Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री रामचंगणी विरचित.
ANNAMAANAGAAANNNAANA
श्री कुमारविहारशतक. मूल, अवचूरि, नावार्थ अने विशेषार्थ सहित. SuuuuuuuuuyCUYCcUCcYUE
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Park
S
D
-
-
RE-35
-
अने.
-
श्री रामचंद्रगणी विरचित. श्री कुमार विहार शतक. मुनिराजश्री हंसविजयजी महाराजनी प्रेरणाथी
श्री कच्छ मामवीना श्री संघनी, तेमज अमदावाद पांजरापोलना जपाश्रयना वहिवटकर्ता हस्तक उपजेन झानखातानी द्रव्य सहायथी,
उपावी प्रसिफ करनार.
श्री जैन आत्मानंद सभा. वीर संवत् २५३६. आत्म संवत् १४ विक्रम संवत् १९६६.
-
--
--
-
ge-e-
---
-
जावनगर,
श्रीआनंद प्रीन्टींग प्रेस-जावनगर, EPIt-attacan280
Mesetan31280 mmumra -
Rat
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना.
अनादि अनंत विश्वक्रमने विलोकतां एम तो अनुभव थाय छे के, आ विश्वनी अंदर रहेला आत्माओनी शक्ति मां अनेक चमत्कारो रहेला बे. ते सर्वमां बुद्धिना चमत्कारो विशेष बळवान् जे. क्षायोपशमथी सतेज थयेली बुद्धि केवा केवा वाणीना विझासो प्रगट करे बे, ते आर्य जैन साहित्यमा प्रत्यक्ष देखाय बे, अने तेथीज जैन साहित्य आर्यावर्तमां उत्कृष्ट पद जोगवे बे.
विश्व हस्तामलकवत् जोनारा महात्माओ – केवली ओ कहे छे के, आत्मानी गुफा रुप अंतःकरणमां दिव्यगान - वाद - शब्द प्रति सूक्ष्म बतां दिगंतगामी शक्तिवाळा अनुभवाय बे, ते काव्य रुपे बाहेर प्रगट थइ बीजाने आनंद रसना सागर रूप बने छे, जेना श्रवण - मननथी धर्म, नक्ति, नीति अने व्यवहारनी शुद्ध जावनाओ प्रगट थाय छे.
आ उपरथी जोवामां आवे छे के, ए अंतरनुं दिव्य गान को अनुपम अने रसमय तरंगमां चाली रहुं बे. तेमांथी जेनी जेवी शक्तिं ते सर्वे ग्रहण करी कही शके बे, अने ते माटे प्रमुक
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विदा -
रशतकम् ॥ ॥ १ ॥
कही बतावारने कवि नामयी ओळखवामां आवे छे. ते कवि रस अनेकारना चमत्कारथी पोतानी वाक्शक्तिने फोरवे ते कविता कहेवाय बे. आवी रीते कवि ने कवितानो संबंध बे, तेने जे यथार्थ रीते जाणे बे, ते सहृदय वाचक (विधान् ) कहेवाय बे. ए काव्य रसनुं दिव्य गान आखा विश्वमां निरंतर चालु बे, अने दरेक क्षणे अने स्थळे तेना अद्भुत आनंदनो आस्वाद सर्व अधि कारीने मळ्या करे बे.
"
संस्कृत साहित्य काव्यना केटला एक नेदो आपला बे. तेमां महा काव्य अने खंग काव्य एवा वे नेद पण दर्शाव्या, अने तेना जुदा जुदा लक्षणो आपेक्षा बे. आ ' कुमार विहार शतक एक काव्यमां आवी शके बे. या काव्यना कर्त्ता महानुभाव श्री रामचंद्रगणीए पोतानी साधारण नैसर्गिक काव्य प्रतिनाथी आ लघु काव्यने सर्व रीते अलंकृत कर्तुं छे. अने अगाध साहित्य नरेली महा संस्कारी अनुपम देव गिरामां ग्रथन करी तेने रसभरित बनावेयुं छे. दरके वर्णनीय वस्तुने सूक्ष्म दृष्टि लोकतां जाणे तेनुं रहस्य पोतानी सूक्ष्म बुद्धिना तनुं अने स्वानुजवना सूक्ष्म तत्त्वानुं मिश्रण करी उपजावी काढयुं होय एम लागे छे. वळी मनुष्यना स्वनावनी सूक्ष्म लागणीने, विधानोनी जिज्ञासाने अने जैन भक्तोनी आंतर जावनाओने अनायासेा महाकवि
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोतानी प्रकृत्रिम वाणीमां उतारता होय अथवा तो तेनुं पवित्र हृदय पोतेज पोतानुं जावना चित्र खतुं होय एवो जास थाय छे.
महानुभाव श्री रामचंद्रगणीनी अगाध काव्य प्रतिना होवाथी ते समयना अनेक विधानाए कवितेमना काव्यनी जारे प्रशंसा करेली छे. सूक्ष्म अवलोकन करतां एम पण स्फुरणा था के, संस्कृत लेखनां केटांक मान्य शतकोना कर्त्ताओ पण या कुमारविहार शतकनी शैली थी मोहित थइ एवां शतको रचवा प्रयासी यया हो. केटलांक तो ए मोहने लइने आ शतकनी अव चूरि, वृत्ति वगेरे करवाने तत्पर पण वन्या बे.
वळ आथी सर्वने सविशेष सानंदाश्रर्य थशे के या महानुभाव श्री रामचंद्रगणी कवीश्वरे पोताना निर्माण कौशल्यथी शणगारेला अने साक्षरो अने प्राकृतो सर्वना मनने रंजन करनारा बीज एकस ग्रंथ रचेल्लां छे. ते मां निर्भय जीमव्यायोग, रघुविलास नाटक, डव्यालंकार, राघवाभ्युदयमहाकाव्य, यादवान्युदयमहाकाव्य अने नलविलास महाकाव्य आदि घणां ग्रंथो प्रख्यात जे.
महानुभाव रामचंद्रगणीनुं जीवनवृत्त जाणवा जेतुं हृशे, पण तेमनी सांसारिक
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्।।
॥३॥
स्थितिनो इतिहास यथार्थ रीते जाणवामां आवी शक्यो नथी, मात्र तेमनी चारित्रावस्थानो केटरोएक वृत्तांत आ प्रमाणे उपलब्ध थऽ शक्यो ने. महानुनाव रामचंगणी विक्रमना बारमा सैकाना अंतथी ते तेरमा सैकाना आरंज सुधीमां विद्यमान हता. तेत्रो कळिकाळ सर्वज्ञ श्री हेमचं. प्रसूरिना प्रख्यात शिष्य हता. तेमने 'प्रबंध शतक कत्त' एवं बिरुद मळ्युं हतुं. तेमनी व्याख्यान करवानी शक्ति सर्वोत्तम हती अने तेयी तेओ लोकप्रिय थइ पड्या हता.
गुर्जरपति जैन महाराजा श्री कुमारपाले अणहिलपुर पाटणमा पोताना पिताश्री त्रिजुवनपालना नामयी रचावेना प्रासादनी अंदर श्री हेमचंसूरिए प्रतिष्टित करेला श्री पार्श्वनाथ प्रनुने अष्ट नमस्कारात्मक स्तवन रुप वस्तु स्वरुपने उद्देशीने ते महानुनावे आ अद्लुत काव्य लेखनी योजना करेली . अने तेनी अंदर ते कुमारविहार-चैत्यनी अद्लुत शोजानुं चमत्कारी वर्णन आपेटु जे. जो के केटनेक स्थळे अमर्याद अतिशयोक्ति दर्शावेनी, तथापि कविताना ओज, प्रास विगेरे गुणोने अपने अने एक उत्तम कविओना संप्रदायने अपने ते अतिशयोक्ति सहृदय विधानानां हृदयने आकर्षक अने वस्तु स्वरुपनी पोषक बनेन्नी .
जे कुमारविहार चैत्यनु आ महानुजावे वर्णन करे , तेने माटे अवचूरिकार पण वीर संवत
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
१एएए मांा प्रमाणे सखे -“वीर संवत १६एए ना वर्षमां कार्तिक शुक्ल हितीयाने दिवसे हस्त नकत्रनो सूर्य यतां श्री पाटण नगरमां जेमने त्रीश वर्ष अने सत्यावीश दिवस राज्य करता थयेला ," एवा कुमारपाले पोताना पिता त्रिजुवनपालना नामथी प्रासाद कराव्यो हतो. ते प्रासादने बोतेर देव कुलिका हती. तेमां चोचीश रत्ननी, चोवीश पिता तथा सुवर्णनी, अने चोवीश रुपानी–अतीत, अनागत अने वर्तमान जिनेश्वरोनी प्रतिमाओ हती. मुख्य प्रासादनी अंदर एकसो पचवीश अंगुल प्रमाण चंकांतमणिनी प्रतिमा हती. सर्वत्र कलशो अने स्तनो सुवर्णना हता. एकंदर उंनु कोटी अव्यनो व्यय करी गुर्जरपति कुमारपाले ते प्रासाद कराव्यो हतो. ते महाराजाए मोटो उत्सव करी श्री हेमचंप्रसूरिनी पासे ते चैत्यमां श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी प्रतिष्टा करावी हती.
आ शतकनी रचना केवी रीते थइ तेने माटे अवचूरिकार आ प्रमाणे बखे डे-एक वखते श्री हेमचंधसूरि पोताना मुख्य शिष्य श्री रामचंगणी अने वीजा मुनिओना परिवार साथे नागपुरमां चातुर्मास्य रह्या हता. ते चातुर्मास्य निर्विघ्ने प्रसार थया पठी महाराजा कुमारपाले तेमने परिवार साथे पाटणमां आववाने विनंति करवायी तेश्रो पाटणमां पधार्या हता. या वखते आंबमदे, बा
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥
हमदे, चाहमदे अने सोन नामना चार नाइनो, नवाणुं लाख व्यना अधिपति डामा प्रमुख, अढारसो कोटीश्वर वेशरीओ अने बोतेर सामंतोना परिवारथी परिकृत शइ सूरीश्वरनी पाटणमा आवेवा ते त्रिनुवनपाल प्रासादमां पधरामणी था हती. आ वखते कवीश्वर रामचंगणी साये हता. ते सूरिवर ज्यारे ते प्रासादमां वीराजेला श्री पार्श्वनाथ प्रतुने वंदना करता हता, ते अवसरे महाराजा कुमारपासनी पार्यनायो तेमणे अष्ट नमस्कारात्मक आठ काव्यनी योजना करी हत.. अने एकसो आउ श्लोकोयी ते प्रासादनुं वर्णन कर्यु हतुं."
आ प्रमाणे अवचूरिकार श्री विबुधोत्तम सुधाजूषणगणी अवचूरिना आरनमा ग्रंथकारनो वृत्तांत आपे ने अने आ शतक काव्य उपर थयेनी पोताना हृदयनी प्रसन्नता प्रगट करे . महानुनाव श्री विबुधोत्तम सुधाभूषणगणी श्री सोमसुंदरसूरिना परिवारमा उत्पन्न थयेना छे अने तेमणे आ काव्यपर अवचूरि वनावी अन्यासीओनी नपर महान् उपकार करेलो डे.
एकंदर महानुनाव रामचंगणीए आ शतकमां जे कवितानुं सौंदर्य दर्शाव्यु , ते आखा | जैन साहित्य- उच्च स्वरूप . पद अने अर्यनुं लालित्य एटळ बधू उत्तम डे के, तेने समजनारा
सहृदयने पूर्ण रस उपजावे ने अने रहस्यमा उतरतां चित्तने लीन करे जे.
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामां पदनी प्रसन्नता होय, अने नवीन नवीन अर्थ उठता होय, एवी कविता के मां तादृश चित्र समान चित्र आलेख्यं होय, तेवी उत्तम कविता या शतकमां आद्यंत जोवामां आवे छे. तेने माटे महानुभाव रामचंद्रगणीने पूर्ण धन्यवाद घटे बे.
बेवटे या प्रसंगे मारे जावं जोइए के, भारतवर्षना महोपकारी स्वर्गस्थ श्री विजयानंद सूरि (आत्मारामजी महाराज ) ना प्रशिष्य महामुनिश्री हंस विजयजी महाराज तथा तेमना अनुयायी पंन्यास श्री संपत् विजयजी महाराजनी खास प्रेरणाथी ने सहायथी या ग्रंथ प्रगट करवाने मे शक्तिमान् थया बीए. ते महानुभावे केटली एक शुद्ध मतो मेळवी आपी हती, एटबुंज नहीं पण या ग्रंथनी शुद्धिने माटे पूर्ण काळजी राखी तेना लेखने जाते तपासी ग्रंथना गौरवमां सारी वृद्धि या देवी योजना करी आपी हती. निःस्वार्थ उपकार वृत्तिने धारण करनारा ने जैन साहित्यने खींवानी अंतरंग इच्छा राखनारा ए महानुभाव मुनिवरो के जेओ पोताना गुरुना नामथी कित एव अमारी संस्याने पवित्रकार्यमा सहाय भूत थाय बे. तेनो मे हृदयर्थी आजार मानीए बीए.
उक्त मुनि महाराजाम्रो ज्यारे कच्छ मांगवीमां चार्तुमाश रहेला ते वखते मांगवीना श्री संघ
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम्।। ॥४॥
तरफयी झान खातानी उपजेली रकम, तेमन अमदावादनी पांजरापोळना उपाश्रयना वहीवट करनार शेव जेसंगनाइ हठीसिंग तरफथी ज्ञान खाते उपजेल रकम, महाराज साहेब श्री हंसविजयजी महाराजना सद उपदेशथी ते बंने तरफयी आ पुस्तकनी प्रसिद्धिनी सहायमा अर्पण करवामां आवेली बे, तेने माटे ते बनेनो आजार मानवामां आवे छे. ते रीतिर्नु अनुकरण करी प्राचीन जैन साहित्यना आवा आवा उत्तम ग्रंथो प्रगट करावा माटे वीजा पण स्वधर्म प्रेमी जैन गृहस्थो जो विशेष उमंगी थशे तो आ संस्था तेवू कार्य करवाने सदा वधारे नत्साही रहेशे.
आ ग्रंथनी एकेक प्रत मुनिराजने, साध्वीओने, तथा पुस्तकमारमा मुकवा माटे सना तरफथी नेट तरीके अर्पण करवानी . आवा संस्कृत अने मागधी भाषाना ग्रंथो मूळ, टीका (अवचूरि) नावार्थ, विशेषार्थ, साथे अनेक शुद्ध थप्ने बहार पमे एवी अमारी अंतःकरणनी इच्छा होवाथी, तेना प्रथम प्रयत्नरुपे आ ग्रंथ प्रसिध करवामां आव्यो .
आग्रंथ खास करीने चकचकीत उंचा आर्टिपेपर उपर मोटो खर्चकरी उपाववामां आवेश ने. परंत अावा उत्तम कार्योमां खर्चनी गणना करवामां प्रावती नथी.
आ ग्रंथमां संपूर्ण सावधानी राखी मूळ अवचूरि, नावार्य, अने विशेषार्थ बखवामां आव्या
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
| , उता मतिज्रमयरी के प्रमादयी जो काइ स्वाना था होय तो अमे मिथ्या पुष्कृत पूर्वक क्षमा मा
गीए बीए. अने जेवटे इच्छीए जीए के आ शतकना माधुर्यतुं आस्वादन करनार गुर्जर वाचकोने अने संस्कृत अन्यासकोने गुर्जर। गिराना नाषांतररुपे आ शतक कंगनूषणरुप थाओ.
___ "श्री आत्मानंद नुवन."
वीर संवत २४३६ आत्म संवत १४ विक्रम संवत १९६६ मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया.)
प्रसिझकर्ता. श्री जैन आत्मानंद सभा.
जावनगर
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
いたってシンプル。
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्.
तेजः पुष्णातु पार्थो दुरितविजयि वः शाश्वतानंदबीज संक्रांतः सप्तरत्न्यां भुजगपतिफणाचक्रपर्यकभाजि । कर्माण्यष्टौ समंतात्त्रिभुवनभवनोत्संगितानां जनानां यच्छेत्तुं तुल्यकालं वहति निजतनुं कृप्तसप्तान्यरूपाम् ॥ १॥
अंवचर्णिः -स पाधों मुग्तिविजयि शाश्वतानंदबीजं तेजो वो युष्माकं पुष्णातु । नुजगपतिफणाचक्रपर्यकनाजि सप्तरत्न्यां संक्रांतो यः विलुवनजनतोत्संगितानां जनानां तुष्यकालं समंतात् अष्टौ कर्माणि उत्तुं कृतसप्तान्यरूपां निजतनुं वहति इत्यन्वयः । सप्तानां रत्नानां समाहारः ‘डयां
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान रशतकम् ॥
अस्य यांगित्यनेन अबोपे' सप्तरत्नी तस्यां सप्तरत्न्यां किंविशिष्टायां नगपतिफणाचक्रमेव पर्यकः शय्या तं नजतीति । जजो विण वृद्धौ अप्रयोगीदिति विणलोपे लाज् इति सिद्धिः । सुरितं पापं विजयत इत्येवंशीयं । अजातेः शीने णिप्रत्यय इन् । तेजः केवलझानं परमब्रह्म वा पुष्णातु वृद्धि नयतु । उत्संग वाचरिता नत्संगिताः । कर्तुः किए अवर्णेन्यस्रोपे ते सिर । त्रिनुवनमेव जवनं गृहं तत्र उत्संगितानां स्थितानां जनानां तुल्यकानं समकानं रेतुं विदारयितुं तनुः शरीरं स्त्रीलिंगः । कृप्तानि निष्पादितानि सप्त अन्यरूपाणि यस्यां सा ता तनुं वहति य इति संबंधः ॥ १ ॥
नावार्थ-सर्पपतिना फणाचक्ररूप पलंगनी अंदर रहेता सात रत्नोमां प्रतिबिंबित थयेला श्री पार्श्वनाथ प्रनु पापनो विजय करनार अने शाश्वतमोदना आनंदना बीजरूप एवा तमारा तेज-पोषण करो. जे प्रनु आत्रण नुवनमा चारे तरफ रहेवा लोकोना आठ कर्मो वेदवाने माटे प्रतिबिंब रूपे बीजा सात रूपो कट्पी पोतानी मूर्तिने एकी काळे वहन करे रे. १
विशेषार्थ-ग्रंथकार आ प्रयम श्लोकथी आशीर्वचन रूप मंगलाचरण
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
करे ने तेत्रो कहे जे के, श्री पार्श्वनाथ प्रतु तमारा तेजनुं पोषण करो. जे तेज पापनो विजय करनार अने मोक्षना आनंदनुं मूळ . श्री पार्श्वनाथप्रनु सर्पनी सात फणाआना समूहनी अंदर रहेला सात रत्नोनी अंदर प्रतिबिंबित थाय ने. ते वखते तेमना सात प्रतिबिंबो पके डे, तेथी पोताना आठ स्वरूप थाय . ते उपर कवि नत्प्रेक्षा करे ने के, आ जगत्नी अंदर रहेला लोकोना आठ कर्मनो बेद करवाने पार्श्वनाथ प्रजुए आठ रूप करेला , कारण के आउ कर्मने देदवाने माटे आउ रूप थवां जोइए. १
ते वस्तापं हरतां नखमणिमुकुरज्योतिरंभ छटाभिदिक्चक्रं प्रीणयंतः करिमकरभृतः पार्श्वनाथस्य पादाः । ..., पद्मनित्यप्रबोधैरधरितसरसां मैत्र्यमासाद्य येषां
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ३ ॥
100०००००००००००००००००००००००००००००००००
चित्रं विच्छिन्नतृष्णाः कति परममृतं प्राणभाजो न भेजुः ॥२॥
अवणिः -श्री पार्श्वनाथस्य नखमणिमुकुटज्योतिरंजवटाभिः दिक्चक्रं प्रीयंतः करिमकरभृतः ते पादाः वो युष्माकं ताप हरंतां नित्यप्रबोधैः पौः अधरितसरसां येषां मैत्र्यं आसाद्य प्राप्य चित्रं
आश्चर्य यथास्यात्तथा विच्छिन्नतृष्णाः कति प्राणनाजः परं अमृतं न जेजुः । पदानां सरसादृश्यं करिणो गजाः मकरा मत्स्यास्तान् बिज्रतीति किए तब्बोपे ह्रस्वस्यत इति तोते च भृत् चिक्चक्रं दशदिक्स्थान प्राणिनः तात्स्थ्यात्तव्यपदेश इतिन्यायात् प्राणिनो बज्यंते नत्तमनरपादा अपि गजमकरनांजिता नवं. ति परं नित्यप्रबोधैः सदा विकसितपदकमौः अधरितं अधर व कृतं अधरितं कर्तुःकिपिति किपि तसोपे क्ते इति अधरित जितमित्यर्थः । मैव्यं संगं तृष्णा तृषा पर लोनः अमृतं मोक्षः पके नीरं जजी| सेवायां परोक्षानसि अनादेः स्यादेरिति एकारे हित्वानावे नेजुः। आङ्सदणगतौ इति धातुना प्रा
साद्यरूपसिधिः। अन्ये पुरुषा विच्छिन्नतृष्णास्त्वमृतेच्छां न कुर्वति । पादपले विचिन्नतृष्णात्वे यथेच्चममृतं नजंतीति चित्रं ॥२॥
भावार्थ-दिशाओना समूहने प्रसन्न करनारा अने हस्ती तथा म
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
܂
घरना चिन्होने धारण करनारा श्री पार्श्वनाथ प्रतुना ते चरणो नखरुपी मणिमयदर्पणना तेजरूप जळना गंटाथी तमारा तापने हरण करो. नित्य विकाशी एवां कमलोथी सरोवरनो तिरस्कार करनारा जे प्रजुना चरणोनी मैत्री प्राप्त करी कया प्राणीओ पोतानी तृष्णाने बेदी परम अमृतने नथी प्रा. प्त थया ? ए आश्चर्यनी वात . ५
विशेषार्थ आ श्लोकमां श्री पार्श्वनाथ प्रतुना चरणर्नु वर्णन करेझुं . ग्रंथकार कहे जे के, " ते पार्श्वनाथ प्रतुना चरण तमारा तापने हरो." तापने हरवामां जळनी जरुर , तेथी ग्रंथकार ते चरणना नखरूपी मणिदर्पणना तेजने जळना गंटानुं रूपक आपे . सरोवरना कमलो सूर्यविकाशी होवाथी रात्रेम्सानि पामनारा ने, अने आ प्रजुना चरणरूप कमलो नित्य विकाशी ने ; तेथी ते सरोवरनो तिरस्कार करनारा जे. जे प्राणीओए, प्रजना
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥४॥
चरणनी मैत्री प्राप्त करेली छे, ते प्राणीओनी तृष्णा बेदायेसी ने अने तेश्रो परम अमृत एटले मोक्ने प्राप्त थयेला छे. ५
विश्वेभ्यो भूर्भुवः स्वः शतमखमुकुटश्लिष्टमुक्तामयूखस्नाताः पार्श्वस्य पादांबुजनखमणयो मंगलानि क्रियासुः । येषामुत्संगवेद्यां शुचिरुचिलहरीतांडवाडंबरायां, संक्रामन् दुग्धसिंधोः स्मरति मुहुरसौ यामिनीकामिनीशः ॥३॥ अवचणिः -पार्श्वस्य नूर्भुवः स्वः शतमुखमुकुटश्लिष्टमुक्तामयूरवस्नाताः पादांबुजनरवमणयो विश्वे. ज्या मंगनानि क्रियासुः । येषां शुचिरुचिसहरीतांमवावरायां नत्संगवेद्यां संक्रामन् असौ यामिनीकामिनीशो मुग्धसिंधोः मुहुः स्मरति । पृथ्वीपातालस्वर्गाणां इंशाः नृपत्नवनपतिदेवेंधाः तेषां मुकुटाः तेषु श्लिष्टा बग्ना ये मुक्ताः तासां मयूखास्तेषु नरवपणिषु । नत्संगवेद्यां मध्ये इत्यर्थः ‘वेदी वितदिजिरं ' इति नाममानावचनात् वेदीशब्दः शोनार्थो वा उत्संगशब्देन मध्यं बझणया यथाग्नि
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
माणवकः । सहयः कसोलास्तेषां तांझवामि विलासाः तेषामागंबराणि यस्यां तस्यां । कीरार्णवं चिंतयति, ‘स्मृत्यर्थदयेशः षष्ठी' । यामिनीकामिनीशः चंडः प्रासादस्य पूर्वाभिमुरवत्वात् श्रीवामेयमतिमायाश्चंद्रकांतमयत्वात् एवमुक्तिः ॥३॥
नावार्थ-इंजोना मुगटनी साथे मळेवा मुक्ताफसोना किरणोमां स्नान करेला श्री पार्श्वनाथप्रजुना चरणकमळना नखमणिओ आ त्रण ज. गतना समग्रजनोनुं मंगळ करो. जेमनी नज्वल कांतिनी रहेरोना तोमवना आनंबरवाळी मध्यवेदी उपर प्रतिबिंबित थतो निशारूपी कामिनीनो पति चं. ज वारंवार दूधनासमुपर्नु स्मरण करे . ३
विशेषार्थ-आ श्लोकमां ग्रंथकार श्री पार्श्वनाथप्रजुना चरणकमळना नखने आशीर्मगलरूपे स्तवी वर्णवे . जे श्री पार्श्वनाथ प्रजुना चरणकमळ. ना नखमणिो इंजोना मुगटपर जमेवा मुक्ताफळना किरणोमां स्नान करेवा -अर्थात् इंजो आवी पोताना मस्तको नमावी तेमना चरणमां नमे
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ।। ॥५॥
वे. ते नखमणि उपर चंजनुं प्रतिबिंब पझे छे, तेथी ते चंने उधना समुषनुं स्मरण थाय . आ कहेवानो लावार्थ एवो ने के, लौकिक कथामां कहेवाय छे के चंज कीरसागरमांथी नीकळेना चौद रत्नो मांहेवू एक रत्न डे अने प्रजुना नखमणि दूधना जेवा उज्वल , तेथी तेमां प्रतिबिंब रुपे पाता एवा चंजने पोताना उत्पत्ति स्थान रूप कीरसमुज्नु स्मरण थाय ए संजवित जे. अने तेनुं वर्णन करी कविए स्मृति अलंकार दर्शावेलो . आवा दिव्य नखमणिओ सर्व जगतनुं मंगळ करवाने समर्थ थाय-ए पण निःसंदेह वार्ता . ३
देवः पार्श्वः शिवं वः प्रथयतु हरतां कल्मषं शर्म दत्ता माधत्तां धाम कीर्ति घटयतु दिशतां गौरवं वैभवं च । भूतस्तिष्ठन् भविष्यन् सरतिरपतिर्दूरसंस्थःपुरस्थो
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
यज्ञानादर्शशय्यां सममाधिवसति स्वेच्छया वस्तुसार्थः॥४॥ अवणिः स पार्थो देवोवः युष्माकं शिवं प्रथयतु कटमपं हरतां शर्म दत्ता धाम आवत्तां कीर्ति घटयतु गौरवं च पुनलवं दिशता । नूतस्तिष्ठन् नविष्यन् सवृतिः अपवृतिः दूरसंस्थः पुरस्थो वस्तुसार्थः यद्द्वानादर्शशथ्यां स्वेच्छया समं अधिवसति । सवृतिः पटाद्याच्छादितः अपवृतिः अनाच्छादितः अतीतानागतवर्तमानवी पदार्यः क्रिया सुगमा । ' अधेःशाङस्थासआधार' इति सूत्रेण यदज्ञानादशियां अत्र द्वितीया ॥४॥
लावार्थ-श्रा जगत्ना चूत नविष्य अने वर्तमानकाळना बनावो तया पदार्थोनो समूह जे आवरणवाळो होय, आवरणरहित होय, दूर रहेरो होय अश्रवा नजीक रहेलो होय ते सर्व जेना ज्ञानरूपी दर्पणनी शय्यामां स्वेच्छाथी साथेज वास करीने रहेनो , ते श्री पार्श्वनाथप्रनु तमारं कल्याण विस्तारो, पाप हरो, सुख आपो, तेज प्रसारो, कीर्ति वधारो अने गौरव तथा वैनव आपो. ४
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ॥ ६ ॥
विशेषार्थ -
- श्लोकथी कविए श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी ज्ञानलक्ष्मी वर्णवी आशीर्वचन रूप मांगल्य कहेनुं छे. श्री पार्श्वनाथना केवळ ज्ञानने दर्पानी उपमां आप बे. जेम दर्पणमां बधा पदार्थो देखाइ आवे बे, तेम तेमना केवळ ज्ञानरूपी दर्पणमां बधा पदार्थो देखाइ आवे बे. अर्थात् ते केवळ ज्ञानथी सर्व नूत, जविष्य अने वर्त्तमानना बनावो जोइ शकाय बे. जे वस्तु आवरणवाळी होय के आवरणरहित होय, दूर होय के नजीक होय ते बधी वस्तु केवलज्ञानी जोइ शकेबे अने जाणी शके े. आवा उत्तम केवलज्ञानधारी भगवंतनी तिथी कल्याण प्राप्त थाय बे, पाप दूर थाय छे, सुख मळे बे, तेज वधे बे, सत्कीर्त्ति वधे बे, अने गौरव तथा वैभव प्राप्त थाय बे- तेथी ग्रंथकार ए उत्तम पदार्थों प्राप्त थवानी आशीष आपे छे. अने ते साधे सूचछे के, नामां केवलज्ञाननुं सामर्थ्य होय, ते प्रनु कल्याणादि वस्तु
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रापवाने समर्थ थइ शके जे. अने एवा समर्थ श्रीपार्श्वनाथ प्रतुज जे. ४
आस्थानी मंगलानां जलधिरनवधिः शर्ममय्याः सुधायाः पार्थो देवाधिदेवः प्रवितरतु चिरं शाश्वतीं स श्रियं वः । जिष्णु: कुंदावलेपं फणिपतिरसनाकोडमासाद्य साः
कांतिर्यद्गात्रयटेर्जनयति जगतः क्षीरधाराभिशंकाम् ॥५॥ अवचर्णि:-मंगलानामास्यानी राजधानी शर्मय्याः सुधायाः अनवधिरमर्यादः जलधिः देवाधिदेवः स पार्थो वो युष्माकं चिरं शाश्वती श्रियं प्रवितरतु । सद्यः फणिपतिरसनाक्रोममध्यं प्रासाद्य कुंदावोपं कुंदस्य धवनपुष्पस्यावक्षेप अहंकारं जिष्णुः जयनशीला यदगात्रयष्टेः कांतिः जगतः वीरधारानिशंका जनयति । जिअजिजव 'जेम्स्नुः' इति स्नुप्रत्ययः ॥ ५॥
नावार्थ-कोलरना पुष्पना गर्वने जीतनारी जेमना गात्रनी उज्वल. कांति सोनी रसनाना मध्य जागमा आवी जगत्ने वीरनी धारानी शंका
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान रशतकम्।। ॥७॥
उत्पन्न करे , एवा मंगळोना स्थानरूप अने सुखमय अमृतना निरवधि समुज एवा देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ प्रतु तमने चिरकाल शाश्वत लक्ष्मी [ मोकादमी ] ने आपो. ५ - विशेषार्थ-आ श्लोकमां श्री पार्श्वनाथ प्रजुना शरीरनी कांतिनुं वर्णन करी मोकलक्ष्मीनी प्राप्ति रूप आशीर्वचननो उद्गार करवामां आव्यो. श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी श्वेतकांति नपर ग्रंयकार नत्प्रेक्षा करे . श्री पार्श्वनाथ प्रनुनी कांति मोलरना पुष्प जे घणांज श्वेत , तेना गर्वने नाश करे . तेवी श्वेत कांति श्वेतकांतिवाळा प्रनुनी साये रहेला सर्पनी रसनानो योग पामेली बे, तेथी ए कांतिनी झाइ एवी प्रसरे ने के, ते जोइ जगत्ना लोकोने जाणे प्रतु उपर कीरनी धारा थती होय, एवी शंका उत्पन्न करावे . आवा श्री पार्श्वनाथ प्रभु मोकलदमी आपवाने समर्थ जे. जे मोहबझीने आपवाने स.
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
मर्थ होय ते मंगळना स्थानरूप तया सुखना समुप रूप होवा जाइए, तेथी ग्रंथकार तेमने तेवा विशेषणो आपे के, श्री पार्श्वनाथ प्रभु मंगळोना स्थान रूप में अने सुखमय अमृतना निरवधि सागररूप . ५ निश्रेणिर्मुक्तिधाम्नः रफुरदुरुदुरितोदन्वदुत्तारसेतुः केतुर्विघ्नोदयानां जडिमदिनपतिर्भूर्भुवः स्वः प्रदीपः । कुल्या कल्याणवल्याः कलुषसुरसरित् पुण्यपीयूपवृष्टिदृष्टिः पार्श्वस्य तेजांस्युपनयतु सतां संहरंती तमांसि ॥६॥ अवचर्णिः-मुक्तिधाम्नो निश्रेणिः स्फुरफुरुसुरितोदन्वत्तारसेतुः विघ्रोदयानां केतुः जमिमदिनपतिः नूर्जुवः स्वःप्रदीपः कल्याणवल्याः कुब्या कापसुरसरित् पुण्यपीयूषष्टिः तमांसि संहरंती पार्श्वस्य दृष्टिः सतां तेजांसि उपनयतु वृफि नयतु । स्फुरंति च नरूणि च स्फुरसुरूणि तानि च दुरितान्येव नदन्वान् समुजः तस्योचारः तत्र सेतुरिव सेतुः । जमिमनि जाड्ये पते मूर्खत्वे दिनपतिः । कुट्या नीका ।।६।।
܂
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥७॥
नावार्थ-मोक्ष रूप मेहेलनी निसरणी रूप, स्फुरणायमान एवा मोटा पाप रूप समुज्ने उतरवानी पाज (पुत्र) रूप, विघ्नोना नदयमां ध्वजा रूप जमतामां सूर्य रूप, त्रण लोकमां दीपक रूप, कल्याण रूप सतामां नीकरूप अने पाप रूपी महा नदीमा पवित्र अमृतनी वृष्टि रूप एवी श्री पार्श्वनाथ प्रनुनी दृष्टि सत्पुरुषोने अंधकारनो नाश करी तेज आपो. ६
विशेषार्थ-या श्लोकमां श्री पार्श्वनाथ प्रनुनी दृष्टिनो प्रस्ताव दर्शाव्यो ने. जे प्राणी उपर श्री पार्श्वनाथ प्रनुनी दृष्टि पमे तेने केटलो अने केवो वान थाय ? तेने माटे ते दृष्टिने जुदां जुदां रूपक आपेतां . ते दृष्टि मुक्ति रूपी मेहेननी निसरणी ने एटने जे प्राणी नपर प्रनुनी दृष्टि पके, ते प्राणीने मोक्ष मळे जे. तेनाथी प्राणी पापरूप समुपने उतरी जाय . तेने १ ध्वजा मंगळ रूप होवाथी विघ्ननो नाश करनार छे.
