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राष्ट्रकूटों का इतिहास पिछले राष्ट्रकूटों की कुलदेवी लातना (लाटना), राष्ट्रश्येना, मनसा, या विन्ध्यवासिनी के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं कि, इनकी कुलदेवी ने "श्येन" ( वाज) का रूप धारणकर इनके "राष्ट्र" (राज्य) की रक्षा की थी; इसी से उसका नाम "राष्ट्रश्येना" हुआ । मारवाड़ के राठोड़ राजघराने के "निशान" में इसी घटनाके स्मारक श्येन (बाज ) की आकृति बनी रहती है। ___ उपर्युक्त विवरण से प्रकट होता है कि, इस वंश के राजा यथा समय शैव, वैष्णव, और शाक्त मतों के अनुयायी रहे थे । जैनों के 'उत्तरपुराण' में लिखा है:
“यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजरजः पिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं
स श्रीमाजिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ॥" अर्थात्-राजा अमोघवर्ष जिनसेन नामक जैन साधु को प्रणाम कर अपने को धन्य मानता था ।
इससे प्रकट होता है कि, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (प्रथम) जिनसेन का शिष्य था । अमोघवर्ष की बनाई 'रत्नमालिका' (प्रश्नोत्तररत्नमालिका ) नामक पुस्तक में लिखा है:
"प्रणिपत्य वर्धमान प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वक्ष्ये । नागनरामरवन्ध देवं देवाधिपं वीरम् ॥
विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेय रत्नमालिका ।
रचिताऽमोघवर्षेण सुधियां सदलतिः ॥ (१) 'एकलिङ्गमहात्म्य' के ग्यारहवें अध्याय में लिखा है:
"स्ववेदादाष्ट्रश्येनां तां सृष्ट्वा स्थाप्याथ तत्र सा ॥ १५ ॥
श्येनारूपं सम्यगास्थाय देवी राष्ट्र वाहि त्राह्यतो वज्रहस्ता ॥ १६ ॥
दुष्टपहेभ्योन्यतमेभ्य एवं श्येनेत्राण मेदपाटस्य कार्यम् ॥ १७ ॥
राष्टश्येनेति नाम्नीयं मेदपाटस्य रक्षणम् ।
रोति न च भगोस्य यवनेभ्यो मनागपि ॥ २२ ॥" इससे प्रकट होता है कि, इसी राष्ट्रश्येना ने मेवाड़ की भी रक्षा की थी। इसका मन्दिर मेवार में, एकलिन महादेव के मन्दिर से १३ कोस के करीब, एक पहाड़ी प बना है।
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