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मान्यखेट (दक्षिण) के राष्ट्रकूट बड़ोदा से, श. से. ७३४ (वि. सं. ८६९ ई. स. ८१२) का, एक ताम्रपत्र मिला है । यह गुजरात के राष्ट्रकूट राजा कर्कराज का है। उसमें कृष्णराज प्रथम के विषय में लिखा है:
"यो युद्ध करडूतिगृहीतमुच्चैः शौर्योष्मसंदीपितमापतन्तम् ।
महावराहं हरिणीचकार प्राज्यप्रभावःखलु राजसिंहः ॥ अर्थात्-राजाओं में सिंह के समान बली कृष्णराज प्रथम ने, अपनी शक्ति के घमण्ड और युद्ध की इच्छा से आते हुए, महावराह (कीर्तिवर्मा द्वितीय) को हरिण बनादिया (भगादिया)।
सम्भवतः यह घटना वि. सं. ८१४ (ई. स. ७५७) के निकट की है।
सोलंकियों के ताम्रपत्रों पर वराह का चिह्न बना मिलता है । इसीसे इस दानपत्र के लेखक ने कीर्तिवर्मा के लिए वराह शब्दका प्रयोग किया है ।
___ इससे यह भी प्रकट होता है कि, कृष्णराज के समय कीर्तिवर्मा द्वितीय ने अपने गये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने की चेष्टा की होगी । परन्तु इस कार्य में वह सफल न होसका, और उलटा उसका रहा सहा राज्य भी उसके हाथ से निकल गया।
कृष्णराज की सेना में एक बड़ा रिसाला भी रहता था।
दक्षिण हैदराबाद (निजाम राज्य) की एलापुर (इलोरा) की प्रसिद्ध गुफाओं में का कैलास भवन नामक शिव का मंदिर इसी ने बनवाया था । यह मन्दिर पर्वत को काटकर बनवाया गया था, और यह इस समय भी अपनी कारीगरी के लिए भारत भर में प्रसिद्ध है । यहीं इसने, अपने नाम पर, कनेश्वर नामका एक "देवकुल'' भी बनवाया था, जिसमें अनेक विद्वान् रहा करते थे। इनके अतिरिक्त इसने १८ शिव-मंदिर और भी बनवाये थे । इससे सिद्ध होता है कि यह परम शैव था।
(१) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा. १२, पृ० १५६ ।
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