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।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ॥
॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org
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पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद
राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
श्री
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १
महावीर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249
जैन
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
अमृतं
आराधना
तु
केन्द्र कोबा
विद्या
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शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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10
THI
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नमः अनन्तलन्धिनिधानाय भगवते इन्द्रभूतये । निःशेषनिग्रन्थागमामरसरिहिमाचलभगवठ्ठीसुधर्मस्वामीमत्रितं
___गूर्जरभाषानुवादयुतं * श्रीमद्भगवतीसूत्रम् ,
(व्याख्याप्रज्ञप्तिः) (पंचमो भागः) प्रकाशकः-जामनगरवास्तव्यपंडित 'हीरालाल हंसराज' इत्यस्य 'श्री जैनभास्करोदय प्रेस
इति मुद्रणालये मेनेजर बालचंद्र हीरालाल इत्येतेन मुद्रितम्
विक्रमसंवत - १९९६
}
पण्य रुप्यकत्रयम्
।
ELEO
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न्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१०७३॥
HIॐ
॥ अहम् ॥ श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामिप्रणीता ।
१२शतके
| उद्देशः५ ॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥
१०७३॥ ॥ श्रीभगवतीसूत्रं भाग-५॥ (मूल सूत्र अने तेना गुजराती भाषान्तर सहित)
(शतक १२.) उद्देशक ५. (चोथा भागर्नु अनुसंधान चालु ) रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! पाणाइवामुसा. अदि मेहु. परि० एस णं कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते ?, गोयमा! पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे चउफासे पण्णत्ते ॥ अह भंते ! कोहे १ कोवे २ रोसे ३ दोसे ४ अखमे ५ संजलणे ६ कलहे ७ चंडिक्के ८ भंडणे ९ विवादे १० एस णं कतिवन्ने जाव कतिफासे पण्णत्ते?, गोयमा! पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे चउफासे पण्णत्त । अह भंते! माणे मदे दप्पे धंभे गब्वे अनुक्कोसे: परपरिवाए उक्कोसे अवक्कोसे उण्णए उन्नामे दुन्नामे १२ एस णं कतिबन्ने ४ ?, गोयमा! पंचवन्ने जहा कोहे तहेव । अह भंते ! माया उवही नियडी वलये गहणे गृमे कक्के कुरुए जिम्हे किब्बिसे १० आयरणया गृहणया वंचणया
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१२शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०७४॥
उद्देशः५ १०७४या
पलिउंचणया सातिजोगे य १५ एम णं कतिवन्ने ४?, गोयमा! पंचवन्ने जहेव कोहे॥ अह भंते! लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा आसासणया पत्थणया १० लालप्पणया कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदीरागे १६ एस णं कतिवन्ने ?, जहेव कोहे । अह भंते ! पेजे दोसे कलहे जाव मिच्छादसणसल्ले एस णं कतिवन्ने ! जहेव कोहे तहेव चउफासे ।। (सूत्रं ४४९)
. [प्र०] राजगृह नगरमां (गौतम) यावद्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! १ प्राणातिपात, २ मृषावाद, ३ अदत्तादान, ४ मैथुन अने ५ परिग्रह-ए बधा केटला वर्णवाळा, केटला गन्धवाळा, केटला रसवाळा अने केटला स्पर्शवाळा कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! ते पांच वर्णवाळा, वे गन्धवाला पांच रसवाळा अने चार स्पर्शवाळा कह्या छे. [40] हे भगवन् ! १ क्रोध, २ कोप, ३ रोष, ४ दोष, ५ अक्षमा, ६ संज्वलन, ७ कलह, ८ चांडिक्य (रौद्राकार), ९ भंडन (दंडादिथी युद्ध करवू) अने १० विवाद-ए बधा केटला वर्णवाला, यावत्-केटला स्पर्शवाळा कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच वर्णवाळा, बे गन्धवाला, पांच रसवाळा अने चार स्पर्शवाळा कह्या छे. [ ] हे भगवन् ! १ मान, २ मद, ३ दप, ४ स्तंभ, , गर्व, ६ अत्युत्क्रोश, ७ परपरिवाद, ८ उत्कर्ष, | ९ अपकर्ष, १० उन्नत ( उन्नय ), ११ उन्नाम अने १२ दुर्नाम-ए चधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा कह्या छे ? [उ.] हे गौतम ! पांच वर्णवाळा इत्यादि जेम क्रोध संबन्धे का तेम अहिं जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! १ माया, २ उपधि, | निकृति, ४ बलय-वक्रताजननस्वभाव, ५ गहन, ६ नूम, ७ कल्क, ८ कुरूपा २ जिझता, १० किल्बिष, ११ आदरणता (आचकारणता), (२ गूहनता, १३ पंचनता, १४ प्रतिकुंचनता, १५ सातियोग-ए वधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा है ?
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१०७५॥
SAMACHAR
[उ.] हे गौतम! ए बधा पांच वर्णवाळा-इत्यादि क्रोधनी पेठे जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! १ लोभ, २ इच्छा, ३ मूर्छा, कांक्षा, ५ गृद्धि, ६ तृष्णा, ७ भिध्या, ८ अभिध्या, १ आशंसना, १ प्रार्थना, ११ लालपनता, १२ कामाशा, : ३ भोगाशा, १४ जीवि.
1१२शतके | ताशा, १५ मरणाशा अने १६ नंदिराग-ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा छ ? [उ) हे गौतम ! क्रोधनी पेठे
दाउद्देशः ५ (सू. २) जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! १ प्रेम-राग, २ द्वेष, ३ कलह, बावत्-८ मिथ्यादर्शनशल्य-ए वधा केटला वर्णवाळा,
P॥१०७५॥ यावत्-केटला स्पर्शवाळा छ ? [उ०] क्रोधनी पेठे ते वधा चार म्पर्शवाळा छे, ॥ ४९ ॥
अह भंते ! पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे एस णं कतिवन्ने जाव कतिफासे पण्णत्त ?, गोयमा! अवन्ने अगंधे अरसे अफासे पण्णत्त । अह भंते ! उपपत्तिया वेणइया कम्मिया परिणामिया एस णं कतिवन्ना तं चेव जाव अफासा पन्नत्ता । अह भंते ! उग्गहे ईहा अवाये धारणा एस णं कतिवन्ना?, एवं चेव जाव अफासा पन्नत्ता । अह भंते! उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकारपरक्कमे एस णं कतिवन्ने ? तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते । सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे कतिवन्ने? एवं चेव जाव अफासे पन्नत्ते, सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कतिवन्ने ?, जहा पाणाइवाए, नवरं अदुफासे पण्णत्ते, एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घणोदही पुढवी, छट्टे उवासंतरे अवन्ने, तणुवाए जाव उट्ठी पुढवी एयाइं अट्ठफासाई, गवं जहा सत्त माए पुढवीए वत्तब्वया भणिया तहा जाव पढमाए पुढवीए भाणियब्वं, जंबुद्दीवे २ सयंभुरमणे समुद्दे सोहम्मे कप्पे जाव ईमिपन्भारा पुढवी नेरतियावासा जाव वेमाणियावासा एयाणि मव्वाणि अट्ठफामाणि । नेरइया णं |
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०७६॥
REGERMISSION
Acharya Shri garsuri Gyanmandir भंते ! कतिवन्ना जाव कतिफासा पन्नत्ता, गोयमा! वेउब्वियतेयाई पडुच्च पंचवन्ना पंचरसा दुग्गंधा अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च पंचवन्ना पंचरसा दुगंधा चरफासा पण्णत्ता, जीवं पडुच्च अवन्ना जाव अफामा पण्णत्ता,
१२शतके
उद्देशः५ एवं जाव थणिय, पुढविकाइयपुच्छा, गोयमा! ओरालियतेयगाई पडुच्च पंचवन्ना जाव अट्टफामा पण्णत्ता,
C१०७६॥ | कम्मगं पडुच्च जहा नेर०, जीवं पडुच्च तहेव, एवं जाव चउरिंदि०, नवरं वाउकाइया ओरा. वेउ० तेयगाई पडुच पंचवन्ना जाव अगुफामा पण्णत्ता, सेसं जहा नेरइयाणं, पंचिंदियतिरिक्ख जोणिया जहा वाउक्काइया,
[प्र०] हे भगवन ! १ प्राणातिपातविरमण, यावद्-५ परिग्रहविरमण, ६ क्रोधनो त्याग, यावद्-१८ मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग-ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत् केटला स्पर्शवाळा कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! वर्ण विनाना, गंध विनाना, रस विनाना अने स्पर्श विनाना कह्या छ. [प्र.] हे भगवन् ! १ औत्पतिकी (स्वाभाविक उत्पन्न थयेली), २ वैनयिकी (गुरुना विनय-शास्त्राभ्यासद्वारा थयेली बुद्धि). ३ कार्मिकी (कर्मद्वारा थयेली) अने ४ पारिणामिकी (लांबा काल सुधी पूर्वापर अर्थना अवलोकनादिकथी उत्पन्न थयेली) बुद्धि-ए केटला वर्णवाळी, यावत्-केटला स्पर्शवाळी कही छे ? [उ.] पूर्व प्रमाणे जाणवू, यावद्-स्पर्शरहित कही छे. [प्र०] हे भगवन् ! १ अवग्रह (अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञान), २ ईहा (विचारणा), ३ अबाय-निश्चय अने ४ धारणा (उपयोगर्नु सातत्य)-ए बधा केटला वर्णवाळा, गवत्-केटला स्पर्शवाळा के ? (उ०) ए प्रमाणे यावद्-स्पर्शरहित कह्या . (प्र०) हे भगवन् ! १ उत्थान, २ कर्म, ३ बल ४ वीर्य अने ५ पुरुषकारपराक्रम-ए बधा केटला वर्णवाळा, यावत्-केटला स्पर्शवाळा कह्या के ? (उ०), पूर्व प्रमाणे यावद् ते स्पर्शरहित कह्या छे. (प्र०) हे मगवन् ! सातमो (सातमी नरकपृथिवी नीचेनो) अवकाशांतर-आकाशनो खंड
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१०७७॥
PHAA
केटला वर्णवाळो, यावत-केटला स्पर्शवाळो कह्यो छे ? [उ.] ए प्रमाणे यावद्-स्पर्शरहित कह्यो छे. [प्र०] हे भगवन् ! सातमी नरकपृथिवी नीचेनो तनुवात केटला वर्णवाळो, यावत्-केटला स्पर्शवाळो कह्यो के ? [उ०] प्राणातिपातनी पेठे (स. ११) जाणवू,
151१२शतके परंतु विशेष ए छे के अहीं सातमो तनुवात आठ स्पर्शवाळो कह्यो छे. जेम सातमो तनुवात कह्यो छे तेम सातमो धनवात तथा|
उद्देशः५
१०७७॥ | सप्तमपृथिवी जाणवी. छट्ठी पृथिवीनी नीचेनो अवकाशांतर वर्णादिरहित छे. छट्ठो तनुवात तथा यावद्-छट्ठी पृथिवी-ए बधां आठ 3 स्पर्शवाळां .ए प्रमाणे जेम सातमी पृथिवीनी बक्तव्यता कही, तेम यावत्-प्रथम पृथिवी सुधी जाणवू. जंबूद्वीप नामें द्वीप, यावत् खयंभुरमणसमुद्र, सौधर्मकल्प, यावद्-ईपत्प्राग्भारा पृथिवी, नैरयिकावासो तथा यावद्-वैमानिकावासो-ए बधा आठ स्पर्शवाळा छे. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको केटला वर्णवाळा, यावत् केटला स्पर्शवाला कह्या छ ? [उ.] हे गौतम ! वैक्रिय अने तैजस पुद्गलोनी अपेक्षाए तेओ पांच वर्णवाळा, पांच रसवाळा, वे गंधवाळा अने आठ स्पर्शवाळा कह्या के, अने कार्मण पुद्गलोनी अपेक्षाए पांच वर्णवाळा, पांच रसवाळा, वे गंधवाळा अने चार स्पर्शवाळा कह्या के, तथा जीवनी अपेक्षाए वर्णरहित, अने यावद् स्पर्शरहित कह्या २. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवं. [प्र.] हे भगवन् ! पृथिवीकायिको केटला वर्णवाळा १ - इत्यादि. [उ०] हे गौतम ! औदारिक अने तैजस पुद्गलोनी अपेक्षाए पांच वर्णवाळा, यावत् आठ स्पर्शवाळा २. कार्मणनी अपेक्षाए जेम नैरयिको | कह्या तेम कहेवा, अने जीवनी अपेक्षाए पण पूर्व प्रमाणे (वर्णादिरहित) जाणवा. ए प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय जीवो सुधी जाणवू. पण विशेष ए छे के, वायुकायिको औदारिक, वैक्रिय अने तैजसपुद्गलोनी अपेक्षाए पांच वर्णवाळा, यावद्-आठ स्पर्शवाला कह्या | छे, बाकी बधुं नैरयिकोनी पेठे जाणवं. तथा वायुकायिकोनी पेठे पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको पण जाणवा.
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१०७८॥
१२शतके उद्देशः ५ १०७८॥
SAMSHER
मणुस्साणं पुच्छा ओगलियवेउब्वियआहारगतेयगाइं पडुच्चपंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा नेर०, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेर०, धम्मत्थिकाए जाव पोग्गल. एए सव्वे अवन्ना, नवरं पोग्गल. पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे अडफासे पण्णत्ते, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए एयाणि चउफासाणि, कण्हलेमा णं भंते! कइवन्ना०१ पुच्छा, दव्वलेसं पडुच्च पंचवन्ना जाव अहफासा पण्णत्ता, भावलेसं पडुच्च अवन्ना ४, एवं जाव सुकलेस्सा, सम्महिट्ठी ३ चक्खुद्दसणे ४ आभिणियोहिय णाणे जावविभंगणाणे आहारसन्ना जाव परिग्गहसान्न एयाणि अवन्नाणि ५, ओरालियसरीरे जाव तेयगसरीरे एयाणि अट्ठफासाणि, कम्मग सरीरे चउफासे, मणजोगे वयजोगे य चउफासे, कायजोगे अट्टफासे, मागारोवओगेय अणागारोवओगे य अवन्ना। सव्वदव्वा णं भंते! कतिवन्ना? पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिया सव्वदवा पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता अन्थेतिया सव्वदव्वा पंचवन्ना चउफासा पण्णत्ता, अत्थेगतिया सव्वदव्वा एगगंधा एगवण्णा एगरसा दुफामा पन्नत्ता, अत्थेगइया मव्वव्वा अवन्ना जाव अफासा पन्नत्ता, एवं सवपएसावि, सव्वपजवावि, तीयद्धा अवन्ना जाव अफासा पण्णत्ता, एवं अणागयद्धावि, एवं सम्बद्धावि ॥ (सूत्रं ४५०)
[प्र.] हे भगवन् ! मनुष्यो वे टला वर्णवाळा कह्या छ ?-इत्यादि. [उ०] औदारिक, वैक्रिय, आहारक अने तैजस पुद्गलोनी अपेक्षाए पांच वर्णवाळा यावत-आठ स्पर्शवाळा कह्या के, कार्मणपुद्गल अने जीवनी अपेक्षाए नैरयिकोनी पेठे (स. १३.) जाणवा. जेम नैरयिको कह्या तेम वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिको कहेवा. धर्मास्तिकाय अने यावत्-पुद्गलास्तिकाय-ए बधा वर्णरहित
+
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छे, यावत् स्पर्शरहित छे; पण विशेप ए छे के, पुद्गलास्तिकाय पांच वर्णवाळो पांच रसाळो, वे गंधवाळी अने आठ स्पर्शवाळो व्याख्या होय छे. १ ज्ञानावरणीय, यावद्-८ अंतरायकर्म-ए बधां चार स्पर्शवाळां . [प्र.] हे भगवन् ! कृष्णालेश्या केटला वर्णवाली
४।१२शतके प्रज्ञप्तिः छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! द्रव्यलेश्यानी अपेक्षाए पांच वर्णवाळी, यावद्-आठ स्पर्शवाळी कही छे अने भावलेश्यानी
| उद्देशः५ ॥१०७९॥
2॥१०७९॥ अपेक्षाए वर्णादिरहित छे. ए प्रमाणे यावत्-शुक्ललेश्या सुधी जाणवू. १ सम्यग्दृष्टि, २ मिथ्यादृष्टि ३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४-७ चक्षुदर्शन वगेरे चार दर्शन. ८-१२ आमिनिबोधिक (मतिज्ञान) वगेरे पांच ज्ञान, यावद्-विभंगज्ञान, आहारसंज्ञा, यावत्-परिग्रहसंज्ञा-ए वां वर्णादिरहित छे. औदारिक शरीर, यावत् तैजस शरीर-ए वां-आठ स्पर्शवाला छे. कार्मणशरीर, मनयोग अने वच नयोग चार स्पर्शवाला छे, काययोग आठ स्पर्शवाळो के. साकारोपयोग अने अनाकारोपयोग-ए बन्ने वर्णादिरहित छे. [प्र.] हे भगवन् ! बधां द्रव्यो केटला वर्णवाला छे ?-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! सर्व द्रव्योमांना केटलाक पांच वर्णवाळां, यावद् -
आठ स्पर्शवाळां छे, अने केटलाक पांच वर्णवाला अने चार स्पर्शवाळ . तथा सर्व द्रव्योमांना केटलाक एक वर्णवाळां, एक दगंधवाळां, एक रसवाळां अने बे स्पर्शवाळां के, वळी सर्व द्रव्योमांना केटलाक वर्णरहित, यावद्-स्पर्शरहित छे, ए प्रमाणे सर्व प्रदेशो, *सर्व पर्यायो अने अतीतकाळ पण वर्णरहित, यावत् स्पर्शरहित कह्या छे. ए प्रमाणे भविष्यकाळ अने सर्वकाळ पण जाणवो.।।४५०॥
जीवे ण भंते ! गम्भं वक्कममाणे कतिवन्नं कतिगंधं कतिरसं कतिफासं परिणाम परिणमही, गोयमा! पंचवन्नं | पंचरसं दुगंधं अट्ठफासं परिणाम परिणमइ ॥ (सूत्रं ४५१)
[प्र.] हे भगवन् ! गर्भमा उत्पन्न थतो जीव केटला वर्णवाळा, केटला गंधवाळा, केटला रसवाळा अने केटला स्पर्शवाळा
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व्याख्या-1 प्रज्ञप्तिः ॥१०८०॥
१२वतके | उद्देश:५ १०८०॥
परिणामवडे परिणमे ? [उ०] हे गौतम ! ते पांच वर्णवाळा, पांच रसवाळा, वे गंधवाळा अने आठ स्पर्शवाळा परिणामवडे परिणमे. ॥ ४५१॥ | कम्मओ ण भंते ! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह, कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह, हंना गोयमा! कम्मओ णं तं चेव जाव परिणमइ, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह, सेवं
भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्र ४५२) ॥१२-५ । | [प्र०] हे भगवन ! जीव कर्मवडे विविधरूपे-मनुष्य-तिर्यचादि अनेकरूपे-परिणमे छे ? कर्म शिवाय विविधरूपे परिणमतो नथी तथा जगत् कर्मवडे विविधरूपे परिणमे छे ? कर्म विना परिणमतुं नथी? [उ.] हा गौतम! कर्मथी जीव अने जगत्-- जीवनो समूह विविधरूपे परिणमे छे, कर्म विना परिणमतुं नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज '-एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे. ॥ ४५३ ॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १२ मा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
NSARKARI
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥१०८१॥
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उद्देशक ६.
रायगिहे जाव एवं वयासी बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेड़ एवं खलु राहू चंद गण्हति एवं २, से कहमेय भंते! एवं १, गोयमा ! जन्नं से बहुजणे णं अन्नमन्नस्स जाव मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि एवं खलु राहू देवे महिड्डीए जाव महेसक्खे बरबन्धरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स नव नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा - सिंघाडए १ जडिलए २ खंभए [ खेत्तए ] ३ खरए ४ ददुरे ५ मगरे ६ मच्छे ७ कच्छ भे ८ कण्हसप्पे ९, राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवन्ना पण्णत्ता, तंजहा - किन्हा नीला लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला, अस्थि कालए राहुविमाणे खंजणवन्नाभे पण्णत्ते, अस्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवन्नाभे प०, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिवन्नाभे पं०, अस्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवन्नाभे पन्नत्ते, अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासिवन्नाभे पन्नत्ते ॥ जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पुरच्छिमेणं आवरेत्ता णं पञ्चच्छ्रिमेण वीतीवयह तदा णं पुरच्छिमणं चंदे उवदंसेति पञ्चच्छिमेणं राहू, जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पञ्चच्छिमेणं आवरेत्ताणं पुरच्छिमेणं वीतीवयति तदा णं पञ्चच्छिमेणं चंदे उवदंसेति पुरच्छिमेणं राहू, एवं जहा पुरच्छिमेणं पञ्चच्छिमेणं दो आलावगा भणिया एवं दाहिणेणं उत्तरेण
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१२ शतके उद्देशः ६ ॥१०८१॥
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१२शतके
उद्देशः ६. १०८२॥
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य दो आलावगा भा०, एवं उत्तरपुरच्छिमेण दाहिणपञ्चच्छिमेण य दो आलायगा भा०, दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तव्याख्या-18|रपुरच्छिमेण दो आलावगा भा० एवं चेव जाव तदा णं उत्तरपञ्चच्छिमे णं चंदे उवदंसेति दाहिणपुरच्छिमेणं प्रज्ञप्तिः
राहू, जदा ण राह आगच्छमाणे वा गच्छमाणे विउव. परियारेमाणे चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति तदा ॥१०८२॥
णं मणुस्मलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु राहू चंद गे० एवं०, जदा णं राह आगच्छमाणे वा ४ चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पासेणं वीइवयइ तदा णं मणुस्मलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु चंदेणं राहस्म कुच्छी भिन्ना एवं०, जदा णं राह आगच्छमाणे वा ४ चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पच्चोसकइ तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं ग्वस्लु राहुणा चंदे वंते एवं , जदा णं राहू आगच्छमाणे वा ४ जाव परियारेमाण वा चंदस्स लेस्स अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ताणं चिट्ठति तदा णं मणुस्मलोए मणुस्सा वदति-एवं ग्वल राहुणा चंदे घत्थे, एवं ॥
[प्र०] राजगृह नगरमा ( भगवान् गौतम) यावद्-आ प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! घणा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-ए प्रमाणे प्ररूपेठे क 'ए प्रमाणे खरेखर राहु चंद्रने ग्रसे छे, ए प्रमाणे खरेखर राहु चंद्रने ग्रसे' हे भगवन् ! एवी रीते वे म होय ?[उ.] हे गौतम! बहु माणसो परस्पर जे कहे छे ते यावत् ए प्रमाणे मिथ्या-असत्य कहे . हे गौतम! हुं तो आ प्रमाणे
कहुं छु, यावद् आ प्रमाणे प्ररूपुं छु-ए प्रमाणे खरेखर गहु महर्धिक (महाऋद्धिवाळो) यावद्-महासुखवाळो, उत्तम वस्त्रो, उत्तम *माला, उत्तम मुगंध अने उत्तम आभूषण धारण करनार देव है, ते राहुदेवना नव नामो कह्या छ, ते आ प्रमाणे-१ शंगाटक, २
जटिलक, ३ क्षत्रक. ४ खर, ५ दर्दुर, ६ मकर, ८ मत्स्य, ८ कच्छप अने ९ कृष्णसर्प. ते राहुदेवना विमानो पांच वर्णवाळा कह्या
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१०८३ ॥
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छे, ते आ प्रमाणे- १ काळा, नीला (लीला), ३ लाल, ४ पीळा अने २ शुक्ल. तेमां राहुनुं जे काळं विमान छे ते खंजन-काज - ळना जेवा] वर्णवाळु छे, जे नील (लीलं) विमान छे ते काचा तुंबडाना वर्ण जेवं छे, जे लाल वर्णनुं राहुनु विमान हे ते मजिठना वर्ण जेवुं हे, जे पी राहुनुं विमान छे ते हळदरना वर्ण जेतुं छे. अने जे धोकुं विमान छे ते राखना ढगलाना वर्ण जेवुं कछु के. ज्यारे आयतो के जतो, विकुर्वणा करतो के काम-क्रीडा करतो राहु पूर्वमा रहेला चंद्रना प्रकाशने आवरीने पश्चिम तरफ जाय त्यारे पूर्वमां चंद्र पोताने देखाडे हे, अर्थात् चन्द्र पूर्वमा देखाय हे, अने पश्चिममा राहु पोताने देखाडे हे, अर्थात् राहु पश्चिममां देखाय छे, ज्यारे आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के काम-क्रीडा करतो राहु पश्चिममां चंद्रना प्रकाशने आवरीने पूर्व तरफ जाय त्यारे पश्चिममां चंद्र पोताने देखाडे ले, अने पूर्वमां राहु पोताने देखाडे छे. ए प्रमाणे जेम पूर्व अने पश्चिमना वे आलापक कह्या तेम दक्षिण अने उत्तरना वे आलापक कहेवा, ए प्रमाणे उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) अने दक्षिण-पश्चिमना (नैर्ऋत कोणना) वे आलापक कहेवा. ए प्रमाणे दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) अने उत्तर-पश्चिमना (वायव्य कोणना) वे आलापक कहेवा. ए रीते यावत्-त्यारे उत्तर पश्चिम (वायव्य कोण ) मां चन्द्र पोताने देखाडे थे, अने दक्षिण-पूर्वमा ( अग्निकोणमां ) राहु पोताने देखाडे छे. बळी ज्यारे आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के कामक्रीडा करतो राहु चंद्रनी ज्योत्स्नानुं आवरण करतो २ स्थिति करे, त्यारे मनुष्यलोकमां मनुष्यो कहे छे के, ए प्रमाणे खरेखर राहु चंद्रने ग्रसे छे.' ए प्रमाणे ज्यारे राहु आत्रतो के जतो, विकुर्वणा करतो के कामक्रीडा करतो चंद्रमा प्रकाशने आवरीने पासे थइने जाय त्यारे मनुष्यलोकमां मनुष्यो कहे ले के– 'ए प्रमाणे खरेखर चंद्रे राहुनी कुक्षी मेदी' २, अर्थात् राहुनी कुक्षिमां प्रवेश कर्यो. ए प्रमाणे आवतो के जतो, विकुर्वणा करतो के कामक्रीडा करतो राहु ज्यारे चंद्रनी
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१२ शतके उद्देशः ६ ||१०८३॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०८४ ॥
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लेश्याने ढांकीने पाछो वळे त्यारे मनुष्यलोकमां मनुष्यो कहे छे के, 'ए प्रमाणे खरेखर राहुए चंद्रने वम्यो.' वळी ए प्रमाणे ज्यारे राहु आवतो के यावत्- कामक्रीडा करतो चंद्रना प्रकाशने नीचेथी, चारे दिशाथी अने चारे विदिशाथी आबरीने ढांकीने रहे त्यारे मनुष्यलोकमा मनुष्यो कहे छे के 'ए प्रमाणे खरेखर राहुए चंद्रने ग्रस्यो. '
कतिविहे णं भंते! राहू पन्नत्ते ?, गोयमा ! दुविहे राहू पन्नत्ते ?, तंजहा-धुवराहू पञ्चराहू य, तत्थ णं जे से धुवराहू से णं बहुलपक्खस्स पाडिवए (ग्रन्थाग्रं८०००) पन्नरमतिभागेणं पन्नरसहभागं चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति, तंजहा- पढमाए पढमं भागं बितियाए वितियं भागं जाब पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं, चरिमममये चंदे रत्ते भवति, अवसेसे समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवति, तमेव सुकपक्ग्वस्स उवदंसेमाणे उव० २ चिट्ठति पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं, चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे समये चंदे रत्ते वा विरते वा भव, तस्थ णं जे से पव्वराहू से जहन्नेणं छण्हं मामाणं उक्कोसेणं बायालीमाए मासाणं चंदस्म, अडयालीसाए संवच्छरणं सूरस्म || ( सूत्रं ४५३ ) ॥
[प्र०] हे भगवन् ! राहु केटला प्रकारना कला छे ? [3] ] हे गौतम! राहु वे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे - ध्रुवराहु (नित्यराहु ) अने पर्वराहू. तेमां जे ध्रुवराहु छे ते कृष्णपक्षना पडवाधी मांडीने (प्रतिदिवस ) पोताना पन्नरमा भागवडे चन्द्रलेश्याचन्द्रबिम्बसम्बन्धी पन्नरमा भागने ढांकतो २ रहे छे, ते आ प्रमाणे- एकमने दिवसे प्रथम भागने ढांके छे, बीजना दिवसे बीजा भागने ढांके छे, ए प्रमाणे यावद्-अमावास्याने दिवसे चंद्रना पंदरमा भागने ढांके छे; अने कृष्णपक्षने छेल्ले समये चंद्र रक्त-सर्वथा
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१२ शतके
उद्देशः ६ १०८४ ॥
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॥१०८५॥
आच्छादित थाय छे अने बाकीना समये चंद्र रक्त-अंशथी आच्छादित अने विरक्त-अंशथी अनाच्छादित होय छे. शुक्लपक्षना प्रति-|| व्याख्या पदथी आरंभी (प्रतिदिवस) तेज चंद्रनी लेश्याना पंदरमा भागने देखाडतो ३ रहे है. ते आ प्रमाणे-पडवाने विषे पहेला भागने १२शतके प्रज्ञप्तिः पडू देखाडे छे, यावत् पूर्णिमाने विषे पंदरमा भागने देखाडे ले, शुक्लपक्षना छेवटना समये चन्द्र विरक्त-राहुथी सर्वथा मुक्त होय के उद्देशः६
अने बाकीना समये चन्द्र रक्त-आच्छादित अने विरक्त अनाच्छादित होय छे. तेमा जे पर्वराहु छे ते ओछामा ओछा छ मासे १०८५॥ (चंद्रने के सूर्यने) ढांके छे. अने वधारेमांवधारे बेताळीश मासे चंद्रने अने वधारेमां वधारे अडताळीश वरसे मूर्यने ढांके छे.॥४५३॥ ४ा से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-चंदे ससी २१, गोयमा! चंदस्म णं जोइसिंदस्स जोइसरन्नो मियंके विमाणे *कंता देवी कंताओ देवीओ कंताई आमणसयणखंभभंडमत्तोवगरणाई अप्पणोऽवि य णं चंदे जोइसिंदे जोइमराया
सोमे कंते सुभए पियदसणे सुरूवे से तेण?ण जाव ससी ॥ ( सूत्रं ४५४ )। हा [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी चन्द्रने 'ससी' सश्री-ए प्रमाणे कहेवाय छे ? [उ०) हे गौतम ! ज्योतिष्कना इंद्र अने ज्योति
कना राजा चंद्रना मृगांक (मृगना चिह्नवाळा) विमानमा मनोहर देवो, मनोहर देवीओ, मनोहर आसन, शयन, स्तंभ तथा सुंदर पात्र वगेरे उपकरणो छ, तथा ज्योतिष्कनो राजा अने ज्योतिषिक इंद्र चंद्र पोते पण सौम्य, कांत, सुभग, प्रियदर्शन अने मुरूप छे, ते माटे चंद्र ससी-सश्री-शोभासहित कहेवाय छे. ॥ ४५४ ।।
से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सूरे० आइच्चे सूरे २१, गोयमा! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाह वा जाव उस्सप्पिणीइ वा अवमप्पिणीइ वा से तेणद्वेण जाव आइच्चे०२॥ (सूत्रं ४५५)॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०८६॥
ASIES
[प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी सूर्यने आदित्य (आदिमां थयेलो) एम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! समयो, आवलिकाओ, यावत्-उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओना आदिभूत कारण सूर्य छे, माटे आदित्य-आदिमां थनार कहेवाय छे. (अर्थात् अहोरा
₹१२वतके
उद्देश: त्रादिक कालना समय-आवलिका अने मुहूर्तादि भेदो सूर्यनी अपेक्षाए थाय छे, माटे सूर्यने अहोरात्रादि कालनो आदिभूत होवाथी
१०८६॥ आदित्य कहेवाय छे.) ॥ ४५५।।
चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गहिसीओ पण्णत्ताओ जहा दसमसा जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्सवि तहेव । चंदमसूरिया णं भंते ! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पञ्चणुब्भबमाणा विहरंति?, गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थे पढमजोव्वणुट्ठाणबलट्ठाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकजे अत्थगवेसणयाए सोलसवामविप्पवासिए से णं तओ लद्धट्टे कयकजे अणहसमग्गे पुणरवि नियगगिहं हव्वमागए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायपिछत्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुन्नं थालिपागमुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयग भुत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि वन्नओ महब्बले कुमारे जाब सयणोवयारक लिए ताप तारिसियाए भारियाए सिंगारागारचारुवेमाए जाव कलियाए अणुरत्ताए अविरताए मणाणुकूलाए सद्धिं इढे सद्दे फरिसे जाव पंचविहे माणुस्मए कामभोगे पचणुब्भवमाणे विहरति, सेणं गोयमा ! पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिस सायासोक्ख पञ्चणुब्भवमाणो विहरति ?, ओरालं समणाउसो तस्स ण गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं अणतगुणविसिट्टत्तराए चेव कामभोगा, वाणमं
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१२शतके
व्याख्या प्रज्ञप्तिः
॥१०८७॥
॥१०८७॥
FASEASISHA
तराणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिद्वत्तराए चेव कामभोगा, असुरिंददजियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरकुमाराण देवाणं एत्तो अणंतगुणविमिट्टत्तराए चेव कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहिंतो गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो अनंतगुणविसिट्टत्तराए चेव काम भोगा,गहणनक्खत्तजाव कामभोगेहिंतो चंदिमसूरियाण जोतिसियाण जोतिसराईणं एत्तो अणंतगुणविसियरा चेव कामभोगा, चंदिमसूरियाणं गोयमा! जोतिर्मिदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे पञ्चणुम्भवमाणा विहरंति । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे ममणं भगवं महावीरं जाव विहरड ( सूत्रं ४.६)॥१२-६ ।।
प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिपिकना इंद्र अने ज्योतिषिकना राजा चंद्रने केटली पट्टराणीओ कही छ ? [उ.] हे गौतम ! जेम दशम शतकमा कांछे तेम अहीं जाणवू, यावत्-( पोतानी राजधानीमा सिंहासन विषे जिनना अस्थिओनु संनिधान होवाथी) 'भैथुन निमित्ते देवीओ साथे भोग भोगववा समर्थ नथी' त्यांसुधी जाणवू, तथा पूर्य संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिष्कना इंद्र अने राजा, चंद्र अने सूर्य केवा प्रकारना कामभोगोने भोगवता विहरे छे? [उ.] जेम प्रथम युवावस्थाना प्रारंभमां बलवान् कोइ एक पुरुषे प्रथम उगती युवावस्थामां बळवाळी भार्या साथे ताजोज विवाह कर्यो, अने पछी ते धन मेळववा माटे सोळ वरस सुधी परदेश गयो, अने ते धनने मेळवी कार्य समाप्त करी समस्त विनरहितपणे पालो पोताने घेर तुरत आव्यो, | स्नान करी, बलिकर्म-पूजा करी, कौतुक अने मंगलरूप प्रायश्चित्त करी तथा सर्वालंकारथी विभूषित थई मनोज्ञ, अने स्थालीमा पाक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०८८॥
१२वतके उद्देशः ६, १०८८॥
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Acharya Shri करवावडे शुद्ध तथा अढार प्रकारना व्यंजन-शाका दिथी युक्त भोजन कर्या बाद महाबल उद्देशकमां वासगृहनुं वर्णन कयु छ तेवा प्रकारना शयनोपचार युक्त यावत्-तेवा प्रकारनी उत्तम शृंगारना गृहरूप सुंदर वेषवाळी, यावत्-कलित-कलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्त रागयुक्त, अने मनने अनुकूल एवी स्त्री साथे इष्ट शब्द, स्पर्श यावत्-पांच प्रकारना मनुष्य संबंधी कामभोगोने भोगवतो विहरे छे, हे गौतम ! हवे ते पुरुष वेदोपशमनना-विकार शांतिना-समये केवा प्रकारना सुखने भोगवे ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ते पुरुष उदार सुखने अनुभवे. हे गौतम! ते पुरुषना कामभोग करतां वानव्यंतर देवोने अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो होय छे. वानव्यंतर देवोना कामभोगोथी असुरेन्द्र सिवायना भवनवासी देवोने अनन्तगुण विशिष्टतर कामभोगो होय छे, असुरेन्द्र सिवाय भवनवासी देवोना कामभोगो करतां असुरकुमार देवोना कामभोगो जनंतगुण विशिष्टतर होय छे, असुरकुमार देवोना कामभोगो करतां अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो ज्योतिषिक देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओने होय छे. ज्योतिषिक देवरूप ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओना कामभोगो करतां अनंतगुण विशिष्टतर कामभोगो ज्योतिषिकना इन्द्र अने ज्योतिषिक देवोना राजा चन्द्र तथा सूर्यने होय छे. हे गौतम ! ज्योतिष्कना इन्द्र, अने ज्योतिष्कना राजा चंद्र अने सूर्य आवा प्रकारना कामभोगोने अनुभवता विहरे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही भगवान गौतम श्रमण भगवंत महावीरने (बांदी अने नमी) यावद् विहरे छे. ॥ ४५६॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १२ मा शतकमां छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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उद्देशक ७. व्याख्या
१२शतके प्रज्ञप्तिः तेणं कालेणं २ जाव एवं वयासी-केमहालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ?, गोयमा! महतिमहालए लोए पन्नत्ते, | उद्देशः७ ॥१०८९॥
पुरच्छिमेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओदाहिणेणं असंखिजाओ एवं चेव एवं पञ्चच्छिमेणवि एवं उत्तरेणवि 3॥१०८९॥ Pएवं उ९पि अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविश्वभेण ।।
[प्र०] ते काले-ते समये यावद्-(भगवान गौतम) आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो कह्यो के ? [उ०] | हे गौतम ! लोक अत्यन्त मोटो कह्यो छे ते पूर्व दिशाए असंख्य कोटाकोटी योजन छ, दक्षिण दिशाए ए प्रमाणे असंख्याता कोटाकोटी योजन छे, ए प्रमाणे पश्चिम दिशाए अने उत्तर दिशाए छे. तथा एज प्रमाणे अर्ध्व-उपर अने नीचे पण असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-लंबाइ अने विष्कंभ-विस्तारथी छे.
