदेव उत्पन्न हुभा हो । (३) जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी, जनवरी १९३०, पृ० १११-१२१ (४) वी. ए. स्मिथ की भी हिस्ट्री मॉफ इण्डिया, पृ. ३८४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
२ महीचन्द्र
यह यशोविग्रह का पुत्र था । इस को महियल, महिल, या महीतल भी
कहते थे ।
१२४
यह महीचन्द्र का पुत्र था
।
इसके, वि. सं. ११४८
स० १०९३ ), और वि. सं. चन्द्रावती से मिले हैं ।
३ चन्द्रदेव
( ई. स. १०६१ ), वि. सं. ११५० ( ई. ११५६ ( ई. स. ११०० ) के, तीन ताम्रपत्रे
इसके वंशजों के ताम्रपत्रों से प्रकट होता है कि, इसने मालवे के परमार नरेश भोजै, और चेदिके कलचुरि ( हैहयवंशी ) नरेश कर्ण के मरने पर उत्पन्न हुई अराजकता को दबाकर कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया था । इसके पहले ताम्रपत्र से अनुमान होता है कि, इसने वि. सं. ११११ ( ई. स. १०५४ ) के करीब बदायूं पर अधिकार कर कुछ काल बाद प्रतिहारों से कन्नौज भी छीन लिया था ।
( १ ) वि० सं० ११५० के ताम्रपत्र में कन्नौज के प्रतिहार राजा देवपाल का भी उल्लेख है:- "श्रीदेवपालनृपतिस्त्रिजगत्प्रगीतः " । देवपाल का, वि० सं० १००५ ( ई० स. ९४८ ) का, एक लेख मिला है। (एपिग्राफिया इण्डिका, भा० १, पृ. १७७) ( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भ:०६, पृ० ३०२; और भा० १४, पृ० १४२-२०४ (३) "याते श्रीभोजभूपे विधु (बु) धवरवधूनेत्रसीमातिथित्वं श्रीकणे कीर्तिशेषं गतवति च नृपे दमात्यये जायमाने ।
भर्तारं यं व (ध) रित्री त्रिदिवविभुनिभं प्रीतियोगादुपेता त्राता विश्वासपूर्वं समभवदिह स क्ष्मापतिश्चन्द्रदेवः ॥ ३ ॥"
अर्थात् पृथ्वी स्वयं, भोज और कर्ण के मरने पर उत्पन्न हुई गड़बड़ से दुःखित होकर, चन्द्रदेव की शरण में गयी ।
कुछ ऐतिहासिक यहां पर भोज से प्रतिहार भोज का तात्पर्य लेते हैं ।
(४) भारत के प्राचीन राजवंश, भा० १, पृ० ५०
(५) कुछ लोग वि० सं० ११३५ ( ई० स० १०७८ ) के करीब चन्द्र का कन्नौज अनुमान करते हैं ।
लेना
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
कनौज के गाहड़वाल
१२५
इस ने सुवर्ण के अनेक तुलादान भी किये थे । काशी, कुशिक (कन्नौज), उत्तर कोशल (अवध), और इन्द्रप्रस्थ ( देहली ) पर इसका अधिकार था । इसी ने काशी में आदिकेशव नाम के विष्णुका मन्दिर बनवाया था ।
1
इसके पुत्र मदनपाल का, वि. सं. ११५४ ( ई. स. १०६७) का, एक ताम्रपत्र मिला है । इसमें चन्द्रदेव के दिये दान का उल्लेख है । इस से ज्ञात होता है कि, यद्यपि चन्द्रदेव उस समय विद्यमान था, तथापि उसने, अपने जीजी, अपने पुत्र मदनपाल को राज्य का अधिकार सौंप दिया था ।
चन्द्रदेव की निम्नलिखित उपाधियां मिली हैं:
परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर । इसका दूसरा नाम चन्द्रादित्य था ।
इसके दो पुत्र थे :- मदनपाल, और विग्रहपाल । शायद इसी विग्रहपाल से बदायूं की शाखा चली होगी ।
४ मदनपाल
यह चन्द्रदेव का बड़ा पुत्र था, और उसके बाद गद्दी पर बैठा । इसके समय के पाँच ताम्रपत्र मिले हैं ।
इनमें का पहला ताम्रपत्र पूर्वोक्त वि. सं. ११५४ ( ई. स. १०१७ ) को है ।
दूसरों वि. सं. ११६१ ( ई. स. ११०४ ) का इसके पुत्र ( महाराजपुत्र ) गोविन्दचन्द्र का है । इस में " तुरुष्कदण्ड" सहित बसाही नामक गांव के दान का उल्लेख है । इससे ज्ञात होता है कि, जिसप्रकार मुसलमान शासकों ने अपने राज्य में रहनेवाले हिन्दुओं पर " जजिया" नामक 'कर' लगाया था, उसी प्रकार मदनपाल ने भी अपने राज्य के मुसलमानों पर “ तुरुष्कदण्ड" नामका 'कर' लगाया था । इसी ताम्रपत्र में पहले पहल इन राजाओं को गाहड़वाल वंशी लिखा है ।
( १ ) इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भा० १८, पृ० ११ ( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० - ( ३ ) इण्डियन ऐण्टिक्रेरी, भा०
१८, पृ० ११ १४, पृ० १०३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
तीसरा, वि. सं. ११६२ ( ई. स. १९०५) का, ताम्रपत्र मी " महाराज - पुत्र” गोविन्दचन्द्र को है । इस में मदनपाल की पटरानी का नाम राहलेदेवी लिखा है । गोविन्दचन्द्र का जन्म इसी के उदर से हुआ था । ( इस में मी गाहड़वाल वंश का उल्लेख है | )
१२६
चौथौ वि. सं. १९६३ ( वास्तव में वि. सं. ११६४ ) ( ई. स. ११०७ ) का ताम्रपत्र स्वयं मदनपालदेव का है। इस में इस की रानी का नाम पृथ्वीश्री - का. लिखा है ।
पाँचवाँ वि. सं. ११६६ ( ई. सं. ११०६ ) का है । यह भी "महाराजपुत्र" गोविन्दचन्द्रदेव का है, और इस में भी गाहड़वालवंश का उल्लेख किया गया है ।
इस राजा का दूसरा नाम मनदेव था । इसकी आगे लिखी उपाधियाँ मिलती हैं :- परमभट्टारक, परमेश्वर, परममाहेश्वर, और माहाराजाधिराज ।
मदनपाल ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की थी।
उपर्युक्त ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि, इस ने भी वृद्धावस्था आने पर अपने पुत्र गोविन्दचन्द्रदेव को राज्य का कार्य सौंपदिया था ।
मदनपाल के चांदी के सिके ।
"6
इन पर सीधी तरफ़ घुड़सवार का चित्र, और अस्पष्ट अक्षर बने होते हैं । उलटी तरफ बैल की आकृति, और किनारे पर माधव श्रीसामन्त " लिखा रहता है ।
इन सिक्कों का व्यास ( Diameter ) आधे इच से कुछ छोटा होता है, और इनकी चाँदी अशुद्ध होती है ।
( १ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग २, पृ० ३५६
( २ ) इराको राहणदेवी भी कहते थे ।
( ३ ) जर्नल रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, ( १८६६ ), पृ० ७८७
(४) इण्डियन ऐटिकेरी, भाग १८, पृ० १५
(५) कैटलॉग ऑफ दि कौइन्स इन दि इण्डियन म्यूजियम, कलकत्ता, भा. १, १/२६०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
कनौज के गाहड़वाल
मदनपाल के तांबे के सिके ।
इन पर सीधी तरफ़ घुड़सवार की भद्दी तसवीर बनी होती है, और किनारे
पर “ मदनपालदेव " लिखा रहता है । उलटी तरफ़ चाँदी के सिक्कों की तरह
66
का बैल और " माधव श्रीसामन्त " लिखा रहता है ।
इनका व्यास आधे इञ्च से कुछ बड़ा होता है ।
૧૦
५ - गोविन्दचन्द्र
यह मदनपाल का बड़ा पुत्र था, और उसके पीछे उसका उत्तराधिकारी हुआ । इसके समय के ४२ ताम्रपत्र, और २ लेख मिले हैं ।
इनमेंका पहला ताम्रपत्र वि. सं. ११६१ ( ई. स. ११०४ ) का, दूसरा वि. सं. ११६२ ( ई. स. १९०५ ) का, और तीसरा वि. सं. १९६६ ( ई. स. ११०९ ) का है । इन तीनों का उल्लेख इसके पिता मदनपालदेव के इतिहास में किया जा चुका है । उस समय तक यह युवराज ही था । इसलिए इसका राज्य वि. सं. ११६७ ( ई. स. १११० ) से प्रारम्भ हुआ होगा ।
चौथा, पांचवा, और छठा ताम्रपत्र वि. सं. १९७१ ( ई. स. १११४ ) का है । इन में से चौथे का एक पत्र ही मिला है। सातवीं वि. सं. १९७२ ( ई. स. १११६ ) का, और आठवाँ वि. सं. १९७४ ( ई. स. १११७ ) का है । यह देवस्थान से दिया गया था । इस में इसकी हस्ति - सेना का उल्लेख
(१.) कैटलॉग ऑफ दि कौइन्स इन दि इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता, भाग १, पृ. २६०, प्लेट २६ नं० १७
( २ ) इस से ज्ञात होता है कि, गोविन्दचंद्र ने गौड़ों को हराया था। इसकी वीरता से हम्मीर ( अमीर - मुसलमान ) भी घबराते थे ।
(३) लिस्ट ऑफदि इन्सक्रिपशन्स ऑॉफ नॉर्दन इण्डिया, नं० ६१२; ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ४, पृ. १०२; और भाग ८, पृ. १५३ । इनमें का दूसरा वाराणसी (बनारस) से दिया गया था ।
( ४ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. १०४ ( ५ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. १०५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
राष्ट्रकूटों का इतिहास है। नवाँ वि. सं. ११७४ ( वास्तव में ११७५ ) (ई. स. १११६ ) का; दसैवां वि. सं. ११७५ ( ई. स. १११६ ) का; और ग्यारहवां, बारहवां, और तेरहवां वि. सं. ११७६ ( ई. स. १११६ ) का है । ये क्रमशः गङ्गा तट पर के खयरा, ममदलिया, और बनारस से दिये गये थे। ____ ग्यारहवें ताम्रपत्र में इसकी पटरानी का नाम नयनकेलिदेवी लिखा है । चौदहवां, और पंद्रहवां वि. सं. ११७७ (ई. स. ११२० ) का है । सोलहवाँ वि. सं. ११७८ ( ई. स. ११२२ ) का, और सत्रहवाँ वि. सं ११८० ( ई. स. ११२३ ) का है । इसमें इसकी अन्य उपाधियों के साथ ही अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपति, विविधविद्याविचारवाचस्पति आदि विरुद भी लिखे हैं । अठारहवाँ वि. सं. ११८१ (ई. स. ११२४ ) का है । इसमें इसकी माता का नाम रालणदेवी लिखा है । उन्नीसवाँ वि. सं. ११८२ ( ई. स. ११२५ ) का है । यह गङ्गा तट पर के मदप्रतीहार स्थान से दिया गया था । बीसवाँ भी वि. सं. ११८२ (वास्तव में ११८३ ) ( ई.स. ११२७ ) का है । यह गङ्गा तट पर के ईशप्रतिष्ठान से दिया गया था । इक्कीसवां वि. सं. ११८३ (ई. स.
(१) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १८, पृ. १९ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा• ४, पृ. १०६ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. १०८, भा. १८, पृ. २२०; और भा. ४,
पृ. १० (४) अर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ३१, पृ. १२३; और ऐपिग्राफिया
इण्डिका, भा. १८, पृ. २२५ (१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, माग ४, पृ. ११० (4) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ५६, पृ. १.८ । डाक्टर भण्डारकर
इसको वि. सं. ११८७ का मानते हैं। (.) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ५६, पृ. ११४ (८) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. १.. (1) अर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग २७, पृ. २४२ (१०) जर्नल विहार ऐगड मोडीसा रिसर्च सोसाइटी, भा. २, पृ. ४४५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नौज के गाहड़वाल
१२६
११२३ ) का, और बाईसवाँ वि. सं. १९८४ ( ई. स. ११२७ ) का है । तेईसवाँ वि. सं. ११८५ ( ई. स. ११२९ ) का है। चौबीसवाँ और पच्चीसवाँ वि. सं. १९८६ ( ई. स. ११३० ) कौ है । छब्बीसवाँ वि. सं. ११८७ ( ई. स. ११३० ) का है; सत्ताईसवाँ वि. सं. १९८८ ( ई. स. ११३१ ) का है; अठ्ठाईसवाँ वि. सं. १९८६ ( ई. स. ११३३ ) का है; उन्तीसवाँ और तीसवाँ वि. सं. ११९० ( ई. स. ११३३ ) का है; और इकत्तीसवाँ वि. सं. ११९१ ( ई. स. ११३४ ) का है । यह ( पिछला ) ताम्रपत्र सिंगर वंशी " माहाराजपुत्र” वत्सराजदेव का है; जिसको लोहडदेव भी कहते थे, और जो गोविन्दचन्द्र का
सामन्त था ।
बेत्तीसवाँ वि. सं. ११९६ ( ई. स. ११३९ ) का ; तेतीसंवाँ वि. सं. ११९७ ( ई. स. ११४१ ) का; और चौतीसवाँ वि. सं. १९९८ ( ई. स. ११४१ ) का है । इस ( चौतीसवें ताम्रपत्र ) में लिखा दान इस ( गोविन्दचन्द्र ) की बड़ी रानी राहुलणदेवी की प्रथम संवत्सरी पर दिया गया था । पैंतीसवाँ वि. सं. ११९९ ( ई. स. ११४३ ) का है । इस में गोविन्दचन्द्र के पुत्र ( महाराजपुत्र ) राज्यपालदेव का उल्लेख है । छत्तीसवाँ वि. सं. १२०० ( ई.
( १ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४ पृ.१११
२) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ५६, पृ. ११६
(३) लखनऊ म्यूज़ियम रिपोर्ट, सन् १९१४ - १५, पृ. ४-१०; ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. १३, पृ. २६७; और भा. ११, पृ. २२
( ४ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ८, पृ. १५३
( ५ ) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १६, पृ. २४९
( ६ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ५, पृ. ११४ (७) ऐपिया किया इण्डिका, भाग ८, पृ. १५५; और भाग ४,
पु.