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
विघ्नो थता नथी, जडता रहेती नथी, त्रण लोकनो प्रकाश थाय ने, कल्याणनुं पोषण थाय ने अने पाप रूप सरितामां पुण्य रूप अमृतनी वृष्टि थाय . ६
यज्जन्मस्नात्रपर्वण्यनवरतचलच्चामरालीमरुद्भिविक्षिप्तैरंतरीक्षे विचकिलधवलैर्दुग्धसिंधोः पयोभिः ।।
आकीर्ण शीतरश्मेः क्षणमधितवपुर्निष्फलंकामवस्थां
त्रैलोक्यारब्धसेवः स हरतु दुरितं पार्श्वदेवश्चिरं वः ॥ ७॥ अवचर्णिः त्रैलोक्यारब्धसेवः स पार्श्वदेवश्चिरं वो युष्माकं दुरितं हरतु । यज्जन्मस्नात्रपर्वणि अनवरतचनच्चामरालीमरुदिः अंतरीके विक्षिप्तः नत्सारितैः विचकिला मलिका तइयवः पुग्धसिंधोः पयोनिराकीर्ण व्याप्तं शीतरश्मेर्वपुः कणं निष्कलंको अवस्था अधित धृतवत् ॥ ७॥
लावार्थ-जेमना जन्म स्नात्रना पर्वमा वारंवार चलायमान थयेला
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ।।
॥ ए॥
चामरोनी पंक्तिना पवनोथी आकाशमां उबळेला क्षीरसागरना मल्लिकाना वृ. ना जेवा धोळा जळथी व्याप्त थयेनुं चंद्रनुं शरीर क्षणवार निष्कलंक - स्थाने प्राप्त थाय छे अने त्रण लोक जेनी सेवा करे बे एवा श्री पार्श्वनाथ प्रभु चिरकाळ तमारा पापने दरो. ७
विशेषार्थ - श्री पार्श्वनाथ प्रजुना जन्म स्नात्रना उत्सवनुं वर्णन आप ग्रंथकार आशीमंगळ करे बे. पार्श्वनाथ प्रभुना जन्म स्नात्रनो उत्सव एवो मोटो थाय बेके, जेनी अंदर हजारो देवताओ चामर वीजे बे अने ते चामरना एवा मोटा पवनो बुटे बे के, जेथी क्षीरसागरना जळ उबळीने आकाशमां रहेला चंद्र सुधी पोहोचे बे. क्षीरसागरनुं जळ श्वेत होवाथी चंडनी अंदर रहेल कलंक ढंकाइ जाय बे एटले तेथी चंडनी अवस्था निष्कलंक थइ जाय . आवा प्रजाविक पार्श्वनाथ प्रजुनी सेवा त्रण लोक करे बे, तेथी ते
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
पापने दूर करवाने समर्थ . ७
स्पष्टं दृष्ट्वापि कष्टं वपुषि विगलितभ्रांतिसृष्ट्या स्वदृष्ट्या काष्टक्रोडाद्विकर्षन कमठमठाशखिम्लायितांगं भुजंगम् । यस्तथ्यां मुक्तिवीथीं कथयति करुणामेव देवाधिनाथश्रेणीसंवाहितांघ्रिर्विघयतु घटामापदां वः स देवः॥ ८॥ अवचर्णिः—देवाधिनाथा इंशास्तेषां श्रेणी तया संवाहितौ सेवितो अंधी यस्य स देवाधिनाथश्रेणीसंवाहितांधिः स देवो वो युष्माकं आपदां घटां विघटयतु श्लथयतु विगलितभ्रांतिसृष्ट्या स्वदृष्ट्याऽवधिझानेन वपुषि स्पष्टं कष्टं दृष्ट्वापि काष्टक्रोमात् काष्टमध्यात् कमठमखशिखिम्नायितांग नुजंग सर्प विकर्षन् यः करुणामेव तथ्यां सत्यां मुक्तिवीथीं मुक्तिमार्ग कथयति ॥ ७ ॥
इत्यष्टौ नमस्काराः पार्श्वस्य । लावार्थ-जे प्रक्षुए ब्रांतिनी उत्पत्ति वगरनी स्वदृष्टि ( अवधिज्ञान)
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहाशतकम् ॥
वमे स्पष्ट रीते पोताना शरीर उपर कष्ट जोइ काष्टनी अंदरथी सर्पने खेंची काढ्यो हतो के जे सर्प, अंग कमवना धूणीना अग्निथी करमाइ गयुं हतुं, जे दया नरेला मुक्तिना सत्य मार्गने कहे , अने जेमना चरण इंजोनी पंक्तिए सेवेला ने एवा ते श्री पार्श्वनाथ प्रतु तमारी आपत्तिओने नाश करो. ७
विशेषार्थ-आपत्तिने नाश करवा माटे ग्रंथकार श्री पार्श्वनाथ प्रचने आशीर्वाद रूपे स्तवे जे. जे पुरुषे कोश्वार बीजा कोश्नी आपत्तिनो नाश कर्यो होय, ते पुरुष आपत्तिनो नाश करवाने समर्थ थाय ने. तेथी आ श्लोकमां श्री पार्श्वनाथ प्रजुनो कम तापसनी धूणीमां बळता एवा काष्टमाथी सर्पने नगारवानो संबंध दर्शाव्यो ने अने एवा परफुःखलंजन प्रनु बीजानी आपत्तिने दूर करी शके . ७
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आश्चर्यमंदिरमुदारगुणाभिरामं विश्वंभरापणवधूतिलकायमानम् । तेजांसि यच्छतु कुमारविहारनाम भूमी भुजश्चलुकवंशभवस्य चैत्यम् ॥ ९ ॥
अवचूर्णि::- अथ कुमार विहारस्याष्टोत्तरं शतं काव्यानि । चुलुकवंशजवस्य भूमिभुजः श्रर्यमंदिरं उदारगुणानिरामं विश्वंजरापणवधू तिलकायमानं कुमारविहारनाम चैत्यं तेजांसि यच्छतु । विश्वजरा पृथ्वी सैव पणवधूः वेश्या तस्याः तिलक मिवाचरितं तिलकायमानं ' क्यङ् ' इति यः मनसि प्रतोय इतिमां तिलकायमानं कुमारविहार इति नाम यस्य तत् चैत्यं प्रासादः । पृथ्व्याः पणवधूपमानं 'पुहुवी नवी नवेल की पुरुष पुराणा थाइ ' इति हेतोः संभाव्यते ॥ ए ॥
नावार्थ - आश्चर्यनुं मंदिर रूप, उदार गुणोथी मनोहर ने पृथ्वी रूपी वारांगनानुं तिलक रूप एवं चौलुक्य वंशी महाराजा कुमारपाळनुं कुमा
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहारशतकम् ॥ ॥ ११ ॥
रविहार नामे चैत्य तेजने आपो. ए
विशेषार्थ-अहिंथी आ महा काव्यनी वस्तुनुं वर्णन शरुं थाय ने. अने ते वस्तुने आशीर्वाद रूपे वर्णवे ने-महाराजा कुमारपाळे रचेवू चैत्य के जे कुमारविहारना नामथी प्रख्यात छे अने ते उपरथीज आ काव्यनं नाम पण कुमारविहार पमेधुं ; ते चैत्य आ काव्यना वाचकोने तथा श्रोतामोने तेज आपो. ते चैत्यने जोवाथी अनेक आश्चर्य उत्पन्न थाय ने, तेथी ते श्रा श्चर्यन मंदिर . ते चैत्यना दर्शनथी अनेक जातना गुणो थाय , तेथी ते उदार गुणोथी मनोहर . मनोहर अने चंचुं एवं ते चैत्य आ पृथ्वी रूपी स्त्रीनुं तिलक रूप जे. आवा उत्तम विशेषणोने बइने ते चैत्य तेज आपवाने समर्थ . ए
यस्मिन्नास्थानभाजः शशिमणिवपुषः पार्श्वनाथस्य गात्रम्
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्नात्रांभः सेकमात्र प्रणयविघटितास्तोकलोकाधिशोकम् ।
संक्रामद्भिस्तुरंगद्रुमशशिसुरभिश्रीगजैर्भित्तिचित्रैः सौभाग्यं दुग्धसिंधोरविदितमथनोत्पातबाधस्य धत्ते ॥१०॥
अवचूर्णि :- यस्मिन् प्रासादे आस्थाननाः शशिमणिवपुषः पार्श्वनाथस्य स्नात्रांनःसेक - मात्रप्रणय विघटितास्तोकझोका धिशोकं गात्रं नित्तिचित्रैः संक्रामद्भिः तुरंगद्रुम। शिसुरनिश्रीगजैः प्रविदितमथनोत्पातवाधस्य दुग्धसिंधोः सौनाग्यं धत्ते । विदितोऽज्ञातो मथनमेव उत्पातबाधो यस्य दुग्धसिंधोः तस्य सेक ऐव सेकमात्रं तस्य प्रणयः संश्लेषः ॥ १० ॥
वार्थ - जे कुमारविहार नामना जिनालयमा स्थान करीने रहेला अने चंद्रकांत मणिमय शरीरवाळा श्री पार्श्वनाथ प्रभुनुं गात्र मात्र स्नात्र जळना सिंचनथी नम्र एवा घणां लोकोना शोकने नाश करनारुं बे, तेनी अंदर अश्व, कल्पवृक्ष, चंद्र, कामधेनु, लक्ष्मी अने औरावतना भीतपर चित्रेलां
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा
रशतकम् ॥ ॥१२॥
चित्रोना प्रतिबिंब पवाथी मथन करवाना नुत्पातनी पीमाने नहिं जाणनारा कीरसागरना सौनाग्यने ते धारण करे . १०
विशेषार्थ-कुमारविहार चैत्यमा रहेला श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी प्रतिमा चंद्रकांतमणिमय ने ते प्रतिमाने ज्यारे स्नान करावे , त्यारे तेमांयी चंगकांत मणिना करणाओ करे . जे नविप्राणी उपर ए स्नात्र जळy सिंचन थाय ने, ते नविप्राणी शोकयी मुक्त थइ जाय . ते चंकांतमय प्रतिमाने ज्यारे स्नान कराववामां आवे , त्यारे ते स्नात्र जळनी अंदर मंदिरनी नीतो उपर चितरेला अश्व, कल्पवृक्त, चंज, कामधेनु, लक्ष्मी अने अरावतना चित्रोना प्रतिबिंबो पके . आ देखाव नपरथी कवि कल्पना करे ने के, समु. जना मथननी वार्ता लोकमां प्रसिद्ध छे. ने मथन करेला समुज्मांधी चौद रत्नो नीकळेनां . ते चोद रत्नोमां अश्व, कल्पवृक्ष, चंड, कामधेनु, बदमी
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
रावत ए रत्नो प्रख्यात बे. प्रजुना स्नात्र जळ रूप समुद्रमां प्रतिबिंCarrer अश्व, वगेरे रत्नो मथन करवानी पीमा वगर प्राप्त थयेला देखाबे. तेथी आ स्नात्रजळनो कीरसागर पेला चीरसागरथी विशेष सौभाग्यवान् बे. हिं व्यतिरेकालंकार थाय बे. १० निर्गच्छत्कांतिवीचीनिचयधवलिताभ्यर्णसौवर्णभित्तियस्यांतश्चंद्रकांतोपलशकलमयी पुत्रिकांभः किरंती | वंदारूणां त्रिलोकी प्रसृमरयशसो देवदेवस्य पादान् शौचाचारे गल्तीललितमविकलं नक्तमाविष्करोति ॥११॥
त्र्यवचूर्णिः — यस्य अंतर्निर्गच्छत्कांतिवीची निचयधवलितान्यर्ण सौवर्णनित्तिः अंजः किरंती चंद्रकांतोपलशकलमयी पुत्रिका त्रिलोकी प्रस्टमरयशसो देवदेवस्य पादान बंदारूणां जनानां शौचाचारे नक्तं रात्रौ गतीललितं करकललितं विकलं आविष्करोति । विष्पूर्वः करोतिः । ' निई
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥
बहिराविमाऽश्चतुरां' इति सूत्रेण षत्वं ॥ ११ ॥
नावार्थ-जे कुमार विहार चैत्यनी अंदर नीकळती कांतिना तरंगोना समूहथी पासेनी सुवर्णनी नीताने प्रवाश करती एवी चंजकांत मणिना कटकानी पुतळी के जेमांथी जळना ऊरणा नीकळे . ते त्रण लोकमां जेनुं यश प्रसरी रह्यं छे एवा देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ प्रतुना चरणने वंदना करनारा मनुष्योने सारी रीते तेमना शौचाचारने माटे पूर्ण एवी लज्जा प्रगट करे छे. ११
विशेषार्थ-कुमारविहार चैत्यनी अंदर चंडकांत मणिनी पुतळीओ आवेली . तेनी काति पासेनी दीवालो नपर पके चे, तेथी ते धोळी थइ गयेबी जे अने तेमांथी पाणीनां-झरणां झर्या करे . आथी प्रजुना चरणने वं. दना करवा आवेला लोकोने पोताना शौचाचारने माटे पूर्ण एवी खजा प्रगट करे . ११
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यंतभित्तिषु विचित्रवितानरूपबिंबांकितासु शशिरत्नमयीषु यत्र ।
आलेख्यकर्म शबलं लिखतो तथैव
संतर्जयंति खलु चित्रकरान्नियुक्ताः ॥ १२॥ अवचर्णिः—यत्र विचित्रवितानरूपबिंबांकितासु शशिरत्नमयीषु पर्यंत जित्तिषु वथैव शबलं श्रालेख्यकर्म लिखतः चित्रकरान् नियुक्ता अधिकारिणः खनु संतर्जयंति । पर्यतनित्तयो बहिनित्तयः वितानं जबोचश्चंजोदय इति यावत् । चित्रकर्म शबलं कर्बुरं ॥१२॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्यना पर्यंत नागमां चंकांतमणिनी दिवालो आवेत्री ने के, जे विचित्र चंदरवाना रूपना प्रतिबिंबी अंकित . तेनी अंदर नकामुं काबरचितरं आलेखनुं काम करनारा चित्रकारोनो त्यां नौमाएला रक्षकपुरूषो तिरस्कार करे . १५
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
रविहा
.. तकम्
१४ ॥
विशेषार्थ — कुमार विहार चैत्यनी अंदर आवेली दिवालो चंद्रकांतमणिनी रचेली बे, तेमां विचित्र जातना त्यां बांधेला चंदरवाना प्रतिबिंबो प बे, तेथी तेनी अंदर स्वाभाविक रीते चित्रकाम खडुं थाय बे. या वखते जे चितारा मां काबरचीतरा रंग पूरी चित्रो करता हता, तेमनो ते प्रयत्न वृथा जाणी त्यां रहेला रक्कपुरूषो तेयोनो तिरस्कार करे बे. कारण के, ज्यां विचित्र चित्रो प्रतिबिंबधी थयेलां बे, ते उपर बीजां चित्रो करवां ते वृथा बे. १२
नानाहस्त कशालिनी: क्वचिदपि क्वापि त्रिलोकीजनस्तुत्याकारविराजिनीः क्वचिदथ व्यालोलताडंकिनीः । दृष्ट्वा यत्र भवंति रत्नघटिताः पांचालिकाः प्राणिनः ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
केचिन्नाट्यविदः स्मरग्रहभृतः कोचित्परे शिल्पिनः ॥१३॥ .. अवचर्णिः-यत्र कचिदपि नानाहस्तकशालिनीः कापि कचिदपि त्रिलोकीजनस्तुत्याकारविराजिनीः अथ कचिद् व्यालोलतामंकिनीः रत्नघटिताः पांचालिका दृष्ट्वा केचित्माणिनानाव्यविदः केचित स्मरग्रहभृतः परे शिस्पिनः नवंति हस्तकाः हस्तचालनानि । व्यालोबाश्च एतास्तामंकाः कर्णनूषणानि यासां ताः । 'अतइन् स्त्रियां' नृतोतियां तामकिनी ॥ १३ ॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्यनी अंदर कोइ ठेकाणे नानाप्रकारना हाथना हावनावथी सुंदर, कोइ ठेकाणे त्रणलोकना मनुष्योमा स्तुति करवा योग्य आकृतिथी विराजित अने कोइ ठेकाणे कानना चपळ आभूणोवाळी रत्लोथी घमेवी पुतळीओ रहेली तेओने जोइ केटलाएक प्राणीओ नाट्य शास्त्रने जाणनारा थइ जाय , केटलाएक कामी थइ जाय छे अने केटला. एक कारीगरो बनी जाय . १३
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
रविहा तकम् ॥ १५ ।।
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर त्रण प्रकारनी पुतळी गोवेली छे, तेओने जोइने माणसो पण ऋण प्रकारना बनी जाय बे. जे पु
तळी
हाथना हावभाव करनारी बे, तेयाने जोनारा नाटक कळामां प्रवी थाय बेजे पुतळी सुंदर आकृतिवाळी बे, तेने जोनारा पुरुष कामी जाय बेने यो कानना चपळ आभूषणोने धारण करनारी बे, तेने जोनारा पुरुषो कारीगर बनी जाय बे. १३
ग्राम्या दुग्धमयान् विलासिमनसः कर्पूरपूरात्मकान् वादभ्रांतिभृतो रसस्थितिभवान् सौवर्णिका राजतान् । ज्योत्स्नाभिः कलधौतजां जनयतः स्वर्णस्य कुंभावलीं स्तंभान् यत्र विकल्पयंति रभसादागतवो जंतवः ॥ १४ ॥ अवचूर्णि:गः यत्र ज्योत्स्नाजिः कलधौतजां स्वर्णस्य कुंजावलीं जनयतः स्तंज्ञान् रजसात्
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
तवः ग्राम्या दुग्धमयान् । विलासिमनसः कर्पूरपूरात्मकान् वादज्रांतिभृतो धातुवादिनः रसस्थितिजवान् पारदस्यानोत्पन्नान् सौवलिका राजतान् विकल्पयति । वेगात् आगच्छंती ति आगतवः तुस्प्रत्यये । ग्रामे जवाः ग्राज्याः यञ्प्रत्यये कर्पूरपूर आत्मा येषां ते कर्पूरपूरात्मकाः स्वरूपेके । १४ ॥
जावार्थ - बाहेर वेगवडे आवेला लोको जे चैत्यनी अंदर सुवर्णनी कुंभावळीने (कुंभीने) चंद्रनी कांतिथी रुपानी करता एवा कलशोने जो-, 5 जुदा जुदा तर्क करे बे. गाममीच्या लोको तेमने दुधना बनेला धारे छे. विलासीहृदयवाळा रसिकपुरुषो तेमने कपूरना पूरथी बनेला माने छे. धातुवादनी चांतिने धारण करनारा पुरुषो तेमने पाराना रसने स्थिर करी बनावेला जाणे छे अने सोनी बोको तेमने रुपाना बनेला माने छे. १४
विशेषार्थ - श्लोकथी ते चैत्यनी अंदर आवेला कलशोनुं सौंदर्य व बे. खरी रीते तो ते थांजलाओनी कुंजीओ सुवर्णन बे, पण
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
राव
कम् ॥
१६॥
ते उपर चंपनी कांति पवाथी तेत्रो एटला बधा धोळा देखाय छे के, जेमने जोनारा लोको विविध जातनी कल्पनाओ करे . कल्पना करनारा लोकोए जे जे कल्पना करी छे, ते तेमनी जातिने अनुसरीने करेली . १४
यस्मिन्नालोक्य मत्यैर्विकटमपि कृतं संकटं रंगमध्यं प्रेक्षोत्का नाकनार्यो रुचिरमणिशिलापुत्रिकाणां छलेन।
आरूढाः काश्चिदुच्चैः प्रबलरभसया मंडपं काश्चिदुच्चं • स्तंभानां प्रांतमन्याः शिरवरपृथुतटीमेरवलां काश्चिदुच्चाम् ॥१५॥
अवचणिः—यस्मिन् विकटं विस्तीर्णमपि रंगमध्य मत्त्यैर्मनुष्यैः संकटं संकीर्ण कृतं श्रालोक्य रुचिरमणिशिलापुत्रिकाणां उबेन प्रेवोत्काः विलोकनीयोत्कंठलाः काश्चिन्नाकनार्यः प्रबारजसया उच्चैः स्थानं काश्चिञ्चं मंझपं अन्याः स्तंनानां प्रांत काश्चित् उच्चां शिखरपृथुतटीमेखलां आरूढाः संतीति गम्यं रनसाशद्ध आकारांतोऽपिपुंस्त्रीलिंगत्वात् ।। १५ ॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावार्थ - जोवाने उत्सुक एवी स्वर्गनी देवीओ जेनी अंदर आवी ते चैत्यना रंग मंरुपनो मध्य भाग विकट बतां पण लोकोथी सांकमो थयेलो जोइ सुंदर मणिशिलानी पुतळीओना बढ़ानाथी कोइ प्रबळ वेगवने उंचा inप पर आरुढ थर बे. कोइ स्तंनोना उंचा प्रांत जाग उपर आावी गइ कोइ शिखरनी घणी विशाळ अने उंची मेखला उपर चमी गइ बे. १५
विशेषार्थ- - श्लोकथी ग्रंथकार ते चैत्यना रंग मंरुपनी अंदर गोवेली मणिशिक्षानी पुतळीने उत्प्रेक्षा अलंकारथी ववे बे. मंरुप, तेना river मेखला उपर रहेली ते पुतळीओ नथी पण ते चैत्यने जोवाने आवेली देवीओ बे. लोकोनी जीमथी सांकमा थयेला ते चैत्यना रंग inपने जोड़ते जुदे जुदे स्थाने चमी गइ बे. ते उपरथी ते चैत्यनी अंदर
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमारविहारशतकम् ॥
घणी पुतळीनो गोठवेली , एम बताव्युं . १५
साक्षेपं प्रेर्यमाणैरपि सरलपथे वैनतेयाग्रजेन जस्तैीष्माननेभ्यः शिखरगुरुतटीपीठकंठीरवेभ्यः । उद्वल्गं नीयमानः प्रसभमिह हयैरयत: पृष्टतो वा यस्योत्तुंगस्य मूर्ध्नि व्रजति न तरुणेऽप्यह्नि पूष्ण: पताकी ॥१६॥
अवणिः -नत्तुंगस्य यस्य मूर्ध्नि वैनतेयाग्रजेन अरुणेन सरलपये आकाशे साक्षेपं प्रेर्यमाणैरपि जीष्माननेभ्यः शिखरगुरुतटीपीठकवीरवेन्यः त्रस्तैर्हयैरिह पत्तने तरुणेऽप्यह्नि मध्याह्नेऽपि प्रसनं हगत् पृष्टतो वाग्रतः नष्टगं नीयमानः पूष्णः सूर्यस्य पताको रथः न व्रजति ॥१६॥
नावार्थ-नंचा एवा जे कुमारविहार चैत्यना मस्तक उपर मध्यान्ह काळे पण सूर्यनो रथ चाली शकतो नयी. कारणके, अरुण सारथिए सरल मार्गे आक्षेपथी हांकेता अश्वो ते चैत्यना शिखरना मोटा तटना पीठ नपर
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोरीने चितरेला जयंकर मुखवाळा सिंहोथी त्रास पामता हता. अने तेथी ते लगामने नहिं गणी ते रथने बळात्कारे आगळ अथवा पाबळ लइ जता हता. १६
विशेषार्थ- - या काव्यमां कर्त्ताए कुमारविहार चैत्यनी उन्नति ने तेनी अंदर रचेली कारीगरी दर्शावी बे. ते कुमारविहार प्रासाद एटलो बधो चोबे, सूर्यनोरथ नी नजीक आवे छे. मध्यान्हकाळे ज्यारे सूर्यनो रतेना शिखर पर आवे बे, ते वखते त्यां करेली सिंहनी प्रतिमाओ जो5 सूर्यना रथना घोमा चमकी जाय बे, तेथी सूर्यना सारथि अरुणने ते घोमाने हांकवामां घी मुश्केनी परे बे. या वर्णनमां कविए अतिशयोक्ति अलंकार दर्शाव्य अने ते साधे प्रस्तुत वस्तुनुं मनोरंजन वर्णन करी बतायुं बे. १६
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहाछातकम् ॥ १८ ॥
त्रिस्थानी संनिवेशप्रयणसुरभिणो वल्लकीनादभाजस्तृष्णावेशादशेषस्वरलयघटनास्फीतगीतामृतस्य । उत्कर्ण व्योम्नि तिष्ठन् प्रतिपदरचनां रात्रियात्रास्वतंद्रश्वांद्रः कालत्रयेऽपि प्रथयति महतीं यत्रराकां कुरंगः ॥ १७॥
अवचूर्णिः — गीतनृत्यवादित्रत्रयमिति त्रिस्थानी अथवा नानिहृदयकंठत्रयं यत्र । रात्रियात्रा त्रिस्थानी संनिवेशमणयसुरनिए: वल्लकीनादनाजः शेषस्वरक्षयघटनास्फीतगीतामृतस्य तृष्णावेगात् प्रतिपदरचनां उत्कर्ण व्योम्नि तिष्ठन् अतंद्रश्चाद्रः कुरंगः कालत्रयेऽपि महतीं राकां प्रथय । तृष्णावेशः आटोपः त्रयाणां स्यानानां द्रुतविलंवितमध्यरूपाणां तेषांसमाहारः त्रिस्थानी तस्याः संनिवेशो रचना तत्र प्रणय आश्लेषः तेन सुरनि मनोज्ञम् ॥ १७ ॥
भावार्थ- जे कुिमार चैत्यमां रात्रिनी यात्रामां आलस वगरनो अने चंद्रन अंदर रहेलो हरिण त्रणे काळ मोटी पूर्णिमाने दर्शावे छे. कारण के,
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
ते चैत्यमा त्रण स्थानना स्नेहयी मनोहर संगीतना नृत्य, गीत अने वादित्ररूप वीणाना नादथी युक्त अने सर्व स्वरोना बयनी घटनाथी व्याप्त एवा गायन रूप अमृतनी तृष्णाना आवेशयी ते गायनना दरेक पदनी रचना सांभळवा जंचा कान करीने आकाशमा जन्नो रहे . १७
विशेषार्थ-आ श्लोकमां कवि कुमारविहार चैत्यनी नन्नतिनी साथे तेमां थती संगीत पूजानुं वर्णन करे . ते चैत्यमां नृत्य, गीत अने वादित्रयी मळेलं तथा वीणाना नादथी युक्त एवं संगीत सदा काळ थया करे . ते संगीतने सांगळवानी इच्छाथी चंजनी अंदर रहेको मृग ते स्थळे स्थिर रहे रे एटवे त्यां सदा काळ पूर्णिमानो देखाव थ रहे . मग जातिने संगीत सांनळवानो घणोज शोख होय . ए श्रवणेंजियनी आसक्तिने बइने शीकारीओना पाशमां सपमाय ने अने पोताना प्राणने पण गुमावे . अहिं अति
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा
तकम् ॥
शयोक्ति अलंकार . ते अलंकारथी कुमारविहार चैत्यनी उन्नति अने तेमां थती संगीत पूजानुं वर्णन करेलु . ९७
बिभ्राणैरक्षराली त्रिभुवनजनताक्षेमरक्षकपाली मंत्रै विघ्नेक्षुयंत्रैः स्नपनविधिभवैर्नित्यमाहूयमानाः । यातायातानि भूयः प्रथयितुमनलंभूष्णवो यत्रदेव्यो बाह्यानां देवधाम्नां व्यधिषत वसतिं मंडपो/गणेषु ॥१८॥
अवणिः —यत्र त्रिभुवनजनतामरकैकपालीमकरानी विभ्राणैः स्नपनविधिनवैः विघ्नेनुयंत्रैः मंत्रः आहूयमानाः नूयः अखंजवंतीति अखंजूष्णवः नूजेस्नुः स्नुप्रत्यत्यः । यातायातानि प्रथयितुं अनमंजूष्णवः देव्यः बाह्यानां देवधाम्नां मंझपो गणेषु वसति व्यधिषत न मध्ये न बहिः कित्वोपचारः॥१०॥
नावार्थ-त्रण नुवनना बोकोना कुशळनी रक्षा करवामां मुख्यपाळरूप
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
एव अहरोनी श्रेणीने धारण करनारा अने विघ्नोनो नाश करवामां शैली पीलवाना यंत्र जेवा स्नात्र विधिना मंत्रोथी दंमेशां बोलाववामां आवेली देवीओ वारंवार गमनागमन करी शकी नहिं एटले ते ते चैत्यनी बाहेर आवेला देवालयोना मंरुपना उपरना यांगणांमां स्थान करीने रहेली बे. १८
विशेषार्थ - श्लोकथी ग्रंथकार कुमारविहार चैत्यनी अंदर प्रता नित्य स्नात्रविधिना महिमानुं वर्णन करे छे. प्रथम ते स्नात्र विधिना मंत्रोने माटे हे के, ते मंत्रोमा रहेला अकुरो त्रण जुवनना लोकोनी रक्षा करवा समर्थ बे. ते वळी ते मंत्रो सर्व प्रकारना अंतरायने दूर करवाने समर्थ d. ए मंत्रोनी अंदर शासनदेवी ने बोलाववामां आवे छे. ते चैत्यमां स्नात्रविधि हंमेशां थवाथी ते देवीने नित्ये वकुं पडे बे. हंमेशां जवा आववाथी ते देवीने श्रम पमे ब्रे, तेथी तेयो कुमारविहार चैत्यनी बाहेरना
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार
बिहा
देवालयोनी अंदर आवी वास करीने रहेबी . कहेवानो आशय एवो ने के, ते चैत्यमा हमेशां मात्रविधि थ्या करे ने अने तेना पवित्रमंत्रोना उच्चार त्यां थया करे . १०
पश्यन् हाटककुंभपंक्तिमतुलां निर्वर्णयन् पीठिकाम् । निध्यायन् विविधा वितानवितती व्यालोकयन् पुत्रिकाः । यस्मिन् मध्यमपूर्वकौतुकशतैः क्षिप्तांतरात्मा चिराद् द्वारस्थैरिव धारितः प्रविशति प्रायेण सर्वो जनः ॥ १९॥ ___ अवणिः -यस्मिन् प्रासादे हाटककुंजपंक्तिं पश्यन् अतुझां पीलिकां निर्वर्णयन् विविधा वितानविततः निध्यायन पुत्रिका व्यालोकयन् अपूर्वकौतुकशतैः क्षितांतरात्मा प्रेरितात्मा झारस्यैरिव धारितः प्रायेण सर्वो जनः चिरान्मध्यं प्रविशति ॥ १५॥
लावार्थ--जेना मध्यत्नागमां सुवर्णना कुंनोनी पंक्तिने जोता, अनु.
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
000000000
म पीठिकाने नीरखता, विविध प्रकारना उल्लेचनी श्रेणीने अने पुतळीलोकता सर्व माणसो अपूर्व एवा सैकको कौतुकधी हृदयमां विकेप पामी जाय बे, तेथी जाणे द्वारपालोए तेमने अटकाव्या होय, तेम प्रा. करी मां घी विलंबे प्रवेश करे छे. १९७
विशेषार्थ — जेम कोइ राजद्वार वगेरेमां प्रवेश करवो होय त्यारे द्वारपालना अटकाववाथी घणी विलंबे तेमां प्रवेश थाय बे, तेम कुमारविहार चैत्यनी अंदर प्रवेश करवामां विलंब थाय छे. कारण के, तेमां प्रवेश करतां माणसो चैत्नी केटली एक शोना जोवामां रोकाय बे, तेथी तेमने अंदर प्रवेश करतां घी बार आगे े. ते उपर कवि उत्प्रेक्षा करे ने के, चै - त्यनी अंदर आवेल सुवर्णना कळशनी पंक्ति, अनुपम पीठिका, उल्लेच, अने पुतळी योनी शोभा जोवामां रोकाएवां माणसो जाणे द्वारपाळे अटकाव्यां
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
10404
होय, तेम चिरकाले तेमां प्रवेश करे बे. ते उपरथी सिद्ध थयुं के, ते चैत्यनी अंदर सुवर्ण कळशनी पंक्ति, पीठिका, उल्लेच अने पुतळीओ जोवां लायक बे. १
सर्वत्र निर्मलतमोपलबिंबितानि
स्वान्येव पुष्पबलिजूंषि वपूंषि वक्ष्यि । संघट्टकष्टचकिताः प्रतिपालयंतो
मध्यं चिरेण खलु यस्य विशंति मुग्धाः ॥२०॥
अवचूर्णिः — सर्वत्र निर्मझतमोपविवितानि पुष्पजूंषि स्वान्येव वपूंषि व संकष्टच किताः प्रतिपालयतः मुग्धाः खलु यस्य मध्यं चिरेण प्रविशति पुष्पाणि बलयश्च पुष्पवलयः पुष्पवलीन् जुषंतीति पुष्पवलिजूंषि जुष्धातुः किपिजुष् । घंटालोझान्यायेन वीक्ष्य प्रतिपालयतः इति श Sarcasोः कर्म वव ॥ २० ॥
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावार्थ - सर्व स्थळे रहेला अति निर्मळ स्फाटिक मणिना पाषा: गोनी अंदर पुष्पा बलि साथ रहेला पोतानाज शरीरने जोइ संघट्टयवाना' (जी थवाना) कष्टथी जय पामी राह जोइ उज्मा रहेला मुग्ध बोको ते चैमध्यमां चिरकाले प्रवेश करे बे. २०
विशेषार्थ - ते चैत्यनी अंदर पुष्पना बलिने बइ पूजा करवा आवे आ मुग्ध बोको, पोताना शरीरने अति निर्मल एवा स्फाटिक मणिमां प्रतिबिंबित rai जो यो मुग्धपणाने लइने एम समजे बे के, अहिं लोकोनी जीम घणी बे, तेथी जयपामी तेओ जीम दूर थवानी राह जोइ उजा रहे अने ते कारणथी तेयो घणीवारे चैत्यनी अंदर दाखल थाय ने उपरथी एम दर्शाव्युं छे के, ते चैत्यमां निर्मल स्फाटिकमणि जड्या हता नेत्यां जिन पूजा करवाने घणा लोको आवता हता. २०
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
| २२
विश्वं निर्दोषषट्कं किमपि विदधतो देवदेवस्य पादानाश्लिष्यन् बाह्याभित्तिप्रतिहतिवलनप्राप्तमध्यैः करायैः । एणांकरत्यक्तशंकः पतति मणिभुवि प्रांगणस्य क्षपायाम् प्राप्तप्रौढिं कलंकं विघटयितुमना यत्र बिंबच्छलेन ॥ २१ ॥
अवचूर्णिः यत्र रूपायां निर्दोषपट्कं विश्वं विदधतो देवदेवस्य पादान् बाह्य नितिमतितिवलनप्राप्तमध्यैः करायैः आश्लिष्यन् प्राप्तमौढिं कलंकं विघटयितुमनाः दूरीकर्तुमनाः त्यक्तशंकः एणांकः बिलेन प्रांगणस्य मणिवि पतति । काम ? क्रोध २ बोज ३ मान ४ दंज ए रति ६ दोषषट्कं दोषाणां पटकं दोषपटकं निर्गतं दोषषट्कं यस्मात्तत् । विघटयितुं मनो यस्य स विघटयितुमनाः तुम मनःकाम इति मकारलोपः ॥ २१ ॥
जावार्थ - जेना प्रांगणानी मणिमय भूमिमां चंड पोतानुं प्रौढ कलंक दूर करवानी इच्छाथी प्रतिबिंबना भिषग्री निःशंक थइने पके बे. जे चं
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
-
अ आ जगत्ने काम क्रोधादि उ दोषथी रहित करनारा श्री देवाधिदेवना चरणने बाहेरनी दीवालोने स्पर्श करी अंदर पेवेसा पोताना किरणोना अन नागथी आलिंगन करे . ११
विशेषार्थ-" देवाधिदेव नगवते आ जगत्ने कामक्रोधादि उ दोषथी रहित करेलु , तेथी जो तेमना चरणमां वंदना करी होयतो हुं पण कलंकना दोषथी रहित थश" आवी इच्छाथी चं ते चैत्यनी दीवासोने किरणो वो स्पर्श करी लगवंतना चरणमांप.चैत्यनी आंगणांनी स्फाटिकमणिमय भूमिमां चंजनुं प्रतिबिंब पडे , ते उपरथी कविए आ उत्प्रेक्षा क
-----
रेली . १
अंतर्लब्धप्रवेशैः करनिकरभरैर्भशयन्नंधकारप्राग्भारं देवमूर्ति बहिरपि नमतां दर्शयन् सप्रकाशम् ।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्तुंगे संमुखाया: प्रतिनिदधदयं यत्र रत्नाश्मभित्तेः सौवर्णस्यांशुमाली कलयति करणं प्रत्यहं दर्पणस्य ॥२२॥
अवचूर्णिः -यत्र उत्तुंगे अंतर्सब्धप्रवेशैः करनिकरनरैः अंधकारमान्जारं भ्रंशयन् बहिरपिनमतां नराणां सपकाशं देवमात दर्शयन् संमुखायाः रत्नाश्मन्नित्तरुत्संगे प्रतिनिदधत् अयं अंशुमाली सूर्यः सौवर्णस्य दर्पणस्य प्रत्यहं करणिं सादृश्यं कायति । धाग्यातुः शतृप्रत्ययः ततः कृतधित्वे नोंतेचअंतोनोलुगि प्रतिनिदधत् रूपम् ॥ २२॥
नावार्थ-सूर्य जे जंचा चैत्यनी अंदर प्रवेश थयेला पोताना किरणोना समूहथी अंधकारना समूहने दूर करे , बाहेर रही नमस्कार करता एवा पुरुषाने प्रकाश सहित दर्शावे छे. अने चैत्यना आगळ सन्मुख आवेली रत्नमणिनी दीवासना मध्यमां पोतानुं प्रतिबिंब पाडे , तेथी ते सूर्य हमेशां सुवर्णना दर्पणनी तुलनाने प्राप्त करे छे. २२
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषार्थ-आ श्लोकमां सूर्यने सुवर्णना दर्पणनी उपमा आपेली छे. जे चैत्यनी सन्मुख आवेली दीवालनी अंदर सूर्यनुं प्रतिबिंब पड़े छे. ते वखते तेना किरणो तेनी अंदर पो छे तेथी प्रजुनी मूर्त्तिने बाहेरथी नमन करतां एवा लोकोने प्रकाश मझे छे. आ उपरथी कविए चैत्यनी अंदर रत्नमणिमय दीवालो छे, एम दर्शावेधुं छे. १२
वैदूर्याश्मप्रणालीमुखमकरतर्घाणपात्रकमित्रम् यस्मान्निर्गच्छदच्छं स्नपनविधिभवं केतकीपुष्पपाथः । दिग्लोलानीलभासो बहुलपरिमलाकृष्टभंगप्रसंगभ्रांत्या हस्तैः किरंत्यः पुरहरिणदृशो मौलिभिः संस्पृशंति ॥२३॥ अवचूर्णिः-दिलोमा दिनुचपला नील नामो नीलकांतीः कर्मतापन्नाः बहुलपरिमन्नाकृष्टभंग ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ २४ ॥
प्रसंगजांत्या हस्तैः किरंत्यः क्षिपत्यः पुरहरिणदशो नगर स्त्रियो यस्मात्मासादाद्वैदूर्यारममणासी मुखमकरतटै र्निर्गच्छत् घ्राणपात्रैकमित्रं स्त्रपनविधिजवं केतकीपुष्पपाथः पानीयं मौलिजिः संस्पृशंति । नगरस्त्रियः किं केतकीपुष्पपाथः कीदक् पुष्पपाथः निर्गच्छत् कस्मात् वैदूर्याश्मनां प्रणालीच्यः तासां मुखानि तेषु मकरतटाः तैः तटशद्धः शोनार्थः घ्राणपात्रं नासिका कापि वैदूर्याश्ममयत्वात्प्रासादस्य दिग्झोलानीअनासः प्रासादविशेषणं युक्तं दिक्कु बोलावला जासो यस्य सः तस्मात् ॥ २३ ॥
जावार्थ - वैदूर्यमणिनी मघरना आकारवाळी खाळमांथी नीकळतुं नात्र विधिनुं केतकीना पुष्पवाळु निर्मल जल के सुगंधथी नासिकारूप पात्रनुं मित्ररूप हतुं. तेनी नीलकांतिम्रो दिशाओमां चपल थइ प्रकाशती हती तेथी नगरनी स्त्रीने एवी जांति थती दती के, अहिं घणां सुगंधने लइने जमरा चाइ आव्या बे, तेथी तेयो पोताना हाथवमे तेने उबाळती उबाकती पोताना मस्तक वमे स्पर्श करती हती. २३
विशेषार्थ - ते चैत्यनी अंदर प्रजुने स्नान करावाना जलने नीकळवानी
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
खाळ वैदूर्य मथि रचेली हत्ती अने ते खाळना मुख उपर मघरनी आकृति करेली हती तेमांथी स्नात्र जन्न ज्यारे बाहेर निकळतं ते वखते नगरनी स्त्री ते जलने मस्तक मे वंदन करवा आवतो, त्यारे वैदूर्य मणिनी नील. कांति ते जल उपर प्रसरीजती. तेने ते स्त्रीओ सुंगंधने बइ आवेला चमरोनेजा। तेने उमावा जती तेथी जलने उबालती हती. चमरनी कांति होय, ते ते स्त्रीओने भ्रम यतो हतो. अहिं चांतिमान् अलंकार वर्णलो . २३
प्रत्यारावैः सकेकाश्चलचमरमहोमांसलं पृष्ठपीठे विभ्राणाश्चित्रवर्ण विविधमणिभवं कांतिवीचीकलापं । नृत्यंतो द्वारवेदीतटभुवि कृतकं बर्हिणः प्रेक्षकाणां
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥२५
नेत्राण्याक्षिप्य नित्यं विदधति सरुषं यत्र शैलूषलोकं ॥२४॥
अवचूर्णिः -यत्र पृष्ठपीठे प्रत्यारवैः सकेकाः चक्षचमरमहोमांसलं चित्रवर्ण विविधमणिनवं कांतिवीचीकलापं विज्राणाः हारवेदीतटनुवि कृतकं नृत्यंतः बर्हिणः प्रेक्षकाणां नेत्राणि आ. क्षिप्य शैखूषलोकं नाट्याचार्यलोकं नित्यं सरुषं विदधति हारवेदी ( कोटमी ) यस्य प्रासादस्य पृष्ठं मयूरः तत्मत्यारावाः केकाः चामराणि कलापाः ॥ २४ ॥
नावार्थ-जे चैत्यमां चलायमान एवा चामरना तेजथी पुष्ट चित्र विचित्र वर्णवासा अने जातजातना मणिनी कांतियोना समूहने पोताना पृष्ठ नाग नपर धारण करता अने हारनी वेदिकानी तटनूमि उपर नाचता एवा मयूरो पोताना शब्दोना प्रतिध्वनिथी प्रेक्षकाना नेत्रोने पोतानी तरफ खेचता तेथी त्यां नाटक करनारा नटसोकोने क्रोध उत्पन्न थतो हतो. २४
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषार्थ-ए कुमारविहार चैत्यनी अंदर घारनी वेदिका उपर मयूर पढ़ीओ आवीने नृत्य करे रे. अने मंदिरना मध्य नागे नट लोको नृत्य करे . ते नट लोको, नृत्य जोवाने लोको आवेता होय , पण ते व. खते हारवेदी उपर नाच करता मयूरो के जेमना पृष्ठ नाग उपर विविध जातना मणिोथी चित्र विचित्र एवी कांतिनो समूह पके डे अने तेमना केकाध्वनिना प्रतिध्वनिो थाय , एथी ते प्रेक्षकोनी दृष्टिने खेंचे , ए जोइ नट लोकोने रोष उत्पन्न थाय , कारण के, तेओना नृत्य ने जोनारा माणसोनी दृष्टि मयूरो खेंचे . आ कहेवानो जावार्थ एवो ने के, ते कुमारविहार चैत्यमा विविध जातना मणिो घणां , तेनी हारवेदिका उपर मयूर पढ़ीओ तथा नट लोको आवीने सदा नाट्यारंन करे . २४
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमा रशतकम् । ॥ २६ ॥
जालीरंध्रप्रविष्टद्युतिचयखचिताचंद्रकांताश्मक्लृप्तादूर्ध्वस्था दुग्धमुग्धं जिनशिरसि पयः पातयंश्छत्रकुंभात् कुर्वन्नक्षत्रबिंबैरजिरमणिभुवां दिव्यपुष्पोपहारम् यत्र व्योमस्थ एव स्नपनविधिमहो श्वेतरोचिः करोति ॥ २५ ॥ यत्र अहो आश्वर्ये जाझीरंध्रम विष्टद्युतिचयरव चितात् चंद्रकांताश्मक्लृप्तात् ऊर्ध्वस्थात् छत्रकुंजात् जिन शिरसि दुग्धमुग्धं पयः पातयन् अजिरमणिनुवां नक्षत्रविवैर्दिव्यपुष्पोपहारं कुर्वन् व्योमस्थ एव श्वेतरोचिः स्वपन विधिं करोति । मुग्धं रम्यं अजिरमणिवां 'वेयुवो स्त्रियां ' इति विकल्पेन आम्तेन भुवो जुवां ' उत्रकुंजात् घटात् ॥ २५ ॥
अवचूर्णि:
जावार्थ- मां आकाशमां रहेबो चंद्र प्रजुने स्नात्रविधि करे छे. जाळीना बिमांथी प्रवेश थयेली कांतिना समूदनी साथे जमेला एवा चं
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकांतमणिना उपर रहेला बत्र रूप कळशमांथी बुधना जेवुं जळ प्रजुना मस्तकपर पाने बे. अने प्रांगणांनी मणिमय भूमिमां पमेला तारायना प्र तिबिंबधी दिव्य पुष्पोनो उपहार करे बे. २५
विशेषार्थ - आकाशमा रहेला चंडनुं प्रतिबिंव प्रजुना मस्तकपर र हेला छत्रकलशमां परे बे. ते छत्रकलश चंद्रकांत मणिनो रचेन बे तेथी तेनी उपर चंद्रनी कांति पडवाथी ते करे बे. ते उपर कवि उत्प्रेक्का करे ने के, चंद्र आकाशमा रहिने प्रजुनी उपर दूधनी धाराथी स्नात्रविधि करे बे. स्नात्र विधि करवामां जेम कलश वमे जलधारा करवी जोइए ने पुष्पनो उपहार चाववो जोइए म अहिं चंदना कीरणो जालीना बिषोमांथी थइने चंप्रकांतमणिना छत्र उपर पमे बे, तेथी बत्रमाथी नीकळता करणा व चंद्र
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विह रशतकम् ॥
॥ २७ ॥
छत्ररूप कलशमांथी प्रभुना मस्तक उपर दूधना जेवां जलनी धारा रेमे बे.. चैत्यना गणामां मणि जमेला बे, तेनी अंदर ताराओना प्रतिबिंब परवाथी ते दिव्य पुष्पना उपहार जेवा लागे बे तेथी कविए तेने पुष्पोपहारनी उपमा आपेली . आ उपरथी प्रजुना मस्तकपर आवेलुं छत्र अने चैत्यना गणानी भूमि मणिमय बे, ए वात जणावी छे. २ए यस्मिन वितानगतरूपकबिंबभाजः स्तंभानुपेत्य विकटस्फटिकप्रकृष्टान् । दौवारिक भ्रमवशादनुकूलयंति मध्यप्रवेशरभसैर्नगरस्य नार्यः ॥ २६ ॥
अवचूर्णि: - यस्मिन् प्रासादे नगरस्य नार्यः मध्यप्रवेशरत्नसैर्वितानगत रूपकबिंबजाजः वि
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
कटस्फटिकमकृष्टान् स्तनान् उपेत्य दौवारिकन्नमवशात् अनुकूनयंति । चंद्रोदयगतरूपविंबं नजंतीति 'जोविण ' प्रत्ययः अप्रयोगीदिति विणलोपे वृधौ च । उपेत्य आगत्य उपपूर्वक इणज् गतौ क्त्वा क्यपि तोते च उपेत्येति रूपं । अनुकूलं कुर्वतीति अनुकूलयंति 'णिज्बहुलं ' इति णिजि अनुकूलयंति आवर्जयंतीत्यर्थः ॥२६॥
नावार्थ-जे चैत्यमा आवेशा उंची जातना स्फाटिकमणिना उत्कृष्ट स्तंनोनी अंदर नबेचमां काढेवा चित्रोना प्रतिबिंब पके छे, ते जोइ नगरनी स्त्रीओ धारपाळना जमने सध्ने चैत्य मध्ये प्रवेश करवाना वेगथी अटका जाय जे अने तेने अनुकूल रीते वर्ते छे. २६
विशेषार्थ ते चैत्यमां दरेक स्तंभो स्फाटिकमणिना . तेनी अंदर नबेचनी अंदर रहेला चित्रोना प्रतिबिंब पके डे ते जो प्रवेश करती नगरनी स्त्रीओने तेनी उपर घारपाळनो ब्रम पके ने अने तेथी तेश्रो अंदर प्रवे
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥३०॥
श करवाना वेगयी अटकाइ जाय जे अने अनुकूलरीते वर्ते . ते चैत्यनी अंदर स्फटिकमणिना स्तंनोनी अने चित्र विचत्र जलेचनी नारे शोना ह. ती, एम कविए दर्शावेलु . २६
नीलाश्मभित्तिवलयप्रतिबिंबितस्य पार्श्वप्रभोर्विहितकेतकशेखरस्य। शेषाप्रसूनकलनाय करं क्षिपंत्यो
ग्राम्या दिशंति किल यत्र न कस्य हास्यम् ॥२७॥ अवचूर्णिः—पत्र किम निश्चये नीलाश्मन्नित्तिवमयप्रतिबिंबितस्य विहितकेतकशेखरस्य पार्श्वपनोः शेषाप्रसूनकलनाय करं क्षिपत्यः ग्राम्याः स्त्रियः कस्य हास्यं न दिशंति । शेषाप्रसूनकलनाय शेषाकुसुमग्रहणाय ॥१७॥
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावार्थ- जेना मस्तक उपर केतकीना पुष्पनो मुगट करेलो बे एवा श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी प्रतिमानुं पासेनी नीलमणिनी दीवालमां प्रतिबिंब पड़े बे, ते जोइ, गाममानी स्त्रीओ, प्रसादीनुं पुष्प लेवाने माटे पोताना हाथ नाखे, आम करती ते स्त्रीओ कोने दास्य नयी करावती ? २७
विशेषार्थ:- श्लोकमां चांतिमान् अलंकार दर्शावी ए चैत्यनी समृद्धि वर्णवेली बे. ते चैत्यमां केतकीना पुष्पना मुगटवाळी श्री पार्श्वनाथ प्रतुनी प्रतिमा तेनुं प्रतिबिंब नीलमणिनी दीवाल उपर पमे छे, ते जो दर्शन तथा पूजन करवा आवेली गाममानी स्त्रीओ जुलथी प्रजुनी प्रसादीनुं पुष्प लेवाने हाथ नाखे बे, ते हाथ दीवाल उपर अथमाय बे, ते जोइ दरेक जोनार माणसने हसवं आवे छे. २७
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहा रशतकम् ॥ ॥ २७ ॥
यत्रावासमुपेयुषो भगवतः पार्श्वस्य पुण्याद्भुत प्राप्यैः स्नात्रजलोर्मिभिः सकृदपि स्नाताः कुरंगीदृशः । काश्चित्पूर्ण समृद्धयः सतनयाः काश्चिच्चिरं काश्चन क्षीणाशेषरुजो भवंति विलसत्सौभाग्यभाजः पराः ॥ २८ ॥
अवचूर्णि :— यत्र आवासं उपेयुषः श्रीपार्श्वस्य पुण्याद्भुतमाप्यैः स्नात्रजलोर्मिनिः सकृदपि स्नाताः काश्चित्रंगीदृशः पूर्णसमृद्धयः काश्चित्सतनयाः चिरं काश्चन क्षीणाशेषरुजः प्रविलससौभाग्याजः जवंति । उपैति इति उपेयिवान् वावेत्तेः कसु वस् क सुष्मतौ च उत्कृष्ट तस्य उपेयुषः प्राप्तस्य प्रवासं स्थानं उपपूर्वक इणगताविति धातौ उपेयाय इति उपेयिवान् तत्र कसकानाविति सूत्रेण प्रत्यये द्विर्धातुरितिसूत्रेण द्विवे इइति इयादेश समानानामिति दीर्घत्वे वर्णस्थेति एत्वे सुष्माविति क्वसोरुषादेशे उपेयुषि सिद्धं ईषदपि ॥ २८ ॥
नावार्थ - जे कुमारविहार चैत्यमां वास करीने रहेला जगवान् पार्श्व
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाथ प्रजुना स्नात्र जलना तरंगो के जे अद्भुत पुण्यथी प्राप्त करी शकाय वा बे, ते व एक वखत पण न्हाएली मृगना जेवा नेत्रवाळी स्त्रीोमां को पूर्ण समृद्धिवाली थाय बे, कोइ पुत्रवती थाय बे, कोइ पोताना लांबा वखतना सर्व रोगोनो दय करनारी थाय बे ने कोई सौभाग्यना विलासने जनारी थाय बे. २०
विशेषार्थ - -
श्लोकी कवि श्री पार्श्वनाथप्रभुना स्नात्रजलनो महिमा वर्णवे बे. ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर रहेला श्री पार्श्वनाथ प्रभुना नात्रजल वमे एकजवार स्नान करनारी स्त्रीने घणुं फळ मळे बे. तेनाथी समृद्धि, पुत्र, आरोग्य अने सौभाग्यनी प्राप्ति थाय बे. २०
जंघालैः किरणोर्मिभिः शितिमणीनाकल्पगान् मौक्तिक
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार वेहारशतकम् ॥ 11 3011
च्छायान् मौक्तिकगुच्छकान् शितिमणिच्छायान् मुहुः कुर्वतः । देवाद्यत्र शशांककांतवपुषः शेषः समालंबते शेषाद् गारुडरत्ननिर्मिततनोर्देवः पुनस्तां श्रियम् ॥ २९ ॥
अवचूर्णि:: यत्र जंघालैः किरणोर्मिभिः प्राकल्पगान् आनरगान् शितिमणीन मौक्तिकच्छायान् मुहुः मौक्तिकच्छायान् शितिमणिच्छायान् कुर्वतः शशांक कांतवपुषः देवात् शेषः पुनः गारुरुरत्न निर्मिततनोः शेषात् देवः स्वां श्रियं समानंवते । श्वेतमूर्त्तेः श्री पार्श्वात् शेषः स्वां श्रियं श्रयति शेषस्य धनत्वात् पुनः गारुरुरत्नात्मकत्वात् शेषात् पार्श्वः स्वां श्रियं समालंबते श्रीपार्श्वस्य नीलत्वात् । जंघालैः प्रसरणशीलैः ॥ २७ ॥
भावार्थ - जे चैत्यमां वारंवार वेगवाळा पोताना किरणोना तरंगो आभूषणोमां रहेला नीलमणियने मोतीनी कांतिवाळा करता अने मोतीमोना गुच्छोने नीलमणिनी कांतिवाळा करता एवा चंद्रकांतमणिना रचे
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
बा श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी शोनाने शेषनाग धारण करे बे अने गारुनी रत्नोनी रचेली मूर्त्तिवाला शेषनागनी शोनाने श्री पार्श्वनाथप्रभु धारण करे बे.
