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राष्ट्रकूटों का इतिहास
श्रीयुत सन्याल ने अपने इस मत के समर्थन में सोलंकी त्रिलोचनपाल के, सूरत से मिले, श० सं० ६७२ (वि० सं० १९०७ = ई० स० १०५०) के, ताम्रपत्र से यह श्लोक उद्धृत किया है:
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" कान्यकुब्जे महाराज ! राष्ट्रकूटस्य कन्यकाम्
लब्ध्वा सुखाय तस्यां त्वं चालुक्याप्नुहि संततिम् ॥”
इससे, पूर्व काल में किसी समय कन्नौज पर राष्ट्रकूटों का राज्य होना पाया जाता है । परन्तु मि० सन्याल इस शाखा को, और सेट माहेठ से मिले लेख वाली शाखा को एक मान कर अपने पहले लिखे अनुमान की पुष्टि करते हैं। आगे उनके मत पर विचार किया जाता है :
प्रतिहार त्रिलोचनपाल के, वि. सं. १०८४ ( ई. स. १०२७) के, ताम्रपत्रसे और यशः पाल के, वि. सं. १०१३ ( ई. स. १०३६ ) के, लेख से सिद्ध होता है कि, सम्भवतः वि. स. १०९३ ( ई. स. १०३६ ) के बाद भी कन्नौज पर प्रतिहार नरेशों का राज्य रहा था । गाहड़वाल नरेश चन्द्र के वि. सं. ११४८ ( ई. स. १०९१ ) के ताम्रपत्र में लिखा है:
"तीर्थानि काशिकुशिकोत्तरकोशलेन्द्रस्थानीयकानि परिपालयताभिगम्य । हेमात्मतुल्यमनिशं ददता द्विजेभ्यो येनाङ्किता वसुमती शतशस्तुलाभिः ॥"
इस श्लोक में, चन्द्र के काशी, कुशिक, और उत्तर- कोसल पर के अधिकार का उल्लेखकर, उसके किये सुवर्ण के अनेक तुलादानों का वर्णन दिया है । इससे ज्ञात होता है कि, चन्द्र को उन प्रदेशों के जीतने में अवश्य ही कुछ वर्ष लगे होंगे, और इसी से उसने इस ताम्रपत्र के लिखे जाने के बहुत पूर्व ही कन्नौज पर अधिकार करलिया होगा ।
( १ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० १२, पृ० २०१
( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० १८, पृ. ३४
( ३ ) जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, भा. ५, पृ. ७३१
( ४ ) ऐपिया फिया इविङका, भा. ६, पृ. ३०४
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