( ८ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ १३१ ( 8 ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग २, पृ. ३६१ (१०) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. ११४ (११) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. ११३ (१२) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग १८, पृ. २१
(१३) यह नयनकेलिदेवी का पुत्र था, और सम्भवतः अपने पिता के जीतेजी हो
मरगया होगा ।
(१४) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. ११५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
११२
www.umaragyanbhandar.com
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
राष्ट्रकूटों का इतिहास स. ११४४ ) का है; सैंतीसवाँ वि. सं. १२०१ ( ई. स. ११४६ ) का है; अडतीसवाँ वि. सं. १२०२ ( ई. स. ११४६ ) का है; उंचालीसवां वि. सं. १२०३ ( ई. स. ११४६ ) का है; और चालीसवां वि. सं. १२०७ ( ई. स. ११५० ) का है। ___ इसके समय का पहला लेखे ( स्तम्भलेख ) वि. सं. १२०७ (ई. स. ११५१ ) का है । यह हाथियदह से मिला है । इसमें इसकी रानी का नाम गोसल्लदेवी लिखा है।
इसके समय का इकतालीसवाँ ताम्रपत्र वि. सं. १२०० (ई. स. ११५१) का है । इसमें इसकी पटरानी गोसल्लदेवी के दिये दान का उल्लेख है । इससे यह भी प्रकट होता है कि, इस रानी को राज्य में हर तरह का मान प्राप्त था। बयालीसवाँ ताम्रपत्र वि. सं. १२११ ( ई. स. ११५४ ) का है।
इस प्रकार इसकी वि. सं. ११६१ (ई. सं. ११०४ ) से वि. सं. १२११ (ई. स. ११५४ ) तक की प्रशस्तियां मिली हैं। ___ गोविन्दचन्द्र की रानी कुमारदेवी का एक लेख सारनाथ से मिला है। यह कुमारदेवी पीठिका के छिकोरवंशी राजा देवरक्षित की कन्या थी, और इसने एक मन्दिर बनवा कर धर्मचक्रजिन को समर्पण किया था।
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ५, पृ. ११५ (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ७, पृ. ६ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ८, पृ. १५७ (४) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ८, पृ. १५६ (५) भाकिया लॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, भाग १, पृ. ६ (६) कोलहार्स लिस्ट ऑफ इन्सक्रिप्शन्स ऑफ नॉर्दर्न इगिडया, पृ. १९, नं. १३.;
और ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ५, पृ. ११७ (0) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ. ११६ (८) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग १, पृ. ३१०-३२८ (1) बह कुमारदेवी बौद्धमत को माननेवाली थी । नेपाल राज्य के पुस्तकालय में सुरक्षित
'प्रष्टसारिका ' नाम की हस्तलिखित पुस्तक में लिखा है:" श्रीमद्गोविन्दचन्द्रदेवप्रतापवशतः राज्ञी श्री प्रवरमहायानयायिन्याः
परमोपासिकाराशीवसन्तदेव्याः देयधर्मोयम् । " इस से ज्ञात होता है कि, गोविन्दचन्द्र की एक रानी का नाम वसन्तदेवी था, और
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३१
कन्नौज के गाहड़वाल गोविन्दचन्द्र के दानपत्रों की संख्या को देखने से अनुमान होता है कि, यह बड़ा प्रतापी और दानी राजा था । सम्भवतः कुछ समय के लिए यह उत्तरी हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा राजा होगया था, और बनारस पर भी इसी का अधिकार था ।
काश्मीर नरेश जयसिंह के मन्त्री अलङ्कार ने जिस समय एक बड़ी सभा की थी, उस समय इसने सुहल को अपना राजदूत बनाकर भेजा था ।
मङ्घकवि कृत 'श्रीकण्ठचरित' काव्य में इसका उल्लेख है:
"अन्यः स सुहलस्तेन ततोऽवन्द्यत पण्डितः । दूतो गोविन्दयन्द्रस्य कान्यकुब्जस्य भूभुजः ॥ १०२॥"
(श्रीकराठचरित, सर्ग २५) अर्थात् उसने, कान्यकुब्ज नरेश गोविन्दचन्द्र के दूत, पण्डित सुहल को नमस्कार किया। ____ यह गोविन्दचन्द्र भारत पर आक्रमण करनेवाले म्लेच्छों (तुर्को ) से लड़ा था, और इसने चेदि और गौड़देश पर भी विजय प्राप्त की थी। इसके नामके साथ लगी "विविधविद्याविचारवाचस्पति" उपाधि से ज्ञात होता है कि, यह विद्वानों का आश्रयदाता होने के साथ ही स्वयं भी विद्वान् था ।
इसी (गोविन्दचन्द्र ) की आज्ञा से इसके सान्धिविग्रहिक ( minister of peace and war ) लक्ष्मीधर ने 'व्यवहारकल्पतरु' नामक ग्रन्थ बनाया था । . इस राजा के तीन पुत्रों के नाम मिलते हैं:-विजयचन्द्र, राज्यपाल, और आस्फोटचन्द्र ।
वह भी बौद्धमत की महायान शाखा की अनुयायिनी थी। कुछ लोग कुमारदेवी का ही दूसरा नाम वसन्तदेवी अनुमान करते हैं । सन्ध्याकरनन्दी रचित 'रामचरित' में कुमारदेवी के नाना महण (मयन) को राष्ट्रकूटवंशी लिखा है । ( उपर्युक्त लेख में भी
गाहड़वाल वंश का उल्लेख है । ) (१) बनारस के पास से मिले २१ ताम्रपत्रों में से १४ ताम्रपत्र इसी के थे। (२) ये शायद लाहौर (पंजाब ) की तरफ़ से बढ़ने वाले तुर्क होंगे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
मिस्टर वी. ए. स्मिथ इसका समय ई. स. १९०४ से ११५५ (वि. सं. ११६१ से १२१२ ) तक अनुमान करते हैं । परन्तु इसका पिता मदनपाल वि. सं. ११६६ ( ई. स. १९०६ ) तक जीवित था; इसलिए उस समय तक यह युवराज ही था ।
१३२
I
इसके सोने, और तांबे के सिक्के मिले हैं । यद्यपि सोने के सिक्कों का सुवर्ण बहुत ख़राब है, तथापि ये अधिक संख्या में मिलते हैं । बंगाल नर्थ वेस्टर्न रेलवे बनाते समय, वि.सं. १९४४ ( ई. स. १८८७ ) में, नानपारा गांव ( बहराइच - अवध ) से भी ऐसे ८०० सोने के सिक्के मिले थे ।
गोविन्दचन्द्र के सोने के सिक्के
इन पर सीधी तरफ़ लेख की तीन पंक्तियां होती हैं । उनमें से पहली में “श्रीमद्गो,” दूसरी में "विन्दचन्द्र," और तीसरी में "देव" लिखा रहता है । इसी तीसरी पंक्ति में एक त्रिशूल भी बना होता है । सम्भवतः यह टकसाल का चिह्न होगा । उलटी तरफ़ बैठी हुई लक्ष्मी की ( भद्दी ) मूर्ति बनी होती है । इनका आकार भारत में प्रचलित चांदी की चवन्नी से कुछ बड़ा होता है ।
I
गोविन्दचन्द्र के तांबे के सिक्के
इन पर सीधी तरफ़ लेख की दो पंक्तियां होती हैं । पहली में “श्रीमद्गो," और दूसरी में "विन्दचन्द्र" लिखा रहता है । उलटी तरफ़ बैठी हुई लक्ष्मी की मूर्ति बनी होती है । परन्तु यह बहुत ही भद्दी होती है । ये सिक्के बहुत कम | मिलते हैं । इनका आकार करीब-करीब पूर्वोक्त चवन्नी के बराबर ही होता है ।
(१) अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ( चतुर्थ संस्करण ), पृ० ४००
(२) कैटलॉग ऑफ दि कौइन्स इन दि इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता, भा. १, पृ. २६०-२६१, प्लेट २६, नं०१८
(३) कैटलॉग ऑफ दि कौइन्स इन दि इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता, मा० १, १०२६१
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नौज के गाहड़वाल
६ विजयचन्द्र
यह गोविन्दचन्द्र का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । इसको मल्लदेव भी
कहते थे ।
1
इसके समय के दो ताम्रपत्र, और दो लेख मिले हैं । इनमें का पहला ताम्रपत्र वि. सं. १२२४ ( ई. स. ११६८ ) का है । इसमें इसकी उपाधि माहाराजा - घिराज, और इसके पुत्र जयच्चन्द्र की युवराज लिखी है । इसमें विजयचन्द्र के मुसलमानों पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख भी है। दूसरा ताम्रपत्र वि. सं. १२२५ ( ई. स. ११६९ ) का है । इसमें भी पहले के समान ही इसका, 1 और इसके पुत्र का उल्लेख है ।
इसका पहला लेख वि. सं. १२२५ ( ई. स. ११६९ ) का है । इसमें इसके पुत्र का नाम नहीं है। दूसरी लेख भी वि. सं. १२२५ ( ई. स. ११६९) का ही है । यह महानायक प्रतापधवलदेव का है । इसमें विजयचन्द्र के एक नकली दानपत्र का उल्लेख है ।
यह राजा वैष्णवमतानुयायी था, और इसने विष्णु के अनेक मन्दिर बनवाये थे । इसकी रानी का नाम चन्द्रलेखा था । इस राजा ने अपने जीतेजी ही अपने पुत्र जयचन्द्र को, राज्य का कार्य सौंप, युवराज बनालिया था । इसकी सेना में हाथियों, और घोड़ों की अधिकता थी । जयच्चन्द्र के लेख में विजयचन्द्र का दिग्विजय करना भी लिखा है । परन्तु वि. सं. १२२० के चौहान विग्रहराज चतुर्थ के लेख में उस (विग्रहराज ) की विजय का वर्णन है । इसलिए यदि विजयचन्द्र ने कोई प्रदेश जीता होगा तो इसके पूर्व ही जीता होगा।
(१) रम्भामञ्जरी नाटिका, पृ० ६
( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ० ११८
( ३ )
" भुवनदलन हेला हर्म्यहम्मीरनारीनयन जलदधाराघौतभूतोपताप”
१३३
इससे प्रकट होता है कि, शायद इसने गज़नी के खुसरो से युद्ध किया था; क्योंकि खुसरो उस समय लाहौर में बस गया था ।
( ४ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा० १५, पृ० ७
(५) आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, भा० ११, पृ० १२५ (६) जर्नल अमेरिकन ओरिएण्टल सोसाइटी, भाग ६, पृ०५४८ (७) इन मन्दिरों के भग्नावशेष जौनपुर में अबतक विद्यमान हैं । (८) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग १, पृ० २४४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
राष्ट्रकटों का इतिहास 'पृथ्वीराजरासो' में इसका नाम विजयपाल लिखा है ।
७ जयचन्द्र
यह विजयचन्द्र का पुत्र था, और उसके बाद राज्य का स्वामी सुभा।
जिस दिन यह पैदा हुआ था, उसी दिन इसके दादा गोविन्दचन्द्र ने दशार्ण देश पर विजय पायी थी । इसीसे इसका नाम जैत्रचन्द्र ( जयन्तचन्द्र या जयचन्द्र ) रखा गया था। ___ वि. सं. १२२४ के, पूर्वोल्लिखित, विजयचन्द्र के दानपत्र से प्रकट होता है कि, यह पिता के जीतेजी ही युवराज बनादिया गया था । | नयचन्द्रसूरि कृत 'रम्भामञ्जरी नाटिका' की प्रस्तावना में लिखा है:
"अभिनवरामावतारश्रीमन्मदनवर्ममेदिनीदयितसाम्राज्यलक्ष्मी
करेणुकालानस्तम्भायमानबाहुदण्डस्य" अर्थात्-जिसके बाहुदण्ड मदनवर्मदेव की राज्यलक्ष्मी रूपी हथनी को बांधने के लिए स्तम्भरूप थे।
इससे प्रकट होता है कि, सम्भवतः इसने कालिंजर के चन्देल राजा मदन
(१) “जामो जम्मि दिणम्मि एस सुकिदी चन्दे जुए भाइणा
पतं तम्मि दसगणगेसु पबलं जं खप्पराणं बलम् । मितं मति पियामहेण पहुणा जैतंति नाम तमो
दिन-अस्स स प्रज्ज वेरिदलयो दिवो जयंतप्पह ॥" संस्कृतच्छाया
"जातो यस्मिन्दिने एष सुकृती चन्द्र युते ममिजिता प्राप्तं तस्मिन् दशार्णकेषु प्रबलं यत् सर्पराणां बलम् । जितं झटिति पितामहेन प्रभुणा जैवेति नाम ततः दत्तं यस्य स भद्य वैरिदक्षनः दृष्टः जैत्रप्रभुः ॥
श्रीभरतकुलप्रदीपाय श्रीक्षेत्रचन्द्रनरेश्वराय.."