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यमा रहेला श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी मूर्त्ति कांत मणिनी रचेली बे. अने तेमनी प्रतिमा उपर नीलमणिना आभूषलो रहेला बे, प्रभुनी प्रतिमाना किरणो पडवाथी नीलमणि मोतीनी कांतिवाळा थाय छे अने मोतीना गुच्छो नीलमणिनी कांतिवाळा थाय बे. एम परस्पर एकबीजानी कांति एकबीजा तरफ पमे बे. तेम वळी ते प्रजुनी उपर गारुमी रत्ननो रचेलो नाग रहेलो बे. ते नागनी शोना चंद्रकांतमय मूर्त्तिवाळा प्रभुने प्राप्त थाय बे अने गारुडी रत्नमय मूर्त्तिवाळा नागने ते प्र
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
विह रसतकम् ॥ ॥ ३१ ॥
जुनी शोजा प्राप्त थाय बे. अहिं कविए तद्गुणालंकार दर्शाव्यो बे ने चैत्यनी महान् समृद्धि वर्णवेसी बे. २०
दिक्चक्राक्रमणप्रमोदितजगच्चेतोभिराच्छोटितास्तेजोभिर्बहलांशुमांसलमणिप्रालंबलंबात्मभिः । शेषाहेरिव देवमूर्द्धनिकृतच्छत्रस्य संदर्शनात्
यत्र स्नेहभृतोपि विभ्रति सदा मंदां शिखां दीपकाः ॥ ३० ॥ अवचूर्णि:
[: यत्र देवमूर्धनि कृतच्छत्रस्य शेषाहेरिव संदर्शनात् दिक्चक्राक्रमणप्रमोदितजगच्चे तो जिः बहुलांशुमांसलमणिमासंबसं वात्मनिः तेजोनिः प्राच्छोटिताः स्नेहभृतोऽपि दीपकाः सदा मंदां शिखां विचति । आच्छोटिताः स्फालिताः । बहुला बहवः ये अंशवः किरणाः तैर्मासलाः पुष्टा ये मयः तेषां प्रलंबो माला ॥ ३० ॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
जावार्थ - दिशाओना समूहने आक्रमण करवायी जगत्ना हृदयने कराराने घाटा किरणोथी पुष्ट एवा मयिोनी माळा साथे मळMarrier एवा तेजथी व्याप्त थयेला दीवाओ तेलथी नरेला बे, तथापि ज्यां सदा मंद शिखाने धारण करे बे. ते जाणे प्रजुना मस्तकपर क रहेला शेषनागना दर्शनथीज होय तेम देखाय बे. ३०
विशेषार्थ - श्लोकयी कवि चैत्यनी अंदर आवेला दीवानुं वर्णन करे बे. चारे तरफ दिशाओमां व्यापेला मयिोना तेजथी व्याप्त थला ते दीवानी अंदर पूर्ण रीते तेल नरेनुं बे, पण त्यां रहेला मणिना तेजनेने ते मंद शिखाने धारण करे बे. अर्थात् मणिना तेजनी आगळ ते झांखा देखाय बे. ते उपर कवि वळी उत्प्रेक्षा करे बे. पार्श्व
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्॥ ॥३३॥
नाथ प्रजुना मस्तकपर उत्र करी रहेला शेषनागना दर्शनथी तेश्रो झांखा थइ गया होय, तेम देखाय . ३०
आवेशं संहरंतः शशिमणिवपुषः स्तंभवेदीविटंकस्थालीविश्रांतिभाजः प्रतिदिशमनिशं तामसं यत्र दीपाः ।
आतन्वंतः पतंगप्रथितमुभयमप्यात्महासप्रयासं मुंचंते वीतरागक्रमसविधवशादंजनस्नेहमैत्रीम् ॥ ३१ ॥
अवचूर्णिः-यत्र प्रतिदिशं अनिशं तामसमावेशं संहरंतः शशिमणिवपुषः स्तंजवेदीविटंकस्थानी विश्रांतिनाजः स्तंनानां वेद्यः अजिराणि तत्र या विटंकस्थाब्यो दीपस्थानानि तत्र विश्रांतिलाजः आत्महासप्रयासं ननयमपि पतंगप्रथितमातन्वंतः दीपाः वीतरागक्रमसविधवशात् अंजनस्नेहमैत्री मुंचंते । तमसः अयं तामसस्तं । आवशं आटोपं । पतंगः सूर्यः पते पतंगः खद्योतः तमोहरणात् स्थानीविश्रांतिनाक्त्वेन खद्योतचरितं प्रथितं । स्तंजस्य वेद्यः कोटमयः तासां विटंकाः स्थानानि
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
00000000000
तत्र स्थायो जाजनानि ता जर्जतीति विए । अंजनं कफलं पदे कश्मलं स्नेहस्तै पदे स्नेहोऽनुरागः ।। ३१ ।।
भावार्थ-ज्यां हमेशा स्तंभ वेदीना अग्र जागे विश्रांति पामेला चंद्रकांतमणिना दीवाओ प्रत्येक दिशाना अंधकारना आवेशने नाश करे बे बने ते पतंगे दर्शावेला पोताना हास्यना प्रयासने विस्तारे बे. ते साथे वीतराग प्रजुना चरणानी समीपने लइने काजळ तथा स्नेहनी मैत्रीने बोदे बे. ३१
विशेषार्थ- श्लोकथी ग्रंथकार ते चैत्यनी अंदर आवेला चंद्र: कांतमपिना दीवानुं वर्णन करे बे. ते दवाओ प्रत्येक दीशाओना अंधकारने दूर करे . बने ते पतंगना हास्यना प्रयासने विस्तारे बे. एक ते पतंगनो अर्थ पतंगीयुं ने बीजी रीते पतंगनो अर्थ सूर्य थाय बे. सामान्य
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रसतकम् || ।। ३३ ।।
दवाओ पतंगना नाशनुं कारण थाय बे, त्यारे आ दीवा मां पतंगनो ना-शतो नथी. ते दवाओ श्री वीतराग - पार्श्वनाथ प्रजुना चरणनी समीप रहेवाथी अंजन ने स्नेहथी रहित बे. बीजा सामान्य दीवा ओमां काजळ थाने स्नेह एटले तेल जोइए छीए, त्यारे या दीवाथी काजळ थतुं नथी, तेमज तेमां स्नेह - तेलनी जरुर पमती नथी. ३१ अस्मिन्नस्थां स धत्तां चिरमधिमनसं यस्य साक्षादिक्षा स्वर्गस्वर्णाद्रिकूटस्फटिकगिरितटीरोहणांतः स्थलीषु । आरुह्योत्तुंग श्रृंगां गुरुशिखरशिखां यत्र देशांतरस्थानित्थं संबोधयंति प्रचलपटमयैः पाणिभिः केतुदंडाः ॥ ३२ ॥ अवचूर्णिः - अस्मिन् अधिमनसं चिरं प्रस्थां स धत्ताम् यस्य उत्तुंग श्रृंगां गुरुशिखर
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिखां आरुह्य स्वर्गस्वर्णाजिकूटस्फटिकगिरितटीरोहणांतःस्थनीषु साकात् दिवा अस्ति यत्रेत्य देशांतरस्थान् प्रचत्रपटमयैः पाणिनिः केतुदंमाः संबोधयंति दृष्टुमिच्छा दिवा सनि ठित्वे चाप्प्रत्यये दिवा ॥ ३२ ॥
नावार्थ-जे चैत्यने विषे आवसाध्वजदंम जंचाशंगवाळा मोटा शिखरनी शिखा नपर चमी पोताना चपळ वावटारूप हाथवमे करीने देशांतरमा रहेला लोकोने संबोधी कहे जे के, “जे माणसने स्वर्गना सुवर्णपर्वतना शिखरने स्फटिकगिरि-वैताढ्य पर्वतना तटने अने रोहणाचन पर्वतनी अंदरना स्थळोने जोवानीमनमा लांबा काळनी इच्छा होय, ते आ चैत्य उपर आस्था करो.” ३३ . विशेषार्थ-श्रा श्लोकमां ते चैत्यना ध्वजदंग उपर नत्प्रेक्षा करती छे. ध्वजाओना वावटाने हाथनी उपमा आपेली . जेम कोइ माणस जोवा दायक वस्तुने बतावाने पोताना हाथनी संज्ञा करी बोलावे , तेम ध्वजदंग
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ।। ॥३४॥
पोताना वावटारूपी हाथनी संज्ञा करी देशांतरनासोकोने ते जंचा चैत्यनी नपर आवी सुवर्णगिरि, वैताढ्यगिरि अने राहणगिरिनी शोला जोवाने बोलावे जे. जाणे ते एम कहेता होय के, "जो मेरु पर्वत, वैताढ्य पर्वत, अने रोहणाचळ पर्वतने प्रत्यक्ष जोवानी तमारी इच्छा होय तो आ चैत्य उपर आस्था करो. अर्थात् जो तमे आ कुमारविहार चैत्यमां आवशो, तो तमने मेरु, वैताढ्य, अने रोहणगिरिनी शोला जोवाने मळशे.” अर्थात् ते चैत्य एटडं मोटुं उँचुं ने. तेनो बीजो अर्थ एवो पण थाय के, जो तमे आ चैत्यनी अंदर रहेताश्री पार्श्वनाथ प्रनु नपर आस्था राखशो, तो तमे स्वर्गमा जवाना अधिकारी यशो. तेमज मेरु, वैताढ्य,अने रोहणगिरिमां अवतरी तमे तेने प्रत्यक्ष जोश शकशो. ३३
यस्मिन् गांगेयकुंभव्रजवमितमहः कांडसंश्लेषदोषाद्
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिक्चक्राक्रांतिधीरैः शशिनि सहगते पीतिमानं करौघेः । निद्रालन केलिकीरांस्तरलजललवांश्चंद्रकांतप्रकोष्टान् ज्योत्स्नालोलांश्चकोरान्नगरमगडशो वीक्ष्य रात्रि विदंति ॥३३॥
अवचूर्णिः—यस्मिन् प्रासादे गांगेयकुंजवजवमितमहःकांमसंश्लेषदोषात् दिकचक्राक्रांतिधीरैः करौघैः पीतिमानं गते सति शशिनि केनिकीरान् निद्राबून चंद्रकांतप्रकोष्टान् तरखजबलवान् ज्योत्स्नालोलान चकोरान् वीक्ष्य नगरमृगदृशः रात्रि विदंति । मितानि उदगीर्णानि महांसि तेषां कां समूहः तस्याश्लेषः तस्य दोषात् ।। ३३ ॥
नावार्थ-जे चैत्यमां रात्रे सुवर्णना कलशोना समूहे बाहेर काढेवा तेजना जथ्थानी साथे मळवाना दोषथी दिशाओना चक्रपर प्रसरेखा धीर किरणोना समूहथी चं उपर पीळाश थइ जवाथी नगरनी स्त्रीओने दिवसनो ब्रम पमे, तेथी तेओ, पोताना क्रीमा करवाना शुकपनीओने निषा
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ३५ ॥
करता जोइने, चंद्रकांत मणिना प्रोटलामांथी जळना बिंडुयोने टपकता जोने ने चकोरीओने चंद्रनी कांति तरफ चपल थयेला जोइने रात्रि मी गइ एम जाणे बे ३३
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यनी उपर सुवर्णना कलशो एटला धावेला के मनी कांतिना किरणो परवाथी चंद्र पीळो थइ जाय . एटले नगरनी स्त्रीने सदा दिवसनोज भ्रम पमे बे. ज्यारे पोताना घरमां राखेला शुकपीओ निद्रा सेवा मांगे बे, चंद्रकांतमणिना प्रोटलामांथी जलनां टीपाओ टपकवा मां ने चकोर पक्कीओ चंडनीकांति तरफ चपल थवा मांगे, त्यारे तेयोना जाणवामां आवे छे के, ' या दिवस नथी, पण रात्रि मी बे.' या उपरथी ते चैत्यना शिखरो घणां उंचा बे अपर सुवर्णना कलशो घणा बे, ए वात सिद्ध करी बे. ३३
ते
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुत्वा श्रुत्वा वहाः पुलकबहलितां गात्रयष्टिं समाजेर्लोकानां वर्ण्यमानां गुरुविभवजितस्वर्णसौभाग्यलेखाम् । दृष्टुं स्वां रूपलक्ष्मी स्तबकितकुतुकोत्ताननेत्रैकपेयां प्रातः प्रातर्यदंतः प्रतिफलति बहिर्दर्पणोनासिभित्तेः ॥ ३४ ॥
अवचूर्णिः - पुलकबहलितां गात्रयष्टिं वहद्भि: लोकानां समाजैः वर्यमानां श्रुत्वा श्रुत्वा गुरुविनवजितस्वर्गसौभाग्यररेखां स्तवकितकुतुकोत्ताननेत्रैकपेयां स्वां रूपलक्ष्मीं दृष्टं बहिर्दर्पणोद्भासिनित्तेः अंतर्मध्ये प्रातःप्रातः यच्चैत्यं प्रतिफलति । अन्योऽपि नरः लोकैर्वर्ण्यमानं स्वं रूपं दृष्टं दर्पणं विलोकयति समाजः समूहः । पुलकेन रोमांचेन बहलितां पुष्टां ॥ ३४ ॥
नावार्थ - जे कुमारविहार चैत्य दरेक सवारे पोतानी बाहेर रहे दर्पण प्रकाशित एवी भींतनी अंदर पोताना रूपनी लक्ष्मी - शोना जोप्रतिबिंबित था बे. जे रूपलक्ष्मी उत्पन्न थयेला कौतुकथी उंचां करे
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ३६ ॥
लां नेत्रोवडे पान करवा योग्य बे, मोटा वैजवथी सुवर्णना सौभाग्यनी बेखाने जीतनारी छे अने सांभळी सांजळीने शरीर उपर पुलकावळीने धारण करनारा लोको वर्णन करेली बे. ३४
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यनी बाहेर रहेली दीवाल मां दर्पणो जमेला बे. तेनी अंदर ते चैत्यनुं प्रतिबिंब पमे बे. ते उपर कवि उत्प्रेक्षा करे बेके, ते चैत्य ते दर्पणनी दीवालोमां पोताना रूपनी शोमा जुवे बे. ते शोभा प्रति कौतुक नरेलां नेत्रोथी जोवा लायक बे अने तेनो वैजव एलोबे, जे सुवर्णना सौभाग्यनी लेखाने जीती ले बे. तेमज ए शोजाने सांजळी शरीर उपर रोमांच धारण करी लोकोनां टोळां तेनुं वर्णकरे. ३४
पापीयान् प्रत्यहं ते गुरुशिखरशिरः संस्पृशाम्यग्रपादैः ।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूर्यग्रावस्फुलिंगैर्यदपि विनमतस्त्रासमासादयामि । तन्मे सर्व विसोढं प्रभवति भगवान् विश्वलोकैकबंधुर्यत्रैवं तिग्मभानुर्जिनमनुनयते बिंबितः प्रांगणोाम् ॥३५॥
अवचूर्णिः-ते तव गुरुशिखरशिरः अग्रपादैः पादाङ्गः प्रत्यहं पापीयान् अहं संस्पृशामि । | यदपि विनमतः नरस्य सूर्यग्रावस्फुलिंगस्वासमासादयामि तत् मम सर्व विश्वलोकैकबंधुर्जगवान् विसोढं पनवति एवं अनेन प्रकारेण यत्र प्रांगणाऱ्या विवितः तिग्मनानुः जिनं अनुनयते । प्रनवति समर्थो नवति ।। ३५॥
नावार्थ-" अति पापी एवो हुँ हमेशां तमारा मोटा शिखरना मस्तकने मारा अग्रपाद ( आगळना किरणो) थी स्पर्श करूं छं अने तमने नमस्कार करनार मनुष्यने सूर्यकांतमणिना तणखाथी त्रास आपुं छं. एवा मारा सर्व अपराधने सहन करवाने विश्वलोकना बंधु एवा जिन नगवान्
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा रसत्कम् ।। ॥३७॥
समर्थ थाय ने." आ प्रमाणे सूर्य जे चैत्यना प्रांगणानी नूमिमां प्रतिबिंबित थइने प्रनुनी प्रार्थना करे .' ३५ .
_ विशेषार्थ ते कुमारविहार चैत्यनी आंगणानी नूमिमां सूर्य, प्रतिविंब पमे छे, ते उपर कवि नत्प्रेक्षा करे . ते सूर्य प्रतुने विनंति करे ने के, " हे स्वामी, हुं मारा किरणरूपी चरणथी हमेशां तमारा मंदिरनां शिखरनो स्पर्श करुं बु. तेम वळी तमारा चैत्यनी अंदर रहेला सूर्यकांतमणिमांथी मारा स्पर्शने लक्ष्ने तणखा नोकळे , तेथी अंदर दर्शन करवा आवेला सोकोने त्रास आपुं छं. ए मारा अपराधोने आप क्षमा करो छो. कारण के
आप विश्वजनना बंधु गे.” आ नपरथी ते चैत्यना आगणामां सूर्यनुं प्रतिबिंब पसे तेवा मणिो ने अने अंदरना नागमा सूर्यकांतमणिो जमेला जे, ए वात सिह थाय . ३५
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमान् देवाधिदेवस्त्रिजगदभयभूविश्वविश्वकैमित्रम्यत्रास्ते तत्र दौस्थ्यं किमिदमसुमतामाधितो व्याधितो वा । इत्युग्रं हंतुमंतश्चररिपुनिकरं पापपाथोधिसेतून प्रत्यूहव्यूहकेतून् वहति यदनिशं स्कंधबंधेषु दंडान् ॥३६॥
अवचूर्णिः-यत्र श्रीमान् त्रिजगदलयः विश्वविश्वैकमित्रं देवाधिदेवः आस्ते तत्र असु... मंतां आधितो वा-अथवा व्याधितः इदं कि दौस्थ्यमस्ति इति हेतोः कारणात् यच्चैत्यं उग्रं अंतश्चररिपुनिकर हंतुं अनिश स्कंधबंधेषु पापपाथोधिसेतून प्रत्यूहव्यूहकेतून दंडान् वहति ॥ ३६॥
लावार्थ-जे चैत्य स्कंधना बंधनी अंदर हमेशा दांमाने धारण करे जे. ते पापरूपी समुघना सेतुरूप अने विघ्नोना समूहना धूम्रकेतु रूप एवा | दांमाओ अंदरना उग्र शत्रु कामक्रोधादिकना समूहने हणवाने दंगरूप .
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्।। ॥३०॥
कारणके, त्रण जगत्ने अनय आपवाना स्थानरूप अने विश्वना सर्व जनना मित्ररूप एवा श्रीमान् देवाधिदेव ज्यां बीराजे , त्यां प्राणीओने प्राधि के व्याधियी नगरी स्थिति केम थाय ? आथी ते अंदरना शत्रुओने हणवाने दंग धारण करे . ३६
विशेषार्थ ते चैत्यना स्कंधना बंधनी अंदर दांमा रहेला . ते उपर कवि उत्प्रेक्षाथी तर्क करे ने के, ते दांमायो अंतरना कामक्रोधादि शत्रुओने हणवाना दम , कारणके, जे चैत्यमां सर्व विश्वजनोना मित्र अने जगत्ने अजय प्रापनार श्री देवाधिदेव पार्श्वनाथ प्रजु रहेला , त्यां आव. नारा प्राणीओने आधि तथा व्याधियी नगरी स्थिति न थाय एटसे आधि-मननी पीमा अने व्याधि-शरीरनी पीमा करनारा उग्र एवा कामक्रोधादिक शत्रुओने शिक्षा करवाने त्यां दंग राखेला बे, अर्थात् ते चैत्यमां
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आवनाराओने अंदरना कामक्रोधादिक शत्रुओ पीडता नथी. ३६
चंचच्चंद्रोदयाव्यं सटषमुनिगणं चारुचित्रं सकुंभं भास्वत्ताराभिरामं समकरमिथुनं दीप्तसिंहं सकेतुम् । स्ववर्मोल्लासिताशं सगुरुकविबुधं मंगलोरोधहेतुः किं वा दष्टांतमुच्चैः सतुलमनुकरोत्यंबरस्य श्रियं यत् ॥ ३७॥
अवचर्णिः -चंचच्चंद्रोदयाव्यं सदृषमुनिगणं चारुचित्रं सकून जास्वत्तारानिरामं समकर६ मिथुनं दीप्तसिंह सकेतुं स्वर्वत्मोन्बासिताशं सगुरुकविबुधं मंगलोरोधहेतुः सतुसं यश्चेत्यं जञ्चरंवरस्य :
ष्टांत वा अथवा श्रियं अनुकरोति । अथवा यच्चैत्यं अंबरस्य आकाशस्य श्रियं किंवा पुनरर्थे अदृष्ट पापं तस्य अंतो यस्मात् । पते अदृष्टः अंतः प्रांतो यस्य तत् । चंयोदयो वितानं पके चंधस्य उदयः । वृषः पुण्यं । मुनयः सप्तर्षयः । चित्राणि पद्धे नक्षत्रं । कुंजो घटविशेषः । तारा दृशः उबरे । मकरः मत्स्यमिथुनं । स्वर्गवर्त्म स्वर्गमः तफजुलासितौ अंसौ प्रासादस्कंधो । तुला तोलनयंत्रं । पके कृषकुलम
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारसतकम् ॥
करमिथुनसिंहतुलाराशयः । गुरुकविबुधमंगला ग्रहाः ॥ ३७॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्य आकाशनी शोभाने धारण करे . आकाश चळकता एवा चंजना नदयथी व्याप्त , तो आ चैत्य चंदरवाना जदयथी युक्त . आकाशमां सवृष एटले वर्ष राशि सहित मुनिगण एटले सात ऋषिोना ताराओगे, तो आ चैत्यमां सवृष एटले धर्मसहित मुनिओना गण देववंदन करवाने आवे . आकाशमां चारु एटले सुंदर चित्रा नकत्र , तो ते चैत्यमा सारां सारां चित्रो छे. आकाशमां कुलराशि में, तो ते चैत्य कुंज-कलशवाळु . आकाश प्रकाशमान एवा ताराओथी सुंदर बे, तो ते चैत्य प्रकाशमान तारावके सुंदर ने. आकाश मकरराशि अने मिथुन राशिथी युक्त ने, तो ते चैत्यमा मघरनी आकृतिवाळां चित्रोनां जोडलांचे. आकाशमां सिंह राशि प्रदीप्त , तो ते चैत्यमा सिंहनी प्रतिमा प्र.
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीप्त जे. आकाश केतुना ताराथी युक्त चे, तो ते चैत्य केतु-ध्वजाथी युक्त जे. आकाशमां स्वर्गना मार्गथी दिशाओ नबासित थयेली , तो ते चैत्य पोतानी जंचाइयी स्वर्गना मार्गने नबासित करी दिशाओने प्रकाशित करे ने अथवा तेनी आराधना करनारने ते स्वर्गनो मार्ग मेळववानी आशा नसासित करावे छे. आकाश गुरु, कवि एटो शुक्र अने बुधना तारायी युक्त जे, तो आ चैत्य गुरुओ कविओ अने बुधजनोथी युक्त . आकाश मंगळ ग्रहना प्रकाशनुं कारण , तो आ चैत्य मंगलिक कार्योना प्रकाशनुं कारण ने. आकाशमां तुलाराशि छे, तो आ चैत्य तुनासहित ( तुलाना चित्रे युक्त ) -एवी रीते सतुत्र-समान दृष्टांतरूप आ चैत्य आकाशनी बमीने जंचे प्रकारे अनुसरे . ३७
विशेषार्थ-कविए आ श्लोकथी चैत्यने आकाशनी साथे सरखाव्यु
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥४०॥
००००००००००००००००००००००००००००००००००००
जे. नावार्थनी अंदरज विशेषार्थ भावी जाय , एटले तेनो जुदो विशेषार्थ लखवानी जरुर नथी. ३७. ..
उन्मीलदृष्टितेजःशमितमनसिज विष्टपारब्धसेवं देवं प्राप्योरगेंद्रस्फुटमाणिकिरणश्रेणिधौतोत्तमांगम् । अंबां बिभ्रत्कुमारव्यतिकरसुभगां सिंहपृष्ठाधिरूढां शोभां धत्ते हिमाद्रेर्यदिह शिखरभूकोटिलीढांबरस्य ॥३८॥
अवचर्णि:-नन्मीलदृष्टितेज शामितमनसिजं विष्टरारब्धसेव उरेंगेजस्फुटमणिकिरणश्रेणिधौतोत्तमांगं देवं प्राप्य कुमारव्यतिकरसुनगां सिंहपृष्ठाधिरूढां अंबां बित् यच्चैत्यं इह पृथिव्यां शिखरजूकोटिलोढांबरस्य हिमाद्रेः शोनां धत्ते । जन्मीसंती विकसंती या दृष्टिः तया शमितो मनसिजो येन स तं । अंबां अंबिकां पते पार्वतीं। शिखरस्य नूः तस्याः कोटिः अग्रनागः तयालीढं आश्लिटं अंबरं येन तत् ॥ ३०॥
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावार्थ – जे उघाडेली दृष्टिना तेजथी कामदेवने शमावनार छे, त्रण जगत्ना लोकोए जेनी सेवा करेली छे अने सपना इंडोना स्फुट एवा मयिोना किरणोनी पंक्तिथी जेमनुं मस्तक उज्वल बे एवा देवने प्राप्त करीने ने कुमारोना व्यतिकरथी सुंदर तथा सिंहना पृष्ठ उपर आरुढ थयेबिकाने धारण करीने जे कुमारविहार चैत्य पोताना शिखरोनी भूमिनी कोटीथी आकाशने स्पर्श करनारा एवा हिमालय पर्वतनी शोजाने धाकरे. ३० विशेषार्थ- -
श्लोकमां बे अर्थ रहेला बे. एक पक्के श्री पार्श्वनाथ बीजे हिमालयने पक्षे शंकरनो अर्थ थाय छे. ज्या
जुनो अर्थ थाय
ने
चैत्य हिमालयन शोनाने धारण करे छे त्यारे हिमालयनी अंदर जे रहेल छे, ते या चैत्यनी अंदर प्रववुं जोइए. हिमालयमां शंकर ने पा
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा रसत्कम् ॥
॥४१॥
र्वती बने रहे छे, एम बौकिकमां कहेवाय छे, तो आ चैत्यमां पण शिव रूपे पार्श्वनाथ देव तथा अंबिका रहेछे. शंकरे पोतानी दृष्टिना तेजथी कामदेवनेजेम बाल्यो छे, तेम पार्श्वनाथ प्रजुए पण दिव्य ज्ञान दृष्टिथी कामदेवने शमावेस्रो छे. जेम जगत्ना मिथ्यात्वी बोको शंकर देवनी सेवा करे छे, तेम सर्व जगत्ना समकिती लोको श्री पार्श्वनाथ प्रनुनी सेवा करे छे. शंकरने सर्पना आजूषणो होवाथी तेना मणिना किरणोनी श्रेणीथी तेनु नत्तमांग उज्वल छे, ते वी रीते पार्श्वनाथ प्रजुना मस्तक उपर सर्प होवाथी तेमनुं मस्तक पण तेवी रीते नज्वल छे. शंकरनी पासे सिंह नपर बेठेती अंबिका देवी पोताना कुमार एटले कार्तिकेय स्वामी पुत्रवमे युक्त छे, तेम पार्श्वनाथ प्रनुनी पासे तेमनी अंबिका नामे शासनदेवी कुमारोना व्यतिकरथी सुंदर छे. आथी ते चैत्य हिमालय पर्वनी शोनाने प्राप्त थयेधुं छे. ३७
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
धारानुकारिधवलाश्ममयूखपातेर्धारागृहं तदिदमित्यवधार्य यत्र। कोसुंभचीनवसनाः सुदृशो बहिःस्था
व्याख्याविलाससदनश्रियमापिबति ॥३९॥
अवचूर्णिः–धारानुसारिधवनाइममयूखपातैः तत् इदं धारागृह इत्यवधार्य यत्र कौसुनचीनवसनाः स्त्रियः बहिरेव स्थिताः व्याख्याविलाससदन प्रापिर्वति पश्यंतीत्यर्थः ॥ ३५॥
जावार्थ-जै चैत्यमां धाराने अनुसरनारा धवलमणिना किरणो 4डवाथी 'आ धारागृह ( फुवारानुं गृह ) , एम धारीने कसुंबी चीनाइ वस्त्रने धारण करनारी स्त्रीओ बाहेर एकठी थश्ने उनी रहे , तेथी तेश्रो व्याख्यान शाळानी शोजाने धारण करे छे. ३ए .
