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राष्ट्रकूटों का इतिहास शाखा के मूल-पुरुष का नाम भी नागभट (नाहड ) था । चौहान राजा भर्तृवढ द्वितीय के हांसोट से मिले, वि. सं. ८१३ के, दानपत्र से इस नाहड का विक्रम की नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विद्यमान होना पाया जाता है । इसी प्रकार कनौज पर पहले-पहल अधिकार करनेवाला नागभट ( नाहड ) द्वितीय इस नाहड से पाँचवाँ राजा था । 'प्रभावकचरित्र' के अनुसार उसका स्वर्गवास वि. सं. ८६० में हुआ था । इनके अतिरिक्त चौथे किसी नाहड का पता नहीं चलता है। ___ हम पहले वि. सं. १२१७ के करीब पृथ्वीराज का जन्म होना लिख चुके हैं । ऐसी हालत में अनंगपाल का वि. सं. ११३८ में पृथ्वीराज को देहली का अधिकार सौंपना भी कपोल-कल्पना ही है ।
इसी प्रकार पृथ्वीराज का देवगिरि के यादव राजा भाण की कन्या को हरण करना, और इससे जयचन्द्र की सेना का पृथ्वीराज की सेना से युद्ध होना भी असंगत ही है; क्योंकि देवगिरि नाम के नगर का बसाने वाला यादव राजा भाण न होकर भिल्लम था। इसका समय वि. सं. १२४४ (ई. स. ११८७ ) के करीब माना गया है । इसके अलावा न तो भिल्लम के इतिहास में ही कहीं उक्त घटना का उल्लेख है, और न देवगिरि के यादव-वंश में ही किसी भाण नामके राजा का पता चलता है। जयचन्द्र के भतीजे वीरचन्द का नाम भी केवल 'रासो' में ही मिलता है।
पहले लिखा जाचुका है कि, पृथ्वीराज के.पिता (सोमेश्वर ) से पहले के तीसरे राजा विग्रहराज चतुर्थ ने देहली पर अधिकार करलिया था। ऐसी हालत में तँवर अनंगपाल का, देहली की प्रजा की शिकायत पर, पृथ्वीराज को दिया हुआ अपना राज्य वापस लेने की चेष्टा करना भी ठीक प्रतीत नहीं होता।
रही जयचन्द्र के "राजसूय यज्ञ" और संयोगिता के " स्वयंवर" की बात; सो यदि वास्तव में ही जयच्चन्द्र ने “राजसूय यज्ञ" किया होता तो उसकी प्रशस्तियों में या नयचन्द्रसूरि की बनायी 'रम्भामञ्जरी नाटिका' में; जिसका नायक स्वयं जयचन्द्र था, इसका उल्लेख अवश्य मिलता । जयश्चन्द्र के समय
(१) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. १२, पृ. १६५
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