(एम्भामंजरी नाटिका, पृ. २३-२४)
(१)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५
कनौज के गाहड़वान बर्मदेव को हराकर उसके राज्य पर अधिकार करलिया था। इसी प्रकार इसने भोरों को जीतकर उनसे खोर छीन लिया था । ___ इसके समय के करीब १४ ताम्रपत्र, और दो लेख मिले हैं । इनमें का पहला ताम्रपत्र वि. सं. १२२६ ( ई. स. ११७०) का है । यह बडविह गांव से दिया गया था । इसमें इसके “राज्याभिषेक" का वर्णन है; जो वि. सं. १२२६ की प्राषाढ शुक्ला ६ रविवार ( ई. स. ११७० की २१ जून ) को हुआ था। दूसरा वि. सं. १२२८ ( ई. स. ११७२ ) का है । यह त्रिवेणी के सङ्गम (प्रयाग) पर दिया गया था। तीसरी वि. सं. १२३० (ई. स. ११७३ ) का है । यह वाराणसी (बनारस) से दिया गया था। चौथा वि. सं. १२३१ (ई. स. ११७४ ) का है । यह काशी से दिया गया था। इसमें की पिछली इकत्तीसवीं,
और बत्तीसवीं पंक्तियों से इस ताम्रपत्र का वि. सं. १२३५ (ई. स. ११७६ ) में खोदा जाना प्रकट होता है । ___ पांचवां वि. सं. १२३२ (ई. स. ११७५ ) का है । इसमें महाराजाधिराज जयचन्द्रदेव के पुत्र का नाम हरिश्चन्द्र लिखा है। इसी के "जातकर्म" संस्कार पर, बनारस में, इस ताम्रपत्र में लिखा दान दिया गया था। इसकी पिछली ३१ वी और ३२ वी पंक्तियों से इस दानपत्र का भी वि. सं. १२३५ (ई. स. ११७६ ) में खोदा जाना सिद्ध होता है । छठा ताम्रपत्र भी वि. सं. १२३२ (ई. स. ११७५ ) का ही है । इस में लिखा दान हरिश्चन्द्र के "नामकरण" संस्कार पर दिया गया था।
(१) इस का अन्तिम दानपत्र वि. सं. १२१९ ( ई. स. ११६३ ) का है, और इसके
उत्तराधिकारी परमर्दिदेव का पहला दानपत्र वि. सं. १२२३ ( ई. स. ११६.)का
है। इसलिए यह विजय इसने युवराज अवस्था में ही प्राप्त की होगी। (२) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ४, पृ० १२१ (३) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ४, पृ. १२२ (४) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ० १२४ (१) ऐपियाफिया इगिडका, भाग ४, पृ० १२५ (९) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ४, पृ० १२७ (.) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भाग १८, पृ. १३.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास
सातवां, आठवीं, और नवौं वि. सं. १२३३ ( ई. स. ११७७ ) का है । दसवीं वि. सं. १२३४ ( ई. स. ११७७ ) का है । ग्यारहवीं, बारहवां, और तेरहवाँ वि. सं. १२३६ ( ई. स. ११८० ) का है । ये तीनों गङ्गातट पर के रण्डवै गांव से दिये गये थे । चौदहवीं वि. सं. १२४३ ( ई. स. ११८७ ) का है ।
T
१३६
इसके समय का पहला लेख वि. सं. १२४५ ( ई. स. ११८९ ) का है । यह मेक्रोहड (इलाहबाद के पास ) से मिला है । इसके समय का दूसरा लेखें बुद्धगया से मिला है । यह बौद्ध लेख है, और इसमें भी इस राजा का उल्लेख है । इसमें के संवत् का चौथा अक्षर बिगड़ जाने से पढ़ा नहीं जाता । केवल अगले तीन अक्षर वि. सं. १२४x ही पढ़े जाते हैं ।
यह राजा बड़ा प्रतापी था, और इसकी सेना के बहुत बड़ी होने से ही
लोगों ने इसका नाम “दलपंगुलै” रखदिया था ।
(१) ऐपिया / कया इण्डिका, भाग ४, पृ० १२६ ( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग १८, पृ० १३५
) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग १८, पृ० १३७ ( ४ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग १८, पृ० १३८ ( ५ ) इण्डियन ऐग्रिटक्केरी, भाग १८, पृ० १४० ( ६ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भाग १८, पृ० १४१ (७) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग १८, पृ० १४२ (८) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भाग १५, पृ० १०
( ६ ) ऐन्यूअल रिपोर्ट ऑॉफ दि मार्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, ( ई. स. १६२११८२२ ), पृ० १२०-१२१.
(१०) प्रोसीडिंग्स ऑफ दि बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, (१८८०), पृ० ७७
" मप्र तिमल प्रतापस्य श्रीमन्मल्लदेवतनुजन्मनः सतीमल्लिकाश्रीचन्द्रलेखाकुक्षिशुक्तिमुक्ता मणेः गङ्गायमुनास्रोतस्विनी यष्टिद्वयमन्तरेण रिपुमेदिनी दयितदत्तदैन्यसैन्यसागरवरं प्रचालयितुमत्तमत्वात्पङ्गुरितिप्राप्तगुरु विरुदस्य श्रीमज्जैत्रचन्द्रनरेश्वरस्य " ( रम्भामजरी नाटिका, पृ० ६ )
अर्थात् - सेनाकी विशालता के कारण गंगा और यमुना रूपी दो लकड़ियों की सहायता के बिना उसका परिचालन न हो सकने से 'पंगु' कहाने वाले जैत्रचन्द्र के इसी भवतरण से जयचन्द्र के पिता का दूसरा नाम ( या उपाधि ) मल्लदेव और माता का चन्द्रलेखा होना पाया जाता है !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
.
www.umaragyanbhandar.com
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नौज के गाहड़पाल 'नैषधीयचरित' नामक प्रसिद्ध काव्य का कर्ता कवि श्रीहर्ष इसीकी सभा का पण्डित था । उस काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में कवि ने अपनी माता का नाम मामलदेवी, और पिता का नाम हीर लिखा है:
"श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं ।।
श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् ।" अर्थात्-पिता हीर, और माता मामल्लदेवी से श्रीहर्ष का जन्म हुआ था । 'नैषधीयचरित' के अन्त में लिखा है:____ “ ताम्बूलद्वयमासनं च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरात् ।”
अर्थात्-श्रीहर्ष को कान्यकुब्ज नरेश की सभा में जाने पर बैठने के लिए आसन, और ( आते और जाते समय ) खाने को दो पान मिलते थे।
यद्यपि 'नैषधीयचरित' में जयचन्द्र का नाम नहीं है, तथापि राजशेखरसूरिरचित 'प्रबन्धकोश' से श्रीहर्षका कन्नौज नरेश जयञ्चन्द्र की सभा में होना सिद्ध होता है । ( यह कोश वि. सं. १४०५ में लिखा गया था।)
इसी श्रीहर्ष ने 'खण्डनखण्डखाद्य' भी लिखा था । 'द्विरूपकोश' के अन्त में लिखा है:
" इत्थं श्रीकविराजराजमुकुटालंकारहीरार्पितश्रीहीरात्मभवेन नैषधमहाकाव्ये ज्वलत्कीर्तिना। औद्धत्यप्रतिवादिमस्तकतटीविन्यस्तवामांघ्रिणा
श्रीहर्षेण कृतो द्विरूपविलसत्कोशस्सतां श्रेयसे ॥" इससे प्रकट होता है कि, यह कोश भी इसी (श्रीहर्ष ) ने बनाया था । जयञ्चन्द्र कनौज का अन्तिम प्रतापी हिन्दू राजा था। 'पृथ्वीराजरासो' में लिखा है कि, इसने "राजसूययज्ञ" करने के समय, अपनी कन्या संयोगिता का "स्वयंवर" भी रचा था । यही स्वयंवर हिन्दूसाम्राज्य का नाशक बनगया; क्योंकि पृथ्वीराज ने इसी "स्वयंवर" से इसकी कन्या का हरण किया था, और इसीसे इसके और चौहान नरेश पृथ्वीराज के बीच शत्रुता होगयी थी । उस समय भारतवर्ष में ये ही दोनों राजा प्रतापी, और समृद्धिशाली थे । इसलिए इनकी आपस की फूट के कारण शहाबुद्दीन को भारत पर आक्रमण
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
राष्ट्रकूटों का इतिहास करने का अच्छा अवसर मिलगया । परन्तु 'रासो' की यह सारी कथा कपोलकल्पित, और पीछे से लिखी हुई है; क्योंकि न तो जयचन्द्र की प्रशस्तियों में ही "राजसूययज्ञ" का या संयोगिता के "स्वयंवर" का उल्लेख मिलता है, न चौहान नरेशों से संबन्ध रखनेवाले ग्रन्थों में ही "संयोगिता-हरण" का पता चलता है । इसके अलावा 'पृथ्वीराजरासो' में पृथ्वीराज की मृत्यु से ११० वर्ष बाद मरनेवाले मेवाड़ नरेश महारावल समरसिंह का भी पृथ्वीराज की तरफ से लड़कर माराजाना लिखा है । इस विषय पर इस पुस्तक के परिशिष्ट में पूरी तौर से विचार किया जायगा। ___शहाबुद्दीन गोरी ने हिजरी सन् ५६० (वि. सं. १२५० ई. स. ११९४) में जयचन्द्र को चंदावल ( इटावा जिले में ) के युद्ध में हराया था। इसके बाद उसे ( शहाबुद्दीन को ) बनारस की लूट में इतना द्रव्य हाथ लगा कि, वह उसको १४०० ऊंटो पर लाद कर गजनी ले गर्यो । यद्यपि उसी समय से उत्तरी हिन्दुस्तान पर मुसलमानों का अधिकार हो गया था, तथापि कुछ समय तक कन्नौज पर जयच्चन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र का ही शासन रहा था ।
कहते हैं कि, जयचन्द्र ने इस हार से खिन्न हो गंगा–प्रवेश कर लिया था ।
मुसलमान लेखकों ने जयच्चन्द्र को बनारस का राजा लिखा है । सम्भव है उस समय वही नगर इसकी राजधानी रहा हो।
--
------.....
(१) तबकात-ए-नासिरी पृ० १४०। (२) कामिलुत्तवारीख ( ईलियट का अनुवाद ), भाग २, पृ. २५१ (३) हसन निज़ामी की बनायी 'ताजुल-म-मासिर' में इस घटना का हाल इस प्रकार लिखा
है:-देहली पर अधिकार करने के दूसरे वर्ष कुतुबुद्दीन ऐबक ने कौन के राजा जयचन्द पर चढायी की । मार्ग में सुलतान शहाबुद्दीन भी उसके शामिल हो गया । हमला करने वाली सेना में ५०,००० सवार थे। सुलतान ने कुतुबुद्दीन को फौज के अगले हिस्से में क्खा । जयचन्द ने, प्रागेबढ चन्दावल में, इटावा के पास, इस सेना का सामना किया । युद्ध के समय जयचंद हाथी पर सवार हो अपनी सेना का संचालन काने लगा। परन्तु मम्तमें वह मारा गया। इसके बाद सुलतान की सेना ने माखनी के किले का खजाना लूट लिया, और वहाँ से प्रागे पढ बनारस को भी वही पसा की। इस बूट में ३.. हाथी भी उसके हाथ लगे थे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
कन्नौज के गाहड़वाल जयच्चन्द्र ने अनेक किले बनवाये थे । इन में से एक कन्नौज में गंगा के तटपर; दूसरा असई ( इटावा जिले ) में यमुना के तटपर; और तीसरा कुर्रा ( कडौं ) में गंगा के तटपर था । इटावे में जमना के किनारे के एक टीले पर भी कुछ खंडहर विद्यमान हैं; जिन्हें वहाँ वाले जयच्चन्द्र के किले का भग्नावशेष बतलाते हैं। ___ 'प्रबंधकोश' में लिखा हैं:- राजा जयच्चन्द्र ने ७०० योजन (५६०० मील) पृथ्वी विजय की थी। इसके पुत्र का नाम मेघचन्द्र था । एकवार जिस समय जयचंद्र का मंत्री पद्माकर अणहिलपुर से लौटकर आया, उस समय वह अपने साथ सुहवादेवी नाम की एक सुन्दर विधवा स्त्री को भी ले आया था । जयचन्द्र ने उसकी सुन्दरता पर मोहित होकर उसे अपनी उपपत्नी बनालिया । कुछ कालबाद उसके एक पुत्र हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब उसकी माता (सुहवादेवी ) ने राजा से उसे युवराज पद देने की प्रार्थना की । परंतु राजा के दूसरे मंत्री विद्याधर ने इस में आपत्ति की, और मेघचन्द्र को इस पद का वास्तविक हकदार बताया। इस पर सुहवादेवी रुष्ट हो गयी, और उसने अपना गुप्तदूत भेज तक्षशिला ( पंजाब ) की तरफ़ से सुलतान को चढा लाने की चेष्टा प्रारम्भ की। यद्यपि विद्याधर ने, राज्य के गुप्तचरों द्वारा सारा वृत्तांत जानकर, इसकी सूचना यथासमय जयच्चन्द्र को देदी थी, तथापि इसने उस पर विश्वास नहीं किया । इससे दुःखित हो वह मंत्री गंगा में डूब मरा । इस के बाद जब सुलतान अपने
मौलाना मिनहाजुद्दीन ने 'तबकात-ए-नासिरी' में लिखा है:- हिजरी सन् ५१ • (वि. सं. १२५० ) में दोनों सेनापति कुतुबुद्दीन, भौर ईजुद्दीनहु सेन सुलतान ( शहाबुद्दीन ) के साथ गये, और चंदावल के पास बनारस के राजा जयचन्द को हराया। (.) यह स्थान प्रयाग जिले में गंगा के तट पर है। यहां एक किनारे पर जयचन्द्र के
किले के और दूसरे किनारे पर उसके भ्राता माणिक्यचन्द्र के किले के भग्नावशेष विद्यमान हैं । इस ग्राम के कबरिस्तान को देखने से अनुमान होता है कि, सम्भवतः यहाँ भी कोई युद्ध हुमा था, और उसमें विजयी जयचन्द्र ने मुसलमानों का
भीषण संहार किया था। (२) मेहतुङ्ग की बनायी 'प्रबन्धचिन्तामणि' में भी सुइवादेवी का मुसलमानों को बुलवाना
लिखा है । यह पुस्तक वि० सं० १३६२ ( ई. स. १३०५ ) में लिखी गयी थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
राष्ट्रकूटों का इतिहास दल बल को लेकर निकट आपहुँचा, तब राजा भी लाचार हो युद्ध के लिए आगे बढा । इसके बाद दोनों के निकट पहुँचने पर भीषण युद्ध हुआ । परंतु इस बात का पूरा पता नहीं चला कि, राजा जयच्चन्द्र युद्ध में मारागया या उसने स्वयं ही गंगाप्रवेश करलिया।
हरिश्चन्द्र यह जयच्चन्द्र का पुत्र था । इसका जन्म वि. सं. १२३२ की भाद्रपद कृष्णा ८ ( १० अगस्त सन् ११७५ ) को हुआ था, और यह जयचन्द्र की मृत्यु के बाद, वि. सं. १२५० ( ई. स. ११९३ ) में, करीव १८ वर्ष की अवस्था में, कन्नौज की गद्दी पर बैठा था। ___ लोगों का खयाल है कि, जयचन्द्र के मरते ही कन्नौज पर मुसलमानों का अधिकार होगया था। परन्तु उस समय की 'ताजुल -म- आसिर', और 'तबकात -ए-नासिरी' आदि तवारीखों से ज्ञात होता है कि, चन्दावल के युद्ध के बाद मुसलामनी सेना प्रयाग और बनारस की तरफ़ चलीगयी पी । उन में जयच्चन्द्र को भी बनारस का राय लिखा है । इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि, यद्यपि कनौज मुसलमानों द्वारा लूटलिया गया था, और उसका प्रभाव भी घटगया था, तथापि वहां और उसके आस पास के प्रदेश पर कुछवर्षों तक जयच्चन्द्र के वंशजों का ही अधिकार रहा था । पहले पहल कन्नौज पर अधिकार कर वहां के गाहड़वालों के राज्य को समूल नष्ट करनेवाला शम्सुद्दीन अल्तमश ही था । यद्यपि 'तबकात-ए-नासिरी' में कुतुबुद्दीन और शम्सुद्दीन अल्तमश दोनों ही के विजित प्रदेशों में कन्नौज का नाम लिखा है', तथापि यदि वास्तव में ही कुतुबुद्दीन ने कन्नौज विजय किया होता तो शम्सुद्दीन को फिरसे उसके विजय करने की आवश्यकता न होती।
.._ - --- --.--...-- (१) तबकात-ए- नासिरी, पृ० १७६ (२) इसी अल्तमश के समय बरतू नामक एक क्षत्रिय वीरने, अवध में, मुसलमानों का
बड़ा संहार किया था। तबकात-ए-नासिरी (अंग्रेजी अनुवाद ), पृ०६२८६२६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नौज के गाहड़वाल
१४१