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान रशतकम् ॥ ॥४ ॥
विशेषार्थ- श्लोकथा कवि धवनमणि-स्फटिकमणिनी शोनानुं वर्णन करे छे. ते चैत्यमा जमेला धवनमणिना किरणो एवी रीते पोछे के, तेमने जोइ त्यां दर्शन करवाने आवती स्त्रीओ तेने फुवारानुं गृहजाणी जनी रहे छे. कारणके तेमणे चीनाइ कसुंबी वस्त्रो पेहेरेला छे, जो तेओनी नपर फुवाराना धाराना छांटा पमे तो तेओना रंगने हानि थाय. आथी फुवाराना ब्रमथी तेओ चैत्यनी बाहेर एकली थइ जन्नी रहे छे ते जाणे व्याख्यान शानामां एकरी थयेनी होय तेवी ते देखाय . ३५
त्रातस्त्रातव्यमेतत्त्रिभुवनमपि ते किंतु तीत्रैमहोभिनित्यं संतप्यमाने झटिति मयि कृपां नाथ कर्तुं यतेथाः । एवं देवं प्रवक्तुं तरणिमणिमयीर्दीपयन् धूपपात्री
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
र्यस्याभ्यणेषु भानुर्धमति वसुभरैः पूरयन् कोशदेशान् ॥४०॥ ___अवचूर्णिः-हेनाथ त्रातः ते तव एतत् त्रिभुवनमपि त्रातव्यं किंतु तीः महोनिः नित्यं संतप्यमाने मयि झटिति कृपां कर्तुं यतेथाः एवं अनेन प्रकारेण देवं प्रवक्तुं यस्य अन्यक्षु तरणिमणिमयीः धृपपात्रीः दीपयन् वसुनरैः कोशदेशान् पूरयन् नानुर्धमति । कोशदेशान् निधिदेशान् पक्के पद्मकोशदेशान् ॥ ४०॥
नावार्थ-“हे नाथ हे रक्षक, तमारे आ त्रण जुवननी रक्षा करवी जोइए, . तो हुँ हमेशां तीव्र एवा तेजथी संताप पामुंछ, तेथी तमारे मारी उपर कृपा करवाने यत्न करवो जोइए." आ प्रमाणे श्री पार्श्वनाथ प्रतुने कहेवाने सूर्य जे चैत्यनी नजीकमां सूर्यकांतमणिोना धूपीआने प्रदीप्त करतो भम्या करे जे. अने पोताना वसु-किरणोना समूहथी कोशना लागोने पूरे बे. ४०
विशेषार्थ-ते जंचा चैत्य उपर आवेता सूर्य उपर कवि उत्प्रेक्षा करे
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान रशतकम्।। ॥४३॥
ने. सूर्य प्रजुने विनंति करवाने चैत्यना उच्च प्रदेशमा नजीक आवे छे. ते ए. वी विनंती करे छे के, "हे स्वामी, तमे आ त्रण नुवननुं संतापमांथी रक्षण करोगे, त्यारे माझं पण तमारे रक्षण करवू जोइए, कारण के, हुं हमेशा मारा पोताना तीव्र तेजथी संताप पामु बु.” आवी प्रार्थना करवाने सूर्य ते चैत्यनी नजीक लम्या करे छे. प्रभुनी पासे सूर्यकांतमणिना धूपिया छे. ते धूपिश्रा उपर सूर्यना किरणो पमवाथी तेमांथी विशेषकांति निकळे छे. वळी ते पोताना वसु-किरणोना समूहथी चैत्यना कोश जागने पूरे छे. अहिं एवो पण अर्थ थाय के, जेम कोइ माणस पोतानुं कार्य करवाने बीजा माणसने अव्य आपे छे, तेम सूर्य संताप दूर करवानुं पोता, कार्य सिद्ध करवाने कोश ए. टले खजानो तेमां वसु एटले अव्य पूरे छे. वसुनो अर्थ किरण अने अव्य बने थाय छे. ४०
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रेक्षामंडपमूर्द्धगां शिखरगां दंडोर्ध्वगां कूटगां दृष्ट्वा विगतां तले मणिशिले स्वर्णस्य कुंभावलीम् । स्नानांभःकलशान् बहिर्विनिहितान् पश्यन् जरन् यामिको मुग्धश्रभिया निषेधति जनान् यत्रादृतो भ्राम्यतः ॥४१॥
अवचूर्णि:[: — यत्र काममपमूर्द्धगां शिखरगां दंमोर्ध्वगां कूटगां स्वर्णस्य कुंनावलीं मणिशिलातले बिंबगतां दृष्ट्वा बहिर्विनिहितान् स्नानांनः कलशान् पश्यन् मुग्धो जरन् ग्रादृतः यामिकः चाम्यतो जनान् चौरजयान्निषेधति ॥ ४१ ॥
नावार्थ - प्रज्ञामपना मस्तक उपर, शिखरनी टोच उपर, दंमना उपरना भाग उपर, अने कूट उपर रहेला सुवर्णना कलशोनी श्रेणीना प्रतिबिंबो मणिमय शिक्षावाळा तळीयानी अंदर पमेला जोइ बाहेर मुकेला स्त्रा
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥४४॥
न जलना कलशोने जोतो एवो वृष्ट अने मुग्ध एवो पेहेरेगीर चोरना नय थी त्यां फरता एवा लोकोने आदरथी अटकावतो हतो. ४१
विशेषार्थ-ते चैत्यनी अंदर प्रेक्षामंझप, शिखर, दंग अने कूट उपर रहेला सुवर्णना कलशोना मणिमय जमीन नपर प्रतिबिंब पके , ते प्रतिबिंबोने जो त्यां रहेनारो वृक्ष चोकीदार तेने न्हावाना कळश धारे . तेथी ' रखेने ते चोराइ जाय ' एवं जाणीने त्यां हरता फरता लोकोने अटकावे छे. श्रा उपरथी ए चैत्यनी सुवर्णना कलशनी समृधिनुं कविए वर्णन करेलुं . ४१
स्तंभेषु केतकदलग्रथितेषु त भारो महान् कथममीषु निवेशितोऽयम् ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
इत्थं सविस्मयमनस्तरलानि यत्र
व्याख्याग्रहं शिशुकुलानि विलोकयति ॥४२॥
अवचर्णिः-यत्र केतकदन्नग्रथितेषु अमीषु स्तंनेषु अयं महान् नारः कथं निवेशितः इत्य प्रकारेण सविस्मयमनस्तरलानि शिशुकुलानि व्याख्यागृहं विलोकयति । व्याख्यागृहं व्याख्यास्थानं ॥४॥
नावार्थ-" केतकीना पत्रोथी गुंथेला आ स्तंलोनी उपर आवो मोटो लार केम मुक्यो .” एम विस्मय पामेला मनथी चपन एवा बाबकोनां टोलांओ ज्यां व्याख्यानगृहनुं अवलोकन करे . ४२
विशेषार्थ ते चैत्यमा व्याख्यानगृहनी अंदर आवेला स्तंनो नपर केतकीना पत्रो गुंथेसां ने, ते जोइ नाना बालको विस्मय पामी विचार करेडे के, “ आ स्तंनोनी उपर आटलो मोटो नार केम मुकेखो हशे ? " आ
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा
रशतकम् ॥ ॥४ ॥
वर्णनथी कविए चैत्यना स्तंनोनी अद्युत कारीगरी दर्शावी . ४२
क्रामत्युग्रानवाप्य ध्वजपटपटलोछूतवाताभिघातान् दिक्चक्रं चक्रवाले द्युमणिमणिभुवां जातवेदःकणानाम् । दुर्वर्णस्तंभरोचिः प्रचयपरिचयश्वेतितोष्णांशुमूर्ते र्यस्योर्ध्वं चंद्रतारानिकरपरिकरा व्योमलक्ष्मीर्दिवापि ॥ ४३ ॥
अवचर्णिः-दुर्वर्णस्तंन्नरोचिःपचयपरिचयश्चेतितोष्णांशुमूर्तेः यस्योय घुमणिमणिन्नुवां दिवापि उग्रान् ध्वजपटपटसोद्न्तवाताभिघातान्अवाप्य दिक्चक्रं क्रामति जातवेदःकणानां चक्रवाले समूहे सति ऊर्ध्व चंतारानिकरपरिकरा व्योमझदमीः दिवाप्यस्ति । क्रामति वाप्नुवाने । जातवेदःकणानां अग्निकणानां ॥ ३ ॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर आवेता सूर्यकांतमणिोमांथी थयेला अग्निना तणखाओनो समूह ध्वजाओना वावटाना समूहथी उत्पन्न थयेला
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
܂
पवनना नग्र अनिघातने प्राप्त करी दिशाओना समूहमां व्याप्त थवाथी रुपाना स्तंनोनी कांतिना समूहना परिचयथी सूर्यनी मूर्त्तिने श्वेत करनारा जे चैत्यनी उपर आकाशनी लक्ष्मी दिवसे पण चंज तथा ताराओना समूहवाश्री देखाय ने. ४३
विशेषार्थ ते चैत्यनी अंदर सूर्यकांतमणिोनी रचना घणी , तेथी दिवसे सूर्यनो उदय थतां ते सूर्यकांतमणिमांथी अग्निना तणखा करे . तेओ ध्वजाना वावटाओना पवनथी उग्रथइ दिशाओमां व्यापी जाय , अने सूर्यनी मूर्ति रुपेरी स्तंननी कांति साथे मलवाथी श्वेत थइ जाय , एटले आकाशमां चंड तथा ताराअोनी शोजा देखाय , ते उपरथी कवि कल्पना करे ने, के, दिवसे पण आकाशनी लक्ष्मी चंज तथा तारावानी देखाय . ४३
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ॥ ४६ ॥
अत्रास्ते देवराजः खलु मम न ततो राजराजस्य ध लक्ष्मीः स्वास्मन्निशांते समुचितमखिलस्वर्गिवर्गार्घ्यपादः । इत्यौचित्यार्चनीयत्रिभुवनजनतामौलिरत्नं कुबेरचिक्षेपाक्षेपमुचैर्महसि निजनिधीन् यत्र कुंभच्छलेन ॥ ४४ ॥
अवचूर्णिः — अत्र प्रासादे खलु निश्चयेन अखिलस्वर्गिवर्ग गदः देवराजः आस्ते । ततो मम स्वस्मिन् निशांते गृहे राजराजस्य लक्ष्मीं ध न समुचितं न योग्यं इति औचित्यार्चनीय त्रिभुवनजनतामौलिरत्नं कुबेरः आक्षेप यथा स्यात्तथा उच्चैर्महसि यत्र प्रासादे निजनिधीन् कुंनच्छलेन चिप । देवराज इंद्र: पदे जिन: । औचित्येन विवेकेन । अर्चनीयः पूजनीयः । त्रि० जगत्त्रयजनसमूहस्य मौलिः मस्तकं तस्य रत्नानि यस्य कुबेरस्य । अखिलाः संपूर्णा ये स्वर्गिणो देवाः तेषां समूहः तेन च्य पूज्यौ पादौ यस्य देवराजस्य ॥ ४४ ॥
जावार्थ – “ सर्व देवताओना वर्गने पूजवा योग्य बे चरण जेना एवो
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
܂
इंड अहिं रहे छे, माटे राजाओना राजा रूप एवा मारे मारा घरमां लक्ष्मी राखवी योग्य नथी” आq विचारी योग्यताथी पूजवा योग्य एवा त्रण नुवनना लोकोनो मुगटमणि रूप कुबेरे जंचा तेजवाला एवा जे चैत्यनी अंदर कलशना मिषयी पोताना निधिोनी स्थापण मुकेली . ४४
विशेषार्थ-जेम को मोटा राजाना राज्यमा रहेनारो घणों धनाढ्य माणस पोतानी लक्ष्मीनी थापण बीजाने त्यां मुके , तेम कुबेरे पोताना नव निधाननी थापण आ कुमारविहार चैत्यमां मुकेली . कुबेरे विचार कयों के, “ समर्थ एवा देवताना राजाना राज्यमा रहीने मारे मारा घरनी अंदर मारी अतुल लक्ष्मी राखवी न जोइए.” आq विचारी तेणे पोतानी लक्ष्मीना निधान चैत्यमां आवेता सुवर्ण काशनां मिषयी मुकेला . कहेवानो आशय एवो छ के, ए कलशनी महान् समृद्धिथी कुमारविहार चैत्य घj
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥४७॥
सुशोजित . ४४
शोणग्रावांशुजालैः क्रमकमलतले यावकश्रीललाटप्रांते सिंदूररेखा मसृणघुसृणभूरंगभागेऽगरागः । कोसुंभी चीनपट्टे युतिरधरदले हारि तांबूलमित्थं
यस्मिन् वैधव्यभाजोप्यविधववनितामंडनाः पौरनार्यः ॥४५॥ ___ अवचर्णिः–यस्मिन् शोणग्रावांशुजाः क्रमकमलतले यावकश्रीः ललाटपाते सिंदूररेखा अंगनागे ममृणधुसूण अंगरागः चीनपट्टे कासुनी द्युतिः अधरतले हारि तांबलं इत्थं अनेन प्रकारेण वैधव्यनाजोऽपि पौरनार्यः अविधववनितामंझना लवंतीत्यध्याहार्य । शोणरक्ता ये ग्रावाणः प्रस्तराः तेषां अंशुजालैः । यावकः अबक्तकः । महणं सुकुमालं। चीनपट्टे चीनदेशीयविशेषधवअवस्त्रे ॥४५॥
नावार्थ जे चैत्यनी अंदर आवेनी नगरनी विधवा स्त्रीओ सौना
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्यवतीना जेवां आभूषणोने धारण करनारी देखाय बे. पद्मराग मणिना किरणोना जालथी तेमना चरणतल उपर अलतानी शोजा थाय बे, बलाट उपर सिंदूरनी रेखा परे बे, घणां केशरना रंगना रागथी अंगराग थाय छे, चीनाइ वस्त्र पर कसुंबी रंग पमे बे अने अधर उपर मनोहर तांबूल देखा . ४
-
विशेषार्थ — ते चैत्यमां विधवाओं दर्शन करवाने आवे बे, ते सधवाना जेव देखावे. कारणके, तेनी अंदर पद्मराग मणिओना किरणो परुवाथी ते विधवाना शरीर उपर सौभाग्यना आभूषणो यह जाय बे. विधवा स्त्रीने मां अक्षतानो रंग, बलाट उपर सिंदूरनी पील, शरीरे अंगराग, ढवा सुंबी वस्त्र ने तांबूल होता नथी, पण या चैत्यमां जमेला पद्मरागमणि ने विधवाओना शरीर उपर सौभाग्यना चिन्हो देखाय बे.
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् || ॥ ४८ ॥
पद्मरागमणिना राता किरणो पमवाथी तेमना चरणमां अलताना जेवो देखाव थाय बे, बलाट उपर सिंडरनी रेखा परे बे, अंग उपर केशरीच्या रंनो अंगराग थाय बे, चीनाइ वस्त्र उपर कसुंबी कांति परे बे ने अधर दल उपर मनोहर तांबूलनी शोजा देखाय वे. ४
पुष्पं यस्मिन् कनककमलान्यंशुकं चीनवासः - स्नानस्यांभः कुसुमरजसो दीपिकारत्नरोचिः । आकल्प श्रीर्विविधमणयो रक्षकाः क्षेत्रपाला धूपक्षोदो मृगमदकणाः पूजकाः क्ष्माभुजश्च ॥ ४६ ॥
अवचूर्णिः - यस्मिन् पुष्पं कनककमलानि अंशुकं प्रस्तावाद् धौतवस्त्रं चीनवासः स्नानस्य
अंजः कुसुमजरजः दीपिकारत्नरो चिः प्राकल्पश्रीर्विविधमण यः रक्षकाः क्षेत्रपालाः धूपकोदो मृगमद
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
कणाः चपुनः पूजकाः दमानुजो राजानो वर्तते इत्यध्याहारः । आकल्पः आजरणं । मृगमदः कस्तूरी ॥ ४६॥
लावार्थ-जे चैत्यनी अंदर सुवर्ण कमनना पुष्पो चे, चीनाइ वस्त्रो बे, स्नान- जल पुष्परज , रत्नोनी कांतिरूप दीवीओ डे, विविध जातना मणिओ पोशाकनी आंगीनी शोला , क्षेत्रपातो तेना रक्षको ने, कस्तूरीना कण ते धूपर्नु चूर्ण ने अने राजाओ तेना पूजको ने. ४६
विशेषार्थ-आ श्लोकथी कवि कुमारविहार चैत्यनी साधन सामग्री वर्णवे . चैत्यनी अंदर पुष्प, वस्त्र, स्नात्रजल, दीपिकाओ, पोशाक (आंगी) रक्षको, धूप अने पूजको होवा जोइए तो आ चैत्यने विषे सुवर्ण कमलरूप पुष्प, चीनाइ वस्त्रो, स्नात्रजनरूप पुष्परज, रत्नोनी कांतिरूप दीपिका, विविध जातना मणिरूप आंगी, क्षेत्रपालरूप रदको, कस्तूरीरूप धूप अने राजाओरूप
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा-
रशतकम् ॥ ॥४ ॥
पूजको हता. ते उपरयो चैत्यनी विशेष समृद्धि दर्शावी . ४६ निर्मोकान् मन्यमानाः सरभसमनसः संहरते मयूराः कीराः कर्षति पाकप्रणयपरिणमदाडिमीबीजबुद्ध्या । ज्योत्स्नात्रांत्या चकोराः प्रतिनिशमनिशं चंचुभिर्विक्षिपते मुक्तादामावचूलान् विविधमणिगृहद्वारदेशेषु यस्मिन् ॥ ४७॥
अवणिः -यस्मिन् विविधमणिगृहधारदेशेषु मुक्तादामावचूनान् निर्मोकान् सर्पकंचुकान् मन्यमानाः सरनसमनसो मयूराः संहरंते । कीराः पाकमणयपरिणमदामिमीवीजबुद्ध्या मुक्तादामावचूमान् कर्षति । चकोराः प्रतिनिशं प्रतिरात्रि अनिशं ज्योत्स्नानांत्या चंचुनिः विक्षिपति । सरनस० इति सर्वेषां विशेषणं । मुक्तादामावचूलान् मौक्तिकगुच्छकान् । पाकस्य प्रणयः संश्लेषः तेन परिणमंतिपुष्टानि यानि दामिमीबीजानि ॥१७॥
नावार्थ-चैत्यनी अंदर विविध जातना मणिमय गृहना घार उपर
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
.००००००००००००००००००००००००००००००००००.
बटकावेला मोतीओनी मालाओनी फुलोने हमेशां मयूरपक्षीयो सर्पनी कांचली मानी मनमां आवेश लावी तेनो संहार करे छे, शुकपक्षिओ पाकेला दामीमना बीजनी बुद्धिथी तेने खेंचे ने अने चकोर पक़ीओ प्रत्येक रात्रे चंजनी कांतिनी ब्रांतिथी तेपर पोतानी चांचुथी तेने उगले . ४७
विशेषार्थ ते चैत्यनी अंदर मणिमय गृहना हारनी नपर मोतीनी मालानी झुलो बटकावेली . ते झुलो धोळी होवायी त्यां रहेला मोर, पोपट अने चकोर पनीओने तेने विषे जुदो जुदो संत्रम थाय . मोर पती
ओ तेने सर्पनी कांचनी मानी तेपर प्रहार करवा जाय , शुकपक्कीओ दामिमना दाणानी ब्रांतियी तेओने खेंचवा जाय ने अने चकोरपनीओ चांदनीनी ब्रांतिथी तेनीपर चांचो नांखवा जाय . आ उपरथी 'ते चैत्यनी अंदर मोतिरोनी समृद्धि घणी थे,' एम बताव्युं जे.अहिं ब्रांतिमान् अलंकार
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥ ॥२०॥
थाय . ४७
यस्मिन्नारब्धनीडान् युमणिमणिशिलापुत्रिकाः पाणिपद्मप्रांतोन्मुक्तैः स्फुलिंगैनवकनकमयोर्गोलिकास्तर्जयन्तिः । यातायातानि मध्ये किमपि विदधतस्त्रासयंत्यः शुकानाम् पोतान्निर्व्याजशांतं मुनिनिकरमपि प्रत्यहं हासयंति ॥ ४८॥
अवचूर्णिः—यस्मिन् मध्ये नवकनकमयोः गोलिकाः तर्जयद्भिः पाणिपद्मप्रांतोन्मुक्तः स्फुलिंगैः प्रारब्धनीमान् किमपि यातायातानि विदधतः शुकानां पोतान् त्रासयंत्यः घुमणिमणिशिलापुत्रिकाः निर्व्याजशांतमपि मुनिनिकरं प्रत्यहं हासयंति । किमपि कथमपि । निर्व्याज गतच्छम शांतं उपशांत मुनिनिकर विशेषणम् ॥ ४॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर सूर्यकांतमणिनी शिक्षाओनी पुतलीयो
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोताना हस्तकमलना अग्रभागमांथी नीकळता तणखाओ के जेओ नवीन सुवर्णन गोळीने तिरस्कार करनारा अर्थात् तेनाथी पण वधारे सुंदर दे - खाता- तेवा तखाओथी त्यां माळा बांधीने रहेला अने तेमनी बच्चे गमनागमन करता एवा शुकपक्षीयोना बच्चांयने त्रास आपे बे, ते सूर्यकांत मणिनी पुतली अने स्वाजाविकरीते शांत एवा मुनिओना समूहने पण दररोज हसावे बे. ४८
विशेषार्थ - ते चैत्यनी अंदर सूर्यकांत मणिनी पुतलीओ आवेली बे ज्यारे सूर्यनो उदय थाय बे, एटले ते पुतळीयोमांथी सुवर्णन गोली थी पण वधारे सुंदर एवा तखाओ पने बे, तेथी त्यां मालाकरीने रहेला शुकपीना बच्चांओ तेनाथी त्रास पामे बे. ते जोइ शांत एवा पण मुनियोइस आवे
द्वेषोन्मेषं वहद्भिर्द्विषत सुहृदि च प्रेमसीमानमन्यै
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विदा - रशतकम् || ॥ ५१ ॥
देवैः कार्य किमेभिस्तुलितजन पदाचारसंस्कारवित्रैः । देवः सेव्योऽयमेकः समसुहृदहितः प्राप्तसंसारपारो
यस्येत्थं केतुदंडः कथयति जगते किंकिणीनां निनादैः ॥ ४९ ॥
--
अवचूर्णिः - द्विपति द्वेषोन्मेषं उन्मेषः प्राकट्यं चपुनः सुहृदि प्रेमसीमानं वहद्भिः तुक्षितजनपदाचारसंस्कारवित्रैः अन्यः एचिः देवैः किं कार्य अस्ति । समसुहृद हितः प्राप्तसंसारपारः - यं एको देवः सेव्यः इत्थं यस्य केतुदंरुः किंकिणीनां निनादैः जगते कययति । तुलितः कृतः जनपदा ग्राम्याः तेषां आचारः संस्कारश्च तैः विस्राः दुर्गंधाः तैः ॥ ४० ॥
जावार्थ - जेनो ध्वजदं मित्र अने शत्रु जेने समान वे
घंटमीना नादथी जगत्ने कहे ढे के, अने जे संसारना पारने पामेल बे, ते आ एकज देव सेव्य बे, बीजा या देवो शा कामना छे. कारण के, बीजा देवो
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
शत्रुमां केषनाव अने मित्रमा प्रेमनाव धारण करे ने अने वळी तेओ देश तथा लोकाचारना संस्कार प्रमाणे वर्ती मलिन थयेला . पए।
विशेषार्थ ते चैत्यनी उपर जंचो ध्वजदंग . अने तेमां रहेली घं. टमीओना नाद थाय . ते नाद उपर कवि नत्प्रेक्षा करे ने के, ते ध्वजदंम पोतानी घंटमीओना नादथी लोकोने कहे छे के, “ आ चैत्यनी अंदर रहेसा एकज देव तमारे सेव्य जे. कारणके, ते मित्र तथा शत्रमा समन्नावथी वर्तनार अने संसारना पारने पामेला . बीजा देवताओ तमारे शुं कामना ने अर्थात् बीजा देवताओ सेववा योग्य नथी कारण के, ते देश तथा सोकोना आचार तथा संस्कारोथी मलिन थइ गयेला ने तेमज तेश्रो शत्रु नपर के ष अने मित्र उपर प्रेमने धारण करनारा .” कहेवानो आशय एवो के, आ जगत्मा शत्रु तथा मित्र उपर समान रीते वर्तनार अरिहंत देव एकज
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ||
11 12 11
सेववा योग्य बे, बीजा राग तथा द्वेषने धारण करनारा मिथ्यात्वी देवो सेSaar योग्य नथी. ते देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ प्रभु या कुमारविहार चैत्यमां बीराजे . ४
यत्राभ्यर्णे कृतवसतयो गीतवादित्रनृत्यप्रेक्षाक्षिप्ताः ः प्रथमवयसः पौरविप्रादिवध्वः । कर्मकुडश्वसुर गृहिणीवाग्भिरुच्चावचाभि मद्यन्मन्युग्लपितमनसोऽप्यापतंत्येव भूयः ॥ ५० ॥
अवचूर्णि:[ : - यत्र अन्य कृतवसतयः गं। तवादित्रनृत्यमेक्षा क्षिप्ताः उच्चावचानिः कर्मक्रुद्धश्वसुर गृहिणीवाग्निः माद्यन्मन्युग्नपितमनसोऽपि प्रथमवयसः पौर विमादिवध्वः नूय आपतंति । एवं कर्मणा क्रुधाः याः श्वसुरगृहिएयः 'सासू ' इतिलोकप्रसिन्धाः तासां वाग्निः माद्यन् मन्युः क्रोधः
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेन ग्लपितं सविषादं मनो यासां ताः । पौरविप्रादिपदमिति साभिप्रायं यतः विमादिवध्वः सरोषाः स्युः ।। ५० ।।
जावार्थ - जे चैत्यनी नजीक वास करीने रहेनारी ते नगरना ब्राह्मण वगेरेनी प्रथम वयनी वधूय तेमां थतां गीत, वादित्र ने नृत्यने जोवा - मां ति थाय बे, तेथी कामनी अंदर क्रोध पामेली सासूयोनी उंची नीची वाणी मनां मन उत्पन्न घयेला शोकथी ग्लान थयेलां होय बे,
पण ते पछी फरीथी ते जोवाने आवे छे. २०
विशेषार्थ — कुमारविहार चैत्यमां हमेशां नृत्य, गीत अवादित्रोनो खेडो मच्यो रहे बे, ते विषे कवि युक्तिथी वर्णन करे बे. ते चैत्यनी पोशमां नगरना ब्राह्मण वगेरेनी प्रथम वयनी वधूओ रहे बे. ते ते नृत्य, गीत ने वादित्रोने जोवामां एवी तल्लीन बनी रहे बे, के तेयो तेथी पोता
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विद्यारशतकम् ||
11 223 11
ना घरना कामकाज चुके बे. आयी तेमनी सासू गुस्सा कर तेमने कठगेर वाणी कहे छे. जे सांजळी ते वधूओना मनमां ग्लानि आवे बे, तथापि यो पाली फरीवार ते जोवाने आव्या वगर रहेती नथी. कहेवानो आशय एव के, ते चैत्यमां नृत्य, गीत अने वाजीत्रानी क्रिया एवी मजेनी था, जेने माटे तेना पमोशनी वधूओ पोतानी सासूना कटु वचनो सांजळे बे, ते छतां तेनो दरकार करती नथी. ए०
प्राप्यांस्त्रीत्रैस्तपोभिर्भवशतविहितैर्देव लोकोपभोगान् श्रद्धानां जिनांघ्रिस्तुतिरतमनसां मर्त्यभावेऽपि कर्तुम् । आरूढान् व्योमपीठीं हठहरणकृते संपदां स्वर्गजानाम् बाहुस्तंभानिवोर्ध्वान्ं वहति यदलघूनंसदेशेषु दंडान् ॥ ५१ ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवचूर्णिः - मर्त्यत्वेऽपि मनुष्यत्वेऽपि जिनांघ्रिस्तुतिरतमनसां श्रानां नवशतविहितैः तत्रैः तपोनिः प्राप्यान् देवलो कोपनोगान् कर्त्तुं यच्चैत्यं सदेशेषु स्वर्गजनानां संपदा ह हरते बाहुस्तंजानिव व्योमपीवीं प्रारूढान् ऊर्ध्वान् प्रधून् दंमान् वहति । सदेशेषु शिखरेषु ।। ५१ ।।
भावार्थ - जे चैत्य पोताना अंस--उपरना जागमां मोटा दंडने धारण करे बे, ते जाणे सैकमो जवे करेला तीव्र तपयी पामवा योग्य एवा देव लोकना उपजोगने जिनजगवंतना चरानी स्तुति करवामां तत्पर हृदयवाला श्रद्धालु पुरुषोने मनुष्य पणामां पण प्राप्त कराववा स्वर्गनी संपत्तिमनुं बलात्कारे हरण करवाने आकाश पीठ उपर आरुढ घयेला उंचा बाहुस्तंन होय तेवा ते देखाय बे. २१
विशेषार्थ — जेम कोइ माणस बीजानी संपत्ति बलात्कारे दरवाने खं
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा-१ रशतकम्। ॥५४॥
ना नपर दम ल तैयार थाय , तेम आ चैत्यना नपरना नागमां आवेता दंम नपर कवि तेवीज उत्प्रेक्षा करे . ते चैत्यनी नपर उंचा रहेला दंमो जाणे प्रजुना चरणनी स्तुति करनारा भाविक नक्तोने माटे वर्गनी संपत्तिनुं बलात्कारे हरण करवाने उंचा बाहुस्तंन होय तेवा देखाय छे. देवलोकना जपलोग सैकमो नवे करेला तीव्रतपथी पामवा योग्य , तेवा उपनोग मनुष्यपणामां मेलववाने माटे बलात्कार करवानी जरुर . कहेवानो आशय एवो ने के, ते चैत्ये पोतानी अंदर बिराजमान एवा पार्श्वनाथ प्रनुना चरणनी स्तुति करनारा मनुष्याने माटे स्वर्गनी संपत्तिना नपत्नोगनुं बलात्कारे हरण करवा पोताना खंना उपर दंग राखी हाथ लंचा करेला . ५१
कंप्राणां वातघातैर्महदपि हरितां चक्रवालं समंता
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
दाक्रामत्यक्रमेण प्रवरमरकतस्तंभधाम्नां प्रताने । कृच्छ्रादाकृष्य चंद्रं तृणकवलतृषा द्वारवेदीं प्रपन्नस्त्रस्यन् कंठीरवेभ्यः प्रथयति सुदृशां यत्र हास्यं कुरंगः ॥ ५२ ॥
-
अवचूणिः — यत्र वातघातैर्महदपि हरितां चक्रवालं समंतादक्रमेण प्रक्रामतिप्रवरमरकतस्तं धाम्नां प्रताने तृणकवल तृषा कृच्छ्राचं आकृष्य धारवेदीं प्रपन्नः कंठीरवेज्यः त्रस्यन् कुरंगः सुहशां हास्यं प्रथयति । कंमाणां कंपनशीलानां । मरकत० नीलमणिस्तमरुचीनां समूहे । हरितां नी - तृणानां चक्रवालं समूहं आक्रामति व्याप्नुवति सति । तृणकवलतृषा हरितग्रासतृपया तृतीया । प्रतिबिंबच्छलेन चंद्रं प्राकृष्य द्वारा जिरं प्राप्तः । कंठीरवेन्यः सिंहेभ्यः त्रस्यन् । कुरंगो मृगः ||२||
जावार्थ - वायुना आघातथी कंपायमान थयेली दिशायना मोटा समूह श्रेष्ठ एवा मरकतमणिना स्तंजना तेजनो समूह चारे तरफ क्रमवि
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान रशतकम् ॥
ना आक्रांत थवाथी चंजनी अंदर रहेलो मृग घासना कोळीया लेवानी तृहणाथी चंपने मुस्केलीथी खेंची हारवेदी उपर आवे छे, पण त्यां रहेला सिंहोनी प्रतिमाथी त्रास पामे छे, तेथी ज्यां स्त्रीओने हास्य उत्पन्न करे छे. ५२ - विशेषार्थ-आ श्लोकमां ग्रंथकार एक नवीज कल्पना करे छे. ए चैत्यनी अंदर मरकतमणिो एटलाबधा जमेला छे, के, तेोनुं तेज पवनना
आघातथी कंपायमान लागती एवी दिशाओमां चारे तरफ प्रसरे छे. मरकतमणि लीला होवाथी चंजनी अंदर रहेन मृग तेने घास धारीने खावानी तृष्णाथी चंपने खेंची त्यां जाय छे, पण ते स्थळे रहेनी सिंहनी प्रतिमाथी ते मृग त्रास पामे छे, आ देखाव जोइ त्यां आवेती स्त्रीओने हास्य उत्पन्न थाय छे. आ उपरथी ते चैत्य चंजना मात्र सुधी चुं छे अने तेनी अंदर मरकतमणिओ घणा छे एम दर्शाव्युं छे. ५२
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आकीर्णा स्वर्णकुंभैः शशिमणिशिखरोद्गीर्णरोचिःस्रवंतीव्यालोक्य व्योमगंगामिव कनकपयोजन्मराजीविभूषाम् । स्थित्वा स्थित्वा व्रजद्भिर्जलकनकधिया सप्तिभिर्नीयमानो यन्मूर्ध्नि स्थानलीलां रचयति तरणेीर्घकालं पताकी ॥ ५३ ॥
अवचूर्णिः—यन्मनि स्वर्णकुंनैः आकी शशिमणिशिखरोद्गीणरोचिःस्रवती कनकपयोजन्मराजीविजूषां व्योमगंगामिव व्यालोक्य जलकनकधिया स्थित्वा स्थित्वा व्रजभिः सप्तन्निः नी. यमानः तरणेः सूर्यस्य पताकी रयः दीर्धकालं स्थानलीलां कथयति । आकीर्ण व्याप्तां । चंधकांतशिखराउद्गीर्णा निर्गता या रोचिषः कात्यः ता एव सवंती नदी तां। कलशानां कमलोपमानं कांतेर्जस्रोपमानं । सप्तयस्तुरगाः ॥ १३ ॥
नावार्थ-सुवर्णना कमसोनी श्रेणीरूप आनूषणवाली जाणे आकाश गंगा होय तेवी सुवर्णना कुंनोथी व्याप्त एवी चंकांतमणिोना अग्रनाग
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥५६॥
मांथी नीकळती कांतिरूप मणिोनी नदीने जोइ जेना घोमाओ जलकनकनी बुद्धियी नना रहेता जाय . तेवा घोमाअोए वहन करेलो सूर्यनो रथ जे चैत्यना मस्तक नपर लांबा वखत सुधी स्थाननी लीना रचे ने अर्थात् घणो काल उन्नो रहे . ५३
विशेषार्थ ते चैत्यनी उपर सूर्यनो रथ ज्यारे आवे , त्यारे ते स्थले ते घणीवार उन्नो रहे , कारणके, तेना शिखर उपर सुवर्णना कमशो घणा , अने तेमां चंकांतमणिोमांथी कांतिना प्रवाह ऊर्या करे ने, ए. टले ते देखाव सुवर्णना कमज्ञवाली आकाश गंगाना जेवो थाय छे. ते जो सूर्यना रथना घोडाओ जलनी बुद्धिथी उत्ना रही जाय छे एटले.ते रथ ते स्थसे सांबोकात टकी रहे . आयी पण चैत्यनी अति उन्नति दर्शावी . ५३
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंधाकृष्टालिजालेस्त्रिदशपतिशिरःशेखरस्रस्तदामस्तोमैरभ्यार्चतं ते पदकमलमहं नाथ नित्यं दिदृक्षुः । एणः किं त्वेष वैरी वसति हरिकुलान्द्रपीठीनिषण्णादित्येवं यत्र देवं प्रणिगदति शशी बिंबितो द्वारवेद्याम् ॥ ५४॥
अवचर्णिः--हे नाथ गंधाकृष्टालिजाबः त्रिदशपतिशिरःखेखरस्रस्तदामस्तोमैः अध्यचितं ते तव पदकमनं अहं नित्यं दिदकुरस्मि किंतु एष वैरी एणः लपीजीनिषएणात् हरिकुलात् त्रसति यत्र धारवेद्यां बिंबितः शशी देवं इत्येवं प्रणिगदति ब्रवीतीत्यर्थः । त्रसैव जये । विभ्रास्त्रास्. उम्कम्त्रसीति सूत्रेण वा श्ये त्रसति इति रूपं । नअपीवी सिंहासनं तत्र निषएगाउपविष्टात् हरिकुलात् सिंहसमूहात् ॥ ५४॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्यनी हारवेदिकामां प्रतिबिंबित थयेलो चंड ते पार्श्वनाथ प्रजुने प्रार्थना करे ने के, “ हेनाथ, सुगंधयी आकर्षण थ
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्।। ॥ ७॥
येला नमराोना जासवाला इंघोना मस्तकोना शेखर-मुगटमाथी खरीपमेसा पुष्पमालाना समूहोथी पूजाएला तमारा चरणकमलने जोवानी हुँ नित्ये इच्ग राखुं छु, परंतु, आ मारो वैरी मृग तमारा जज पीठ नपर बेठेला सिंहनी प्रतिमाथी त्रास पामे . ५४
विशेषार्थ-ते चैत्यनी कारवेदिकामां पमेला चंजना प्रतिबिंब उपर ग्रंथकार कल्पना करे ने के, चंछ प्रजुनी पासे आवीने प्रार्थना करे ने के, " हे नाथ नित्ये तमारा चरणकमलने जोवानी मारी इच्छा , पण हुं शुं कसंके, मारी पासे रदेलो आ मृग मारे वैरी थयो ने. कारण के, ते तमारा जन पीठ उपर रहेना सिंहथी व्हीवे . जो ते मृग सिंहथी जय पामतो न. होततो हुँ हमेशां तमारा चरणकमलना दर्शन करत. वन्नी हे नाथ, तमाएं ते चरणकमल इंजोना मस्तक उपर रहेन पुष्पमात्रामांयी खरीपमेला पुष्पो
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
ए पूजाएj ने. अर्थात् इंघो तमारा चरणकमनमां नमवाने आवे , ते वखते तेमना मस्तकमाथी पुष्पो तमारा चरण जपर खरे छे. कहेवानो आशय एवो ने के, जेमना चरणमां मोटा इंडो नमे छे, ते चरणना दर्शननी इच्छा कोने न थाय. ? ५४
यस्मिन् शृंगस्थलीनां वियति विलुलिते चंद्रकातांशुपुंजे तिष्ठंतो वारवारं प्रविलुठनकृते सैकतस्य भ्रमेण । साटोपध्वानशुष्यन्मुखकुहरतलं व्योमपारं यियासोस्तीवांशोः सप्तयस्ते किमपि फणिरिपोरग्रज क्लेदयति ॥५५॥
अवचूर्णिः—यस्मिन् शृंगस्थलीनां वियति चंकांतांशुपुंजे विबुलिते प्रसारिते सैकतस्य तटस्य जमेण प्रविबुग्नकृते वारवारं तिष्ठतः व्योमपारं यियासोः तीव्रांशोः ते सप्तयः फणिरिपोः अग्रज
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा रशतकम् || ॥ ५८ ॥
असारथिं साटोपध्यानेन सक्रोधशद्वेन शुष्यत् मुखकुहरतलं यथास्यात्तथा क्रियाविशेषणं याति ॥ ५५ ॥
