________________
१५४
राष्ट्रकूटों का इतिहास चौहान आह्नणदेव भी था । वि. सं. १२०९ के किराडू के लेख से ज्ञात होता है कि, इस आलणदेव ने कुमारपाल की कृपा से ही किराडू, राडधड़ा, और शिव का राज्य प्राप्त किया था । वि. सं. १२३० के करीब कुमारपाल की मृत्यु होने पर उसका भतीजा अजयपाल राज्य का स्वामी हुआ । उसीके समय से सोलड़ियों का प्रताप-सूर्य अस्ताचल-गामी होने लगा था, और इसीसे मीणा, मेर आदि लुटेरी कौमों को पाली जैसे समृद्धिशाली नगर को लूटने का मौका मिला था । चौहान चाचिगदेव के वि. सं. १३१९ के, सैंधा से मिले, लेख में लिखा है कि, (उपर्युक्त) चौहान आह्लणदेव का प्रपौत्र ( चाचिगदेव का पिता) उदयसिंह नाडोल, जालोर, मंडोर, बाहडमेर, सूराचन्द, राडधडा, खेड, रामसीन, भीनमाल, रत्नपुर, और सांचोर का अधिपति था । इसी लेख में उसे (उदयसिंह को) गुजरात के राजाओं से अजेय लिखा है। उसके वि. सं. १२६२ से १३०६ तक के ४ लेख मीनमाल से मिले हैं । इससे अनुमान होता है कि, इसी समय के बीच किसी समय यह चौहान-सामन्त, गुजरात के सोलदियों की अधीनता से निकल, स्वतन्त्र हो गया था। यहां पर उपर्युक्त नगरों की भौगोलिक स्थिति को देखने से यह भी अनुमान होता है कि, उस समय पाली नगर भी, सोलड़ियों के हाथ से निकल कर, चौहानों के अधिकार में चला गया था । इसलिए राव सीहाजी के मारवाड़ में आने के समय उक्त नगर पर पल्लीवालों का राज्य न होकर सोलकियों का या चौहानों का राज्य था । ऐसी अवस्था में सीहाजी को पाली पर अधिकार करने के लिए. निर्बल, शरणागत, और व्यापार करने वाले पल्लीवाल ब्राह्मणों को मारने की कौनसी आवश्यकता थी !
इसके अतिरिक्त जब लुटेरों से बचने में असमर्थ होकर स्वयं पल्लीवाल ब्राह्मणों ने ही सीहाजी से रक्षा की प्रार्थना की थी, और बादमें उनके पराक्रम को देखकर उन्हें अपना भावी रक्षक भी नियत कर लिया था, तब वे किसी अवस्था में भी उनको नाराज करने का साहस नहीं कर सकते थे। ऐसी हालत में सीहाजी अपने आपही पाली के शासक बन चुके थे । इसलिए उनका वास्तविक जाम, पल्लीवालों की रक्षा कर, अपने अधिकृत प्रदेश में व्यापार की वृद्धि करने में ही था, न कि कर्नल टॉड के लिखे अनुसार पल्लीवालों को मार कर देश को उजाड़ देने में । (1) ऐन्युमल रिपोर्ट गॉफ दि माफियालॉजिकल डिपार्टमेन्ट, सोधपुर गवर्नमेन्ट, मा० ४,
(१९२३.१९३०) पृ. और भारत के प्राचीन गमवंश, भाग १, पृ. २६५ (२) ऐपिप्राफिया इविका, मा० ११, पृ... (३) ऐपिमाफिया इण्डिका, मा. ., पृ. ७८; और भारत के प्राचीन कायमा.१,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com