जयञ्चन्द्र के समय के, वि. सं. १२३२ के, पूर्वोक्त दो ताम्रपत्रों में से पहले से ज्ञात होता है कि, उस ( जयचन्द्र ) ने, अपने पुत्र हरिश्चन्द्र के " जातकर्म" संस्कार पर, अपने कुल गुरु को वडेसर नामक गांव दिया था; और दूसरे से प्रकट होता है कि, उस ( जयचन्द्र ) ने, उस ( हरिश्चन्द्र) के जन्म के २१ वें दिन (वि. सं. १२३२ की भ्राद्रपद शुक्ला १३ = ३१ अगस्त सन् ११७५ को) उसके " नामकरण" संस्कार पर, हृषीकेश नामक ब्राह्मण को दो गांव दिये थे ।
हरिश्चन्द्र के समय की दो प्रशस्तियां मिली हैं । इनमें का दानपत्रे वि. सं. १२५३ ( ई. स. ११९६ ) की पौष सुदी १५ को दिया गया था । इसमें इसकी उपाधियां इसके पूर्वजों के समान ही लिखी हैं: - 'परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपति, विविधविद्याविचारवाचस्पति आदि । इससे ज्ञात होता है कि, यह, राज्य का एक बड़ा भाग हाथ से निकल जाने पर भी, बहुत कुछ स्वाधीन राजा था ।
इसके समय का लेख भी वि. सं. १२५३ का ही है । यह बेलखेडा से मिला था । यद्यपि इसमें राजा का नाम नहीं लिखा है, तथापि इसमें "कान्यकुब्जविजयराज्ये” लिखा होने से श्रीयुत आर. डी. बैनरजी आदि विद्वान् इसे हरिश्चन्द्र के सयम का ही अनुमान करते हैं ।
पहले लिखे अनुसार जब शहाबुद्दीन के साथ के युद्ध में जयच्चन्द्र मारा गया, तब उसका पुत्र हरिश्चन्द्र कन्नौज और उसके आस पास के प्रदेशों का
( १ ) इनमें का पहला ताम्रपत्र कमौली गांव ( बनारस जिले ) से मिलाथा ( ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ४, पृ० १२७ ); और दूसरा सिहबर ( बनारस जिले ) से मिलाथा । ( इण्डियन ऐग्रिटक्केरी, भा० १८, पृ० १३० )
२ ) ऐपिग्राफिमा इण्डिका, भाग १०, पृ० १५
इस ताम्रपत्र का संवत् अक्षरों और भको दोनों में लिखा है । परन्तु भों में का इकाही का अङ्क पहले खोदे गये अङ्क को छील कर दुबारा लिखा गया मालूम होता है । श्रीयुत भार० डी० बेनरजी इसे १२५७ पढ़ते हैं । ( जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भा० ७, नं० ११, पृ० ७६२ ) यदि यह ठीक हो तो पमही गांव के देने के ३ वर्ष बाद इस ताम्रपत्र का लिखा जाना सिद्ध होता है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
राष्ट्रकूटों का इतिहास शासक हुआ, और उसके आत्मीय, और बन्धुगण खोरै (शम्साबांद) (फर्रुखाबाद जिले) की तरफ़ चले गये । परन्तु कुछ दिन बाद जब हरिश्चन्द्र के अधिकार में बचे प्रदेश पर भी सुलतान शम्सुद्दीन अल्तमश ने चढाई की, तब उस हरिश्चन्द्र ( बरदायीसेनें ) के पुत्रों ने पहले खोर और फिर महुई में जाकर निवास किया ।
(1) रामपुर के इतिहास से ज्ञात होता है कि, जिस समय शम्सुद्दीन ने खोर पर माक्रममा
किया, उस समय जजपाल ने उसकी अधीनता स्वीकार कर वहीं निवास किया। परन्तु उसका भाई प्रहस्त ( वरदायी सेन) भागकर महई (फर्रुखाबाद जिले ) की तरफ चला गया। इसी गड़बड़ में इनके कुछ बान्धव नेपाल की तरफ़ भी चले गये थे। इसके बाद जजपाल के वंशज खोर को छोड़ कर उसेत (ज़िला बदायूं ) में
जा रहे । सम्भव है बदायूं के लेख वाला लखनपाल भी, उस समय, वहीं सामन्त के हैसियत से रहता हो; परन्तु जब वहां पर भी मुसलमानों का हमला हुमा, तब वे
T
लोग वहां से बिलसद की तरफ़ चले गये। इसके बाद जजपाल के वंशज रामराय (रामसहाय) ने, एटा जिले में, रामपुर बसाकर वहां पर अपना नया राज्य कायम किया । खिम सेपुर (फर्रुखाबाद जिले) के राव भी अपने को उसी के वंशज बतलाते हैं। इसी प्रकार सुरजई मौर सरौढा ( मैनपुरी जिले ) के चौधरी भी जजपाल के ही वंशज माने जाते हैं। कहते हैं कि, जयश्चन्द्र के भाई का नाम माणिकचन्द्र (माणिक्यचन्द्र ) था । मांडा और विजेपुर (मिरज़ापुर जिले ) के शासक अपने को माणिकचन्द्र के पुत्र गाढण के वंशज मानते हैं। इसी प्रकार गाजीपुर की तरफ के और भी कई छोटे
आगीरदार अपने को गाडण के वंशज बतलाते हैं। (२) शम्सुद्दीन ने, वि० सं० १२७० में खोर का नाम बदल कर अपने नाम पर शम्साबाद
रख दिया था । (३) यह भी सम्भव है कि बरदायीसेन हरिश्चन्द्र का छोटा भाई हो ।
* 'फतेहगढ नामा' की, वि० सं० १६०६ (ई. स. १८४४) की, छपी पुस्तक में इसका
नाम हरसू लिखा है। सम्भव है हरसू और प्रहस्त ये दोनों हरिश्चन्द्र के नाम
के रूपान्तर ही हों। (1) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा• १, पृ० ६४ (1) कहीं कहीं इस घटना का. समय वि. सं. १२८० लिखा है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नौज के गाहड़वाल
१५३ यहीं पर कुछ समय बाद हरिश्चन्द्र के छोटे पुत्र राव सीहा ने एक किला बनवाया था । परन्तु जब वहां पर भी मुसलमानों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये, तब राव सीहो, अपने बड़े भाई सेतराम के साथ, द्वारका की यात्रा को जाता हुआ मारवाड़ में आ पहुँचा।
(१) इसके खंडहर वहां काली नदी के तट पर अब तक विद्यमान हैं; और लोग उन्हें
"सीहाराव का खेड़ा" के नाम से पुकारते हैं। (२) रामपुर के इतिहास में सीहा को प्रहस्त का पौत्र लिखा है; परन्तु मारवाड़ के
इतिहास में सीहा के पितामह का नाम वरदायीसेन मिलता है । इसलिए सम्भव है ये दोनों हरिश्चन्द्र के ही उपनाम हो । यह भी सम्भव है कि, जिस प्रकार जयचन्द्र की उपाधि "दलपंगुल" थी, उसी प्रकार हरिश्चन्द्र की उपाधि "वरदायीसेन"
(वरदायीसैन्य ) हो । ३) माईन-ए-अकबरी (भा॰ २, पृ० ५०७) में लिखा है कि, सीहा जयचन्द का भतीजा था । वह शम्साबाद में रहता था, भौर शहाबुद्दीन से लड़ कर कन्नौज में मारा गया था।
कर्नल टॅॉडने अपने राजस्थान के इतिहास में सीहा को एक स्थान पर जयचन्द्र का पुत्र ‘ऐनाल्स ऐण्ड ऐगिटक्विटीन ऑफ राजस्थान (भा. १, पृ० १०५ ); और दूसरी जगह भतीजा (भा॰ २, पृ. ६३०) लिखा है । परन्तु फिर तीसरी जगह सेतराम और सीहा दोनों को जयचन्द्र का पोता (भा॰ २, पृ. १४०) भी लिख दिया है ।
राव सीहा के वि• सं० १३३. के लेख में उसे सेतराम (सतेकंवर) का पुत्र लिखा है। परन्तु सौहा को सेतराम का छोटा भाई, और दत्तक पुत्र मान लेने से, जयचन्द्र से सौहा तक के समय के ठीक मिल जाने के साथ ही, इतिहास की वह गड़बड़ भी, ओ सीही के कहीं पर सेतराम का भाई, और कहीं पर पुत्र लिखा मिलने से पैदा होती है, मिट जाती है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूटों का इतिहास कन्नौज के गाहरवालों का वंशवृक्ष
१ यशोविग्रह
२ महीचन्द्र
३ चन्द्रदेव
__
४ मदनपाल
विग्रहपाल
५ गोविन्दचन्द्र
( बदायं की शाखा का मूल पुरुष ।
६ विजयचन्द्र
६ विजयचन्द्र
राज्यपाल
राज्यपाल
आस्फोटचन्द्र
आस्फोटचन्द्र
७ जयचन्द्र
माणिक्यचन्द्र
८ हरिश्चन्द्र ( प्रहस्त या वरदायीसेन ) जयपाल ( जजपाल) मेघचन्द्र
सेतराम
सीहा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्नौज के गाहड़वाल कन्नौज के गाहड़वालों का नक्शा | उपाधि परस्पर का
ज्ञात समय सम्बन्ध
संख्या नाम
| समकालीन
राजा
धिराज
यशोविग्रह
सूर्यवंश में २ महीचन्द्र
नं. १ का पुत्र ३. चन्द्रदेव महाराजा- न.२ का पुत्र वि. सं. ११४८, १९५०, परमार भोज, धिराज
और हैहयवंशी कर्ण के मरने पर
| राजाहुश्रा। ४। मदनशल | महाराजा- नं.३का पुत्र वि.सं, ११५४, १९६१,
| ११६२, १९६३, १९६६. ५ | गोविन्दचन्द्र | महाराजा- नं. ४ का पुत्र वि. स. १९६१, ११६२, धिराज,विविध
१९६६, ११७१,११७२,
११७४, ११७५, ११७६, विद्याविचार
११७७,११७८,११८० पाचस्पति
११८१, ११८२,(११८३) | १९८३, १९८४, १९८५,
१९८६, ११८७, ११८८, ११८६, ११६०, ११६१, ११६६, ११६७,११६८, ११६६, १२००, १२०१, १२०२,१२०३, १२०७,
१२०८, १२११. ६ विजयचन्द्र महाराजा- नं. ५ का पुत्र वि.सं. १२२४, १२२५
धिराज ७ | जयचन्द्र महाराजा- नं.६ का पुत्र वि. सं. १२२६, १२२८, चन्देल मदनधिराज
१२३०, १२३१, १२३२, वर्मदेव, चौ१२३६, १२४३, १२४५,
राज, और शहाबुद्दीन ग़ोरी
१२३३, १२३४,(१२३५) हान पृथ्वी
८ | हरिश्चन्द्र
महाराजा- नं.७का पुत्र १२५३ धिराज ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट कन्नौज-नरेश जयच्चन्द्र, और उसके पौत्र राव सीहानी पर
किये गये मिथ्या आक्षेपे । कुछलोग कन्नौज-नरेश जयच्चन्द्र को हिन्दू साम्राज्य का नाशक कहकर उससे घृणा प्रकट करते हैं, और कुछ उसके पौत्र सीहाजी पर पल्लीवाल ब्राह्मणों को धोके से मार कर पाली पर अधिकार करने का कलङ्क लगाते हैं । वास्तव में देखा जाय तो ऐसे लोग इन कथाओं को "बाबा वाक्यं प्रमाणम्" समझकर, या 'पृथ्वीराजरासो' में, और कर्नल टॉड के राजस्थान के इतिहास' में लिखा देख कर ही सच्ची मान लेते हैं । वे इनकी सत्यता के विषय में विचार करने का कष्ट नहीं उठाते । विद्वानों के निर्णयार्थ आगे इस विषय की विवेचना की जाती है:
'पृथ्वीराजरासा' की कथा "एकवार कमधजराय ने, कनोज के राठोड़ राजा विजयपाल की सहायता से, दिल्ली पर चढ़ायी की । इसकी सूचना पाते ही वहाँ के तँवर-नरेश अनंगपाल ने, अजमेर के स्वामी, चौहान सोमेश्वर से सहायता मांगी। इस पर सोमेश्वर, अपने दल-बल सहित, अनंगपाल की सहायता को जा पहुँचा । युद्ध होने पर अनंगपाल विजयी हुआ, और शत्रु-सेना के पैर उखड़ गये । समय पर दी हुई इस सहायता से प्रसन्न होकर अनंगपाल ने अपनी छोटी कन्या कमलावती का विवाह सोमेश्वर के साथ करदिया । इसके साथ ही उसने अपनी बड़ी कन्या कनौज के राजा विजयपाल को व्याह दी।
(१) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा• ६६, पृ० ६-६; और सरस्वती, (मार्च १६२८) पूर्णसंख्या
३३६, पृ. २७४-२८३ (२) इसी के गर्भ से जयचन्द्र का जन्म हुमा था। ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
१७ विक्रम संवत् १११५ में कमलावती के गर्भ से पृथ्वीराज का जन्म हुआ। एकवार मंडोर का स्वामी नाहड़राव, अनंगपाल से मिलने, देहली गया, और वहां पर उसने पृथ्वीराज की सुंदरता को देख अपनी कन्या का विवाह उसके साथ करने का विचार प्रकट किया । परन्तु कुछ काल बाद उसने अपना यह विचार त्याग दिया । इससे पृथ्वीराज ने, वि. सं. ११२६ के करीब, मंडोर पर चढ़ायी की, और नाहराव को हराकर उसकी कन्या से विवाह किया ।
इसके बाद अनंगपाल ने, अपने बड़े दौहित्र जयचन्द के हक का विचार न कर, विक्रम संवत् ११३८ में देहली का राज्य पथ्वीराज को सौंप दिया । ___ कुछ काल बाद पृथ्वीराज के देवगिरि के यादव राजा भाण की कन्या को, जिसका विवाह कनौज-नरेश जयचन्द के भतीजे वीरचन्द के साथ होना निश्चित होचुका था, हरण कर लेजाने से उस ( पृथ्वीराज ) की और जयचन्द की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ ।
इसके बाद पृथ्वीराज की दमन-नीति से दुःखित हुई प्रजा की पुकार सुन अनंगपाल को एक वार फिर देहली पर अधिकार करने की चेष्टा करनी पड़ी। परन्तु इस में उसे सफलता नहीं हुई।
फिर जब जयचन्द ने, वि. सं. ११४४ में, "राजसूय यज्ञ", और संयोगिता का "स्वयंवर" करने का विचार किया, तब पृथ्वीराज ने, उसका सामना करना उचित न समझ, उन कार्यों में विघ्न करने का दूसरा रास्ता सोच निकाला । इसी के अनुसार उसने पहले, खोखन्दपुर में जाकर, जयचन्द के भाई बालकराय को मारडाला, और बाद में संयोगिता का हरण किया। इससे जयचन्द को, लाचार होकर, पृथ्वीराज से युद्ध करना पड़ा । यद्यपि उस समय पृथ्वीराज स्वयं किसी तरह बचकर निकल गया, तथापि उसके पक्ष के ६४ सामन्तों के मारे जाने से उसका बल बिलकुल क्षीण हो गया । 'रासो' के अनुसार उस समय पृथ्वीराज की अवस्था ३६ वर्ष की थी। इसलिए यह घटना वि. सं. ११५१ में हुई होगी। ___ इसके बाद पृथ्वीराज अपने नवयुवक सामन्त धीरसेन पुंडीर की वीरता को देख उससे प्रसन्न रहने लगा। इससे कुढ़ कर चामुण्डराय आदि राज्य के अन्य सामन्त शहाबुद्दीन से मिलगये । परन्तु पृथ्वीराज को, संयोगिता में भासक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
राष्ट्रकूटों का इतिहास रहने के कारण, इन बातों पर ध्यान देने का मौका ही न मिला। इसी से उस के राज्य का सारा प्रबन्ध धीरे-धीरे शिथिल पड़ गया । यह समाचार सुन शहाबुद्दीन ने देहली पर फिर चढ़ायी की । पृथ्वीराज भी सेना लेकर उसके मुकाबले को चला । इस युद्ध में पृथ्वीराज का बहनोई मेवाड़ का महाराणा समरसिंह भी पृथ्वीराज की तरफ से लड़ कर मारा गया । अन्त में पृथ्वीराज के कुप्रबन्ध के कारण शहाबुद्दीन विजयी हुआ, और पृथ्वीराज पकड़ा जाकर गजनी पहुँचाया गया । इसके बाद स्वयं शहाबुद्दीन भी गजनी पहुँच पृथ्वीराज के तीर से मारागयों, और कुतुबुद्दीन उसका उत्तराधिकारी हुआ । यह समाचार सुनतेही पृथ्वीराज के पुत्र रैणसी ने, पिता का बदला लेने के लिए, लाहौर के मुसलमानों पर हमला किया, और उन्हें वहाँ से मार भगाया । इस पर कुतुबुद्दीन रैणसी पर चढ़ आया । युद्ध होने पर रैणसी मारा गया, और कुतुबुद्दीन ने देहली से आगे बढ़ कन्नौज पर चढ़ायी की । इसकी सूचना मिलते ही जयचन्द भी मुक़ाबले को पहुँचा । परन्तु अन्त में जयचन्द वीरता से लड़कर मारागया, और मुसलमान विजयी हुए।"
यह सारी की सारी कथा ऐतिहासिक कसौटी पर खरी नहीं ठहरती । इसमें जिस कमधज्जराय का उल्लेख है, उसका पता अन्य किसी भी इतिहास से नहीं चलता । इसी प्रकार जयच्चन्द्र के पिता का नाम विजयपाल न होकर विजयचन्द्र था; और वह (विजयचन्द्र) विक्रम की बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में न होकर, तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में था । यह बात उसकी वि. सं. १२२४, और १२२५ की प्रशस्तियों से प्रकट होती है । फिर यद्यपि अब तक अनंगपाल के समय का ठीक ठीक निश्चय नहीं हुआ है, तथापि इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि, सोमेश्वर से पूर्व के तीसरे राजा विग्रहराज (वीसलदेव) चतुर्थने
- ---...-- (1) पृथ्वीराज और चन्दबरदायी ने भी इसी समय अपने प्राण त्याग किये थे। रासो' के
अनुसार पृथ्वीराज की मृत्यु ४३ वर्ष की अवस्था में हुई थी। इसलिए यह घटना
वि० सं० १११८ में हुई होगी। (२ । ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग ८, परिशिष्ट १, पृ. १३; और भारत के प्राचीन
राजवंश, भा० ३, पृ. १०६-...