भावार्थ - जे चैत्यना शिखरनी भूमिमां जमेला चंद्रकांत मणिना किरणोनो समूह प्रकाशमां व्याप्त थता तेने जोइ आकाशनी पेलीपार ज
इच्छारा सूर्यना घोमाय तेने रेतीनुं तट धारी तेपर लोटवाने माटे वारंवार जा रहे बे. अने तेथी आटोप सहित शो करवाथी जेनुं मुखरूपी गुहातल सारथीनुं सुकाइ जाय बे, एवा गरुरुना मोटा जाइ अरुण सारथिने ते कांप खेद पे बे. एए
विशेषार्थ — कुमारविहार चैत्यना शिखर उपर चंद्रकांत मणि जमेला बे, तेना किरणो आकाशमां बबाइ रहे बे, तेने जोइ सूर्यना रथना घोमायो रेती ट धा तेपर आलोटवाने माटे वारंवार उजा रहे बे, आथी
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूर्यना सारथि अरुणने खेद थइ पके जे. कारण के, तेओने हांकवामां वधारे श्रम सेवो पके . आ वर्णनयी ते चैत्यनी जंचाइ अने चंडकांत मणिनी शोना दर्शावी छे. ५५
अंभःशोभाहराणां मुहुरतिसरलं भ्राम्यतां भंगजालैराकीर्ण चंद्रकांतप्रभवतलशिलादेहलीकुंभभासाम् । मान्येभ्यः शंकमानाः सचकितचरणन्यासमुत्क्षिप्य वासःप्रांतान् श्रोणीविलंबान् कुलकमलदृशो यस्य मध्यं विशंति ॥५६॥
अवचूर्णिः-मुहुः वारंवारं अतिसरखं भ्राम्यतां अनःशोनाहराणां चंधकांतपनवतसशिलादेहलीकुंजनासां नंगजालैः आवर्तजाः आकोण यस्य प्रासादस्य मध्यं मान्येच्यः शंकमानाः श्रोणीविलंबान् कटिझनान् वासःमांतान् नक्षिप्य कुलकमसदृशः सचकितचरणन्यासं यथास्यात्तथा विशति ॥५६॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ एए ॥
जावार्थ - ते चैत्यमां चंद्रकांतम गिनी बनेली तलीया योनी शिल्लायो तथा बराओ ने कलशोनी कांतियो वारंवार अति सरल रीते जम्या करे बे, तेथी ते जलनी शोजाने धारण करे बे. एवी कांतिओनी घुमरीना जालथी ते चैत्यनो मध्य जाग व्याप्त बे, तेनी अंदर कुलीनकांताओ माननीय पुरुषोनी शंका करती ने चकित थने पगला मुकती पोताना कटी जाग तथा नितंब - पर लटकता वस्त्रोना प्रांत जागने उंचा लइने ते चैत्यना मध्य जागमां प्रवेश करे बे. ५६
त्रिशेषार्थ - कुमार विहार चैत्यमां तलीयानी शिलाओ, उमराम्रो अ शो चंद्रकांत मणिथी बनेला छे, तेनी कांतिओ एवी रीते जम्या करे छे, के यो जलना जेवी देखाय बे. तेथी त्यां दर्शन करवाने आवती कुलीन स्त्री ते ठेका जल बे एवं धार ' ते केटं तंमुं हशे ' एवी शंका करे
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेलइने ते पग मुकतां जय पामे बे. आवी रीते जलना मापनी शंका राखतीने तेथी जय सहित पगला मुकती ते स्त्रीओ तेनी अंदर प्रवेश करे बे. या उपरथी चैत्यना नंबराना कलशनी शोजा केवी उत्तम बे ? ए वात दर्शाव बे. २६
यामिन्यां यत्र लोकाः प्रतिकलविगलच्चंद्रकांतांबुपातैर्व्यस्तन्यस्त।तपत्राः शिरसि मधुमयं गीतमाकर्णयति । सूर्याश्मोच्छालितेभ्यः पुनरहनि लसज्जातवेदः कणेभ्यः संत्रस्ताः पाणिपद्मस्थितजलकरकास्तोरणं सज्जयंति ॥ ५७ ॥ अवचूर्णि:- : यत्र प्रासादे यामिन्यां रात्रौ प्रतिकन विगलचंद्रकांतांबुपातैः शिरसि व्यस्तन्यस्तातपत्राः लोकाः मधुमयं मधुतुख्यं गीतं कर्णयति शृएवंति । पुनः अहनि दिने सूर्यास्मोछालिते
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विद्यारशतकम् ॥ ॥ ६० ॥
च्यः बसजातवेदःकणेज्यः संत्रस्ताः पाणिपद्म स्थितजलकरकाः लोकाः तोरणं सज्जयंति सज्जं कुर्वति । व्यस्ताः मिलिताः ॥ ५७ ॥
भावार्थ - जे चैत्यमां लोको रात्रे दरेक स्थाने गलता एवा चंद्रकांतना जलना वाथी मस्तकपर अवली बत्रीयो धरीने मधुर गीतो सांa. दिवसे सूर्यकांत मणिमांथी उबलता अग्निना ताखाने बने मना दस्तकममाथी खसी पडेला जलना पात्रोथी तोरणो रचे बे. ए
विशेवार्थ - -आ श्लोकथी कवि एवं दर्शावे बे के, ते कुमारविहार चै - त्यां एटलाबधा चंद्रकांतमयि वे के, रात्रे तेमांथी जलना बिंदुओ गवाथ तेमने माथे बत्रीयो राखी गीत सांजनवा पमे बे ने तेमां सूर्यकांतम एटलाबधा बे के, दिवसे तेमांथी झगता अग्निना तणखा खरवा
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
थी लोकोने हाथमां जबना पात्रो राखवा पके . ते पात्रो श्रेणीबंध धरवाथी तोरणनी शोना बने . ५७
यस्मिन्नीलाश्मपूरे तिमिर इव पुरो लोलहस्तं भ्रमंत्यः क्वापि स्वच्छाश्मभिन्नां क्वचिदलिकतटीं पाणिभिः पीडयंत्यः । आत्मयिं क्वापि बिंबं परमनुजभिया दत्तफालं विलंध्य क्रामत्यः पण्यनार्यों निकटभवविटांस्तन्वते स्मेरवक्त्रान् ॥ ५८ ॥
अवचर्णिः-यस्मिन् प्रासादे कापि तिमिर श्व नीलाइमपूरे पुरः अग्रे सोलहस्तं जमत्यः कचित्स्वच्छाइमजिन्नां अलिकतटीं पाणिनिः पीमयंत्यः मसलयंत्यः कापि परमनुजधिया आत्मीयं बिंब दत्तफालं ययास्यात्तथा विवंध्य क्रामत्यः पएयनार्यो निकट नटविटान् स्पेरवक्त्रान् तन्वते विस्तारयति । जिन्नां आस्फालितां । निकटजटविटान् आसन्नसुनटजारान् ॥ २७ ॥
नावार्थ-जे चैत्यमां आवनारी वारांगनाओ नीलमणिना समूहमा
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥ ॥ ६१॥
अंधकार धारी पोताना चपल हस्तने आगल करी जमे बे. कोइ ठेकाणे स्फटिकमयी जुदी पती खोटी दीवाल धारी तेने पोताना दाथथी दबावे छे. कोइ काणे पोतानुं प्रतिबिंब पमेनुं जोइ तेने बीजुं कोइ माणस बे, एवोजय राखी मोटी फाल जरी तेने उल्लंघन करी चाले छे, आथी ते वारांगनापोतानी पासे रहेला वीर पुरुषोने मुखमां हसावे बे. ए८
विशेषार्थ - ते चैत्यमां नृत्य करवाने वारांगनाओ आवे छे. ते त्यां जमेला नीलमणिने जोइ तेमने अंधकारना जेवो देखाव लागे बे, एटले तेआग दाने जमावे बे. कोइ ठेकाणे स्फाटिकमणि आवे एटले त्यां दीवाना मी तेनी साथे ते हाथ दबावे बे. कोइ ठेकाणे पोतानुं प्र तिबिंब पवाथी तेमने कोइ बीजा माणसनो जय लागे वे एटले तेयो फाल आप ते जाग उल्लंघन करी चाली जाय बे, ते पासे रहेला वीट पुरुषोने
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
हास्य उत्पन्न करे छे. आ उपरथी ते चैत्यमां नीलमणि अने स्फटिकमलिनी विशेष शोना दर्शावी बे. ए
बद्धावासस्य यत्र त्रिजगदधिपतेः पार्श्वनाथस्य पाथःकुंभैः श्राद्धाः शशांकोपलरजतमयैर्मज्जनं कल्पयंतः । पश्यंतः कुंभगर्भाद्युतिममृतसितां धारया देवमौलौ भूयो भूयः पतंतीं न सलिलविरहेऽप्यावहंते विरामम् ॥ ५९ ॥ अवचूर्णि:: - यत्र प्रासादे
वासस्य त्रिजगदधिपतेः श्रीपार्श्वनाथस्य शशांकोपल रज
तमयैः पाथः कुनैः मज्जनं करपर्यंतः कुंनगर्नादमृतसितां श्रुतिं देवमौलौ धारया भूयोभूयः पतंतीं पश्यंतः सलिल रहेऽपि विरामं न आवहंते नहटनं कुर्वेति बच्छावासस्य कृतावासस्य ॥ २७ ॥ जावार्थ - जे चैत्यमां वास करीने रहेला एवा त्रण जगत्ना अधिप
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृमारविहारशतकम्॥ ॥६ ॥
ति श्री पार्श्वनाथ प्रजुने श्रावको चंद्रकांतमणिना अने रुपाना जाना कनशोथी स्नात्र करावे छे ते वखते ते कलशनी अंदरयी अमृतना जेवी उज्वब कांति प्रजुना मस्तक नपर धारायी वारंवार पडे , ते जोइ जसविना पण तेओ स्नात्र करवायी विराम पामता नयी. एए
विशेषार्थ-ते चैत्यमा रहेता श्री पार्श्वनाथ प्रजुने श्रावको चंडकांत तथा रुपाना जन कलशोथी स्नात्र करावे , ते वखते प्रजुना मस्तकपर तेक
शोनी नज्वल कांति परवायी ते जल वगरना थया होय तो पण तेनी कांतिने बस्ने ते श्रावको काशमांयी जन पके, एवं धारी स्नात्र करतां विराम पामता नथी. अर्थात्. कलश खाती थइ गया होय तोपण तेओ तेने मस्तकपर धरी राखे ने, कारण के, कलशनी उज्वल कांतिने तेओ जलनी धारा पमे , एम मानी प्रजुना मस्तकपर ते काशो धरी राखे . ते चैत्य
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
मां हमेशां श्रावको तरफथी चंद्रकांत तथा रुपाना कलशोनी प्रजुने स्नात्र कराववामां आवे छे, एम दर्शायुं बे. ए
सूर्यग्रावोत्थितानां चलचमरमरुद्विस्फुरच्चापलानां खेलन्नार्चःकणानां पणहरिणदृशां भालरंगे समूहः । यस्मिन् देवानुभावाज्वलयति न परं वल्लरीः कुंतलानां पुष्णाति स्वर्णपुष्पप्रकरपरिचितं किंनु शोभाकलापम् ॥ ६० ॥
अवचूर्णिः - यस्मिन् प्रासादे सूर्यग्रावोत्थितानां चल चमरमरुद्विस्फुरच्चापलानां खेलन् अर्चिःकणानां समूहः पणहरिएदृशां जालरंगे परं केवलं कुंतलानां वल्लरी: न ज्वलयति किंतु स्वर्णपुष्पमकरपरिचितं शोनाकलापं पुष्णाति स्वर्णपुष्पप्रकरस्य शेखरस्य परिचितं सदृशं ।। ६० ।
नावार्थ - जे चैत्यनी अंदर आवती वारांगनाओोना लबाट उपर सू
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् || ॥ ६३ ॥
र्यकांत मणिमांथी उमेला ज्वालाओना तणखा आवे बे, के जे तणखाओ वींजाता चामरना पवनथी चपलताने स्फुरणायमान करे बे. तथापि ते ताखायो श्री पार्श्वनाथ प्रतुना प्रभावथी वारांगनाओनी केशलताने दहन करतां नथी, पण उलटा सूवर्ण पुष्पोना समूहना जेवी शोजाना कन्नापने पोषण करे बे. ६०
विशेषार्थ — कुमार विहार चैत्यनी अंदर वारांगनाओ नृत्य करवा - बे, ते वखते सूर्यकांतमणिमांथी अग्निना तखाओ नीकली तेमना बाट उपर प बे. परंतु देवाधिदेवना प्रभावथी तेमना केश बलीजता नथी, पूण तेनाथी उलटा सूवर्ण पुष्पो तेनी उपर गुंध्या होय, तेवो देखाव थाय बे, या नयर सूर्यकांतम यिनी समृद्धि, वारांगनानी नृत्यपूजा देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ प्रजुनो प्रभाव वर्णव्या बे. ६०
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
यस्मिन्नावर्त्तयंत्याः सहृदयहृदयानंदकान् दृष्टिभेदान् तन्वंत्यास्तालगीतस्फुटपटहमृदंगानुगां लास्यलक्ष्मी । नृत्यन् बिंबोपनीतैर्नवनवकरणैर्हस्तचारीप्रपंचनर्तक्याः स्तंभ एकः स्पृशति रजतभूनर्त्तनाचार्यलीलाम् ॥६१॥
अवचूर्णिः—यस्मिन् प्रासादे सहृदयहृदयानंदकान् दृष्टिनेदान् आवर्त्तयंत्याः कुर्वत्याः तालगीतस्फुटपटहमृदंगानुगां सदृशी बास्यलक्ष्मी नाटकादमी तन्वंत्याः नर्तक्याः बिंबोपनीतैः प्रतिबिंबप्रातैः नवनवकरणैः अंगादिवालनैः हस्तचारीप्रपंचैः नृत्यन् रजतनूः एकस्तंनः नर्तनाचार्यलीला स्पृशति। "लास्यं नाटयं च तांबं " इति नाममाला ॥ ६१ ॥
नावार्थ ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर एक रुपानो स्तंन हतो. तेनी अंदर सहृदय पुरुषोना हृदयने आनंद आपनारा कटाहोने दर्शावती,
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहाशतकम् ॥
। ६४ ॥
ताल, गीत, ढोलक ने मृदंगने अनुसरी नाचनी शोजाने विस्तारती एक नर्त्तकीना नवनवा दाथना अभिनय - - लटका प्रतिबिंब थता हता, तेथी ते स्तं नृत्य करतो नृत्याचार्यनी लीलाने धारण करतो हतो. ६१
विशेषार्थ - श्लोकथी कविए कुमारविहार प्रासादमां थती नृत्य श्रीमाने चमत्कारीरीते वर्णवी बे. ते प्रसादमां कोइ नाच करनारी स्त्री नृत्य करती हती. नृत्यनी अंदर सहृदय पुरुषोना हृदयने आनंद आपनारा कटाकोने ते दर्शावती हती वली ताल गीत, ढोलक तथा मृदंगना नादनें अनुसरी पोतानुं नृत्य चलावती हती. ते साथे ते पोताना हाथना अभिनय करती हती. आबध तेलीनो देखाव ते प्रासादना एक स्तंनमां प्रतिबिंब थवाथी — स्तंन जाणे नृत्याचार्य होय तेवो देखातो हतो. रुपेरी स्तंजनी अंदर नाच करनारीनुं प्रतिबिंब परतुं हतु, तेथी ते जाणे नृत्यनुं शिक्षण -
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
पनार नृत्याचार्य होय, तेवो देखातो हतो. नृत्याचार्य जेवी रीते अन्जिनय करी बतावे, तेवी रीते तेनी शिष्या नर्तकीओ तेने अनुसरीने अभिनय करे . ए नृत्यशिक्षणनी पद्धती प्रख्यात . ६१
वल्गामुन्मथ्य रथ्यः प्रतिहतगतिना भानुना निंद्यमानो युद्धश्रद्धैः प्रतीभप्रभवरवधिया दिग्गजैनद्यमानः । यस्याद्वैतं त्रिलोक्यामुपरमविमुखो घोषयन्नुच्चघोषं श्रद्धालूनां त्रिसंध्यं पटुपटहरवो धूपवेलां ब्रवीति ॥ ६२॥
अवचूर्णिः-वढगां जन्मथ्य त्रोटयित्वा रथ्यैः रथस्य योग्याश्चैः श्रधा वासना विद्यते येषां ते घालवः । श्रमाया आनुः । प्रतिहतगतिना नानुना निंद्यमानः प्रताचप्रनवरवधिया युद्धश्रयः दिग्गजेनद्यमानः आनंद्यमानः त्रिलोक्यां यस्य प्रासादस्य अतिं एकत्वं उच्चघोषं ययास्यात्तथा कथयन्
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ६५ ॥
उपरमविमुखः पटुपटहरवः स्त्रीपुरुषाणां त्रिसंध्यं त्रिकालं धूपवेलां अर्थात् देवपूजावेलां ब्रवीति प्रथयति ॥ ६२ ॥
भावार्थ - कुमारविहार चैत्यनी अंदर थतो मोटो नगारानो अवाज उंचे प्रमाणे घोषणा करी श्रद्धावाला लोकोने त्रकाल धूप करवानी वेला जावे . ने अविरतपणे त्रण लोकमां ते प्रासादनी अद्वितीयता प्रगट करे बे. ज्यारे ते ध्वनि प्रगट थाय बे, त्यारे सूर्यना घोमाओ लगामने तावे, तेथी सूर्यनी गति हणांता सूर्य ते ध्वनिनी निंदा करे बे. अने ते - सांजली युद्धनी श्रावाला दिग्गजेंडो पोतानी सामे आवेला बीजा हाथीथी उत्पन्न थयेला शब्दनी बुद्धिथी ते आनंद पामे बे. ६२
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यमां ज्यारे धूप करवाना वखतना नगारानो ध्वनि थाय बे, त्यारे धूप पूजा करवानी इच्छावाला लोकोने ते सम
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
यनी सूचना थाय जे. वनी ते ध्वनि 'आ प्रासाद जगत्मां अद्वितीय छे' एम जणावे छे. आ ध्वनिनो अवाज एटलो मोटो थाय ने के जेथी आकाश मार्गे जतां सूर्यना घोमाओ जमकी पोतानी लगाम तोमावे , एटने सूर्यनी गतिमां जंग थवाथी सूर्य तेनी निंदा करे . बीजी तरफ दश दिशाओमां रहेता दिग्गजो के जेओ हमेशा युद्ध करवानी इच्छा राखे छे, तेश्रो ते वखते समजे के, पोतानी सामे थयेला को बीजा गजेंनो आ ध्वनि , तेथी तेश्रो सामे थवाने तैयार थाय छे, पण ज्यारे को प्रति गजें तेमना जोवामां आवतो नथी एटले तेओ नाखुश थाय ने अने तेथी तेनी निंदा करे . आ नपरथी ते प्रासादमां धूप वाद्यना ध्वनिनी प्रौढता दर्शावी छे. ६५
कूपस्तंभानुकारं स्पृशति सितपटोनासितस्वर्णदंडे
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥
तन्वाने कांतिदृष्टिं दिशि दिशि कलशे कर्णधारे शिरःस्थे। लावण्याद्वैतभाजि स्फाटिकमणिशिलाराशिरोचिःपयोधी पूर्ण रत्नैरनंतैर्वहति यदनिशं यानपात्रस्य लक्ष्मीम् ॥ ६३ ॥
अवचूर्णिः-अनंतेः रत्नैः पूर्ण यच्चैत्यं कूपस्थंनानुकारं स्पृशति सति सितपटोजासितस्वर्ण दं दिशि दिशि कांतदृष्टिं तन्वाने शिरःस्थे कलश एव कर्णधारे लावण्यातनाजः स्फटिकमणि शिलाराशिरोचिःपयोधेः यानपात्रस्य लक्ष्मी शोना अनिशं वहति कूपस्थंनः कुआर्थनतिपसिकः । सितपटः 'सढ' इति प्रसिधः तेन नदनासितः असंकृतो यः सौवर्णदंमः तस्मिन् । सौम्यदष्टिं । कर्ण अरित्रं धारयतीति कर्णधारः तस्मिन् । लावण्यं सौजाग्यं पदे लावण्यं पानीयं । स्फटिकमणिशिलाराशीनां रोचिषः कांतयः ता एव पयोधिः समुजः तस्मिन् यानपात्रस्य प्रवहणस्य ॥ ६३ ॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्य हमेशां वहाणनी शोलाने धारण करे . तेना शिखर नपर आवेल नज्वा पताकायी प्रकाशित एवो सुवर्ण
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
दंड कूप स्थंन (मोल) नीतुट्यताने प्राप्त करे ने अने मस्तक नपर आवेझो कलश खलासीनी जेम प्रत्येक दिशामां सुंदर कांतिरुपा दृष्टिने विस्तारे . स्फटिकमणिनी शिवाओना समूहनी कांतिनो समुफ सर्वत्र लावण्यमय बनी रह्यो जे अने पोते असंख्य रत्नोथी परिपूर्ण ने. ६३
विशेषार्थ-या श्लोकयी कवि कुमारविहार प्रासादने वाहाणनी नपमा आपे . वाहाणमां जेम जंचो मोन होय , तेम अहिं सफेत पताकावासो सुवर्णनो ध्वजदंग रे. वाहाण नपर अग्रत्नागे खनासी बेसे ने अने ते पोतानी दृष्टि सर्व दिशाओमां विस्तारे , तेम आ प्रासाद उपर कलश प्रत्येक दिशामां पोतानी कांतिरुपी दृष्टिने विस्तारे .वाहाणमांजेम समुजना अनेक रत्नो नरेला होय , तेम आ प्रासाद अनेक रत्नोथी परिपूर्ण ने. अने तेनी अंदर स्फाटिकमणिनी शिलाओनी कांतिनो समूह रहेबो . आवी
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ॥ ६७ ॥
ते ते प्रासाद एक सुंदर वहाणनी शोनाने प्राप्त करे बे. ६३
स्तुत्याभिर्मर्त्यसार्थैरनिमिषनयनां भोरुहाभिः समंतात् पांचालीभिः समेतैः स्फुटमणिगुरुभिर्मेध्यमध्यं विमानैः । उन्मीलभद्रवेदीप्रणयिहरिहयोत्कृष्टमष्टापदाव्यं
कृत्वाधः स्वर्गिधामस्थितममृतसमुत्पत्तिगुर्व्या यदुव्याम् ॥ ६४ ॥ अवचूर्णिः -मसार्थैः स्तुत्यानिः स्तवनीयानिः अनिमेषनयनांजोरुहानिः पांचाली - निः पुत्रिका निःपक्षे देवी जिः समेतैः सहितैः स्फुटं प्रकरं प्रतिगुरुजिः विमानैः मेध्यं पवित्रं मध्यं । उम्मीद वेदीप्रणयिहरिहयोत्कृष्टं अष्टापदाढ्यं स्वर्गिधाम सुरालयं अधः कृत्वा यञ्चैत्यं अमृतसमुत्पraji पृथिव्यां स्थितं अस्ति । अमृतं मोक्षस्तस्य समुत्पत्तिः समुदजवस्तेन गुर्वी पके अमृतं सुधा । मर्त्याः मनुष्याः । उन्मीसंतो विनिद्याः । नसिंहासनस्था ये हरयः सिंहाः हया प्रश्वास्तैरुत्कृष्टं प्रधानं ॥ ६४ ॥
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावार्थ - जे कुमारविहार चैत्यनो मध्य भाग मनुष्योना समूहे प्रशं सा करवा योग्य ने जेमना नेत्रकमल निमेषरहित बे एवी पुतलीओ वमे युक्त अति मोटा एवा विमानाथी पवित्र बे, मंगलवेदी उपर प्रकाश पामता सूर्यथी जे उत्कृष्ट अने जे अष्टापदयी व्याप्त बे, ते चैत्य अमृतनी उत्पत्तिथी मोटी एवी पृथ्वी उपर देवताना धाम रूप स्वर्गनो तिरस्कार करीने रहे बे. ६४
-
विशेषार्थ - श्लोकयी ग्रंथकारे कुमारविहार चैत्यने व्यतिरेकानं - कारथी स्वर्गथी अधिकपणे वर्णव्युं छे. स्वर्गन । अंदर रहेनारी देवी मेष दृष्टिवल होय अने ते विमानमां बेशी फरे बे. तेम या चैत्यनी अंदर निर्निमेषदृष्टिवासी पुतलीओ विमानमां चीतरेली बे. जेम स्वर्गमां ईरहे छे, तेम या चैत्यमां सूर्यनुं प्रतिबिंब पडे बे, तेम सूर्यना चित्रो पण बे.
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥६ ॥
स्वर्गना धाम समीप अष्टापद , तेम अहिं अष्टापदनुं चित्र ने तेमज अष्टापद जातना मृगलाना चित्रो छे. स्वर्गमां अमृतनी उत्पत्ति , तेम आ चैत्यमां अमृत-मोक्षनी उत्पत्ति थाय ने. तेथी आ चैत्य स्वर्ग लोकनो तिरस्कार करीने उत्कृष्टताथी रहेवं . ६४.
नीतान्यत्यंतरूढेरवचनविषयं सात्विकैर्विक्लवत्वं साक्षादस्तानुषंगान्यपि निकटटहल्लोकलज्जावशेन । बिंबान्यन्योन्यमच्छस्फटिकमणिशिलास्तंभयष्टिप्रतिष्टान्याश्लिष्याश्लिष्ययस्मिन् विदधति मिथुनान्यंगकंडविनोदम् ॥६५॥
अवचूर्णिः-यस्मिन् प्रासादे अत्यंतरूद्वैः सात्विकैः अवचनविषयं वचनागोचरं विक्लवत्वं नीतानि निकटवृहलोकमज्जावशेन सावादस्तानुषंगाण्यपि अन्योऽन्य अच्चस्फटिकमणिशिलास्तजय
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
INI टिप्रतिष्टानि विवानि मिथुनानि अन्योऽन्यमाश्लिष्याश्लिष्य अंगकंडू विनोदं विदधति । अत्यंतरूद्वैः
अतिप्रौः सात्विकैः मदनोद्दीपकनावैः विक्लवत्वं क्लीबत्वं साक्षात् प्रत्यहं । पार्श्वस्थो महबोकस्तस्य लज्जा तस्या बशात् अस्तानुषंगान्यपि दिप्तसंगान्यपि । अंगकडूविनोदं सुरतविनोदं । मिथुनानि पुंस्त्रीयुग्मानि ॥ ६५ ॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर आवेता स्त्री पुरुषोनां जोमलां अति आसक्त एवा सात्विक नाववमे अनिर्वचनीय एवी आतुरताने पामेला पण पासे जता आवता लोकोनी शरमने बस्ने परस्पर साक्षात् संगने नहिं पामेला, तथापि निर्मळ स्फटिक मणिनी शिलाना स्तनमा पमेला परस्पर पोताना प्रतिबिंबोने आलिंगन करी करी पोताना शरीरनी खुजलीनो विनोद करे . ६५
विशेषार्थ-ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर आवता स्त्रीपुरुषोना जोमां सात्विकनाव नत्पन्न यवाथी आतुर थइ जतां पण त्यां नजीक जता आवतां
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥६ ॥
सोकोनी शरमने लश्ने तेश्रो परस्पर साक्षात् मळता न हता; तथापि त्यां जडेली स्फटिकमणिनी निर्मळ शिखाना स्तनमा तेमना प्रतिबिंबो पमतां हतां, ते प्रतिबिंबोने आलिंगन करी करी तेश्रो पोताना शरीरनी खुजली नो-लोगनो विनोद लेता हता. आ उपरथी ते चैत्यमां स्फटिकमणिओनी समृद्धि दर्शावी . ६५
भित्तिस्तंभप्रकोष्टान् स्फुटरुचिपटलीमैत्र्यरोचिष्णुदेहान् चक्षुःसान्मुख्यभाजः प्रतिनिधितरलान् सादरं वीक्षमाणः । कोणादिच्छादितानामपि मुदममुदं तुष्टरुष्टाननानां यस्मिन् गंधर्वलोकः कलयति बहिरप्यासितो मध्यगानाम् ॥६६॥ अवचूर्णिः—यस्मिन् प्रासादे स्फुटरुचिपटलीमैत्र्यरोचिष्णुदेहान् चक्रुःसान्मुख्यनाजः
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिनिधितरलान् नित्तिस्तंनप्रकोष्टान् सादरं वीक्षमाणः बहिरपि सितो गंधर्वलोकः कोणादिच्छादिवानामपि तुष्टरुटाननानां मध्यगानां पुरुषाणां मुदं प्रमुदं कलयति जानाति । प्रकोष्टान् कोणान् । प्रतिनिधिः प्रतिबिंबं । स्फुटरु चिपटल्या मैत्र्यं सूर्यत्वं तद्रोचिष्णुदेहान् ।। ६६ ।।
नावार्थ-स्फुट एवी कांतिना समूहनी तुल्यताथी जेमना देह प्रकाशमान थइ गयेला बे, जेयो नेत्रोनी सग्मुख रहेला बे ने जे प्रतिबिंबोने बने चंचल देखाय बे, एवा जीतोना स्तंनोना प्रकोष्टने आदरथी अव लोकन करतो गंधर्वलोक जे चैत्यनी बाहेर बेसारवामां आवेलो छे, तोपण चैत्यना मध्य जागे रहेला मनुष्यो के यो खूणा विगेरेथी ढंकाइ रहेला छे, तेथ मना मुख संतोष तथा रोषथी युक्त थयेला छे, ते तेमना आशयने जाणे बे. ६६
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर गंधर्वलोक तेनी बाहेर बे
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ७० ॥
बेला, तोपण ते चैत्यनी मध्य भागे बेठेला लोकोना आशयने जाणे छे. कारण के, जे चैत्यना खूणा विगेरेथी आच्छादित थयेला छे, तेमना मुख उपर रोष उत्पन्न थयेलो बे, पण ते गंधर्वलोकने चैत्यनी बाहेर बेलो जाणी मुख पर संतोष धारण करे बे. वळी ते गंधर्वलोक चैत्यनी दीवाना स्तंना प्रकोष्टने आदरथी जोवे छे-जे प्रकोष्टनी स्फुटकांतिथी मना देह प्रकाशमान थइ रह्या बे अने तेयो तेमना नेत्रोनी समीपे यावेला बे, ते मनाप्रतिबिंबो तेयोनी अंदर पके बे. कहेवानो आशय एवो बे के, कुमारविहार प्रासादनी अंदर हमेशां गंधर्वलोक यावी गंमत करे बे. ६६ ॥ गीतज्ञेर्वार्यमाणैरपि किमपि जिनस्याज्ञया श्राद्धलोकैघटानां ताडितानां प्रतिरवमुखरस्तारटंकारपूरः ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
तांस्तान् क्लेशोपनीतान् श्रुतिषु मधुमुचो गेयवाद्यप्रभेदान् व्यर्थीकुर्वन् सशोकं विरचयति चिरं यत्र गंधर्वलोकम् ॥६७ ॥
अवचर्णिः-यत्र गीतझैः गेयशास्त्रज्ञैः किमपि किंचिदपि वार्यमाणैरपि श्राद्धलोकः जिनस्य पाझ्या जिनजक्या तामितानां घंटानां प्रतिरवमुखरः श्रुतिषु श्रवणेषु मधुमुचः क्वेशोपनीतान् तांस्तान् गेयवाघानेदान् व्यर्थीकुर्वन् तारटकारपूरः गंधर्वलोकं चिरं सशोक रचयति ॥ ६७ ॥
नावार्थ-संगीतने जाणनारा लोकोए वारेला बतां पण जिनलगवं. तनी आज्ञाने-नक्ति बस्ने श्रावकोए वगामेत्री घंटाओना दीर्घ टकोरानो समूह केजे प्रतिध्वनिथी वागतो हतो. ते घणी मेहेनतथी करवामां आवेला अने श्रवणनी अंदर माधुर्यने आपनारा गीत तथा वाद्यना नेदने व्यर्थ करे , ते. थी ते चैत्यनी अंदर रहेला गंधर्व लोकोने ते घंटाना टकोरानो समूह चिरकाल शोकसहित करे . ६७
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥ ॥ ७१ ॥
विशेषार्थ आ श्लोकमां ग्रंथकार कुमारविहार चैत्यना दर्शनना माहादर्शावे बे, ते चैत्यनी अंदर एटलाबधा नाविक श्रावको दर्शने आवे , ते करेला घंटाना नादोनो समूह त्यां गायन करनारा गंधर्वोने शोकसहित क नाखे बे. कारण के, घंटा ओना शब्दोथी अने तेमनो प्रतिध्वनि संगीतना माधुर्यनो जंग करे बे. ते उपरथी सिद्ध थाय बे के, ते चैत्यनी अंदर घणां दर्शन करनारा अने गायन करनारा गंधर्वो याव्या करे बे. ६७
मुत्यो नीलभासि द्रुततरगतयो द्वारि सूर्योपलानां हृष्यन्त्यः पुत्रिकासु प्रचकितमनसः पीठपंचाननेभ्यः । क्लामंत्यः श्राद्धबाधैः पुलकितवपुषो वल्लभांगानुषंगै -
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
नृत्यंत्यस्तूर्यनादर्विदधति सुदृशो यत्र यूनां प्रमोदम् ॥ ६८ ॥
अवचूर्णिः-यत्र प्रासादे नीलनासि मुह्यंत्यः सूर्योपलानां धारि द्रुततरगतयः पुत्रिकासु हृष्यंतः पीठपंचाननेन्यः प्रचकितमनसः श्राघवाधैः क्लामत्यः वबनानुषंगैः पुलकितवपुषः तूर्यनादैः नृत्यंत्यः सुदृशः स्त्रियः यूनां प्रमोदं विदधति । घाःशब्दः स्त्रियां व्यंजनांतः । यूनां तरुणानां ॥ ६ ॥
जावार्थ-ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर आवनारी सुंदरीओ नीलमणिनी कांतिवाला घारमा मुंफाइने उतावली चालती, सूर्यकांतमणिोनी पुतलीओने जोइ खुशी थती, पीठ उपर आवेला केशरी सिंहनी प्रतिमा जोइ मनमा लय पामती, श्रावकोनी नीमनी बाधाथी संकोचाती, पोताना पतिओना अंग साथे मनवाथी शरीरे पुलकावली धारण करती अने वाजित्रोना नादोथी नृत्य करती युवान पुरुषोने हर्ष आपती हती. ६७
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥
॥ ७१ ॥
विशेषार्थ - श्लोकथी ग्रंथकार ते प्रासादना चैश्वर्यने अलंकारि काषायी वर्णवे छे. अने ते प्रासादमां दर्शन करवाने यावती स्त्रीयोनी विविध प्रकारनी चेष्टाओ वर्णवे छे. नीलमणि, सूर्यकांतमणि, सिंहनी प्रतिमायो, श्रावकोनी जीम, पतिना अंगनो स्पर्श ने वाजित्रोना नादथी ते स्त्रीओनी विविध चेष्टाओ थाय बे. अने ते जोइ त्यां आवनारा युवान पुरुषोने आनंद उपजे बे. ६८
स्वां स्वां निर्वर्ण्य भित्तौ प्रतिकृतिरचनां प्रेयसीविभ्रमेण भ्रांत्वा भ्रांत्वा प्ररोहन्नवनवपुलकं यत्र नृत्यंति सद्यः । आरावैस्तार मंद्रेर्विधुरितहरितां केकिपारापतानाम् वृंदान्यालोक्य कस्कः कलयति न मुदं तीव्रशोकोऽपि लोकः ॥ ६९ ॥
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवचूर्णिः-यत्र प्रासादे चित्तौ प्रेयसी विभ्रमेण स्वां प्रतिकृतिरचना निर्वर्ण्य प्रांत्वा ज्रांत्वा जमरीदत्वा प्ररोहन्नवपुलकं यथा स्यात्तया सद्यः नृत्यति । तारामंडः आरावैः विधुरितहरितां केकिपारापतानां वदानि आलोक्य सशोकोऽपि कस्को लोकः मुदं न कायति । प्रतिबिंबरचनां ज्ञात्वा उद्गच्छन्नवरोमांच मुरवरितदिशाम् ॥ ६॥
लावार्थ-ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर दीवालोनी अंदर पोतपोताना प्रतिबिंबोनी रचना जोश पोतानी प्रियाओना चमथी नमी नमी नवीन रोमांचने धारण करी नृत्य करता अने सांबा तथा मंद स्वरोथी दिशाओने गजावता एवा मयूर तथा पारेवाना टोलाओने जोइ कया लोको तीन शोकवाला होय तोपण हर्षने नयी धारण करता ? अर्थात् सर्वे लोको हर्षने धारण करे . ६ए
विशेषार्थ-श्रा श्लोकमां कुमारविहारचैत्यनी दीवालोनी शोना द.
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥७३॥
ावी . ते दीवालोनी अंदर एवा सुंदर रत्नो जमेला हता के, जेनी अंदर त्यां आवनारा मयूर तथा पारेवा पनीओना प्रतिबिंबो पाता हता. ज्यारे ते पक्षीओ पोताना प्रतिबिंबोने जोतां त्यारे तेओने पोतानी मादाओनो चम थइ आवतो, तेथी ते शरीरे रोमांचने धारण करी नाचता अने पोताना सांबा तथा मंद स्वरोथी दिशाओने गजावी मुकता हता. आ देखाव जोश शोकवाला लोको पण खुशी थइ जता हता. ६९।
यस्य श्रोतुं गुणोघं त्रिभुवनमहितं शंसितुं चारिमाणं नंतुं पूजां च कर्तुं यदधिनिवसतो देवदेवस्य भूयः। जंभारातिः सदैव स्पृहयति मनसा लोचनानामिवोद्यद्बाष्पास्नातः सहस्रं श्रुतिरसनशिरःपाणिपंकेरुहाणाम् ॥ ७० ॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवचूर्णिः -- यदधिनिवसतो यस्य देवस्य त्रिभुवनमहितं गुणैौघं श्रोतुं चारिमाणं शंसितुं नेतुं पूजां च कर्त्तुं सदैव जंजारातिः उद्यद्वाष्पस्नातः लोचनानां सहस्रमिव नूयः श्रुतिरसन शिरः पाणिरुहाणां स्पृहयति । यस्मिन्नधि यदधि प्रासादमध्ये इत्यर्थः । विनक्तिसमीपेति सूत्रेणाव्ययी - जावः । जंजारातिः इंद्रः । निर्गच्छन्ने त्रस्त पितं सहस्रमित्यत्र स्पृहेर्वाच्यंवेति द्वितीया । रसनाशब्दः स्त्रीलिंगः ॥ ७० ॥
भावार्थ - जे कुमारविहार चैत्यनी अंदर वास करीने रहेला देवाधिदेव प्रजुनो वनने पूज्य एवो गुणोनो समूह वारंवार सांभलवाने, तेमना सौंदर्य प्रशंसा करवाने, तेमन नमवाने, अने तेमनी पूजा करवाने उत्पन थयेला प्रेमाथी न्हाएलो इंद्र हंमेशां पोताना नेत्रोनी जेम हजार कान, जिह्वा, मस्तक ने हस्त कमलोनी सदा स्पृहा राखे बे ७०.