एयंसिणं भंते ! एमहालगंसि लोगंसि अस्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्तेवि पएसे जस्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वावि, गोयमा! नो इण? समढे, से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ एयंसि णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाएवा न मए वावि?, गोयमा ! से जहानामए-केह पुरिसे | अयासयस्स एगं महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कीसेणं अयासहस्सं पक्खिवेजा ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ जहन्नेणं एगाहं वा बियाहं वा तियाहं उक्कोसेणं
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डा१खतके
व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१०९०॥
उद्देश: १०९०॥
छम्मासे परिवसेना, अस्थि ण गोयमा ! तस्म अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्तेवि पएसे जे ण तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमेहिं वा सिंगेहिं वा खुरेहिं वा नहहिं वा अणाकंतपुब्वे भवइ ?, भगवं णो तिणढे समढे, होजावि णं गोयमा! तस्स अयावयस्म केई परमाणुपोग्गलमत्तवि पएसे जे ण तासिं अयाणं उच्चारेण वा जाव णहेहि वा अणाकंतपुब्वे णो चेव ण एयंसि एमहालगंसि लोगंसि लोगस्स य सासयं भावं समारस्मय अणादिभावं जीवस्स य णिच्च भावं कम्मबहुत्तं जम्मणमरणबाहुल्लं च पडुच्च नथि के परमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वावि, से तेण?णं तं चेव जाव मए नवावि ।। ( सूत्रं ५५७)॥
प्र०] हे भगवन् ! आ एवडा मोटा लोकमां एवो कोई परमाणुपुद्गलना जेटलो पण प्रदेश के के, ज्यां आ जीव उत्पन्न थयो न होय, अने मरण पाम्यो पण न होय ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ यथार्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के-'आ एवडा मोटा लोकमां एवो कोइ परमाणुपुद्गलमात्र पण प्रदेश नथी, के ज्यां आ जीव उत्पन्न थयो न होय अने मयों न होय' ? [उ०] हे गौतम! जेम कोइ एक पुरुष सो बकरीने माटे एक मोटो अजाब्रज-बकरीनो वाडो-करे, तथा तेमां ओछामां ओछी एक, बे के त्रण अने बधारेमां वधारे एक हजार बकरीओ नांखे, अने ते वाडामां घणुं पाणी अने घणुं गोचर-चरवार्नु स्थळ-होवाथी ते बकरीओ जघन्यथी एक दिवस, बे दिवस के त्रण दिवस अने उत्कृष्टथी छ मास सुधी रहे, तो हे गौतम ! ते वाडानो एवो कोइ परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश होय के जे ते बकरीओनी लिंडिओथी, मूत्रथी, श्लेष्मथी, नाकनां मळथी, वमनथी,
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥१०९१॥
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पित्तथी, शुक्रथी, लोहिथी, चामडाथी, रोमथी, शिंगडाथी, खरीथी अने नखथी पूर्वे स्पर्श न करायेलो होय ? (हे भगवन् !) ए अर्थ यथार्थ नथी. हे गौतम! कदाच कोड एक परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश होय के जे ते बकरीओनी लींडीओथी, यावत् नखोथी पूर्वे स्पर्श न करायेलो होय. तो पण आ एवडा मोटा लोकमां लोकना शाश्वत भावने लड्ने, संसारना अनादिपणाने लीधे, जीवना नित्य भावने आश्रयी, अने कर्मनी बहुलताने अने जन्म तथा मरणनी बहुलताने अपेक्षी एवो कोड़ परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश नथी के ज्यां आ | जीव न जन्म्यो होय के न मर्यो होय. माटे हे गौतम! ते हेतुथी पूर्वोक्त यावत्- 'ते मर्यो न होय. ' ॥ ४५७ ॥
कति णं भंते! पुढबीओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! मत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ जहा पढमसए पंचम उद्देसए तहेव आवामा ठावेन्वा जाव अणुत्तरविमाणेत्ति जाव अपराजिए सब्वट्टसिद्धे । अयन्नं भंते ! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाय वणस्सइकाइयत्ताए नरगत्ताए नेरइयत्ताए उबवन्नपुब्वे १, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणतखुत्तो, सव्वजीवाविणं भंते । इमीसे रयणध्यभाए पुढवीए तीसाए णिरया० तं चैव जाव अनंतखुत्तो । अयन्नं भंते ! जीवे सक्करप्पभry पुढबीए पणवीसाए एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावगा भाणियव्वा, एवं जाव धूमध्पभाए । अयनं भंते! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयस हस्से एगमेगंसि सेसं तं चेव, अयन्नं भंते ! जीवे असत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएस एगमेगंसि निरयावासंसि सेसं जहा रयणष्पभाए,
[प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीओ केटली कही के ? [ उ० ] हे गौतम! सात पृथिवीओ कही छे, अहीं प्रथम शतकना पंचम उद्दे
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उद्देशः ७ ॥१०९१॥
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tegarsuri Gyanmance १२वतके उद्देश ७ १०९२॥
Acharya Shri शकमां कह्या प्रमाणे नरकादिना आवासो कहेवा, ए प्रमाणे यावत्-अनुत्तरविमान, यावत्-अपराजित अने सर्वार्थसिद्ध सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमा अने तेना त्रीश लाख नरकावासोमांना एक एक नरकावासमां पृथ्वीकायिक | पणे, यावद्-वनस्पतिकायिकपणे, नरकपणे, नरयिकपणे, पूर्व उत्पन्न थएलो के ? [उ०] हा, गौतम ! अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थयेलो छे. [प्र.] हे भगवन् ! सर्व जीवो पण आ रत्नप्रभा पृथिवीमां अने तेना त्रीस लाख नरकावासमांना (एक एक नरकावासमां पृथिवीकायिकपणे, यावद्-वनस्पतिकायिकपणे यावत्-पूर्वे उत्पन्न थएला छे ? [उ.] पूर्वे कह्या प्रमाणे त्यां अनेकवार अथवा) यावत्-अनंतबार पूर्व उत्पन्न थएला . [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव शर्कराप्रभाना पचीस लाख नरकावासमांना एक एक नरकावासमां पृथिवीकायिकपणे यावत्-पूर्व उत्पन्न थएलो वे ? [उ०] जेम रत्नप्रभाना बे आलापक कह्या तेम शर्कराप्रभाना पण (एक जीव अने सर्व जीव आश्रयी) बे आलापक कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-धूमप्रभा सुधी आलापक कहेवा. __ अयन्नं भंते ! जीवे चोसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि पुढ विकाइयत्ताए जाव वणस्मइकाइयत्ताए देवत्ताए देवीत्ताए आमणसयणभंडमत्तोवगरणत्ताए उववन्नपुब्वे?, हंता गोयमा! जाव अणंतखुत्तो, सव्वजीवावि णं भंते ! एवं चेव, पवं जाव धणियकुमारेसु, नाणत्तं आवासेसु, आवासा पुब्वभणिया, अयन्नं भंते ! जीवे असंखेजसु पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वण. उववन्नपुब्वे ?. हंता गोयमा! जाव अणतखुत्तो, एवं सव्वजीवाबि, एवं जाव वणस्मइकाइएसु, अयणं भंते ! जीवे असंखेजेसु बेंदियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि बेंदियावामंसि पुढ विकाइयत्ताए जाव वणस्मइकाइयत्ताए
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१२शतके
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०९३॥
ऊनाना
बेइंदियत्ताए उववन्नपुब्वे ?, हंता गोयमा! जाव खुत्तो, सव्वजीवावि णं एवं चेव, एवं जाव मणुस्सेसु, नवरं तेंदि. यएसु जाव वणस्सइकाइयत्ताए तेंदियत्ताए चउरिदिएसु चउरिदियत्ताए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिंदियति
उद्देशः७ रिक्खजोणियत्ताए मणुस्सेसु मणुस्सत्ताए सेस जहा दियाणं, वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणेसु य जहा असु
2॥१०९३॥ | रकुमाराण, अयणं भंते! जीवे सणकुमारे कप्पे वारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगसि विमाणियावासंसि पुढ विकाइयत्ताए सेमं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो, नो चेव णं देवीत्ताए, एवं सव्वजीवावि, एवं जाव आणयपाणएसु, एवं आरणचुपसुवि, अयन्नं भंते ! जीवे तिसुवि अट्ठारसुत्तरेसु गेविजविमाणावाससयेसु एवं चेव,
[प्र०] हे भगवन् ! आ जीव तमापृथिवीमांना पांच न्यून एक लाख निरयावासमांना एक एक नरकावासमां (पृथिवीकायिकपणे यावत्-वनस्पतिकायिकपणे पूर्व उत्पन्न थएलो छे ?) [उ.] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव अधःस-1* सम नरकपृथिवीना पांच अनुत्तर अने अत्यन्त म्होटा नरकावासोमांना एक एक नरकावासमा पूर्व उत्पन्न थयो छे ? [उ.] बाकी |बधुं रत्नप्रभानी पेठे जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव असुरकुमारोना चोसठ लाख असुरकुमारावासोमांना एक एक असुरकुमारावासमां पृथिवीकायिकपणे, यावत्-वनस्पतिकायिकपणे, देवपणे, देवीपणे, आसन, शयन अने पात्र वगेरे उपकरणपणे पूर्व उत्पन्न थयेलो छ ? [उ०] हा, गौतम ! यावद्-अनंतवार उत्पन्न थएलो छे. सर्व जीवो ए प्रमाणे जाणवा. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो' सुधी जाणवं, परन्तु तेओना आवासोनी संख्यामां भेद छे, अने ए आवासो पूर्वे कहेला छे. [प्र०) हे भगवन् ! आ जीव असंख्याता लाख पृथिवीकायिकावासमांना एक एक पृथिवीकायिकावासमां पृथिवीकायिकपणे यावद्-वनस्पतिकायिकपणे पूर्व उत्पन्न थयो के ?
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥१०९४ ॥
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[अ०] हा, गौतम ! यावत्-अनंतवार उत्पन्न थलो ; ए प्रमाणे सर्व जीवो पण जाणवा. ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिकोमां पण जाणवु. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव असंख्याता लाख वे इंद्रियावासमांना एक एक बेइंद्रियावासमां पृथिवीकायिकपणे, यावत्वनस्पतिकायिकपणे अने वेइंद्रियपणे पूर्वे उत्पन्न थयेलो छे ? [ उ० ] हा, गौतम ! त्यां यावद्-अनंतवार उत्पन्न थलो छे. सर्व जीवो पण ए प्रमाणे जाणवा, ए प्रमाणे यावद्-मनुष्योमां जाणवुं. परन्तु विशेष एछे के, ते इंद्रियोमां यावद्-वनस्पतिकायिकपणे, यावत् तेइंद्रियपणे ; चउरिंद्रियोमां चउरिंद्रियपणे, पंचेंद्रिय तिर्यचयोनिकोमां पंचेंद्रिय तिर्यच योनिकपणे, अने मनुष्योमां मनुष्यपणे उत्पत्ति जाणवी. बाकी. बधुं बेइंद्रियोनी पेठे जाणवं. जेम असुरकुमारो संबंधे कद्दु तेम वानव्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म अने ईशानमां पण जाणवुं . [ प्र० ] हे भगवन् ! आ जीव सनत्कुमार कल्पमां तेना बार लाख विमानावासमांना एक एक वैमानिकावासमां पृथिवी कायपणे, यावत्- पूर्वे उत्पन्न थयलो छे ? [उ०] बाकीनुं बधुं असुरकुमारोनी पेठे (मू० () यावद्- 'अनंतवार उत्पन्न थलो छे' त्यां सुधी जाणवुं. पण त्यां देवीपणे उत्पन्न थयो नथी. ९ प्रमाणे सर्व जीवो संबंन्धे पण जाणवु. ए प्रमाणे यावत्-आनत अने प्राणतमां तथा आरण-अच्युतमां पण जाणवुं. [प्र० ] हे भगवन् ! आ जीव त्रणसोने अठार वैवेयक विमानावासमांना एक एक आवासमां पृथिवीकायिकपणे, यावद् - पूर्वे उत्पन्न थयेलो के ? [ उ० ] ए प्रमाणे जाणवुं. ( यावत् - अनंतचार उत्पन्न थलो हे.)
अयन्नं भंते! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढवि तहेव जाव अनंतखुत्तो, नो चेवणं देवत्ताए वा देव त्ताए वा एवं मन्वजीवावि । अयां भंते! जीवे सब्वजीवाणं माहत्तार पिइत्ताए भाइत्ताए भगिणित्ताए भज्जत्ताएं पुत्तत्ताए धूयत्ताए सुन्हत्ताए उववन्नपुब्वे १, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणं
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१२ शतके उद्देशः ७ ||१०९४ ॥
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Gउद्देशः ७
तखुत्तो, सब्बजीवावि णं भंते ! इमस्स जीवस्म माइत्ताए जाव उववन्नपुब्वे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। व्याख्या- अयण्णं भंते ! जीवे सब्वजीवाणं अरित्ताए वेरियत्ताए घायकत्ताए वहगत्ताए पडिणीयत्ताए पञ्चामित्तत्ताए
31१२वतके प्राप्तिः
उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो, सव्वजीवावि णं भंते ! एवं चेव, अयन्नं भंते ! जीवे सव्वजी॥१०९५॥
॥१०९५॥ वाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए जाव सत्यवाहत्ताए उववन्नपुब्वे ?, हंता गोयमा ! असतिं जाव अणंतखुत्तो, सब्व. जीवाणं एवं चेव । अयन्नं भंते ! जीवे सब्वजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भाइलगत्ताए भोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए वेसत्ताए उववन्नपुब्वे ?, हंता गोयमा! जाव अणंतखुत्तो, एवं सब्यजीवावि अणंतखुत्तो । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाब विहरह ।। (सूत्रं ४५८) १२-७॥
[प्र०] हे भगवन ! आ जीव पांच अनुत्तर विमानोमांना एक एक अनुत्तर विमानमां पृथिवीकायिकपणे, (यावत्-पूर्व उत्पन्न थएलो के ?) [उ०] ते प्रमाणे यावद्-अनंतवार उत्पन्न थएलो छे, पण देवपणे अने देवीपणे उत्पन्न थयो नथी. ए प्रमाणे सर्व जीवो पण जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना मातापणे, पितापणे, भाईपणे, बहेनपणे, स्त्रीपणे, पुत्रपणे पुत्री अने पुत्रवधूपणे पूर्व उत्पन्न थएलो छ ? [उ०] हा, गौतम ! अनेकवार, अथवा अनंतवार उत्पन्न थयेलो छे. [प्र०] हे भगवन् ! सर्व
जीवो पण आ जीवना मातापणे, यावत्-पूर्वे उत्पन्न थएला छे ? (उ०) हा गौतम ! यावद्-अनेकवार अथवा अनंतवार उत्पन्न थया &के. (प्र०) हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना शत्रुपणे, वैरिपणे, घातकपणे, वधकपणे, प्रत्यनीकपणे अने शत्रुना मित्रपणे पूर्व उत्पन्न
थएलो छ ? (उ०) हा, गौतम! यावद्-अनंतवार उत्पन्न थयो छे. (प्र०) हे भगवन् ! बधाय जीवो ( आ जीवना वैरिपणे यावत्
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥१०९६
१२शतके उद्देश: १०९६॥
www.kobatirth.org पूर्वे उत्पन्न थएला छ ?) (उ०) ए प्रमाणे जाणवू. (प्र०) हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना राजातरीके, युवराजतरीके यावत्सार्थबहतरीके पूर्व उत्पन्न थएलो छ ? (उ०) हा गौतम ! अनेकवार अथवा अनंतवार उत्पन्न थयो छे. ए प्रमाणे सर्व जीवो संबंधे पण जाण. (प्र०) हे भगवन् ! आ जीव सर्व जीवोना दासपणे प्रेष्य-चाकरपणे, भृतकपणे भागीदारपणे भोगपुरुषपणे (बीजाए उपार्जेला धननो भोग करनारपणे), शिष्यपणे, अने शत्रुपणे पूर्व उत्पन्न थएलो छ ? (उ०) हा गौतम ! यावत्-अनंतवार उत्पन्न थयो छे, ए प्रमाणे सर्व जीवो पण यावद् अनंतवार उत्पन्न थया छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.'-एम कही यावद्-विहरे छे. ॥ ४५८ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १२ मा शतकमां सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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1510
उद्देशक ८ तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-देवे णं भंते ! महड्डीए जाव महेमक्खे अणंतरं चयं चहत्ता बिसरीरेषु नागेसु उववजेजा?, हंना गोयमा ! उववजेजा, से णं तत्थ अच्चियवंदियपूहयसकारियसम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे यावि भवेजा?, हंता भवेजा।से णं भंते! तओहिंतो अणंतरं उध्वहित्ता सिज्झेजा बुज्झेजा जाव अंतं करेजा ?, हंता सिज्झिज्जा जाव अंतं करेजा, देवे णं भंते ! महड्डीए एवं चेव जाव बिसरीरेसु मणीसु उववजेजा, एवं चेव जहा नागाणं। देवे णं भंते ! महड्डीस जाव विसरीरेसु रुक्खेसु उववजेज्जा?,
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१२शतके उद्देशः८ ॥१०९७॥
&ाहता उववजेजा, एवं चेव, नवरं इमं नाणत्तं जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भवेजा?, हंता व्याख्या
भवेजा, सेसं तं चेव जाव अंतं करेजा ॥ (सूत्रं ४५९)॥ प्रज्ञप्तिः
[प्र०] ते काले, ते समये, (भगवान् गौतम) यावद्-आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! महाऋद्धिवाळो यावद्-महासुखवाळो ॥१०९७॥
देव च्यवीने-मरण पामीने तुरतज मात्र बे शरीरनेज धारण करनाग नागोमां, (सर्प अथवा हाथीमां) उत्पन्न थाय ? [उ०] हा गौतम ! उत्पन्न थाय. [प्र.] हे भगवन् ! त्यां ते नागनां जन्ममां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, प्रधान,
सत्य, सत्यावपातरूप (जेनी सेवा सफल छे एवो) ते संसारनो अन्त करे, अने पासे रहेला ( पूर्वना संबन्धी देवोए ) जेनुं प्रति-हार कर्म कर्य छे एवो थाय ? [उ.] हा थाय. [प्र.] ते त्यांथी मरण पामीने सिद्ध थाय, बुद्ध थाय, यावद् संसारनो अन्त करे?
[उ.] हा, सिद्ध थाय, यावद्-अन्त करे. [प्र०] हे भगवन् ! महधिक देव-ए प्रमाणे यावद्-वे शरीरवाळा मणिमा उत्पन्न थाय ? | [उ.] ए प्रमाणे नागनी पेठे जाणवु [प्र०] हे भगवन् ! महधिक यावद् -महासौख्यवाळो देव बे शरीरनेज धारण करनारा वृक्षोमां उत्पन्न था ? [उ.] हा, गौतम ! उत्पन्न थाय-इत्यादि पूर्व प्रमाणे जाणवं. परन्तु एटलो विशेष छे के 'जे वृक्षमा ते उत्पन्न थाय ते वृक्ष यावत्-समीपमा रहेला देवकृत प्रातिहार्यवाळु थाय, तथा (ते वृक्ष) छाणथी लीपेल अने खडीथी धोळेल होय, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु, यावद्-' ते संसारनो अन्त करे.' ॥ ४५९ ।।
अह भंते ! गोलंगूलवमभे कुक्कुडवसभे मंडुक्कवसभे गए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्पचक्खाणपोमहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीयंसि नर
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः । ११.९८॥
१वतके उद्देश: १०९८॥
गंसि नेरइयत्ताए उववजेज्जा?। समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववजमाणे उववन्नेत्ति वत्तव्वं सिया। अह भंते ! सीहे वग्घे जहा उस्मप्पिणीउद्दसए जाव परस्सरे एए णं निस्सीला एवं चेव जाव बत्तव्वं सिया, अह भंते ! ढंके कंके विलए मरगुए सिखीए, एएणं निस्सीला०, सेसं तं चेव जाव बत्तब्वं सिया।सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरह ।। (सूत्र ४६०) १२-८॥
[प्र०] हे भगवन् ! वानरवृषभ-मोटो वानर, मोटो कुकडो, अने मोटो देडको-ए बधा शीलरहित, व्रतरहित, गुणरहित, मर्यादारहित, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवासरहित मरणसमये काल करी आ रत्नप्रभा पृथिवीमा उत्कृष्टथी सागरोपमनी स्थितिवाळा नरकमां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय ? [उ.] श्रमण भगवंत महावीर कहे छे के ( हा नैरयिकरूपे उत्पन्न थाय, ) कारण के जे उपजतुं होय ते उत्पन्न थथु' एम कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! सिंह, वाघ-वगेरे अबसपिणी उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-परासर|ए बधा शीलरहित-इत्यादि यावत् (उ०) पूर्व प्रमाणे जाणवू. (प्र०) हे भगवन् ! कागडो, गीध, वीलक, देडको अने मोर-ए बधा शीलरहित-इत्यादि प्रश्न. (उ०) उत्तर पूर्ववत् जाणवू. हे भगवन् ! 'ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज '-एम कही यावद्विहरे छे. ।। ४६०॥
भगवत् सूधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १२ मा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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प्रज्ञप्तिः ॥१०९९॥
SAMSU
उद्देशक ९. कइविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ?, गोयमा! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा-भवियदव्वदेवा १ नरदेवा २18|
दाउद्देशः९ धम्मदेवा ३ देवाहिदेवा ४ भावदेवा ५, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ भवियदव्वदेवा भवियदव्वदेवा ?, गोयमा!
१०९९॥ जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्ससे वा देवेसु उववन्जित्तए से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ भविय. दव्वदेवा २, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चह नरदेवा नरदेवा ?, गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उप्पन्नस मत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहीपइणो समिद्धकोसा बत्तीसं रायवरसहस्साणुजायमग्गा सागरवरमेहलाहिवरणो मणुस्सिदा से तेणटेणं जाव नरदेवा २, से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ धम्मदेवा धम्मदेवा?, गोयमा! जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया जाव गुत्तभयारी से तेणटेणं जाव धम्मदेवा २, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ देवाधिदेवा देवाधिदेवा?, गोयमा! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन्ननाणदंसणधरा जाव सव्वदरिसी से तेणटेणं जाव देवाधिदेवा २, से केणटेणं भंते ! एवं वुचह-भावदेवा भावदेवा?, गोयमा! जे इमे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेति से तेणटेणं जाव भावदेवा (सूत्रं ४६१)॥
(प्र०) हे भगवन् ! देवो केटला प्रकारना कहा ? (उ०) हे गौतम ! देवो पांच प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-१ भव्यद्रव्यदेव, २ नरदेव, ३ धर्मदेव, ४ देवाधिदेव अने ५ भावदेव. (प्र०) हे भगवन ! ए प्रमाणे शा हेतुथी 'भव्यद्रव्यदेव' 'भव्य
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व्याख्या. प्रज्ञप्तिः ॥११००॥
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द्रव्यदेव'- एम कहो छो ? (उ०) हे गौतम ! जे पंचेद्रियतियैचयोनिक के मनुष्य देवोमां उत्पन्न थवाने भव्य - योग्य छे, ते माटे ते 'भव्यद्रव्यदेव' २ कड़ेवाय छे. (प्र०) हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी 'नरदेव' 'नरदेव' - एम कहो छो १ (उ०) हे गौतम ! जे आ राजाओ चार दिशाना अन्तना स्वामी चक्रवर्तीओ छे, जेने समस्त रत्नोमा प्रधान चक्ररत्न उत्पन्न थयुं छे एवा, नव निधिना स्वामिओ, समृद्ध भंडारवाळा, जेओनो मार्ग बत्रीसहजार राजाओवडे अनुसराय के एवा, महासागररूप उत्तम मेखलापर्यन्त पृथ्वीना पति अने मनुष्यना इंद्रो छे ते माटे 'नरदेवो' 'नरदेवो'- एम कहेवाय छे. (प्र०) हे भगवन् ! शा हेतुथी 'धर्मदेव' 'धर्मदेव'- एम कहो छो ? ( उ०) हे गौतम ! जे आ अनगार भगवंतो इर्यासमितिवाळा यावद्-गुप्त ब्रह्मचारी छे, माटे ते हेतुथी 'धर्मदेव' 'धर्मदेव' एम कहेवाय छे. (प्र०) हे भगवन् ! एम शा हेतुथी 'देवाधिदेव' 'देवाधिदेव' कहेवाय के १ (उ०) हे गौतम ! जे आ अरिहंत भगवंतो उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनारा यावद्- सर्वदर्शी छे, ते हेतुथी यावद् 'देवाधिदेव' 'देवाधिदेव' कहेवाय छे. (प्र०) हे भगवन्! शा हेतुथी 'भावदेव' 'भावदेव' कहेवाय ले १ (उ०) हे गौतम! जे आ भवनपतिओ वानव्यंतरो, ज्योतिष्को
वैमानिक देवो देवगति संबन्धी नाम अने गोत्र कर्मोने वेदे छे, ते माटे 'भावदेव' 'भावदेव' कहेवाय छे. ।। ४६१ ।।
भवियदव्वदेवा णं भंते! कओहिंतो उबवज्जंति ? किं नेरइएहिंतो उववज्जंति । तिरिक्ख० मणुस्स० देवेहिंतो उववज्वंति ?, गोयमा ! नेरइएहिंतो उववज्जंति तिरि० मणु० देवेहितोवि उबवजंति, भेदो जहा वर्षातीए सव्वेसु | उबवायव्वा जाव अणुत्तरोववाहयत्ति, नवरं असंखेज्जवासाउय अकम्म भूमग अंतरदीवगसव्वट्टसिद्धवजं जाव अपराजियदेवे हितोवि उववज्जति, णो सव्वट्टसिद्ध देवेहिंतो उववज्जं ति । नरदेवा णं भंते! कओहिंतो उववजंति ? किं
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१२ चक्के
उद्देशः ९ ॥११००॥
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व्याख्याप्राप्तिः ॥११०१॥
नेरतिए०१ पुच्छा, गोयमा! नेरतिएहिंतोवि उववजंति नो तिरिनो मणु देवेहिंतोवि उववजंति, जह नेरइएहितो उववज्जति किं रयणप्पभापुढ विनेरइएहिंतो उववजंति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएहिंतो उबवजति ?, गोयमा !
१२शतके रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववजंति नो सक्करजाव नो अहेसत्तमापुढ विनेरहपहिंतो उवव जंति, जइ देवेहिंतो
उद्देशः९ उबवजंति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववज्जति वाणमंतर. जोइसियल वेमाणियदेवेहिंतो उववजंति?, गोयमा!
2॥११०१॥ भवणवासि देवेहिंतोवि उवबजति वाणमंतर एवं सब्ददेवेसु उववाएयब्वा वकंतीभेदेणं जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति ।
[प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो क्याथी आचीने उत्पन्न थाय ? शु नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय, तिर्यचोथी आवीने | 81 उत्पन्न थाय, मनुष्योथी आवीने उत्पन्न थाय, के देवोथी आवीने उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! नैरयकोथी आवी उत्पन्न थाय, तिर्यचोथी, मनुष्योथी, अने देवोथी पण आवीने उत्पन्न थाय. अहीं व्युत्क्रान्ति पदमां कह्या प्रमाणे भेद-विशेषता कहेवी, अने तेओनी सर्वने विषे उत्पत्ति कहेवी, यावत्-अनुत्तरौपपातिक सुधी कहेवु, परन्तु विशेष ए छे के, असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा जीवो, अकर्मभूमिना जीवो, अंतरद्वीपना जीवो अने सर्वार्थसिद्ध वर्जिने यावद्-अपराजित देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे. पण सर्वार्थसिद्धना देवो उत्पन्न थता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! नरदेवो क्याथी आवीने उत्पन्न थाय ?-शुं नैरयिकोथी, तिर्यचोथी, मनुयोथी के देवोथी आवीने उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ नरयिको अने देवोथी आवीने उत्पन्न थाय छे, पण तिर्यच अने मनुष्योथी आवीने उत्पन्न थता नथी. [प्र०] जो तेओ नैरयिको आवीने उत्पन्न थाय तो शुरलप्रभाना नैरयिकोथी आवीने (नरदेवो) उत्पन्न थाय के यावद्-अधःसप्तम पृथ्वीना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ रत्नप्रभाना नैरयि
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व्याख्या प्रज्ञप्ति
१२शतके उद्देश: मा
कोथी आवीने उत्पन्न थाय, पण शर्कराप्रभाथी आवीने न उत्पन्न थाय, यावद्-अधःसप्तमपृथ्वीना नैरयिकोथी आवीने उत्पन्न न
थाय. [प्र०] जो तेओ देवोथी आवी ( नरदेवो ) उत्पन्न थाय तो शुं भवनवासी देवोथी आवी उत्पन्न थाय के वानव्यंतर, ज्यो लातिष्क अने वैमानिक देवोथी आवी उत्पन्न थाय? [उ०] हे गौतम! तेओ भवनवासी देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय, तथा वान
व्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक देवोथी पण आवी उत्पन्न थाय. ए प्रमाणे सर्व देवो संबन्धे व्युत्क्रांति पदमा कहेली विशेषतापूर्वक यावत् सर्वार्थसिद्ध मुधी उपपात कहेवो.
धम्मदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति किं नेरहए ? एवं वकंतीभेदेणं सब्वेसु उववाएयव्या जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति, नवरं तमा अहेसत्तमाए तेऊवाऊअसंखिजवामाउयअकम्मभूमगअंतरदीवगवजेसु, देवाधिदेवाणं भंते ! कतोहिंतो उववजंति ?, किं नेरहपहिंतो उववज्जति ? पुच्छा, गोयमा ! नेरहएहिंतो उववजति नो तिरि० नो मणु. देवहिंतोवि उववनंति, जइ नेरइएहिंनो एवं तिसु पुढवीसु उवयजति, सेमाओ खोडेयव्याओ, जह देवेहितो, वेमाणिएस सव्वेसु उववज्जति जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति, सेसा खोडेयव्वा, भावदेवा णं भंते ! कओहिंतो उबवज्जति ?, एवं जहा वकंतीए भवणवासीणं उयवाओ तहा भाणियव्वो ॥ (सूत्रं ४६२)॥
प्र०] हे भगवन् ! धर्मदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ? शु नैरयिकोथी, (तिय चोथी, मनुष्योथी के देवोथी आवी) उत्पन्न | थाय ? [उ०] ए प्रमाणे वधु व्युत्क्रांति पदमां कहेला भेद-विशेषवडे यावत्-सर्वार्थसिद्ध सुधी सर्वथकी उपपाद कहेवो, परन्तु विशेष ए के के, तमःप्रभा अने अधःसप्तमपृथ्वीथी, तथा तेजःकाय, वायुकाय, असंख्यवर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिजो, अकर्मभूमिजो
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अने अंतरद्वीपज मनुष्य तथा तिर्यचोथी आवी धर्मदेवो उत्पन्न न थाय. (अर्थात्-ए सिवाय बाकीना स्थानथी आवी धर्मदेव थाय.) व्याख्याप्रशतिः
[प्र.] हे भगवन् ! देवाधिदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय-शुं नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! १२शतके ॥११०३ नैरयिकोथी आवी उत्पन्न थाय छ, तिर्यच अने मनुष्योथी आवी उत्यन्न थता नथी. पण देवो थकी आवीने उत्पन्न थाय ने.[प्र.]
पाउद्देशः९ जो नैरयिकोथी आवी (देवाधिदेव) उत्पन्न थाय (तो शु रत्नप्रभाना नैरयिकथी आवी उत्पन्न थाय) इत्यादि प्रश्न. [उ.] ए प्रमाणे
2॥११०३॥ प्रथम त्रण पृथिवीथी आवी (देवाधिदेव) उत्पन्न थाय ले. बाकीनी पृथिवीओनो प्रतिषेध करवो. (प्र०) जो तेओ देवोथी आवी
उत्पन्न थाय तो शुं भवनपति वगेरेथी आवी उत्पन्न थाय ? (उ०) सर्व वैमानिक देवोथी, यावत्-सर्वाथसिद्धथी आवी उत्पन्न हाथाय. बाकीना देवोनो निषेध करवो. (प्र०) हे भगवन् ! भावदेवो क्याथी आवी उत्पन्न थाय ? (उ०) जेम व्युत्क्रांतिपदमां भवन| वासिओनो उपपात कह्यो के तेम अहीं कहेवो. ॥४६२ ॥
भवियदव्वदेवाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! जहन्नणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओबमाइं, नरदेवाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं सत्त वासमयाइं उक्कोसेणं चउरासीई पुव्वसयसहस्साई, धम्मदेवाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उन्कोसेणं देसूणा पुवकोडी, देवाधिदेवाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं बावत्तरि वासाई उक्कोसेण चउरासीइं पुवमयसहस्साई, भावदेवाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं दस वास सहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीस सगरोवमाई ।। (सूत्रं ४६३)॥
(प्र०) हे भगवन् भव्यद्रव्यदेवोनी केटला काळ सुधी स्थिति कही छे ? (उ०) हे गौतम ! तेओनी ओछामा ओछी अन्त
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*१वत का उद्देश & ११०१॥
मुहूर्त अने वधारेमां वधारे त्रण पल्योपमनी स्थिति कही हे. (प्र०) नरदेवो संबन्धे प्रश्न. (उ०) हे गौतम ! तेओनी जघन्य स्थिति व्याख्या
सातसो वर्षनी अने उत्कृष्ट चोराशीलाख पूर्वनी स्थिति कही है.(प्र०) हे भगवन् ! धर्मदेवो संबन्धे प्रश्न. (उ०) हे गौतम! तेओनी प्रज्ञप्तिः ॥११०४॥
जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तनी, अने उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटिनी कही के. (प्र०) देवाधिदेव संबन्धे प्रश्न. (उ०) तेओनी जघन्य स्थिति बहोंतर वर्षनी, अने उत्कृष्ट स्थिति चोराशीलाख पूर्वनी कही के. (प्र०) भावदेवोनी स्थिति संबन्धे प्रश्न. (उ०) तेओनी जघन्य स्थिति दशहजार वर्षनी, अने उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपमनी कही छे. ॥ ४६३ ॥
भवियदव्वदेवा णं भंते! किं एगत्तं पभू विउव्बित्तए पुहुत्तं पभू बिउब्वित्तए ?, गोयमा! एगत्तंपि पभू विउव्वित्तए पहुत्तंपि पभू विउवित्तए, एगत्तं विउव्यमाणे एगिं दियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा पुहुत्तं विउवमाणे अाएगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा, ताई संखेजाणि वा असंखेजाणि वा संबद्धवाणि वा असंबद्धाणि
वा सरिसाणि वा असरिमाणि वा विउव्वंति विउवित्ता तओ पच्छा अपणो अहिच्छियाई कजाई करेंति, एवं नरदवाचि, एवं धम्मदेवावि, देवाधिदेवाण पुच्छा,गोयमा! एगतंपि पभू विउवित्तए पुहुत्तपि पभू विउवित्तए, नो चेव णं संपत्तीए विउविसु वा विउव्विति वा विउव्विस्संति वा। भावदेवाणं पुच्छा जहा भवियदव्वदेवा | ॥ (सूत्रं ४६४)॥
(प्र०) हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो एक रूप विकुर्ववाने समर्थ के के अनेकरूपो विकुर्ववाने समर्थ के ? (उ०) हे गौतम ! (भव्यद्रव्यदेव वैक्रियलब्धिसंपन्न मनुष्य के तिर्यच) एक रूप विकुर्ववाने समर्थ के अने अनेकरूपो पण विकुर्ववाने समर्थ छे. एक
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१२जतके
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥११०५॥
उद्देशः९ ॥११०५॥
रूपने विकृर्वतो एक एकेंद्रियरूपने यावत्-एक पंचेन्द्रियरूपने विकुर्वे छे, अथवा अनेक रूपोने विकुर्वतो अनेक एकेंद्रियरूपोने के अनेक पंचेन्द्रियरूपोने विकुर्वे छे, ते रूपो संख्याता के असंख्याता, संबद्ध के असंबद्ध, समान के असमान विकुर्वे के, विका पछी | पोतानां यथेष्ट कार्यों करे छे. ए प्रमाणे नरदेव अने धर्मदेव संबंधे पण जाणवू. [प्र०] देवाधिदेवो संबन्धे प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! तेओ एक रूप विकुर्ववाने पण समर्थ छे, अने अनेक रूप विकुर्ववाने पण समर्थ छे. पण तेणे [औत्सुक्यना अभावथी शक्ति छतां] संप्राप्तिवडे (करबावडे ) क्रियरूप विकुयु नथी, विकुर्वता नथी अने विकुर्चशे पण नहि. [प्र०] भावदेवसंबन्धे प्रश्न. [उ०] जेम भव्यद्रव्यदेवो संबन्धे (सू० २१) कयु तेम भावदेवसंबन्धे पण जाणवू. ॥ ४६४ ॥
भवियदव्वदेवाणं भंते! अणंतरं उव्वहिता कहिं गच्छंति ?, कहिं उपवज्जति', किं नेरइएसु उवबज्जति जाव देवेसु उववजति ?, गोयमा! नो नेरइएसु उवबजंति नो तिरि० नो मणु, देवेसु उववज्जंति, जइ देवेसु उववजति सव्वदेवेसु उववज्जति जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति । नरदेवा णं भंते! अणंतरं उब्वत्तिा पुच्छा , गोयमा! नेरइएसु उववजंति नो तिरि० नो मणु णो देवेसु उववजति, जइ नेरइएसु उववजंति०, सत्तसुवि पुढवीसु उववजति । धम्मदेवा णं भंते! अणंतरं पुच्छा, गोयमा! नो नेरइएसु उववजेजा नो तिरि० नो मणु. देवेसु उववज्जंति, जइ देवेसु उववजति किं भवणवासि पुच्छा, गोयमा! नो भवणवासिदेवेसु उववर्जति नो वाणमंतर० नो जोइसिय० वेमाणियदेवेसु उववजंति, सव्वेसु वेमाणिएसु उववज्जति जाच सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइएसु ववजंति, अत्थेगहया सिझंति जाव अंतं करेंति । देवाधिदेवा अणंतरं उब्वहित्ता कहिं गच्छति
KI+KATASHATRNS
जाव सम्बडास उवबजंति नो कहिं उपयजंति ?