-.-
-..
-
..
--.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
१४६
1
ही देहली पर अधिकार कर लिया था । यह बात उसके, देहली की फीरोज़ - शाह की लाट पर खुदे, वि. सं. १२२० ( ई. स. १९६३ ) के लेख से सिद्ध होती है । ऐसी स्थिति में सोमेश्वर का अनंगपाल की मदद में देहली जाना कैसे सम्भव हो सकता है? इनके अतिरिक्त चौहान पृथ्वीराज के समय बने 'पृथ्वीराजविजय' महाकाव्य में पृथ्वीराज की माता का नाम कमलावती के स्थान पर कर्पूरदेवी लिखा है, और उसी में उसे तँवर अनंगपाल की पुत्री न बतला कर त्रिपुरि के हैहय वंशी राजा की कन्या बतलाया है । इसी प्रकार 'हम्मीर महाकाव्य ' में भी इसका नाम कर्पूरदेवी ही लिखा है। 'रासो' के कर्ता ने अपने चरित - नायक पृथ्वीराज का जन्म वि. सं. १११५ में लिखा है । परन्तु वास्तव में इसका जन्म वि. सं. १२१७ ( ई. स. ११६० ) के करीब अथवा कुछ बाद हुआ होगा; क्योंकि वि. सं. १२३६ ( ई. स. ११७९ ) के करीब, इसके पिता की मृत्यु के समय, यह छोटा था, और इसीसे राज्यका प्रबन्ध इसकी माता ने अपने हाथ में लिया था ।
1
1
पृथ्वीराज का मंडोर के प्रतिहार राजा नाहड़राव की कन्या से विवाह करना भी असम्भव कल्पना ही है; क्योंकि नाहड़राव का वि. सं. ७१४ के करीब (अर्थात् पृथ्वीराज से करीब ५०० वर्ष पूर्व ) विद्यमान होना, उससे दसवें राजा, बाउक के वि. सं. ८९४ के लेख से प्रकट होता है । वि. सं. १९८६ और १२०० के बीच किसी समय तो चौहान रायपाल ने, मंडोर पर अधिकार कर, वहां के प्रतिहार - राज्य की समाप्ति कर दी थी । चौहान रायपाल के पुत्र सहजपाल के, मंडोर से मिले, लेख से वि. सं. १२०० के करीब वहाँ पर उस ( सहजपाल ) का अधिकार होना सिद्ध होता है । इसके अतिरिक्त कन्नौज के प्रतिहारों की
( 1 ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भाग १६, पृ. २१८; और भारत के प्राचीन राजवंश, भा. १, पृ. २४४ ।
( २ ) जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी, ( १६१३) पृ. २७५; और भारत के प्राचीन राजवंश, भा. १, पृ. २४६ ।
(३) 'रासो' में दिये पृथ्वीराज के पूर्वजों के नाम भी अधिकतर अशुद्ध ही हैं ।
( ४ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. १८, पृ. ६५
(५) आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, ( १६०६-१० ) पृ. १०२-१०३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
राष्ट्रकूटों का इतिहास शाखा के मूल-पुरुष का नाम भी नागभट (नाहड ) था । चौहान राजा भर्तृवढ द्वितीय के हांसोट से मिले, वि. सं. ८१३ के, दानपत्र से इस नाहड का विक्रम की नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विद्यमान होना पाया जाता है । इसी प्रकार कनौज पर पहले-पहल अधिकार करनेवाला नागभट ( नाहड ) द्वितीय इस नाहड से पाँचवाँ राजा था । 'प्रभावकचरित्र' के अनुसार उसका स्वर्गवास वि. सं. ८६० में हुआ था । इनके अतिरिक्त चौथे किसी नाहड का पता नहीं चलता है। ___ हम पहले वि. सं. १२१७ के करीब पृथ्वीराज का जन्म होना लिख चुके हैं । ऐसी हालत में अनंगपाल का वि. सं. ११३८ में पृथ्वीराज को देहली का अधिकार सौंपना भी कपोल-कल्पना ही है ।
इसी प्रकार पृथ्वीराज का देवगिरि के यादव राजा भाण की कन्या को हरण करना, और इससे जयचन्द्र की सेना का पृथ्वीराज की सेना से युद्ध होना भी असंगत ही है; क्योंकि देवगिरि नाम के नगर का बसाने वाला यादव राजा भाण न होकर भिल्लम था। इसका समय वि. सं. १२४४ (ई. स. ११८७ ) के करीब माना गया है । इसके अलावा न तो भिल्लम के इतिहास में ही कहीं उक्त घटना का उल्लेख है, और न देवगिरि के यादव-वंश में ही किसी भाण नामके राजा का पता चलता है। जयचन्द्र के भतीजे वीरचन्द का नाम भी केवल 'रासो' में ही मिलता है।
पहले लिखा जाचुका है कि, पृथ्वीराज के.पिता (सोमेश्वर ) से पहले के तीसरे राजा विग्रहराज चतुर्थ ने देहली पर अधिकार करलिया था। ऐसी हालत में तँवर अनंगपाल का, देहली की प्रजा की शिकायत पर, पृथ्वीराज को दिया हुआ अपना राज्य वापस लेने की चेष्टा करना भी ठीक प्रतीत नहीं होता।
रही जयचन्द्र के "राजसूय यज्ञ" और संयोगिता के " स्वयंवर" की बात; सो यदि वास्तव में ही जयच्चन्द्र ने “राजसूय यज्ञ" किया होता तो उसकी प्रशस्तियों में या नयचन्द्रसूरि की बनायी 'रम्भामञ्जरी नाटिका' में; जिसका नायक स्वयं जयचन्द्र था, इसका उल्लेख अवश्य मिलता । जयश्चन्द्र के समय
(१) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. १२, पृ. १६५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५१
परिशिष्ट के १४ ताम्रपत्र, और २ लेख मिले हैं । इनमें का अन्तिम लेखे वि. सं. १२४५ (ई. स. ११०९) का है। ____ इसके अलावा पृथ्वीराज द्वारा अपने मौसेरे भाई की पुत्री संयोगिता के हरण की कथा मी 'रासो' के रचयिता की कल्पना ही है; क्योंकि इसका उल्लेख न तो पृथ्वीराज के समय बने 'पृथ्वीराजविजय महाकाव्य में ही मिलता है न विक्रम संवत् की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बने 'हम्मीर महाकाव्य' में ही। ऐसी हालत में इस कथा पर विश्वास करना अपने तई धोखा देना है । 'रासो' में लिखे इन घटनाओं के समय भी इन घटनाओं के समान ही अशुद्ध हैं। ___ रासो' में मेवाड़ के महाराणा समरसिंह का पृथ्वीराज का बहनोई होना,
और इसीसे उसकी तरफ़ से शहाबुद्दीन से लड़कर माराजाना लिखा है । परन्तु पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन का यह युद्ध वि. सं. १२४९ में हुआ था, और महाराणा समरसिंह वि. सं. १३५६ के करीब मरा था । ऐसी हालत में 'पृथ्वीराज रासो' के लिखे पर कैसे विश्वास किया जासकता है । उसी (रासो) में पृथ्वीराज के पुत्र का नाम रैणसी लिखा है । परन्तु वास्तव में पृथ्वीराज के पुत्र का नाम गोविन्दराज था, और उसके बालक होने के कारण ही उसके चाचा हरिराज ने अजमेर का राज्य दबा लिया था । अन्त में कुतुबुद्दीन ने हरिराज को हराकर गोविन्दराज की रक्षा की।
-....-..--.--... .... (१) भारत के प्राचीन राजवंश, भा० ३, पृ. १०८-". (२) ऐन्युअल रिपोर्ट मॉफ दि मार्किया लॉजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया, (१९११-२२)
पृ. १२०-१२१ । (३) 'रामो' में संयोगिता को कटक के सोमवंशी राजा मुकुन्ददेव की नवासी लिखा है।
परन्तु इतिहास से इसका भी कुछ पता नहीं चलता। (४) श्रीयुत मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या ने "विक्रमसाक अनन्द" इस पद के माधार
पर "मनन्द-संवत्" की कल्पना कर रासो' के संवतों को "मनन्द विक्रम संवत्" माना है। इस कल्पना के अनुसार 'रासो' के संवतों में ६१ जोड़ने से विक्रम संवत् बन जाता है । इसलिए यदि 'रासो' में दिये पृथ्वीराज की मृत्यु के सं० १११८ में ६१ जोड़ दिये जाँय तो उसकी मृत्यु का ठीक समय वि. सं. ११४५ माबाता है। परन्तु
इससे नाहहराव आदि के समय की गड़बड़ दूर नहीं होती। (१) भारत के प्राचीन राजवंश, भाग १, पृ. २६३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
राष्ट्रकूटों का इतिहास 'रासो' में शहाबुद्दीन के स्थान पर कुतुबुद्दीन का जयचन्द्र पर चढ़ायी करना लिखा है । परन्तु फ़ारसी तवारीखों के अनुसार यह चढ़ायी शहाबुद्दीन के मरने के बाद न होकर उसकी जिंदगी में ही हुई थी, और स्वयं शहाबुद्दीन ने भी इसमें भाग लिया था । उसकी मृत्यु वि. सं. १२६२ (ई. स. १२०६ ) में गकरों के हाथ से हुई थी। इसके अलावा किसी भी फ़ारसी तवारीख में जयचन्द्र का शहाबुद्दीन से मिलजाना नहीं लिखा है । ___इन सब घटनाओं पर विचार करने से 'पृथ्वीराज रासो' का ऐतिहासिक रहस्य स्वयं ही प्रकट हो जाता है । इसके अतिरिक्त यदि हम "दुर्जनतोषन्याय" से थोड़ी देर के लिए रासो' की सारी कथा सही भी मानलें, तब भी उसमें संयोगिता-हरण के कारण जयचन्द्र का शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने का निमन्त्रण देना, या उसके साथ किसी प्रकार का सम्पर्क रखना नहीं लिखा मिलता । उलटा उस (रासो) में स्थान स्थान पर पृथ्वीराज का परायी कन्याओं को हरण करना लिखा होने से उसकी उद्दण्डता; उसकी कामासक्ति का वर्णन होने से उसकी राज्य कार्य में गफलत; उसके चामुण्डराय जैसे स्वामिभक्त सेवक को बिना विचार के कैद में डालने की कथा से उसकी गलती; और उसके नाना के दिये राज्य में बसने वाली प्रजा के उत्पीडन के हाल से उसकी कठोरता ही प्रकट होती है । इसीके साथ उसमें पृथ्वीराज के प्रमाद से उसके सामन्तों का शहाबुहीन से मिलजाना भी लिखा है ।
... ऐसी हालत में विचारशील विद्वान् स्वयं सोच सकते हैं कि, जयञ्चन्द्र को हिन्दू-साम्राज्य का नाशक कह कर कलङ्कित करना कहां तक न्याय्य कहा जासकता है ?