विशेषार्थ - ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर रहेबा श्री पार्श्वनाथ प्रजुना
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥ ॥ ७४॥
गुणोने सांजलवाने, तेमना सौंदर्यनी प्रशंसा करवाने, तेमने नमवाने अने तेमनी पूजा करवाने इंछ एटलोबधो उत्सुक डे के, तेने माटे जेम पोताने हजार नेत्रो छे, तेवी रीते हजार कान, हजार जिह्वा, हजार मस्तक अने ह. जार हाथनी इच्छा करे छे. अर्थात् ते मनमां एवं धारे ने के, “जेम मारे हजार आंखो , तेम जो हजार कान, हजार जिभो, हजार मस्तको अने हजार हाथो होय तो वधारे सारं. तेनाथी हुं आ पार्श्वनाथ प्रतुना गुणोनुं श्रवण, तेमना सौंदर्यनी प्रशंसा अने तेमनी पूजा करी मारा आत्माने कृतार्थ करु. कहेवानो आशय एवो ने के, ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर रहेली श्री पार्श्वनाथ प्रनुनी प्रतिमा एवी महिमावंत हती, के जेने माटे इंध आवी उत्तम स्पृहा राखतो हतो. ७०
श्राद्धाः पुण्यविधित्सया गुरुरुजो रोगापहारेच्छया
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
दक्षाः शिल्पदिदृक्षया कुवपुषः सौभाग्यभाग्याशया । क्षीणार्थी धनकाम्यया रसजुषः संगीतकश्रद्धया भृत्याः प्राभवलिप्सया तनुभृतो यत्रासते संततम् ॥ ७१ ॥
अवचूर्णि:[: यत्र प्रासादे संततं श्राद्धाः तनुभृतः पुण्यविधित्सया गुरुरुजो महोगा: रागापहारेच्छया दक्षाः शिष्प दिदृक्षया कुवपुषः सौभाग्यानाग्याशया दीपार्था धनकाम्यया रसजुषः संगीतकश्रद्धया नृत्याः प्राजवलिप्सया आसते तिष्टंति । विधित्सा चिकीर्षा । दिदया दृष्टुमिच्छया । आाशया वांछया । धनकाम्यया धनवांग्या । रसः शृंगारादिः तं जुषंतीति तज्जुषः किप् संगीतकं नाटकं तस्य श्रद्धा जावस्तया तनुभृतः सर्वत्र प्रयोज्यं । मनोजवः प्राभवं ॥ ७० ॥
नावार्थ - श्रावको पुण्य करवानी इच्छाथी, महारोगीयो रोगोने दूर करवानी इच्छाथी, चतुर पुरुषो कारीगरी जोवानी इच्छाथी, कुरूपी लोको सौंदर्यना जाग्नी आशाथी, निर्धन पुरुषो द्रव्यनी कामनाथी, रसिक पुरूषो सं
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ५॥
गीतनी श्रधाथी अने सेवको स्वामीपणुं मेलववानी इच्छाथी जे चैत्यनी अंदर हमेशां रह्या करे .. ७१
विशेषार्थ- श्लोकधी ग्रंथकार जणावे के, ते चैत्य एटळबधुं उत्तम ने के, घणा लोकोने तेमांयी विविध प्रकारना आनंद मले . श्रावकोने पुण्य मने , रोगीओ पोताना रोगने दूर कर। शके डे, चतुर पुरुषो तेनी कारीगरी जोइ खुशी थाय , कुरूपी लोको तेनी सेवाथी सौंदर्यने प्राप्त करी शके , निर्धन पुरुषो व्यनी कामना मेलवी शके . रसिक पुरुषोने त्यां संगीतनो आनंद मले ने अने सेवा वृत्ति करनारा पुरुषो ते चैत्यनी सेवाथी स्वामिपणानो बान प्राप्त करी शके छे. ७१
देवोऽयं कलधौतजः शशिशिलास्तंभा अमी पुत्रिका
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेयं चंचलकंकणा गृहमिदं नाटयस्य दृश्यावधिः । व्याख्यासंसदियं विराममकरोन्निर्माय यां सूत्रकृत् त्रैलोक्याद्भुतमक्षितां पुनरमुं राजेव चित्रालयं ॥७२॥ एतान् पश्यत चीनचीररचितांश्चंद्रोदयान् मौक्तिकप्रालंबः पुनरेष यस्य घटने ब्रह्मापि जिह्मायते । यझेंद्रश्च महाबलः पुनरयं सत्यावपातो नृणां यत्रैवं द्रविणाशया विटणुते स्त्रैणाय देवार्चकः ॥७३॥
अवणिः -कलधौतजः अयं देवः अमी शशिशिलास्तंनाः चंचलकंकणा सा इयं पुत्रिका दृश्यावधि नाट्यस्य इदं गृहं यां निर्माय सूत्रकृद् विराममकरोत् सा इयं व्याख्यासंसद् पुना राजेवामुं चित्रालयं एतान् चीनचीररचितान् चंञोदयान् पश्यत यस्य घटने ब्रह्मापि जिह्मायते स एष मौक्तिकमा
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥
संबः पुनर्यकेंजो महावनः पुनरयं नृणां सत्यावपातः एवं अनेन प्रकारेण यत्र प्रासादे देवार्चकः स्त्रीणाय स्त्रीसमूहाय प्रविणाशया विकृणुते व्याख्यानयति । विरामो निवृत्तिः । राजा नूपः स इव । चित्रालयं । चित्रगृहं । मौक्तिकपालंबः मुक्ताहारः श्रीपार्श्वस्येति गम्यं । श्रीहेमाचार्य गुरवः तत्र सन्याः कुमारपालादयः श्रीमंत इति व्याख्यासना । सत्यावपातः सत्यनिश्चयः ॥ ७१–७२ ॥ युग्मम् ।।
लावार्थ-'आ देव श्री पार्श्वनाथ प्रनु सोनाना ,''आ स्तंनो चंकांतमणिना , ' 'आ पुतती चंचन कंकणवासी , ' 'आ दर्शनीय वस्तुनी अवधि रूप नाटयगृह , ' ' आ व्याख्यानशाला , के जेने रचीने सूत्रधार (सुथार) विराम पामी गयो छे. 'वली त्रण लोकमां अदजुत एवं आ चित्रालय राजानी जेम जुवो, ' चीनाइ वस्त्रोना रचेता आ चंदरवा विसोको, आ मोतीओना चंदरवानी कुन के जेने रचवामां ब्रह्मा पण वक्र थइ जायचे, अने आ महाबन नामे यतेंज (पार्श्वयक) के, जेने देखी सोकोने ते सत्य ,
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवं जान थाय . " आ प्रमाणे जेमां ते पार्श्वनाथ प्रजुनी पूजा करनार पुरुष स्त्रीओने अव्यनी आशाथी वर्णन करी बतावे ." ७२-७३
विशेषार्थ ते कुमार विहार चैत्यनी अंदर प्रजुनी पूजा करनार पुरुष स्त्रीओनी आगळ अव्य लेवानी आशाथी वर्णन करे -एटले तेओ. ने अव्य मने एवी आशाथी स्त्रीओने ते चैत्यना नाग वर्णन करी बतावे . तेमां प्रभुनी मूर्ति, स्तंनो, पुतलीओ, नाटयगृह, व्याख्यानशाला चित्रगृह, चीनाइ वस्त्रना चंदरवा, मोतीअोना चंदरवानी झुल, अने महाबल यह (पार्श्वयक) ए वधा पदार्थो बतावे . ७५–७३
आत्मीयं वीक्ष्य कांताप्रतिनिधिसविधे बिंबमाक्रीडमानं तत्कालोबुद्धकंपां परपुरुषधिया गात्रयष्टिं वहंतः।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥ ॥ ७॥
आघ्नंतश्चंचुकांडैरथ नखकुलिऔरत्नभित्तीः सचित्रा बाधते रक्षकाणां गणमरुणदृशो यत्र नित्यं विहंगाः ॥ ७४॥
अवचर्णिः-यत्र प्रासादे कांतापतिनिधिसविधे आक्रीममानं आत्मीयं विंबं वीक्ष्य तकालोबुछकंपा गात्रयष्टिं वहतः अथ पुनः चंचुकांमः नखकुत्रिशैः सचित्रा रत्नजित्तीराघ्नंतः अरुणशो विहंगाः रक्षकाणां गणं बाधते । कांता विहंग्यः तासां प्रतिनिधिः प्रतिबिंब तस्य समीपे आत्मीयं प्रतिबिंब आक्रीममानं विलोक्य ' अयं परपुरुष' इति तत्कालोबुकः उत्पन्नः कंपो यत्र एवं विधां गात्रयष्टिं वहंतः अतएव रुषा अरुणदृशः अत एव जित्तीराघ्नंतः रदकाणां आरक्षकाणां समूह बाधते उच्चाटयति । नखानां तीक्ष्णत्वेन वज्रोपमानं । चंचुकांमः चंचुसमूहैः ॥ ७ ॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्यनी अंदर पक्षीओ पोतानी मादाओना प्रतिबिंबनी पासे पोतानुं क्रीमा करतुं प्रतिबिंब जो परपुरुषनी बुद्धिथी पोतानी गात्र रूप यष्टिने (लाकमीने ) तत्काल कंपायमान करता नेत्रोने
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
राता करता, अने पोतानी चंचूनोथी तथा नख रूप वज्रोथी तेनी चित्रस हित रत्नमय दीवालोपर तामन करता ते चैत्यना रक्तकोना गणने हेरान करे . ४
विशेषार्थ-श्रा काव्यथी कवि कुमारविहार चैत्यनी रत्नमय दीवालोनुं युक्तिथी वर्णन करे . ते चैत्यनी अंदर एवी सुंदर रत्नमय दीवालो आ. वेली ने के, जेमां पनीओना नरमादा आवी कीमा करे . नरपतीओ ते रलमय दीवालनी अंदर पोताना प्रतिबिंबने मादाओनी साथे क्रीमा करतां जो बीजा नरनी शंका लावे, तेथी तेस्रो पोताना शरीरने कंपावी अने क्रोधयी राता नेत्रोकरी चांचोथी अने नखोथी ते दीवालो उपर प्रहार करे बे, आथी तेना रखवालोने घणी हेरानगति जोगववी पझे . ७४
अस्ति स्वस्तिप्रशस्तिः शिवपुरसरणिः कार्मणं लोचनानां
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥ || 90 ||
तंत्र मंत्रोऽथ लक्ष्म्या हठहरणविधौ नाथ चैत्यं पृथिव्याम् । एवं यस्य स्वरूपं सदसि निशमयन् जंभभेदी सुरेभ्यः प्रत्यूहव्यूहमंतः कलयति मधुरां तुंबुरोर्गानकेलिम् ॥ ७५ ॥
अवचूर्णिः — हेनाथ स्वस्ति कव्याणानां प्रशस्तिः वर्णपटिका शिवपुरस्य सरणिः मार्गः लोचनानां कार्मणं वशीकरणं लक्ष्म्या हरहरण विधौ तंत्र अथ वार्ये मंत्रः पृथिव्यां चैत्यं प्रासादोऽस्ति एवं नेन प्रकारेण सदसि यस्य प्रासादस्य स्वरूपं सुरेभ्यः सुरसकाशात् निशमयन् श्रण्वन् जंजनेदी - 5 अंतर्मन सितंबुगंधर्वस्य गानकेलिं प्रत्यूहव्यूहं कलयति जानाति ॥ ७५ ॥
वार्थ - 'हे नाथ, कल्याणनी प्रशस्तिरूप, मोह नगरना मार्ग रूप, नेत्रो काम रूप ने लक्ष्मीने दवथी हरण करवामां तंत्र तथा मंत्र रूप एवं एक चैत्य पृथ्वी उपर बे' आ प्रमाणे इंड पोतानी सनामां देवतायो
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
नी पाथी जे कुमारविहार चैत्यनुं स्वरूप सांजली त्या चालती तुंबुरु गंधर्वमधुर गायनकलाने पण तेनी अंदर अंतरायना समूह रूप जाणे बे. १९
विशेषार्थ - इंद्र ज्यारे पोतानी सनामां बेशी तुंबुरु गांधर्वनी मधुर गायन कला सांजले बे, ते वखते देवताओ तेनी आगल कुमारविहार चैत्य - नी या प्रमाणे प्रशंसा करे बे - "हे स्वामी, पृथ्वी उपर कुमारविहार नामे एक एवं चैत्य बे के, ते कल्याणनी प्रशस्ति ( प्रशंसापत्र ) रूप बे, मोक्षमार्ग - मां जवानो मार्ग बे, नेत्रोनुं कामण बे, अने लक्ष्मीने बलात्कारे हरण करवानो मंत्र तंत्र . " या प्रशंसा सांजली इंद्र एटलोबधो ते सांभलवाने इंतेजार था, तेने पछी तुंबरु गांधर्वनुं मधुर गायन तेमां अंतराय रूप थइप बे. ७५
तांस्तान् दृश्यावतंसांस्तुहिनगिरिकुबेराद्विहेमाचलादीन्
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ७ ॥
भूयो भूयोऽवलोक्य प्रशममुपययौ कौतुकं चेत्तदास्व । नोचेत्कांचिद्विभूषां कुरु हृदयहरी तां व्रजामो धरित्रीमित्थं स्वां स्वां पुरंध्रीमभिदधति मुहुर्यत्र यात्रासु देवाः ॥ ७६॥
अवणिः -दृश्यावतंसान् दर्शनीयपदार्थेष्ववतंसान् मुकुटसमान् तान् तान् तुहिनगिरि कुबेराधिहमाचलादीन् नूयो नूयः पुनः पुनरवलोक्य चेद्यदि कौतुकं प्रशमं उपययौ तदा आस्व नोचेत् कांचित हृदयहरी विजूषां कुरु तां धरित्रीं व्रजामः इत्थं अनेन प्रकारेण यत्र प्रासादे यात्रासु देवाः स्वां खां पुरंध्री प्रति मुहुर्वारंवार अनिदधति कथयति । तुहिनगिरिः हिमाजिः । कुबेराभिः कैलाशः। हेमाचलो मेरुः ॥ ७६ ॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर यात्राने विषे देवताओ पोतपोतानी स्त्रीने वारंवार ा प्रमाणे कहे -दर्शनीय पदार्थोमां मुगट रूप एवा ते ते तुहिनगिरि, कुबेराजि अने हेमाचल वगेरेने वारंवार जोड्ने जो तारुं कौतुक शांत थयु होय तो
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिं देवबोकमांज बेशी रहो अथवा जो न थयु होय तो कोई हृदयने हरनार आनूषण करो आपणे ते चैत्यनी नूमिमां जश्ए. ७६
विशेषार्थ-आ श्लोकयी ग्रंथकारे देवनूमिमां पण ते कुमारविहार चैत्यनी यात्रानुं माहात्म्य दर्शावेवं . देवनूमिमां देवताओ पोतानी स्त्रीओने कहे जे के. ' जो हिमालय, कैलास अने मेरु पर्वत वगेरे पर्वतोने वारंवार जोइ तमारं कौतुक शांत थडे होयतो आ देवनूमिमां बेशी रहो, नहींतो कोइ मनोहर आ नूषण धारण करी ते मर्त्य लोकमां आवेला ते कुमारविहार चैत्यनी यात्रा करवाने आपणे जइए, अर्थात् ते एटबुबधुं जोवा लायक डे के, तमने कौतुक नत्पन्न थयाविना रहेशे नहीं. जे दर्शनीय पदार्थों तमे स्वर्गमा जोवो गे, तेनायी ते अधिक दर्शनीय . ७६
यस्यालोकादशेषाद्भुतसलिलनिधेरुपमाहात्म्यतो वा
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ०॥
नासौ प्राणी न योऽभूत्प्रमदपरमना भूर्भुवःस्वस्त्रयेऽस्मिन् । शेषे पार्श्वस्य पार्श्व सततमधिगते भूतधात्रीमधस्तादेकः शश्वद्दधानो मनसि यदि परं दुःस्थितः कूर्मराजः ॥७॥
अवचर्णिः-अशेषाद्जुतसलिलनिधेः यस्य प्रासादस्य आलोकात् वा अथवा उग्रमाहात्म्यतः अस्मिन् नूर्जुवःस्वस्त्रये प्राणी नास्ति यः प्रमदपरमना न अनूत् परं केवलं पार्थस्य पार्श्वनाथस्य पार्श्व समीपं सततं निरंतरं अधिगते प्राप्त शेषे सति नूतधात्री पृथ्वी अधस्तात् निरंतरं दधानः एकः कूर्मराजः मनसि यदि स्थितः अस्ति । अद्लुतानि आश्चर्याणि तेषां सलिननिधिः समुः। प्रमदेन हर्षेण परं प्रकृष्टं मनो यस्य पाणिनः ॥ ७७ ॥
नावार्थ-समग्र अद्लुतोना समुफरूप एवा जे चैत्यना जोवाथी अथवा तेना मोटा माहात्म्यथी आ त्रणे लोकमां एवो कोइ प्राणी न हतो के, जेनुं मन ते जो हर्षित थयुं न होय. परंतु ते चैत्यमा रहेला श्रीपार्श्वनाथ
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रजुनी पासे सतत शेषनाग रहेतो, तेथी आ पृथ्वी नीचे तेने सतत धारण करी रहेलो कूर्मराज ( काचबो) एकज जो पोताना मनमा फुःखी रहेतो होय तो वखते संजवे . ७७
विशेषार्थ-आ श्लोकथी कविए ते चैत्य अने तेनी अंदर बिराजमान थयेला श्री पार्श्वनाथ प्रतुनो अद्लुत महिमा दर्शाव्यो ने. ते चैत्य एवा अलुतनो महासागर हतुं, के तेने जोनार दरेक माणस हृदयमा अति आनंद पाम्या विना रहेतो नहीं. तेमां कवि एक कल्पना करे ने के, दरेक मा. णस ते चैत्यने जो आनंद पामतो पण वखते लौकिकमां कहेवा प्रमाणे आ पृथ्वी नीचे रहेनो कूर्म एक नाखुश थतो हशे कारण के, पृथ्वीने धारण करवामां साथे रहेनार शेषनागने श्रीपार्श्वनाथ प्रनुए पोतानी पासे राख्यो बे, ते वात पृथ्वीने एकला धारण करी रहेला काचबायी सहन थ शकती
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ।। ॥ ८१ ॥
नहीं होय. श्रीपार्श्वनाथ प्रभुना मस्तकपर शेषनाग ( धरणें ) बत्र करी रहे बे, ए वात सर्व विदित बे. ते तपर कविनी या कल्पना बे. 99 यत्र स्नात्रस्य मंत्रैस्त्रिजगदसुमतां क्षोभयंत्रकमित्रेबिभ्रत्खामकांडे विविधमणिमयं भद्रपीठं निरीक्ष्य ।
आयुः सीमाभिशंकी मनसि स भगवान् पाककांतालकश्रीकीनाशः शेखरस्थैर्विकसितकुसुमैर्लभ्यते स्वास्थ्यमिंद्रः ॥ ७८ ॥ अवचूर्णि:: - यत्र प्रासादे त्रिजगदसुमतां दोनयंत्रक मित्रैः स्त्रात्रस्य मंत्रः कांदे प्रस्तावे मेंखां विचत् धरत् विविधमणिमयं जद्रपीठं सिंहासनं निरीक्ष्य पाककांतालक श्री की नाशः स भगवान् ईमनसि आयुःसीमाभिशंकी शेखरस्थैः विकसितकुसुमैः स्वास्थ्यं लभ्यते प्राप्यते । पाको दैत्यः तस्य कांता कलत्रं तस्या अलकश्रीः वेणी तस्यां कीनाशः यमः । स्वास्थ्यं मनः समाधिं । विकसितकुसुमैः कर्तृनिः ॥ ७८ ॥
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
܂
नावार्थ--जे कुमारविहार चैत्यनी अंदर त्रण जगत्ना प्राणीप्रोने कोन करवामां यंत्रना जेवा स्नात्रना मंत्रोथी अवसर वगर अकस्मात् कंपने धारण करता पोताना विविधमणिना सिंहासनने जोइ पाक नामना दैत्यनी स्त्रीनी केशवेणीने नाश करवामा यमराज जेवो नगवान् इंज पोताना आयुप्यनो डेमो आववानी शंका करे , पण पोताना मुगट नपर रहेवा विकाशो पुष्पोथी ते स्वस्थताने पामे छे. ७८
विशेषार्थ-श्रा काव्यमां कविए कुमारविहार चैत्यमा थता स्नात्रोसवनो महिमा वर्णव्यो ने. ज्यारे ते चैत्यमा रहेता श्रीपार्श्वनाथ प्रजुने स्नात्र करवामां आवे ने अने ते वखते तेना मंत्रो जच्चारवामां आवे , ते वखते तेनी असरथी इंजनुं सिंहासन कंपायमान थाय -एटले इंजने शंका पमेने के, 'शुं मारा आयुष्यनो अंत आव्यो? आधी ते पोताना मुगट नपर
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
रविहान
तिकम्॥
२॥
रहेला पुष्पोर्नु अवलोकन करे , ते वखते पुष्पोने विकासित जोइ तेना मनमां धीरज आवे ने के, मारा आयुष्यनो अंत आव्यो नथी पण स्नात्र मंत्रोना प्रनावयी आसन कंप थयो ने. कारण के, जो इंजनो अंतसमय आववानो होय तो तेना मुगट परना पुष्पो करमाइ जाय . अहिं इंजने एवं विशेषण आप्यु ने के, पाक नामना दैत्यनी स्त्रीनी केशवेणीनो ते यमराज जे. एटले लौकिकमां एवी कथा ने के, इंजे पाक नामना दैत्यने मार्यो हतो, अने ते दैत्यना मरणयी तेनी स्त्री- केशवेणीनुं सौलाग्य नाश पाम्युं हतुं. वि. धवा स्त्रीने केशवेष धारण करवो अनुचित छे. ७० ।
भ्रातः कालं कियंतं त्वमपि वह महीभारमागत्य दृश्यां दृष्ट्वा चैत्यस्य लक्ष्मीमहमपि सफलं जन्म किंचित्करोमि ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवं शेषस्य याञ्चां विरचयितुमनाः प्राहिणोत्कूर्मराजः यत्र स्वांतः पुरस्त्रीर्जिन सविधभूतां पुत्रिकाणां मिषेण ॥ ७९ ॥
अवचूर्णिः — हेन्रातः अत्र पृथिव्यां पातालरूपायां आगत्य किंयंतं कालं त्वमपि महीनारं वह । दृइयां दर्शनयोग्यां चैत्यन्नक्ष्मीं दृष्ट्वा अहमपि जन्म किंचित् सफलं करोमि । एवं अनेन प्रकारेण यत्र प्रासादे शेषस्य याञ्चां विरचयितुमनाः कूर्मराजः जिनस विधभृतां पुत्रिकाणां बलेन स्वांतःपुस्त्रीः प्राहिणोत् । विरचयितुं मनो यस्यासौ विरचयितुमनाः । ' तुमचमनः कामे ' इति सूत्रेण तुमो मूलोपः ॥ ७७ ॥
जावार्थ - " हे जाई, आ पातालनी पृथ्वीमां यावी तुं केटलोक वखत या पृथ्वीना जारने वहन कर. हुं पण ते कुमारविहार चैत्यनी दर्शनीय लीने जोइ मारा जन्मने कांइक सफल करूं, " या प्रमाणेनी शेषनागने विनंति करवानी इच्छवाला कूर्मराजे ( काचबाए ) जे प्रासादमां जगवंतनी
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
रविहान
तकम् ।।
पासे रहेली पुतलीओने बाने पोताना अंतःपुरनी स्त्रीओने मोकली होय, तेम देखाय . 90
विशेषार्थ-आ पृथ्वी नीचे शेषनाग अने कूर्म रहे . एवी लौकिक वार्ता , ते उपर कवि आलंकारिक नाषामां कहे ने के, कुमारविहार चैत्यनी शोना जोवानी कूर्मने इच्छा थइ एटले तेणे ते चैत्यमां फटारूपे रहेता शेषनागने प्रार्थना करी के, 'हे नाइ, तुं पृथ्वीनो नार वहन कर एटले हुं कुमारविहार चैत्यनी शोला जो मारा जन्मने सफल कलं. आवी मागणी करवाने काचबाए पोताना अंतःपुरनी स्त्रीओने प्रेरणा करी. ते स्त्रीओ प्रजुनी पासे रहेली पुतलीओने बहाने आवेली . एम ग्रंथकार नत्प्रेक्षा करे . ते उपरथी ते चैत्यनी अद्लुत शोना , एवो ध्वनि थाय ने. अने त्यां रहेली पुततलीओ अंतःपुरनी स्त्रीओना जेवी देखाय ने, एम पण सूचव्युं . ७॥
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्योन्यस्य प्रणोदप्रलुलितवसनाकल्पमाल्यांगरागः साबाधं यस्य सर्वो विचरति विपुलायामवत्यां पृथिव्याम् । अन्यस्त्रीगात्रयष्टिप्रणयभयवशाद्दूरतस्त्यक्तमार्गाः श्राद्धैर्लोकैरबाधं कुवलयनयनाः केवलं संचरंति ॥ ८० ॥
I
अवचूर्णि:[ : - यस्य प्रासादस्य विपुल्लायामवत्यां पृथिव्यां अन्योन्यस्य प्रणोदप्रलुलितसनाकल्पमाव्यांगरागः सर्वो जनः साबाधं संचरति श्राद्धैः लोकैरन्यस्त्री गात्रयष्टिप्रणयजयवशात् दूरतस्त्यक्तमार्गाः केवलं परं कुवलयनयनाः प्रबाधं यथास्यात्तया संचरंति । परस्त्री गात्रस्य प्रायः श्लेषस्तस्य जयं तस्य वशोऽधीनता तस्मात् अन्योन्यस्य परस्परं प्रणोदः संघहः तेन प्रलुलितानि ष्टानि यानि वसनानि वत्राण का आरणानि माध्यं स्रक् अंगरागो विलेपनं यस्य सः । अथवा अपांग गो जनविशेषणं अन्योन्यस्येति क्रियाविशेषणं ॥ ८० ॥
भावार्थ - जे कुमार विहार चैत्यनी विशाल विस्तारवाली पृथ्वी उपर
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहान रशतकम् ॥ ॥ ४॥
परस्पर संघदृथी जेमना वस्त्रो, आजूषणो, मालाओ अने अंगराग घसाइ गया बे एवा सर्व पुरुषो जीमनी पीमाथी संचरे ने अने श्रावक पुरुषोए परस्त्रीना शरीरने स्पर्श थवाना नयथी जेमने मार्ग आपेस्रो बे, एवी स्त्रीओ फकत नीमनी पीमा वगर संचरे . ७०
विशेषार्थ-आ श्लोकथी ग्रंथकार ते चैत्यमां आवता स्त्री पुरुषोनी केवी नीम थाय ने, ए वात दर्शावे छे. ते चैत्यमां पुरुष वर्गने भारे मुशीबत परती हती. तेमनी परस्पर एटलीबधी नीम थती हती के, जेने लीधे तेमना वस्त्रो, आजूषणो, मात्राओ अने अंगराग नष्ट थइ जता हता. मात्र स्त्री वर्गनेज ते जीमनी पीडा नमती नहती, कारण के, परस्त्रीना शरीरना स्पर्शथी नयपामी पुरुषो तेमने रस्तो करी आपता हता. आ उपरथी ते स्थले स्वदारसंतोष व्रत वाला घणां पवित्र श्रावको आवता, ए वात पण सू
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
चवेली . ०
नेमल्यश्रीप्रभावप्रहसितवियतां चंद्रकांतोत्तरंगप्रांतानां संगमेन क्वचिदपि नितरामेकदा भग्नमौलिः । आकाशेऽपि प्रहारप्रतिभयतरलः कोपि यत्रोर्ध्वबाहुः सोष्णीषः कोपि कश्चिद्विचरति सुचिरं वामनीकृत्य नेत्रम्॥८१॥
अवचूर्णिः -यत्र प्रासादे नैर्मढ्यश्रीपनावप्रहसितवियतां चंकांतोत्तरंगप्रांतानां संगमेन श्लेषणेन कचिदपि नितरां एकदा लग्नमौलिः कोऽपि आकाशेऽपि प्रहारप्रतिजयतरलः ऊर्ध्वबाहुः कोपि सोष्णीषः कश्चित् नेत्रं वामनीकृत्य सुचिरं शनैः शनैः विचरति । सोष्णीषः साटोपः । नैर्मध्यस्य श्रीः तया महसितानि वियंति आकाशानि यस्तेषां हारि ऊ दारूणां उत्तरंगाणाम् ॥ ७१॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर निर्मवताना प्रत्नावयी जेमणे आकाशने पण हसीकाढ्या छे एवा चंडकातमणीना धार उपरना उजांओनी साथे कोइ ए
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥
॥ ८ ॥
कवार क्यांइक अथमावाथी जेना मस्तकमां वागेनुं छे, एवो कोई पुरुष - काशमां पण जयथी चपल थइ उंचा हाय करी चाले बे, कोइ माथे पाघमी के टोप राखे वे अने को खोने वांकी करी हलवे हलवे
चाले छे. ८१
विशेषार्थ - ते चैत्यमां प्रकाशथी पण वधारे निर्मल एवा चंद्रकांत मणिमय द्वारनी उपर ते मणिना बजां बे. तेनी नीचे चालतां कोइ मासनुं कोइवार मस्तक अथमायुं अने तेथी तेने इजा थइ एटले पछी, ते मास प्रसार थाय बे, त्यारे आकाश होय तोपण वागवाना जयथी उंचा हा
करी चाले. कोइ तेवाज जयश्री माथे टोपी राखे बे अने कोइ ' रखेने वागशे' एवी धास्तीथी आंखो वांकी करी हलवे हलवे चाले बे. आ श्लोकमा कवि स्वभावोक्ति अलंकार दर्शाव्यो बे. अने चैत्यना चंद्र
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
ainमणिना द्वारनी निर्मळता दर्शावी बे के जे निर्मळता आकाशथी पण धारे बे.
