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राष्ट्रकूट और गाहड़वाल
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इस ( गाहडवाल ) नाम का प्रयोग युवराज गोविन्दचन्द्र के, वि० सं० ११६१, ११६२, और ११६३, के केवल तीन दानपत्रों में मिलता है ।
इन सब बातों का सारांश यही निकलता है कि, कन्नौज पर पहले भी राष्ट्रकूटों का राज्य था । उसके बाद वहां पर यथा समय गुप्त, बैस, मौखरी, और प्रेतिहारों का राज्य रहा । परन्तु दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा इन्द्रराज तृतीय के दानपत्र से ज्ञात होता है कि, उसने, अपनी उत्तरी भारत की चढ़ाई के समय, उपेन्द्र को विजय कर, मेरु (कन्नौज) को उजाड़ दिया था । सम्भवतः उस समय वहाँ पर प्रतिहार महीपाल का राज्य था । इस चढाई के बाद ही प्रतिहारों का राज्य शिथिल पड़ गया, और उनके सामन्त स्वतंत्र होने लेंगे । इसीसे मौका पाकर, वि० सं० ११११ ( ई० स० १०५४) के करीब; राष्ट्रकूट वंशी चन्द्र ने पहले बदायूं पर कब्जा कर, अन्त में कन्नौज पर भी अधि "वंशे गाइड वाला ख्ये बभूव विजयी नृपः । "
( 1 )
(२) बाट (गुजरात) के राष्ट्रकूट राजा ध्रुवराज द्वितीय ने वि० सं० ६२४ ( ई० स० ८६७) में, कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव को हराया था । सम्भवतः इसी भोजदेव के दादा नागभट द्वितीय ने ( राष्ट्रकूट इन्द्रायुध के उत्तराधिकारी ) चक्रायुध से कन्नौज का राज्य छीना था ।
( 1 )
( राजपूताने का इतिहास, आ. १, पृ० १६१, टि. १ ) "कृत गोवर्धनोद्धारं हेलोन्मूलित मेरुणा । उपेन्द्रमिन्दराजेन जिल्ला येन न विस्मितम् "
( जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ० २६१ ) यही बात गोविन्दराज चतुर्थ के, श० सं० ८५२ के, ताम्रपत्र से भी सिद्ध होती है । उसमें लिखा है कि, इन्द्रराज तृतीय ने अपने सवारों के साथ, यमुना
को पार
,
कर, कन्नौज को उजाड़ दिया था :
"तीर्णा यत्तुरगैरगाधयमुना सिन्धुप्रतिस्पर्द्धिनी
येनेदं हि महोदया रिनगरं निर्मूलमुन्मूलितम् ।"
(४) इससे पहले, वि० सं० ८४२ भौर ८५० ( ई० स० ७८५ औौर ७६३) के बीच, राष्ट्रकूट ध्रुवराज का राज्य उत्तर में अयोध्या तक फैल गया था। इसके बाद, वि० सं० ε३२ और ६७१ ( ई० स० ८०५ और ६१४ ) के बीच, राष्ट्रकूट कृष्णराज द्वितीय के सयम उसके राज्य की सीमा गङ्गा के किनारे तक जा पहुची थी; औौर वि० सं० ६६७ और १०२३ ( ई० स० 8४० और 8६६ ) के बीच राष्ट्रकूट कृष्णराज तृतीय के समय उसके राज्य की सीमा ने गङ्गा को पार कर लिया था ।
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