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राष्ट्रकूटों का इतिहास इसके समय का आठवां, कन्हेरी की गुफा में लगा, श. सं. ७६६ ( वि. सं. १३४ ई. स. ८७७ ) का लेखं है। इससे प्रकट होता है कि, अमोघवर्ष ने, अपने सामन्त, शिलारी वंशी कपर्दी द्वितीय से प्रसन्न होकर उसे कोंकण का राज्य दे दिया था । इस लेख से उस समय तक भी बौद्धमत का प्रचलित होना पाया जाता है । ___पहले, गुजरात के राजा ध्रुवराज प्रथम के, श. सं. ७५७ (वि. सं. ८१२) के ताम्रपत्र के आधार पर लिखा जाचुका है कि, अमोघवर्ष के गद्दी बैठने पर कुछ लोगों ने बगावत की थी, और इसीसे इस (अमोघवर्ष ) के चचेरे भाई कर्कराज ने इसकी सहायता की थी। परन्तु बाद की प्रशस्तियों को देखने से ज्ञात होता है कि, कुछ समय बाद ही अमोघवर्ष का प्रताप खूब बढ़गया था। इसने अपनी राजधानी नासिक से हटाकर मान्यखेट ( मलखेड़) में स्थापन की थी । इसके और वेङ्गि के पूर्वी चालुक्यों के बीच बराबर युद्ध होता रहता था।
(१) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा० १३, पृ. १३५ । (२) यह मनखेड़ शोलापुर ( निज़ाम राज्य ) से ६० मील दक्षिण-पूर्व में विद्यमान है। (३) विजयादित्य के ताम्रपत्र में लिखा है:
"गंगारबेलैः सार्धं द्वादशाब्दानहनिशम् । भुजार्जितबलः खनसहायो नवविक्रमः ।। मष्टोत्तरं युद्धशतं युद्धवा शंभोमहालयम् ।
तत्संख्यमकरोद्धीरो विजयादित्यभूपतिः ॥ अर्थात्-विनयादित्य द्वितीय ने राष्ट्रकूटों और गंगवंशियों से १२ वर्षों में १०८ लड़ाइयाँ लड़ी थीं, और बाद में उतनेही शिव के मंदिर बनवाये थे।
इससे ज्ञात होता है कि, विजयादित्य को, राष्ट्रकूटों की घर की फूटके कारण ही, उन पर प्राकम करने का मौका मिला था; और कुछ समय के लिये शायद उसने इनके राज्य का थोड़ा बहुत प्रदेश भी दबालिया था। परन्तु अमोघवर्ष प्रथम ने वह सब वापिस छीनलिया। यह बात नवसारी से मिले ताम्रपत्र के निम्नलिखित श्लोक से प्रकट होती है:
"निमग्नां यचुलुक्यान्धौ रहराज्यश्रियं पुनः ।
पृथ्वीमिवोद्धरन् धीरो वीरनारायणोऽभवत् ॥" अर्थात्-जिस प्रकार वराह ने समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया था, उसी प्रकार ममोघवर्ष ने, चालुक्य वंशरूपी समुद्र में इबी हुई, राष्ट्रकूट वंश की राज्यलक्ष्मी का उद्धार किया।
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