भवणवासि पुच्छा, MR उववज्जति जाच माहिं गच्छति
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व्याख्या
प्रज्ञप्ति: ॥११०६॥
ACES+MASABAGESHWA
कहिं उववति?, गोयमा! सिझंति जाव अंतं करेंति । भावदेवा णं भंते! अणंतरं उबत्तिा पुच्छा जहा
है १२शतके वकंतीए असुरकुमाराणं उव्वदृणा तहा भाणियब्वा । भवियदव्वदेवे णं भंते ! भवियदव्वदेवेत्ति कालओ केव
| उद्देश: चिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं, एवं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणावि जाव
॥११०६॥ भावदेवस्स, नवरं धम्मदेवस्स जह० एक समयं उक्कोसेणं देसूणा पुब्धकोडी॥
[प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो तुरतज मरण पामी क्यां जाय-क्यां उत्पन्न थाय ? शुं नैरयिकोमा उपजे, यावद्-देवोमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेओ नैरयिकोमां, तिर्यंचोमां के मनुष्योमा उत्पन्न थता नथी, पण देवोमा उत्पन्न थाय छे. जो देवोमा उत्पन्न थाय तो ते सर्वदेवोमा उत्पन्न थाय, यावत् सर्वार्थसिद्धमा उत्पन्न थाय. [प्र०] हे भगवन् ! नरदेवो अन्तरहित-तुरतज | मरण पामी क्यां उत्पन्न थाय-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोमा उत्पन्न थाय, पण तिर्यंच, मनुष्य के देवमां उत्पन्न न थाय,
जो नैरयिकोमा उत्पन्न थाय तो साते नरकपृथिवीमां उत्पन्न थाय. [प्र.] हे भगवन् ! धर्मदेवो तुरतज मरण पामी क्या उत्पन्न थाय-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम! तेओ नैरयिकोमा, तिर्यंचोमां के मनुष्योमा उत्पन्न थता नथी, पण देवोमा उत्पन्न थाय छे. [प्र०] जो तेओ (धर्मदेवो ) देवोमा उत्पन्न थाय तो शु भवनवासी देवोमा उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! भवनवासिदे-18 | वोमां, वानव्यंतरोमां अने ज्योतिष्कोमा उत्पन्न थता नथी, पण वैमानिक देवोमां उत्पन्न थाय छे. सर्व वैमानिकोमा, यावत्-सर्वा-₹ र्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देवोमां यावत्-उत्पन्न थाय छे, अने केटलाक सिद्ध थाय छे, यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे छे. [प्र.] हे भगवन् ! देवाधिदेवो अन्तररहित-तुरतज मरण पामी क्यां जाय-क्यां उत्पन्न थाय ? [उ.] हे गौतम ! तेओ सिद्ध थाय,
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥११०७॥
यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करे. [प्र०] हे भगवन् ! भावदेवो तुरतज मरण पामी क्यां जाय ?-ए प्रश्न. [उ०] जेम 'व्युत्क्रांति' पदमा असुरकुमारोनी उद्वर्तना कही छे तेम अहिं भावदेवोनी पण उद्वर्तना कहेवी. [प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवो भव्यद्रव्य
४१२तके
उदेशः देवरूपे' काळथी क्यांसुधी होय ! [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी त्रण पल्योपम सुधी होय. ए प्रमाणे जेम भवस्थिति कही तेभ संस्थिति पण यावद्-भावदेव सुधी जाणवी. परन्तु धर्मदेव जघन्य एक समय सुधी अने उत्कृष्ट कंईक न्यून पूर्वकोटि वर्ष सुधी होय. [प्र.) हे भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवने परस्पर केटला काळजें अंतर होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्य अंतमुहूर्त अधिक दशहजार वर्ष, अने उत्कृष्ट अनंतकाळ-वनस्पतिकाळ पर्यन्त अन्तर होय.
भवियदव्वदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?, गोयमा! जह० दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भ-14 हियाई उकोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो। नरदेवाणं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं मातिरेगं सागरोवम उक्कोसेणं अणंतं कालं अवई पोग्गलपरियÉ देसूर्ण । धम्मदेवाणं णं पुच्छा, गोयमा! जहन्नणं पलिओवमपुहुत्तं उक्कोसेणं अर्णतं कालं जाव अवड्डे पोग्गलपरियह देसूणं । देवाधिदेवाणं पुच्छा, गोयमा! नत्थि अंतरं। भावदेवस्स णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो ॥ एएसि णं भंते । भवियदव्वदेवाणं नरदेवाणं जाव भावदेवाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा ! मव्वत्थोवा नरदेवा देवाधिदेवा संखेजगुणा धम्म| देवा संखेजगुणा भवियव्वदेवा असंखेज्जगुणा भावदेवा असंखेजगुणा (सूत्रं ४६५)॥
[प्र०] हे भगवन् ! नरदेवने परस्पर केटल अन्तर होय-ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जघन्य कांइक अधिक एक सागरोपम,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११०८॥
१२शतके उद्देशा९ ११०८॥
KAHMEDABASIC
www.kobatirth.org अने उत्कृष्ट अनंतकाळ-कांइक न्यून अर्धपुद्गलपरिवर्त पर्यन्त अन्तर होय. [सं०] हे भगवन् ! धर्मदेवने परस्पर केटलु अन्तर होय. ए प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जघन्य थी पल्योपमपृथक्त्व (बेथी नव पल्योपम ) अने उत्कृष्ट अनंतकाळ-कंहक न्यून अपार्ध पुद्गल. परिवर्त पर्यन्त अन्तर होय. [प्र०] हे भगवन ! देवाधिदेवने परस्पर केटलु अन्तर होय-ए संबन्धे प्रश्न. [उ.] हे गौतम! तेने अंतर नथी. [प्र०] भावदेवना परस्पर अन्तर संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट अनंतकाळ-वनस्पतिकाळ पर्यन्त अन्तर होय. [प्र.] हे भगवन् ! भन्यद्रव्यदेवो, नरदेवो, यावद्-भावदेवोमांना कोण कोनाथी यावद् विशेषाधिक
छ ? [उ०] हे गौतम ! सौथी थोडा नरदेवो के, ते करतां देवाधिदेवो संख्यातगुण ने, तेथी धर्मदेवो संख्यातगुण छे, ते करतां | भव्यद्रव्यदेवो असंख्यातगुण छे अने तेथी भावदेवो असंख्यातगुण छे. ॥ ४६५॥
एएसिणं भंते! भावदेवाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाण सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं गेवेजगाणं अणुत्तरोववाइयाण य कयरे २ जाव विसेमाहिया बा?, गोयमा! सम्वत्थोवा अणुत्तरोववाइया भावदेवा उवरिमगेवेजा भावदेवा संखेजगुणा मज्झिमगेवेजा संखेजगुणा हेडिमगेवेजा संखेजगुणा अच्चुए कप्पे देवा संखेजगुणा जाव आणयकप्पे देवा संखेजगुणा एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव जोतिमिया भावदेवा असंखेजगुणा । सेवं भंते ! २॥ (सूत्रं ४६६)॥ बारसमसयस्स नवमो ॥ १२-९ ।।
[प्र०] हे भगवन् ! भावदेवो भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक, सौधर्म, ईशान यावद्-अच्युतक, अवेयक तथा| अनुत्तरौपपातिक-एओमांना कोण कोनाथी यावद्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! सर्वथी थोडा अनुत्तरौपपातिक भावदेवो छ,
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४१२शतके
ते करतां उपरना अवेयेक भावदेवो संख्यातगुण छे, ते करतां मध्यम अवेयक भावदेवो संख्यतगुण . तेथी अधस्तन अवेयक भाव. व्याख्याप्रज्ञप्तिः
| देवो संख्यातगुण छे, ते करतां अच्युत कल्पना देवो संख्यातगुण ने, याबद्-आनतकल्पना देवो संख्यातगुण छे. ए प्रमाणे जेम ॥११०९॥ 13ाजीवाभिगम' सत्रमा त्रिविध जीवना अधिकारमां देवपुरुषोनुं अल्पबहुत्व कहुं छे तेम अहीं पण यावद्-'ज्योतिष्क भावदेवो असंख्येयगुण छे' त्यां सुधी कहे. 'हे भगवन ! ने एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे (एम कही-भगवान् गौतम यावद् विहरे छे.) ॥ ४६६ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १२ मा शतकमां नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
KA+NA
॥११०९॥
HAK
उद्देशक १० ___ कहबिहा गं भंते ! आया पण्णत्ता ?, गोयमा! अविहा आया पण्णत्ता, तंजहा-दवियाया कसायाया | योगाया उपयोगाया णाणाया दंसणाया चरित्ताया वीरियाया ।। जस्स णं भंते! दवियाया तस्स कसायाया जस्स कसायाया तस्स दवियाया?, गोयमा! जस्स दवियाया तस्म कसायाया सिय अस्थि सिय नथि, जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियम अस्थि । जस्स णं भंते! दवियाया तस्स जोगाया! एवं जहा दवियाया कसायाया भणिया तहा दवियाया जोगाया य भाणियन्वा। जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स उवयोगाया एवं सव्वस्थ पुच्छा भाणियब्वा, गोयमा ! जस्स दवियाया तस्म उचओगाया नियम अस्थि, जस्मावि उवओगाया तस्सवि दवियाया नियम अस्थि, जस्म दवियाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्म पुण णाणाया तस्स दवियाया नियम
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१११०॥
|१२शतके | उद्देश:१० ॥१११०॥
अत्धि, जस्स दवियाया तस्स दसणाया नियम अस्थि, जस्सवि दसणाया तस्स दवियाया नियम अस्थि, जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियमं अत्थि, एवं वीरियायाएवि समं ।
[म.] हे भगवन् ! आत्मा केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! आठ प्रकारना आत्मा छे, ते आ प्रमाणे-१ द्रव्यात्मा, २ कषायात्मा, ३ योगात्मा, ४ उपयोगात्मा, ५ ज्ञानात्मा, ६ दर्शनात्मा, ७ चारित्रात्मा अने ८ वीर्यात्मा. [प्र०] हे भगवन् ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने शु कषायात्मा होय अने जेने कषायात्मा होय तेते शुं द्रव्यात्मा होय ? [उ०] हे गौतम ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने कषायात्मा कदाचित् होय अने कदाचित न होय, पण जेने कषायात्मा होय, तेने तो अवश्य द्रव्यात्मा होय. [प्र.] हे भगवन् ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने योगात्मा होय ? (अने जेने योगात्मा होय तेने द्रव्यात्मा होय ?) [उ०] ए प्रमाणे जेम द्रव्यात्मा अने करायात्मानो संबन्ध कह्यो तेम द्रव्यात्म अने योगात्मानो संबन्ध कहेवो. [प्र०] हे भगवन् ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने उपयोगात्मा होय ? (अने जेने उपयोगात्मा होय तेने द्रव्यात्मा होय !) ए प्रमाणे सर्वत्र प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! जेने द्रव्यात्मा होय तेने उपयोगात्मा अवश्य होय, अने जेने उपयोगान्मा होय तेने पण द्रव्यात्मा अवश्य होय, जेने द्रव्यात्मा होय तेने ज्ञानात्मा भज. नाए-विकल्पे होय, अने जेने ज्ञानात्मा होय तेने द्रव्यात्मा अवश्य होय. जेने द्रव्यात्मा होय तेने दर्शनात्मा अवश्य होय, जेने दर्शनात्मा होय तेने द्रव्यात्मा पण अवश्य होय, जेने द्रव्यात्मा होय तेने चारित्रात्मा भजनाए-विकल्प होय, अने जेने चारित्रात्मा होय तेने द्रव्यात्मा अवश्य होय. ए प्रमाणे वीर्यात्मानी साथे पण संबन्ध कहेवो.
जस्म णं भते! कसायाया तस्स जोगाया पुच्छा, गोयमा! जस्स कसायाया तस्म जोगाया नियम अत्धि,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११११॥
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जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नत्थि, एवं उबओगाया एवि समं कसायाया नेयव्वा, कसावाया य णाणाया य परोप्परं दोवि भइयव्वाओ, जहा कमायाया य उवओगाया य तहा कसायाया य दंस| णाया य कसायाया य चरिताया य दोवि परोप्परं भइयव्बाओ, जहा कमायाया य जोगाया व तहा कसायाया य वीरियाया य भाणियव्वाओ, एवं जहा कसायायाए वक्तव्वया भणिया तहा जोगाएवि उवरिमाहिं समं | भाणियव्वाओ। जहा दवियायाए वत्तच्वया भणिया तहा उदयोगायाएव उवरिल्लाहिं समं भाणियव्वा । जस्स नाणाया तस्स दंसणाया नियम अत्थि, जस्स पुण दंसणाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्स नाणाया तस्स चरिताया सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्म पुण चारितामा तस्स नाणाया नियम अस्थि, णाणाया वीरियाया दोवि परोप्परं भयणाए । जस्स दंमणाया तस्स उवरिमाओ दोवि भगणार, जस्म पुण ताओ तस्स दंसणाया नियमं | अस्थि । जस्स चरिताया तस्स वीरियाया नियमं अस्थि, जस्म पुण वीरियाया तम्स चरिताया सिय अस्थि सिय नत्थि ॥ पयासि णं भंते! दवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे २ जाव विसेसा० १ गोयमा ! | सव्वत्थोबाओ चरित्तायाओ नाणायाओ अनंतगुणाओ कसायाओ अनंत जोगायाओ वि० वीरियायाओ वि० उपयोग दविदंसणायाओ तिनिवि तुल्लाओ वि० ॥ ( सूत्रं ४६७ )
[प्र०] हे भगवन् ! जेने कषायात्मा होय तेने शुं योगात्मा होय :- इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम १ जेने कषायात्मा होय तेने योगात्मा अवश्य होय, अने जेने योगत्मा होय तेने कदाचित् कषायात्मा होय अने कदाचित् न पण होय. ए प्रमाणे उपयोगात्मानी
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४
१२ शतके उद्देशः १० ॥११११॥
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व्याख्याप्रनप्तिः ॥१११॥
SANA
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Acharya Shriyty garsuri Gyanmandir साथे कषायात्मानो संबन्ध जाणवो. तथा कषायात्मा अने जानात्मा ए पन्ने परस्पर भजनाए-विकल्पे कहेवा. जेम कषायात्मा अने उपयोगात्मानो संबन्ध कह्यो तेम कषायात्मा अने दर्शनात्मानो संबन्ध कहेंबो. तथा कषायात्मा अने चारित्रात्मा-ए बने-परस्पर
१२शतके
| उद्देश:१० भजनाए कहेवा. जेम कपायात्मा अने योगात्मा कह्या, तेम कषायात्मा अनेवीर्यात्मा पण कहेवा. ए प्रमाणे जेम कषायात्मानी साथे
॥१११२॥ इतर (छ) आत्मानी वक्तव्यता कही, तेम योगात्मानी साथे पण उपरना (पांच) आत्मानी वक्तव्यता कहेवी. जेम द्रव्यात्मानी वक्तव्यता कही तेम उपयोगात्मानी पण उपरना आत्माओनी साथे वक्तव्यता कहेवी. जेने ज्ञानात्मा होय तेने दर्शनात्मा अवश्य होय, अने जेने बळी दर्शनात्मा होय तेने ज्ञानात्मा भजनाए होय. जेने ज्ञानात्मा होय तेने चारित्रात्मा भजनाए होय-एटले कदाचिद् होय अने कदाचिद् न होय, बळी जेने चारित्रात्मा होय तेने ज्ञानात्मा अवश्य होय. तथा ज्ञानात्मा अने वीर्यात्मा ए बन्ने परस्पर भजनाए-विकल्पे होय. जेने दर्शनात्मा होय तेने उपरना चारित्रात्मा, वीर्यात्मा ए बन्ने भजनाए होय, वळी जेने ते बने आत्मा होय तेने दर्शनात्मा अवश्य होय. जेने चारित्रात्मा होय तेने अवश्य वीर्यात्मा होय, वळी जेने वीर्यात्मा होय तेने चारित्रात्मा कदाचिद् होय अने कदाचिद् न होय. [प्र०] हे भगवन् ! द्रव्यात्मा, कषायात्मा, यावद्-वीर्यात्मामां कया आत्मा कोनाथी यावद्विशेषाधिक ले ? [उ०] हे गौतम ! १ सौथी थोडा चारित्रात्मा छे, २ ते करतां ज्ञनात्मा अनंत गुण छ, : तेथी कषायात्मा अनंतगुण छे, ४ ते करतां योगात्मा विशेषाधिक छे, ५ तेथी वीर्यात्मा विशेषाधिक हे, ६ तेकरतां उपयोगात्मा द्रव्यात्मा अने दर्शनात्मा-ए त्रणे विशेषाधिक छे अने परस्पर तुल्य के.॥ ४६७ ॥
आया भंते ! नाणे अन्नाणे?, गोयमा! आया सिय नाणे मिय अन्नाणे, णाणे पुण नियमं आया || आया 8
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CRUS
131१२शतके
प्रज्ञप्ति ॥१११३॥
भंते ! नेरइयाणं नाणे अन्ने नेरइयाण नाणे?, गोयमा! आया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण से नियम आया, एवं जाव थणियकुमाराणं, आया भंते ! पुढवि० अन्नाणे अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे?, गोयमा!
उद्देशः१. आया पुढविकाइयाण नियम अन्नाणे अन्नाणेवि नियम आया, एवं जाव वणस्सइका०, बेइंदियतेइंदिय जाव 13.१११३॥ वेमाणियाणं जहा नेरहयाण | आया भंते ! दसणे अन्ने दमणे?, गोयमा! आया नियम दमणे दमणेऽवि नियम आया। आया भंते ! नेर० सणे अन्ने नेरइयाणं दंसणे?, गोयमा! आया नेरइयाणं नियमा दमणे दंसणेवि से नियमं आया एवं जाव वेमा. निरंतरं दंडओ।। ( सूत्रं ४६८)।। | [म०] हे भगवन् ! आत्मा ज्ञानस्वरूप छे के अज्ञानस्वरूप छे ? [उ०] हे गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानस्वरूप बे, अने कदाचित् अज्ञानस्वरूप छे. पण ज्ञान तो अवश्य आत्मस्वरूप के. [प्र.] हे भगवन् ! नैरयिकोनो आत्मा ज्ञानरूप छे. के अज्ञानरूप छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोनो आत्मा कदाचिद् ज्ञानरूप में, अने कदाचिद् अज्ञानरूप पण छे. परन्तु तेओनुं ज्ञान अवश्य आत्मरूप छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! पृथ्वीकायिकोनो आत्मा ज्ञानरूप ने के अज्ञानरूप छ? [उ०] हे गौतम! पृथ्वीकायिकोनो आत्मा अवश्य अज्ञानरूप छे. अने तेओर्नु अज्ञान पण अवश्य आत्मरूप . ए प्रमाणे यावद्-वनस्प-k तिकायिको सुधी जाणवू. बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय अने यावद्-वैमानिकोने नैरयिकोनी पेठे (सू०८) जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! आत्मा
दर्शनरूप के के तेथी दर्शन बीजु छ ? [उ०] हे गौतम ! आत्मा अवश्य दर्शनरूप में अने दर्शन पण अवश्य आत्मा छे. [प्र.] हे है भगवन् ! नैरयिकोनो आत्मा दर्शनरूप के ? के नैरयिकोनुं दर्शन तेथी अन्य छे ? [उ.] हे गौतम ! नेररिकोनो आत्मा अवश्य
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व्याख्या- दर्शनरूप के, अने तेओनें दर्शन पण अवश्य आत्मा छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानीको मुधी निरंतर (चोवीस) दंडक कहेवा.॥४६८॥ प्रज्ञप्तिः
१२शतके आया भंते ! रयणप्पभापु० अन्ना रयणप्पभा पुढवी?, गोयमा! रयणप्पभा पुढची सिय आया सिय नो ॥१११४॥
उद्देशा१० आया सिय अत्तव्वं आयाति य नो आयाइ य, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चह रयणप्पभा पुढवी सिय आया सिय १११४॥ नो आया सिय अवत्तव्यं आतातिय नो आतातिय?, गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया परस्स आदिढे नो आया | तदुभयस्स आदिट्टे अवत्तव्वं रयणप्पभा पुढयी आयातिय नो आयाति य, से तेणढणं तं चेव जाव नो आयातिय । आया भंते ! सकरप्पभा पुढवी जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पभाएवि, एवं जाव अहे सत्तमा। आया भंते ! सोहम्मे कप्पे पुच्छा, गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय नो आया जाच नो आयाति य, से केणतुणं भंते ! जाव नो आयातिय १, गोयमा! अप्पणो आइटे आया परस्म आइढे नो आया तदुभयस्स आइडे अवत्तव्यं आताति य नो आताति य, से तेण?णं तं चेव जाव नो आयाति य, एवं जाव अच्चुए कप्पे ।
[प्र०] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी आत्मा-सत्स्वरूप के के अन्य-असत्स्वरूप रत्नप्रभा पृथिवी में ? [उ.] हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी १ कथंचित् आत्मा-सद्रूप से,२ कथंचित् नोआत्म-असद्रूप पण छे, अने ३ सद्रूपे अने असद्पे (उभयथा) कथंचित अवक्तव्य-कहेवाने अशक्य छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, रत्नप्रभा पृथिवी कथंचिद् आत्मा-सप
छ, कथंचित् नोआत्मा-असद्प छे, अने सद् अने असद्-ए उभयरूपे कथंचिद् अबक्तव्य छ १ [उ.] हे गौतम ! रत्नप्रभा IPI पृथिवी पोताना आदेशथी-स्वरूपथी आत्मा-विद्यमान छे, परना आदेशथी-पररूपे विवक्षाथी नोआत्मा-अविद्यमान छे, अने 31
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१११५॥
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उभयना आदेशथी-स्व अने परनी विवक्षाथी आत्मा सद्रूपे अने नोआत्मा-असद्रूपे अवक्तव्य छे. ते हेतुथी पूर्व प्रमाणे कछु छे तेम आत्मा-सद् अने यावद् नोआत्मा-असद्रूपे अवक्तव्य हे. [प्र०] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी आत्मा - सद्रूप छे ? - इत्यादि प्रश्न. [30] जेम रत्नप्रभा पृथ्वी कही तेम शर्कराप्रभा पृथ्वी संबंधे पण जाणवुं. ए प्रमाणे यावद्-अधःसप्तम पृथ्वी सुधी जाणवुं. [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक आत्मा-सद्रूप छे १ - इत्यादि प्रश्न. ( उ०] हे गौतम! सौधर्म कल्प १ कथंचित् आत्मा सद्रूप छे, २ कथंचिद् नोआत्मा-असद्रूप छे, यावद्-आत्मा-सद् अने नोआत्मा-असद्रूपे कथंचिद् अवक्तव्य छे, [प्र० ] हे भगवन् ! एप्रमाणे शाहेतुथी कहो छो के, 'ते यवद्-आत्मा अने नोआत्मारूपे अवक्तव्य ले १ [अ०] हे गौतम! पोताना आदेशथी आत्माविद्यमान छे, परना आदेशथी नोआत्मा- अविद्यमान् छे, अने बनेना आदेशथी अवक्तव्य आत्मा तथा नोआत्मा रूपे अवाच्य छे, माटे ते हेतुथी इत्यादि पूर्वोक्त यावद्-आत्मा तथा नोआत्मा रूपे अवक्तव्य के. ए रीते यावद्-अच्युतकल्प पण जाणवी.
आया भंते! गेविजविमाणे अने गेविज विमाणे एवं जहा रयणध्वभा तहेब, एवं अणुत्तर विमाणावि, एवं | ईसिप भारावि । आया भंते! परमाणुपोग्गले अन्ने परमाणुपोग्गले १ एवं जहा सोहम्मे कप्पे नहा परमाणुपोग्गलेबि भाणिवे ॥ आया भंते ! दुपए लिए खंधे अन्न दुपएसिए खंधे ?, गोयमा । दुपएसिए खंधे सिय आया १ सिय | नो आया २ सिय अवत्तव्यं आयाह य नो आयातिय ३ सिय आया य नो आया य ४ सिय आया य अवक्तव्वं आयाति य नो आयाति य ५ सिप नो आया य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ६, से केणट्टेणं भंते । एवं तं चैव जाव नो आयाति य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य गोषमा ! अप्पणो आदिट्ठे आया २ परस्स
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१२ सके उद्देशः १० ।।१११५॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१११६॥
Gha
आदिढे नो आया २ तदुभयस्स आपिढे अवत्तव्वं दुपएसिए खंधे आयाति य नो आयाति य ३ देसे आदिढे
* १२ सम्भावपजवे देसे आदिहे असम्भावपज्जवे दुप्पएमिए बंधे आया य नो आया य४ देसे आदितु सब्भावपज्जवे
उद्देशा१. देसे आदितु तदुभयपजवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तव्यं आयाइयनो आयाइ य ५ देसे आदिवे असम्भा- त॥१११६॥ वपज्जये देसे आदितु तदुभयपनवे दुपएसिए खंधे नो आया य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ६ से तेणहेणं तं चेव जाव नो आयाति य॥
[०] हे भगवन् ! वेयक विमान आत्मा-विद्यमान ले के तेथी अन्य (अविद्यमान) अवेयक विमान के ? [उ.] ए बधुं | रत्नप्रभा पृथ्वीनी पेठे (मू१२) जाणवू, अने ते प्रमाणे अनुत्तर विमान तथा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्धशिला) मृधी जाण. [प्र०]] हे भगवन् ! एक परमाणुपुद्गल आत्मा-विद्यमान के के तेथी अन्य (अविद्यमान) परमाणुपुद्गल छ ? [उ०] हे गौतम ! जेम सौधर्मकल्प संबन्धे को (सू. १४) तेम एक परमाणुपुद्गलसंवन्धे पण जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान छे के तेथी अन्य द्विप्रदेशिक स्कंध छे? [उ०] हे गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कंध १ कथंचित् आत्मा-विद्यमान छे. ९ कथंचिद्-नोआत्माअविद्यमान छे, अने ३ आत्मा तथा नोआत्मा रूपे कथंचिद् अबक्तव्य छे, ४ कथंचिद् आत्मा छे, अने कथंचिद् नोआत्मा पण छे, ५ कथंचिद् आत्मा छे, अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अबक्तव्य छ, ६ कथंचित् नोआत्मा छे, अने आत्मा अने नोआत्मा-उभयरूपे अवक्तव्य छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के-इत्यादि पूर्वोक्त यावद्-आत्मा अने नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे ! [उ०] हे गौतम! १ (द्विप्रदेशिक स्कंध) पोताना आदेशथी आत्मा छे, २ परना आदेशथी नोआत्मा छे,
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|१२शतके
उद्देशः१. १११७॥
३ उभयना आदेशथी आत्मा अने नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ४ एक देशनी अपेक्षाए सद्भावपर्यायनी विवक्षाथी अने माख्या
एक देशनी अपेक्षाए असद्भावपर्यायनी विवक्षाथी द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान, तथा नोआत्मा-अविद्यमान के, ५ एक देशना ॥१११७॥
आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने एक देशना आदेशथी सद्भाव अने असद्भाव ए बने पर्यायनी अपेक्षाए द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान अने आत्मा तथा नोआत्मा ए उभयरूपे अबक्तव्य छे. ६ एक देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने एक देशना आदेशथी सद्भाव अने असद्भाव-ए वन्ने पर्यायनी अपेक्षाए ते द्विप्रदेशिक स्कंध नोआत्मा-अविद्यमान अने आत्मा तथा| | नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे. ते हेतुथी ए प्रमाणे कर्जा के के यावद-नोआत्मा-अविद्यमान छे.'
आया भंते! तिपएसिए खंधे अन्ने तिपएसिए खंधे?, गोयमा! तिपएसिए खंधे सिय आया १ मिय नो आयार सिय अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य सिय आया य नो आया यह सिय आया य नो आयाओ य ५ सिय आयाओ य नो आया य ६ सिय आया य अवत्तध्वं आयाति य नो आयाति य ७ सिय आयाइय अवत्तब्वाइं आयाओ य नो आयाओ य ८ सिय आयाओ य अवत्तब्वं आयाति य नो आयाति य९सिय नो आया य अवत्तब्बं आयाति य नो आयाति य १० सिय आया व अवत्तव्बाई आयाओ य नो आयाओ य ११ सिय नो आयाओ य अवत्तब्द आयाइ य नो आयाइ य १२ सिय आया य नो आया य अवत्तब्बं आयाइ जय नो आयाह य १३ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! विप्रदेशिक स्कंध आत्मा-विद्यमान के के तेथी अन्य त्रिप्रदेशिक स्कंध १ [उ.] हे गौतम! त्रिप्रदेशिक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१११८ ॥
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स्कंध १ कथंचित् आत्मा - विद्यमान के, २ नाथंचिद् नोआत्मा-अविद्यमान छे, ३ आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे कथंचिद् | अवक्तव्य छे, ४ कथंचिद् आत्मा तथा कथंचित् नोआत्मा छे, ५ कथंचिद् आत्मा तथा नीआत्माओ छे, (एकवचन अने बहुवचन . ) ६ कथंचिद् आत्माओ अने नोआत्मा छे, (बहुवचन अने एकवचन.) ७ कथंचिद् आत्मा अने कथंचिद् आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ८ कथंचित् आत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओ - ए उभयरूपे अवक्तव्य के. ९ कथंचिद् आत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा - ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, १० कथंचिद् नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, ११ कथंचित् नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओ - ए बने रूपे अवक्तव्यो छे, १२ कथंचिद् नोआत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छे, १३ कथंचिद् आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए बने रूपे अवक्तव्य छे.
सेकेणट्टे भंते ! एवं बुवइ तिपएसिए बंधे सिय आया एवं चैव उच्चारेपव्वं जाव मित्र आया य नो आया य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ?, गोयमा ! अप्पणो आइट्टे आया हूँ परस्स आइट्ठे नो आया २ तदुभ यस्स आइट्ठे अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ३ देसे आइट्ठे सन्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असन्भावपज्जवे तिपरसिए खंधे आया य नो आया य ४ देसे आदिट्ठे सम्भावपज्जवे देमा आइट्ठा असम्भावपज्जवे तिपएसिए वंधे आया य नो आगाओ य ५ देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असम्भावपज्जवे तिपएसिए बंधे आयाओ य से आया य६ देसे आदिट्ठे सम्भावपज्जवे देसे आदि तदुभयपज्जवे तिपएसिए बंधे आया य अबत्तव्यं आयाइ य नो आयाइ य ७ देते आदिट्ठे मन्भावपज्जवे देना आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए बंधे आया य
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१२सके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१९१९॥
॥१११९॥
अवत्तब्वाइं आयाओ य नो आयाओ य ८ देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवा देसे आदिवै तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आयाओ य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ९ एए तिन्नि भंगा, देसे आदितु असम्भावपज्जवे देसे आ- दिढे तदुभयपज तिपएसिए खंधे नो आया व अवत्तव्वं आयाइ य नो आयाति य १० देसे आदिद्वे असभा| वपजवे देसा आदिहा तदुभयपनवा तिपएसिए खंधे नो आया य अवत्तब्वाइं आयाओ य नो आयाओ य११ | देसा आदिट्टा असम्भावपज्जवा देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए ग्बंधे नो आयाओ य अवत्तव्वं आयाति य
नो आयाति य २ देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदितु असम्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपनवे तिपएसिए खंधे आया य नो आया य अवत्तव्वं आयाति यनो आयाइ य १३ से तेण?णं गोयमा! एवं वुच तिपएसिए खंधे सिय आया तं चेव जाव नो आयाति य॥ .
[प०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, "त्रिप्रदेशिक स्कंध कथंचिद् आत्मा छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहेचं, यावद् कथंचिद् आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मारूपे अबक्तव्य छ १ [उ०] हे गौतम! (त्रिप्रदेशिक स्कंध) पोताना आदेशथी ? आत्मा छे, २ परना-आदेशथी नोआत्मा छे, ३ उभयना आदेशथी आत्मा अने नोआत्मा-ए उभय रूपे अवक्तव्य छे, ४ एक देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने एक देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा अने नोआत्मारूप छे, ५ एक देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिकस्कंध आत्मा तथा नोआत्माओछे, ६ देशोना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी असद्भाव
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Acharya Shri f regarsuri Gyanmandir र्यायनी अपेक्षाए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्माओ अने नोआत्मारूप छ, ७ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशयी उभय-सनाव तथा असद्भाव पर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिकस्कंध आत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे
१२शतके
उद्देश:१० अवतन्य छ, ८ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी उभयपर्यायनी विवक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध
म॥११२०॥ आत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओ-ए उभयरूपे अबक्तव्यो छे, ९ देशोना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना है आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा ए उभयरूपे अवक्तव्य के-ए त्रण भांगाओ जाणवा. १० देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी उभयपर्यायनी अपेक्षाए. ते त्रिप्रदेशिक । स्कंध नोआस्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा रूपे अवक्तव्य छ, ११ देशना आदेशथी असद्भावपर्याय नी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्यो के, १२ देशोना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध नोआत्मओ अने आत्मा तथा नोआत्मा उभयरूपे अवक्तव्य छ, १३ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए ते त्रिप्रदेशिक स्कंध (कथंचिद् ) आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा उभयरूपे अवक्तव्य . माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम का छे के त्रिप्रदेशिक स्कंध कथंचिद्-आत्मा के-इत्यादि याव
द्-नो आत्मा के-'त्यां सुघी बधुं कहे. न आया भंते ! चउप्पएसिए खंधे अन्ने पुच्छा, गोयमा! चउप्पएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो आया २
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व्याख्या
प्रवतिः ॥११२१॥
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सिय अवक्तव्यं आयाति य नो आयाति य ३ सिय आया य नो आया ग ४ सिय आया य अवत्तव्यं ४ सिय नो आया य अवत्तव्यं ४ सिय आया य नो आया य अवत्तब्बं आयाति य नो आयाति य १६ सिय आया य नो आया य अवत्तब्वाई आयाओ य नो आगाओ य १७ सिय आया य नो आयाओ य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य १८ सिय आयाओ य नो आया य अवत्तच्वं आयाति य नो आयाति य १९ ।
[प्र०] हे भगवन् ! चतुःप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा विद्यमान के के तेथी अन्य के-इत्यादि प्रश्न. [-] हे गौतम ! चतुःप्रदेशिक स्कन्ध १ कथंचिद् आत्मा छे, २ कथंचिद् नोआत्मा छे, ३ आत्मा अने नोआत्मा उभयरूपे कथंचिद् अवक्तव्य के, ४.७ कथंचिद् आत्मा अने नोआत्मा ले ४, (एकवचन अने बहुवचनना चार मांगाओ ) ८-११ कथंचिद् आत्मा अने अवक्तव्य के, ४-१२-१५ कथंचिद् नोआत्मा अने अवक्तव्य के ४, १६ कथंचिद् आत्मा अने नोआत्मा तथा आत्मा- नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे, १७ कथंचिद् आत्मा, नोभात्मा अने आत्माओ तथा नोआत्मारूपे अवक्तव्यो छे, १८ कथंचित् आत्मा नोआत्माओ तथा आत्मा अने नोआत्मा उभयरूपे अवक्तव्य छे. १९ कथंचिद् आत्माओ, नोआत्मा तथा आत्मा अने अनात्मरूपे अवक्तव्य के.
