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राष्ट्रकूटों का उत्तर से दक्षिण में जाना
श्रीयुत सी . वी. वैद्य दक्षिण के राष्ट्रकूटों को दक्षिणी - आर्य मानते हैं । उनका अनुमान है कि, ये लोग, दक्षिण में दूसरी वार अपना राज्य स्थापन करने के बहुत पहले ही, उत्तर से आकर वहां बसगये थे, और इसीसे अशोक के लेखों के लिखे जाने के समय भी महाराष्ट्र देश में विद्यमान थे ।
परन्तु उनका यह अनुमान अशोक के उन लेखों की, जिनमें इस जाति का उल्लेख आया है, स्थिति के आधार पर होने से ठीक नहीं माना जासकता; क्योंकि ऐसे दो लेख उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त से, एक सौराष्ट्र से और एक कलिङ्ग से, मिल चुके हैं ।
डाक्टर डी. आर. भण्डारकर राष्ट्रिकों का सम्बन्ध अपरान्त वासियों से मानकर इन्हें महाराष्ट्र निवासी अनुमान करते हैं । परन्तु अशोक की शाहबाजगढ़ से मिली पाँचवीं प्रज्ञा में इस प्रकार लिखा है:
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'योनकंबोय गंधरनं रठिकनं पितिनिकनं ये वपि श्रपरतें "
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यहाँ पर “रठिकनं” (राष्ट्रिकानां) और “पितिनिकनं" (प्रतिष्ठानिकानां ) का सम्बन्ध “ये वापि अपरान्ताः " से करना ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि ऊपर दी हुई पंक्ति में अपरान्त निवासियों का राष्ट्रिकों से भिन्न होना ही प्रकट होता है ।
इन राष्ट्रकूटों की खानदानी उपाधि “लटलूरपुराधीश्वर" थी । श्रीयुत रजवाड़े आदि विद्वान् इस लटलूर से ( मध्य प्रदेशस्थ बिलासपुर ज़िले के ) रत्नपुर का तात्पर्य लेते हैं । यदि यह अनुमान ठीक हो तो इससे भी इनका उत्तर से दक्षिण में जाना ही सिद्ध होता है ।
श्री रामचन्द्र के पुत्र कुश ने अयोध्या को छोड़कर गंगा के तट पर ( आधुनिक मिरज़ा
पुर
के पास ) कुशावती नगरी बसाई थी । सम्भव है उसके वंशज बाद में, किसी कारण से भरत के वंशजों के पास चले गये हों, और कालान्तर में " राष्ट्रिक ” या
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आरट्ट " के नाम से प्रसिद्ध होकर वापिस लौटते हुए, कुछ उत्तर की तरफ़ और कुछ
गिरनार होते हुए दक्षिण की तरफ गये हों । परन्तु यह कल्पना मात्र ही है ।
नयचन्द्र सूरि की ' रम्भामंजरी ' नाटिका में भी जयचन्द्र को इक्ष्वाकु वंश का तिलक लिखा है । ( देखो पृ० ७ )
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(१) हिस्ट्री ऑफ मिडिएवल हिन्दू इण्डिया, भा० २, पृ० ३२३ ( २ ) अशोक ( डाक्टर डी. आर. भण्डारकर लिखित ), पृ० ३३ (३) कॉर्पस इन्सक्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, भा० १ ० ५५
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