'पृथ्वीराज रासो' के समान ही 'आलाखण्ड' में भी संयोगिता के 'स्वयंवर' आदि का किस्सा दिया हुआ है । परन्तु उसके 'पृथ्वीराजरासो' के बाद की रचना होने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि, उसके लेखक ने अपनी रचना में, ऐतिहासिक सत्य की तरफ ध्यान न देकर, 'रासो' का ही अनुसरण किया है । इसलिए उसकी कया पर भी विश्वास नहीं किया जासकता।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट .
।..
.
१५३ आगे जयञ्चन्द्र के पौत्र सीहाजी पर किये गये माक्षेप के विषय में विचार किया जाता है।
कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है:
सीहाजी ने गुहिलों को भगाकर लूनी के रेतीले भाग में बसे खेड़ पर अपना राठोड़ी झंडा खड़ा किया। ___ उस समय पाली, और उसके आस पास का प्रदेश पल्लीवाल ब्राह्मणों के अधिकार में था; और उस पाली नामक नगर के पीछे ही वे पल्लीवाल कहाते थे । परन्तु आसपास की मेर और मीणा नामक जङ्गली लुटेरी कौमों से तंग आकर उन्होंने सीहाजी के दल से सहायता मांगी । इस पर सीहाजी ने सहायता देना स्वीकार करलिया, और शीघ्र ही लुटेरों को दबा कर ब्राह्मणों का सङ्कट दूर कर दिया। यह देख पल्लीवालों ने, भविष्य में होने वाले लुटेरों के उपद्रवों से बचने के लिए, सीहाजी से, कुछ पृथ्वी लेकर, वहीं बसजाने की प्रार्थना की; जिसे उन्होंने भी स्वीकार करलिया। परन्तु कुछ समय, बाद सीहाजी ने, पल्लीवालों के मुखियाओं को धोलें से मारकर, पाली को अपने जीते हुए प्रदेश में मिला लिया। ____ इस लेख से प्रकट होता है कि, पल्लीवालों को सहायता देने के पूर्व ही महेवा
और खेड़ राव सीहाजी के अधिकार में प्राचुके थे। ऐसी हालत में सीहाजी का उन प्रदेशों को छोड़ कर. पल्लीवाल ब्राह्मणों की दी हुई. साधारणसी भूमि के लिए पाली में आकर बसना कैसे सम्भव समझा जा सकता है । इसके अलावा उस समय उनके पास इतनी सेना भी नहीं थी कि, वह महेवा और खेड दोनों का प्रबन्ध करने के साथ ही पाली पर आक्रमण करने वाले लुटेरों पर भी, आतङ्क बनाये रखते। ____ इसके अतिरिक्त पुरानी ख्यातों में पल्लीवाल ब्राह्मणों को केवल वैभवशाली व्यापारी ही लिखा है । पाली के शासन का उनके हाथ में होना, या सीहाजी का उन्हें, मार कर पाली पर अधिकार करना उनमें नहीं लिखा है। सोलही कुमारपाल का, वि. सं. १२.०१ का, एक लेख पाली के सोमनाथ के मन्दिर में लगा है। उससे प्रकट होता है. कि, उस समय वहां पर कुमारपोलको अभिकार. या, और उसकी तरफ से उसका सामन्त (सम्भवतः चौहान ) बाहडदेव वहां का शासन करता था। कुमारपाल का एक कृपापात्र-सामन्त
(१) ऐनाल्स ऐड ऐण्टिकिटीज़ मॉफ राजस्थान, भाग १, पृ. ६४२-४ (२) ऐन्यूमन रिपोर्ट मॉफ दि पार्कियालॉजिकल डिपार्टमेन्ट, जोधपुर गवर्नमैन्ट, मा. ६,
(१६३१-३२) पृ. ।
..
.
"E
42
..
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
राष्ट्रकूटों का इतिहास चौहान आह्नणदेव भी था । वि. सं. १२०९ के किराडू के लेख से ज्ञात होता है कि, इस आलणदेव ने कुमारपाल की कृपा से ही किराडू, राडधड़ा, और शिव का राज्य प्राप्त किया था । वि. सं. १२३० के करीब कुमारपाल की मृत्यु होने पर उसका भतीजा अजयपाल राज्य का स्वामी हुआ । उसीके समय से सोलड़ियों का प्रताप-सूर्य अस्ताचल-गामी होने लगा था, और इसीसे मीणा, मेर आदि लुटेरी कौमों को पाली जैसे समृद्धिशाली नगर को लूटने का मौका मिला था । चौहान चाचिगदेव के वि. सं. १३१९ के, सैंधा से मिले, लेख में लिखा है कि, (उपर्युक्त) चौहान आह्लणदेव का प्रपौत्र ( चाचिगदेव का पिता) उदयसिंह नाडोल, जालोर, मंडोर, बाहडमेर, सूराचन्द, राडधडा, खेड, रामसीन, भीनमाल, रत्नपुर, और सांचोर का अधिपति था । इसी लेख में उसे (उदयसिंह को) गुजरात के राजाओं से अजेय लिखा है। उसके वि. सं. १२६२ से १३०६ तक के ४ लेख मीनमाल से मिले हैं । इससे अनुमान होता है कि, इसी समय के बीच किसी समय यह चौहान-सामन्त, गुजरात के सोलदियों की अधीनता से निकल, स्वतन्त्र हो गया था। यहां पर उपर्युक्त नगरों की भौगोलिक स्थिति को देखने से यह भी अनुमान होता है कि, उस समय पाली नगर भी, सोलड़ियों के हाथ से निकल कर, चौहानों के अधिकार में चला गया था । इसलिए राव सीहाजी के मारवाड़ में आने के समय उक्त नगर पर पल्लीवालों का राज्य न होकर सोलकियों का या चौहानों का राज्य था । ऐसी अवस्था में सीहाजी को पाली पर अधिकार करने के लिए. निर्बल, शरणागत, और व्यापार करने वाले पल्लीवाल ब्राह्मणों को मारने की कौनसी आवश्यकता थी !
इसके अतिरिक्त जब लुटेरों से बचने में असमर्थ होकर स्वयं पल्लीवाल ब्राह्मणों ने ही सीहाजी से रक्षा की प्रार्थना की थी, और बादमें उनके पराक्रम को देखकर उन्हें अपना भावी रक्षक भी नियत कर लिया था, तब वे किसी अवस्था में भी उनको नाराज करने का साहस नहीं कर सकते थे। ऐसी हालत में सीहाजी अपने आपही पाली के शासक बन चुके थे । इसलिए उनका वास्तविक जाम, पल्लीवालों की रक्षा कर, अपने अधिकृत प्रदेश में व्यापार की वृद्धि करने में ही था, न कि कर्नल टॉड के लिखे अनुसार पल्लीवालों को मार कर देश को उजाड़ देने में । (1) ऐन्युमल रिपोर्ट गॉफ दि माफियालॉजिकल डिपार्टमेन्ट, सोधपुर गवर्नमेन्ट, मा० ४,
(१९२३.१९३०) पृ. और भारत के प्राचीन गमवंश, भाग १, पृ. २६५ (२) ऐपिप्राफिया इविका, मा० ११, पृ... (३) ऐपिमाफिया इण्डिका, मा. ., पृ. ७८; और भारत के प्राचीन कायमा.१,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका
धम्म प्रथम, ८१. अकलर भट्ट, ३६, ५६.
अम्मणदेव (अनङ्गदेव ), ७६, ७. अकालवर्ष, ७५, १०४.
अय्यण, ७८, ६२. अकालवर्ष, ७७.
अरिकेसरी, ८८. अकालवर्ष, १०३-१०६.
अर्ककीर्ति, ६५. प्रक, १०, ११०,११५.११६. अर्जुन, ७८, मक्किदेव, १.४.
अर्जुन, ७६. अजयपाल, १२२.
अल इस्तख़री, ४.. अजयपाल, १५४.
अलकार, ३६, १३१. अजवर्मा, १०८, ११६.
अलमसऊदी, ८, ३६. अगिणग, १७.
अलट, ११8. भत्रि, ३१.
अशोक, १, ६, ७, १४. मनापाल, १४६-१५..
प्रश्वघोष, ३०. अनन्द संवत्, १५१.
अष्कलउल बिलाद, ४०. अनिरुद्ध, v८.
भ्रष्टशती, ३६. अन्तिग, ८५, १७. अपराजित (देवराज), ८१, ६३.
मात्मानुशासन, ३६. अबूजदुल हसन, ३८.
आदिकेशव, १२६. अब्बलम्बा, ७३.
श्रादिपुराण, ३६, ७३. अभिधान रत्नमाला, ३६.
आरट, २, ६, ७. अभिमन्यु, ३, १४, ३३, ४६.
प्रास्फोउचन्द्र, १३१, १४४. अमृतपाल, ४६.
आह्वणवेव, १५४. अमोघवर्ष (प्रथम), ३, ४, १०, १२, ३४,
श्राहाखण्ड, १५२. ३५-३५, ३६, ५१, ६४, १५, ६८-७५, ७७, १५, ६, १०१-१०३, १०६, १२१. अमोघवर्ष (द्वितीय),८०,८१,८३,६५, ६७. | इक्ष्वाकु, ६, ७. अमोघवर्ष (तृतीय) ( बद्दिग), ७८, ८३, ८४, | इन्द्रजित, ३१. 58-81, ५, ६७.
इन्द्रराज, ६, ४१,५०,५१.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका इन्द्रराज, ६७, ६६, ५, ६-१.१, १०५, । कन्न (कनकर ) (द्वितीय ), ११०, ११,
| ११५, ११७. इन्द्रराज (प्रथम), ४४, ५१, ५२, ५, ६६.
| कन्नर, ७६. इन्द्रराज (द्वितीय), ५२, ५३, ५६, १५, ६६. | कनर, ८४. इन्द्रराज (तृतीय), ४, १०, १७, ४२, कनेश्वर, १७. ७८-८२, ६५, १७.
कपदि (पाद) प्रथम, ७०. इन्द्रराज (चतुर्थ) ४, ५, ६७.
कादि (द्वितीय), ७०, ७२, १६. इन्द्रायुध, १५, ६१, ६७, ६६.
कमधजराय, १४६, १४८. इमर्दादबा, ३६.
कमलावती, १४६, १४७, १४६. इन्नौकल, ४..
कम्बय्य (स्तंभ-रणावशोक), ६३, ६५, .
राब, ४८.
वर्कराज, ६.. ईजुद्दीन, १३९.
कर्कराज (ककरा), १७, ६२, ६६, ६८,
६६, ७०, ६, १००-१०२,१०५, १०६. उत्तरपुराण (महापुराण ), ७३, ७७. कर्कराज (कक) (प्रथम), ५२, ५३, ६४, उदयन, .
६५, ६६. उदयसिंह, १५४.
कर्कराज (कक्कल ) (द्वितीय), १०, ३६, ४१, उदयादित्य, ..
४२, ४५, ५८, 81-, 8, १... उपेन्द्र, १७.
कर्कराज (प्रथम), ६८, १०५, १०६ कर्कराज (द्वितीय), ५५, ५८, ६८, ६६,
१०५, १०६. मदावत, ३२.
कर्ण, ४३, १२४, १४५.
कपुरदेवी, १४६. एकलिङ्गमाहात्म्य, २७, ३४.
कलचुरि संवत, ३१. एवलदेवी, ११३.
कलिङ्ग, १४. एरेग (एरेयम्मरस ), १०९, ११०, ११५,
कलिवल्लभ, ६२, ६३. ११६.
कलिविट्ट, ८५. श्रो
कल्याणी, १८, ४१, १२. मोककेतु, ३३, ६३.
कलर, ६४.
कविरहस्य, ११, ३६, ५६. कक, ३..
कविराजमार्ग, ३७, ७१. करदेव, ११.
कहण, २.. पर, ११..
काम्बोज, १,६. कन्न (कनकर) (प्रथम), १३, ११५, ११६. | कार्तवीर्य (प्रथम), १०६, ११५, ११६.
ऊ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५७
वर्णानुक्रमणिका कार्तवीर्य (द्वितीय), ११०.११२, ११५, ११७. कृष्णराज (तृतीय), १०, ११, १७, ३६, ३६, कार्तवीर्य (स्टम ) तृतीय, १११, ११२, ११५, ४२, ५६, ७३, ८३-६७,६४, ५, ६७, ११७.
१०८, १२३. कार्तवीर्य (चतुर्थ), ११२, ११३, ११५, ११७. | कृष्णराज प्रथम के चांदी के सिक्के, ११, ५६. कालप्रियगण्डमार्तण्ड, ८७.
कृष्णेश्वर, ८७. किताबुलमकालीम, ४०.
कैलासभवन, ३५, ३७, ५७. किताबुलमसालिकउलमुमालिक, ३६. कोकल (प्रथम), ७६, ७८, ७६, ६७. कीरिया, ४०.
कोश (स)ल, २२, ५४, ६३, १२५. कीर्तिपाल, ४.
क्यानदेव, ३६. कीर्तिराज, ४८.
क्षेमराज, १०३. कीर्तिवर्मा (प्रथम), ६.
ख कीर्तिवर्मा (द्वितीय), ४१, ४५, ५०, ५१, | खण्डनखण्डखाद्य, ३६, १३७. ५३, ५४, ५५, ६६, ६८.
खुसरो, १३३. कुतुबुद्दीन ऐबक, २३, ४४, १३८-१४०, १४८, | खोट्टिगदेव, ८४, ८६-२, ६५, ६७.
१५१, १५२. कुन्दकदेवी, ८३, ८६, ०. कुमारगुप्त, १२२.
गक्कर, १५२. कुमाग्देवी, २३, ३१, १२३, १३०, १३१. कुमारपाल, २८, १५३, १५४.
गङ्गवाण पृथ्वीपति (द्वितीय), ८५. कुमारपालचरित, २..
गणितसारसंग्रह, ३५, ३६, ७३.
गयकर्ण, ११४ कुम्भकर्ण (कुंभाराणा), १२, २७.
| गाङ्गेयदेव, ४. कुलाचार्य, ६७.
गाडण, १४२. कुलोत्तुङ्गचूडदेव (द्वितीय), २८.
गाधिपुर, १६, १२३. कुश, ६, ७.
गान्धार, १, ६. कुशिक, २२, १२५.
गामुण्डब्बे, ६५. कृष्ण, ५०, ५१.
गाहडवाल, १३, १४, १६-२२, २६, ३०-३२. कृष्णराज, ७५, १०४-१०६.