८ १
अन्योन्याश्लेषिवक्षःस्थलनिविडहतित्रुट्यदुत्कृष्टमुक्ताप्रालंबभ्रष्टरोचिः स्फुटमणिपटली शर्करादंतुरायां । यद्भूमौ पादवेधव्यसनपरिचयादुल्लसंतो व्रजंतः कुर्वतीवांग भाजः प्रतिपदपतनं तांडवाडंबराणि ॥ ८२ ॥
अवचूर्णिः - अन्योन्याश्लेषिवक्षःस्थल निविमह तित्रुय्य फुत्कृष्टमुक्ताप्रालंब चष्टरो चिःस्फुटमपिटीशर्करादंतुरायां यद्द्भूमौ पादवेधव्यसनपरिचयात् प्रतिपदपतनं यथा स्यात्तथा उसंतः व्रजतः - : प्राणिनः वाराणि कुर्वेति इव । शर्कराः कर्करास्तैः दंतुरायां विषपायां । तां नाव्यं । मुक्ताप्रालंबो मुक्ताहारः । प्रतिपदपतनं पादपतनं ॥ ८२ ॥
भावार्थ- - परस्पर साता वक्षस्थलना घाटा प्रहारथी तुटीजता
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ६॥
मोटा मोतीोना हारोमांयी पमीगयेला अने कांतिथी स्पष्ट देखाता मणि
ओना समूहना कांकराथी कांकरीयाळी येती जे चैत्यनी नूमिने विषे पगने वींधावाना फुःखना परिचयथी नबलता चालता एवा लोको पगले पगले पनी जाणे नृत्यना आमंबर करता होय तेवा देखाय . ७२
विशेषार्थ ते कुमार विहार चैत्यना दर्शनादिकमां लोकोनी एटलीबधी जीम थाय ने के, ते लोकोनी गतीओ अथमावाथी धारण करेखा मोतीओना दारोमांथी जमेला मणिो पड़ी जाय अने तेथी त्यांनी नूमि कांकरीयाती थतां ते नपर चालता बोकोना पग वींधाय छे अने हमेशानी ते पीमाना परिचयथी ते लोको नाता चाले, एटले जाणे तेत्रो नृत्य करी नाटक करता होय तेवा देखाय . आ उपरथी ग्रंथकारे चैत्यना उत्सवोनुं दर्शन तथा माहात्म्य दर्शाव्यु .२
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
मध्यं वा मंडपो वा बहिरजिरमथो नाट्यलीलागृहं वा यत्र स्थानं न किंचित्प्रसभमसुमतां यन्न रुद्धं सहस्रः । तीव्रांशुग्राववेदीतलमनलकणवातसंपातदुस्थैदूरस्थैर्वीक्ष्यमाणं पुनरहनि जनैः शून्यपार्श्व सदैव ॥ ८३॥
अवचूर्णिः-यत्र प्रासादे मध्यं वा अथवा मंझपः अथो बहिरजिरं वा अथवा नाव्यलीलागृहं तत् किंचित स्थानं नास्ति यत् प्रसनं हगत् असुमतां सहस्त्रैः निरुद्धं व्याप्तं न । पुनः अहनि दिने सदैव अनलकणवातसंपात:स्थितैः सु:खितैः दूरस्थैः जनः वीक्ष्यमाणं तीब्रांशगाववेदीतलं शून्यपार्श्व अस्तीत्यध्याहार्य । तीत्रांशुः सूर्यः तस्य ग्रावाणः ॥ ७३ ॥
नावार्थ-जे कुमार विहार चैत्यनो मध्य नाग, मंझप, बाहेरनुं आंगए॒ अने नाट्य लीलानुं घर-के को बीजं एवं स्थान न हतुं के जे हजारो मनुष्योए हथी रोकेदुं न होय ? अर्थात् तेना बधा स्थानो माणसोथी
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्। ॥ ७॥
जरपूर हता. मात्र सूर्यकांतमणिनी वेदीनुं तबीयु के जे दिवसना नागमां तेमांथी नीकलता अग्निना तणखाना समूह पवाथी छःखी थइ दूर रहेला सोकोए जोयेधुं होवाथी सदाकाल शून्य रहेढुं हतुं. ७३
विशेषार्थ-कुमारविहार चैत्यनी अंदर हजारो माणसो पूजन अने दर्शन करवाने आवता हता के, जेथी करीने तेनो मध्य नाग, मंझप, बाहेरना आंगणां, अने नाट्यगृह वगेरे बधां स्थानो तेश्रोनाथी नरपूर थइ जतां ह. तां. कोइ पण तेनुं स्थान माणस वगरनुं न हतुं, पण एक सूर्यकांतमणिर्नु रचेवू वेदीनुं तबीयुं फकत शून्य देखातुं हतुं. कारणके, दिवसना नागमां सूर्यना तेजश्री ते तलीयामांथी अग्निना तणखा नीकलता, एटले दाऊवाना नयथा सोको तेनाथी दूर रहेता हता. आ उपरथी ते चैत्यमां कोइ स्थाने सूर्यकांतमणि पण जमेला हता, एम दर्शाव्युं . ७३
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंधारग्रामगीतध्वनिभिविरतं यत्र तारं स्पृशनिः श्रद्धाव्यस्त व्यवस्थैरहमहमिकया मंगलोल्ललघोषैः । ध्वस्तेऽन्योन्यं विशेषे श्रुतिसदसि सुधावर्षिणि व्यर्थयंत्यः किंनर्यो देवताभ्यः सततगुरुरुषो देवताः किंनरीभ्यः ॥ ८४ ॥
अवचूर्णि:: यत्र प्रासादे अविरतं निरंतरं तारं स्पृशद्भिः गंधारग्रामगीतध्वनिभिः ग्रहमहमिका श्रावस्तव्यवस्यैः मंगलोब्लूल घोषैः सुधावर्षिणि श्रुतिसदसि अन्योन्यं विशेषे ध्वस्ते सति सततगुरुरुषः किंनर्यः देवतान्यः किंनरीज्यः सततगुरुरुषः देवताः व्यर्थयत्यः संति । तारं स्वरविशेषं । गंधारग्रामौ रागौ । श्रद्धया वासनया व्यस्ता क्षिप्ता व्यवस्था क्रमो यैः । पूर्वपूर्वमिति अहम हमिका | डब्लूलो मंगलध्वनिः ॥ ८४ ॥
नावार्थ - जे कुमारविहार चैत्यनी अंदर किंनरीओना तार ध्वनिने स्पर्श करनारा गंधार ग्राम रागना अवाजोथी ' हुं 'हेली हुं पहेली ' एम
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ।।
|| 00 ||
चमसाचडसीथी' वासनाव मे क्रमने तोमी थता एवा देवीयोना मंगल घोषयी अमृत वर्षावनारा श्रुति - श्रवणगृहमां परस्पर एकबीजाना उंचा गायननी तफावत नमी जवाथी किंनरनी स्त्रीयो देवीओ उपर भारे रोष करी तेमना गायनने व्यर्थ करती हती ने देवी किंनरनी स्त्रीओ उपर जारे रोष करी मना गायनने व्यर्थ करती हती. ८४
विशेषार्थ - कुमार विहार चैत्यनी अंदर आवेला संगीतगृहमां किंननत्र गीतध्वनि ने देवीओ मंगलध्वनि करवा आवे छे. ते वखते तेमनी बच्चे ' हुं पहेली गाउं, हुं पहेली गाउँ' एवी चमसाचसी श्रवाथी तेपरस्पर एटलावा ध्वनियों करे वे के, तेमनी बच्चे रागनी उच्चतानो त. फावत जातो नथी, तेथी किंनरनी स्त्रीओ देवीओ तरफ मोटो रोष करी तेमना मंगलगीतने व्यर्थ करे बे ने देवीओ किंन्नरनी स्त्रीओनीपर रोष
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
करी तेमना संगीतने व्यर्थ करे . श्रा नपरयी ते चैत्यमा किंनरनी स्त्री
ओ अने देवीओना नित्ये जंचा संगीत तथा मंगलध्वनिओ थाय , एम दर्शाव्यु . ४
अश्मानस्तीव्ररश्मेर्घनतुहिनभरं संहरंतः सहस्ये कुर्वतो यत्र धूपज्वलनमुपरतक्लेशमुच्चैः प्रशस्याः । द्वेषाश्च च्छिद्रयंतः शिखिकणनिकरैश्वीनचीरावचूलान् शैलूषाणां कथंचिजनजनितमुदं विक्षिपंतश्च रंगं ॥ ८५॥
अवचूर्णिः-यत्र प्रासादे सहस्ये पौषमासि घनतुहिननर संहरंतः उपरतक्वेशं यथा स्यातथा धूपज्वलनं उच्चैः कुर्वतः । प्रशस्याः तीव्ररश्मेः अश्मानः चपुनः शिखिकणनिकरैः शैलूषाणां चीनचीराणां अवचूलान् विध्यतः चपुनः कथंचिजनजनितमुदं रंग विदिपंतः देष्याः संतीत्यध्याहारः । शैलूषाः नटा इति जरतनाट्याचार्यः । चीनचीरं विदेशीयवस्त्रं तस्य चूलाश्चरणाः तेषां अवचूलाः
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा-8| प्रदेशाः तान् । देव्या शिष्टाः एतावता यत्र प्रासाद मित्राणि उर्जनाश्च संति ॥ ५॥ रशतकम।
नावार्थ--जे कुमारविहार चैत्यमां पोषमासनी अंदर सूर्यकांतमणि॥नए॥
ओ बरफना समूहने तोमी क्वेशने समावाने धूपने उंचे प्रकारे प्रज्वलित करे , तेयी ते प्रशंसा करवा योग्य थाय ने अने तेज पाग पोतानामांथी नीकलता अग्निना तणखाना समूहयी नट लोकोना चीनाइ वस्त्रोना डाने दमामी जिवाला करवायी लोकोने हास्य उत्पन्न करावी रंगनूमिमां विकेप करे , तेथी ते वेष करवा लायक थाय . ०५
विशेषार्थ ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर आवेता सूर्यकांतमणिो पोष मासमां केवा बने ? ते विषे ग्रंयकार चमत्कारी रीते वर्णन आपे . ते सूर्यकांतमणिो त्यां मित्र अने शत्रु-बनेनुं काम करे . ज्यारे ते बरफने तोडी, शीतना क्लेशने शमाववाने धूप प्रज्वलित करे , त्यारे ते मित्र
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
ना जेवू काम करे . अने ज्यारे तेमनामांथी अग्निना तणखा नीकलवायी त्यां नाटक करनारा पात्रोना उंची जातनां चीनाइ वस्त्रने दमामी काणां पामे ने अने तेथी लोकोने हास्य आवे एवी रीते रंग नूमिमां विक्केप करे , त्यारे तेत्रो शत्रुना जेवू काम करे . आ उपरथी ते चैत्यनी अंदर सूर्यकातमणिनी अने नाटकनी शोना दर्शावी ने. ८५
गृह्णीध्वं पारिजातप्रभवसुमनसो मानसीयैः पयोभिः कुंभानापूरयध्वं कुरुत करिपतेः कल्पनां किंचिदग्र्याम् । पौलोमि क्षिप्रमेहि प्रचलत सबला लोकपालाः पुरस्तादित्थं यस्मिन् यियासोरभसविकसिताः स्वर्गनाथस्य वाचाः॥८६॥
अवचूर्णिः-पारिजातप्रज्जवसुमनसः स्त्रीलिंगः गृह्णीध्वं, मानसीयैः पयोनिः कुंजान् कल
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥
॥ ए० ॥
शान् क्रापूरयध्वं करिपतेरैरावतस्य कांचित् पूर्वी अभ्यां प्रधानां कल्पनां रचनां कुरुत, हे पौलोमि त्वं दि एहि, सबला लोकपाला यूयं पुरस्तात् अग्रे प्रचलत इत्थं अनेन प्रकारेण यस्मिन् प्रासादे - यासोः गंतुमिच्छोः स्वर्गनाथस्य इंद्रस्य रजसविसकिता वाचा: संति । पौलोमी इंद्राणी । रजसा पूर्वापर्य विचारराहित्येन विकसिता उत्फुल्लाः । वाचा: वचनानि । सुमनस् शब्दः स्त्रीलिंगो बहुवचनांतः ॥ ८६ ॥
जावार्थ - जे कुमार विहार चैत्यमां जवानी इच्छा करता एवा इंडनां वचनो आ प्रमाणे पूर्वापर विचार कर्या वगर प्रगट थाय बे - " हे देवताप्रो, पारिजातना पुष्पो ग्रहण करो, मानस सरोवरना जलथी कलशो जरो, रावत हाथीनी उपर कोइ अपूर्व उत्तम रचना करो. हे इंद्राणि, जलदी चाल. हे लोकपालो, तमे सैन्य सहित आगन चालो. ८६
विशेषार्थ
- श्लोकथी ग्रंथकारे 'ए चैत्यमां इंद्र पण पूजा कर
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
वानी इच्छाथी तैयारी करे बे एम दर्शाव्यं बे. अने लोकपाल ने इंद्राणी साथै आवेलो इंद्र ते चैत्यनायक श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी पारिजातना पुष्पोथी मानस सरोवरना जल कलशोथी पूजा करवानी इच्छा राखेने अने तेने माटे तैयारी करे बे. ८६
हस्तोत्संगोपविष्टस्फुटमणिमुकुटज्योतिरुद्योतिताशामात्मीयां रत्नभित्तावधिरजनि तनुं बिंबितां वीक्ष्य यस्मिन् । एतैत क्षिप्रमंतर्भवनमभिनवः कोऽप्यदृष्टप्रविष्टः पूत्कुर्वन्नित्थमुचैः क्रमयति निकरं पूजको यामिकानाम् ॥८७॥
अवचूर्णि:- अधिरजनि रजनीमध्ये हस्तोत्संगोपविष्टस्फुटमणिमुकुटज्योतिरुद्योतिताशां रत्ननित्तौ प्रतिबिंबितां आत्मीयां तनुं वीक्ष्य अंतर्भवनं जवनमध्ये अभिनवः कोपि दृष्टः किमं शी
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ॥
॥ ए१ ॥
एत एत आगच्छत आगच्छत इत्थं अनेन प्रकारेण उच्चैरतिशयेन पूत्कुर्वन् पोकारयन् पूजकः पूजाकारकः यामिकानां प्राहरिकाणां निकर क्लमयति खेदयति । हस्तयोः उत्संगो मध्यं तत्र उपविष्टाः स्था
स्फुटाः कटः ये मणयः तेषां ज्योतींषि कांतयः तानिः उद्योतिता आशा यया तां ॥ ८७ ॥
. नावार्थ - जे चैत्यनी अंदर रात्रे पोताना हाथना मध्य जागे राखेला प्रजुना स्पष्ट मणिमय मुगट दाथना मध्यमां पूजारीयोए दीधेला तेनी कांतिमोथी दिशाओने उद्योत करनारी पोतानी मूर्त्तिनुं रत्नमय दीवालनी अंदर प्रतिबिंब पद्धुं जोइ ते चैत्यनो पूजारी (गोठी) " चालो चालो, आ जवनी अंदर कोई नवो माणस (चोर) अदृष्ट पेशी गयो बे " एम उंचे स्वरे पोकार करी करी पेहेरागीरोना समूहने कंटालो आपे बे. 9 विशेषार्थ - ग्रंथकारे आ श्लोकथी चांतिमान् अलंकार दर्शावी ते चैत्यनी मणिमय दीवालनी शोभा वर्णवी बे. अने ते चैत्यना पूजारी ( गो
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
वी)नी पण ब्रांति सूचवेली . चैत्यपूजकना हायमा रहेता प्रजुना मणिमय मुगटनी कांतिथी दिशाओने प्रकाशित करती ते पूजकनी मूर्ति दिवासमां पमवाथी तेने — कोइ बीजो माणस अंदर पेशा गयो छे, ' एवं जाणी ते पेहेरेगीरोने पोकार करी बोलावे . पेहेरेगीरो आवी तपास करे चे, त्यां ते वात चांतिवाली नीको चे. तेवी रीते घणीवार चमयी पूजारी पेहेरागीरोने बोलाव्या करे ने अने तेथी तेमने कंटालो उपजावे . ७
श्रृंगस्थेभ्यो हरिभ्यः प्रतिभयवशतः कातरः स्वःकरेणुनश्यन दैत्यांगनानां मुखकमलवनं नेष्यते हास्यलक्ष्मीम् । तस्मादारोढुमुच्चैःश्रवसि हयपतौ सांप्रतं सांप्रतं वः पौलोमी शकमेवं निगदति चलितं यस्य यात्रोत्सवाय॥८८॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ३॥
अवचूर्णिः-शृंगस्थेच्यः हरिज्यः प्रतिजयवशतः कातरो नश्यन् स्वःकरेणुः ऐरावतगजः दैत्यांगनानां मुखकमलवनं हास्यलक्ष्मी नेष्यते प्रापयिष्यते तस्मात्कारणात् वः युष्माकं हयपती उच्चैः श्रवसि आरोढुं चरितुं सांप्रतमिदानी सांप्रतं युक्तं एवमनेन प्रकारेण पौलोमी इंद्राणी यस्य मायादस्य यात्रोत्सवाय चलितं शक्रं प्रति निगदति वदति । प्रतीत्यनुक्तमपि ग्राह्यं । णीधातुः पाठे धात्वादानीनविष्यतीति ष्यते गुणे च नेष्यते हिकर्मकः । नच्चैःश्रवा इंजहयः ॥ ७ ॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्य प्रत्ये चालेला इंजने इंशाणी आ प्र. माणे कहे बे-हे स्वामी, ते चैत्यना शिखर नपर प्रतिमा रूप रहेता सिंहोना नयथी तमारो ऐरावत गजेंड दैत्योनी स्त्रीओना मुख रूप कमलोना वनने हास्यनी शोनाने पमामशे, तेथी हात तमारे उच्चैः श्रवा नामना अश्वपति उपर चमवू योग्य .” G७
विशेषार्थ-कुमारविहार चैत्यनी यात्रा करवाने तैयार थइ चालता
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
इं इंद्राणी कदे के तमे ऐरावत हाथी उपर चमीने त्यां जशो नहीं, कारण के, ते चैत्यना शिखर पर सिंहनी प्रतिमाओ बे, तेथी तमारो हा थी जय पामी नमकीने नाशी जशे, ते जोइ दैत्योनी स्त्रीने तमारुं दस आवशे- अर्थात् ते तमारी मश्करी करशे, माटे तमारे उच्चैः श्रवा घो मा उपर बेशीने त्यां जवुं योग्य बे. या उपरथी ते चैत्यना शिखर उपर चेला सिंहो प्रतिमारूपे बे, ते बतां ते साचा सिंहो होय तेवा देखाय डे ; एम चैत्यनी उंची शिल्पकला कविए दर्शावी बे
राकाभर्त्तर्मयूखैरुपचयमधिकं लंभिते यस्य चंचचंद्राश्मस्तंभभित्तिप्रभवनवरुचां कुहिमे व्योगभाजि । विश्राम्यंतो विहंगा हिमगिरिशिखरोत्संगवेदीभ्रमेण
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा
रशतकम्
॥ ए३॥
क्षोणीपीठे निनादैस्तुमुलितवियतो लोलपक्षाः पतंति ॥ ८९ ॥
अवचूर्णि:: - यस्य प्रासादस्य राकार्त्तः पूर्णिमेंदोः मयूखैः किरणैः उपचयं वृद्धिं अधिकं यथास्यात्तथा जिते प्रापिते व्योमनाजि चंचचंद्राश्म स्तंभ नित्तिप्रनवनवरुचां कुट्टिमे हिमगिरिशिखरोत्संगवेदी भ्रमेण विश्राम्यतः बोलपक्षाः विहंगाः निनादे रावैः तुमलितवियतः कोलाह सितव्यो - मानः कोणी पीठें पतंति । चंचचंद्राश्मानः चंद्रकांताः तेषां स्तंभा जित्तयः ताज्यः प्रनवा नवीना रुचः तासां । कुट्टिमे व भूमिके ॥ ८ ॥
नावार्थ- जे कुमारविहार चैत्यनी चलकता चंद्रकातमणिना स्तंभो तथा दीवाल मांथी उत्पन्न यती नवीन कांतिमोथी प्रकाशना जागमां येबो जमीननो देखाव पूर्णिमाना चंद्रना किरणोथी अधिक वृद्धिने पामे बे, ते उपर पीओ हिमालय पर्वतना शिखरना मध्य जागनी वेदिकाना जमश्री विश्रांत थवा जाय बे, तेवामां ते शब्दोथी आकाशने गजावतां अने
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांखोने तरफमावतां पृथ्वी तत उपर पफे
विशेषार्थ-आ श्लोकमां कवि चांतिमान् अलंकारथी चैत्यनी चंजकांतमणिमय शोजानुं चमत्कारी वर्णन करे . ते चैत्यनी अंदर चारे तरफ चंकांतमणिो जमेला ; ज्यारे पूर्णचंनो प्रकाश तेनी उपर पके डे, ते वखते ते मणिोनी कांतिमां वधारो थाय , तेने लश्ने आकाशमां जमीननो देखाव थइ रहे . आथी उंचे नमता पक्षीओने हिमालय पर्वतना शिखरनी वेदीनी ब्रांति थाय ने, तेथी तेश्रो ते उपर बेसवा जाय , ते. वामां तेश्रो शब्दोथी आकाशने गजवता अने पोतानी पांखो फफमावता नीं चे पृथ्वी नपर पके छे. ८९
प्रतिरजनि निशीथे यत्र नेत्रैकलेह्यान्
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ।।
॥ ए४ ॥
त्रिदृशपुरपुरंधीरासकान् दृष्टुकामाः । सततमधिवसंत्यो यामिकानां कुटीरे
नगरहरिणनेत्राः प्रेयसः खेदयंति ॥ ९० ॥
अवचूर्णि:: - यत्र प्रासादे निशीथे मध्यरात्रे प्रतिरजनि नेत्रैकलेह्यान् त्रिशपतिपुरंध्री रासकान् दृष्टुकामाः यामिकानां कुटीरे तृणौकसि सततं अधिवसंत्यः नगर हरिण नेत्राः प्रेयसो वान् खेदयंति उच्चाटयंति ॥ ० ॥
भावार्थ — जे कुमारविहार चैत्यनी अंदर प्रत्येक अर्धरात्रि नेत्रोथी नीरखवा नायक एवा इंडोनी स्त्रीओना रासमाने जोवानी इच्छाथी पेहेरेगीरोनी पर्णकुटीमां सतत नीवास करी रहेती नगरनी स्त्रीओ पोताना प्रिय पतिने चाट करावे छे. ए०
विशेषार्थ - ते कुमार विहार चैत्यनी अंदर दरके अर्ध रात्रे इंडोनी स्त्री
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
- देवी
रासमा लेवाने आवे छे. ते रासडा जोवाने माटे नगरनी स्त्रीयो त्यां रहेला पेहेरागीरोनी ऊपमी ओमां वास करेबे, तेमने शोधवाने माटे मना पति घणां नचाट करतां चारे तरफ जम्या करे बे. आथी ग्रंथकारे 'ते प्रजाविक चैत्यमां दररोज अर्ध रात्रे देवीओ रासमा लेवाने आवे बे, ' एमजाव्यं . ०
लब्द्वा साम्राज्यलक्ष्मी किमपि कलयतोऽहंकृतिं शीतरश्मेरुन्मत्तैः कांतिकांडैः स्फटिकजयितयाछन्नतां लंभितस्य । वक्त्राण्याशांगनानां कपिशरुचिवशात्स्रग्भिरुत्तंसयद्भिः कुंभेर्दश्च नः प्रथयति जनता यस्य राकासु सत्ताम् ॥ ९१ ॥ अवचूर्णिः — साम्राज्यलक्ष्मीं लब्धा किमपि अहंकृति अहंकारं कलयतः शीतरश्मेः उ
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्॥ ॥ ५॥
न्मत्तैःकांतिकांमःरुचिसमूहैः स्फटिकजयितया उन्नतां संजितस्य यस्य प्रासादस्य आशांगनानां वक्त्राणि कपिशरुचिवशात् सन्निः मालानिः उत्तंसयद्भिः नूषयङ्गिः हेम्नः सुवर्णस्य कुनैःचपुनः दंमैः राकासु सत्तां सदनावं जनता कथयति । उन्नता आच्छादितत्त्वं । जनता जनसमूहः । जन्मत्तैः अस्खनितप्रचारैः । बंजितस्य प्रापितस्येति विशेषणमपि प्रासादस्य ज्ञेयं ॥ ९१ ॥
नावार्थ-पूर्णिमानी रात्रिोमां साम्राज्यनी बदमीने प्राप्त करी स्फटिक मणिनो जय करवाथी अहंकारने पामेला चंजना जन्मत्त कांतिना स. मूहे आच्छादित करेला जे चैत्यनी सत्ताने लोको दिशारूपी स्त्रीओना मुखोने पीळी कांतिने बीधे मालाओयी विनूषित करता एवा सुवर्णना काशोथ) अने दंमोथी कहे . ए१
विशेषार्थ-पूर्णिमानी रात्रे चंड पूर्ण साम्राज्यने पामे ; अने ते | पोतानी कांतिथी चैत्यना स्फटिक मणिने जीती लेने, एटले तेनामां अहंकार
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्पन्न थाय बे. तेथी ते पोताना उन्मत्त एटले अस्खलितपणे प्रचार करनारा किरणो चैत्यनी दिशाओना मुखोने एटले अग्र जागोने व्याप्त करी चै - त्यने आच्छादित करी लेने. ते वखते चैत्य उपर रहेला सुवर्णना कलशो अने दंमोने जो लोको चैत्यनी सत्ताने जाणे बे, एटले 'चैत्य हैयात बे' एवं तेमने जान थाय छे. आ उपरथी चैत्वना सुवर्ण कलशो ने ध्वजदंडोनी शोना अति उत्तम हती, एम ग्रंथकारे दर्शावी आप्युं से. [१
यस्मिन् नित्यं निशीथे जिनपतिचरणांभोजपूज विधानश्रद्धावर्धिष्णुहर्षात् क्रमलयविमुखान् कुर्वतस्तांडवानि । गीर्वाणान् दृष्टुकामाः सविधसहचरीसंभृतोत्तालमालान् पौराः स्वर्णोपचारैः प्रहरकमनिशं यामिकानर्थयते ॥ ९२ ॥
❖❖❖❖❖❖❖0000000<
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ६॥
अवचूर्णिः-यस्मिन् प्रासादे निशीथे मध्यरात्रे जिनपतिचरणांनोजपूजाविधानश्रद्धावर्किष्णुहर्षात्तांरवानि नाटकानि कुर्वतः क्रममयविमुखान् सविधसहचरीसंभृतोत्तानमालान् गीर्वाणान् दृष्टुकामाः पौराः नागरिकाः स्वर्णोपचारैः यामिकान् प्रहरकं अनिशं अर्थयंते याचंते । स्वर्णस्य उपचाराः सत्काराः तैः । क्रमः परिपाटी बयो ध्यानं तयोः विमुखाः । सविधे समिपे याः सहचर्यः सख्यः ताजिः संतृता नृता उत्तालाः फालास्तेषां माला ओघः ॥ ए॥
नावार्थ-कुमारविहार चैत्यमां अर्धरात्रे पार्श्वनाथ प्रजुना चरण कमळनी पूजा करवानी श्रद्धाथी वृद्धि पामता हर्षने सश्ने परिपाटी तथा ध्यानथी विमुख थ नाटक करता, अने पोतानी समीपे रहेली सहचरीओए जेमना ताळना समूहने धारण करेला बे, एवा देवताओने जोवानी इच्छा रा. खता नगरजनो पेहेरेगीरोने सुवर्णनो सत्कार करी जोवाना पोहोरनी मागणी करे . ए
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषार्थ-कुमारविहार चैत्यनी अंदर अर्धरात्रे देवताओ नाटक करवा आवे छे, ते वखते तेमने पूजा करवानी एटली बधी श्रद्धा वधे ने के, जेना हर्षयी तेश्रो पूजानी परिपाटी तथा ध्यानथी विमुख थइ नाटक करवा मंमी जायचे, ते वखते तेमनी सहचरी देवीओ तेमने ताळ आपे ने. आ देखाव जोवाने नगरना पुरुषोने एटली बधी इच्छा नत्पन्न थाय डे के जेथी तेश्रो पेहेरागीरोने सुवर्ण अव्यनी लांच आपी तेमनो पेहेरो लेवानी मागणी करे ने. कारणके जो तेओ पेहेरागीरोनुं काम करे तो तेमने दिव्य नाटक जोवानो बान मो. ५२ यत्रालेख्यसभासु चित्ररचनासौभाग्यसंपादनासंरंभः फलमेति शिल्पकृतिनामेकत्र भित्तो क्वचित् ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ ७॥
सांमुख्यं भजतां पुनर्मणिशिलाव्यासंगरंगविषां बिंबोल्लासवशेन चित्रघटना भित्त्यंतराणामपि ॥ ९३ ॥
अवचर्णिः-यत्र प्रासादे आलेख्यसनासु कचिदेकत्र जित्तौ शिष्पकृतिनां चित्ररचनासौनाग्यसंपादनासरंजः फलं एति । पुनः सांभुख्यं नजतां मणिशिलाव्यासंगरंगत्विषां जिन्त्यंतराणामपि बिंबोबासवशेन चित्रघटना जवेत् । शिल्पं चित्रं तस्मिन्कृतिनश्चतुराः चित्रकरा इत्यर्थः । सामुख्यं संमुखत्वं । रत्नशिलानां व्यासंगः संगः तेन रंगत्याचवंत्यः त्विषः कांतयो येषां । नित्यंतराणां अन्यासां जित्तीनां । अन्या जित्तयो भित्यंतराणि ॥ ॥३॥
नावार्थ--जे चैत्यनी अंदर आवेली चित्रशालाओने विषे कोइ एक जितनी अंदर चित्रकारोना सौजाग्य संपादननो संरंच फलने प्राप्त करे , तेनी सन्मुख आवेदी बीजी नीतो के जेमनी कांतिओ रत्नमयशिलाओनासंगने लक्ष्ने चलायमान भयेनी , ते पेत्री जीतना प्रतिबिंबना नहासने
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
ली तेमनी अंदर पण तेवाज चित्रनी घटना थइ जाय बे. ९३
विशेषार्थ - ग्रंथकार हवे ते चैत्यनी चित्रशालानुं वर्णन करे बे. ते चैत्यनी अंदर आवेली चित्रशालाओ मां को जींत उपर चित्रकारोए पोतानी कारीगरीथी कोइ एवां सुंदर चित्रो रचेलां बे के जे तेवां चित्रो बीजी नींतो उपर थइ शक्यां नथी, परंतु रत्नमय शिलाओना संगने लइने तेमनी कांतिमां पेली सुंदर चित्रवाली जीतनुं प्रतिबिंब पमे बे, तेथी बीजी जीतोनी अंदर पण तेवीज चित्रघटना देखाय बे. ९३ भांकारपूरप्रणय मुकुरितो घोरघोरैः प्रसर्पन् घंटाटंकारघोषैः प्रतिनदितघनैलमितो मांसलत्वम् । उमापूर्य तूर्यध्वनिरनवरतं स्मारयन् तार्क्ष्यपक्ष
-
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥ए ॥
प्रांताघातांत्रिसंध्यं रचयति चकितं यत्र पाताललोकं ॥ ९४ ॥
अवचूर्णिः -यत्र प्रासादे रीनांकारपूरमणयमुकुरितः घोरघोरैः घंटाटंकारयोपैः पसर्पन् प्रवर्षमानः प्रतिनदितघनैः मांसलत्वं पुष्टत्वं संजितः प्रापितः अनिश तायपक्षमांताघातान् स्मारयन् उवीं पृथ्वी आपूर्य पूरयित्वा तूर्यध्वनिः वादित्रध्वनिः पाताललोकं त्रिसंध्यं चकितं रचयति । यों वाचविशेषाः तेषां जांकाराः शब्दाः तेषां पूरः समूहः तस्य प्रणयः संश्लेषः तेन मुकुरितः मुकुर आदर्शः तद्वदाचरितः प्रतिबिंबित इतयर्थः । तादयो गरुमः । पन्नगास्तादोद्वित्यति इतिनावः ॥ ए॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर जेरी नामना वाजाना नांकार शब्दोना समूहना स्नेहधी दर्पणनी जेम प्रतिबिंबित थयेलो अने अतिघोर घंटाोना टंकाराना घोषधी वृद्धि पामतो अने प्रतिध्वनिप्रोना रणकाराथी पुष्ट थयेसो वाजिबोनो ध्वनि पृथ्वीने पूरी पाताल लोकने–नागलोकने गरुड पकीनी पां. खोना माना आघातर्नु स्मरण करावी जयनीत करे . ए४
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषार्थ- - श्लोकी कवि कुमारविहार चैत्यना वाजित्रोनी समृवर्णवे ते चैत्यमां नेरीना जांकारो तथा घंटाओना टकोराओ एटला बधा थाय छे, के तेना प्रतिध्वनि साथे ते ध्वनिनो अवाज पृथ्वीने पुरी पाताल सुधी पोहोछे. ते वखते पातालवासी सर्पोने गहमनी पांखोना बेमाना घानुं स्मरण थाय बे, एटले ते जयजीत थइ जाय बे. सर्पो गरुरुथी भयपामे बे, ए वात प्रसिद्ध वे. ४ पर्वोन्मीलन्महिम्ना गुरुसरलवपुःप्रांतपीतांबरेण स्वर्णव्यासर्पिधाम्ना कृतसततपदं केतुदंडेन मूर्ध्नि | अद्वैतं दैवतेषु प्रसभमभिदधत् पार्श्वनाथस्य दूरादूर्ध्वभूतांगुलीकः कर इव यदिह क्षोणिवध्वा विभाति ॥ ९५ ॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहा शतकम् ।। । एয়॥
चूर्णिः - इह पत्तने पर्वोन्मीलन्महिम्ना गुरुसरलवपुःप्रांतपीतांबरेण स्वर्णव्यासर्पिधाम्ना स्वर्णस्य व्यासर्पिप्रसरणशीलं धाम तेजो यस्य तेन केतुमेन मूर्ध्नि कृतसततपदं यचैत्यं को शिवपार्श्वनाथस्य दैवतेषु द्वैतं प्रसनं यथास्यात्तया अभिदधत् कथयन् दूरादूर्ध्वानृतांगुली कः कर इव विति । पर्व पौषे श्रीपार्श्वनाथजन्मादिकञ्याणकेषु पंचप वा उन्मीलन् वर्द्धमानो महिमा यस्य एकत्वं । गुरु महत् सरलं दीर्घं यत् वपुः तस्य प्रांताः अवयवाः तैः पीतं लक्षणया व्याप्तं वरं येन || ||
जावार्थ- पर्वने विषे जेनो महिमा वृद्धि पामेलो बे, मोटा अने सर ल एवा शरीरना अवयवोथी जे आकाशने व्याप्त करनारो बे ने जेनुं तेज सुवर्णथी प्रसरी रहेतुं बे एवा ध्वजदंगे जेना शिखर उपर हंमेशां स्थान करें एवं जे कुमार विहार चैत्य " देवताओोमां पार्श्वनाथ अद्वितीय बे " एम थी कहेतो अने जेनी एक चांगली उंची करेली छे, अवो
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृथ्वीरूपी स्त्रीनो हाथ होय, तेवू देखाय . ९५
विशेषार्थ-ते कुमारविहार चैत्य उपर मोटो ध्वजदंड हतो, ते उपर कवि नत्प्रेक्षा करे छे. पौषमासमां ज्यारे पार्श्व प्रजुना जन्म वगेरे कल्याण क आवे छे, त्यारे ते ध्वज दंझनो महोत्सव थाय जे. अने ते ध्वजदंगना अवयवो मोटा अने सरल जे. तेथी ते आकाशमां व्यापी रहेदो . वळी तेनी नपर सुवर्ण मढेधुं होवाथी ते घणो तेजस्वी देखाय , आवो ध्वज. दंग जेना शिखर नपर ले. एवा ते चैत्यने उद्देशीने कवि नुत्प्रेक्षा करे ने के, ए ध्वजदंमवाळु चैत्य पृथ्वीरूपी स्त्रीनो हाथ डे, ते एक जंची आंगळी करी बोकोने जणावे डे के, सर्व देवताओमां पार्श्वनाथ प्रतु अन्तिीय , तेमना जेवो बीजो कोइ देव नथी.' लोकोमां पण एकनी संख्या बतावाने माटे हाथनी एक आंगळी नन्नी करवानो प्रचार मे. एy
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारविहा
तकम् ॥ १००॥
पश्यंस्त्यक्तनिमेषमद्भुततमांस्तांस्तान्महीमध्यगान् भूभागानितरेतरांगघटनादुत्क्षिप्य देहः परैः । मर्त्यत्वेऽपि जिनप्रभाववशतः प्राप्तामरत्वः क्षितिं पद्भ्यां कश्चिदसंस्पृशंस्तत इतो यस्यांगणे भ्राम्यति ॥ ९६॥
अवचूर्णिः–यस्य प्रासादस्य अंगणे त्यक्तनिमेष ययास्यात्तया अद्लुततमान तान् तान् नूलागान् बहिः पश्यन् इतरेतरांगघटनात् परैः नक्षिप्य उत्पादितदेहः पद्न्यां वितिं असंस्पृशन् मर्त्यत्वे. ऽपि मनुष्यत्वेऽपि जिनमनावतः प्राप्तामरत्वः कश्चित्पुरुषः इतस्ततो भ्राम्यति । देवोऽपि चतुरंगुलेन नुवं न स्पृशति विमानादिना उत्पाटितदेहः स्यात् एतावता तिनः पतितोऽपि यत्र न माति एवं विधो जनानां संमर्दो यत्रास्तीति ॥ ए६॥
नावार्थ-कोई पुरुष ते कुमारविहार चैत्यना आंगणामां बाहेरथी तेना अति अद्भुत नूमिना नागने अनिमेष दृष्टिए जोतो हतो, परस्पर
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीममा रहेला एक बीजाना अंगनी घटनाथी बीजाओए तेना देहने उचकी लीधो एटले पृथ्वीने स्पर्श कर्या वगर आम तेम नमतो हतो, ते जाणे मनुष्यपणामां पण जिन जगवंतना प्रत्नावथी देवपणाने प्राप्त कर्यु होय, तेवो देखातो हतो. ए६
विशेषार्थ-आ श्लोकयी ग्रंयकारे ते चैत्यनी अंदर थती लोकोनो नारे जीम दर्शावी . ते चैत्यना प्रांगणामां को पुरुष आवो तेनी रमणीय नूमिना नागने बाहेर रहो एको नजरे जोतो हतो, ते लोकनी जीडमां - वतां तेने बीजाओए ऊचकी बीधो हतो, तेथी पृथ्वीने अमक्या वगर आम तेम नमवा लाग्यो. ते नपर कवि ऊत्प्रेक्षा करे ने के, श्री जिन नगवान्ना प्रजावधी ते पुरुषे जाणे मनुष्यपणामां पण देवपणुं प्राप्त कयु होय, तेवो ते देखातो. हतो देवता अनिमेष दृष्टिए (मटकुंमार्या शिवाय) जुए , तेम ते
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारविहाशतकम्।।
पुरुष चैत्य नूमिना रमणीय नागने तेवी दृष्टिथी जोतो हतो देवता पृथ्वीथी जुचे चाले , एटने देवताना चरण पृथ्वोने अडकता नथी, तेम ते पुरुष नीमने लइने बीजाओए ऊचकवायी पृथ्वीने स्पर्श कर्या वगर नमतो हतो. आ जपरयी कविए एम दर्शाव्यु डे के, ते चैत्यमां एटली बधी नीम हती के, जो तानो दाणो पण नाख्यो होय तो ते जमीन पर पमतो न हतो. ए६
भाग्यप्रागल्भ्यलभ्यां किमपरममरैरप्यसाध्यामवाच्या अश्रद्धयामशेषत्रिजगदभिनुतां यस्य सौंदर्यलक्ष्मी। निध्यायान्ननिमेषं पुलकघनवपुलॊचनानां सहस्रम्। स्पष्टं तुष्टाव सृष्टिं क्षितिमधिवसतां मानवानां च शक्रः ॥९७॥ अवचूर्णिः-यस्य प्रासादस्य नाग्यप्रागल्भ्यसन्यां अवाच्या अश्रख्यां अशेषत्रिजगद
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
निनुतां अपरं किं अमरैरपि असाध्यां निष्पादयितुमशक्यां सौंदर्य सौजाग्यं तस्य लक्ष्मी निनिमेष निायन् पुलकघनवपुः शक्रः स्पष्टं लोचनानां सहस्रं च पुनः वितिं पृथ्वीं अधि मध्यं अधिवसतां मानवानां सृष्टिं सर्जनं तुष्टाव स्तौतिस्म । अवाच्या वक्तुमशक्यां अश्रफेयां श्रद्धातुमयोग्यां ॥ ७ ॥
लावार्थ-मोटा नाग्यथी लभ्य थाय तेवी, वचनयी न कही शकाय तेवी, श्रद्धा करवाने अयोग्य, सर्व त्रण जगतना लोकाए स्तवेत्री, वधारे गुं कहेवू, देवताओथी पण न करी शकाय तेवी जे कुमारविहार चैत्यना सौंदर्यनी लक्ष्मीने अनिमेष दृष्टिए नीरखतो एवो ईछ शरीरने रोमांचित करी पोताना हजार नेत्रोने अने पृथ्वीपर रहेनारा मनुष्योनी सृष्टिने स्पष्ट रीते स्तवतो हतो. ए
विशेषार्य-कुमारविहार चैत्यनो घणो लाग्ययी सभ्य, अनिर्वचनीय, अश्रद्धेय अने त्रण जगतना लोकोए स्तवेती सौंदर्य लक्ष्मी जोइइंजना शरी
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा शतकम् ॥
। १०२ ।।
मां रोमांच थइ जाय वे अने ते वखते ते पोताना हजार नेत्रोनी अने मानवसृष्टिनी नारे प्रशंसा करे बे. कारण के, तेना हजार नेत्रो आा चैत्यना सौंदर्यने जोवामा वधारे उपयोगी थाय. अने आ पृथ्वी उपर वसता लोकोने पण आ चैत्यना दर्शननो लाज मले बे. या उपरथी ग्रंथकारे दर्शाव्युं बे के, ते चैत्यनी शोभा एटलीबधी उत्तम हती के, जेने जोइ देवताओनो स्वामी इंद्र पण चकित तो हतो. ए
यस्य ध्वजान् गणयितुं कनकावलीढान् ऊर्ध्वं शिरोधिमधिकं पथि कुर्वतीनाम् ।
कुंभाः कुरंगकदृशां शिरसः पतंतो
यूनां चिरं विपणिनां जनयंति हास्यम् ॥ ९८ ॥
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
०००००००००००००००००००००००००००००००००००
अवचर्णिः-यस्य प्रासादस्य कनकावन्नी ढान् ध्वजान् गणयितुं संख्यातुं पथि मार्गे अधिक ऊधं शिरोधि कुर्वतीनां कुरंगकदृशां शिरसः पतंतः कुंनाः विपणिनां हटवणिजां यूनां तरुणानां चिरं चिरकालं हास्यं जनयंति । कनकावलीढान् कनकदमनग्नान् । शिरोधि ग्रीवां शिरसः मस्तकात् । कुंनाः पानीयघटाः ॥ ए॥
जावार्थ-जे कुमारविहार चैत्यना सुवर्णयी जमेवा ध्वजदंगो गण. वाने पोतानी मोक वधारे उंची करती एवो नगग्नी स्त्रीोना मस्तक उपरथी रस्तामां पमी जता एवा घमाओ बजारना तरुण वेपारीओने हास्य उत्पन्न करता हता. ९०
विशेषार्थ-रस्तामां जन जरी चाली जती नगरनी स्त्रीयो ते चैत्यना सुवर्णमय ध्वज दंगोने उंची मोक करी गणती हती, ते वखते वधारे मोक उंची अवाथी तेमना मस्तक नपरथी पाणीना घमाओ पमीजता हता, ते जो
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा
रशतकम् ॥
३ बजारना जुवान पुरुषो हस्ता हता. आ नपरथी कविए ते चैत्यमां असंख्य सुवर्णना ध्वजदंको हता, एम दर्शाव्यु जे. एG
यस्योत्तंगविटंकलीढवियतः पातं श्रियं पेशलां दूरोत्तानितकंधरं निदधतां बद्धानुबंधा दृशः । पौराणामनवेक्षणे मिलदुरःसंघटबद्धक्रुधामन्योन्यं नृपवर्त्मनि प्रतिकलं कोलाहलं जायते ॥ ९९ ॥
अवचाणिः-नत्तुंगविटंकसीढवियतः यस्य प्रासादस्य पेशलां मनाज्ञां श्रियं पातुं दृष्टुं दूरोत्तानितकंधरं दूरं उत्तानिता ऊर्ध्व कृता कंधरा ग्रीवा यत्र क्रियाविशेषण मेतत् दूरोत्तानितधरं यथास्यातथा वहानबंधा दृशः निदधतां धरता मिनपुर संघट्टबछवां पौराणां नागरिकाणां अनवकणेऽनवलोकने नृपवर्त्मनि अन्योन्यं परस्परं प्रतिकनं निरंतरं कोत्रा हवं कलकतो जायते वर्त्तते । वचः अनुबंध श्रादरो यानिस्ताः बद्धानुबंधा इतिहग विशेषणं । कपोतपानी विटंकः तेन लोडं व्याप्तं वियत् श्रा
००००००००००००००००००ccc0.666666८००००८
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
काशं येन तत् ।। एU ॥
नावार्थ--नचा विटकथी आकाशने व्याप्त करी रहेता जे. चैत्यनी सुंदर शोला जोवाने जंची मोक करी आदरवाळी दृष्टिओने धारण करता नगरना लोको एक बीजाने न जोइ शकवाथी अने परस्पर गतीमोना संघट्ट ने सश्ने क्रोध नत्पन्न थवाने बौधे राजमार्गनी अंदर तेमनो कोलाहन निरंतर थया करे . एए
विशेषार्थ-जाहेर रस्तानी अंदर चालता लोको उंची डोके करी कुमारविहार चैत्यनी शोनाने जोतां परस्पर जोइ शकता नथी, तेम वली परस्पर गतीओना दबावाथी तेमने क्रोध उत्पन्न थाय . तेथी लोकोनो
* विटंक शब्दनो अर्थ छजां थाय छे, जनी उपर पारेवांओ बसे छे ते. तेनुं बीजु नाम ' कपोतपाली' कहवाय छे.
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहा
मोटो कोलाहल थइ पडे छे. आयी चैत्यनी सुंदर शोलानो उत्कर्ष ग्रंयशतकम् ॥ १०४॥ कारे दर्शाव्यो . एए
दिक्चक्रचुंबिभिरुदंशुशशांककांतभित्तित्विषां पिहितपीठतले प्रतानैः । व्योमस्थमेतदिति बुद्धिरुदेति यत्र
देशांतरादुपयतः सततं जनस्य ॥१०॥ अवचर्णिः-नशुशशांककांतनित्तित्विषां दिकचक्रचुबिभिः प्रतानैः समूहैः पिहितपीउतने यत्र प्रासादे देशांतरात् नपयतः आगच्छतो जनस्य व्योमस्थमेतत् आकाशस्थ इति बुधिः सततमुदे|| ति उत्पद्यते । पिहितं आच्छादितं पीउतलं थमाबंधो यस्य तस्मिन् प्रासादविशेषणं ॥ १० ॥
नावार्थ-प्रसरता किरणोवाला चंपकांतमणिोनी दीवाझोनी कां
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिओना दिशाओना चक्रने व्याप्त करनारा समूह वझे जेनुं पीवतत्र ढंकाइ गयेस ने एवा ते प्रासादने विषे हमेशां देशांतरथी आवता बोकोने “ आ चैत्य आकाशमा रह्यं ने, ' एवी बुद्धि उत्पन्न थाय ने. १००
विशेषार्थ-आ श्लोकथी कविए ते चैत्यनी विश्वमा विख्याति दर्शावी . देशांतरना घणा सोको ते चैत्यनो यात्रा करवाने आवे ने अने ते अजाण्या लोको ज्यारे तेने प्रयम अवलोके , ते वखते ते चैत्यमा रहेला चंप्रकांतमणिोनी कांतिनो पुंज तेनी आसपासनी दिशाओमां एटसोबधो व्यापी जाय , के जेथी ते प्रासादनुं पीउतन्त्र ढंका जाय ने तेथी तेओ ते चैत्यने आकाशमा रहेg जाणे छे. १००
शेषाहेः शितयः फणामाणिभुवः शोणा जिनांगोद्भवाः ।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
हमारविहाशतकम् ॥ । १०५॥
श्वेताः कांचनकल्पितांगदरुहः पीताः प्रभाराशयः । नित्यान् यत्र विचित्रवर्णसुभगान् नेत्रैकगम्यस्थितीन् बाह्याभ्यंतरमंडपेषु तरलांश्चंद्रोदयान् कुर्वते ॥ १०१॥
अवचर्णिः-यत्र प्रासादे बाद्यान्यंतरमंझपेषु शेषाहः शितयः फणिमणिनुवः शोणा जिनांगाजवाः श्वेताः कांचनकहिपतांगदरुहः पीताः प्रजाराशयः प्रजासमूहाः विचित्रवर्णसुनगान् नेत्रकगम्यस्थितीन नेत्राणां एका गम्या दृष्टुं योग्या स्थितियेषां चंजोदयानां तान नेत्रकगम्यस्थितीन नित्यान् अविनश्वरान तरलान् चपलान् चंबोदयान कुर्वते । नीलं कृष्णमेकमिति न्यायात् पंचवर्णाः प्रजाराशय इति गम्यम् ॥ १०१ ॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर बाहेरना अने अंदरना मंडपोने विषे नित्ये रहेला चंदरवाने शेषनागनी नीली, तेनी फणाना मणिनी राती, प्रनुना अंगनी धोती अने प्रनुए धरेता सुवर्णना बाजुबंधनी पीनो एवी कांतिआना
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
समूह नित्य, विचित्रवर्णोथी सुंदर, नेत्रोने दर्शनीय स्थितिवाना अने चपन करे . १०१
विशेषार्थ-आ काव्ययी ग्रंथकार चैत्यना बाहेर अने अंदरना मंझपोने विष बांधेना चंदरवान चमत्कारी रीते वर्णन करे . प्रनुनी प्रतिमाने विषे पंचवी कांति रदेसी , एटट्ने प्रजुना मस्तकपर रहेना शेषनागनी नीलकांति , शेषनागनी फणाना मणिनी राती कांति , प्रजुना अंगनी श्वेत कांति ने अने प्रतुए धारण करेता सुवर्णना बाजुबंधनी पीली कांति ने -ए पंचवी कांतिने साने त्यां बांधेवा चंदरवाओ पण पंचवर्णी थवाथी नेत्रोने जोवा सांयक घने बे, ते साथे ते चपन देखाय . आयी ग्रंथकारे प्रनुनी प्रतिमाना सौंदर्यतुं दिग्दर्शन कराव्यु . नील अने श्याम एक गपाय , तेथी तेने जिन्न गणवाथी पंचवर्ण थाय रे. १०१
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा
रशतकम्।। ॥१०६॥
चंचनक्षत्रराशिग्रहनिकरपरिक्षिप्तपर्यकभूमिदंडेन स्वर्णधाम्ना परिकरितवपुर्मुईलब्धांबरेण । मुक्तादामावचूलस्थपुटितविकटप्रांतकोटेनिशीथे श्वेतच्छत्रस्य लक्ष्मी कलयति निखिलां यत्र राकाशशांकः ॥१०२॥
अवचूर्णिः-यत्र प्रासाद निशीथे चंचन्नवत्रराशिग्रहनिकरपरिदिप्तपर्यंकनूमिः स्वर्णधाम्ना ऊध्र्वलब्धांवरेण दंमेन परिकरितवपुः राकाशशांकः पृर्णिमाचंजः मुक्तादामानि मुक्ताहाराः तेषां अवचूनाः गुच्छाः तैः स्यपुटिता विषमोन्नताः विवटा विस्तीर्णाः प्रांता अवयवास्तेषां कोटयो यस्य तस्य श्वेतच्चत्रस्य निखितां लक्ष्मी कायति । परिक्षिप्ता व्याप्ता । पर्यकनूमिः परिसरचूमिः। मूमेनि मस्तके लब्धं प्राप्त अंबरं आकाशं वस्त्रं वा येन तेन । परिकरितं विषं वपुर्यस्य सः ॥ १०२॥
नावार्थः-जे चैत्यनी अंदर चनकता नक्षत्रो, राशिओ अने ग्रहोना समूहथी जेणे आसपासनी नूमिने व्याप्त करेसी ने अने सुवर्णना तेजवाला
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
अने मस्तक उपर अंबर ( आकाश पक्षे वस्त्र) ने प्राप्त करनारा दंथी जेनुं शरीर व्याप्त थयेधुं एवो पूर्णिमानो चंछ मोतीओना हारना गुच्छोथी वि. षम अने जंचा विस्तारवाला प्रांत नागनी अणिओवासा श्वेत उत्रनी पूर्ण शोनाने पामे . ॥ १०॥
विशेषार्य-आ श्लोकयी कवि चंने उत्रनी साथे सरखावे छे. ते जंचा चैत्य नपर आवेशो चं उत्रनी पूर्ण सक्षमीने-शोलाने प्राप्त करे . उत्रनी नीचे दंग होय छे, तेम चंपनी नीचे ते चैत्यनो चंचो ध्वजदंग . उंचे रहेला चंझे नक्षत्र-तारा मंझनने व्याप्त करेला , अने तेना मस्तक नपर आकाश आवेई . आयी मोतीओना हारना गुच्छवासा उत्रदंमना जेवो देखाव लागे छे. अहिं अंबर शब्दना बे अर्थ थाय . ध्वज दंडना मस्तक नपर अंबर-आकाश आवेवं चे अने अंबर-वस्त्र पण आवेवं .
