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राष्ट्रकूटों का इतिहास
जिस समय इसने अपने बड़े भाई गोविन्दराज द्वितीय के राज्य पर अधिकार किया था, उस समय गङ्ग, वेङ्गि, काञ्ची, और मालवा के राजाओं ने ने उन उस ( गोविन्द द्वितीय ) की सहायता की थी । परन्तु इस ( ध्रुवराज ) सब को हरादिया । इसने अपने जीतेजीही अपने पुत्र गोविन्द तृतीय को कंठिका ( कोंकण ) से लेकर खंभात तक के प्रदेश का शासक बनादिया था ।
दौलताबाद से, श. सं. ७१५ (वि. सं. ८५० ई. स. ७९३ ) का, एक दानपत्रे मिला है। इसमें ध्रुवराज के चचा ( कर्कराज के पुत्र ) नन्न के पुत्र शङ्करगण के दान का उल्लेख है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि, उस समय वहां पर ध्रुवराज का राज्य था, और इसने, गोविन्दराज द्वितीय की शिथिलता के कारण राष्ट्रकूट राज्य को दबा लेने के लिए उद्यत हुए अन्य लोगों को देख कर ही, उस पर अधिकार किया था ।
१० गोविन्दराज तृतीय
यह ध्रुवराज का पुत्र, और उत्तराधिकारी था । यद्यपि ध्रुवराज ने इसे, अपने पुत्रों में योग्यतम समझ, अपने जीतेजी ही राज्य देना चाहा था, तथापि इसने उसे अङ्गीकार करने से इनकार करदिया, और यह पिता की विद्यमानतामें केवल युवराज की हैसियत से ही राज्य का संचालन करता रहा ।
इसकी निम्नलिखित उपाधियां मिलती हैं:
पृथ्वीवल्लभ, प्रभूतवर्ष, श्रीवल्लभ, विमलादित्य, जगत्तुङ्ग, कीर्त्तिनारायण, अतिशयधवल, त्रिभुवनधवल, और जनवल्लभ श्रादि ।
(१) उस समय वेङ्गि का राजा शायद पूर्वी चालुक्य विष्णुवर्धन चतुर्थ था ।
( २ ) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा. ६, पृ. १९३
( ३ ) गोविन्दरान के पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के, नीलगुंड से मिले, श० स०७८८ ( वि० सं० २३ = ई० स० ८६६ ) के लेख से प्रकट होता है कि, गोविन्दराज तृतीय ने केरल, मालव, गौर, गुर्जर, भौर चित्रकूट वालों को तथा कांची के राजा को हराया था, और इसी से वह कीर्तिनारायण कहाता था ।
(एपिग्राफिया इडिका, भा. ५, ४. १०२ )
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