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राठवर, राठवड, राठउर, राठउडे, राठडे, रठडा, और राठोड़। डाक्टर बर्नले, राष्ट्रकूटों के पिछले लेखों में “रट्ट' शब्द का प्रयोग देखकर, इन्हें तैलुगु भाषा बोलनेवाली रेड्डी जाति से मिलाते हैं । परन्तु वह जाति तो वहां की आदिम निवासी थी, और राष्ट्रकूट उत्तर से दक्षिण में गये थे। (इस विषय पर अगले अध्याय में विचार किया जायगा । ) इसलिए इस प्रकार के सम्बन्ध की कल्पना करना भ्रम मात्र ही है।
मयूरगिरि के राजा नारायणशाह की आज्ञा से उसके सभा-कवि रुद्रने, श० सं० १५१८ ( वि० सं० १६५३ ई० स० १५१६ ) में, 'राष्ट्रौढ वंश महाकाव्य' लिखा था । उसके प्रथम सर्ग में लिखा है:
"अलक्ष्यदेहा तमवोचदेषा राजन्नसावस्तु तवैकसूनुः । अनेन राष्ट्रं च कुलं तवोढं राष्ट्रौ (ष्ट्रो) ढनामा तदिह प्रतीतः ॥ २६॥"
अर्थात्-उस (लातनादेवी) ने आकाश-वाणी के द्वारा उस राजा (नारायण) से कहा कि, यह तेरा पुत्र होगा, और इसने तेरे राष्ट्र ( राज्यः), और वंश का भार उठाया है, इसलिए इसका नाम 'राष्ट्रोढ' होगा।
(१) इस वंश का यह नाम जसधवल के, कोयलवाव (गोडवाड़) से मिले, वि. सं. १२०८
के, लेख में लिखा है। (२) इस वंश का यह नाम राठोड़ सलखा के, जोधपुर से ८ मील वायु कोण में के वृहस्पति
कुण्ड पर से मिले, वि. सं. १२१३ के, लेख में दिया है। (३) इस वंश के नाम का यह रूप राव सीहाजी के, बीट (पाली) से मिले, वि. सं. ११३०
के, लेख में मिला है। (४) राठोड़ हम्मीर के, फलोधी से मिले, वि० सं० १९७३ के, लेख में राष्ट्रकूट शब्द का
प्रयोग किया गया है।
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