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राष्ट्रकूटों का इतिहास
अमोघवर्ष का राज्य था, और इसका महासामन्त ( कपर्दिपाद का उत्तराधिकारी ) शक्ति सारे कोंकण प्रदेश का शासक था । यह पुनशक्ति उत्तरी कोंकण के शिलाहार वंश का था ।
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दूसरा, महासामन्त पुल्लशक्ति के उत्तराधिकारी कपर्दि द्वितीय का, श. सं. ७७५ (वि. सं. ११० = ई. स. ८५३ ) का लेख है। यह पूर्वोक्त कन्हेरी की एक दूसरी गुफा में लगा है । विद्वान् लोग इसे वास्तव में श. सं. ७७३ (वि. सं. १०८ई. स. ८५१ ) का अनुमान करते हैं। इससे पुल्लशक्ति का बौद्धमतानुयायी होना सिद्ध होता है ।
तीसरा, स्वयं अमोघवर्ष का, कोनूर से मिला, श. सं. ७८२ (वि. सं. ११७ = ई. स. ८६० ) का लेखे है। इसमें उसके जैन देवेन्द्र को दिये दान का उल्लेख है । यह दान अमोघवर्ष ने अपनी राजधानी मान्यखेट में दिया था । इस दानपत्र में राष्ट्रकूटों को यदुवंशी लिखा है, और इसीमें अमोघवर्ष की एक नयी उपाधि “वीरनारायण " भी लिखी है। इस लेख से ज्ञात होता है कि, अमोघवर्ष जैन धर्म से भी अनुराग रखता था, और इसने वंकेय के बनवाये, जिन-मन्दिर के लिए ३० गावों में भूमि दान दी थी ।
( १ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा. १३, पृ. १३४
( २ ) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. ६, पृ. २६
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(३) यह मुकुलवंशी बँकेय, अमोघवर्ष की तरफ से, बनवासी आदि तीस हजार गाँवों का अधिकारी था, और इसने उसकी प्राज्ञा से गंगवाडी की वटाटवी पर चढ़ायी की थी। यद्यपि उस समय अन्य सामन्तों ने इसे सहायता देने से इन्कार कर दिया था, तथापि इसने जाकर ( कडव के उत्तर-पश्चिमस्थित ) केडल दुर्गपर अधिकार कर लिया; और वहां से भागे बढ तलवन ( कावेरी के वामपार्श्व के तलकाड ) के राजा को हराया । इसके बाद जिस समय इसने कावेरी को पारकर, समपद देश पर आक्रमण किया, उस समय अमोघवर्ष का पुत्र बाग़ी होगया, और बहुत से सामन्त भी उससे जा मिले। परन्तु वंकेय के लौटने पर राजपुत्र को भागना पड़ा, और उसके साथी मारे गये। इसी सेवा से प्रसन्न होकर अमोघवर्ष ने उसके बनाये जैन मन्दिर के लिए उक भूमि दान की थी। यद्यपि इस ताम्रपत्र में अमोघवर्ष के पुत्र के बाग़ी होने का उल्लेख है, तथापि श. सं. ७६३ के, संजान के ( प्रमुद्रित ), ताम्रपत्र में " पुत्रश्चास्माकमेक: " ( श्लोक ३६) लिखा होने से इसके केवल एक पुत्र होने का ही पता चलता है । ( उसे इसने अपने जीतेजीही राज्य का अधिकार सौंप दिया था । )
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