सेकेणणं भंते! एवं वुबह चउप्पएसिए बंधे सिय आया य नो आया य अवत्तव्यं तं चैव अट्ठे पडिउचा रेयव्वं १, गोयमा ! अप्पणो आदि आया १ परस्म आदिट्ठे नो आया २ तदुभयस्स आदिट्ठे अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य ३ देसे आदिट्ठे सम्भावपज्जवे देसे आदिट्ठे असन्भावपळवे चउभंगो, सम्भावपज्जवेणं तदुभ येण य च भंगो, असन्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो देसे आदि सम्भावपज्जवे देसे आदिट्ठे असन्भावपजवे
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१२ शतके उद्देशः १० ॥११२१॥
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥११२२॥
IRH
१२शतके उद्देशा१. ११२२॥
www.kobatirth.org देसे आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आया य अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य, देसे आदि सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे देसा आदिहा तदुभयपजवा चउप्पएसिए खंधे भवह आया य नो आया य अवत्तव्बाई आयाओ य नो आमाओ य १७ देसे आदितु मम्भावपजवे देसा आदिट्ठा असम्भावपजवा देसे आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आयाओ य अवसव्वं आयाति य नो आया ति य १७ देसा आइट्ठा सम्भावपज्जया देसे आहढे असम्भावप० देसे आइहे तदुभयपज्जवे चउप्पणसिए खंधे आयाओ य नोआया य अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य १९ से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ चउप्पएसिए खंघे सिय आया सिय नो आया सिय अवत्तब्वं निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयवा जाव नो आयाति य ॥ | [प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के चतुःप्रदेशिक स्कन्ध कथंचित् आत्मा, नोआत्मा अने अवक्तव्य ले-इत्यादि पूर्व प्रमाणे अर्थनो पुनरुच्चार करी प्रश्न करवो. [उ.] हे गौतम ! १ पोताना आदेशथी स्वरूपनी विवक्षाथी आत्मा छ, २ परना आदेशथी पररूपनी विवक्षाथी नोआत्मा छ, ३ तदुभयना आदेशथी आत्मा अने नोआत्मा ए उभयरूपे अवक्तव्य छ, ४ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए [ एकवचन अने बहुवचनना ] चार मांगा | थाय छ, सद्भावपर्याय अने तदुभयनी अपेक्षाए चार भांगा थाय छे. तथा असद्भाव अने तदुभयनी अपेक्षाए पण चार भांगा थाय छे, तथा १६ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्पदेशिक स्कंध आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मा-ए उभयरूपे अवक्तव्य छ, १७ देशना
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व्याख्या
प्राप्तिः ॥११२३॥
१२शतके उद्देशान
Fध आत्माओ, बार, देशना /PAREL
आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्पदेशिक स्कंध आत्मा, नोआत्मा अने आत्माओ तथा नोआत्माओरूपे अवक्तव्य छ, १८ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशोना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशोना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्मा, नोआत्माओ अने आत्मा तथा नोआत्मा-उभयरूपे अध्यक्तव्य ग्रे,१९ देशोना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाए, अने देशना आदेशथी तदुभयपर्यायनी अपेक्षाए चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्माओ, नोत्मा अने आत्मा तथा नोआत्मारूपे अवक्तव्य छे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम कदेवाय छे के, चतुष्प्रदेशिक स्कंध कथंचिद् आत्मा छ, कथंचिद् नोआत्मा छ भने कथंचित अवक्तव्य , ए निक्षेपमा पूर्वोक्त मांगाओ यावद् "नो आत्मा " त्यांसुधी कहेवा.
आया भंते! पंचपरमिए खंधे अन्ने पंचपएसिए खधे?, गोयमा। पंचपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो आया २ सिय अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य ३ सिय आया य नो आया य सिय अवत्तब्वं ४ नो आया य अवत्तब्वेण य ४ तियगसंजोगे एक्को ण पडइ, से केण?णं भंते ! तं चेव पडिउच्चारेयब्वं ?, गोयमा! अप्पणो आदिढे आया १ परस्म आदिद्वे नो आया २ तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्वं ३ देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदितु असम्भावपळवे एवं दुयगसंजोगे सव्वे पडति, तियगसंजोगे एक्को ण पडद । छप्पएसिए सब्वे पहंति, जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाब विहरति ॥(सूत्र ४६९ ॥ दसमो उद्देसोडू संमत्तो॥ बारसम सयं संमत्तं ॥ १२.१०॥
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व्याख्या
प्रशतिः ॥११२४।।
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[प्र० ] हे भगवन् ! पंचप्रदेशिक स्कंध आत्मा के के तेथी अन्य पंच प्रादेशिक स्कंध ले १ [उ०] हे गौतम! पंचप्रदेशिक स्कंध १ कथंचित् आत्मा छे, २ कथंचित् नोआत्मा छे, अने ३ आत्मा तथा नोआत्मारूपे कथंचित् अवक्तव्य छे, ४ कथंचित् आत्मा, नोआत्मा अने आत्मा अने अनात्मा उभयरूपे कथंचित् अवक्तव्य के. नोआत्मा अने अवक्तव्यवडे ए प्रमाणे चार भांगा करवा. त्रिक संयोगमां (आठ भांगा थाय छे ) एक आठमो भांगो उतरतो नधी, एटले सात मांगाओ थाय छे. (कुल मळीने बावीश भांगाओ थाय छे.) [प्र० ] हे भगवन् ! शा हेतुथी ( पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा के ) इत्यादि पाठनो पुनः उच्चार करवो [अ०] हे गौतम । १ (पंचप्रदेशिक स्कन्ध) पोताना आदेशथी आत्मा छे, २ परना आदेशथी नोआत्मा छे, ६ तदुभयना आदेशथी अवक्तव्य छे, ४ देशना आदेशथी सद्भावपर्यायनी अपेक्षाए अने देशना आदेशथी असद्भावपर्यायनी अपेक्षाएं कथंचित् आत्मा के अने आत्मा नथी. ए प्रमाणे द्विकसंयोगमां सर्वे भांगा उपजे छे, मात्र त्रिकसंयोगमां (आठमो) एक मांगो उतरतो नथी. षट्प्रदेशिक स्कन्धने विषे सर्वे भांगाओ लागु पडे छे, जेम पट्प्रदेशिक स्कन्धने विषे कर्छु, तेम यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध संबंधे जाणं, 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे. ।। ४६९ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामी प्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १२ मा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
॥ इति श्रीद्वादशशतक समाप्तः ॥
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१२ शतके | उद्देशः १० ।।११२४ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥११२५॥
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शतक १३. ( उद्देशक १. )
पुढवी १ देव २ मणंतर ३ पुढवी ४ आहारमेव ५ उववाए ६ । भासा ७ कम ८ अणगारे केयाघडि या९ स मुग्धाए १० ॥ ७३ ॥
[ उद्देशक संग्रह - ] १ नरक पृथ्वी विषे प्रथम उद्देशक, २ देवनी प्ररूपणा संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ अनन्तराहार- उपपात क्षेत्रनी प्राप्ति समये तुरतज आहार करनारा- नारक संबन्धे त्रीजो उद्देशक, ४ पृथिवी नरकपृथिवीनी वक्तव्यता प्रतिपादन करवा माटे चोथो उद्देशक, ५ आहार-नारकादिना आहारनी प्ररूपणा करवा माटे पांचमी उद्देशक, ६ उपपात-नारकादिना उपपात संबन्धे छट्टो उद्देशक, ७ भाषा संबन्धे सातमो उद्देशक, ८ कर्मनी प्ररूपणा करवा माटे आठमो उद्देशक, ९ अनगार - भावितात्मा अनगार वैक्रिय लब्धिना सामर्थ्यथी केयाघडिया-हाथमां दोरडाथी बांधेली घटीका लहने [ एवारूपे ] आकाशमां गमन करी शके-इत्यादिक अर्थनुं प्रतिपादन करवा माटे नवमो उद्देशक, १० अने समुद्घातनुं प्रतिपादन करवा माटे दशमो उद्देशक-ए प्रमाणे तेरमा शतकने विषे दश उद्देशको कहेवामां आवशे.
राग जाव एवं वयासी - कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, संजहारयणप्पभा जाव अहेमत्तमा । इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढषीए केवतिया निरयावास सय सहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता, ते णं भंते । किं संखेज्जवित्थडा असंखेज्ज वित्थडा,
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१३ शतके उद्देशः १
।। ११२५ ।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११२६॥
9A%ECRUCIE
गोयमा! संखेन्ज वित्थडावि असंखेजवित्थडावि, इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववजंति १? केवतिया काउलेस्सा उववजंति २१||१३शतके केवड्या कण्हपविया उववज्जति ३१ केवतिया सुक्कपक्खिया उववज्जति ? केवतिया सन्नी उबवजति ५१ केव
| उद्देशान तिया असन्नी उववजनि? केवतिया भवसिद्धीया उव०७१ केवतिया अभवसिद्धीया उवव०८? केवतिया आभिणिबोहियनाणी उव० ९१ केवइया सुयनाणी उव० १०? केवइया ओहिनाणी उववजंति ११? केवइया मइअन्नाणी उवव०१२? केवइया सुय अनाणी उव०१३ ? केवइया विम्भंगनाणी उवव०१४ ? केवइया चक्खुदंसणी उव०१५?
[प्र.] राजगृह नगरमा [भगावान् गौतम] यावत्-ए प्रमाणे चोल्या के-हे भगवन् ! केटली नरक पृथिवीओ कहेली के ? [उ.] हे गौतम! सात नरक पृथिवीओ कहेलो , ते आ प्रमाणे-१ रत्नप्रभा, यावत् ७ अधः सप्तमनरकपृथिवी. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा नरकपृथिवीने विषे केटला लाख नरकावासो कहेला छे ? [उ०] हे गौतम ! त्रीश लाख नरकावासो कहेला के. [१०] है | भगवन् ! ते नरकावासो संख्याता योजन विस्तारवाळा के के असंख्याता योजन विस्तारवाळा छ ? [उ०] हे गौतम ! संख्याता योजन विस्तारवाळा पण छे अने असंख्याता योजन विस्तारवाळा पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! आ रनप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समये १ केटला नारक जीवो उत्पन्न थाय, २ केटला कापोतलेश्यावाळा उत्पन थाय, ३ केटला कृष्णपाक्षिकजीवो उत्पन्न थाय, ४ केटला शुक्लपाक्षिक जीवो उत्पन्न थाय, ५ केटला संज्ञी जीवो उत्पन्न थाय, ६ केटला असंझी जीवो उत्पन्न थाय, ७ केटला भवसिद्धिक जीवो उत्पन्न थाय, ८ केटला अभवसिद्धिक जीवो
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व्याख्या
१३शवक उमेशा ॥११२७॥
॥११२७॥
KAR
उत्पन्न याय, ९ केटला आमिनिबोधिकज्ञानी-मविज्ञानी उत्पन्न थाय, १. केटला श्रुतज्ञानी उत्पन थाय, ११ केटला अवधिज्ञानी उत्पन थाय, १२ केटला मतिअज्ञानी उत्पन्न थाय, १३ केटला श्रुतअज्ञानी उत्पन्न थाय, १४ केटला विभंगज्ञानी उत्पन थाय, १५ केटला चक्षुदर्शनी उत्पन्न थाय,
केवड्या अचखुदंसणी उवव०१६? केवइया ओहिंदसणी उवव०१७? केवड्या आहारसन्नोवउत्ता उवव० १८? केवइया भयसन्नोवउत्ता उव० १९? केवड्या मेहुणसन्नोवउत्ता उवव २०? केवइया परिग्गहसन्नोवउत्ता उवव० २१? केवइया इत्थिवेयगा उवव० २२? केवइया पुरिसवेदगा उवव० २३ ? केवइया नपुंसगंवेदगा उवव. २४ ? केवड्या कोहकसाई उवव०२५? जाव केवइया लोभकसाथी उवव० २८? केवइया सोइंदिपउवउत्ता
उव. २९? जाव केवड्या फासिदियोवउत्ता उव० ३३ ? केवड्या नोइंदियोवउत्ता उव० ३४१ केवतिया मणजोगी *उवव० ३५ ? केवतिया वहजोगी उवव० ३६? केवतिया कायजोगी उवव० ३७ ? केवतिया सागारोवउत्ता उव४/व० ३८१ केवतिया अणागारोवउत्ता उवव० ३९१,
१६ केटला अचक्षुदर्शनी उत्पन्न थाय, १७ केटला अवधिदर्शनी उत्पन्न थाय, १८ केटला आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा जीव उत्पन थाय, १९ केटला भयसंज्ञाना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय, २० केटला मैथुनसंज्ञाना उपयोगवाळा उत्पम थाय, २१ केटला परिग्रह संज्ञाना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय, २२ केटला खीवेदी जीव उत्पन्न थाय, २३ केटला पुरुषवेदी उत्पन्न याय, २४ केटला नपुंसकवेदी उत्पन्न थाय, २९ केटल क्रोधकषायबाळा जीच उत्पन्न थाय, यावत्-२८ केटला लोभकषायवाळा उत्पन्न थाय, २९
RSARKARRAOKHAR
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥११२८॥
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केटला श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय, यावत् ३३ केटला स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगवाळा उत्पन्न थाय, ३४ कंटला नोइन्द्रिय ( मन ) ना उपयोगवराळा उत्पन्न थाय, ३५ केटला मनयोगी उत्पन्न थाय, ३६ केटला वचनयोगी उत्पन्न थाय, ३७ केटला काययोगी उत्पन्न थाय, ३८ केटला साकारोपयोगवाळा उत्पन्न थाय, अने ३९ केटला अनाकारोपयोगवाळा उत्पन्न थाय १
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१३ शतके
उद्देशः १
||११२८॥
गोमा ! इमीसे णं रथणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु संखेज्ज वित्थडेसु नरएस जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नेरड्या उ०, जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्को० संखेज्जा काउ- | | लेस्सा उव०, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उव०, एवं सुक्कपक्खियावि, एवं सन्नी एवं असन्नीवि एवं भवसिद्धीया एवं अभवसिद्विया आभिणियोहियना० सुयना० ओहिना म अन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगना०, चक्खुदंसणी ण उबव०, जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसे० संखे० अचक्खुदसणी उबव०, एवं ओहिदंसणीवि आहारसन्नोव उत्तावि जाव परिग्गहसन्नोवड०, इत्थीवेगगा न उव० पुरिसवेग| गावि न उब०, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नपुंसगवेदगा उवध० एवं कोहकसाई जाव लोभ०, सोइंदियउवउत्तान उवब० एवं जाब फार्मिंदिओवउत्तान उवव०, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा उक्कोसेण संखेज्जा नोइंदिओवउत्ता उववज्जंति, मणजोगी ण उबववंति एवं वइजोगीवि, जहनेणं एको वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उबवज्जति, एवं सागारोवउत्तावि, एवं अणागारोवउत्तावि ॥
[उ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभारथिवीना श्रीश लाख नरकावा सोमांना संख्याता योजनना विस्तारवाळा नरकावासीने विषे १
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व्याख्याप्रयतिः ॥११२९ ॥
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जघन्यथकी एक, वे के ऋण अने उत्कृष्टथी संख्याता नारको उत्पन्न थाय छे, २ जघन्यथी एक वे के त्रण, अने उत्कृष्टथी संख्याता कापोतलेश्यावाळा उत्पन्न धाय के, कारणके प्रथम नरकपृथिवीमां कापोतलेश्या होय . ३ जघन्यथी एक, वे के त्रण अने उत्कृ टथी संख्याता कृष्णपाक्षिक जीवो उत्पन्न थाय छे, ए प्रमाणे शुक्लपाक्षिक संबंधे पण जाणवुं, ए रीते संज्ञी अने असंज्ञीने पण कहेतुं, प प्रमाणे भवसिद्धिक अने अभवसिद्धिक जीवो पण जाणवा. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी ए सर्व ए प्रमाणेज उत्पन थाय छे. चक्षुदर्शनावाळा जीवो उत्पन्न थता नथी. जघन्यथी एक, वे अथवा त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता अचक्षुदर्शनवाळा जीवो उत्पन्न थाय छे. (कारणके उत्पत्ति समये सामान्य उपयोगरूप अचक्षुदर्शन छे.) एम अवधिदर्शनवाळा पण जाणवा. ए रीते आहार संज्ञाना उपयोगबाळा अने यावत् परिग्रह संज्ञाना उपयोगवाळा पण ए प्रमाणे उत्पन्न थाय छे. स्त्रीवेदवाळा अने पुरुषवेदवाळा जीवो ( भवप्रत्यय नपुसंकवेद होवाथी ) उत्पन्न थता नथी. जघन्यथकी एक, वे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता नपुंसकवेदी उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे क्रोधकषायी, अने यावत् लोभकषाथी जाणवा. श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा उत्पन्न थता नथी, अने यावत् स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगवाळा पण उत्पन्न थता नथी. जघन्यथी एक, वे के ऋण अने उत्कृष्टथी संख्याता नोइंद्रियना उपयोगवाळा उत्पन्न धाय है. मनयोगी अने वचनयोगी उत्पन्न धता नथी. जधन्यथी एक, बे | अने त्रण तथा उत्कृष्टथी संख्याता काययोगबाळा उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे साकारोपयोगवाळा अने ए रीते अनाकारोपयोगवाळा पण उत्पन्न थाय छे.
इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास सयमहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसम एणं
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१२ शके
उद्देशः १
॥। ११२९ ॥
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वरके उद्देशान
केवइया नेरइया उववति ? केवतिया काउलेस्सा उववदंति ? जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उव्वदृति !, गोव्याख्या
यमा! इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जह- प्रज्ञाप्तिः
नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेण संखेजा नेरइया उववहृति, एवं जाव सन्नो, असनी ण उव्वदंति, जहन्ने ॥११३०॥
Pएको वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेजा भवसिद्धीया उव्वदृति एवं जाव लयअन्नाणी, विभंगनाणी ण उवव६ इंति, चक्खुदसणी ण उयवदंति, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदसणी उबटुंति,
एवं जाव लोभकसायी, सोइंदियउवउत्ता ण उब्वदृति एवं जाव फासिदियोवउत्ता न उव्वदंति, जहन्नणं एको वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेजा नोइंदियोवउत्ता उव्वदंति, मणजोगी न उच्चदंति एवं बइजोगीवि, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उव्वदृति एवं मागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता।
प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातायोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समयमां केटला नारक जीवो उद्वर्ते-मरण पामे, केटला कापोतलेश्यावाला उद्वत, यावत्-केटला अनाकारोपयोगवाळा उद्वर्ते ? (उ०] हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथिवीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोमां एक समये जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता नारको उद्वर्ते, जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता कापोतलेश्यावाळा उद्वर्ते, ए प्रमाणे यावत्-संज्ञी जीवो सुधी उद्वर्तना जाणवी. असंज्ञी जीवो उद्वर्तता नथी. भवसिद्धिक जीवो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे-यावत् श्रुतअज्ञानी सुधी जाणवं. विभगज्ञानी अने चक्षुदर्शनी उद
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व्याख्या
प्रचतिः
॥११३१॥
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वर्तता नथी. जघन्यथी एक, बे के ऋण अने उत्कृष्टथी संख्याता अचक्षुदर्शनी उद्वर्त छे. ए प्रमाणे यावत् लोभकषायी जीवो सुधी जाणं. श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे यावत्-स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगबाळा पण उद्वर्तता नथी. जघन्यथी एक, वे के त्रण अने उत्कृष्टथकी संख्याता नोइंन्द्रियना उपयोगवाळा उद्वर्ते छे. मनयोगी उद्वर्तता नथी. ए प्रमाणे वचनयोगी पण उद्वर्तता नथी. काययोगी जघन्यथी एक, वे के ऋण अने उत्कृष्टथी संख्याता उद्वर्ते छे. ए प्रमाणे साकारोपयोगवाळा अने अनाकारोपयोगवाळा पण जाणवा. (ए प्रमाणे नारक जीवोने विषे उद्वर्तनानुं परिमाण कं.)
इमीसें णं भंते! रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावास सयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस केवइया नेरइया पत्ता? केवइया काउलेस्सा जाब केवतिया अणागारोवउत्ता पत्ता? केवतिया अणतरोववनगा पत्ता ११ केवइया परंपरोववन्नगा पन्नत्ता २ ? केवइया अगंतरोगाढा पन्नत्ता ३ ? केवढ्या परंपरोगाढा प० ४ १ केवइया अणतराहारा पं० ५१ केवतिया परंपराहारा पं० ६ ? केवतिया अणंतरपज्जत्ता प० ७१ केवतिया परंपरपज्जत्ता पन्नत्ता ८१ केवतिया चरिमा प० ९ १ केवतिया अचरिमा पं० १०१, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावास सय सहस्सेसु संखेज वित्थडेसु नरएसु संखेज्जा नेरतिया १० संखेज्जा काउलेसा प० एवं जाब संखेज्जा सन्नी प०, असन्नी लिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहन्त्रेण एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोण संखेजा प०, संखेजा भवसिद्धीया प० एवं जाव संखेला परिग्गहसन्नोवउत्ता प० इत्थिवेदगा नत्थि, पुरिसवेदगा नत्थि, संखेज्जा नपुंसगवेदगा पर, एवं कोहकसायीवि माणकमाई जहा असन्नी, एवं जाव लोभक०, संखेज्जा सोई
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१३ शतके
उद्देशः १ ॥११३१॥
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व्याख्याप्रशतिः ॥११३२॥
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दियोवउत्ता प० एवं जाव फासिंदियो उत्ता, नोइंदियोवउत्ता जहा असन्नी, संखेजा मणजोगी प० एवं जाव अणागारोवउत्ता, अनंत रोववन्नगा सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहा असन्नी, संखेजा परंपरोववन्न० प०, एवं जहा अणतरोषवनगा तहा अणंतरोगाढगा अनंतराहारगा अनंतर पञ्चत्तगा, परंपरोगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववनगा ॥
[0] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना श्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावामोने विषे १ | केटला नारक जीवो कहेला छे १२ केटला कापोतळेश्यावाळा, यावत्-३९ केटला अनाकारोपयोगवाळा कहेला छे. १ केटला अनन्तरोपपन्न प्रथम समये उत्पन्न थयेला होय छे, अने केटला परंपरोपन - उत्पत्ति समयनी अपेक्षाए वे इत्यादि समयोने विषे उत्पन्न थयेला होय छे. केटला अनंतरावगाढ- विवक्षित क्षेत्रने विषे प्रथम समयमा रहेला के, केटला परंपरावगाढ-विवक्षित क्षेत्रमां द्वितीयादि समयने विषे रहेला छे, केटला अनंतराहार- प्रथम समये आहार करवावाळा छे, केटला परंपराहार - द्वितीयादि समये आहार करवावाळा छे, केटला अनन्तरपर्याप्ता - प्रथम समये पर्याप्ता होय छे, अने केटला परंपरपर्याप्ता-द्वितीयादि समये पर्याप्ता होय छे, केटला चरम-जेने छेलो तेज नारकभव बाकी छे एवा होय छे, अथवा केटला नारकभवना चरम बेल्ले समये वर्ते के, १० अने केटला अचरम-चरमधको विपरीत होय छे ? [अ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीना श्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे १ संख्याता नारक जीवो कहेला छे, २ संख्याता कापोतलेश्यावाळा कहेला छे, ए प्रमाणे यावत्संख्याता संज्ञी जीवो कहेला छे. असंज्ञी जीवो कदाचित् होय के अने कदाचित् होता नथी. जो होय छे तो जघन्यथी एक, वे के
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१३
उद्देशः १
॥१२३२॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३॥
१३शतके उद्देशा ॥११३३॥
वण अने उत्कृष्टथी संख्याता होय छ, संख्याता भवसिद्धिक जीवो कहेला छे, ए प्रमाणे यावत संख्याता परिग्रहसंज्ञाना उपयोग | वाळा कहेला है स्त्रीवेदी नथी अने पुरुषवेदी पण नथी, नपुंसकवेदी संख्याता होय छे. ए प्रमाणे क्रोधकषायी पण संख्याता होय होय छे. मानकपायी असंज्ञीनी पेठे (कदाचिद् होय छे अने कदाचिद् होता नथी.) ए प्रमाणे यावत्-(मायाकषायी अने) लोभकपायी जाणवा. संख्याता श्रोत्रेन्द्रियना उपयोगवाळा कह्या छे, ए प्रमाणे यावत्-स्पर्शनेन्द्रियना उपयोगवाळा कह्या छ, नोइंद्रियना
उपयोगवाळा असंज्ञीनी पेठे जाणवा, संख्याता मनोयोगी कहेला छे, अने ए प्रमाणे यावत ( संख्याता) ३९ अनाकारोपयोगी | जाणवा. अनंतरोपपत्र-प्रथम समये उत्पन्न थवावाळा नारको कदाचित् होय छे अने कदाचित् होता नथी. जो होय तो ते असं-15 झीनी पेठे जाणवा. संख्याता परंपरोपपत्र-द्वितीयादि समये उत्पन्न थयेला जाणवा. ए प्रमाणे जेम अनंतरोपपन्न करा तेम अनंतरावगाढ अनंतराहारक, अनन्तरापर्याप्तक अने चरम-जेने बेल्लोज नारक भव बाकी छे ते अथवा नारकभवने छेल्ले समये वर्तताजाणवा. परंपरावगाढ, यावत्-अचरम सुधी जेम परंपरोपपन्न करा तेम कहेना. (ए प्रमाणे संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकाबासनी वक्तव्यता कही.)
इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावासमयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु एगसमएण केव. | तिया नेरड्या उववज्जति जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उववजंति ?, गोयमा ! हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु नरएम एगसमएणं जह. एको वा दो वा निग्नि वा उक्को. असंखेजा नेरड्या उवव०, एवं जहेव संखेजवित्थडेसुतिन्नि गमगा तहा असंखेजवित्थडेवि तिनि गमगा, नवरं
KUMAR
१७
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥११३४॥
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असंखेज्जा भा०, सेसं तं चैव जाव असंखेज्जा अचरिमा प०, नाणत्तं लेस्सासु, बेसाओ जहा पढमसए नवरं संखेज्ववित्थडेसुवि असंखेज्ज वित्थडेसुवि ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उब्बवावेपव्वा, सेसं तं चैव ॥
[प्र० ] हे भगवन ! आ रत्नप्रभा पृथिवीना श्रीशलाख नरकावासीमांना असंख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समये केटला नारको उत्पन्न थाय, यावत्-केटला अनाकारोपयोगवाळा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गोतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीशलाख नरकावासीमांना असंख्यातयोजन विस्तारवाळा नरकावासीने विषे एक समये जघन्यथी एक, बे के ऋण अने उत्कृष्टथी असं| ख्याता नारको उत्पन्न थाय छे, ए प्रमाणे जेम संख्याता विस्तारवाळा नरकने विषे ( उत्पाद, च्यवन अने सत्ता ) ए त्रण आलापक | कला तेम असंख्यातयोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण त्रण आलापक कहेवा, परन्तु अहिं 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. बाकी वधुं पूर्व पेठे जाणं, यावत् 'असंख्याता अचरम नारको कहेला छे'- त्यांसुधी कहेवुं. लेश्याने विषे विशेषता के अने ते लेश्याओ प्रथम शतकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. परन्तु एटलो विशेष छे के संख्यात योजन विस्तारवाळा अने असंख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासीने विषे अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी संख्याताज च्यवे छे, एम कहेतुं, बाकी वधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं.
सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढबीए केवतिया निरयावास० पुच्छा, गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते! किं संखेज्ज वित्थडा असंखेज्जवित्थडा एवं जहा रयणप्पभाए तहा मकरप्पभाएवि, नवरं असन्नी तिस्रुवि गमःसु न भन्नति, सेसं तं चैव । वालुयप्पभाएं णं पुच्छा, गोयमा ! पन्नरस निरयावास सयस| हस्सा प सेसं जहा सरप्पभाए, णाणत्तं लेसासु, बेसाओ जहा पढमसए | पंकष्प भाए पुच्छा, गोयमा ! दस
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१३ शतके
उद्देशः १
॥ ११३४॥
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥११३५॥
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निरयावास एवं जहा सक्करप्पभाए, नवरं ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उब्वहंति, सेसं तं चैव ॥ धूमप्पभाए णं पुच्छा, गोयमा । तिन्नि निरयावाससय सहस्सा एवं जहा पंकप्पभाए ॥ तमाए णं भंते! पुढवीए केवतिया नि|रयावास० पुच्छा, गोयमा ! एगे पंचूणे निरयावाससयस हस्से पण्णत्ते, सेसं जहा पंकप्पभाए ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा नरक पृथिवीने विषे केटला नरकावासो होय छे-ते संबन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पचीश लाख नरकावासो होय छे. [प्र०] हे भगवन् । ते नरकावासो शुं संख्यातयोजनविस्तारवाळा होय के असंख्यातयोजनविस्तारवाळा होय ? [30] ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबन्धे कछु तेम शर्कराप्रभा संबन्धे जाणवुं, परन्तु ( उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ता ) ए त्रणे आलापकने विषे असंज्ञी न कहेवा ( कारण के असंज्ञी प्रथम नरकपृथिवीने विषेज उपजे छे.) बाकी बधुं पूर्व पेठे जाणवुं [प्र० ] बालुकाप्रभा संबन्धे प्रश्न. [30] हे गौतम! पंदरलाख नरकावासो कला छे, बाकी बधुं शर्कराप्रभानी पेठे जाणवुं. पण याने विषे विशेषता छे, अने ते प्रथम शतकमां कक्षा प्रमाणे जाणवी. [प्र०] हे भगवन् ! पंकप्रभा नरकने विषे केटला नरकावासो कक्षा के १ इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! दश लाख नरकावासो का छे. ए प्रमाणे जेम शर्कराप्रभा संबन्धे कछु तेम अहिं पण जाणवु. परन्तु अहिंथी अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी व्यवता नथी, बाकी बधुं पूर्वनी पेठे जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! धूमप्रभा संवन्धे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! त्रण लाख नरकावासो कथा है, ए प्रमाणे जेम पंकप्रभा संबन्धे कनुं छे तेम अहिं जाणवुं [प्र०] हे भगवन् ! तमा नरकपृथिवीने विषे केटला नरकावासो कथा के ? - इत्यादि प्रश्न [ उ०] हे गौतम! पांच न्यून एक लाख नरकावासो कक्षा छे. बाकी वधुं पंकप्रभा पेठे जाणवु.
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१३ शतके उद्देशः १ ।।११३५॥
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CO
प्रज्ञप्तिः
उद्देशः
www.kobatirth.org अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए कति अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पन्नत्ता?, गोयमा! पंच अणुत्तरा व्याख्या-1
काजाव अपइट्ठाणे, ते णं भंते ! किं संखेन्जवित्थडा असंखेन्जवित्थडा?, गोयमा संखेज्जवित्थडे य असंखेजवित्थडा ॥११३६॥
य, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालय जाव महानिरगसु संखेजवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिया उ०?, एवं जहा पंकप्पभाए, नवरं तिसुनाणेसु न उवव० न उब्व०, पन्नत्ता एसु तहेव अस्थि, एवं असंखेजवित्थडेसुवि नवरं असंखेन्जा भाणियब्वा ।। (सूत्रं ४७०)॥
[प्र०] हे भगवन् ! अधःसप्तम नरकपृथिवीने विषे अनुत्तर अने अत्यंत मोटा एवा केटला महानरकावासो कला छ । [उ०] हे | | गौतम ! अनुत्तर अने मोटा पांच नरकावासो कह्या छे. यावत्-(१काल, २महाकाल, ३रोर, ४महारोर, अने) ५अप्रतिष्ठान. [प्र.] हे भगवन् ! ते नरकावासो अ॒ संख्यातयोजनना विस्तारवाळा डे के असंख्यातयोजनना विस्तारवाला छे ? [उ०] हे गौतम ! वच्चेनो 3 अप्रतिष्ठान नरकावास संख्यातयोजनना विस्तारवाळो छे अने बीजा असंख्तातयोजनना विस्तारवाळा छे. [प्र०] हे भगवन् ! अधःसप्तम नरकपृथिवीना पांच अनुत्तर अने अत्यंत मोटा यावत्-महानरकावासोमांना संख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासने विषे एक समये केटला नारको उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पंकप्रमाने विषे का तेम अहिं जाणवू; परंतु एटलुं विशेष छे के अहिं त्रण ज्ञानसहित उत्पन्न यता नथी, (केमके सम्यक्त्वभ्रष्टज अहिं उपजे छे.) तेम च्यवता पण नथी. तो पण ए पांच नरकावामोमां ए प्रमाणे-प्रथमादि नरकपृथिवीनी जेम त्रण ज्ञानवाळा होय छे. ए प्रमाणे असंख्यातयोजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण जाणवं, परन्तु त्यां 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. ॥ ४७० ॥
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NSESSION
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥११३७॥
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इमीसे णं भंते 1 रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससयस हस्सेसु संखेज्जवि० नरएस किं सम्मद्दिट्ठी नेरतिया उवव० मिच्छादिट्टी ने० उ० सम्मामिच्छादिट्ठी नेर० उ० ?, गोयमा ! सम्मदिट्ठीवि नेरइया उ० मि च्छादिट्ठीवि नेरइया उव० नो सम्मामिच्छादिट्ठी उव० | हमीसे गं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावासमय सहस्से संखेजवित्थडेसु नरएस किं सम्मदिट्ठी नेर० उच्वहंति !, एवं चेव । इमीसे णं भंते! रयणप्पभार पुढबीए तीसाए निरयात्रासमयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा किं सम्मद्द्द्विीहिं नेरइएहिं अविरहिया मि. च्छादिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया सम्मामिच्छादिट्ठीहिं नेरहएहिं अविरहिया वा ?, गोयमा ! सम्मदिट्ठीहिवि नेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्ठीहिवि० अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्ठीहिं० अविरहिया विरहिया वा, एवं असंखेज्जवित्थडे सुवि तिन्नि गमगा भाणियव्वा, एवं सकरप्पभाएवि एवं जाव तमाएवि । असत्तमाए णं भंते ! पुढबीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेजवित्थडे नरए किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया पुच्छा, गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी नेरइया न उवव० मिच्छादिट्ठी नेरइया उबव० सम्मामिच्छादिट्ठी नेरइया न उवव०, एवं उब्वहंतिवि, अविरहिए जहेब रयणष्पभाए, एवं असंखेज्यवित्थडेसुषि तिनि गमगा ॥ ( सूत्र ४७१ )
[प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना त्रीशलाख नरकावासोमांना संख्याता योजनविस्तारवाळा नरकावासोने विवे शुं सम्यग्दृष्टि नारको उत्पन्न थाय, मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थाय के सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारको उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम! सम्यग्दृष्टि पण नारको उपजे, मिध्यादृष्टि पण नारको उपजे, परन्तु सम्यरिमध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थता नथी. [प्र०] हे भगवन् !
