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मान्यखेट (दक्षिण) के राप्रफ्ट इन श्लोकों पर विचार करने से प्रकट होता है कि, सोलंकी जयसिंह के दक्षिण विजय करने से पहले वहां पर राष्ट्रकूटों का राज्य था, और विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में उसपर सोलंकी जयसिंह ने अधिकार करलिया। परन्तु वि. सं. ८०५ और ८१० (ई. स. ७४७ और ७५३) के बीच राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग द्वितीयने सोलंकी नरेश कीर्तिवर्मा द्वितीय से उसके राज्य का बहुतसा भाग वापिस छीनलिया।
लेखों, ताम्रपत्रों, और संस्कृत पुस्तकों में इस दन्तिदुर्ग द्वितीय के वंश का इतिहास इस प्रकार मिलता है:
१ दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग) प्रथम यह राजा पूर्वोल्लिखित कृष्ण के पुत्र इन्द्र का वंशज था । इस शाखा के राष्ट्रकूटों की प्रशस्तियों में सबसे पहला नाम यही मिलता है । ___दशावतार के लेख में इस को वर्णाश्रमधर्म का संरक्षक, दयालु, सज्जन, और स्वाधीन नरेश लिखा है। सम्भवतः इसका समय विक्रम संवत् ६५० (ई. स. ५१३) के पूर्व था।
२ इन्द्रराज प्रथम यह दन्तिवर्मा का पुत्र और उत्तराधिकारी था। इसका, और इसके पिता का नाम इलोरा की गुफाओं में के दशावतार वाले मन्दिर के लेख से लिया गया है । उसमें दन्तिदुर्ग ( द्वितीय ) के बाद महाराज शर्व का नाम लिखा है । इस शाखा के राष्ट्रकूटों की अन्य प्रशस्तियों में दन्तिवर्मा प्रथम, और इन्द्रराज प्रथम के नाम नहीं हैं । उनमें गोविंद प्रथम से ही वंशावली प्रारम्भ होती है। (1) पाकियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट, वैस्टर्न इण्डिया, भा० ५, पृ. ८५; और केवटेम्पल्स
इन्सक्रिपशन्स. पृ० ६२ (२) यहां पर "शर्व" से किस राजा का तात्पर्य है, यह स्पष्ट तौर से नहीं कहा जासकता।
कुछ लोग इसे दन्तिदुर्ग का भाई अनुमान करते हैं, और कुछ इसे प्रमोघवर्ष का ही उपनाम मानते हैं । उपर्युक्त लेख से ज्ञात होता है कि, शर्वने, अपनी सेना के साथ माकर, इस मन्दिर में निवास किया था। सम्भव है दन्तिदुर्ग की ही उपाधि या इसस नाम शर्व हो ।
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