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहा रशतकम् ॥ ॥१० ॥
मोतीओने अने तारा मम्झने सरखावी कविए पूर्णोपमा अलंकार वर्णव्यो ने. १०५ दिव्यश्रव्यावधीनां द्विषति मधुमुचां वेणुवीणारवाणां तूर्योद्गीर्णे श्रवांसि स्थगयति निनदे निदर्यास्फारघोरे । अन्योन्यं गात्रगाढव्यतिकरनिहताशेषपाणिक्रियाणां यात्रायां नेत्रनृत्यैर्भवति तनुभृतां यत्र कृत्योपदेशः ॥ १०३ ॥
अवचूर्णिः-दिव्यश्रव्यावधीनां मधुमुचां वेणुवीणारवाणां डिपति तोजीणे निर्दयास्फारखोरे निनदे श्रवांसि स्यगयति यत्र प्रासादे अन्योन्यं गात्रगाढव्यतिकर निहताशेपपाणिक्रियाणां तनु~तां नेत्रनृत्यैः कृत्योपदेशो जवति । डिपोवातश ति वेणुवीणावाणामति पष्टी । तत्र गाढव्यतिकरण निहता हता अशेषपाणिक्रिया येषां तनुभृतां । घोरे रौजे ॥ १०३ ॥
नावार्थ-जे चैत्यनी अंदर दिव्य गायननो अवधि रूप अने माधुर्यने
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्षारावे,
वीणाना शब्दोनो द्वेष करनार तेमज निर्दय तामनश्री जयंकर एवो वाजिनो शब्द जेमनी कडियोने ढांकी देतो तो अने परस्पर शरीरना गाढ दबाणने बइने जेमनी हाथनी बधी क्रिया हलाइ गइ हती; एवा यात्राने विषे वेला प्राणीओना बधा कार्योंनो उपदेश नेत्रोना नचावा थाय बे. १०३
विशेषार्य - ते कुमारविहार चैत्यनी अंदर वाजित्रोनो ध्वनि एटलो मोटो तो हतो के, जे ध्वनि दिव्य गायनना अवधि रूप ने माधुर्य वर्षनारा वे तथा वीणाना ध्वनिओनो द्वेष करतो हतो अर्थात् तेमने दबावी देतो हतो. ते ध्वनिने लइने त्यां यात्राने माटे आवेला लोकोना कान बेहेरा
जता तेी ते एक बीजाना शब्दने सांजळी शकता नहता. वली तेमना शरीर परस्पर जमां आवताने तेथी तेमना हाथ बंधाइ जता हता.
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारविहा शतकम् ॥ | १०८ ॥
ज्यारे वाजित्रोना ध्वनियी कान ने जीमने लइने हाथ अटकी पमता, त्यारे ते खोना इसाराथी परस्पर कार्यनी समजूती आपता हता. या उपरथी चैत्यना वाजित्रोनी ने यात्राना उत्सवनी उन्नति दर्शावी . १०३ एणांकां निभां प्रभां जवनिकाभ्रांत्योत्तरंगोद्भवामुत्क्षिप्य प्रविशति यत्र सरलस्वांता जनाः केचन । केचिद्रूप्यकपाटसंपुटपरीरोधावबोधाकुलाः द्वारोद्घाटनिमित्तमंतिकगतं याचंति देवार्चकम् ॥ १०४ ॥
अवचूर्णिः[: यत्र मासादे एणांकांशुनिनां उत्तरंगोद्भवां प्रजां जवनिकाभ्रांत्या उक्तिप्य सरत्यस्त्रांताः केचन जनाः प्रविशति । रूप्यकपाटसंपुटपरीरोधावबोधाकुलाः केचिद् द्वारोद्घाटनमित्तं त्र्यंतिकगतं देवार्चकं याचंति । सरनं ऋजु स्वांतं मनो येषां । कपाटानां संपुटं योजनं दानं वा तेन परी
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
रोधः स्खलनं तस्य प्रवबोधो ज्ञानं तेन प्राकुलाः ॥ १०४ ॥
नावार्थ — जे चैत्यनी अंदर केटलाएक सरल हृदय वाला लोको चंअना किरणोना जेवी द्वारना उपरना जागना मणिनी कांतिने पमदानी जांतिथी उंची कर तेमां प्रवेश करे बे ने केलाएक तेने ' रुपानां कमान वासी अटकायत कर बे' एम जाणी आकुल व्याकुल थइ द्वार उघारुवाने माटे पासे रहेला पूजार ( गोठी) ने विनवे बे. १०४
विशेषार्थ- - श्लोकमां ग्रंथकारे चांतिमान् अलंकारथी चैत्यना द्वारनी शोजा वर्णवेसी बे. चैत्यना घारना उपरना नागनी चंडना किरणोना जेवी रुपे कांति पमे बे, तेने केटलाएक जोळा दिलना लोको ' आप
दो बे' एवं धारी तेने उंचे करी अंदर प्रवेश करे बे. अने केटलाएक लोको 'आद्वानां रुपेरी कमान बंध करी अटकायत करी बे एवं जाए।
"
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
रविहातकम् ॥ १०॥
अंदर जवाने आकुन-व्याकुन थइ कार उघामवाने माटे गोपीने विनंति करे जे. १००
स्वच्छेदुग्राववेद्यां विचकिलरुचयः स्वर्णवर्णाः सुवर्णस्तंभाभ्यर्णेषु नीलोपलतटनिकरे बर्हिणस्कंधभासः। सास्राः सूर्याश्मभाभिः करिषु च चकिता विस्मिताः पुत्रिकाभिर्यव्याख्यावश्मरंगे दधति नटभटीपाटवं पूःपुरंध्यः ॥ १०५॥
अवचूर्णिः-समें ग्राववेद्यां विचकिन्नरुचयः स्वर्णस्तंनान्यर्णेषु स्वर्णवर्णाः नीलोपनतटनिकरे बहिणस्कंधनासः सूर्याइमनानिः सास्राः सवाष्याः चपुनः करिषु चकिताः पुत्रिकानिः विस्मिताः पृःपुरंध्यः नटनटीपाटवं दधति धरंति । मबिका स्यादिचिकितः । तटं तीरं । स्कंधो गमः । पूःपुरंध्यः नगरनार्यः ॥ १०॥
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावार्थ-स्वच्छ एवा चंद्रकांत मणिोनी वेदिकाने विषे मल्लिकानां पुष्प जेवी कांतिवाली, सुवर्णना स्तंननी समीप सुवर्णी रंगवाली, नीलमणिना तट पासे मयूर पतीना गलाना जेवी कांतिवाली, सूर्यकांत मणिनी कांतिमोथी नेत्रमा अश्रुवाती थती, हाथीओनां चित्रोने सध्ने लय पामती अने पुतलीयोथी विस्मय पामती नगरनी स्त्रीओ जे चैत्यनी व्याख्यानशासानी रंगनूमि नपर नटमीोना चातुर्यने धारण करती हती. १०५
विशेषार्थ- श्लोकथी ग्रंथकार कुमार विहार चैत्यनी पासे आवेत्री व्याख्यानशाळानुं वर्णन करे . ते व्याख्यान शास्त्राने रंगलूमिनुं अने तेनी अंदर आवती स्त्रीओने नटमीओनुं रूपक आपे . नटमीओ जेम विविध वर्णना वेष पेहेरी रुदननो, भयनो अने विस्मयनो देखाव करे ने तेम ते व्याख्यानशालामां नगरनी स्त्रीओनो तेवो देखाव थतो हतो. ते स्त्रीओ चंका
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहारशतकम् ॥ ॥११॥
तमणिनी वेदीनी समीप रहेवाथी, मविकाना पुष्पना जेवा धोला वर्णने धारण करती हती. सुवर्णना स्तंनोनी पासे सुवर्णवर्णी थती हती अने नीलमणिनी पासे मयूरनी डोकना जेवी देखाती हती. आ प्रमाणे पंचरंगी बनती ते स्त्रीओ सर्यकांतयी अश्रुवाली थती, हस्तीओनां चित्रोथी नय पामती अ. ने पुतलीओने जो विस्मय पामती हती. आ नपरथी व्याख्यानशालानी समृद्धि पण कविए दर्शावी . १०५
यत्र श्रदातुराणामजिरभुवि परिभ्राम्यतां बिंबयोगात् । व्यालोलां वीक्षमाणो हरितमणिमयीं नेत्रवल्लीं स्फटासु । साक्षाज्ञोगींद्रशंकाप्रभवभयभवद्वेपथुव्यस्तपाणिः । पूजां पार्श्वस्य लोको विरचयति सदा पूजकानां करेण ॥१०६॥
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवचूाणिः-यत्र प्रासादे अजिरनुवि परिघ्राम्यतां श्रद्धातुराणां पूजकानां करेण स्फटासु हरितमणिमयी नेत्रवहीं बिंवयोगाधीक्षमाणः साझादनोगीशंकामनवजयनवोपयुः व्यस्तपाणिः लोकः पार्थस्य पूजां विरचयति । वेपथुः कंपः तेन व्यस्ताः पाणयो यस्य सः ॥ १०६ ॥
लावार्थ-जे चैत्यना आंगणामां नमता एवा श्रद्धालु पूजकोना ने त्रोना सर्पनी फणाश्रोमां प्रतिबिंब पमवाना योगयी नीलमणिमय नेत्र रूप वेबने जो साक्षात् सर्पनी शंका यतां ते वसे उत्पन्न थयेला जयने लश्ने जेमने कंपारो थर आवतां हाथ ढीलो थाय ने, एवा लोको श्री पार्श्वनाथ प्रजुनी पूजा गोठीओने हाथे करावे . १०६
विशेषार्थ-ते चैत्यना आंगणामां श्रद्धालु पूजको फरता हता, तेमना नेत्रोनां पार्श्वनाथ प्रतुना मस्तके रहेता सर्पनी फणाओमां प्रतिबिंब जोइ, तेओ 'आ प्रत्यक्ष सर्पो ने ' एम धारी मनमां शंकित थता हता, अने ते
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान
रशतकम्।।
॥१११ ॥
ना नयथी कंपायमान थता हता. तेथी प्रजुनी पूजा करवामां तेमनो हाथ अटकातो हतो. पनी तेओ गोपीओने हाथे प्रनुनी पूजा करावता हता. आ उपरथी कविए पार्श्वनाथ प्रजुना मस्तकपर उन्नाकारे रहेला सोनी मणिमय शोना सूचवी . १०६
मध्ये मामुपनीय दर्शय मुखांभोज कथंचिन्मनाक् भ्रातर्यामिक कामिकस्य महतस्तीर्थस्य पार्श्वप्रभोः । इत्थं यत्र महोत्सवेषु जनतासंघहरुद्धाध्वनां दृद्धानां वचनानि कस्य करुणां वर्षति न श्रोत्रयोः ॥ १०७ ॥
अवचूर्णिः-हेयामिक ज्रातः मां मध्ये उपनीय कामिकस्य महतः तीर्थस्य पार्थमनोः मुखांनोज कथंचित् कष्टेनापि मनाक ईषत् दर्शय इत्यं यत्र प्रासादे महोत्सवेषु जनतासंघट्टरुकाध्वनां -
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
कानां वृषस्त्रीणां वचनानि कस्य श्रोत्रयोः करुणां न वर्षति । जनता जनसमूहः तस्य संघटः तेन रुको मार्गो यासां । उपनीय प्राप्य । कामान् ददातीति कामिकः कामद इत्यर्थः ॥ १०७ ।।
नावार्थ-" हे नाइ पेहेरागीर, मने कष्टयी वचमां बइ जइ कामने आपनारा मोटा तीर्थरूप श्री पार्श्वनाथ प्रनुनुं मुखकमल जरा बताव" आ प्रमाणे जे चैत्यना महोत्सवमां लोकोना समूहथी जेमनो मार्ग रंधाएलो , एवी वृद्ध स्त्रीओना वचनो कोना कानमां करुणाने वर्षावतां नथी. ? १०७
विशेषार्थ-या श्लोकयी ग्रंथकार ते कुमार विहार चैत्यना महोत्सवमां थती लोकोनी नीमनुं विशेषवर्णन करे जे. ते नीममां प्रजुना दर्शनने नहीं प्राप्त करी शकती एवी मोशीओ पेहेरेगीरोने प्रार्थना करे ने के, “हे नाइ, अमने प्रतुना मुखकमलना जरा दर्शन कराव." आ तेमनां वचनो
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥११ ॥
सांजळी दरेक पुरुषने करुणा उत्पन्न थती हती. १००
भूम्ना धूनयतोः शिरः प्रतिदिनं व्यालोक्य लोकोत्तरान् तांस्तान् यत्र विचित्ररत्नसुभगान् कुंभांस्तथा मंडपान्। साश्चर्य प्रतितोरणं प्रतिशिलं प्रत्युत्सवं तिष्टतोभैदः कोऽपि न लक्ष्यते सहृदयैरागंतुवास्तव्ययोः॥ १०८॥
अवचाणिः-यत्र प्रासादे प्रतिदिनं लोकोत्तरान् विचित्ररत्नसुनगान् तान् तान् कुंनान् तथा जमपान् विनाक्य जूम्ना बाहुट्येन शिरः धूनयतोः साश्चर्य साद्नुतं प्रतितोरणं प्रतिशिलं प्रत्युत्सवं तिष्टतोः आगंतुवास्तव्ययोः सहृदयैः कोपि लेदो व्यक्तिः न बयते । आगंतुः प्रा. धुर्णकः ॥ १७ ॥
नावार्य-प्रति दिवस लोकोत्तर दिव्य अने विचित्र रलोथी सुंदर एवा ते ते कलशो अने ते ते मंडपोने जोइ पोताना मस्तकने अतिशय धुणा
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
वता अने दरेक तोरणे, दरेक शिलाए अने दरेक नत्सवे आश्चर्य सहित र. हेता एवा परदेशी मीजमान अने त्यांना वतननीवच्चे कोइ जातनो नेद विधा. न पुरुषोना जाणवामां आवतो नहोतो. १००
विशेषार्थ-ते चैत्यनी अंदर बाहेरथी आवेलो परदेशी अने त्यांनो वतनी-ए बनेनी वच्चे कोइ जातनो तफावत जोवामां आवतो नहोतो; कारण के त्यांना हमेशना वतननीने ते चैत्यने जोइ जेवं आश्चर्य थतुं, तेवुज परदेशी नवा माणसने पण थतुं हतुं. हमेशां त्यां रहेना दिव्य अने विचित्र रत्नोथी सुंदर एवा काशो अते मंझपो जो विदेशी अने वतनी बने सरखी रीते मस्तक धुणावता हता. वली ते चैत्यना दरेक तोरणे, दरेक मणिमय शिखाए अने दरेक नत्सवे तेत्रो बने सरखी रीते आश्चर्य पामता हता. ते उपरथी विज्ञान पुरुषो पण विदेशी अने वतनीनो तफावत जाणी
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा रशतकम् ।। ।। ११३ ॥
शकता न हता. १००
गीतोद्गारो पहूत श्रुतिभिरभिनवोत्कष्टनाट्यप्रबंधस्नपनपरिमलोपार्जितघ्राणमैत्र्यैः ।
प्रारंभाक्रांतनेत्रः
नित्यनैमितिकै प्रतिदिवसभवैरुत्सवैरेवयस्य
भ्रश्यत्कामार्थकृत्यः स्पृशति पुरजनः कोपि निर्वेदमंतः ॥ १०९ ॥
अवचूर्णि: - यस्य प्रासादस्य गीतो रोपहूतश्रुतिभिः चपुनः अनिवोत्कृष्टनाय्यमबंध प्रारंजाक्रांतनेत्रैः स्त्रपन परिमलोपार्जितघ्राणमैत्र्यैः नित्यैः नैमित्तिकैः प्रतिदिवसन्नवैः उत्सवैः एव निश्चयेन भ्रश्यत्कामार्थकृत्यः कोऽपि पुरजनः अंतर्मन सि निर्वेदं वैराग्यं स्पृशति । गीतस्य उकारा उत्पत्तयः तेषु उपहूता मंत्राः श्रुतयः कर्णा यैरुत्सवः ॥ १०७ ॥
जावार्थ — गायनना उद्गारोमां जेमणे कर्णे डियोने आमंत्रण करें बे, नवीन अने उत्कृष्ट नाटकोना प्रबंधना आरंने जेमां नेत्रोने दबावेलां बे
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
अने स्नाना सुगंधे मां नासिका इंडियनी मित्रता प्राप्त करी बे एवा जे चैत्यना नित्य नैमित्तिक उत्सवोथी जेमना कामार्थना कार्यों निश्चयथी नाश पामेला बे एवो कोइ नगरजन हृदयमां निर्वेद – वैराग्यनो स्पर्श करे, एटले ते वैराग्य उत्पन्न थाय बे. १०
विशेषार्थ - ग्रंथकार आ काव्यथी ते चैत्यना नित्य ने नैमित्तिक उत्सवोमां वैराग्य रसनुं दर्शन करावे बे. ज्यारे माणसने वैराग्य थाय छे, त्यारे तेनां कर्णेप्रिय, नेप्रिय अने नासिकेंद्रिय वगेरे पोतानी काम-वासनाने बोदेबे ने अंतरमां निर्वेद – वैराग्य उत्पन्न थाय बे, तेम - attrai आवेला नगर जनने माटे पण तेम बने बे. त्यां थतां संगीतने लइने तेनुं कर्णेप्रिय, नवीन नाटको जोवाने लइने नेत्रें प्रिय ने स्नात्र जलनी खुशबोने लइने नासेंद्रिय — तेमां तल्लीन बनवाथी ते इंजियोनी बीजी काम
-
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम्॥ ॥११४॥
ना नाश पामे . तेथी तेना हृदयमा निर्वेद-वैराग्य उत्पन्न थयेलो देखाय ने. आ नपरथी ते चैत्यमा उत्सवोने विषे संगीत, नाटक अने स्नात्र विधि नारे आमंबरयी थता हता, एम दाव्युं छे. १०ए। व्यालैर्बालानगजेंद्रैः कपिकरभरथैर्याम्यसार्थाश्चरित्रैः श्रद्धालून देवतानां नृपतिमृगहशो वासवांतःपुरीभिः। नानानाट्यैर्नटौघान् मरुदसुरभवैः संगरैर्वीरवर्गान् एकाकिन्येव लोकांस्तरलयति मुहुर्यत्र चित्रस्य संसत् ॥११॥
अवचर्णिः-यत्र प्रासादे चित्रस्य एकाकिनी एव संसत् सत्ता मुहुः वारंवारं व्यानैः उष्टैः गजेंः वासान् कपिकरजरथैः ग्राम्यसार्थान् देवतानां चरित्रैः अघालून वासवांतःपुरीनिः इंधाणीनिः नृपतिमुगदृशः नानानाट्यैः नटौघान् मरुदसुरनवैः संगरैः संग्रामैः वीरवर्गान् लोकान् तरलयति। कपयो वानराः । करजा नष्ट्राः । ॥ ११० ॥
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावार्य-जे चैत्यनी अंदर आवेत्री चित्रशाला एकत्रीज वारंवार लोकोने चपन करे . जुष्ट हाथीपोथी बालकोने, वानर, जंट अने रथोथी गा. ममीया लोंकोना समूहने, देवताओनां चरित्रोयी श्रघाबु-आस्तिक लोकोने, इंघाणीअोयी राजाओनी राणीोने, विविध जातनां नाटकोथी नटलोकोना समूहने अने देव अने असुरोना संग्रामोथी वीर नरोने चपन करे छे. ११०
विशेषार्य-आ श्लोकमां ग्रंयकारे कुमारविहार चैत्यनी चित्रशालानुं वर्णन करी बताव्यु बे. ते चित्रशालामां एवां सुंदर अने चित्ताकर्षक चित्रो हतां के जे आबेहूब लागवायी जुदा जुदा प्रेककोना मन नपर जुदी जुदी असर करतां हतां. नन्मत हाथीनां चित्रो जोइ बासको चपन थता हता. वानर, जंट अने रथोनां चित्रो गाममीया लोकोने चपन करतां हता. तेवीरीते देवताप्रोनां चरित्रो आस्तिकोने इंशाणीओनां चित्रो राजाओनी राणीओने,
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥११५॥
नाटकोनां चित्रो नट लोकोने अने देवता तया दैत्योनां युघ्नां चित्रो शूरवीरोने चपन करतां हतां. ११०
शुभ्रं चंद्राश्मकांत्या नवयवहरितं नीलरत्नप्रभामिमुक्तादामावचूलैः प्रचलदलिकुलं लब्धमल्लीविलासैः । सर्वैरष्टापदस्थैर्मुकुरितकुतुकैर्वीक्ष्यमाणं जिनेंद्रः । प्रायः सर्वस्य दृष्टिः प्रविशति रतये यस्य लीलानिशांतम्॥१११॥
अवचर्णिः-चाइमकांत्या शुभ्रं नीलरत्नानाचिर्नवयवहरितं बब्धमतीविकाशैः मुक्तादानावचूसैः प्रचलदलिकुलं अष्टापदस्यैः मुकुरितकुतुकै सर्वैः जिनेंः वीक्ष्यमाणं यस्य प्रासादस्य बीनागृहं प्रायः सर्वस्य दृष्टिः रतये प्रविशति ॥ १११॥
नावार्थ-जे कुमारविहार चैत्यनुं बीनाग्रह चंकांत मणिनी कांति
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शुद्ध हतुं. नीलमणिनी कांतिओयी नवा यव-ज्वारा जेवुं बीलुं दतुं म काना पुष्पना जेवा विकाशने प्राप्त करनारा मोतीओना हारना गुच्छोथी चलायमान एवा चमराओथी युक्त हतुं. या देवलना लीलागृह समीपे अष्टापदनी रचना हती, तेमां रहेलरत्ननी प्रतिमाओ मां आ देववनी कौतुक रचना प्रतिबिंबीत येते जीनेोए जोवातुं तेवा बीझागृहमां प्राये करीने सर्वनी दृष्टि प्रीतिने माटे प्रवेश करे छे. १११
विशेषार्थ - ते चैत्यनी अंदर आवेलुं लीलागृह चंद्रकांत मणिनी कांतिथी घोंने नीलरत्ननी कांतिथी नीलवर्णी हतुं तेमज मल्लिकाना जेवा मुक्ताफलना हारथी चमरायो जांतिवने तेमां आवता दता. आवुं मनोहर Alerगृह समीपे अष्टापदनी रचना दती त्यां रहेली रत्ननी प्रतिमाओोमां आ देवari कौतुक रचना प्रतिबिंबीत थयेली ते जीनेंझोए जोवातुं तेवा झील
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहान
रशतकम्।
गृहमा प्रायः सर्वनी दृष्टि प्रवेश करती हती. अहीं कवि अर्थातर न्यास अखंकारथी कहे जे के, सर्वनी दृष्टि प्रीतिने अर्थे प्रवेश करे छे. तेथीते अष्टापद उपर रहेला जिनेंजो तेने जोता हता. आ नपरथी बीनागृहनी उत्कृष्टता कविए दर्शावी . १११
औत्सुक्यं कामुकानां मनसि विदधती तात्त्विकानां विवेकं काष्टामारोपयंती मुहुरुपदिशती धार्मिकाणां जुगुप्साम् । पांचाली यत्र काचिच्चपलकपिकराकृष्टनीवीनिवेशा ब्रीडां दृद्धासु हास्यं युवतिषु तनुते कौतुकं बालिकासु ॥ ११२॥
अवणिः -यत्र प्रासादे कामुकानां मनसि औत्सुक्यं विदधती तात्त्विकानां विवेक काष्टां निश्चयं आरोपयंती मुहुः वारंवारं धार्मिकाणां जुगुप्सां उपदिशती चपनकपिकराकष्टनीवी निवेशा
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
काचित् पांचाली वृद्धासुत्री मां युवतिषु हास्यं वालिकासु कौतुकं तनुते । चपलो यः कपिः वानरः त.. स्य यः करः तेन प्रकृष्टा या नीवी श्रोणिस्थवस्त्रं तस्या निवेश: प्रवेशो यस्याः सा । जुगुप्सां निंदाम् ॥ ११२ ॥
नावार्थ -- जे चैत्यमां चंचल वानरना हाथथी जेनुं कटीवस्त्र खेचायें एक पुतली कामयना मनमां उत्कंठा करती, तत्त्वज्ञानीओना मनaanat निश्चय करावती ने धर्मी जनाने वारंवार निंदानो उपदेश करती की वृद्ध स्त्रीने बज्जा, युवतिने हास्य अने बालिकाओ कौतुक वधारती हती. ११२
विशेषार्थ - ते चैत्यनी अंदर कोई एवी पुतली रचेली हसी के जेना कटी जाग उपरथी वानरे वस्त्र खेचेनुं हतुं तेने जोइ का मियोना मनमां उत्कं थती हती, तत्त्वज्ञानी योना मनमां विवेकनो निश्चय यतो हतो अने
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा
रशतकम् ॥
।। ११७ ।।
धर्मी जनोने मनमां सूग चडती हती. तेमज तेथे जो इने वृद्ध स्त्रीयो शरमाती हती, युवान स्त्रीने हास्य यावतुं हतुं ने बालिकाओने कौतुक यतुं हतुं. उपरथी कविए ते चैत्यमां चित्रनी शिल्पकलानी प्रौढता दर्शावी बे. ११२ उष्णीषी लंबकूर्चे गुरुतरजठर : पीवरोरुस्फिगंघ्रिनिम्नग्रीवोऽल्पकायः प्रलघुमुखशिरोनासिकाकर्णनेत्रः ।
श्रोणीबद्धासिधेनुर्मृगहननचलत्पुत्रिकाभ्यर्णवर्ती यस्मिन्नेकः किरातस्तटघटितवपुर्दृष्टिदोषं रुणद्धि ॥ ११३॥
अवचूर्णि: - यस्मिन् प्रासादे उष्णीषी लंबकूर्चः गुरुतरजवरः पीवरोरुस्फिगंघ्रिः नम्रग्रीवः अल्पकायः लघुमुख शिरोना सिकाकर्णनेत्रः श्रोणीवा सिधेनुः मृगहननचलत्पुत्रिकायर्णवती तटघत्रिपुः एकः किरातो दृष्टिदोषं रुद्धि । उष्णीषं मूर्द्धवेष्टनं तद्वान या वनपुष्पमयूरपिच्छादिमयावतंसः ।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोणी कटी तस्यां बचा सिधेनुः कुरिका येन सः । मृगाणां हननं तस्मिन् चलन् गच्छन् पुत्रिकाया अन्य समीपं तत्र वर्त्ती । तटे तीरे पाषाणघटितं वपुर्यस्य सः । पीवरौ पुष्टौ ऊरू स्फिगौ युगौत्री पादौ च यस्य सः ।। ११३ ॥
नावार्थ - जे चैत्यना तट उपर पाषाणथी जेनी मूर्ति घडेली बे एवो एक किरात - जिल्ल राख्यो बे, ते दृष्टि दोषने ( नजर दोषने ) अटकावे बे. लिने माये पाघमी बे. तेनी दाढी मूळ लांबी डे. अतिशय मोटुं पेट बे. साथल, कटीनाग अने पग पुष्ट बे. कोक टुकी बे. काया ठींगणी बे. मुख, मायुं, नाक, कान ने आंखो नाना बे. कटी उपर बरी बांधेली अने ते मृग मारवाने तो एक पुतळीनी पासे रहेलो बे.
११३
विशेषार्थ - जे अति सुंदर पदार्थ होय तेने कोइनी नजर न लागे तेने माटे तेनीपासे को कडूपी पदार्थ राखवो जोइए, एवा इरादाथी ते चै
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥ ॥११॥
त्यनी चित्रशालानी नजीक एक जीबनुं पुतळु नचुं करेधुं छे, तेनुं वर्णन कविए आ श्लोकथी आपेलु . ११३
युग्मम् । कर्पूरागुरुकल्पमानविविधस्नानं भ्रमत्कामिनीसंघदृत्रुटिताईहाररभसभ्रश्यन्नितंबांबरम् । वक्षःपीडनलभ्यमानसरणि ज्येष्टानुषंगत्रपाताम्यत्पौरकुलांगनं नववधूसंप्रार्थ्यमानात्मजम् ॥ ११४ ॥ खेलन्मंगलगीति दीव्यदमरीसार्थपठन्मागधं नृत्यत्पौरपुरंध्रि याचकशतव्यातीर्यमाणांगदम् ।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्नात्रांबुग्रहणाच्छलत्पटुचटुव्याहारमुच्चैर्ध्वनन् नानानाटकमर्दलं प्रतिकलं यद्वर्त्तते सर्वतः ॥ ११५ ॥
अवचूर्णिः-कर्पूरागुरुकटपमानविविधस्त्रात्रं चमत्कामिनीसंघदृत्रुटिताम्रहाररजसभ्रश्यनितंबाबरं वदापीमनबन्यत्नानसरणि ज्येष्टानुषंगत्रपाताम्यत्पौरकुलांगनं नववधूसंपार्थ्यमानात्मजं खेलन्मगनगीति दीव्यदमरीसाथ पउन्मागधं नृत्यत्पौरपुध्रि याचकशतव्यातीर्यमाणांगदं स्नात्रांबुग्रहणोच्चयत्पटुचढव्याहारं नच्चै नन्नानानाटकमर्दवं प्रतिकन्नं यच्चैत्यं सर्वतः वर्तते । वनः हृदयं तस्य पीनं दबनं तेन सन्यमाना सरणिः मार्गो यस्मिन् तत् । कर्पूरागुरुज्यां मिश्रितं यत् पानीयं तेन कटपमानं कि यमाणं स्नात्रं यस्मिन् । अर्द्धहारः चतुःषष्टिसरो हारः ॥ ११४-११५ ॥
नावार्थ जे कुमार विहार चैत्य सर्व रीते कणे क्षणे एवं बने ने के, जेनी अंदर कपूर अने अगर चंदनथी विविध जातनां स्नात्रो थयां करतां हता. ज्यां फरती स्त्रीओनी जीमने लश्ने चोस शेरना, अष्टदश शेरना, तथा नव
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहा-१ रशतकम्।। ॥११ ॥
शेरनाहारो तुटी जता अने उतावनथी तेमना कटी नागनां वस्त्रो खशी जताहतां. गतीओना दवावायी ज्यां रस्तो मेलवी शकातो हतो. जेमां पोताना वमित्रोनी साथे अथमावायी नगरनी कुत्रवान् स्त्रीश्रो शरमाश्ने खेद पामती हती. ज्यां नवी परणेवी वधूओ पुत्रने माटे प्रार्थना करती हतो. ज्यां मंगलिक गीतो गवातां हतां, ज्यां देवीओना समूह क्रीमा करता हता. ज्यां चारण नाटो कविताना पाठ नणता हता. ज्यां नगरनी स्त्रीओ नृत्य करती हती. ज्यां सैकमो याचकोने बाजुबंधनां दान अपातां हता. मात्रजल लेवाने माटे ज्यां चतुरा३ अने खुशामतवाला उद्गारो नग्नता हता. अने ज्यां विविध प्रकारनां नाटकनां वाजाओ जंचे स्वरे वागतां हतां. ११४-११५
विशेषार्थ-ग्रंयकारे आ बेबां बे काव्यथी कुमारविहार चैत्यनुं सर्व प्रकार, उपसंहार तरीके वर्णन करी बताव्युं जे. अने तेथी ते चैत्यमां थतां
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्नात्रो, दर्शननी जीमो, प्रार्थनाओ, मंगलगीतो, देवीओनी क्रीमाओ, चारणनाटनी कविताओ, याचकोने दानो, स्नात्रजनने माटे मांगणीओ अने नाटकोना वाजिंत्रोना ध्वनिओनुं दिग्दर्शन कराव्यु . ११४-११५
आस्तां तावन्मनुष्यः प्रकृतिमालिनधीः शाश्वतालोकचक्षुवक्तुं वक्त्रैश्चतुर्भिर्विधिरपि किमलं तस्य सौंदर्यलक्ष्मीम् । क्षीणाशेषाभिलाषः परमलयमयं स्थानमाप्तोऽपियस्मिन्नास्थां श्रीपार्श्वनाथस्त्रिभुवनकुमुदारामचंद्रश्चकार ॥ ११६॥
अवार्णः–तावत् आदौ प्रकृतिमलिनधीः मनुष्यः आस्तां शाश्वतालोकचक्षुः विधिरपि चतुर्निः वक्त्रैः तस्य सौंदर्यमी वक्तुं किं असं समर्थः स्यात् अपितु न तस्य कस्य यस्मिन् त्रिनुवनकुमुदारामचंडः वीणाशेषानिलाषः परमलयमयं स्थान प्राप्तोऽपि श्रीपार्श्वनाथः आस्थां आस्थानचकार । प्रकृत्या स्वजावेन मलिना समला बुधियस्य श्वाश्वत आलोक न्योतः स एव चकुर्यस्य सः
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमार विहान रशतकम् ॥ ॥१०॥
कि केपार्थः । अयं समर्थः। नोएाः दयनीताः अशेषाः संपूर्णः अनिलाषा वांग यस्य परमः प्रकृष्टो बयो ध्यानं स प्रकृतो यस्मिन् परमनयमयः । प्रकृते मयद । त्रिनुवनं स्वर्जुनुवः तात्स्थ्यात्व्य पदेश इति न्यायात् सुरासुरनराः त एव कुमुदारामः तत्र चंद व चंः चंसदृश इत्यर्थः । पके रामचंद्रः श्रीहेमाचार्यसहाध्यायी महासौलाग्यवान् श्रीरामचंगणी इति कत्तुनाम ॥ १६॥
नावार्थ-प्रयम स्वन्नावथीज मलिन बुद्धिवाला माणसनीवाततो ए. क तरफ रही, परंतु शाश्वत-हमेशना द्योतरूपी नेत्रवातो विधि-ब्रह्या पण पोताना चार मुखयो ते चैत्यना सौंदर्यनी लक्ष्मीने कहेवाने शुं समर्थ थाय ? अर्थात् न थाय. कारणके, त्रणवनरूपी पोयणाना उपवनमां चंड समान अने जेमनी सर्व अनिवाषाओ क्य पामी ने एवा श्री पार्श्वनाथ प्रनु परम ध्यानमय एवा स्थानने-मोक्ने प्राप्त थयेला छे, ते उतां जे कुमारविहार चैत्यमा आस्था ( स्थान ) करीने रहेना ने. ११६
विशेषार्य-या श्लोकयी ग्रंयकार वट नपसंहार करीने कहे जे के, ते चैत्यनुं वर्णन मारा जेवा मनुष्ययी थइ शके तेम नथी, कारणके, मनुष्य
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
नी बुद्धि मलिन होय . तेवा मनुष्यनी वाततो एक तरफ रही, पण नित्य रूपी नेत्रवास अर्थात् दिव्य दृष्टिने धारण करनारो ब्रह्मा पण पोताना चार मुखी ते चैत्यनुं वर्णन करवाने समर्थ नथी. कारणके, जे चैत्यनी अंदर निःस्पृह ने परम स्थानने प्राप्त थयेला पण पार्श्वनाथ प्रजुए रदेवाने आस्या करेली . एटले निःस्पृह अने परम पदने पामेला प्रभु जेमां आस्था करे तेवा चैत्यनुं वर्णन कोनाथी थइ शके बे ? ग्रंथकारे बेवटना पदमां रामचंद्र' एवं पोतानुं नाम पण दर्शाव्युं बे. या ग्रंथना कर्त्ता ' रामचंद्र गणी' श्री देमाचार्यना सहाध्यायी हता. ११६
6
इति श्रीरामचंद्रगणिविरचितं श्रीकुमारविहारशतकम् समाप्तम्.
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारविहारशतकम् ॥
श्रीरामचंड गणीए रचेव श्रीकुमारविहारशतक समाप्त थयु.
श्रीमत्तपागच्छीयश्रीसोमसुंदरसूरिशिष्यश्रीविशालराजशिष्यपमितविवेकसागर गणिशिष्यपंमितोत्तमविबुधराजसुधाजूषणगणिविरचिता
अवचूर्णिः समाप्ता ॥ श्री तपागच्छना श्री सोमसुंदरसूरिना शिष्य श्री विशालराज, तेमना शिष्य पंमित विवेक सागर गणी अने तेमना शिष्य पंमितोमा उत्तम अने विधानोना राजा समान
श्री सुधाजूषण गणीए रचेनी आ अवचूर्णि समाप्त था.
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________ KA6AP इति श्री रामचंद्रगणी विरचित. श्री कुमारविहारशतक. MERE REMEMEERESTHA SECAYAPARHARITRAM GANA