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मान्यखेट ( दक्षिण ) के राष्ट्रकूट कृष्णराज द्वितीय के महासामन्त पृथ्वीराम का, श. सं. ७६७ (वि. सं. १३२ =ई. स. ८७५ ) का, एक लेख मिला है । इस पृथ्वीराम ने सौन्दत्ति के एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमि दान दी थी । इस लेख से ज्ञात होता है कि, श. सं. ७९७ ( वि. स. ६३२ ई० स० ८७५ ) में कृष्णराज द्वितीय राज्य का स्वामी होचुका था । परन्तु इसके पिना अमोघवर्ष प्रथम के समय का श. सं. ७९६ (वि. सं. १३४ ई. स. ८७७ ) का लेख मिलने से प्रकट होता है कि, उसने अपने जीते जी ही, श. सं. ७९७ ( वि. सं. १३२ ) में या इससे पूर्व, अपने पुत्र इस कृष्ण को राज्य-भार सौंप दिया था । इसीसे कुछ सामन्तों ने, अमोघवर्ष की जीवितावस्था में ही, अपने लेखों में कृष्णराज का नाम लिखना प्रारम्भ करदिया था। (हम अमोघवर्ष के इतिहास में भी उसका बुढ़ापे में राज्य छोड़देने के बाद 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' नामक पुस्तक बनाना लिखचुके हैं। इस से भी इस बात की पुष्टि होती है।)
कृष्णराज द्वितीय ने आंध्र, बङ्ग, कलिङ्ग, और मगध के राज्यों पर विजय प्राप्त की थी; गुर्जर, और गौड के राजाओं से युद्ध किया था; और लाटदेश के राष्ट्रकूट-राज्य को छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। इसका राज्य कन्याकुमारी से गंगा के तट तक पहुँच गया था ।
आचार्य जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने 'महापुराण' का अन्तिमभाग लिखा था । उसमें लिखा है:
"अकालवर्षभूपाले पालयत्यखिलामिलाम् ।
शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्दान्ते ।" अर्थात्-अकालवर्ष के राज्य समय श. सं. ८२० (वि. सं. १५५ ई. स. ८१८ ) में 'उत्तरपुराण' समाप्त हुआ।
इस से जाना जाता है कि, यह पुराण कृष्णराज द्वितीय के समय ही समाप्त हुआ था।
(१) जर्नल बॉम्बे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, भा. १०, पृ. ११४
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