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१३ शतके उद्देशः १ ॥११३७॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११३८ ।
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आ रत्नप्रभा पृथ्वीना श्रीश लाख नरकावासोमांना संख्यातयोजनविस्तारवाळा नरकावासोने विषे शुं सम्यग्दृष्टि नारको व्यवे ? - इत्यादि प्रश्न. [ उ० ] पूर्व प्रमाणे जाण. [प्र० ] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासो शुं सम्यग्दृष्टि नारकोबडे अविरहित सहित छे, मिध्यादृष्टि नारकोवडे अविरहित छे के सम्यग्मिध्यादृष्टि नारकोवडे अविरहित के ? [अ०] हे गौतम! सम्यग्दृष्टि नारकोवडे अविरहित के, अने मिध्यादृष्टि नारकोवडे अविरहित के, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकोवडे कदाचित् अविरहित होय छे अने कदाचित् विरहित होय छे. ए प्रमाणे असंख्याता योजनविस्तारचाळा नार कोने विषे पण ( उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ता संबन्धे ) त्रण आलापक कहेवा. ए प्रमाणे शर्कराप्रमाने विषे अने यावत्-तमापृथिवी सुधी कहे. [प्र] हे भगवन् ! अधः सप्तमपृथ्वीना पांच अनुत्तर नरकावासोमांना यावत्-संख्याता नरकावासने विषे शुं सम्यग्दष्टि नारको उत्पन्न थाय ९ - इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम! सम्यग्दृष्टि नारको उत्पन्न थता नथी, पण मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थाय छे. सम्यग्मिध्यादृष्टि नारको उत्पन्न थता नथी. ( सम्यग्मिध्यादृष्टि काल न करे माटे न उपजे. ) ए प्रमाणे उद्वर्तना पण कहेवी. जेम रत्नप्रभाने विषे सत्ता संबन्धे नारको मिथ्यादृष्टयादिवडे अविरहित- सहित कहाा ले तेम अहिं कहेनुं. ए प्रमाणे असंख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण त्रण आलापको कहेवा. ॥ ४७१ ॥
से नूणं भंते! कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उवव० १, हंता गोयमा ! कपहले से जाव उबवज्यंति, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुवइ कण्हलेस्से जाव उववज्जंति ?, गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणे संकि० २ कण्हलेस परिणमइ कण्ह० २ कण्हलेसेसु नेरइएस उवत्रजंति, से तेणद्वेणं जाब
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१ ३ शतके उद्देशः १
॥ ११३८ ।
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R
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व्याख्याप्रक्षतिः ११३९॥
4RE
१३शतके उद्देशः | ॥११३९॥
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उववज्जति । से नणं भंते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेसे भवित्ता नीललेस्सेसु नेरहपसु उववज्जंति ?, हंता गोयमा!| जाव उवववंति, से केणद्वेणं जाव उववज्जति ?, गोयमा! लेस्सहाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नीललेस्सं परिणमंति नील०२ नीललेस्सेसु नेरहएसु उवव०, से तेणद्वेणं गोपमा! जाब उघव० से नूणं भंते! कण्हलेस्से नील जाव भवित्ता काउलेस्सेसु नेरहएसु उवव एवं जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्मावि भाणियब्वा जाव से तेण?णं जाव उववज्जति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ४७२)॥ तेरसमे पढमो १३-१॥
[प्र०] हे भगवन् ! खरेखर कृष्णलेश्यावाळो, नीललेश्यावाळो, यावत्-शुक्ललेश्यावाळो थईने कृष्णलेश्यावाळा नारकोने विषे उत्पन्न थाय ? [उ०] हा, गौतम! कृष्णलेश्यावाळो थईने यावत्-उत्पन्न थाय. [प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी आप एम कहो छो के 'कृष्णलेश्यावाळो थईने यावत्-उत्पन थाय?' [3] हे गौतम ! लेश्याना स्थानको संक्लेशने पामतां पामतां कृष्णलेश्यारूपे परिणाम थया बाद ते कृष्णलेश्यावाला नारकोने विष उत्पन्न थाय छे, ते कारणथी यावत्-'उत्पन थाय छे.' [H०] हे भगवन् ! शु खरेखर कृष्णलेश्यावाळो, यावत्-शुक्ललेश्यावाळो थईने नीललेश्यावाळा नारकोने विष उत्पन्न थाय ? [उ.] हा गौतम ! यावत् उत्पत्र थाय. [प्र०] हे भगवन ! शा हेतुथी यावत्-उत्पन्न धाय ? [उ.] हे गौतम ! लेश्याना स्थानको संक्लेशने पामतां अने विशुद्धि पामता, नीललेश्यारूपे परिणमे छे, नीललेश्यारूपे परिणाम थया बाद नीललेश्यावाळा नारकोमा ते उत्पन्न थाय छे, ते हेतुथी हे गौतम ! यावत् उत्पन थाय छे. [प्र.] हे भगवन् ! खरेखर कृष्णलेश्यावाळो, नीललेश्यावाळो, अंने यावद्-(शुक्ललेश्यावाळो थईने) कापोतलेश्यावाळा नारकोने विषे उत्पन्न थाय ? [उ.] हे जेम नीललेश्य संबन्धे का, तेम कापोतलेश्या संबन्धे पण यावद्-'ते
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११४० ॥
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हेतुथी यावद्-उत्पन थाय छे.' त्यांसुधी कहेवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ॥ ४७२ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १३ मा शतकमां प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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उद्देशक २.
विहाणं भंते! देवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चउब्विहा देवा पन्नत्ता, तंजहा भवणवासी वाणमंतरा जो वेमा० । भवणवासी णं भंते! देवा कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसबिहा पण्णत्ता, तंजहा- असुरकुमारा एवं भेओ जहा वितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया सब्वट्टसिद्धगा । केवइया णं भंते । असुरकुमारावासमयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! चोसट्ठि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा असं. खेजवि० १, गोयमा ! संखेज्ववित्थडावि असंखेज्जवि चोसट्ठी णं भंते! असुरकुमारावाससयस हस्सेसु संखेज| वित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एगसमएणं केवतिया असुरकुमारा उवव० जाव केवलिया तेउलेसा उबव० केव|तिया कण्हपक्खिया उववज्जति एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा तहेब वागरणं नवरं दोहिं वेदेहिं उवबजंति, नपुंसगवेयगा न उबव०, सेसं तं०, उब्वहंतगावि तहेब नवरं असन्नी उव्वहंति, ओहिनाणी ओहिदंसणी य ण उज्वहंति, सेसं तं चेव, पन्नन्त एसु तहेव नवरं संखेज्जगा इत्थिवेदगा पण्णत्ता एवं पुरिसवेदगावि, नपुंसगवेदगा नत्थि, कोहकसाई सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जह० एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता
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१३ पातके उद्देशः २ ॥११४-H
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व्याख्या
प्रशसिः
॥११४१॥
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एवं माण० माया• संखेखा लोभकसाई पण्णत्ता सेसं तं चैव तिसुवि गमएस संखेजेसु चत्तारि लेस्साओ भाणियबाओ, एवं असंखेज्ज वित्थडेसुवि नवरं तिसुवि गमएस असंखेज्जा भाणिव्वा जाव असंसेज्जा अचरिमा पण्णत्ता । [प्र० ] हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवो कहेला के १ [उ०] हे गौतम! चार प्रकारना देवो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ मवनवासी, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिषिक अने ४ वैमानिक. [प्र०] हे भगवन् ! भवनवासी देवो केटला प्रकारना कहेला के ? [अ०] हे गौतम! दश प्रकारना कहेला छे, ते आ प्रमाणे- असुरकुमार- इत्यादि भेदा बीजा शतकना देवोदेशकमां कह्या प्रमाणे यावत् 'अपराजित अने सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त कहेवा. [प्र० ] हे भगवन्! असुरकुमारना केटला लाख आवासो कह्या छे ? [उ०] हे गौतम! चोसठ लाख असुरकुमारना आवासो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते असुरकुमारना आवासो संख्याता योजनविस्तारवाळा छे के असंख्यातायोजन विस्तार वाळा छे ? [उ०] हे गौतम! संख्याता योजनविस्तारवाळा पण के अने असंख्यातयोजनविस्तारवाळा पण छे. [प्र० ] हे भगवन् ! चोसठ लाख असुरकुमारना आवासोमांना संख्यातायोजनविस्तारवाळा असुरकुमारोना आवासोमा एक समये केटला असुरकुमारो उपजे, यावत्-केटला तेजोलेश्यावाळा उत्पन्न याय, केटला कृष्णपाक्षिक जीवो उत्पन्न थाय ? ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबंधे [उ० १ प्र० ] प्रश्न कर्यो हतो, तेम अहिं प्रश्न करवो. अने ते प्रकारे उत्तर पण आपको, परन्तु एटलो विशेष छे के अहीं वे बेदो सहित उपजे, नपुंसकवेदवाळा न उपजे, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. उद्वर्तना संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवु, परन्तु एटलो विशेष छे के असंज्ञी उद्वर्ते छे-च्यवे छे, [कारण के ईशान देवलोक सुधीना देवो पृथिवीकायादि असंज्ञीमां उपजे छे.] अवधिज्ञनी अने अवधिदर्शनी त्यांथी उद्वर्तता-नीकळतां नथी, [कारण के असुरकुमारादिथी नीकळेला तीर्थकरादि न थाय अने
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१३ शतके उद्देश २ ॥११४१॥
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१३पतके उद्देशः२ ॥११४॥
अवधिज्ञान अने अवधिदर्शनसहित तीर्थकरादि ज उद्वर्ते.] बाकीर्नु बर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवू. सत्ताने आश्रयी पूर्वे ज कहेलं छे ते प्रमाणे व्याख्या
| सर्व कहे. परन्तु एटलो विशेष छे के त्यां संख्याता स्त्रीवेदवाळा कहेला छे. ए प्रमाणे पुरुषवेदवाळा पण कहेला छे, नपुंसकवेदवाळा प्रज्ञप्तिः ॥११४२॥ ४
| नथी. क्रोधकषाय वाळा कदाचित् होय छे अने कदाचित होता नथी. जो होय छ तो जघन्यथी एक, बे के त्रण अने उत्कृष्टथी संख्याता होय छे, ए प्रमाणे मान अने माया संबंधे पण जाणवू. लोभकषायवाळा संख्याता कहेला . [कारण के देवगतिमां लोककपायी घणा होय छे, तेथी हमेशां ते संख्याता ज होय.] बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. संख्यातासंबन्धे उत्पाद, उद्वर्तना अने | सत्ताना त्रण आलापकोने विषे चार लेश्याओ कहेवी. ए प्रमाणे असंख्याता योजनविस्तारवाळा असुरकुमारावासो संबंधे पण जाणवं, परन्तु त्रणे आलापकोने विषे 'असंख्याता' पाठ कहेवो, यावत्-'असंख्याता अचरम करा' छे.
केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास? एवं जाव थणियकुमारा, नवरं जत्थ जत्तिया भवणा॥ केवत्तिया णं भंते! वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता?, गोयमा! असंखेजा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता, ते ण भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा?, गोयमा! संखेजवित्थडा, नो असंखेजवित्थडा, संखेन्जसु णं भंते ! वाणमतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उवव०? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेववित्थडेसु तिन्नि गमगा तहेव भाणियब्वा वाणमंतराणवि तिनि गमगा। केवतिया णं भंते ! जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णता?, गोयमा! असंखेजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णता, ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा० १, एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाणवि निन्नि गमगा भाणियचा नवरं गगा तेउलेस्सा, उक्वजंतेसु पन्नत्तेसु
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51 १३शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११४३॥
य असन्नी नत्थि, सेसं तं चेव ॥ है। [प्र०] हे भगवन् ! केटला लाख नागकुमारना आवासो कहेला छे ! [उ.] पूर्व प्रमाणे जाणवा. यावत्-स्तनितकुमार सुधीर
उदेश२ [उत्पाद, उद्वर्तना अने सत्ता संबंधे त्रण आलापक] कहेवा, परन्तु एटलो विशेष के के ज्यां जेटला लाख भवनो होय त्यां तेटला 15॥१९४३॥ लाख भवनो कहेवा. [40] हे भगवन् ! वानव्यंतरदेवोना केटला लाख आवासो कहेला छे ? (उ०] हे गौतम ! बानव्यंतरदेवोना असंख्याता लाख आवासो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते आवासो शु संख्यातयोजनविस्तारवाळाछ के असंख्यातयोजनविस्तारवाळा छे ? [उ०] हे गौतम! संख्यात योजनविस्तारवाला छे, पण असंख्यात योजनविस्तारवाळा नथी. [H०] हे भगवन् ! संख्यातालाख योजनविस्तारवाळा वानभ्यंतरदेवोना आवासने विषे एक समय केटला वानव्यंतरदेवो उपजे [उ०] जेम असुरकुमारोना संख्याता योजनविस्तारवाळा आवासोने विष त्रण आलापको कह्या छे ते प्रमाणे वानव्यंतर संबन्धे पण त्रण आलापको कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! ज्योतिषिक देवोना केटला लाख विमानावासो कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! ज्योतिषिक देवोना असंख्याता लाख विमानावासो कहेला . [प्र०] हे भगवन् ! ते विमानावासो अ॒ संख्यात योजनविस्तारवाळा छे के असंख्यात योजनविस्तावाला छे ? [उ.] ए प्रमाणे जेम वानव्यंतर देवो संबंधे कयु छे, ते प्रमाणे ज्योतिपिकोने पण त्रण आलापको कहेवा, परन्तु एटलो विशेष छे के अहिं एक मात्र तेजोलेश्या कहेवी. उत्पादने विषे अने सत्ताने विष असंज्ञी जीवो उपजता तेम उद्वर्तता नथी, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू.
सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवतिया विमाणावासमयमहस्सा पन्नत्ता?, गोयमा! बत्तीसं विमाणावासमयस
।
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प्रज्ञप्ति
॥११४४॥
FORECASEAR
हस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते! किं संखेनवित्थडा असंखेजवित्थडा ?, गोयमा ! संखेजवित्थडावि असंखेन्जवित्थडावि, सोहम्मे णं भंते ! कप्पे बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्सेसु संखेजविस्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केव-18 १३३तके तिया सोहम्मा देवा उववज्जति ? केवइया तेउलेसा उवववंति ? एवं जहा जोइसियाणं तिनि गमगा तहेव तिन्नि | उद्देशः२ गमगा भाणियब्वा, नबरं तिसुवि संखेजा भाणियव्वा, ओहिनाणी ओहिदसणी य चवावेयव्वा, सेसं तं चेव ।
म॥११४५॥ असंखेजवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि गमगा, णवरं तिसुनि गमएसु अमंखेजा भाणियब्वा, ओहिनाणी य ओहिदसणी य संखेजा चयंति, सेसंत चेव, एवं जहा सोहम्मे वत्तब्बया भणिया तहा ईसाणेवि छ गमगा भाणियव्वा, सणकुमारे एवं चेव, नवरं इत्थीवेयगा न उववजंति, पन्नत्तेसु य न भण्णंति, अमन्नी तिसुवि गमएसुन |भण्णंति, सेसं तं चेव, एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव ॥
[प] हे भगवन् ! सौधर्म देवलोकने विषे केटला लाख विमानावासो कहेंला छे ? [उ०] हे गौतम ! बत्रीश लाख विमाना| वासो कहेला छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते विमानावासो अ॒ संख्याता योजनविस्तारवाळा छे के असंख्यातयोजनविस्तारवाळा छ ?
उ.] हे गौतम! संख्याता योजनविस्तारवाळा छे अने असंख्यात योजनविस्तारवाळा पण छ. [40] हे भगवन् ! सौधर्म देवलो. | कने विष बत्रीश लाख विमानावासोमांना संख्यातायोजन विस्तास्वाळा विमानोने विष एक समये केटला सौधर्म देवो उत्पन्न थाय, केटला तेजोलेश्यावाळा उत्पन्न थाय ? [३०] जेम ज्योतिषिकोने त्रण आलापको कयां तेम अहिं पण त्रण आलापको कहेवां, परन्तुवणे आलापकोमा 'संख्याता' एवो पाठ कहेवो. [अहिंथी नीकळी तीर्थकरादि थाय माटे] 'अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी च्यवे-एम
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बाल्याप्रदक्षिः ॥११४५॥
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कहे, बाकी धुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. असंख्यातायोजनविस्तारवाळा विमानावासोमा एप्रमाणे त्रण आलापको कहेवा, परन्तु पटलो | विशेष के के ए त्रणे आलापकोमा 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी संख्याता च्यवे छे. [ केमके 3१३शतके तीर्थकरादिक अवधिन्नान अने अवधिदर्शन सहित च्यवे अने ते संख्याता होय.] बाकी बर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवं. ए प्रमाणे जेम
ना उद्देशा
का॥११४५॥ सौधर्म देवलोकनी वक्तव्यता कही, तेम ईशान देवलोकने विषे [त्रण संख्याताना अने त्रण असंख्याताना] ए प्रमाणे छ आलापको | कहेवा. सनत्कुमारने विषे पण एमज जाणवू, परन्तु एटलो विशेष के के अहिं स्त्रीवेदवाळा उत्पन्न थता नथी, तेम सत्तामा पण होता नथी. त्रणे आलापकोने विषे असंज्ञी न कहेवा. [ कारण के अहिं मंझीथी आवी उपजे छे अने संज्ञीने विष जाय . ] बाकीजें वर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवु. ए प्रमाणे यावत्-सहस्रार देवलोक सुधी जाणवू, परन्तु विमानो अने लेश्याओमां विशेष छे. बाकी बर्षा पूर्वनी पेठे जाणवु.
आणयपाणयेसु णं भंते ! कप्पेसु केवतिया विमाणावाससया पणत्ता?, गोयमा! चत्तारि विमाणावाससया |पण्णत्ता, ते ण भंते। किं संखेज असंखेज०, गोयमा! संखेजवित्थ० असंखेजवि० एवं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगाजहा सहस्सारे असंखेजविस्थडे० उववजंतेसु यचयंतेसु य एवं चेव संखेजाभाणियव्वा, पन्नत्तेसु असंखेजा, नवरं नोइंदियोवउत्ता अणतरोववन्नगा अणतरोगाढगा अणतगहारगा अर्णतरपजत्तगा य एएसिं जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा पं० सेमा असंखेज्जा भाणियब्बा। आरणच्चुएसु एवं चेव जहा आणयपाणएतु, नाणत विमाणेसु, पवं गेवेजगावि । कति णं भंते! अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता?, गोयमा! पंच अणुत्तरवि
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व्याख्याप्राप्तिः ॥११४६॥
१तके उद्देशः२ ११४६॥
CSSICA
www.kobirth.org |माणा पन्नत्ता, ते णं भंते किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा, गोयमा संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य, पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववाइया देवा उवव० !, केवतिया सुक्कलेस्सा उवव०१, पुच्छा, तहेय गोयमा! पंचसुण अणुत्तरविमाणेसु संखेजविस्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जह० एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा अणुत्तरोववाइया देवा उववजति एवं जहा गेवेजविमाणेमु संखेज्जवित्थडेसु, नवरं किण्हपक्खिया अभवसिद्धिया तिसु अन्नाणेसु एए न उववज्जति न चयति न पन्नत्तएसु भाणियब्वा, अचरिमावि खोडिजति जाव संखेजा चरिमा पं० सेस तं, असंखेजवित्थडेसुवि एएन| भन्नंति, नवरं अचरिमा अत्थि, सेस जहा गेवेन्जएमु असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेज्ला अचरिमा प० ।
[म०] हे भगवन् ! आनत अने प्राणत देवलोकने विषे केटला शत (सेंकडो) विमानाचासो कहेला छे ? [उ०] हे गौतम ! चारसो विमानावासो कहेला छे. [प्र.] हे भगवन् ! ते विमानावासो शु संख्याता योजनविस्तारवाळा हे के असंख्यातायोजनविस्तारवाळा छ ? [उ०] हे गौतम ! संख्याता योजन विस्तारवाळा पण छे अने असंख्यातयोजनविस्तारवाळा पण छे. ए प्रमाणे संख्यातायोजनविस्तारवाळा विमानावासो विषेत्रण आलापको सहस्रार देवलोकनी पेठे कहेवा. असंख्यात योजनविस्तारवाळा विमानोने विषे उत्पाद अने च्यवन संबन्धे ए प्रमाणे 'संख्याता' ज कहेवां; सत्तामा असंख्याता कडेवा; परन्तु एटलो विशेष छे के नोइंद्रिय-मनना उपयोगवाळा, अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनंतराहारक अने अनंतरपर्याप्ता-ए पांच पदने विणे जघन्यथकी एक, वे के त्रण अने उत्कृष्टी संख्याता उपजे, अने सत्तामा असंख्याता होय-एम कहेवु. जेम आनत अने प्राणतने विषे का,
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व्याख्याप्रज्ञासिः ॥११४७॥
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| तेम आरण अने अच्युतने विषे पण ए प्रमाणे जाणवू, परंतु विमानोनी संख्यामा विशेषता छे. ए प्रमाणे अवेयक संबंधे पण जाणवू, [प्र०] हे भगवन् ! केटलां अनुत्तर विमानो कयां छे' [उ०] हे गौतम! पांच अनुत्तर विमानो कहेला . [प्र०) हे भगवन् !
का१३शतके | ते अनुत्तर विमानो संख्याता योजनविस्तारवाळां छे के असंख्याता योजनविस्तारवाळां छ? [30] हे गौतम ! संख्याता योजन
उद्देश:
११४७॥ विस्तारवाळू पण , तेमज असंख्याता योजनविस्तारवाळां पण के. [H०] हे भगवन् ! पांच अनुत्तर विमानोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा विमानने विष एक समये केटला अनुत्तरोपपातिक देवो उत्पन्न थाय, केटला शुक्ललेश्यावाळा उत्पन्न थाय-इत्यादि प्रश्न करवो. [उ.] हे गौतम! पांच अनुत्तरविमानोमां संख्यातायोजन विस्तारवाला सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमानने विषे जघन्यथी एक, बे के त्रण, अने उत्कृष्टथी संख्याता अनुत्तरौपपातिक देवो उत्पन्न थाय छ. ए प्रमाणे जेम संख्याता विस्तारवाळा ग्रेवेयक विमानो संबन्धे का ते प्रमाणे अहिं कहेवु, परन्तु एटलो विशेष के कृष्णपाक्षिको, अभव्यो अने त्रण अज्ञानने विष वर्तता जीवो अहिं उपजता नथी, च्यवता नथी अने सत्तामा पण होता नथी-एम कहे. अचरमनो (जेने छेल्लो अनुत्तर देवनो भत्र नथी, पण बधारे भवो के तेनो) पण प्रतिषेध करवो, [ केमके अनुत्तरसर्वार्थसिद्धने विषे जे चरम होय तेज उपजे. ] यावत्-त्यां 'संख्याता चरम' (जेने छेल्लो अनुत्तर देवनो भव छे तेओ) कहेला छे. बाकी वर्षा पूर्व पेठे जागवू. असंख्याता योजन विस्तारवाळा अनुत्तर विमानोने विषे पण पूर्वोक्त (कृष्णपाक्षिकादिक) न कहेवां, पण त्यां अचरम (जेने ते डेल्लो भव नथी एवा) उपजे छे. बाकी जेम ग्रैवेयकने विषे का तेम असंख्यातायोजन विस्तारवाळा अनुत्तर विमानोने विषे यावत्-'असंख्याता अचरम कमा छ त्यांसुधी जाणवू.
चोसट्ठीए णे भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मविट्ठी अ-.
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व्याख्याप्रतिः ॥११४८॥
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सुरकुमारा उबव० मिच्छादिट्ठी एवं जहा रयणप्पभाए तिन्नि आलावगा भणिया तहा भाणियव्वा, एवं असंखेजवित्थडेवि तिन्नि गमगा, एवं जाव गेवेज्जवि० अणुत्तरवि० एवं चेव, नवरं तिसुवि आलाबएस मिच्छादिट्ठी | सम्मामिच्छादिट्ठी य न भन्नंति, सेसं तं चैव । सें नूणं भंते! कण्हलेस्सा नीलजाब सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्से सु देवेसु उवव०१, हंता गोयमा ! एवं जहेव नेरइएस पढमे उद्देसए तहेव भाणियव्वं, नीललेसाएवि जहेब नेरइयाणं जहा नीललेसाए, एवं जात्र पम्हलेस्सेसु सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, नवरं लेस्मट्ठाणेसु विसुज्झमाणे वि० २ सुक्कलेस्सं परिणमति सु० २ सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जंति, से तेणद्वेणं जाव उववज्जंति । सेवं भंते! सेवं भंते ! ( सूत्रं ४७३ ) ।। १३-२ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! चोसठलाख असुरकुमारना आवासोमांना संख्यातयोजन विस्तारवाळा असुरकुमारना आवासोने विषे शुं सम्यग्दृष्टि असुरकुमारो उत्पन्न थाय, मिथ्यादृष्टि असुरकुमारो उत्पन्न थाय, ( के मिश्रदृष्टि उत्पन्न थाय ) ? [अ०] ए प्रमाणे जेम रत्नप्रभा संबन्धे त्रण आलापको कथा (उ० १ सू० १३.) तेम अहिं पण कहेवा. ए प्रमाणे असंख्याता योजन विस्तारवाळा असुरकुमारोना आवासोने विषे पण सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टि संबन्धे ए त्रण आलापको कड़ेवा. ए प्रमाणे यावत्-ग्रैवेयक विमानने विषे अने अनुत्तर विमानने विषे पण जाणवं, परन्तु एटलो विशेष छे के अनुत्तर विमानसंबन्धे उत्पाद, च्यवन अने सत्ताना त्रण आलापकने विषे मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टि न कहेवा. बाकी बधुं पूर्व पेठे जाणवुं [प्र०] हे भगवन् ! खरेखर कृष्णलेश्यावाळा, नीलश्यावाळा, यावत् शुक्ललेश्यात्राळा थईने कृष्णलेश्या वाळा देवोमां उत्पन्न थाय ? [उ०] हा, गौतम ! जेम नारको संबन्धे
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१३ शके उद्देशः २ ॥११४८॥
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शतक
बाख्याप्रज्ञप्ति ११४९॥
प्रथम उद्देशकमां (सू. १९) का छे ते प्रमाणे जाणवू. नीललेश्यावाळाने पण जेम नारकोने कह्यु छ तेम कहे, जेम नीललेश्यावाळाने विषे का छे तेम यावत्-पालेश्यावाळा अने शुक्ललेश्यावाळा माटे पण जाण. परन्तु एटलो विशेष छे के-लेश्याना स्थानको विशुद्ध यतां थता शुक्ललेश्यारूपे परिणमे छे, शुक्ललेश्यारूपे परिणमन थया पछी शुक्ललेश्यावाळा देवोमां ते उत्पन्न थाय छे, ते कारणथी हे गौतम ! यावत् 'उत्पन्न थाय छे.' 'हे भगवन् ! ते एमज हे, हे भगवन् ! ते एमज .॥४७३ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १३ मा शतकमां वीजा उद्देशानो मृलार्थ संपूर्ण थयो.
उदेश
॥११५॥
उद्देशक ३. नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निव्वत्तणया एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियच्वं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ४७४) ॥ १३-३॥
[प्र०] हे भगवन् ! नारको [ उपजवाना क्षेत्रने प्राप्त थतां ] अनन्तराहारी-तुरतज आहार करवावाळा होय ? अने त्यारपछी निर्वर्तना-शरीरनी उत्पत्ति करे, [त्यार पछी लोमाहारादिद्वारा पुद्गलो ग्रहण करे, त्यार पछी इन्द्रियादिरूपे पुद्गलोनो परिणाम करे, त्यारबाद परिचारणा-शब्दादि विषयोनो उपभोग-कर, अने त्यारपछी अनेक प्रकारना रूपो विकुर्वे ? [उ०] [ हा, गौतम!] इत्यादि प्रज्ञापना सूत्रनुं परिचारणा पद समग्र कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.'॥ ४७४ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १३ मा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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H
पाख्याप्राप्ति
॥११५०॥
UPECIAS
उद्देशक ४. कति भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहे. सत्तमा, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया जाव अपइट्ठाणे, ते णं णरगा छट्ठीए त- गा । माए पुढवीए नरएहिंतो महंततरा चेव महाविच्छिन्नतरा चेव २ महावगासतरा चेव ३ महापारिकतरा चेवर,
॥११५॥ णो तहा महापवेमणतरा चेव १ नो आइन्नतरा चेव २ नो आउलतरा चेव ३ अणोषणतरा चेव ४, तेमु णं नर. एसु नेरतिया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव १ महाकिरियतरा चेव २ महासवतरा चेव ३ महावेयणतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव १ नो अप्पकिरियतरा चेव २ नो अप्पासवतरा चेव ३ नो अप्पवेदणतरा चेव ४ अप्पड्डियतरा चेव १ अप्पजुत्तियतरा चेव २ नो तहा महड्डियतरा चेव १ नो महजुइयतरा चेव । छट्ठीए ण तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पण्णत्ते, ते ण नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहितो नो तहा महन्ततरा चेव महाविच्छिन्न०४ महप्पवेसणतरा चेव आइन्न ४ तेसुण नरएमु णं नेरतिया अहेसत्तमाए पुढबीए नेरइएहितो अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरि०४ नो तहा महाकम्मतरा चेव महाकिरिय४ महडीयतरा चेव महाजुइयतरा चेव नो तहा अप्पडियतरा चेव अप्पजुइयतरा चेव । छट्ठीए तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पु० नरएहितो महत्तरा चेव ४ नो तहा महप्पवेमणतरा चेद ४, तेसु णं नरएसु नेर. तिया पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीएहितो महाकम्मतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव ४ अप्पड्डियतरा चेव २॥5
बरु
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व्याख्याप्रजाति १९५१॥
| नो तहा महड्डियतरा चेव २, पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिन्नि निरयावाससयमहस्सा पन्नत्ता एवं जहा हूँ छडीए भणिया एवं सत्तवि पुढवीओ परोप्परं भण्णति जाव रयणप्पभंति जाव नो नहा महड्डियतरा चेव अप्प-17
| उमेश जुत्तियतरा चेव ( सूत्र ४७५)॥
॥११५१॥ [प्र०] हे भगवन् ! केटली नरक पृथिवीओ कही के ? [उ.] हे गौतम ! सात पृथिवीओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ रत्नप्रभा, यावत्-७ अधःसप्तम पृथिवी. [4.] हे भगवन् ! अधःसप्तम नरकपृथिवीमा पांच अनुत्तर अने अत्यन्त मोटा नरकावासो यावत्'अप्रतिष्ठान' सुधी कहेला के, ते नरकावासो छट्ठी तमःप्रभापृथिवीना नरकावासोथी अत्यन्त मोटा, अतिविस्तारवाळा, घणा अवकाशवाळा, घणाजन रहित अने शून्य हे, परन्तु ते महाप्रवेशवाळा नथी, [ अर्थात् छट्ठी नरक पृथिवीमा जेम घणा जीवोनो प्रवेश थाय , तेम सप्तम नरकपृथिवीमा घणा जीवोनो प्रवेश थतो नथी. ] [ घणा नारकोबडे ] ते अत्यन्त संकीर्ण अने अत्यन्त व्याप्त नथी, अर्थात् ते नरकावासो घणा विशाल छे. ते नरकावासोमा रहेला नारको छट्ठी तमा पृथिवीना नारकोथी महाकर्मवाळा, महाक्रियावाळा, महाआश्रववाला, अने महावेदनावाला छे, परंतु तेओ [छट्ठी नरक पृथिवीनी अपेक्षाए ] अल्पकर्मवाला, अल्पक्रियावाळा, अल्पआश्रववाळा अने अल्पवेदनावाळा नथी. ते नारको अत्यन्त अल्पऋद्धिवाला अने अत्यन्त अल्पधुतिवाळा है परन्तु ते महाऋद्धिवाला अने महाद्युतिवाळा नथी . उट्ठी तमा नरकपृथिवीमां पांच न्यून एक लाख नरकावासो कहेला छे. ते नरकावासो सातमी नरकपृथिवीना नरकावासो करतां तेवा अत्यन्त मोटा अने महाविस्तारवाळा नथी, परन्तु ते महाप्रवेशवाळा अने नारकोवडे अत्यन्त संकीर्ण थे. ते नरकावासोमा नारको सातमी नरकपृथिवीना नारको करतां अल्पकर्मवाळा अने अल्पक्रियावाळा , परन्तु
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*HOURS
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१पके उमेशः४ १९५२॥
EXAWA
तेवा अत्यन्त महाकर्मवाळा अने महाक्रियावाळा नथी. तेओ सप्तमनरकपृथिवीना नारकोथी महाऋद्धिवाळा अने महाद्युतिबाला छे. व्याख्या- | परन्तु तेथी अल्पऋद्धिवाळा अने अल्पद्युतिवाळा नथी, छट्ठी तमा नरकपृथिवीना नरकावासो पांचमी धूमप्रभानरकपृथिवीना प्रज्ञप्ति नरकावासोथी अत्यन्त मोटा -इत्यादि चार बोल कहेवा. परन्तु तेनी पेठे ते महाप्रवेशवाळा नथी, अर्थात् तेमां घगा जीवो प्रवेश ॥११५॥
करता नथी ते नरकावासोमा नारकीओ पांचमी धूमप्रभा पृथिवीना नारको करतां महाकर्मवाळा के ४, परन्तु तेवा अल्पकर्मवाळा नथी-४, ते अल्पऋद्धिवाळा , परन्तु ते प्रमाणे ते अत्यन्त महद्धिक नथी. पांचमी धूमप्रभा नरकपृथिवीमांत्रण लाख नरकावासो कहेला छे-इत्यादि जेम छट्ठी तमापृथिवी संबंधे का, तेम साते नरकपृथिवीओ संबंधे परस्पर यावत्-'रत्नप्रभा'-सुधी कहे, यावत्तेथी [शर्कराप्रभाना नारको] महाऋद्धिवाळा नथी, पण अल्पद्युतिवाळा छे. ॥ ४७५ ॥ .
रयणप्पभापुढविनेरइया ण भंते ! केरिसयं पुढविफासं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा! अणिठं जाव त अमणाम एवं जाव अहेसत्तमपुढविनेरहया एवं आउफासं एवं जाव वणस्सइफासं ( सूत्रं ४७६)॥
[] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथिवीनां नारको केवा प्रकारना पृथिवीना स्पर्शने अनुभवता विहरे छे ? [3] हे गौतम ! अनिष्ट, यावत्-मनने प्रतिकूळ-(पृथिवीना स्पर्शने अनुभवता विहरे छे.) इत्यादि यावत्-अधःसप्तम पृथिवीना नारको संबंधे जाणवु ए रीते (अनुष्ट अने प्रतिकूल ) पाणीना स्पर्शने, यावत्-वनस्पतिना स्पर्शने ( अनुभवता विहरे छे.)॥४६॥
इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोचं सकरप्पभं पुढवि पणिहाय सव्वमहंतिया वाहल्लेणं मवक्खुडिया सव्वंतेतु एवं जहा जीवाभिगमे वितिए नेरहयउद्देसए ॥ ( सूत्रं ४७७ ) ॥
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व्याख्या
प्रशसिः ॥११५३॥
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[0] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी बीजी शर्कराप्रभारथिवीनी अपेक्षाए जाडाइमां सर्व करतां मोटी छे, अने चारे दिशाए लंबाई पोळाइमां सर्वथी न्हानी छे ? [उ०] हा गौतम! इत्यादि-जेम जीवाभिगम सूत्रना बीजा नैरयिक उद्देशकमा क छे तेम अहिं जणबु ॥ ४७७ ॥
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाष पुढवीए णिरय परिसामंतेसु जे पुढविक्काया एवं जहा नेरइयउद्देसए जाव अहेमतमाए | (सूत्रं ४७८ ) ॥
[go] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीना नरकावासोनी आसपास जे पृथ्वीकायिक जीवो छे, यावत्-वनस्पतिकायिक जीवो छे ते (महाकर्मवाळा अने महावेदनावाळा हे १ [अ०] हा गौतम ! इत्यादि-जेम जीवाभिगम नैरयिक सूचना उद्देशक्रमांक छे तेम यावत्- अधः सप्तम नरकपृथिवी सुधी जाणवु ॥ ४७८ ॥
कहिणं भंते! लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते १, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतरस्स असंखेज्ज विभागं ओगाहेत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । कहिं णं भंते! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते १, गोपमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उवासंतरस्स मातिरेगं अर्द्ध ओगाहित्ता एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते, कहिं णं भंते! उडलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ?, गोयमा । उपि सर्णकुमारमाहिंदाणं कपाणं हट्ठि वंभलोए कप्पे रिट्ठबिमाणे पत्थडे एत्थ णं उडलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । कहिनं भंते! तिरिलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्त्रयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए
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१३ शतके
उद्देशः ४
॥११५३॥
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व्याख्याप्राप्तिः
NASIK
पुढवीए उवरिमहेटिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एस्थ ण तिरियलोगस्समझे अट्टपएसिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तंजहा-पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहिणा एवं जहा दसमसए नामधेजत्ति ॥ ( सूत्रं ४७९)॥ [प्र०] हे भगवन् ! लोकना आयाम-लंबाईनो मध्य भाग क्या कहेलो छ ? [उ०] हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथिवीना आका
*उद्देशः४
॥११५४॥ शना खंडनो असंख्यातमो भाग उल्लंघन कर्या पछी अहीं लोकना आयामनो मध्यभाग कहेलो छ. [प्र०] हे भगवन् !क्यां अधोलोकना आयाम-लंबाइनो मध्य भाग कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! चोथी पंकप्रभा पृथिवीना आकाशना खंडनो कंडक अधिक अरधो भाग उल्लंघन कर्या पछी अहीं अधोलोकना आयामनो मध्य भाग कहेलो छे. [प्र.] हे भगवन् ! क्यां ऊर्ध्वलोकनी लंबाइनो मध्यभाग कहेलो छ ? [उ.] हे गौतम ! सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवलोकना उपर अने ब्रह्मदेवलोकनी नीचे रिष्ट नामे त्रीजा प्रतरने विषे | अहिं ऊर्ध्वलोकना आयामनो मध्य भाग कहेलो . [प्र०] हे भगवन् ! तिर्यग्लोकना आयामनो मध्यभाग क्या कहेलो छ ? | [उ.] हे गौतम जंबूद्वीपमा मेरुपर्वतना बरोबर मध्यभागने विषे आ रत्नप्रभा पृथिवीना उपर अने नीचेना क्षुद्र ( सर्व करतां लघु ) एवा बे प्रतरो छ, तेने विषे तिर्यग्लोकना मध्यभागरूप आठ प्रद्देशनो रुचक कहेलो छे, ज्यांथी आ दश दिशाओ नीकळे छे, ते आ प्रमाणे-१ पूर्वदिशा, २ पूर्वदक्षिण-इत्यादि जेम दशमा शतकना प्रथम उद्देशकने विषेकयु छे ते प्रमाणे यावत् 'दिशाना दश नाम छे'-त्या सुधी जाणवू. ॥ ४७९ ।।
इंदा ण भंते ! दिसा किमादीया किंपवहा कतिपदेसादीया कतिपदेसुत्तरा कतिपदेसीया किंपजवसिया कि|संठिया पन्नत्ता?, गोयमा! इंदाणं दिसा ख्यगादीया रुयगपवहा दुपएसादीया दुपएसुत्तरा लोग पडुच्च असं
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१३शतके
॥११५५॥
खेजपएसिया अलोग पडुच्च अणंतपएसिया लोगं पडुच्च साईया सपन्जवसिया अलोगं पडुच्च साईया अपज्जवसिया व्याख्या
लोगं पडुच्च मुरजसंठिया अलोगं पड्डुच्च सगडुद्धिसंठिया पन्नत्ता। अग्गेयी णं भंते ! दिसा किमादीया किंपवहा प्रज्ञासः ॥११५५॥
कतिपएसादीया कतिपएमविच्छिन्ना कतिपएसीया किंपनवसिया किंसंठिया पन्नत्ता?, गोयमा! अग्गेपी णं | दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा एगपएसादीया एगपएसविच्छिन्ना अशुत्तरा लोगं पडुच असंखेजपपसिया अलोगं पडुच्च अणंतपएसिया लोग पडुच साइया सपनव. अलोगे पडुच्च साइया अपज्जवसिया छिन्नमुत्तावलिसंठिया पण्णत्ता । जमा जहा इंदा, नेरई जहा अग्गेयी, एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि, जहा अग्गेई तहा चत्तारिवि विदिसाओ। विमला ण भंते ! दिसा किमादीया० ? पुच्छा जहा अग्गेयीए, गोयमा! विमला णं दिसा रुय.
