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राष्ट्रकूटों का इतिहास ___गोविन्द चतुर्थ के, श. सं. ८५२ (वि. सं. १८७ = ई. स. १३०) के दानपत्र से ज्ञात होता है कि, राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज तृतीय ने, अपने अश्वारोहियों के साथ, यमुना को पारकर कन्नौज को उजाड़ दिया था।
थाना के शिलाहार वंशी राजा का, शक संवत् ११५ (वि. सं. १०५० ई. स. १९३) का, एक दानपत्र मिला है । उसमें लिखा है:
"चोलो लोलोभियाभूगजपतिरपतजाह्नवीगह्वरान्तः । वाजीशस्त्रासशेषः समभवदभवच्छैलरन्ध्रे तथान्ध्रः ॥ पाण्डयेशः खण्डितोऽभूदनुजलधिजलं द्वीपपालाः प्रलीना.
यस्मिन्दत्तप्रयाणे सकलमपि तदा राजकं न व्यराजत् ॥” अर्थात्-कृष्णराज (तृतीय) के सामने आने पर चोल, बंगाल, कन्नौज, आन्ध्र, और पाण्डय आदि देशों के राजा घबरा जाते थे। __ इसी दानपत्र में कृष्णराज (तृतीय) के अधिकार का उत्तर में हिमालय से दक्षिण में लंका तक, और पूर्व में पूर्वी समुद्र से पश्चिम में पश्चिमी समुद्र तक होना लिखा है।
चालुक्यवंशी तैलप (द्वितीय) ने, वि. सं. १०३० (ई० स० १७३) के करीब, राष्ट्रकूट राजा कर्कराज को परास्त कर, मान्यखेट के राष्ट्रकूट राज्य की समाप्ति की थी । इसलिए उपर्युक्त ताम्रपत्र उक्त राज्य के नष्ट हो जाने के बाद का है।
इससे प्रकट होता है कि, एक समय राष्ट्रकूटों का प्रताप बहुत ही बढा चढा था, और उसके नष्ट हो जाने पर भी उनके माण्डलिक राजा उसे आदर के साथ स्मरण किया करते थे।
(१) "यन्माद्यद्विपदन्तघातविषमं कालप्रियप्राङ्गणं
तीर्णायत्तुरंगरगाधयमुना सिन्धुप्रतिस्पर्धिनी । येनेदं हि महोदयारिनगरं निर्मूलमुन्मूलितं नाम्नाद्यापि जनैः कुशस्थलमिति ख्याति पर नीयते ॥"
(ऐपिग्राफ़िया इपिडका, भा० ७, पृ. ३६) (२) हिस्ट्री ऑफ मिडिएवल हिन्दू इण्डिया, भा॰ २, पृ. ३४६.
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