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राष्ट्रकूटों का वंश सबसे पहला दानपत्र, जिसमें इन्हें यदुवंशी लिखा है, श० सं० ७८२ (वि० सं० ११७) का है। इससे पहले की प्रशस्तियों में इन राजाओं के सूर्य या चन्द्रवंशी होने का उल्लेख नहीं है।
इन्हीं ८ दानपत्रों में के श० सं० ८३६ के दानपत्र में यह भी लिखा है:
"तत्रान्वये विततसात्यकिवंशजन्मा
श्रीवन्तिदुर्गनृपतिः पुरुषोत्तमोऽभूत् ।” अर्थात्-उस (यदु) वंश में सात्यकि के कुल में (राष्ट्रकूट) दन्तिदुर्ग
हुओं।
परन्तु धमोरी (अमरावती) से, राष्ट्रकूट कृष्णराज (प्रथम) के, करीब १८०० चांदी के सिक्के मिले हैं । इन पर एक तरफ़ राजा का मुख और दूसरी तरफ़ “परममाहेश्वरमहादित्यपादानुध्यांतश्रीकृष्णराज" लिखा है । यह कृष्णराज वि० सं० ८२६ (ई० स० ७७२) में विद्यमान था। इससे प्रकट होता है कि, उस समय तक राष्ट्रकूट नरेश सूर्यवंशी और शैव समझे जाते थे।
राष्ट्रकूट गोविन्दराज (तृतीय) का, श० सं० ७३० (वि० सं० ८६५ ई० स० ८०८) का, एक दानपत्र राधनपुर से मिला है । उस में लिखा है:- .
"यस्मिन्सर्वगुणाश्रये तितिपतौ श्रीराष्ट्रकूटान्वयोजाते यादववंशवन्मधुरिपावासीदलंध्यः परैः।"
(१) हलायुध ने भी अपने बनाये ‘कविरहस्य' में राष्ट्रकूटों का यादव सात्यकि के वंश
में होना लिखा है । कृष्ण तृतीय के, श० सं० ८६२ के, ताम्रपत्र में भी ऐसा ही
उल्लेख है:- "तद्वंशजा जगति सात्यकिवर्गभाज" (२) गोविन्दचन्द्र के वि० सं० ११७४ के दानपत्र में गाहडवाल नरेशों के नाम के साथ भी
- "परममाहेश्वर" उपाधि लगी मिलती है। (३) “पादानुध्यात" शब्द के पूर्व का नाम, उस शब्द के पीछे दिये नाम पाले
पुरुष के, पिता का नाम समझा जाता है । परन्तु “महादित्य" न तो कृष्णराज के पिता का नाम ही था न उपाधि ही । ऐसी हालत में इस शब्द से इस वंश के मूलपुरुष का तात्पर्य लेना कुछ भनुचित न होगा।
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