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राष्ट्रकूटों का इतिहास
इससे ज्ञात होता है कि, श. सं. ७०५ (वि. सं. ८४० ) तक भी गोविन्दराज द्वितीयं ही राज्य का स्वामी था; क्योंकि पैठने और पट्टदकैल से मिले दानपत्रों में गोविन्दराज द्वितीय की उपाधि " बल्लभ", और इसके छोटे भाई ध्रुवराज की उपाधि “कलिल्लभ" लिखी है ।
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गोविन्दराज द्वितीय की निम्नलिखित उपाधियां भी मिलती हैं:महाराजाधिराज, प्रभूतवर्ष, और विक्रमावलोक ।
गोविन्दराज का राज्यारोहण वि. सं. ८३२ ( ई. स. ७७५ ) के करीब हुआ होगा; क्योंकि इसके पिता कृष्णराज प्रथम की श. सं. ६९४ (वि. सं. २१ ई. स. ७७२ ) की एक प्रशस्ति मिल चुकी हैं।
६ ध्रुवराज
यह कृष्णराज प्रथम का पुत्र, और गोविन्दराज द्वितीय का छोटा भाई था । इसने अपने बड़े भाई गोविन्दराज द्वितीय को गद्दी से हटाकर स्वयं उस पर अधिकार करलिया था ।
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यह बड़ा वीर, और योग्य शासक था । इसीसे इसको “निरुपम " भी कहते थे । इसने कांची के पल्लत्रवंशी राजा को हराकर उससे दंड के रूप में कई हाथी लिये थे; चेरदेश के गङ्गवंशी राजा को कैद करलिया था; और गौड़देश के राजा को जीतने वाले उत्तर के पड़िहार राजा वत्सराजे को मारवाड़ (भीनमाल ) की तरफ़ भगादिया था । इसने वत्सराज से वे दो छत्र भी, जो उसने गौड़देश के राजा से प्राप्त किये थे, छीन लिये थे ।
(१) बहुत से लोग यहां पर श्रीवल्लभ से गोविन्द तृतीय का तात्पर्य लेते हैं । यह ठीक नहीं है।
( २ ) ऐपिग्राफिया इगिडका, भा. ३ पृ. १०५
( ३ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा. ११ पृ. १२५ ( यह लेख ध्रुवराज के समय का है )
४ ) वत्सराज के मालवे पर चढाई करने पर यह ध्रुवराज अपने सामन्त लाट (गुजरात ) के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज को लेकर मालवनरेश की सहायता को गया था । इसीसे बत्सराज को हारकर भीनमाल की तरफ भागना पड़ा।
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