४३, ४४, ११८, १२३, १२५, १२६, १३१, कृष्णराज (प्रथम), ११, १४, ३३, ३७, ५२, ५६-६२, ६७, ५५, ५, ६, ६९, | गिरिगे, ६४.
गीतगोविन्द, २७.
गुणदत्तर भूतुग, ७३. कृष्णराज (द्वितीय), १५, ३६, ७४-७६,
गुणभद्राचार्य (रि), ३६, ७३, ७७. ८३, ६२, ५, ६७, १०४, १०६-१०८,
| गुप्त, 1५, ४४. ११६, १२३.
Y
..
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
गुद्ददत्त, २७.
गुहिलोत, २७, ३१.
गोजिग, ८१.
98.
गोपाल, गोपाल, २१, २३-२५, ४६.
गोविन्दचन्द्र, ११, १७, २३, २४, ३१,
३२, ३६, ४३, १२३,
१२५-१२७,
१२६-१३४, १४४, १४५. गोविन्दचन्द्र के तांबे के सिक्के, १३२. गोविन्दचन्द्र के सोने के सिक्के, १३२.
वर्णानुक्रमणिका
गं विन्दराज (द्वितीय), १०३, १०५. गोविन्दराज ( प्रथम ), ५१, ५२, ५, ६६. गोविन्दराज (द्वितीय), ५५, ५६-६४, ६७,
६६, ६५, ६६. गोविन्दराज (तृतीय), ११, ५६, ६२,
६४-६८, ६५, ६६, ६६, १००, १०२, १०६, १२१. गोविन्दराज (चतुर्थ), १०, १७, ४२,
८०.८३, ९५, ६७.
गोविन्दाम्बा, ७८, ८३.
गं सल्लदेवी, १३०.
गोहिल,
१८.
गोहणदेवी, ११४.
गौड़, ३२.
च
किराज, ६७. चचिगदेव, १५४.
गोविन्दराज, ४६, ४७.
चापोत्कट, ३, ६६.
गोविन्दराज, ६८, ६६, १०५, १०६. गोविन्दराज, १२१.
चामुण्डराय, १४७, १५२.
गोविन्दराज, १५१.
चालुक्य, ८, १५, २२, २८.
१०६.
गोविन्दराज ( प्रथम ), ६६, १०० १०२, १०५, चालुक्य, ६, २८, ३३, ३६, ४१, ४२, ५३, ५४,५६,६४,६६, ६८, ७२, ७६, ७८,८१,८५,८८, ६२, ६३, ६६-६८, १०७-१११, ११४.
चक्रायुध, १७, ६१, ६६. चक्रेश्वरी, १८०
चकब्जे १०८.
चन्दवरदायी, १६, १४८.
चन्देल, ३१, ४३, १३४, १४५.
चन्द्र, १५-१७, २५, ४६. चन्द्रदेव, १५ - १६,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१२३-१२५, १४४, १४५.
२१-२५, ३२, ४३,
चन्द्रलेखा, १३३, १३६. चन्द्रादित्य, १२५.
चन्द्रिका देवी (चन्ददेवी ), ११२.
| चूण्डावत, ३२.
चौहान, २८, ३१, १३७, १३८, १४५, १४६, १५०, १५३, १५४.
व
छिकोर, १३०.
ज
जगत्तुङ्ग ( प्रथम ), ६४, ५. जगह (द्वितीय), ७८, ७, ८३, ६५०
जगतुङ्ग (तृतीय), ८४-८६, १०, ५. जगदेकमल्ल (द्वितीय), १११, ११७. जगमालोत, ३२.
जजपाल (जयपाल ), २१, ४५, १४२, १४४. जजिया, ४३, १२५. जयकर्ग, १११, ११७.
www.umaragyanbhandar.com
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
वर्णानुक्रमणिका जयश्चन (जयचंद), ७, १६, २०, २१, ! तुज (धर्मावलोक), २०, ४८, ४६. ४३-४५, ११८, १३३ -१३५, १६७.१४८, | तुरुष्कण्ड, ४३, १२५. १५०, १५२, १५३.
तैलप (द्वितीय), ३६, ४१, ४२, ४५, ७८, जयदेव, २७.
६२, ३, ७, १०७-१०६, ११६. जयपवला, ३६, ७३.
सैलप (तृतीय), 11१, ११७. जयभा (तृतीय),५१.
त्रिभुवनपाल, ४. जयसिंह, २०.
त्रिलोचनपाल, ८, १५, २२, २५, २८. जयसिंह, ३६, १३.
त्रिलोचनपाल, २२, १२२. जयसिंह (प्रथम), ३, ४५, ५०, ५१. त्रिविक्रम भट्ट, ३६, ८०. जयसिंह (द्वितीय)(जगदेकमाल :, १०६, ११६. | त्रैलोक्यमल्ल ( सोमेश्वर प्रथम ), ११०, ११६. जयादित्य, १०१. जसधवल, ५. जाकाम्बा, ९३.
दन्तिग, ८५, ६७. जिनसेन, ३४, ३६, ६१, ७३, ७७. दन्तिग, ( दम्तिवर्मा ), ६५, १६. जिनसेन, ३६, ७३.
दन्तिवर्मा, 8५. जिनहर्षगणि, २८.
दन्तिवर्मा, १००. जेबट, ४८.
दन्तिवर्मा, १०३-१०६. जैत्रचन्द्र ( जयन्तचन्द्र ), १३४, १३६. दन्तिबर्मा, १२१. जैनमहापुराण, ३६, ८६, ६१.
दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग , प्रथम, ३, ४७, ५१, जैनाचार्य, ३७.
५, ६. जोधपुर, १८, ४४.
दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) द्वितीय, ११, ३३, ४१, जोषाजी, १८.
४५, ४७, ५१, ५३-५६, १८, ५, १६, ज्वालामालिनीकल्प, ३६, ८६.
8८, ९, १०६. दमयन्तीकथा, ८०.
दलपंगुल, १३६, १४३. टिविली, ४३, ६९, १०६
दायिम (दावरि ), १०, ११, ११६. दाहिमा, ३२.
दुड्य, ७४. ढोढ़ि, १.३.
दुर्गराज, ४६, ४७. दुर्लभराज, ११६, १२..
देवड़ा, २८, ३१. तँवर, १४६, १४६, १५..
देवपाल, ४६. तक्षशिला, ६.
देवपाल, १२४.
देवरक्षित, १३० तातारिवाहिम (द्रम्म), ३८.
देवराज, ३.. तिलकमंजरी, २६.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका देवराज, ४६.
नयपाल, १८, १६. देवेन्द्र, ७०.
नवसाहमाचरित, २६. दोर (धोर), ६३.
नागकुमारचरित, ३६, ८६. होण, २८.
नागदा, ३२. द्वयाश्रयकाव्य, २८.
नागभट ( नाहड ) (प्रथम), ४८, १५०. द्विरूपकोश, १३७.
नागभट (नाहड ) (द्वितीय), १७, ४८, ६१,
१५..
नागवर्मा, १८, १०६. धनपाल, २६, १.
नागावलोक, ४८. धरणीवगह ११६, १२..
नारायण, ५, १३. धर्म, १२.
नारायण, ८६. धर्मपाल, २०, ४८, ४६, ६८.
नारायणशाह, ५. धर्मायुध, ६६.
नाहहराव, १४७, १४३, १११. धवल, ११६, १२०.
निरुपम, ६१-६३. धादिभण्डक (धाडिदेव), ११४.
निरुपम, ८४.६१, ६५. धीरसनपुण्डीर, १४७.
नीजिकब्बे, १०८. यूहजी, १८.
नीतिवाक्यामृत, ३६, ८८. ध्रुवराज, १७, ३६, ५४-६५, ६५, ६, ६६,
नेमादित्य, ८०. १०५, १२३.
नैषधीयचरित, ३६, १३७. ध्रुवराज, १८, १०५, १०६. धुवराज (प्रथम), ३६, ६६, ७२, १०१-१०३, नोलम्बकुल, ६२. १०५, १०६.
न्यायविनिश्चय, ३६. ध्रुवराज (द्वितीय), ८, १७,७१, १०३-१०६.
नन्दराज, ३, ४७. नन्दिवर्मा, ६५. नन्न, ५२, ६४, ६५. नन्न, ८६. नन्न, १०८, १०, ११५, ११६. नाम (गुणावलोक), ४८, ननराज, ४६, ४७. भयचन्द्रमरि, २८, १३४, १५.. नयन के लिदेवी, १२८, १२६. नयनपात, १२२.
पद्मगुप्त (परिमल), २६. पद्मलदेवी, १११. पनाकर, १३६. परवल, २०,४८, ६८. परबल, ६८. परमर्दिदेव, १३५. परमार, २६, ३१, ६०, ६५, १६, १२०,
१२४, १४५. पल्लीवाल ब्राह्मण, १४६, १५३, १५४. | पाइयलच्छी नाममाला, ६१. पार्श्वभ्युदय, ३६, ७३.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका
पाल (वंश) १५, १६, ४८, ४९, ६८. पालिध्वज, ३३, ६६. पिङ्गलसूत्रवृत्ति, २६. पिहुग, १०८, ११५, ११६.
पुलकेशी (द्वितीय), ४१, ५२, ५४. पुल्लशक्ति, ७०, ६६. पुष्कल, ६.
पुष्कलावत, ६.
पुष्पदन्त, ३६, ८६, ६१.
पृथ्वीपति, ( प्रथम ), ७५, ६६. पृथ्वीराज, १३७, १३८, १४५, १४७.१५२. पृथ्वीराजरासो, २०, २८, ३१, १३४, १३७, १३८, १४६-१५२.
पृथ्वीराजविजय, २८, १४६, १५१. पृथ्वीराम, ७७, ८५, ७, १०७, १०, ११५, ११६.
पृथ्वी श्रीका, १२६.
पेरमानडि भूतुम (द्वितीय), ७३, ८६,८८, ६४, ६७.
पेरमानडि मारसिंह (द्वितीय), ८५, ६०, ६२,
६४, ६७.
पोन, ३६, ८८.
प्रचण्ड, ७६.
प्रच्छ कराज, ५२.
१३३.
प्रतापधवलदेव, प्रतिहार ( पडिहार ), १७, २१, २२, २६, ३०, ४०, ४४, ६१, ६२, ८०, १०३, १०६, ११, १२०, १२२, १२४, १४६.
६,६७,
प्रद्युम्न, ७८.
प्रबन्धकोश, १३७, १३६.
प्रबन्धचिन्तामणि, १३६
प्रभावकचरित्र, १५०.
प्रश्नोत्तररखानालिका, ३४, ३५, ३७, ७४, ७७.
प्रहस्त, ४५, १४२-१४४.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
फ
फ़र्सग, ४०.
फीरोज़शाह, १४९.
य
बघेल, २८८.
बङ्केय ( रस ), ७०, ७१, ७४.
वद्दिग, ८३, ८४, ६५, ७.
बद्दिग, ८८.
बदप ( रावल ), १२,
चाय, ६५.
बयूरा, ४०.
बरतु, १४०.
वरदायीमेन ( वरदायी सेन्य ), १८, ४५,
१४२-१४४.
बल नीराज्य, ४१.
वल्दरा, ३८-४१, ५०.
बाउक, २६, ३०, १४६.
बालप्रसाद, ११६, १२०. बालादित्य, २७.
बालु कराय, १४७. बाडदेव, १५३. विरुण, २८.
ܥ܀
बुद्धराज, १२१.
बुद्धवर्ष, १०१.
बुंदेला, ३१.
बैस ( स ) १७, ४४, १२२.
भ
१६१
भद्रा, २६.
भम्मद्द, ९३.
भरत, ६, ७.
भरत, ८६.
भर्तृभट ( प्रथम ), २७.
भर्तृह (द्वितीय), ११६.
www.umaragyanbhandar.com
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६१
घर्णानुक्रमणिका भर्तृव (द्वितीय), १५..
मदनपाल के तांबे के सिके, १२७. भल्लील, १२१.
मदनवर्मदेव, ४३, १३४, १३५, १४५. भविष्य, ४६.
मदालसा चम्पु, ३६, ८.. भागल देवी (भागलाम्बिका ), ११.. मनसा, ३४. भाग्यदेवी, ४६.
मम्मट, ११६, १२.. भाटी, ३०, ३१.
मल्लदेव, १३३, १३६. भाण १४७, ११०.
मल्लिकार्जुन, ११२, ११३, ११५, ११७. भायिदेव ११२.
महण (मथन), ३१, १३१. भास्करमह, ..
महादेवी, ७६. भास्कराचार्य, ८०.
महारट्ट, १. भिल्लम, १५०.
महाराणा, १२, २६, २७, १४८, १५१. भीम, १२.
महाराष्ट्र, १, ४, ५. भीम, ११..
महाराष्ट्रक्ट, ११४. भीम (प्रथम), ७६.
महालक्ष्मी, १११. भीम (द्वितीय), ७६, ७८.
महावीराचार्य, ३५, ३६, ७३. भीम (तृतीय), ८.
महिपल (महोटल), १२४. भीमपाल, ४६.
महीचन्द्र, १६, १२४, १४४, १४५. भुवनपात, २४, ४६.
महीपाल, १७, ८०, ६७. भूतग (द्वितीय), ७३, ८४, ८६, ८८, ६४,
महीपाल, १८, १६. महेन्द्र, ११६, १२..
माणिक (क्य) चन्द्र, २१, ४५, १३९, १४२, भोज, ४३, ८०, १२४, १४५.
१४४. भोज (प्रथम), ८, १७, १०३, १०६.
मादेवी, ११३, ११४. भोज (द्वितीय), ४३, १२४.
मानकीर (मान्यखेट), ३९,४०. भोर, १३६.
माना, ३, ४६. मान्यखेट, ३, ७२, ८६, ६१, १००, ११,
१०७. मा, ३६, १३१.
मामल्लदेवी, १३७. मङ्गलीश, ४१, ५२.
मारसिंह (द्वितीय ), ८५, ६०, १२, १४, मणि, ६. मदनदेव, १२६. मदनपाल, १६, १८, २३, २४, ४३,
माराशर्व, ६६, १६. १२५-२५, १३२, १४४, १४५.
मिन्हाजुद्दीन ( मौलाना ). १५६. मदनपान, २१, २३-२१, ४६.
महिर, १.३, १०६. मदनपाल के चांदी के के, १.६.
| मकुन्ददेव, १५१.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका
१६३ मुज, २६, ११६, १२०.
रणकम्भ (रणस्तम्भ ), ६३. मुज, "०,११५.
रणविग्रह ( शकरगण), ७८. मुरुजलजहब, ३९.
रणावलोक, ६३, ६१, ६५. मूलराज, ८५, ११६, १२..
रगणादेवी, ४८, ६८. मेषचन्द्र, १३६, १४४.
