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राष्ट्रकूटों का इतिहास
गोविंद चतुर्थ के समय के दो लेय, और दो ताम्रपत्र मिले हैं । इन में का पहला श. सं. ८४० (वि. सं. १७५ = ई. स. ११८ ) का लेख डण्डपुर ( धारवाड जिले ) से मिला है, और दूसरा श. सं. ८५९ (वि. सं. १८७ ई. स. १३० ) का है ।
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इसके ताम्रपत्रों में से पहला श. सं. ८५२ (वि. सं. १८७ = ई. स. १३० ) है । इसमें इसको महाराजाधिराज इन्द्रराज तृतीय का उत्तराधिकारी, और यदुवंशी लिखा है। दूसरा श. सं. ८५५ (वि. सं. १६० = ई. स. १३३ ) का है । यह सांगली से मिला है। इसमें भी पहले ताम्रपत्र के समान ही इसके वंश आदिका उल्लेख है ।
ओली (बरधा ) के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि, यह राजा ( गोविन्द चतुर्थ), अधिक विषयासक्त होने के कारण, शीघ्रही मरगया था । इसका राज्यारोहण-काल वि. सं. १७४ ( ई. स. ११७ ) के निकट था ।
( १ ) इण्डियन ऐरिकेरी, भा० १२, पृ० २२३
( २ ) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२, १०२११ ( नं० ४८ )
( ३ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ७, पृ० ३६
(४) इण्डियन ऐगिटक्केरी, भा० १२, पृ० २४६
(५) सांगली से मिले, श० सं० ८५५ ( वि० सं० २६० = ई० स० ४३३ ) के ताम्रपत्र में लिखा है:
"सामर्थ्य सति निन्दिता प्रविहिता नैवाग्रजे करता बंधु स्त्रीगमनादिभिः कुचरितैरावर्जितं नायशः । शौचाशौचपराङ्मुखं न च भिया पेशाच्यमङ्गीकृतं त्यागेनास मसाहसैव भुवने यः साहसाकोऽभवत्" |
अर्थात् गोविन्दराज ने अपने बड़े भाई के साथ बुरायी नहीं की; कुटम्ब की स्त्रियों के साथ व्यभिचार नहीं किया; और किसी पर भी किसी प्रकार की क्रूरता नहीं की । यह केवल अपने त्याग और साहस से ही साहसा के नाम से प्रसिद्ध हुआ था ।
इससे अनुमान होता है कि, शायद इसके जीतजी इसके विरोधियोंने इस पर ये दोष लगाये होंगे, और उन्हीं के खण्डन के लिए इसे, अपने ताम्रपत्र में ये बातें लिखवानी पड़ी होंगी ।
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