गादीया रुयगप्पबहा चउप्पएसादीया चउपएसविच्छिन्ना अणुत्तरा लोगं पडुच्च सेसं जहा अग्गेयीए नवरं रुयगकासंठिया पण्णत्ता, एवं तमावि ॥ (सूत्र ४८०)॥
[0] हे भगवन् ! १ ऐन्द्री (पूर्व) दिशानी आदिमां शुं छे ? २ ते क्याथी नीकळे छ ? ३ तेनी आदिमां केटला प्रदेशो छ ? 1४ केटला प्रदेशोनी उत्तरोत्तर वृद्धि थाय छ १५ ते केटला प्रदेशनी १६ तेनो अन्त क्यां छे? अने ७ ते केवा आकारे कहेली
के? [उ०] हे गौतम! १ऐन्द्री दिशानी आदिमां रुचक छे, २ ते रुचक थकी नीकळे छे, ३ तेनी आदिमां बे प्रदेशो के, ४ वे ६ प्रदेशनी उत्तरोत्तर वृद्धि थाय छे, ५ लोकने आश्रयी ते असंख्यातप्रदेशवाळी छे, अलोकने आश्रयी अनन्तप्रदेशात्मक छ, ६ लोकने ६
आश्रयी आदि अने अन्तसहित के, अने अलोकने आश्रयी सादि अने अनन्त छे, ७ लोकने आश्रयी मुरज-मृदंगने आकारे के,
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अने अलोकने आश्रयी गाडानी ऊधने आकारे कहेली छे. [प्र०] हे भगवन् ! १ आग्रेयी दिशानी आदिमा झुं१२ ते क्याथी व्याख्यामानीकळे छे ? ३ तेनी आदिमां केटला प्रदेशो के ? ४ ते केटला प्रदेशना विस्तारवाळी के ? ५ ते केटला प्रदेशनी के ? ६ तेने अन्ते |
१३वतके प्राप्तिः शुं छे ? ७ अने ते केवा आकारे ? [उ०] हे गौतम! १ आग्नेयी दिशानी आदिमां रुचक , २ ते रुचक थकी नीकळे के, ३
उडशा ॥११५६॥ तेनी आदिमां एक प्रदेश छे, ४ ते एक प्रदेशना विस्तारवाळी छ, ५ ते उत्तरोत्तर वृद्धिरहित छे, अने लोकने आश्रयी असंख्यप्रदे
॥११५॥ शात्मक छे, अलोकने आश्रयी अनन्त प्रदेशात्मक , ६ लोकने आश्रयी आदि अने अन्त सहित , अने अलोकने आश्रयी सादि अने अनन्त जे. अने ७ ते तूटी गएली मोतीनी माळाना आकारे कहेली . याम्या (दक्षिण) दिशा पेन्द्री (पूर्व ) दिशानी पेठे जाणवी नती आग्नेयी दिशानी पेठे जाणवी-इत्यादि जेम ऐन्द्री दिशा कही, तेम चारे दिशाओ अने आनेयी दिशा कही तेम चारे विदिशाओ जाणवी. [प्र०] हे भगवन् ! विमला (ऊर्ध्व) दिशानी आदिमां शुं छे? इत्यादि आयीनी पेठे प्रश्न करवो. [उ.] हे गौतम ! १ विमला दिशानी आदिमां रुचक छ, २ ते रुचक थकी नीक छ, ३ तेनी आदिमा चार प्रदेश छे, ४ ते वे प्रदेशना विस्तारवाळी छे, ५ उत्तरोत्तर वृद्धिरहित ते दिशा लोकने आश्रयी असंख्यातप्रदेशात्मक छे. बाकी अधुं आग्नेयी दिशाने विषे कधु छ तेम जाणवू. परन्तु एटलं विशेष के के ते रुचकने आकारे कहेली छे. ए प्रमाणे तमा (अधो) दिशा पण जाणवी. ॥ ४८०॥
किमिय भंते ! लोपत्ति पवुचह, गोयमा! पंचत्यिकाया, पमणं पवतिए लोएत्ति पवुचइ, तंजहा-धम्मत्थिकाए अहम्मस्थिकाए जाव पोग्गलस्थिकाए | धम्मस्टिकाए णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तनि ?, गोयमा ! धम्मत्थिका कारण जीवाणं आगमणगमणभासुम्मेममणजोगा वहजोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सम्वे 131
PORNKA
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व्याख्याभवतिः
११५७॥
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ते धम्मत्थिकाए पवतंति, गहलक्खणे णं धम्मत्थिकाए । अहम्मत्थिकारणं जीवाणं किं पवत्तति । गोयमा ! अहम्मत्थिकारणं जीवाणं ठाणनिसीयातुयहण मणस्स य एगत्ती भावकरणता जे यावन्ने० थिरा भावा सब्वे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति, ठाणलक्खणे णं अहम्मत्थिकाए ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! आ लोक केवो कद्देवाय छे ? [उ ] हे गौतम! आ लोक पंचास्तिकायरूप कहेवाय छे, ते आ प्रमाणे- १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, यात्रत् - ( ३ आकाशास्तिकाय ४ जीवास्तिकाय अने ५ पुद्गलास्तिकाय. [१०] धर्मास्तिकाय वडे जीवोनी शी प्रवृत्ति धाय ? [अ०] हे गौतम! धर्मास्तिकाय वडे जीवोनुं आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष (नेत्रनुं उघडं) मनोयोग वचनयोग अने काययोग प्रवर्ते ; ते शिवाय बीजा तेवा प्रकारना गमनशील भावो छे, ते सर्व धर्मास्तिकायथा प्रवर्ते छे, केमके गतिलक्षण धर्मास्तिकाय छे. [म] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकायवडे जीवोनी सी प्रवृत्ति थाय १ [उ०] हे गौतम! अधर्मास्तिकाय बडे जीवोनुं उभा रहेनुं, बेसनुं, सुबुं अने मनने स्थिर कर-वगेरे प्रवर्ते छे, ते शिवाय बीजा स्थिर भावो के ते सर्वे अधर्मास्तिकाय थकी प्रत छे, केमके स्थितिलक्षण अधर्मास्तिकाय छे.
आगासत्थिकाए णं भंते! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ?, गो० आगासस्थिकारणं जीवदव्वाण य अजीव वाण य भाषणभूण- एगेणवि से पुने दोहिवि पुन्ने सयंपि माएजा । कोडिसएणवि पुत्रे कोटिसहस्संपि माएजा || १ || अवगाहणालकवणे णं आगासत्थिकाए । जीवत्थिकारणं भंते! जीवाणं किं पवसति ?, गोयमा ! जीवत्थिकारणं जीवे अनंनाणं आभिणिबोहियनागपजवाणं अनंताणं सुयनाणपञ्जवाणं एवं जहा वितियसए
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१२ शक्
उद्देशः ४ ॥११५०॥
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१३चत
AABARDAFAS
अधिकायउसए जाव उवओगं गच्छति, उवओगलक्खणे णं जीवे॥ पोग्गलस्थिकाए णं पुच्छा, गोयमा! पोग्गलस्थिकारणं जीवाणं ओरालियवेउब्विय आहारए तेयाकम्मए सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियमणजोगवयजोगकायजोगआणापाणणं च गहणं पवत्तनि, गहणलवणे ण पोग्गलत्थिकाए ॥ (सूत्रं ४८१)।
* उद्देशा
११५८॥ [प्र०] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायवडे जीवोनी अने अजीवोनी शी प्रवृत्ति थाय ? [उ०] हे गौतम ! आकाशास्तिकाय जीव | अने अजीव द्रव्यनो आश्रयरूप के. अर्थात् तेथी जीव अने अजीवद्रव्यनो अबगाह प्रवर्त छे. "एक-(परमाणु)-थी के बे (परमाणु) थी पूर्ण एक आकाशप्रदेशनी अंदर सो परमाणुओ पण माय, अने सो क्रोड ( परमाणुओ) वडे पूर्ण एक आकाशप्रदेशमा हजार क्रोड ( परमाणुओ) पण माय;" केमके अवगाहनालक्षण आकाशास्तिकाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! जीवास्तिकायवडे जीवोनुं शुं प्रवः ? [उ०] हे गौतम ! जीवास्तिकायवडे जीव अनन्त आभिनियोधिक-मतिज्ञानना पर्यायो, अने अनन्त श्रुतज्ञानना पर्यायोना इत्यादि जेम बीजा शतकना अस्तिकाय उद्देशकमां कछु ने तेम अहिं कहे, यावत-ते (ज्ञान अने दर्शनना) उपयोगने प्राप्त थाय छे, केमके उपयोगलक्षण जीव . [प्र०] हे भगवन् : पुद्गलास्तिकायबडे शुं प्रवर्ने ? [उ.] हे गौतम ! पुद्गलास्तिकायबडे जीवोने औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रपनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग अने श्वासोच्छ्वासन ग्रहण प्रवर्ने छे. केमके ग्रहणलक्षण पुद्गलास्तिकाय के. ॥ ५८१॥
गगे भंते ! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ! गोयमा! जहन्नपदे तिहिं उक्कोसपदे छहिं । केवतिएहिं अहम्मस्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा! जहन्नपए चरहिं उकोसपग मत्तहिं । केवतिएहिं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११५९॥
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आगासत्थिकापसेहिं पुढे १, गोयमा ! सत्तहिं । केवतिएहिं जीवत्धिकायपएसेहिं पुट्ठे ?, गोयमा ! अणंतेहिं । harएहिं पोग्गलन्थिकाय पएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! अणतेहिं । केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुट्ठे ?, सिप पुढे सिय नो पुढे, जड़ पुढे नियम अणतेहि ॥ पगे भंते । अहम्मत्थिकाय पए से केवतिएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुढे १, गोपमा ! जहन्नपए चउहिं उकोसपए सत्तहिं । केवतिएहिं अहम्मत्थिकाय पएसेहिं पुढे?, जहनपए तिहिं उक्कोस पर छहिं, सेसं जहा वम्मत्थिकायस्स ||
[प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेलो होय ? [अ०] हे गौतम! जबन्यपदे त्रण प्रदेशोवडे, अने उत्कृष्टपदे छ प्रदेशोवडे स्पर्शायेलो होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेलो होय ? [3] हे गौतम! जधन्यपदे चार, अने उत्कृष्ट पदे सात अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेलो होय. [प्र० ] केटला आकाशास्ति| कायना प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय ? [उ०] हे गौतम! आकाशास्तिकायना सात प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र० ] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय ? [अ०] हे गौतम! जीवास्तिकायना अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र०] केटला | पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय ? [३०] हे गौतम! पुद्गलास्तिकायना अनन्तप्रदेशोवडे स्पर्शायलो होय. [प्र० ] केटला अद्धा -काल-ना समयोवडे स्पर्शायलो होय ? [३०] हे गौतम ! कदाचित् कालना समयोवडे स्पर्शायेलो होय अने कदाचित स्पर्शायलो न होय. जो स्पर्श करायलो होय तो अवश्य अनन्तसमयोबडे स्पर्श करायलो होय. [प्र० ] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायली होय १ [ उ० ] हे गौतम! जघन्यपदे चार, अने उत्कृष्टपदे सात धर्मास्ति
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१२ शके
उद्देशः ४ ॥११५९ ॥
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१३वत उद्देशा
| कायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेलो होय ? [उ०] हे गौतम! जघपाक्याप्रशतिः
8/न्यपदे त्रण अने उत्कृष्टपदे छ प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. बाकी मधुं धर्मास्तिकायना प्रदेशनी पेठे जाणq. ११६॥ एगे भंते ! आगासस्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुढे, गोयमा! सिय पुढे सिय नो पुढे,
जह पुढे जहनपदे एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा चउहि वा उक्कोसपए सत्तहि, एवं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिवि । केवतिरहिं आगासस्थिकाय? छहिं, केवतिएहिं जीवत्यिकायपएसेहिं पुढे ?, सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुढे नियमं अणंतेहिं । एवं पोग्गलस्थिकायपएसेहिवि, अद्धासमएहिवि ॥ एगे भंते ! जीवस्थिकायपएसे केवतिरहिं| धम्मस्थि० पुच्छा जहन्नपदे चाहिं उक्कोसपए सत्तहिं एवं अहम्मत्थिकायपएसेहिदि । केवतिएहिं आगासस्थि०?, सत्तहिं । केवतिपहिं जीवधि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ पगे भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मस्थिकायपए०१ एवं जहेच जीवत्यिकायस्स ॥ (सूत्र ४८२)॥
[प्र.] हे भगवन् ! आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेलो होय [उ०] हे गौतम ! कदाचित् [लोकने आश्रीयी] स्पर्श करायेलो होय अने कदाचिद [ अलोकने आश्रयी ] स्पर्श करायेलो न होय. जो स्पर्श करायेलो होय तो जघन्यपदे एक, के,त्रण के चार धर्मास्तिकायना प्रदेशवडे स्पर्श करायेलो होय, अने उत्कृष्टपदे सात प्रदेशोबडे स्पर्श कराबेलो होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोनी साथे पण स्पर्श जाणवो. प्रि०] केटला आकास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ.] हे गौतम ! छ प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय. [.] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय [30]
अरु
न
कर
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व्याख्या प्रचतिः
॥ ११६॥
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कदाचीत् स्पर्श करायेलो होय अने कदाचित् स्पर्श न करायेल पण होय जो स्पर्श करायलो होय तो अवश्य अवन्त प्रदेशोवडे स्पर्श कराये लो होप प्रमाणे पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे अने अद्धा -कालना समयोवडे पण स्पर्शना जाणवी. [प्र०] हे भगवन जीवास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय - ए प्रश्न. [उ०] जधन्यपदे चार अने उत्कृष्टपदे सात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे पण स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [3] मात प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [अ०] बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणj. [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ० ] जेम जीवास्तिकायना एक प्रदेश संबन्धे कछु तेम अहिं जाणवुं ॥ ४८२ ।।
दो भंते! पोग्गलस्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मस्थिकायप्परसेहिं पुट्ठा १, जहरूपए छहिं उक्कोसपए बारसहिं, एवं अहम्मत्धिका यप्पएसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्धिकाय ?, बारसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकापस्स ॥ तिन्नि भंते! पोग्गलस्थिकाय पएसा केवतिएहिं धम्मस्थि० १, जहन्नपण अट्ठहिं उक्कोसपए मत्तरसहिं । एवं अहमस्थिकापसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्थि० ?, सत्तरसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । एवं एएणं गमेणं भाणियन्त्रं जाव दस, नवरं जहन्नपदे दोनि पक्खिवियन्वा उक्कोसपए पंच। चत्तारि पोग्गलस्थिकायस्स०, जहनपए दसहिं उको बावीसाए, पंच पुग्गल, जह० बारसहिं उक्कोस० सत्तावीसाए, छ पोग्गल० जह० चोदसहि उक्को० बत्तीमाए, सत्त पो० जहनेणं सोलसहिं उक्को० सत्तत्तीमाए, अट्ठ पो० जहन० अट्ठारसहिं उक्कोसेणं बाया
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१३ शतके उद्देशः ४
।।११३१#
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गशा
लीसाए, नव पो जहन्न. वीसाए उको सीयालीमाए, दस ज. चावीसाए उक्को० बावन्नाए आगासांस्थकायस्स व्याख्या-18 सम्बत्य उक्कोसगं भाणियव्वं ॥ प्राप्ति
[प्र०] हे भगवन् । पुद्गलास्तिकायना ने प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय? [उ०] हे गौतम ! ॥११६२॥
जधन्यपदे छ प्रदेशोवडे, अने उत्कृष्टपदे वार प्रदशोबडे स्पर्श करायेला होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे पण स्पर्शना जाणची. [३०] केटला आकाशास्तिकायाना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय [उ०] बार प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. बाकी बंधु धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू[प्र०] हे भगवन् ! त्रण पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला | होय ? [२०] जघन्य पदे आठ. अने उत्कृष्टपदे सत्तर प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे पण स्पर्श करायेला होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायला होय? [उ०] सत्तर प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय. पाकी बंधु धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवं. ए प्रमाणे आ पाठ वडे यावत्-दश प्रदेशो सुधी कहे, परन्तु पटलो विशेष के के जघन्यपदे बेनो अने उत्कृष्टपटे पांचनो प्रक्षप करवो. चार पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो जघन्यद दश अने उत्कृष्ट पदे बावीश प्रदेशोवडे स्पर्श करायेला होय.पुद्गलाम्तिकायना पांच प्रदेशो जघन्यपदे वार अने उत्कृष्टपदे सत्यावीश प्रदेशोबडे स्पर्श करायेला होय.पुद्गल स्तिकायना छ प्रदेशो जघन्यपदे चौद अने उत्कृष्टपदे चत्रीश प्रदेशो बडे स्पर्श करायेला होय. पुद्गलास्तिकायना सात प्रदेशो जघन्यपदे सोळ अने उत्कृष्टपदे साडत्रीश प्रदेशोवहे स्पर्श करायेला होय. पुद्गलास्तिकायना आठ प्रदेशो जघन्यपद अढार अने उत्कृष्टपदे तालीश प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय. पुद्गलास्तिकायना नव प्रदेशो जघन्यपदे वीश अने उत्कृष्टपदे मुडतालीश प्रदेशोवडे स्पीयेला होय. पुद्ग
SANELA
B.
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१३शतके
प्रवाति ११६३॥
5ॐॐ
लालास्तिकायना दश प्रदेशो जघन्यपदे बावीश अने उत्कृष्टपद बावन प्रदेशोवडे स्पशायेला होय.आकाशास्तिकायतुं सर्वत्र उत्कृष्टपद कहे । संखेजा भंते ! पोग्गलस्थिकायपएमा केवतिएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुट्ठा ? जहन्न पदे तेणेव संखेन्जएणं
दाउदेश दुगुणेणं दुरूवाहिएण उक्कोसपए तेणेव संखेजएण पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, केवतिएहिं अधम्मस्थिकायएहिं एवं चेव, केवतिएहिं आगासस्थिकाय तेणेव संखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, केवइएहिं जोवस्थिकाय?, अणंतेहिं । केवइएहि पोग्गलत्थिकाय.?, अर्णतेहिं, केवहएहिं अद्धाममहिं?, मिय पुढे सिय नो पुढे जाव अणंतेहिं। असंखेजाभते! पोग्गलस्थिकायप्पएसा केवतिएहिं धम्मत्थिा, जहन्नपए तेणेव असंखेन्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं उको० तेणे असंखजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, संसं जहा संखेजाणं जाव नियम अणंतेहिं ।। अणंता भते! पोग्गलथिकायपएसा केवतिएहिं धम्मस्थिकाय, एवं जहा असंखेजा नहा अणंतावि निरवसेस ॥ [प्र०] हे भगवन् ! संख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्शायेला होय [उ०] जघन्यपदे तेज सं. रूयाता प्रदेशने चमणा करीचे रूप अधिक करीए, अने उत्कृष्टपदे तेज संख्याता प्रदेशने पांच गुणा करी चे रूप अधिक करीए. तेटला प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्शाय ? [उ.] ए प्रमाणे [धर्मास्तिकायनी पेठे] जाणवू. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्शायेला होय ? [उ.] तेज संख्याताने पांचगुणा करी चे रूप अधिक करीए तेटला प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय.] [H०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोरडे स्पर्श करायेल होय ? [उ.] अनन्त प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय. [प्र.) केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय ! [उ०) अनन्त प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. []
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व्याक्या
प्रज्ञप्तिः
११६४॥
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केटला अद्धासमपोवडे स्पर्श करायेल होय, [अ०] कदाच स्पर्श करायेल होय, अने कदाच स्पर्श न करायेल होय, यावत् - अनन्त समयोबडे स्पर्श करायेल होय. [प्र] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना असंख्याता प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श कराय [उ०] जघन्यपदे तेज असंख्याताने बमणा करीए अने वे रूप अधिक करीए तेटला प्रदेशोवडे स्पर्श कराय, अने उत्कृष्टपदे तेज असंख्याताने पांच गुणा करीए, अने वे रूप अधिक करीए एटला प्रदेशोवडे स्पर्श कराय. बाकी बघु जेम संख्यातासंबन्धे क तेम अहिं जाणवु यावत्--' अवश्य अनन्त समयोवडे स्पर्श कराय ' त्यां मुधी जाणवु [प्र० ] हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकायना अनन्त प्रदेशो केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श कराय ? [3] ए प्रमाणे जेम असंख्याता प्रदेशो संबन्धे कां तेम अनन्ता प्रदेश संबन्धे पण समग्र जाणवु
एगे भंते ! अद्धासमए के वतिएहिं धम्मस्थिकाय पएसेहिं पुढे ?, सत्तर्हि, केवतिएहिं अहम्मत्थि ?, एवं चेव, एवं आगासत्थिकाएहिवि, केवतिएहिं जीव० १, अनंतेहि, एवं जात्र अद्धासमपहिं || धम्मत्थिकाए णं भंते ! केवतिएहि धम्मस्थिका यप्पएसेहि पुढे ?, नत्थि एक्केणवि, केवतिएहि अधम्मस्थिकायप्पएसेहिं ?, असंखेजेहिं, केवतिएहिं आगासत्थि० प०१, असंखेजेहिं, केवतिएहिं जीवत्धिकायपए० ?, अणतेहि, केवतिएहिं पोग्गलत्थकायहि १, अणतेहिं, केवतिएहिं अद्धाममएहिं ? सिय पुट्ठे सिय नो पुट्ठे, जड़ पुट्टे नियमा अणतेहिं । अहम्म स्थिकाए णं भंते! केव० धम्मत्थिकायाः ? असंखेजेहिं केवतिएहि, अहम्मत्थि० ?, णत्थि एक्केणवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्म, एवं एएणं गमएणं सव्वेवि सहाणए नत्थि एक्केणवि उट्ठा, परट्ठाणए आदिल्लएहिं तिहिं असंखे
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१३ शके उद्देशः ४ ॥११६४॥
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१३शतके उमेश ११६५॥
११११५॥
ICCES
ज्जेहिं भाणियब्व, पछिल्लएसु तिसु अर्णता भाणियब्वा, जाव अद्धाममयोत्ति, जाव केवतिएहिं अद्धासमएहिं PIपुढे !, नस्थि एकणवि ॥ का [40] हे भगवन् ! अद्धा-कालनो एक ममय केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? [३०] अद्धासमय सात
प्रदेशोवडे स्पर्श करायेलो होय. [म.] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशबडे स्पर्श करायेल होय ? [उ.] उपर प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे आकाशास्तिकायना प्रदेशोबडे पण स्पर्शना जाणवी. [प्र.] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय ? [उ.] अनन्त प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय. ए प्रमाणे यावत्- (अनन्त) अद्धाममयोवडे स्पर्शना जाणवी. [प्र०] हे भगवन् ! धर्मास्तिकागद्रव्य केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय ? [३०] एक पण प्रदेशवडे स्पर्श करायेल न होय. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोषहे स्पर्श करायेल होय? [उ०) असंख्याता प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिका| यना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] असंख्याता प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशोपडे
स्पर्श करायेल होय ! [३०] अनन्ता प्रदेशोवडे स्पर्श करायल होय. [प्र०] केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय? [[उ.] अनन्त प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय. [प्र०] केटला अद्धासमयोबडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] कदाच स्पर्श करायेल होय अने कदाच स्पर्श करायेल न होय. जो स्पर्श करायेल होय तो अवश्य अनन्त समयोबडे स्पर्श करायेल होय. [प्र.] हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय ? (उ.] असंख्याता प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय. [म.] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय ? [उ.] एक पण प्रदेशवडे स्पर्श करायेल न होय. बाकी नधुं
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प्राप्ति ॥११६६॥
AKA
धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. ए प्रमाणे ए पाठबडे सर्वे पण स्वस्थानके एक पण प्रदेशवडे स्पर्श करायेल नथी, परस्थानके-आदिना त्रण स्थानके-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकाय एत्रण स्थळे असंख्याता प्रदेशोवडे स्पर्श करायेल होय एम कहे. अने पछीना त्रण स्थळे 'अनन्त प्रदेशोबडे स्पर्श करायेल होय'-एम यावत्-अद्धा समय सुधी कहे, यावद-[प्र.] केटला
उमेश अद्धा समयोवडे स्पर्श करायेल होय ? [उ०] एक पण समयबडे स्पर्श करायेल न होय.
15॥११५६॥ जत्थ णं भंते ! एगे धम्मत्यिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा?, नन्थि एकोवि, & केवतिया अहम्मस्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, एक्को, केवतिया आगामत्थिकाय. १, पक्को, केवतिया जीवस्थि०१,
अणता, केवतिया पोग्गलत्यि.?, अणंता, केवतिया अद्धासमया?, सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणता । जत्थ ण भंते ! एगे अहम्मत्धिकायपासे ओगाढे तस्थ केवतिया धम्मथि०१, एको, केवतिया अहम्मथि० १, नस्थि एकोवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ ण भंते ! गगे आगासस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मस्थिकाय.?, सिय ओगाढा मिय नो ओगाढा, एको, गवं अहम्मत्थिकायपएसावि, केवइया आगामस्थिकाय.?, नथि एकोवि, केवतिया जीवत्थि० ?, सिय ओगाढा मिथ नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणता, एवं जाव अद्धाममया। जत्थ णं भंते। एगे जीवस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मस्थि , एक्को, एवं अहम्मस्थिकाया, एवं आगासस्थिकायपणसावि, केवतिया जीवत्थि.?, अर्णता, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्म ।
[F०] हे भगवन् ! ज्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ-रहेलो होय त्यां बीजा केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ
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व्याख्याप्रशतिः
११६७॥
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होय छे ? [ उ० ] एक पण प्रदेश अवगाढ नथी. [प्र०] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ रहेला होय ? [अ०] एक अधमस्तिकायनो प्रदेश रहेलो होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेश अवगाढ होय. [३०] एक प्रदेश अवगाढ होय. [प्र० ] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? [उ०] अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय. [प्र०] केटला पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? [ उ ] अनन्ता प्रदेशो अवमाढ होय. [प्र०] केटला अद्धासमयो अबगाढ दोय ? [३०] अद्धासमयो कदाच अवगाढ होय अनेकदाच अवगाढ न होय; जो अवगाढ होय तो अनन्त अद्धासमयो अवगाढ होय. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां अधर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ रहेलो होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? [३०] त्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय. [प्र० ] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो अवमाढ होय ? [अ०] एक पण नथी. बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवुं. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यां आकाशास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? [30] त्यां धर्मास्तिकायना प्रदेशो कदाच अवगाढ रहेला होय, अने कदाच न अवगाठ होय. जो अत्रगाढ होय तो एक प्रदेश अवगाढ होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकायना प्रदेशो पण जाणवा. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशी अवगाढ होय ? [30] एक पण न होय. [प्र० ] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? [ उ ] कदाच अवगाढ होय अने कदाच अवगाढ न होय. जो अवगाढ होय तो अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय. ए प्रमाणे यावत् - अद्धासमय सुधी जाणवु [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यां जीवास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय १ [उ०] हे गौतम! त्यां एक प्रदेश अवगाढ होय. ए प्रमाणे | अधर्मास्तिकायना प्रदेशो पण जाणवा. आकाशास्तिकायना प्रदेशो पण ए रीते जाणवा. [प्र०] जीवास्तिकायना केटला प्रदेशो अन
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१२ शतके उद्देशः ४ ११६७॥
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www.kobatirth.org गाढ होय ? [उ.] अनन्ता प्रदेशो अवगाढ होय. बाकी बधुं धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. व्याख्या-रा जस्थ णमंते ! एगे पोग्गलस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय ?, एवं जहा जीवत्थिकायपएसे १३शतके
तिहेव निरवसेसं । जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलस्थिकायपदेमा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मथिकाय.?, सिय एको उदेशः५ ॥२१६८० सिय दोन्नि, एवं अहम्मथिकायस्मवि, एवं आगासस्थिकायस्मवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ ण भंते !
का११६८॥ तिन्नि पोग्गलत्थि तत्थ केवहया धम्मत्थिकाय?, सिय एको मिय दोन्नि सिय तिन्नि, एवं अहम्मत्थिकायस्सवि, एवं आगामयिकायस्सवि, सेसं जहेब दोण्हं, एवं एकेको वड्रियन्वो परसो आइल्लपाहिं तिहिं अस्थिकाएहिं, सेस जहेव दोण्हं जाब दसण्हं सिय एको मिय दोन्नि सिय तिन्नि जाव सिय दस, संखेजाणं मिय एको सिय दोन्नि जाव सिय दम सिय संखेजा, अमंखेजाणं मिय एको जाव सिय मज्जा सिय असंखेना, जहा असंखेना एवं अणतावि । जत्थ ण भंते ! एगे अद्धाममए ओगाढे तन्थ केवतिया धम्मस्थि: ?, एको, केवतिया अहम्मस्थि ?, | एक्को, केवतिया आगासथि० १, एक्को, केवइया जीवस्थि. ?, अणंता, एवं जाव अद्धासमया ।
[प्र०] हे भगवन् ! ज्यां पुद्गलास्तिकायनो एक प्रदेश अवगाढ होय न्यां धर्मास्तिकायना केटला प्रदेशो अबगाढ होय ? [उ०] ए प्रमाणे जेम जीवास्तिकायना प्रदेश संबन्धे कयु तेम बधुं कहे. [प्र.] हे भगवन् ! ज्यां पुद्गलास्तिकायना बे प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायना केटला प्रदेशो अवगाढ-रहेला होय? [उ०] कदाच एक प्रदेश अवगाढ होय, अने कदाच चे प्रदेशो अवगाढ होय. ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय संबन्धे पण जाणवं. ए प्रमाणे आकाशास्तिकाय संबंधे पण जाण. बाकी बधुं (जीवास्तिकाय,
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प्राप्ति ११६९॥
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पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमय संबन्धे) जेम धर्मास्तिकायना प्रदेशनी वक्तव्यतामा कयु छ तेम पुद्गलास्तिकायना चे प्रदेशनी क्तन्यताने विषे पण कहे. (अर्थात तेओना अनन्त प्रदेशो अवगाढ होय छे.) [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां पुद्गलास्तिकायना त्रण
१३शतके | प्रदेशो अवगाढ-रहेला छे त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय ? [उ०] कदाच एक, कदाच चे अने कदाच त्रण प्रदेशो 81
॥११६॥ अवगाढ होय. (कारणके ज्यारे पुद्गलास्तिकायना त्रण प्रदेशो एक आकाशास्तिकायना प्रदेशने अवगाहीन रहे त्यारे तेने विषे एक धर्मास्तिकायनो प्रदेश अवगाहीने रहे, ज्यारे वे आकाशास्तिकायना प्रदेशने अवगाहीने रहे त्यारे त्यां वे धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहे, अने ज्यारे त्रण आकाशास्तिकायना प्रदेशोने अवगाहीने रहे त्यारे त्यां त्रण धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहे.] ए प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायना संवन्धे कहे, बाकी जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयने आश्रयी जेमबे पुद्गलप्रदेशसंबन्धे का तेम त्रण पुद्गलप्रदेश संबन्धे पण कहे . [ अर्थात्-त्रण पुद्गल प्रदेशने स्थाने अनन्त जीवप्रदेशो, अनन्त पुद्गलपरमाणुओ अने अनन्त अद्धासमय अवगाढ होय.] ए प्रमाणे आदिना त्रण आस्तिकायने विषे एक एक प्रदेश वधारखो, बाकीनाने विषे जेम बे पुद्गलास्तिकायना प्रदेश संबन्धे का तेम यावत्-दश प्रदेश संबन्धे पण कहे. एटले ज्यां पुद्गलास्तिकायना दश प्रदेशो अवगाढ होय त्यां धर्मास्तिकायनो कदाचित् एक प्रदेश, कदाचित् वे प्रदेश, कदाचित् त्रण प्रदेश, यावत्-कदाचित् | दश प्रदेशो अबगाढ होय. ज्या संख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो अवगाढ होय त्या धर्मास्तिकायनो कदाचित् एक प्रदेश, कदा
चित् वे प्रदेश, यावत् कदाचित् दश प्रदेशो, यावत-संख्याता प्रदेशो अवगाढ होय. असंख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशोज्यां अबहै गाढ-रहेला होय त्यां धर्मास्तिकायनो एक प्रदेश, यावत्-कदाचित् संख्याता प्रदेशो, अने कदाचित् असंख्याता प्रदेशो अवगाढ होय.
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मेशा
१९७०॥
www.kobatirth.org जेम असंख्याता पुद्गलास्तिकायना प्रदेशो माटे का तेम अनन्त प्रदेशो माटे पण जाणवू. [अर्थात् ज्यां पुद्गलास्तिकायना अनन्त 181 प्रदेशो अबगाढ होय त्या धर्मास्तिकायना कदाचित पक, यावत्-संख्याता अने यावन-असंख्याता प्रदेशो रहेला होय, ] [म.]
| हे भगवन् ! ज्यां एक धर्मास्तिकाय अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय १ [उ.] एक प्रदेश रहेलो होय. [प्र.] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय? [उ०] एक प्रदेश रहेलो होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय? [३०] एक प्रदेश रहेलो होय. [प्र०] केटला जीवास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय? [उ०] अनन्त प्रदेशो रहेला होय. ए प्रमाणे यावत् अद्धासमय सुधी जाणवु. [ अर्थात् पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयो अनन्ता रहेला होय.]
जत्थ ण भंते ! धम्मस्टिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मस्थिकायप. ओगाढा ?, नस्थि एकोवि, केवतिया अहम्मस्थिकाय.?, असंखेजा, केवतिया आगाम, अमखेजा, केवतिया जीवधिकाय.?, अणता, एवं जाव अद्धासमया । जत्थ णं भंते । अहम्मस्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्माधिकाय०१, असंखेजा, केवतिया | अहम्मस्थि०१, नस्थि एकोवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स. एवं सब्बे, मट्ठाणे नस्थि एकोवि भाणियव्वं, परहाणे
आदिल्लगा तिनि असंखेज्जा भाणियब्वा, पच्छिल्लगा तिन्नि अणता भाणियव्वा जाव अद्धासमओत्ति जाव केवतिया अद्धासमया ओगाढा, नथि एक्कोवि ॥ (सूत्रं ४८३)॥
[प्र.] हे भगवन् ! ज्यां एक धर्मास्तिकाय अवगाढ होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ.] त्यां धर्मास्तिकायनो एक पण प्रदेश रहेलो न होय. [प्र..] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ.] असंख्याता प्रदेशो रहेला
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१३वतके
उमेश
RWA
BRUARKSAROKA
ला होय. [प्र०] केटला आकाशास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ०] असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र.] केटला जीवास्तिकायना
प्रदेशो होय ? [उ.] अनन्ता होय, ए प्रमाणे यावत्-अद्धासमय सुधी जाणव, [प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक अधर्मास्तिकाय अबमाढ-रहेलो होय त्यां केटला धर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ? [उ.] असंख्याता प्रदेशो रहेला होय. [प्र.] केटला अधर्मास्तिकायना प्रदेशो रहेला होय ! [उ.] एक पण प्रदेश न होय. बाकी (आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय अने अद्धासमयने) धर्मास्तिकायनी पेठे जाणवू. सर्व धर्मास्तिकायादि द्रव्यने 'खस्थानके एक पण प्रदेश नथी-ए प्रमाणे कडेवू, अने परस्थानके आदिना त्रण द्रव्यने (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायने ) 'असंख्याता' कहेवा, अने पाछळना त्रण द्रव्यने 'अनन्ता' यावत्-अद्धासमय सुधी कदेवा. यावत्-[प्र०] केटला अद्धासमय अवगाढ होय ? [उ.] एक पण नथी. ॥ ४८३ ।।
जत्थ णं भंते! एगे पुढविकाइए ओगाढे तस्थ णं केवतिया पुढ विकाइया ओगाढा?, असंखेजा, केवतिया आउकाइया ओगाढा?, असंखेना, केवड्या तेउकाइया ओगाढा?, असंखेजा, केवइया वाउ० ओगाढा ?, असंखेजा, केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ?, अणंता, जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि. असंखेजा, केवतिया आउ. असंखेजा, एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तव्वता तहेव सब्वेसि निरवसेसं भाणियब्वं जाब वणस्मइकाइयाणं जाव केवतिया वणस्सहकाइया ओगाढा?, अणंना ।। ( सूत्रं ४८४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! ज्यां एक पृथिवीकायिक जीव अवगाढ होय त्यां बीजा केटला पृथिवीकायिक जीवो रहेला होय! [उ.] असंख्याता पृथिवीकायिको रहेला होय. [प्र०] केटला अष्कायिक जीवो अबगाढ होय? [उ०] असंख्याता जीवो अवगाढ होय ?
