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राष्ट्रकूटों का धर्म राष्ट्रकूट राजाओं के मिले सब से पहले, अभिमन्यु के, ताम्रपत्र की मुहर में अम्बिका के वाहन सिंह की आकृति बनी है; दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग द्वितीय ) के, श० स० ६७५ (वि० सं० ८१०= ई० स० ७५३ ) के, दानपत्र में शिव की मूर्ति है; कृष्णराज प्रथम के सिक्कों पर “परममाहेश्वर" उपाधि लिखी है; और उसी ( कृष्णराज ) के, श० सं० ६१० (वि० सं० ८२५ ई० स० ७६८ ) के, लेख में शिवलिंग बना है। परंतु इस वंश के पिछले ताम्रपत्रों पर किसी में गरुड़ की, और किसी में शिव की आकृति बनी है।
राष्ट्रकूटों की ध्वजा का नाम "पालिध्वजे" था, और ये लोग "ओककेतु" भी कहाते थे। इनके “निशान" में गङ्गा और यमुना के चिह्न बने थे। सम्भवतः ये चिह्न इन्होंने बादामी के पश्चिमी चालुक्यों के निशान" से ही नकल किये होगें।
(१) "पालिध्वज" के विषय में जिनसेन रचित 'आदिपुराण' के २२ वें पर्व में लिखा है:
"अग्वस्त्रसहसानाब्जहंसवीनमृगाशिनाम् । वृषभेमेन्द्रचक्राणां ध्वजाः स्युर्दशभेदकाः । २१४ । अष्टोत्तरशतं ज्ञेयाः प्रत्येकं पालिकेतनाः ।
एकेकस्यां दिशि प्रोचेस्तरंगास्तोयधेरिव ॥ २२० ॥" अर्थात्-(१) माला, (२) वस्त्र, (२) मयूर, (४) कमल, (५) हम, (६) गरुड़, (७) सिंह, (८) बैल, (९) हाथी, और (१०) चक्र के चिह्नों से ध्वजामों के दस भेद होते हैं। इनमें से हर तरह की एक सौ पाठ ध्वजाओं के प्रत्येक दिशा में लगाने से (अर्थात्-प्रत्येक दिशा में कुल मिलाकर १०८०, और चारों दिशामों में कुल मिलाकर ४३२. ध्वजारों के लगाने से ) "पालिकेतन' (पालिध्वज ) बनता है।
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