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मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
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गोविन्दराज द्वितीय के इतिहास में उद्धृत किये 'हरिवंशपुराण' के श्लोक में इसी वत्सराज का उल्लेख है ।
बेगुम्रा से मिले दानपत्र से ज्ञात होता है कि, ध्रुवराज ने (उत्तर) कोशल के राजा से भी एक छत्र छीना था । इसकी पुष्टि प्रोली (वर्धा) से मिले ताम्रपत्र से भी होती है। उसमें ध्रुवराज के पास तीन श्वेतों का होना लिखा है । इनमें दो छत्र वत्सराज से छीने हुए, और तीसरा कोशल के राजा से छीना हुआ होगा ।
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सम्भवतः ध्रुवराज का अधिकार उत्तर में अयोध्या से दक्षिण में रामेश्वर तक फैल गया था ।
ध्रुवराज के भ्राता गोविन्दराज द्वितीय के इतिहास में श. सं. ६१७, और ७०१ के ताम्रपत्रों का उल्लेख कर चुके हैं । वे दोनों वास्तव में इसी के हैं । पट्टदकल, नरेगल, और लक्ष्मेश्वर से कनाड़ी भाषा की तीन प्रशस्तियाँ मिली हैं । ये भी शायद इसी के समय की हैं ।
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ध्रुवराज की निम्नलिखित उपाधियां मिलती हैं:
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कविवल्लभ, निरुपम, धारावर्ष, श्रीवल्लभ, माहराजाधिराज, परमेश्वर आदि । नरेगल की प्रशस्ति में इसके नाम का प्राकृतरूप "दोर" (धोर) लिखा है ।
श्रवणबेलगोला से कनाड़ी भाषा का टूटा हुआ एक लेख और भी मिला है। यह महासामन्ताघिपति कम्बय्य ( स्तम्भ ) रणावलोक के समय का है । इसमें रणावलोक को श्रीवल्लभ का पुत्र लिखा है ।
ध्रुवराज का राज्यारोहणकाल वि. सं. ८४२ ( ई. स. ७८५ ) के करीब होना चाहिये ।
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( १ ) जर्नल बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी, भा० १८, पृ० २६१
( २ ) इण्डियन ऐरिटक्केरी, भा० ५, पृ० १६२
(३) इण्डियन ऐग्रिटक्केरी, भा. ११, पृ. १२५; और ऐपिमाफिया इण्डिका, भा. ६, पृ. १६३ और पृ. १६६
( ४ ) इन्सक्रिपशन्स ऐट श्रवणबेलगोला, नं. २४, पृ. ३
(५) विन्सेण्टस्मिय. इसका राज्यारोहण ई. स. ७८० में अनुमान करते हैं ।
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