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मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट
गुजरात के महाराजाधिराज कर्कराज द्वितीय का श. सं. ६७९ (वि. सं. ८१४ = ई. स. ७५७ ) का, एक ताम्रपत्र, सूरत के पास से मिला है। उससे प्रकट होता है कि, इस दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग द्वितीय) ने, अपनी सोलङ्कियों पर की विजय समय, लाट (गुजरात) को जीतकर वहां का अधिकार अपने रिश्तेदार कर्कराज द्वितीय को देदिया थी ।
इसके दन्तिवर्मा और दन्तिदुर्ग दो नाम मिलते हैं, और इसके नामके साथ निम्नलिखित उपाधियां पायी जाती हैं:
५.५.
महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, पृथ्वीवल्लभ, बल्लभराज, महाराजशर्व, खड्गावलोक, साहसतुङ्ग और वैरमेघ । सम्भवतः यह "खड्गावलोक" उपाधि इसकी दृष्टि का शत्रुओं के लिए खड्न के समान भयंकर होना ही सूचित करती है।
इन सब बातों पर विचार करने से प्रकट होता है कि, यह राजा बड़ा प्रतापी था; और इसका राज्य गुजरात, और मालवे की उत्तरी सीमा से लेकर दक्षिण में रामेश्वर तक फैलगया था ।
इसने पहले आस पास के छोटे छोटे राजाओं को विजय कर मध्यप्रदेश को जीता था । इसके बाद इसे दुबारा लौट कर कांची जाना पड़ा; क्योंकि वहां के राजा ने, अपनी गयी हुई स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए, एकवार फिर सिर उठाया था । परन्तु उसमें काञ्ची नरेश को सफलता नहीं मिली ।
सोसाइटी, भाग १६, १० १०६ ।
( १ ) जर्नल बाम्बे एशियाटिक (२) उस समय गुजरात का शासक गुर्जर जयभट्ट तृतीय था । उसका चेदि सं० ४८६ ( वि० सं० ७६३ ई० स० ७३६ ) का, एक ताम्रपत्र मिला है। शायद इसके बादही दन्तिवर्मा द्वितीय ने वहां का राज्य छीन कर कर्कराज को दे दिया होगा ।
( ३ ) पैठन (निजाम राज्य ) से मिले राष्ट्रकूट गोविन्दराज के दानपत्र में लिखा है कि, इसने अपने राज्य का विस्तार दक्षिण में सेतुबंध रामेश्वर से उत्तर में हिमालय तक, और पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक कर लिया था ।
सं० ६७१) के, लेख में लिखा है:
ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, १०२१
(४) नौसारी से मिले, श० सं० ८३९ ( वि० "काची पदे पदमकारि करेगा भूयः "
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