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राष्ट्रकूटों का इतिहास कर्कराज के, श. सं. ७३४, ७३८, और ७४६, के ताम्रपत्रों, और उसके छोटे भाई गोविन्दराज के श. सं. ७३५, और ७४६ के ताम्रपत्रों को देखने से अनुमान होता है कि, इन दोनों भाइयों ने एक ही समय साथ साथ अधिकार का उपभोग किया था।
४ ध्रुवराज प्रथम यह कर्कराज का पुत्र था, और अपने चचा गोविन्दराज के पीछे राज्य का स्वामी हुआ । कर्कराज के इतिहास में, जिस श. सं. ७५७ ( वि. सं. ८९२ ई. स. ८३५ ) के ताम्रपत्रं का उल्लेख किया गया है, वह इसी का है। उसमें इसकी उपाधियाँ महासामन्ताधिपति, धारावर्ष, और निरुपम लिखी हैं।
बेगुम्रा से मिले, श. सं. ७८९ (वि. सं. १२४ ई. स. ८६७ ) के, ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, इसने अमोघवर्ष प्रथम के विरुद्ध बगावत की थी; इसी से उसे इस पर चढायी करनी पड़ी । शायद इसी युद्ध में यह (ध्रुवराज प्रथम ) मारा गया था।
(1) कुछ लोगों का अनुमान है कि, श. सं. ७३६ (वि. सं. ८६६ ई. स. ८१२ ) में
दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय के मरने पर, जब उसके सामन्तों ने बाबत की, तब कर्कराज, अपने भाई गोविन्दराज को लाटराज्य का प्रबन्ध सौंप, अमोघवर्ष प्रथम की सहायता को गया था। इसीसे बड़े भाई कर्कराज की अनुपस्थिति में गोविन्दराज ने वहां का प्रबन्ध स्वतंत्र शासक की तरह किया हो। यह भी सम्भव है कि, गोविन्दराज का इरादा बड़े भाई के जीतेजी ही उसके राज्य को दवा लेने का होगया हो । परन्तु अन्त में प्रमोघवर्ष की सहायता से वर्कराज ने उस पर फिर से अधिकार कालिया हो । परन्तु उक्त संवत् केलेख की पांचवीं, छठी, और सातवीं पंकियों से दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा गोविन्दराज तृतीय का उस समय विद्यमान होना पाया जाता है
(२) इण्डियन ऐण्टिक्केरी, भाग १४, पृ० १६६
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