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मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
[वि. सं. ६५० ( ई. स. ५६३ ) के पूर्व से वि. सं. १०३६ ( ई. स. १८२ ) के करीब तक ] सोलंकियों ( चालुक्यों ) के येवूर से मिले एक लेख में और मिरज से मिले एक ताम्रपत्र में लिखा है:
"यो राष्ट्रकूटकुलमिन्द्र इति प्रसिद्ध कृष्णाह्वयस्य सुतमष्टशतेभसैन्यम् । निर्जित्य दग्धनृपपंचशतो बभार भूयश्चलुक्यकुलवल्लभराजलदमीम् ॥ + +
+ तद्भवो विक्रमादित्यः कीर्तिवर्मा तदात्मजः ।
येन चालुक्यराज्यश्रीरंतराविण्यभूद्भुवि ॥ अर्थात्-उस ( सोलंकी जयसिंह ) ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण के पुत्र, और आठसौ हाथियों की सेनावाले, इन्द्र को जीतकर फिर से वल्लभराज (सोलंकी वंश) की राज्य-लक्ष्मी को धारण किया ।
( यहां पर प्रयुक्त किये गये "वल्लभराज" पद से प्रकट होता है कि, पहले इस उपाधि का प्रयोग सोलंकियों के लिए होता था । परन्तु बाद में उनको जीतनेवाले राष्ट्रकूटों ने भी इसे धारण करलिया । इसी से अरब लेखकों ने अपनी पुस्तकों में राष्ट्रकूटों के लिए "बल्हरा" शब्द का प्रयोग किया है । यह "वल्लभराज" का ही बिगड़ा हुआ रूप है।)
परन्तु विक्रमादित्य के पुत्र कीर्तिवर्मा ( द्वितीय ) से ( जो उपर्युक जयसिंह से ११ वी पीढी में था ) इस ( सोलंकी) वंश की राज्य लक्ष्मी फिर चली गयी !
(1) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा. ८, पृ. १२-१४
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