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भूमिका
इस पुस्तक में पहले के राष्ट्रकूटों (राठोड़ों), और उनकी प्रसिद्ध शाखा कन्नौज के गाहड़वालों का (विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के तृतीय पाद में ) राव सीहाजी के मारवाड़ की तरफ़ आने तक का इतिहास है। ____ इस वंश के राजाओं का लिखित वृत्तान्त न मिलने से यह इतिहास अबतक के मिले इस वंश के दानपत्रों, लेखों, और सिकों के आधार पर ही लिखा गया है । परन्तु इसमें उन संस्कृत, अरबी, और अंगरेजी पुस्तकों का, जिनमें इस वंश के नरेशों का थोड़ा बहुत हालं मिलता है, उपयोग भी किया गया है। यद्यपि इस प्रकार इकट्ठी की गयी सामग्री अधिक नहीं है, तथापि जो कुछ मिली है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि, इस वंश के कुछ राजा अपने स्त्रय के प्रतापी नरेश थे, और कुछ राजा विद्वानों के आश्रयदाता होने के स.थ ही स्वयं भी अच्छे विद्वान् थे।
इनके समय का विद्या, और शिल्प सम्बन्धी कार्य आज भी प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता है। ___ इनके प्रभाव का पता उस समय के अरब यात्रियों की पुस्तकों से,
और मदनपाल के मुसलमानों पर लगाये "तुरुष्कदण्ड" नामक ( जजिया के समान ) 'कर' से पूरी तौर से चलता है। ____ इस वंशकी दान शीलता भी बहुत बढी चढी थी। इन नरेशों के मिले दानपत्रों में करीब ४२ दानपत्र अकेले गोविन्दचन्द्र के हैं । इस वंश की दानशीलता का दूसरा ज्वलन्त प्रमाण दन्तिवर्मा (दन्तिदुर्ग ) द्वितीय के, शक संवत् ६७५ (वि. सं. ८१० ई. स. ७५३) के, दानपत्रे का निम्नलिखित श्लोक है:
मातृभक्तिः प्रतिग्राम ग्रामलक्षचतुष्टयम् ।
इदत्या भृमदामानि यस्य मात्रा प्रकाशिता ॥१६॥ (१) सर पार. जी. भण्डारकर का बॉम्के मज़टियर में का लेख। (२) इण्डियन ऐपिटक्केरी, भा. ११, पृ. ११
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