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पाच्या प्राप्ति
उचा
॥११७२
www.kobatirth.org [म०] हे भगवन् ! केटला तेजःकायिक जीवो रहेला होय ! [उ.] के गौतम ! असंख्याता रहेला होय. [प्र.] हे भगवन् ! केटला वायुकायिक जीवो रहेला होय ! [उ०] हे गौतम! असंख्याता रहेला होय. [4] केटला बनस्पतिकायिको रहेला होय. [उ.] अनन्ता वनस्पतिकायिको रहेला होय. [प्र०] हे भगवन ! ज्यां एक अकायिक रहेलो होय त्यां केटला पृथिवीकायिक जीवो रहेला होय ? [उ.] हे गौतम! असंख्याता रहेला होय. [प्र.] केटला अकायिको रहेला होय ? [उ.] असंख्याता रहेला होय.९ प्रमाणे जेम पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही, तेम सर्वनी सघळी वक्तव्यता यावत्-वनस्पतिकाय सुधी कहेवी. यावत्-[प्र.] केटला वनस्पतिकायिको रहेला होय ? [3.] अनन्ता रहेला होय. ॥ ४८४ ॥
एसिणं भंते ! धम्मस्थिकाय. अधम्मत्थिकाय. आगामस्थिकायंसि चकिया केई आमहत्तए वा चिट्टित्सए वा निसीइत्तए वा तुयद्वित्ता वा?, नो इण समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुबह-एतसिणं धम्मस्थि: जाव आगासत्थिकायंसि णो चक्किया केई आसत्तए वा जाव ओगाढा , गोयमा से जहानामा कडागारसाला सिया दुहओ लिसा गुत्ता गुत्तदुवारा जहा रायप्पसेणाइजेजाव दुवारवयणाई पिहेद दु.२ तीसे कूडागारमालाए बहुमज्झदेसभाए जहन्नण एको वा दोवा तिन्नि वा उकोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेजा, से नूण गोयमा ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमनपुट्ठाओ जाच अन्नमनघडत्ताए चिट्ठति ।.हंता चिटुंति, चकिया ण गोयमा! केई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव तुपट्टित्तए वा?, भगवं! जो तिणढे समढे, अणंता पुण तत्य जीवा ओगाढा, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुञ्चइ जाव ओगाढा (सूत्रं ४८५)
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प्रतिः ।११७३॥
१३शतके
उदेशः ४ ४।११७॥
[प्र.] हे भगवन् ! आ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अने आकाशास्तिकायने विष कोई पुरुष बेसवाने, उभो रहेवाने, नीचे बेसवाने अने आळोटवाने शक्तिमान होय ? [१०] हे गौतम ! आ अर्थ यथार्थ नथी, परन्तु ते स्थाने तो अनन्ता जीयो अवगाढरहेला . [H०] हे भगवन ! शा हेतुथी एम कहो छो के आ 'धर्मास्तिकाय, यावत्-आकाशास्तिकायने विषे कोई पुरुष बेसवाने शक्तिमान नथी'-इत्यादि-त्या अनन्ता जीवो अत्रगाढ-रहेला छे ? [उ.] हे गौतम ! जेम कोइ कूडागारशाला होय, तेने अंदर ने बहार लींपी होय, चारे तरफथी ढांकेली होय, अने तेनां वारणां पण बन्ध कयाँ होय-इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रमा कह्या प्रमाणे तेनुं वर्णन जाणगुं, यावत्-ते कूटागार शालाना द्वारना कमाडने बंध करी, ते कूटागारशालाना बरावर मध्यभागमा जघन्यथी एक, बे, त्रण अने उत्कृष्टथी एक हजार दीवाओ सळगावे. हे भगवन् ! खरेखर ते दीवाओ तेज परस्पर मळीने, परस्पर स्पर्श करीने, यावत् एक बीजा साथे एकरूपे थइने रहे ? हा, गौतम ! रहे, हे भगवन् ! कोइ पण पुरुष ते दिवाओना तेजमा बेसवाने यावत्अथवा आळोटवाने शक्तिमान् थाय ? हे गौतम ! ए अर्ध योग्य नथी, पण अनन्ता जीवो त्या अत्रगाढ-रहेला होय छे. ते माटे हे गौतम ! एम कहेवाय जे के यावत्-'अनन्ता जीवो त्यां अवगाढ होय छे.' ।। ४८५ ॥ ___ कहि ण भते ! लोग बहुसमे ? कहि णं भंते ! लोए सम्वविरहिए पण्णत्ते ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेडिल्लेसु खुहागपयरेसु एत्व ण लोए बहुसमे एत्थ ण लोए मध्वविग्गहिए पपणत्ते । कहिण भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पण्णते?, गोयमा! विग्गहकंडा एस्थणं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते (सूत्रं४८६)।
[प्र०] हे भगवन् ! लोकनो बराबर सम (प्रदेशनी वृद्धि हानिरहित ) भाग क्या कहेलो छे ? हे भगवन ! लोकनो सर्वथी
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१३शतके | उद्देशः५ ॥११७॥
IG
Acharya Shri न्याख्या18| संक्षिप्त-सांकडो भाग क्या कहेलो के ? [उ.] हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथिवीना उपर अने नीचेना क्षुद्र (लघु) प्रतरने विषे अहिं
लोकनो बराबर समभाग कहेलो छ, अने अहिंज लोकनो सर्वथी संक्षिप्त सांकडो भाग कहेलो के. [प] हे भगवन् ! क्यां विग्रह ॥११७॥ विग्रहिक-लोकरूप शरीरनो वक्रतायुक्त भाग के ? [३०] हे गौतम ! ज्यां विग्रहकंडक चक्रतायुक्त अवयत्र के अर्थात् [ लोकरूप
शरीरनो ब्रह्मदेवलोकरूप कोणोनो भाग के, त्यां प्रदेशनी वृद्धि-हानि होवाथी वक्र अवयव छे] त्या लोकरूपशरीर वक्रतायुक्त के.४८६
किंसंठिए ण भंते ! लोग पण्णत्ते?, गोयमा! सुपइट्टियसंठिए लोए पण्णत्ते, हेहा विच्छिन्ने मज्झे जहा स. तमसा पदमुद्देसे जाव अंतं करेंति । एयरस ण भंते। अहेलोगस्म तिरियलोगस्स उडलोगस्स य कयरे २ हितो जाब विसेसाहिया वा?, गोयमा! मम्वत्थोवे तिरियलोए उड़लोए असंखेनगुणे अहेलोए विसेसाहिए । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४८७)॥ १३-४॥
[प्र.] हे भगवन् ! लोकनुं संस्थान केवा प्रकारे कयुं छे ? [उ.] हे गौतम ! लोकनु सुप्रतिष्ठक-(उधा बाळेला शराबना उपर कामुकेला शरावसंपुट) ने आकारे आलोक कह्यो छ. नीचे विस्तीर्ण, मध्यमां संक्षिप्त-इत्यादि जेम सातमा शतना प्रथम उद्देशकमां
कया प्रमाणे यावत्-'संसारको अन्त करे छे'-- त्यांसुधी जाणवू. [4] हे भगवन् ! आ अधोलोक, तिर्यग्लोक, अने ऊर्बलोकमां कयो लोक कोनाथी यावद् विशेषाधिक छ ? [उ०] सर्वथी थोडो तिर्थम्लोक छे, तेथी असंख्यातगुण ऊर्चलोक छे अने तेथी विशेषाधिक अधोलोक मे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ.' । ४८७ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १३ मा शतकमां चोथा उद्देशानो मलार्थ संपूर्ण थयो.
वा ?. गोयमा यस्स णं भंते । अहेलोलाए पण्णत्ते, हेडा
वितायुक्त ने
AREKAR
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११७५॥
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उद्देशक ५.
नेरहया णं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा ?, गोगमा ! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा नो मीसाहारा, एवं असुरकुमारा पदमो नेग्गउदेसओ निरवसेसो भागियो || सेवं भंते! सेवं भंतेत्ति ॥ ( सू ४८८ ) ।। १३-५ ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! नैरथिको शुं सचित्ताहारी है, अचित्ताहारी छे के मिश्राहारी ( सचित अने अचित उभय आहारवाळा ) [छे ? [ ] हे गौतम! तेओ सचित्ताहारी नथी, मिश्राहारी नथी, परन्तु अचिताहारी हे. असुरकुमारो ए प्रमाणे जागवा. अहीं [ 'प्रज्ञापना' सूत्रना अख्यात्रीशमा आहारपदनों ] प्रथम नैरमिक उद्देशक समग्र कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज े, हे भगवन ! ते एमज छे. एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे, ॥ ४८८ ॥
भगवद् सुधर्मस्वामी प्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १३ मा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
उद्देशक ६.
रायगिहे जाव एवं वयासी-संतरं भंते । नेरतिया उववज्जति निरंतरं नेरइया उबवजनि?, गोगमा । संतरंपि नेरइया उबव० निरंतरंपि नेरहया उबवज्जंति, एवं असुरकुमारावि, एवं जहा गंगेये तहेब दो दंडगा जाव संतरंपि वैमाणिया चयंति निरंतरंपि वैमाणिया चयंति ॥ (सूत्रं ४८९ ) ॥
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१२ शतके उद्देशः ५-६
| ॥१२७५॥
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श त
उद्देशः
॥११७६॥
व्याख्या
[प्र०] राजगृह नगरमा ( भगवान् गौतम ) यावत् आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! नारको सांतर समयादिकना अंतर सहित 31 उपजे, के निरन्तर समयादिकना अंतर रहित उपजे ! [उ.] हे गौतम ! सांतर पण उपजे छे, अने निरन्तर पण उपजे छे. असुर
कुमारो पण ए प्रमाणे जाणवा, ए प्रमाणे जेम गांगेय उद्देशकमां कयु छ तेम उत्पाद अने उद्वर्तना संबंधे वे दंडको यावत् वैमानिको सांतर पण च्यवे छे, अने निरन्तर पण च्यवे छे-त्यांसुधी कहेवा. ॥ ५८९ ॥
कहिन भंते! चमरस्स असुरिंदम्स असुररन्नो चमरचंचानाम आवासे पण्णत्त, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेज दीवसमुद्दे एवं जहा वितियए मभाउ हेमा बत्तम्वया सञ्चेव अपरिसेसा नेयम्वा, नवरं इमं नाणतं जाव तिगिच्छकूडस्स उप्पायपन्बयस्म चमरचंचाग रायहाणीए चमरचंचस्स आवामपञ्चयस्स अन्नसिं च बहण सेसं तं चैव जाव तेरस य अंगुलाई अद्धगुलं च किंचिविसेमा० परिक्खेवेणं, तीसे ण चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपश्चच्छिमेणं छक्कोडिमए पणपनं च कोडीओ पातीसं च मयसहस्माई पमासं च सहस्माई अरुणोदयसमुह तिरिय वीडवहत्ता पस्थ णं चमरस्स असुरिंदस्म असुरकुमाररन्नो चमरचंचे नाम आवासे पण्णत्त, चउरासीई जोयणसहस्माई आयामनिवभेणं दो जोयणमयसहस्सा पन्नाद्धिं च सहस्साई छच्च बत्तीसे जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं, से गं गेणं पागारेणं मचओ समता संपरिक्वित्ते, से
णं पागारे दिवहूं जोयणमय उड्ड उच्चत्तेणं एवं चमरचंचाए गयहाणीए वत्तमचया भाणियचा समाविष्हणा जाव चित्तारि पासायपतीओ।
अरुणोदयसमावणसहस्माई आ
गेणं पा
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प्रज्ञप्ति ११७७॥
A
प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमारना इन्द्र अने अमरकुमारना राजा चमरनो चमरचंचा नामे आवास क्या कह्यो के ? [उ०] हे| गौतम ! जंबुद्वीप नामे द्वीपमां मेरु पर्वतनी दक्षिणे तिर्यम् असंख्याता द्वीपसमुद्रो उल्लंघीने (अरुणवर द्वीपनी बाह्य वेदिकाना अन्तथी
[४/१३शतके अरुणवर समुद्रमा तालीश लाख योजन गया बाद चमरेन्द्रनो तिगिच्छककूटनामे उत्पातपर्वत आवे , तेनी दक्षिण दिशाए ६५५
उदेशक क्रोड, ३५ लाख अने पचासहजार योजन अरुणोदक समुद्रमा तीळ गया बाद नीचे रत्नप्रभा पृथिवीनी अंदर चालीशहजार योजन जइए एटले चमरेन्द्रनी चमरचंचा नामे राजधानी आवे छे इत्यादि) वीजा शतकना आठमा सभा उद्देशकमां जे वक्तव्यता कही छे ने समग्र अहिं कहेवी, परंतु तेमां आ विशेष छे के तिगिच्छककूट नामे उत्पात पर्वत, चमरचंचा नामे राजधानी, चमरचंचा नामे आवासपर्वत, अने वीजा घणाना-इत्यादि बधुं ते प्रमाणे कहे. यावत्-त्रण लाख, सोळ हजार, बसो सन्यावीश योजन (त्रण गाउ, बसो अठ्यावीश धनुष अने कंडक विशेषाधिक) साडा तेर अंगुल-एटली चमरचंचानी परिधि के, ते चमरचंचा राजधानीथी दक्षिणपश्चिम दिशाए (नैर्ऋत्य कोणने विषे छसो पंचावन क्रोड, पांत्रीश लाख, बने पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्रमा तिर्छा गया बाद अहिं असुरकुमारना इंद्र अने अमुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंच नामे आवास कह्यो रे. ते लंबाइ अने पहोळाइमां चोराशी हजार योजन के तेनी परिधि बे लाख, पांसठहजार अने छसो वत्रीश योजनथी कंदक विशेषाधिक . ते आवास एक प्रकारथी (किल्लार्थी ) चोतरफ विटाएलो छे. ते प्राकार उंचो-उंचाइमा दोढसो योजन के. ए प्रमाणे चमरचंचा राजधानीनी बधी वक्तव्यता यावत्-"चार प्रासाद पंक्तिओ " स्यांसुधी कहेवी, परन्तु ( १ सुधर्मासभा, २ उपपातसभा, ३ अभिषेकसभा, ४ अलंकारसभा अने ५ व्यवसायसभा) ए पांच समा न कहेवी.
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ब्याक्याप्राप्तिः
॥ ११७८॥
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चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे वमहिं उबेति, नो तिणट्ठे समड़े से केणं खाइ अणं भंते । एवं च चमरचंचे आवासे च० २१, गोयमा । से जहानामए- इहं मणुस्स लोगंसि उबगारियलेणाइ वा उज्जाणियलेणाह वा गिजाणियलेणाइ वा धारिवारियलेणाह वा तत्थ णं पहवे मणुस्सा य मणुस्सीओ य आमति सति जहा राम्रप्व सेणइज्जे जाव कल्लाणफल वित्ति बिसेसं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति अन्नत्थ पुण वसहिं उर्वेति, एवामेव गोयमा ! चमरस असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो बमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तिगं, अन्नत्थ पुण वमहिं उवेति, से तेण० जाव आवासे, सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति जाब बिहरइ (सूत्रं ४९० ) ॥
[प्र०] हे भगवन् ! असुरेंद्र असुरकुमारना राजा चमर चमरचंच नामे आवासमा रहे है ? [उ०] ए अर्थ यथार्थ नथी. [१०] हे भगवन् ! एम शा हेतुयी कहो छो के, चमरचंच नामे आवासमां - इत्यादि प्रश्न. [3] हे गौतम! जेमके आ मनुष्यलोकमां उपकारक- पीठबद्ध घरो, उद्यानम रहेला लोकने उपकारक (नगर प्रवेश गृहो) घरो, नगरनिर्गम-नगरथी बहार नीकळतां प्राप्त थतां घरो अने वारिधारायुक्त (फुवारायुक्त ) घरो होय, त्यां घणा पुरुषो अने स्रीओ बेसे, सुबे-इत्यादि राजप्रनीय सूत्रमां कह्या श्रमाणे यावत्- 'कल्याणरूप फळ अने वृत्तिविशेषने अनुभवतां रहे छे' त्यांसुधी कहे, पण स्थां रहेठाण करता नथी, अर्थात् पोतानो निवास तो बीजे स्थळे करे छे, ए प्रमाणे हे गौतम! असुरेन्द्र असुरकुमारना राजा चमरनो चमरचंच नामे आवास केवल क्रीडा अने रति निमिचे त्रे, अने बीजे स्थळे ते पोतानो वास करे छे; ते हेतुथी एम कधुं छे के चमरचंच आवासने विषे ते पोतानो वास करतो नथी.' 'हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे क्रे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे.' एम कही यावद् विहरे छे. ।। ४९० ।।
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१२ शतकें उद्देशः ६
॥ ११७८॥
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व्याख्याप्राशिः
०११७९॥
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तणं समणे भगवं महावीरे अम्नया कयाह रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ जाय विहरह । तेणं काले लेणं समरणं चंपा नाम नयरी होत्था बनओ, पुन्नभद्दे चेहए क्नओ, तए णं समणे भगवं महावीरे अन्ना कदाइ पुत्राणुपुवि चरमाणे जाव विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेत्र पुन्नभद्दे चेतिए तेणेव उवाग० २ जाव विहरह, | तेणं कालेणं २ सिंधुसोवरेसु जणवएसु वीती भए नाम नगरे होत्था वन्नओ, तस्स णं वीती भस्म नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं मियवणे नाम उज्जाणे होत्था सब्वोउय० वन्नओ, तत्थ णं वीती भए नगरे उदायणे नामराया होत्या महया० वनओ, तस्स णं उदायणस्स रनो पभावती नामं देवी होत्था सुकुमाल बन्नओ, तस्म णं उदायणस्स रनो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए अभीतिनामं कुमारे होत्था सुकुमाल जहा सिवभद्दे जाव पचुवेक्वमाणे विहरति, तस्स णं उदायणस्स रन्नो नियए भागणेजे केसीनामं कुमारे होस्था सुकुमाल० जाब सुरूवे, से णं उदायणे राया सिंधुसोवीरप्पा मोक्खाणं सोलसण्डं जणवयाणं बीतीभयप्पामोखाणं तिण्हं तेसङ्कीर्ण नगरागरसयाणं महसेणप्पामोक्खाणं दसहं राईणं बद्धमउडाणं विविन्नछत्तचामरवालवीय णाणं अनसिं च बहणं राईसरतलवरजाव सत्थवाहम्णभिईणं आहेवचं जाब कारेमाणे पालेमाणे समणोत्रासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह ।
स्यारवाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोइ दिवसे राजगृह नगरथकी अने गुणसिलक चैत्यथकी यावद् विहार करे छे. ते काले ते समये चंपा नामनी नगरी हती. वर्णन. पूर्णभद्र चैत्य हतुं वर्णन, त्यारबाद भ्रमण भगवंत महावीर अन्य कोई दिवसे अनुक्रमे
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१२ शतके उद्देशः ६ ॥११०९॥
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www.kobatirth.org गमन करता, यावत्-विहार करता ज्यां चंपा नगरी छे, अने ज्यां पूर्णभद्र चैत्य के त्यां आवे छे, त्यां आवीने यावद्-विहरे छे. प्रतिः 18 ते काले ते समये सिंधुसौवीर देशने विवे वीतिभय नामे नगर इतुं. ते वीतिभय नगरनी बहार उत्तरपूर्व दिशाए (ईशान कोणने विषे १११८०॥ मृगवन नामर्नु उद्यान हतुं. ते सर्व ऋतुना पुष्पादिकथी समृद्ध हत्तुं -इत्यादि वर्णन जाणवू. ते वीतिभय नगरने विषे उदायन नामे
उद्देशा | राजा हतो, ते महाहिमवान् जेवो-इत्यादि वर्णन जाणवू. ते उदायन राजाने प्रभावती नामनी देवी (राणी) हती, सुकुमालहाथपग
॥११८०॥ वाळी इत्यादि वर्णन जाणवू. ते उदायन राजाने प्रभावती देवीथी थयेलो अभीचि नामे कुमार हतो. ते सुकुमाल-इत्यादि वर्णन | शिवभद्रनी पेठे जाणवु, यावत्-ते राज्यनी चिंता करतो विहरे , ते उदायन राजाने पोतानो भाणेज केशी नामे कुमार हतो, ते सुकुमालहाथपगवालो अने यावत् सुरूप हतो. ते उदायन राजा सिंधुसौवीर प्रमुख सोळ देश, बीतमय प्रमुख वणसोने त्रेसठ नगर अने आकर- (सुवर्णादि खाणोनु) तथा जेने छत्र चामर अने वालव्यजन (विजणो) आपेला छे एका महासेन प्रमुख दश मुकुटबद्ध राजाओ, अने एवा बीजा घणा राजा, युवराज, तलवर ( कोटवाल ) यावत्-सार्थवाह प्रमुख→ अधिपतिपणुं करतो, राज्यर्नु पालन
करतो, जीवाजीव तस्वने जाणतो, श्रमणोनो उपासक थईने यावत्-विहरे छे. जा तए णं से उदायणे राया अन्नया कयाह जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छड जहा संखे जाब विहरइ ।
तए णं तस्स उदायणस्स रन्नो पुच्चरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अपमेयारूवे अब्भo थिए जाव समुप्पज्जित्था-धन्ना णं ते गामागरनगरखेडकबडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंन्निवेसा जत्थ Pणं समणे भगवं महावीरे विहरइ, धन्ना णं ते राईमरतलवरजावमत्यवाहप्पभिईओ जे णं समणं भगवं महा-[2]
TECARRA
ADDRESS
GAR
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व्याख्या
प्रवलिः
११८२॥
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वीरं वंदति नर्मसंति जाव पज्जुवासंति, जड़ णं समणे भगवं महावीरे पुत्र्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुगामं जाब | बिहरमाणे इहमागच्छेजा इह समोसरेजा इहेव वीती भयस्स नगरस्स बहिया भिद्यवये उज्जाणे अहापडिरूवं उग्गहं उग्गहिता संजमेणं तवसा जाब बिहरेजा तो णं अहं समणं भगव महावीरं वंदेज्जा नमसेजा जाब पज्जुवा सेजा, त्यारबाद् ते उदापन राजा अन्य कोई दिवसे ज्यां पोषधशाला हे त्यां आवे छे, अने शंख श्रमणोपासकनी पेठे यावत्-विहरे छे. त्यारबाद ते उदायन राजाने मध्यरात्रीने समये धर्मजागरण करता आवा प्रकारनो आ संकल्प यात्रत् उत्पन्न थयो - "ते गाम, आकर, नगर, खेड, कर्बेट, मंडब, द्रोणमुख, पडून, आश्रम, संबाध अने सन्निवेश धन्य छे, ज्यां श्रमण भगवंत महावीर विचरे छे, ते राजा, शेठ, तलवर यावद् सार्थवाह प्रमुख धन्य छे, जेओ श्रमण भगवंत महावीरने वंदन-नमस्कार करे छे अने यावत् पर्यु पासना करे छे. जो श्रमण भगवंत महावीर अनुक्रमे विचरता एक गामथी बीजे गाम जता, याबद् विहार करता अहिं आवे, अहिं समोसरे, अने आ वीतभय नगरनी बहार मृगवन नामे उद्यानमां यथायोग्य अवग्रहने ग्रहण करी संयम अने तपवडे आत्माने भावित करता यावद् विचरे तो हुं श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करूं, अने नमस्कार करूं, यावत् तेमनी पर्युपासना करूं.
तणं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रन्नो अयमेयारूवं अन्भत्थियं जाव समुप्पन्नं वियाणित्ता चंपाओ नगरीओ पुन्नभद्दाओ चेहयाओ पडिनिक्स्वमति पडिनि० २ पुत्र्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणु० जाव विहरमाणे जेणेब सिंधुसोवीरे जणवए जेणेव वीती भये णगरे जेणेव मिघवणे उज्जाणे तेणेव उवा० न जाव विहरति । तए णं बीतिभये नगरे सिंघाडगजाब परिमा पज्जुवासह । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हङलुङ •
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१३ शतके उद्देशः ६ ॥११८२
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प्राप्तिः ॥१९८२॥
www.kobatirth.org कोडंबियपुरिसे सहावेति को.२ एवं बयासी-खिप्पामेच भो देवाणुप्पिया! वीयीभयं नगरं सम्भितरवाहिरियं जहा कूणिओ उववाइप जाव पज्जुवासति, पभावतीपामोक्खाओ देवीओ तहेव जाच पज्जुवासंति, धम्मकहा।
* शतके तए ण से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हतुढे उहाए उढेइ २ समणं
॥११८२॥ भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाच नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भते तहमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुज्झे वदहत्तिक नवरं देवाणुप्पिया! अभीयिकुमारं रज्जे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुपियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता | जाव पव्वयामि, अहासुहं देवाणुपिया! मा पडिबंध । तर णं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं
एवं वुत्ते समाणे हद्वतुहे समणं भगवं महावीरं वदति नमसति २ तमेव आभिसेकं हत्थि दुरूहह २त्ता समण| स्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिनिखमति प०२ जेणेष वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
त्यारवाद श्रमण भगवंत महावीर उदायन राजाना आवा प्रकारना उत्पन्न थएला आ संकल्पने जाणीने चंपा नगरीथी अने| पूर्णभद्र चैत्य थकी नीकळे छे, नीकळीने अनुक्रमे गमन करता, एक गामी बीजे गाम यावत् विहरता, ज्यां सिंधुसौवीर देश छे, ज्यां वीतभय नगर थे, अने ज्यां मृगवन नामे उद्यान के त्यां आवे छे, न्यां आवीने यावद् विहरे ले. ते समये वीतभय नगरमां शंगाटक-श्रीगोडाना जेवा त्रिकोण (आकारवाला) इत्यादि मार्गोमां (घणा माणसो परस्पर कहे के के 'अहिं मृगवन उद्यानमां भगवान महावीर पधार्या के एम सांभळीने घणा क्षत्रियो वगेरे वंदन करवा नीकळे छे इत्यादि) यावद्-परिषद् पर्युपासना करे छे.[४।
SOHASA RUSTICS***
AGRORE
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व्याख्या
प्रशतिः ॥१२८३॥
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त्यारपछी भगवान् महावीर आव्यानी आ बातथी विदित थयेला ते उदायन राजाए हर्षित अने संतुष्ट थई कौटुंबिक पुरुषोंने बोलावी आ प्रमाणे कछु के- “हे देवानुप्रियो । तमे शीघ्र वीतभय नगरने अंदर अने बहार साफ करावो" इत्यादि बधुं औपपातिक सूत्रमां कूणिक संबन्धे कछु छे तेम अहिं पण कहेतुं यावत् ते पर्युपासना करें छे. तथा प्रभावती प्रमुख देवीओ पण तेज प्रमाणे यावत्| पर्युपासना करे छे, त्यारबाद (भगवंते) धर्म कथा कही. पछी ते उदायन राजा श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी, अबधारी हर्षित अने संतुष्ट थई उठी उभो थाय छे, उभो थइने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत् नमस्कार करीने आ प्रमाणे बोल्यो- 'हे भगवन् ! ए ए प्रमाणेज छे, हे भगवन् ! ते ते प्रकारे छे' यावत् जे प्रकारे आ तमे कहो छो, परन्तु एटली विशेष छे के, हे देवानुप्रिय ! अभीचिकुमारने राज्यने विषे स्थापन करूं, अने त्यारबाद हुं देवानुप्रिय एवा आपनी पासे मुंड थईने यावत् प्रव्रज्यानो स्वीकार करूं ( भगवंते कछु के ) हे देवानुप्रिय ! जेम सुख थाय तेम करो, प्रतिबंध न करो.' त्यारबाद श्रमण भगवंत महावीरे उदायन राजाने ए प्रमाणे कछु पटले ते हर्षित अने संतुष्ट थई श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे, वंदन अने नमस्कार करीने ते अभिषेकने योग्य ( पट्ट) हस्ती उपर चढी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेधी अने मृगवन नायना उद्यानथी नीकळीने ज्यां वीतभय नामे नगर से तरफ जवानो तेणे विचार कर्यो.
तणं तस्स उदायणस्स रन्नो अयमेयारूवे अम्भस्थिए जाव समुप्पलिस्था – एवं खलु अभीग्रीकुमारे ममं एगे पुत्ते इट्ठे केले जाव किमंग पुण पासणयाए ?, तं जति पणं अहं अभीयिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समree भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि तो णं अभीषिकुमारे रज्जे य जाव जणवए
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१३ शतके उद्देशः ६ ॥११८३॥
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B
प्राप्तिः ॥११८४॥
www.kobatirth.org माणुस्मएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अझोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियहिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्म भगवओ महावीरस्स जाव पब्वइ
*१श त्तए, सेयं खलु मेणियगं भाइणेज्न केसि कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्म भगवओ जाव पचहत्तए, एवं संपेहेइ
त॥११८४॥ एवं संपे० २ जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव उवागच्छह २ वीतीभयं नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला तेणेव उवाग.२ आभिसेक हत्थि ठवेति आभि०२ आभिसेकाओ हत्थीओ पचोरुभह | आ० २ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २ सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति नि.२ कोडुंबियपुरिसे सहावेति को.२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! बीतीभयं नगरं सभितरबाहिरियं जाव पचप्पिणंति, तए णं से उदायणे राया दोचंपि कोडंबियपुरिसे सहावेति स. २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पि या! केमिस्स कुमारस्स महत्थं ३ एवं रापाभिसेओ जहा सिवभद्दस्स कुमारस्सतहेव भाणियचो जाव परमाउं पालयाहि इट्ठजणसंपरिखुडे सिंधुसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं बीतीभयपामोक्खाणं. महसेण. राया अन्नेसिं च बहणं राईसर जाव कारेमाणे पालेमाणे विहराहित्तिकड जयजयसई पउंति । तए णं से केसी कुमारे राया जाए महया जाब विहरति ।
त्यारपछी ते उदायन राजाने आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत् उत्पन्न थयो के 'ए प्रमाणे खरेखर अभीचिकुमार मारे एक पुत्र के अने ते मने इष्ट अने प्रिय छे, यावत् तेनुं नाम श्रवण पण दुर्लभ छे, तो पछी तेनं दर्शन दुर्लभ होय तेमां शुं कहे, ! ते 81
**BARATAICH
REAST
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माटे जो अमीचिकमारने राज्यने विसापीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे मुंड थई यावत् प्रव्रज्या ग्रहण कर, तो अमीपिका
प मार राज्य, राष्ट्र, यावत् जनपदमा अने मनुष्यसंबंधी कामभोगोमां छित, गृद्ध, प्रथित अने तल्लीन थई अनादि अनंत अने दीर्घ-12
॥११ मार्गवाग चारगतिरूप संसार अटवीने विष परिभ्रमण करशे, ते माटे अमीचिकुमारने राज्यने विषे स्थापन करी श्रमण भगवंत मगवंत महावीरनी पासे यावत् प्रसन्या लेवी ए श्रेयरूप नयी, परंतु मारे मारा भाणेज केशीकुमारने राज्यने विषे स्थापन करीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे प्रव्रज्या लेवी श्रेयरूप ' ५ प्रमाणे विचार करे के. एम विचारीने ज्यां वीतमय नगर छ, त्यो आची वीतमय नगरनी बच्चे ज्या पोतार्नु घर छे, अने ज्या बाहेरनी उपस्थानशाला छे त्यां आवे छे, त्यां आचीने अभिषेकने योग्य-पट्ट हस्तीने उभो राखीने तेना उपरथी नीचे उतरे के नीचे उतरीने ज्यां सिंहासन छ, त्यो आवी उत्तम सिंहासन उपर पूर्व दिशासन्मुख
से छे, बेसीने कौटुंबिक पुरुषोने बोलावी तेणे ए प्रमाणे का-'हे देवानुप्रियो । शीघ्र चीतमय नगरने बहार अने अंदरथी साफ करावो' इत्यादि यावत् तेओ तेम करीने आज्ञा पाछी आपे छे. त्यारपछी ते उदायन राजाए बीजीवार कौटुंबिक पुरुषोने पोलावीने आ प्रमाणे कधु-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र केशीकमारनो महाअर्थवाळो ३ विपुल राज्याभिषेक करो.' ए प्रमाणे जेम शिवमद्रकुमारनो राज्याभिषेक कयो के तेम अहिं 'दीर्घायुषि धाओ' त्यांमुधी कहेवो. हवे ते यावत्-पष्टजनथी परिपत थइ सिंधुसौवीर प्रमुख सोळ देशो, वीतभय प्रमुख त्रणसो प्रेसठ नगरो अने खाणोनुं तथा महासेन प्रमुख दश राजाओ, अन्य बीजा घणा राजा अने युवराज
| वगैरेनुं स्वामिपणु यावत् करतो, पालन करतो विहर' एम कही 'जय जय' शब्द बोले के, त्यारे ते केशीकुमार राजा थयो अने ते IE मोटा हिमवान् पर्वतना जेवो इत्यादि वर्णन जाणg, यावत्-ते विहरे छे.
