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राष्ट्रकूटों का इतिहास (ई० स० ११०० ) में स्वर्गवासी हो जाने से भी सिद्ध होता है। परन्तु उस समय तक उसका पुत्र मदन भी युवावस्था को पार कर चुका था। इसलिए उसने भी वि० सं० ११६१ (ई० स० ११०४) में, शायद अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारणही, अपने पुत्र गोविन्दचन्द्र को अपना युवराज बनालिया था, और वि० सं० ११६७ (ई० स० १११०) में उस (मदन) की मृत्यु होगई । __चन्द्र की मृत्यु वि० सं० ११५७ (ई० स० ११००) में मानी गई है । इससे अनुमान होता है कि, बदायूं के लेख का विग्रहपाल (जिसको चन्द्रका छोटा पुत्र होने के कारण बदायूं की जागीर मिली थी), और उसका पुत्र भुवनपाल शायद चन्द्र के जीतेजी ही मरचुके थे, और चन्द्र की मृत्यु के समय बदायूं पर गोपाल का अधिकार था । यह भी सम्भव है कि, चन्द्र ने अपने छोटे पुत्र विग्रहपाल और उसके पुत्र भुवनपाल के वि० सं० ११५४ (ई० स० १०१७) के पूर्व मर जाने के कारण, विरक्त होकर ही, अपने बड़े पुत्र मदनपाल को कन्नौज का अधिकार सौंप दिया हो । परन्तु चन्द्र के जीवित रहने से, (भुवनपाल के पुत्र) गोपाल के बदायूं की गद्दी पर बैठने पर भी, कुछ काल तक कन्नौज और बदायूं के घरानों में घनिष्ट सम्बन्ध बना रहा हो। इस कारण से, या गोविन्दचन्द्र का जन्म देरसे होने के कारण गोपाल के कन्नौज की गद्दी पर गोद आने की सम्भावना से, या फिर ऐसे ही किसी अन्य कारण से, गोपाल के नाम के साथ भी "गाधिपुराधिप” की उपाधि लगाई जाती हो । परन्तु उस ( गोपाल ) के पुत्र मदनपाल के समय, उन कारणों के न रहने या दोनों घरानों में राजा और सामन्त का सा सम्बन्ध स्थापित हो जाने से, मदन को इस उपाधि के उपयोग करने का अधिकार न रहा हो । फिर यह भी सम्भव है कि, कुछ समय बाद शायद स्वयं गोपाल के नाम के साथ भी इस उपाधि का उपयोग अनुचित समझा जाने लगा हो । हाँ, यदि वास्तव में ही गोपाल ने कन्नौज विजय किया होता, तो बदायूं के लेख में भी इसके नाम के आगे यह उपाधि अवश्य लगी मिलती। ___ बदायू से मिले लेख के लेखक ने (अपने आश्रयदाता के पूर्वज) मदनपाल के, गाहड़वाल-नरेश गोविन्दचन्द्र के सामन्त की हैसियत से किये, युद्ध का उल्लेख इस प्रकार किया है:
"यत्पौरुषात्प्रवरतःसुरसिन्धुतीरहम्मीरसंगमकथा न कदाचिदासीत्"
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