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राष्ट्रकूटों का इतिहास
श. सं. ७८८ (वि. सं. १२३ = ई. स. ८६६ ) की, नीलगुण्ड से मिली, प्रशस्ति में लिखा है कि, गोविन्द तृतीय ने केरल, मालव, गुर्जर, और चित्रकूट ( चित्तौड़ ) को विजय किया था ।
इस का राज्यारोहण काल होना चाहिये । इसने वेंगी के
तरफ़ शहर पनाह बनवायी थी ।
वि. सं. ८५० ( ई. स. ७२३ ) के बाद पूर्वी चालुक्य राजा द्वारा मान्यखेट के चारों
मुंगेर से मिली एक प्रशस्तिं में लिखा है कि, राष्ट्रकूट राजा परबल की कन्या रण्णादेवी का विवाह बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल के साथ हुआ था। डाक्टर कीलहार्न परबल से गोविन्द तृतीय का तात्पर्य लेते हैं । परन्तु सर भण्डारकर परबल को कृष्णराज द्वितीय अनुमान करते हैं ।
११ अमोघवर्ष प्रथम
यह गोविन्द तृतीय का पुत्र था, और उसके पीछे गद्दी पर बैठा ।
इस राजा के असली नाम का पता अब तक नहीं लगा हैं । शायद इसका नाम शर्व हो । परंतु ताम्रपत्रों आदि में यह अमोघवर्ष के नाम से प्रसिद्ध है । जैसे:
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स्वेच्छागृहीतविषयान् दृढसंगभाजः प्रोद्वृत्तदृप्ततरशौल्किकराष्ट्रकूटान् । उत्खात खड्गनिजवाहुवलेन जित्वा यो मोघवर्षमचिरात्स्वपदे व्यधत्त ॥
अर्थात् उस ( कर्कराज ) ने, इधर उधर के प्रान्तों को दबाने वाले बागी राष्ट्रकूटों को परास्तकर, अमोघवर्ष को राजगद्दी पर बिठा दिया ।
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परन्तु वास्तव में यह ( अमोघवर्ष ) इसकी उपाधि थी । इसकी आगे लिखी और भी उपाधियां मिलती हैं:
(१) ऐपिग्राफिया इण्डिका, भा० ६, १०१०२
( २ ) इण्डियन ऐण्टिकेरी, भा० २१, १० २५४ (३) देखो पृष्ठ ४८
(४) भारत के प्राचीन राजवंश, भा० १, पृ० १८५ ।
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