रत्नमालिका, ३४, ३५, ७४. मेरह, १०७, ११५, ११६.
रम्भामंजरी नाटिका, ७, ४३, १३४, १५०. मेरु (महोदय-कन्नौज), १७,८०.
रसिकप्रिया, २७. मेहतुङ्ग, १३६.
राचमल्ल (प्रथम),८८,६७. मैललदेवी, १५..
राजचूडामणि, ६४. मौखरी, १७, ४४, १२२.
| राजतरङ्गिणी, २०. राजराज, .
राजवार्तिक, ३६, १६. यदु (वंश), ११, १२, ३१.
राजशेखरसरि, १३७. यमुना, १२.
राजादित्य (मूवडि चोल), ८४, ८६, १७. यशःपाल, २२, १२२.
राज्यपाल, २०, ४६. यशस्तिलक चम्प, ३६, ८८.
राज्यपालदेव १२६, १३१, १४४. यशोधरचरित, ३६, ८६.
राट, ४. यशोवर्मा, १२२.
राट, २०. यशोविग्रह, १३, १६, १६, १२३, १२४,
राठ, ४. १४४, १४.
राठउड (गठउर), ५. यायव ( यदुवंशी), १०, ११, २०, ३१, ३२,
राठड, १. ७०, ८२, ६२, १४७, १६..
राटवड (राठवर ), ५.
राठी, २. यादव, ३२. युद्धमल्ल, ८१.
राठोड, ५, १२, १४, १८, २०, २१, ३२, युवराजदेव (प्रथम), ८३, ८६, ६०, ६७.
३४, १२१, १२२, १४६.
राणा, ४१. युवराजदेव (द्वितीय), २८:
रामचन्द्र, ६, ७, २९.
रामचरित, ३१, १३१. रह, २-५, ८५, १०५, १०८, ११०, ११२, रामराय (रामसहाय ), १४२.
रायपाल, १४. रखनारायण, १०६.
राष्ट्रकूट, १-१२, १४.१८, २०.२२, २५, रसपाटी, ४३.
२६, २९-३४, ३३-१, २,५६.११, रहराज, १०, ६३.
६१, ६४, ६५, ६८, ०२, ३, ६, ७८, रहराज्य, ४३.
८०,८३,६१-६४,६८-१०४,१०६.१.६, (ठडा,.. रठिक, (रट्रिकनष्ट्रिक), १, २, ६, ७. ११४, ११६, १८, १२१-१२३, १३१.
११४, १२३.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका राष्ट्रकूट, ४.
लेगडेयरस, ८०. राष्ट्रकूट (रह) राज्य, १२, १३, ४१, ७७. | खोल विकि, ८१. ८३,१३,६४.
लोहडदेव, १२९. राष्ट्रवर्य, ४, राष्ट्रश्ना , ३४. राष्ट्रिक (रिस्टिक), १, ५.
वज्रट, ५३, ५४. राष्ट्रौढ (राष्ट्रोढ), ४, ५, १३.
वडपद्रक, १... राष्ट्रौढवंश महाकाव्य, ५, १३, १५. वत्सराज, ४८, ६१-६३, ६६. राहप्प, १८, ६६, .
वत्सराजदेव, १२६. राह (राहण) देवी, १२६, १२८, १२६, वन्दिग (वद्दिग), ८५. रुक्म, ७८.
वपुग, ८५, ६७. ब्द, ..
वराह, ६१. रेडी, ५.
वल्लभ, ४१, ५३, ५४. रेवनिम्मति, ८४, ५.
वहभ, ५६, ६२, १०३. रेवाल, १६.
वल्लभराज, ४१, ५०, १०४. रैणसी, १४८, १५१.
वशिष्ठ, २८, २९. वसन्तदेवी, १३०, १३१.
वसन्तपाल, 18. लदमण, २६.
वसुदेव, ७८. लक्ष्मण, (नदमीधर), ११२.
वस्तुपालचरित, २८. लक्ष्मी, ७८, ७६.
विक्रमायदेवचरित, २८, १३. लक्ष्मीदेव (प्रथम), ११२, ११३, ११५, ११५, |
| विक्रमादित्य, २६. नक्ष्मीदेव (द्वितीय), ११३-११५, ११७.
विक्रमादित्य (द्वितीय), ६.. लक्ष्मीदेवी १११.
विक्रमादित्य (त्रिभुवनमल) (वठा ), २७, लदमीधर ३६, १३१. ..
११०, ११, ११४, ११५. लखनपाल, १५, १६, २१, २३, ४४, १४२. | विग्रहपाल, १६, २४, ४१, १२५, १४४. लघीयस्त्रय, ३६.
विग्रहपाल, १९. लटलूर (पुर), ५, १०, ११०, ११, 11४. विजयकीर्ति, ६७. लटलू (पु) राधीश्वर, ७, ७१.
विजयचन्द्र, ४५, १३१, १३३, १३४, १४४, ललितादित्य ( मुक्पीड ), १२२.
१४५, १४८. लाट, ४, १०, १५, ४५, ५४, ५५, ५८, ६२, विजयपाल, १३४, १४६, १४८. ६६,६७,१८, ६.
विजयादित्य, . लातना, ५, १३, ३४.
विजयादित्य (द्वितीय), ६६, ७२, ६६. लुम्ब, १८.
विजयादित्य (तृतीय !, ७६. लुंभा ( राब), २८.
| विजल, २९, ३.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका विज्ञानेश्वर, २६.
शान्तिवर्मा, १०८, १०६, ११५, ११६. .. विदग्धराज, ११८-१२०.
शिलाहार (शिलार), ४२, ७०, ७२, ८१, विद्याधर, १३६.
&३, ४६. विन्ध्यवासिनी, ३४.
शिवमार, ७५. विमलाचार्य, ७४.
शूरपाल, ४६. विविधविद्याविचारवाचस्पति, १२८, १३१, श्रीकण्ठचरित, १३१. १४१, १४५.
श्रीपत, ८. विष्णुवर्धन (प्रथम), ३, ४१.
श्रीमाली, ३२. विष्णुवर्धन (चतुर्थ ), ६४.
श्रीवल्लभ, ६१, ६२, ६५. विष्णुवर्धन (पंचम), ७६.
श्रीहर्ष, ३६, १३७. वीचण, ११४.
श्रीहर्ष, (सीयक द्वितीय), ६०-६२,६७. वीजाम्बा, ७e. वीरचन्द, १४७, १५०. वीरचोल, ८७.
संयोगिता, १३५, १३८, १४७, ११०-१५२. वीरनारायण, ५२.
संकरगण्ड, ७४, ६६. वीरनारायण, ७..
सत्यवाक्य कोंगुणिवर्म पेरमानडि भूतुग वीसल देव ( विग्रहराज ) (चतुर्थ), २८, १३३, । (द्वितीय), ८४. १४८, १५..
सन्ध्याकरनन्दी, ३१, १३१. वेङ्गि, ६६, ६८.
समरसिंह, २५, १३८, १४८, १५१. व्यवहारकल्पतरु, ३६, १३१.
सलखा, ५.
सहजपाल, १४६.
| सासार्जुन, ८८,७. शङ्करगण, ६४.
सात्यकि, ११, ३२, ८.. शरगण, ७८.
'सात्यकि, ३२. शङ्कराचार्य, ३७, ७४.
सिकन्दर, २, ६.
सिंगन गरुड़, १.६. शङ्खा, ६५.
सिंगर, १२९. शम्साबाद, १४२.
सिंघण, ११४. शम्सुद्दीन अल्तमश, २३, ४४, १४०, १४२. सिद्धान्तशिरोमणि, ८०. शर्व, ३७,५१, ६८.
सिन्द, ११०, ११५. शलुकिक, १.१.
सिन्दराज, ११०.
सिलसिलातुत्तवारीख, ३८. शहाबुद्दीन गोरी, ४४, १३७-१३९, १४१, | सीसोदिया, ३१, ३२.
१४३, १४५, १४७, १४८, १५१, ११२. सीहा (राव), ५, १६, १८, ४४, ४५, शान्तिपुराण, ३६, ८८.
| १४३, १४४, १४६, १५३, १५४.
शल्य, २.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णानुक्रमणिका सुन्दरा, ...
| स्थिरपाल, १६. सुमित्र, ..
स्वामिकराक, ४६, ४७. सु (सौ) राष्ट्र ( सोरठ), ४, ८.. सुलैमान, १८, 18.
हम्मीर, ५. सुहल, २६, १३१.
हम्मीर महाकाव्य, २८, १४६, १११. सुहवादेवी, १३.
हरस, १४२. सेतराम, ४५, १४३, १४४.
हरिराज, १५१. सेन (काल सेन ) (प्रथम), १.1, ., हरिवंशपुराण, ३६, ६१, ६३, ६५, ७१. ११५, ११६.
हरिवर्मा, ११८, १२.. सेन (बालसेन ) (द्वितीय), 149, १९, | हरिश्चन्द्र, १८, ४४, ४५, १३५, १३८, ११७.
१४०-१४५. सोनगरा, ३२.
हरिश्चन्द्र, २६. सोमदेव (सर), ६, ८८.
हर्ष (श्रीहर्ष ), ५३, ५४, १२२. सोमनाथ, १३.
इलायुध, ११,३६, . सोमेश्वर, १४६, १४८-१५..
हलायुध, २६. सोमेश्वर (प्रथम), ११०, ११६. इनायुष, ३६. सोमेश्वर (द्वितीय), ११०, १११, ११७. हसन निजामी, ११८: सोमेश्वर (तृतीय), ११४.
हाडा, ११. सोमेश्वर (चतुर्थ), ११२.
हरीतराशि, २७. सोखष्टी (चालुक्य ), ८, ९, ११, २०, २१, | हारीति, २८.
२५, २७, २८, ४१, ४५, ५०, ५१, होर, १३५. ५३-५५, १५, १२, १३, १८, १.१, हलीकेश, १४१. १०७.११९, ११४, ११६, ११७, ११६, १२., १५१, १५४.
| हेमराज, ३१. सौन्दरानन्द महाकाव्य, ३..
हेमवती, ३१. स्कन्दगुप्त, ४, १२३.
हेहय (कलचुरि), २८, २९, ३१, ७६, ७८, स्तम्म (शौच खम्भ-रणावलोक ), ६३, ६६, ५,६,८५, ८८, २३, ६७, ११२,
११४, १२४, १४५, १४६.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धिपत्र
शुद्ध
पंक्ति अशुद्ध १३ थे २८ मारहव
AD
प्रार
३२
४४
४ मानदपुर
.. आनंदपुर २६ प्रवणीते
.. प्रवृणीते ५ तीन ताम्रपत्रो में
तीन ताम्रपत्रों में, और उसकी
रानी कुमारदेवी के लेख में ७ पत्रवंशद्धयं .. .. क्षत्रवंशद्वयं २१ लिखा है। ..
.. लिखा है । (भा॰ २, पृ. ५०७) २. सम्यक .. __.. सम्यक् २७ विन्सैगटस्मिय .. विन्सैराटस्मिथ २६ गांव दान दिया था। .. गांव दान दिया था। (ऐपिग्राफिया
फरार्णाटिका, मरणेग्रांट, नं० ६१,
पृ.५१) २४ (ऐपिग्राफिया कर्णाटिका, (इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२,
मगणेग्रांट, नं० ६१, पृ. ५१) पृ. १५८) २५ (इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, भा० १२,
पृ. १५८) ७ गोविन्दराज द्वितीय .. ध्रुवराज ३ कानाडी .. .. कनाडी २१ अमोघवर्ष चतुर्थ
प्रमोथवर्ष तृतीय २२ शयाद
शायद २ यदुववंशी ..
यदुवंशी ८- १. गोविन्दराज तृतीय १. गोविन्दराज तृतीय
(जगा प्रथम) (अगत्तुङ्ग प्रथम)
Vuod
xe
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
पृष्ठ
१०३
१०३
१०३
११२
पंक्ति अशुद्ध
.. ध्रवराज
११
ध्रुवराज
१४ राष्ष्ट्रकूट
& वत्तमान
१८ सोमेश्वर
११४
११५ पृष्ठ का हैडिंग
११६
१७
११७
१ ( उपाधि )
११७
१२६
१४४
(घाखड) (राष्टकूट )
(त्रलोक्यमल्ल)
X
८ तलप
१० मनदेव
६
बदायूं
शुद्धिपत्र
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
...
..
..
..:
शुद्ध
ध्रुवराज
ध्रुवराज
राष्ट्रकूट
वर्तमान
सोमेश्वर
(धारवाड ) ( राष्ट्रकूट)
(त्रैलोक्य मल्ल)
महासामन्त
तैलप
मदनदेव
बदायूं ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
६२
शुद्धिपत्र (II) पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध २२ ४३ .. ... १५
फुटनोट:- परन्तु कुछ लोग लटलूरपुर को
दक्षिण का लाटूर मानते हैं। २१ वे सब .. ." उनमें से अधिकांश २२ पहले पहल .."
फुटनोट:- सीहाजी के स्थान छोड़ने का
कारण शायद शम्सुद्दीन अल्तमश का, जो उस समय बदायूं का शासक
था, दबाव ही होगा।
(कॉनॉलॉजी ऑफ इण्डिया, पृ. १७६) १८ ८ वीं .. ..' वीं १९ नवीं .. .. दसवीं १६ पूर्व में प्रवन्ति के राजा पूर्व में अवन्ति-राज का, पश्चिम
वत्सराज का, और पश्चिम में में वत्सराज का, और सोरमंडल वराह
(गुजरात) में वराह (जयवराह) १७ उत्तर
.. .. पश्चिम ५ कंठिका... 'शासक .. युवराज १३ (कोइम्बटूर ) २५ फुटनोट (२)
(२) ऐपिग्राफिया इण्डिका,
भा• १८, पृ. २४३-२५१. २७ (अमुद्रित) १२ अमुद्रित ... १२ तीन ..
चार २२ और तीसरा ..
तीसरा श• सं. ७४३ (वि. सं. ८७८ = ई. सं. ८२१) का है। (ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा• २१,
पृ. १४०-१४६) और चौथा १६ ७३८ और ७४६ .. ७३८, ७४३ और ७४६ १. पड़िहार (प्रतिहार) .. परमार १५ प्रतिहार ...
परमार २८ (जगङ्ग प्रथम)
(जगतुङ्ग प्रथम) फुटनोट:- सौहाजी के स्थान छोड़ने का
कारण शायद शम्सुद्दीन अल्तमश का, जो उस समय बदायूं का शासक
था, दबाव ही होगा। (क्रॉनॉलॉजी ऑफ इगिडया, पृ. १७६)
: ::
:: ::
xx
१०.
4
११६
.
१
१४२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________ - 0 પી«vએ. प्रशिष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com