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राष्ट्रकूटों का इतिहास
मिस्टर वी. ए. स्मिथ इसका समय ई. स. १९०४ से ११५५ (वि. सं. ११६१ से १२१२ ) तक अनुमान करते हैं । परन्तु इसका पिता मदनपाल वि. सं. ११६६ ( ई. स. १९०६ ) तक जीवित था; इसलिए उस समय तक यह युवराज ही था ।
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इसके सोने, और तांबे के सिक्के मिले हैं । यद्यपि सोने के सिक्कों का सुवर्ण बहुत ख़राब है, तथापि ये अधिक संख्या में मिलते हैं । बंगाल नर्थ वेस्टर्न रेलवे बनाते समय, वि.सं. १९४४ ( ई. स. १८८७ ) में, नानपारा गांव ( बहराइच - अवध ) से भी ऐसे ८०० सोने के सिक्के मिले थे ।
गोविन्दचन्द्र के सोने के सिक्के
इन पर सीधी तरफ़ लेख की तीन पंक्तियां होती हैं । उनमें से पहली में “श्रीमद्गो,” दूसरी में "विन्दचन्द्र," और तीसरी में "देव" लिखा रहता है । इसी तीसरी पंक्ति में एक त्रिशूल भी बना होता है । सम्भवतः यह टकसाल का चिह्न होगा । उलटी तरफ़ बैठी हुई लक्ष्मी की ( भद्दी ) मूर्ति बनी होती है । इनका आकार भारत में प्रचलित चांदी की चवन्नी से कुछ बड़ा होता है ।
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गोविन्दचन्द्र के तांबे के सिक्के
इन पर सीधी तरफ़ लेख की दो पंक्तियां होती हैं । पहली में “श्रीमद्गो," और दूसरी में "विन्दचन्द्र" लिखा रहता है । उलटी तरफ़ बैठी हुई लक्ष्मी की मूर्ति बनी होती है । परन्तु यह बहुत ही भद्दी होती है । ये सिक्के बहुत कम | मिलते हैं । इनका आकार करीब-करीब पूर्वोक्त चवन्नी के बराबर ही होता है ।
(१) अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ( चतुर्थ संस्करण ), पृ० ४००
(२) कैटलॉग ऑफ दि कौइन्स इन दि इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता, भा. १, पृ. २६०-२६१, प्लेट २६, नं०१८
(३) कैटलॉग ऑफ दि कौइन्स इन दि इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता, मा० १, १०२६१
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