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१३शत
उवा
बाकया-16
तए णं से उदायणे राया केसि रायाणं आपुच्छह, तए णं से केसीराया कोडंबियपुरिसे सहावेति एवं जहा प्राप्तिःजमालिस तहेव सभितरबाहिरियं तहेव जाव निक्खमणाभिसेयं उबट्ठ-ति, तए णं से केसीराया अणेगगण. ॥११८६॥ णायग जाच संपरिवुडे उदायणं रायं सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयावेति २ अट्ठसएणं सोवन्नियाणं एवं
जहा जमालिस्स जाब एवं वयासी-भण सामी ! किं देमो ? किं पयच्छामो किणा वा ते अट्ठो, तए णं से उदायणे राया केसि रायं एवं क्यासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! कुत्तियावणाओ एवं जहा जमालिस्स नवरं पउमा. वती अग्गकेसे पडिच्छइ पियविप्पयोगदूसहा, तए णं से केसी राया दोचंपि उत्तरावकमणं सीहासणं रचावेति दो. २ उदायणं रायं सेयापीतएहिं कलसेहिं सेसं जहा जमालिस्स जाव सन्निसन्ने तहेव अम्मघाती नवरं पउ|मावती हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सेसं तं चेव जाव सीयाओ पञ्चोरुभति सी०२ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति ५० नम० उत्तरपुरच्छिमं दिसीभाग अवकमति उ०२ सयमेव आभरणमल्लालंकारं तं चेव पउमावती पडिच्छति जाव घडियध्वं सामी ! जाव नो पमादेयब्वंतिकहु. केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं बंदंति नमसंति जाव पडिगया। तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्टियं लोयं सेसं जहा उसमदत्तस्स जाव सम्बदुक्खप्पहीणे ( सूत्रं ४९१)॥
त्यारवाद उदायन राजा केशी राजा पासे (दीक्षा लेबानी) रजा मागे छे, त्यारपछी ते केशीराजा कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे | Pइत्यादि जेम जमालि संबन्धे कडे तेम नगरनी बहार अने अंदर साफ करायो इत्यादि यावद् निष्क्रमणाभिषेक दीक्षाभिषेक करे।
ARMERSUICIk
CSCRIBE
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥१२८७॥
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छे. त्यारपछी अनेक गणनायक वगेरेना परिवारयुक्त ते केशीराजा उदायन राजाने उत्तम सिंहासन उपर पूर्वदिसा सन्मुख बेसाडीने एकसो आठ सोनाना कलशोवडे अभिषेक करे छे इत्यादि जेम जमालि संबन्धे कहुं छे तेम कहेनुं, यावत् ते केशी राजाए ए प्रमाणे कां के 'हे स्वामिन् ! अमे शुं दहए, अमे शुं आपीए, अने तमारे शेनुं प्रयोजन छे ? पछी ते उदायन राजाए केशी राजाने ए प्रमाणे कं- 'हे देवानुप्रिय ! कुत्रिकापणथी (हुं एक रजोहरण अने एक पात्र) मंगावना इच्छु छु. इत्यादि जेम जमालि संबन्धे कछु म अहिं जाणवुं. परन्तु एटलो विशेष छे के जेने प्रियनो वियोग दुःसह छे एवी पद्मावती अग्रकेशोने ग्रहण करे छे. त्यारबाद केशी राजा पीजीवार पण उत्तर दिसा तरफ सिंहासन गोठवावीने उदायन राजानो श्वेत अने पीठ (सोना रुपाना) कळशोवडे अभिषेक करे के. बाकी मधुं जमालिनी पेठे जाणबुं यावत् ते शिविकामां बेठो. ते प्रमाणे घावमाता संबन्धे जाणवुं, परन्तु एटलो विशेष के के अहिं | पद्मावती हंसना चिह्नवाळा रेशमी पटने ग्रहण करी - इत्यादि बाकी बधुं वे प्रमाणे जाणवुं यावत् ते उदायन राजा शिविका थकी उतरीने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर के, त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार वंदन अने नमस्कार करी उत्तर-पूर्व दिशा ईशान कोण तरफ जईने पोतेज आभरण, माला अने अलंकारने मूके छे इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहेतुं यावद पद्मावती तेने ग्रहण करे | छे, अने यावत् (ते बोली के) 'हे स्वामिन् ! संयमने विषे प्रयत्न करजो, यावत् प्रमाद न करशो' एम कही केशी राजा अने पद्मावती श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे. वंदन अने नमस्कार करीने तेओ पोताने स्थानके गया पछी उदायन राजा | पोतानी मेळे पंचमुष्टिक लोच करे छे बाकीनुं वृत्तांत ऋषभदत्तनी पेठे जाणवुं यावत् ते सर्व दुःखथी रहित थाय छे. ॥ ४९१ ॥ ae jate अभीfuस्स कुमारस्स अन्नदा कथाई पुत्र्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमा
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१३
उद्देश
॥११८७३
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बास्याप्राप्ति ॥१२॥
१३क्षत उदेशात
SARKARIAGAR
णस्स अपमेयारूवे अन्मथिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया मम अवहाय नियगं भायणिज्नं केसिकुमारं रज्ने ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पव्वइए, हमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेपुरपरियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ निग्गच्छति नि० २ पुष्वाणुपुब्धि परमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवा. २ कूणियं रायं उपसंपन्जित्ताणं विह, तस्थविणं से विउल भोगसमितिसमन्नागए यावि होत्या, तए णं से अभीयीकुमारे समणोदासर मावि होत्या, अभिगय जाब विहरह, उदायणमि रायरिसिमि समणुबद्धवेरे यावि होत्था, तेणं कालेणं २ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोसहि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता, तए णं से अभीयीकुमारे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति पा०२ अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालमासे कालं किचाइमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयपरिसामंतेसु चोयट्ठीण आयावा जाव सहस्सेसु अन्नयरंसि आयावा असुरकुमारावाससि आतावगाणं असुरकुमारदेवत्ताए उव०, तत्थ णं अत्थे. ग. आयावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई ५० तत्थ णं अभीयिस्सवि देवस्स एग पलि.ठिई पण्णत्ता । से णं भंते ! अभीयी देवे ताओ देवलोगाओ आउक्स्व. अणंतरं उब्बत्तिा कहिं ग? कहिं उन०, गोयमा! महाविदेहे वासे सिसिहिति जाव अंतं काहिति, सेवं भंते! सेवं भंतेत्ति ( सूत्रं १९२)॥१३-६॥ |
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पारने मध्यरात्रिने समये कुटुंबजमाया हु, अने ते उदायन राजामा मोटा अप्री-18
॥१९८९॥
४।११८९॥
त्यार पछी अन्य कोई दिवसे अभीचीकुमारने मध्यरात्रिने समये कुटुंबजागरण करता आवा प्रकारनो आ विचार उत्पम थयो| 'ए प्रमाणे खरेखर हुँ उदायन राजानो पुत्र अने प्रभादेवीनी कृक्षिथी उत्पन थयो छु, अने ते उदायन राजाए मने छोडी पोताना भाणेज केशिकुमारने राज्य उपर बेसाडी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे यावत्-प्रव्रज्या लीधी-आत्रा प्रकारना आ मोटा अप्रीतिरूप मानसिक आंतर दुःखथी पीडित थएलो ते अभीचिकुमार पोताना अंतःपुरना परिवारसहित पोतार्नु भांडमात्रोपकरण-पात्र वगेरे सामग्री लईने नीकळे, नीकळी अनुक्रमे जवां-एक गामथी बीजे गाम जतां ज्यां चंपा नगरी , अने ज्यो कणिक राजा के त्यां आयी इणिकनो आश्रय करी विहरे के. अने त्यां पण तेने विपुल भोगनी सामग्री प्राप्त थई. पछी ते अभीचिकुमार श्रावक पण थयो, अने जीवाजीवतत्त्वनो ज्ञाता थइ यावत्-विहरे छे, तो पण ते अभीचिकुमार उदायन राजर्षिने विषे वैरना अनुबन्धथी युक्त हतो. ते काले ते समये आ रत्नप्रभा पृथिवीना नरकावासोनी पासे चोसठ लाख असुरकुमारोना आवासो कया छे, हवे ते अभीचि. कुमार षणा वर्षों सुधी श्रमणोपासक पर्यायने पाळी अर्धे मासिक संलेखनाथी त्रीश भक्तो अनशनपणे व्यतीत करी, ते पाप स्थानकनी आलोचना अने प्रतिक्रमण कर्या सिवाय मरणसमये काळधर्म पामी आ रत्नप्रभा पृथिवीना नरकावासोनी पासे चोसठ लाख आयाव (आताप-प्रकाशरूप) असुरकुमारावासोमांना कोइ एक आयावरूप असुरकुमारावासमां आतावरूप असुरकुमार देवपणे उत्पन्न पयो. त्यां केटलाक आयावरूप अमुरकुमार देवोनी एक पल्योपम स्थिति कही छे, अने त्यां अभीचिदेवनी पण एक पल्योपमनी स्थिति कही के. [प्र०] हे भगवन् ! ते अभीचिदेव आयुःक्षय थया पछी तथा भवक्षय थया पछी मरण पामीरयां जशे-क्या उत्पम यशे[३०] हे गौतम | महाविदेह क्षेत्रने विषे सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखोनो अंत करशे. 'हे भगवन् ! ते एमजके, हे भगवन् ते
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-Thaihe
प्रसि ॥११९०॥
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एमज के' - एम कही भगवान् गौतम यावत् – विहरे छे. ॥। ४९२ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १३ मा शतकमा छड्डा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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उद्देशक ७.
रायगिहे जाब एवं वयासी-आया भंते ! भासा अशा भासा ?, गोयमा ! तो आया भासा अन्ना भासा, विं भंते ! भासा अरूविं भासा ?, गोयमा ! रूविं भासा नो अरूविं भासा, सचित्ता भंते । भासा अचित्ता भासा ?, गोयमा ! नो सचित्ता भासा अचित्ता भासा, जीवा भंते । भासा अजीवा भासा ?, गोयमा ! नो जीवा भासा अजीवा भासा जीवाणं भंते! भासा अजीवाणं भासा ?, गोपमा ! जीवाणं भासा नो अजीवाणं भासा, पुवि भंते! भासा भासिजमाणी मासा भासासमयवीतिकता भासा ?, गोयमा ! नो पुवि भासा भासि माणी भासा णो भासासमयनीतिकता भासा, पुत्रि भंते ! भासा भिज्जति भासिज़माणी भासा भि जति भासासमयवीतिकंता भासा भिजति ?, गोयमा ! नो पुवि भासा भिजति भासिजमाणी भासा भिजद्द मो भासासमयवीतिता भासा भिज्जति । कतिविहा णं भंते! भासा पण्णत्ता, गोषमा ! चडव्विहा भासा पण्णत्ता, संजहा- सच्चा मोसा सचामोसा असच्चामोसा (सू ४९३ ) ॥
[प्र० ] राजगृह नगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! भाषा ए आत्मा जीवस्वरूप के के तेथी
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२३ शक् उद्देशः ७ ॥११९०॥
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प्रजाति
SACREAK
अन्य छ ? [उ०] हे गौतम ! भाषा ए आत्मा नथी, पण तेथी अन्य (पुद्गलस्वरूप) भाषा के. [H०] हे भगवन् ! भाषा रूपी- ! १३शतके रूपवाळी के के अरूपी-रूप विनानी के ? [उ०] हे गौतम ! भाषा (पुद्गलमय होवाथी) रूपी छे, पण रूप विनानी नथी. [म.भाडा हे भगवन् ! भाषा सचिच-सजीव छे के अचित्त-अजीव छ । [उ०] हे गौतम ! भाषा सचित्त नथी, पण अचित्त छे. [३०] हे भगवन् ! भाषा जीवरूप-प्राणधारणरूप छे के अजीवस्वरूप छ ? [उ.] हे गौतम ! भाषा जीवरूप नथी, पण अजीवरूप छे. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने भाषा होय छे के अजीवोने होय छे उ०] हे गौतम ! जीवोने भाषा होय छे, पण अजीवोने भाषा नथी होती. [प्र.] हे भगवन् ! सुं[बोलाया] पूर्वे भाषा कहेवाय, बोलाती होय त्यारे भाषा कहेवाय, के बोलाया पछी भाषा कहेवाय ! [उ.] हे गौतम ! बोलाया पहेला भाषा न कहेवाय, तेमज पोलाया पछी पण भाषा न कहेवाय, पण बोलाती होय त्यारे भाषा कहेवाय. [म.] हे भगवन् ! शुं बोलाया पहेलो भाषा भेदाय, बोलाती भाषा मेदाय, के बोलाया पछी भाषा मेदय ! [३०] हे गौतम ! बोलाया पहेलो भाषा न मेदाय, तेमज बोलाया पछी भाषा न मेदाय, पण बोलाती होय त्यारे भाषा मेदाय. [4.] हे भगवन केटला प्रकारनी कही छे ? [उ.] हे गौतम ! भाषा चार प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे--१ सत्य, २ मृषा-असत्य, ३ सत्यमषा-सत्य अने असत्य मिश्र, ४ असत्यापृषा-सत्य पण नहि तेम असत्य पण नहि. ॥ ४९३ ॥
आया भंते ! मणे अन्ने मणे?, गोयमा! नो आया मणे अन्ने मणे जहा भासा तहा मणेवि जाव नो अजीवाणं मणे, पुचि भंते ! मणे मणिज्जमाणे मणे ? एवं जहेव भासा, पुबि भंते ! मणे भिजति मणिज्नमाणे मणे भिन्नति मणसमयवीतिकंते मणे भिजति', एवं जहेव भासा । कतिविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते, गोयमा! च.
SARKARINAGAR
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पास्याप्रवाति: ॥११९२॥
www.kobatirth.org उविहे मणे पन्नत्ते, जहा-सच्चे जाव असचामोसे ( सूत्रं ४९४)॥
१३श्व [प्र.] मन ए आत्मा छे, के तेथी अन्य मन छे ? [३०] हे गौतम ! मन ए आत्मा नथी, पण मन अन्य छे-इत्यादि जेमा
उशा. भाषा संबन्धे का तेम मनसंबन्धे पण जाणवू, यावत्-अजीवोने मन नथी. [प्र.] हे भगवन् ! [मनननी] पूर्व मन होय, मनन समये मन होय, के मननसमय वीत्या पछी मन होय । [२०] जेम भाषासंबन्धे कड्युतेम जाणवू [प्र०] हे भगवन् ! मनननी पूर्वे | मन मेदाय, मननसमये मन मेदाय, के मननसमय वीत्या पछी मन भेदाय ? [उ.] जेम भाषासंबन्धे का छे तेम अहिं जाणवू.६ हे भगवन् मन केटला प्रकारचें कयु छ ? [उ.] हे गौतम! मन चार प्रकारचं का छे, ते आ प्रमाणे-१ सत्य, २ असत्य, [३ मिश्र] यावत्-४ असत्यामृषा-सत्य पण नहि अने मसत्य पण नहि ॥ ४९४ ॥ | आया भंते ! काये अन्ने काये?, गोयमा ! आयावि काये अन्नेवि काये, रूविं भंते ! काये अरूविं काये?, पुच्छा, 8 गोयमा! रूविपि काये अरूविपि काए, एवं एकेके पुच्छा, गोयमा! सच्चित्तेवि काये अच्चित्तवि काए, जीवेवि काए अजीवेवि काए, जीवाणवि काए अजीवाणवि काए, पुवि भंते ! काये पुच्छा, गोयमा! पुद्धिपि काए कायिजमाणेवि काए कायसमयवीतिकंतेवि काये, पुन्धि भंते ! काये भिजति पुच्छा, गोयमा ! पुष्विपि काए भिजति जाव काए भिजति ॥ कहविहे गं भंते ! काये पन्नत्ते ?, गोयमा! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तंजहा-ओराले ओरालियमीसए बेउब्धिए वेब्वियमीसए आहारए आहारगमीसए कम्मए ।। ( सूत्रं ४९५)॥
[प्र.] हे भगवन् ! काय-शरीर आत्मा के के तेथी अन्य-आत्माथी मित्र-काय छे ? [उ.] हे गौतम ! काय आत्मा पण
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भावा
SHORE
छे, अने जात्माथी भिम पण काय के. [प्र.] हे भगवन् ! काय रूपी के के अरूपी ? [उ.] हे गौतम ! काय रूपी पण के अने M काय अरूपी पण के. ए प्रमाणे पूर्ववत् एक एक प्रश्न करवो. हे गौतम! काय सचित्त पण छे अने अचित्त पण छे, काय जीवरूपी
उच. | पण के अने अजीवरूप पण छे, तथा काय जीवोने होय छे, तेम अजीवोने पण होय . [प्र.] हे भगवन् ! पूर्वे काय होय ?इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न. [उ.] हे गौतम! काय-शरीर (जीवनो संबन्ध थया) पूर्वे पण होय, चीयमान-परलोना ग्रहण समये पण काय होय, अने कायसमय-पुद्गल ग्रहण समय वीत्या पछी पण काय होय. [प्र.] हे भगवन् ! काय ( जीवे ग्रहण कर्या) पूर्वे मेदाय ?-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम! पूर्वे पण काय भेदाय, यावत्-(पुद्गल ग्रहण समय बीत्या बाद ) पण यावद मेदाय. [.] हे भगवन् ! काय केटला प्रकारे कहेल छ । [३०] हे गौतम! काय सात प्रकारे कहेल , ते आ प्रमाणे-१ औदारिक, २ औदारिकमिश्र, ३ क्रिय, ४ क्रियमिथ, ५ आहारक, ६ आहारकमिश्र, ७ कार्मण. ॥ ४९५ ॥
कतिविहे गं भंते ! मरणे पन्नत्ते?, गोयमा! पंचविहे मरणे पण्णत्ते, तंजहा-आवीचियमरणे ओहिमरणे आदितियमरणे यालमरणे पंडियमरणे । आवीचियमरणे ण भंते ! कतिविहे पण्णत्ते !, गोयमा! पंचविहे पण्णते, तंजहा-दवावीचियमरणे खेत्तावीचियमरणे कालावीचियमरणे भवाबीचियमरणे भावावीचियमरणे । दवावीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पण्णते?, गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-नेरझ्यवब्वावीचियमरणे तिरिक्वजोणियदवावीचियमरणे मणुस्सदव्यावीचियमरणे देवदवावीचियमरणे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबह नेरइस दवावीचियमरणे नेरइयदलवावीथियमरणे!, गोयमा ! जणं नेरइया नेरहए दव्वे वहमाणा जाई दवाई नेर
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उ
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बाक्याप्रजाति ॥११९४॥
शा.
RECE
इयाउयत्ताए गहियाई बाई पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाइं भवंति ताई दब्वाइं आवीची अणुसमयं निरंतरं मरंतित्तिका, से तेणढणं गोयमा! एवं बुबह नेरइयवावीचियमरणे, एवं जाव देवदव्बाबीचियमरणे, खेत्ताबीथियमरणे णं भंते । कतिविहे पपणते , गोयमा! चउविहे पण्णत्ते, तंजहानेरइयखेत्तावीचियमरणे जाव देव, से केणटेणं भंते ! एवं० नेरइयखेत्तानीचियमरणे नेर०२१, जपणं नेरइया नेरइयखेत्ते वहमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए एवं जहेव दवावीचियमरणे तहेव खेत्तावीचियमरणेवि, एवं जाव भावावीचियमरणे ।
[म.] हे भगवन् ! मरण केटला प्रकारे कांछे? [उ०] हे गौतम! मरण पांच प्रकारचें कयूंछे, ते आ प्रमाणे-१ आवीचिकमरण, २ अवधिमरण, ३ आत्यंतिकमरण, ४ बालमरण, ५ पंडितमरण. [प्र.] हे भगवन् ! आवीचिकमरण केटला प्रकारे का? [उ०] हे गौतम ! आवीचिकमरण पांच प्रकारे का छे, ते आ प्रमाणे-१ द्रव्याचीचिकमरण, २ क्षेत्रावीचिकमरण, ३ कालाचीचिकमरण, ४ भवावीचिक्रमरण, अने ५ भावावीचिकमरण. [प्र.] हे भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण केटला प्रकारे का छे । [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारे कयुंके, ते आ प्रमाणे-१ नैरयिकद्रव्यावीचिकमरण, २ तियंचयोनिकद्रव्यावीचिकमरण, ३ मनुष्यद्रव्यावीचिकमरण अने ४ देवद्रव्यावीचिकमरण. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी नैरयिकद्रव्यावीचिकमरणने नैरयिकद्रव्यावीचिकमरण कहो छो? [उ०] हे गौतम ! नारकजीवपणे वर्तता नारकोए जे द्रव्योने नैरपिकआयुषपणे (स्पर्शथकी) ग्रयां डे, (बंधनथी) बांघेलां के, (प्रदेशथी) पुष्ट कर्या के, (विशिष्टरसपी) करेलां छे, (स्थितिवडे ) प्रसापित करू छे, (जीवप्रदेशोमा) निविष्ट-प्रवेशेला छे ।
EREGA*
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व्याख्याप्रशतिः
॥११९५॥
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अभिनिविशिष्ट अत्यंत माढ प्रवेशेलां छे, अने अभिसमन्वागत - उदयाभिमुख थयेलां छे, ते द्रव्योने आवीचिक - निरंतर प्रतिसमय मरे छे-छोटे छे, माटे ते हेतुथी हे गौतम! नैरयिक द्रव्यावीचिकमरण नैरयिकद्रव्यावीचिकमरण कद्देवाय के. ए प्रमाणे (तिर्यंचयोनिकद्रव्यावीचिकमरण, मनुष्यद्रव्यावीचिक्रमरण अने) यावत् देवद्रव्यावीचिकमरण जाणवुं [प्र०] हे भगवन् ! क्षेत्रावीचिकमरण केटला प्रकारे क छे ? [अ०] हे गौतम! चार प्रकारे कहेल छे, ते आ प्रमाणे- नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरण, २ तिर्यचयोनिक क्षेत्रावीचिकमरण, यावत्-४ देवक्षेत्रावीचिकमरण. [प्र.] हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे या हेतुथी नारकक्षेत्रावीचिकयरण नारकक्षेत्रात्रीचिक मरण कहेंवाय के ? [30] नारकक्षेत्रमां वर्तता नारक जीवोए जे द्रव्योने पोते नारकायुषपणे ग्रहण करेला छे, अने ते ( द्रव्योने प्रतिसमय निरंतर मूके छे) इत्यादि द्रव्याचीचिकमरण संबंधे कहेलं छे ते अहिं कहेवं, ते माटे नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरण कहेवाय के. अने ए प्रमाणे यावत् ( कालावीचिकमरण, भचाबीचिकमरण, तथा ) भावावीचिकमरण पण जाणवुं.
ओहिमरणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा । पंचविहे पण्णत्ते, जहा-दब्बोहिमरणे खेत्तोहिमरणे जाव भावोहिमरणे । दव्वोहिमरणे णं भंते । कतिविहे पण्णत्ते, गोयमा ! चउब्बिहे पण्णत्ते तंजा-नेरइयदव्वोहिमरणे जाव देवदव्वोहिमरणे, से केणद्वेणं भंते! एवं कु० नेरइयदच्वोहिमरणे २१, गोपमा ! जपणं नेरहया नेरइयदव्वे बट्टमाणा जाई दव्वाई संपयं मरंति जपणं नेरइया ताई दब्वाई अणागए काले पुणोवि मरिस्संति से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव दव्वोहिमरणे, एवं तिरिक्खजोणिय० मणुस्स• देवोहिमरणेवि, एवं एएणं गमेणं खेतोहिमरणेवि कालोहिमरणेवि भवोहिमरणेवि भावोहिमरणेवि । आइतियमरणे णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! पंचविहे
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१३ सके उद्देशा ७ ॥११९५ ॥
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B
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मेना.
___www.kotatrth.org व्याख्या
पन्नत, तं०-दब्वादितियमरणे खेत्तादितियमरणे जाव भावादितियमरणे, दब्वादितियमरणे णं भंते ! कतिविहे प्रज्ञप्तिः प०१, गो.! चविहे प००-नेरहयदव्वाईतियमरणे जाच देवदव्वादितियमरणे, ॥११२६॥ [प्र०] हे भगवन् ! अवधिमरण केटला प्रकारे कधु है ! [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारे कर्जा छे, ते आ प्रमाणे-१ व्याव
| धिमरण, २ क्षेत्रावधिमरण, (३ कालावधिमरण, ४ भवावधिमरण) यावत् अने ५ भावावधिमरण. [प्र०] हे भगवन ! द्रव्यावधिमरण केटला प्रकारे कह्यु छ ? [उ०] हे गौतम ! चार प्रकारे का छे. ते आ प्रमाणे-१ नरयिकद्रव्यावधिमरण, २ यावत (तिर्यचयोनिकद्रव्यावधिमरण, ३ मनुष्यद्रव्यावधिमरण) अने देवघ्यावधिमरण, [प्र.] हे भगवन् ! नैरयिकद्रव्यावधिमरण शा माटे कड़ेवाय छ। [उ.] हे गौतम ! नारकपणे वर्तता नारक जीवो जे द्रव्योने सांप्रत काले मूके छे, अने बळी ते नारको थइने तेज द्रव्योने | भविष्यकाळे फरीथी (ग्रहण करीने) पण छोडशे, ते माटे हे गौतम ! नरयिकद्रव्यावधिमरण कहेवाय छे. ए प्रमाणे तियचयोनिकद्र | म्यावधिमरण, मनुष्यद्रव्यावधिमरण अने देवव्यावधिमरण पण जाणवू. तथा ए पाठवडे क्षेत्रावधिमरण, कालावधिमरण, भवावविमरण अने भावावधिमरण जाणवु. [प्र०] हे भगवन् ! आत्यंतिकमरण केटला प्रकारे को छे? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारे का
छे, ते आ प्रमाण द्रव्यात्यंतिकमरण, २ क्षेत्रात्यतिकमरण, यावत् ५ भावात्यंतिकमरण. [प्र०] हे भगवन् ! द्रन्यान्तिकमरण केटला ४ प्रकारे कयु छ? [उ.] हे गौतम ! चार प्रकारे कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे १ नैरयिकद्रव्यात्यंतिकमरण, अने यावत् ४ देवद्रव्यात्यंतिकमरण. | सेकेणटेणं एवं वु० नेरइयदव्वादितियमरणे नेर० २१, गो.! जणं नेरड्या नेरइयदब्वे वहभाणा जाई दवाई संपर्य मरंति जे ण नेरइया ताई दवाई अणागए काले नो पुणोवि मरिस्संति से तेणढणं जावमरणे, एवं तिरि
RECA-SANSAR
ESIGHESISK ***OCH
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*डोशा.
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भा॥१९
क्ख.मणुस्स. देवाइंतियमरणे, एवं खेत्ताइंतियमरणेवि एवं जाव भावाइंतियमरणेवि। बालमरणे ण भंते । कति| विहे प०१, गोला दुवालसविहे पं० तंजहा-वलयमरणं जहा खंदए जाच गद्धपट्टे | पंडियमरण णं भंते ! कहविहे पण्णते?, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तजहा-पाओवगमणे य भत्तपञ्चक्रवाणे य। पाओवगमणे णं भंते ! कतिविहे प०१, गोयमा! दुविहे पं०, तं-णीहारिमे य अनीहारिमे ग जाच नियम अपडिकम्मे । भत्तपञ्चक्रवाणे भंते । कतिविहे प०१, एवं तं चेव नवरं नियमं सपडिकम्मे । सेवं भंते ! २त्ति (सूत्र ४९६) ॥१-७॥
[प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी 'नरयिकद्रव्यात्यंतिकमरण' २ कहेवाय छे? [उ०] हे गौतम ! नारकपणे वर्तता जे नारक जीवो जे द्रव्योने सांप्रत काळे छोडेले, ते नैरयिको ते द्रव्योने भविष्यकाळे फरीवार नहि छोडे, हे गौतम ! ते हेतुथी 'नैरयिकद्रन्यात्यंतिकमरण २ कईचाय छे, ए प्रमाणे तिर्यंचयोनिकद्रव्यात्यंतिकमरण, मनुष्यद्रव्यात्यन्तिकमरण, अने देवद्रव्यात्यन्तिकमरण पण जाणवू, तथा ए प्रमाणे क्षेत्रात्यन्तिकमरण, यावत्-(कालात्यंतिकमरण, भवात्यंतिकमरण अने) भावात्यंतिकमरण जाणवु. [म.] हे भगवन् ! बालमरण केटला प्रकारे कयु ले १ [३०] हे गौतम ! बार प्रकारे कर्यु छे, ते आ प्रमाणे-१ वलयमरण, इत्यादि स्कन्दकना अधिकारमा कडा प्रमाणे यावत्-१२ गृध्रस्पृष्टमरण जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! पंडितमरण केटला प्रकारे कहां [उ०] हे गौतम ! ने प्रकारे कयु छे, ते आ प्रमाणे-१ पादपोपगमन (पडेला पादप-वृक्षनी पेठे हाल्या चाल्या शिवाय एकज स्थितिमा उपगमन रहे), १ भक्तप्रत्याख्यान (आहार पाणीनो त्याग करवो). [प्र०] हे भगवन् ! पादपोपगमन मरण केटला प्रकारे का छेउ०] हे गौतम। वे प्रकारनु कयुछे, ते आ प्रमाणे-१ निहारिम (वसतिना एक भागमा पादपोपगमन कराय के ज्याथी मृत
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११९८ ॥]
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कलेवरने बहार काढवुं पडे ते निर्धारिम पादपोपगमन) २ अनिर्धारिम ( पर्वतनी गुफामां के तेवा बीजा स्थळे पादपोपगमन करे के ज्यांथी तेनुं मृत कलेवर बहार न काढवुं पडे ते) यावत् आ बने प्रकारनुं पादपोपगमन मरण अवश्य अप्रतिकर्म ( शरीरसंस्काररहित ) होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यानरूप मरण केटला प्रकारे कहुं छे ? [] ए प्रमाणे पूर्वे का प्रमाणे तेना (निर्धारिम | अने अनिर्धारिम ए वे भेद जाणवा) पण विशेष ए छे के आ बन्ने प्रकारनुं भक्तप्रत्यानरूप मरण अवश्य सप्रतिकर्म-शरीरसंस्कारस| हित होय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज े, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही चिहरे छे. ।। ४९६ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवती सूत्रा १३ मा शतकमां सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ८.
कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं० एवं बंधहिउद्देसो भाणिव्वो निरवसेसो जहा पन्नवणाए । सेवं भंते! सेवं भंते ! (सूत्रं ४९७ ) ।। १३-८ ।।
[प्र० ] हे भगवन् ! कर्मनी केटली प्रकृतीओ कही छे ? [उ०] हे गौतम! कर्मनी आठ प्रकृतिओ कही छे, अहिं प्रज्ञापनासूत्रनो बंधस्थिति नामे संपूर्ण उद्देशक कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही यावत् विहरे छे. ॥ ४९७ ॥ भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १३ मा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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१३ फे उद्देशः
॥। ११९८ ॥
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व्याख्याप्रशिः ॥११९९ ।।
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उद्देशक ९.
18
रायगिहे जाब एवं बयासीसे जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारेवि भाfavour या डियाकिञ्चहत्थगरण अप्पाणेणं उड्डुं बेहासं उत्पाएजा ?, गोयमा ! हंता उप्पाराजा, अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाई पभू केयाघडियाहत्यकिश्चगाई रुवाई विउवित्तए ?, गोयमा ! से जहानामएजुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे एवं जहा तहयसए पंचमुद्देसए जाव नो चेव णं संपत्तीए विवि वा वित्रिति वा विविस्संति वा, से जहा नामए केइ पुरिसे हिरनपेलं गहाय गच्छेजा, एवामेत्र अणगारेवि भावियप्पा हिरपण पेलहस्थ किञ्चगएणं अप्पाणेणं सेसं तं चैव एवं सुवन्नपेलं, एवं रयणपेलं बहरपेलं वत्थपेलं आभरणपेलं, एवं faress सुनकि चम्मकि कंबलकिडुं एवं अपभारं तंत्र भारं तउगभारं सीसगभारं सुवन्नभारं हिरन्नभारं बहरभारं, से जहानामए-वग्गुली सिया दोवि पाए उल्लंबिया २ उडूंपादा अहोसिरा चिट्ठेजा एवामेव अणगारेवि भाविपा वग्गुलीकिचगरणं अप्पाणेणं उट्टं वेहासं, एवं जनोवयवत्तव्वथा भा० जाब विउव्विस्संति वा,
[प्र०] राजगृहमां (भगवान् गौतम ) यावत् आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! जेम कोइ एक पुरुष दोरडाथी बांधेली घटिकाने लइने गमन करे, ए प्रमाणे भावितात्मा साधु दोरडाथी बांधेली घटिकानुं कार्य हस्तगत करी (वैक्रियलब्धिथी एवं रूप धारण करी) पोते ऊंचे आकाशमा उडे १ [अ०] हा गौतम ! उडे. [प्र] हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार दोरडाथी बांधेली घटिकाने
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१३ शतके उद्देशः ९ ॥११९९॥
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हाथमां धारण करवारूप केंटलां रूपो विकुर्वी शकवाने समर्थ होय ? [उ०] हे गौतम! 'जेम कोइ एक युवान पुरुष युवति खीने हाथवडे आलिंगे' - इत्यादि ए प्रकारे तृतीयशतकना पांचमा उद्देशक्रमां कह्या प्रमाणे यावत् संप्राप्ति (संपादन) करवावडे तेवां रूपो चिकुन्य नथी, विकर्षता नथी अने विकुर्वशे पण नहि. [प्र०] हे भगवन् ! जैम को एक पुरुष हिरण्यनी पेटीने लड्ने गमन करे, एप्रमाणे भावितात्मा अनगार पण हिरण्यनी पेटीना कृत्यने हस्तगत करी ( एवं रूप विकुर्वी ) पोते गगनमां उडे ? [३०] बाकी वधुं पूर्ववत् जाणवुं. ए प्रकारे सुवर्णनी पेटी, रत्ननी पेटी, वज्रनी पेटी, वस्त्रनी पेटी अने घरेणांनी पेटीने लइने (आकाशमां गमन करे ?) ए प्रमाणे विदलकट-वांसनी सादडी, चुंबकट-घासनी सादडी, चर्मकट, चामडाथी भरेल खाटली बगेरे, अने कांबळकटपाथरवाना उनना कांबळा, तथा लोढाना भारने, तांबाना मारने, कलहना भारने, सीमाना भारने, हिरण्यना-रूपाना भारने, सुबर्णना भारने अने वचना भारने लहने पण गमन करे. [प्र० ] हे भगवन् ! जेम कोइ एक वडवागुली होय अने ते पोताना बने पग (वृक्षादिक साथ) उंचा लटकावी, उंचा पग अने माथु नीचे राखीने रहे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण बागुलीना कल्पने प्राप्त थयेलो (अर्थात् बागुलीनी पेठे) पोते आकाशमां उंचे उडे ? [उ०] हा, उडे. एज प्रमाणे यज्ञोपवीतनी ( जनोहनी ) वक्तव्यता पण कहेवी. (जेम कोइ ब्राह्मण गळामां जनोइ नाखी गमन करे तेम भावितात्मा अनगार तेनुं रूप विकुर्वे- इत्यादि), परन्तु (संप्राप्तिवडे तेवां रूपो ) विकुर्वशे नहि.
से जहानामप- जलोमा सिया उदगंसि कार्य उब्विहिया २ गच्छेला एषामेव सेसं जहा वग्गुलीए, से जहाणामए बीयंबीय सउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे म० २ गच्छेजा एवामेव अणगारे सेसं तं चैव से जहा
व्याक्या
प्रज्ञप्तिः
॥ १२००॥
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१३
उद्देशः ९ ॥। १२००॥
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अवधि: १२०१॥
जीवंतवातागो तीर अभिमा श्वमाणे गच्छेहा अप्पाजी सेसं जमा प्रेस प्ररीने गमन
णामए पक्षिविरालिए सिया सक्स्याओ रुक्खं वेमाणे गच्छेना एवामेच अणगारे सेसंत चेव, से जहानामए जीवजीवगसउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे स.९ गच्छेन्जा एवामेव अणगारे सेसं तं चेव, से जहाणामए
मा३शसके हंसे सिया तीराओतीरं अभिरममाणेरगच्छेन्जा एवामेव अणगारे हंसकिञ्चगएणं अप्पाणेण ते चेव, से जहानामए
१२०१७ समुहबायसए सिया वीईओ वीड डेवेमाणे गच्छेजा एवामेव तहेव, से जहानामएकेड पुरिसे चकं गहाय गच्छेजा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा चकहस्थकिचगएणं अपाणेण सेसं जहा केयाघडियाए, एवं उत्तं एवं चामरं,
प्र०] हे भगवन् ! जेम कोइएक जळो होय अने ते पोताना शरीरने पाणीमां प्रेरी प्रेरीने गमन करे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार तेवु रूप विकुर्वी आकाशमा गमन करे। [उ.] बाकी बधुं वागुलीनी पेठे जाणवं. [प्र.] हे भगवन् ! जेम कोइएक बीजंबीजक पक्षी होय अने ते पोताना बमे पगने घोडानी पेठे साथे उपाडतुं गमन करे, ए प्रमाणे भावितास्मा अनगार ( तेना आकारे आकाशमा उडे! [उ.] हा, उडे. बाकी धुं पूर्वनी पेठे जाणवं, प्र०] जेम कोइ एक विलाडक नामे पक्षी होय, अने ते एक वृक्षी वीजा पक्षे जतुं, वीजा पक्षयी वीजा वृक्षे जतुं गति करे. ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार (तेका आकारे गमन करे ? [२०] हा गमन करे. बाकी बघु पूर्व प्रमाणे जाणवू. [प्र.] जेम कोइएक जीवंजीवक नामे पक्षी होय, अने ते पण पोताना बन्ने पगने घोडानी पेठे साथे उपाडतुं गति करे, एज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण पोते तेवा आकारे आकाशमा उडे ? [उ.] बाकी धुं
पूर्व प्रमाणे जाणवु. [प्र.] जेम कोइएक हंस होप अने ते आ कांठेथी पीजे काठे रमतो रमतो गति करे, ए प्रमाणे भावितात्मा &ा अनगार पण ईस त्यने प्राप्त करी पोते गगनमां (ईसने आकारे उटे ) [उ.] पूर्ववत् जाणवू. [प्र.] जेम कोई एक समुद्रवायसा
ARRRREKKRE
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११२.२॥
CBSERICISHA
| (समद्रनो कागडो) होय, अने ते एक तरंगथी बीजा तरंगे जतो गति करे, प प्रमाणे (भावितात्मा साधु पोते एका आकारे गमनमा गति करे ? [उ०] ते प्रमाणे जाणवू. [प्र.] जेम कोइ एक पुरुष चक्रने लइने गति करे, एज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पोते 18 उदेशा चककृत्यने हस्तगत करीने (एवा आकारे आकाशमा उडे?) [उ.] बाकी बर्षा पूर्वे कहेली दोरडाथी बांघेल घटिकानी पेठे (सू०१)cिlureजाणq. एज प्रमाणे छत्र तथा चामरने लइने गमन करे.
से जहानामए के पुरिसे रयणं गहाय गच्छेना एवं चेव, एवं वरं वेरुलियं जाच रिटुं, एवं उप्पलहस्थगं एवं पउमहत्थगं एवं कुमुवहत्वगं एवं जाव से जहानामए-केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा एवं चेव, से जहानामए-के पुरिसे भिसं अवदालिय २ गच्छेज्जा एवामेव अणगारेवि भिसकिञ्चगएणं अप्पाणेणं तं चेव, से जहानामए-मुणालिया सिया उदगंसि कायं उम्मज्जिय २ चिहिज्जा एवामेव सेसं जहा वग्गुलीए, सें जहानामए वणसंडे सिया किण्हे किण्होभासे जाव निकुरुषभूए पासादीए ४ एवामेव अणगारेवि भावियप्पा वणसंडकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्डु वेहासं उप्पाएजा सेसं तं चेव, से जहानामए-पुकावरिणी सिया चउक्कोणा समतीरा अणुपुष्वसुजायजावसदुन्नइयमहुरसरणादिया पामादीया ४ एवामेव अणगारेवि भावियप्पा पोस्वरिणीकिच्चगएण अप्पाणेणं उड्डु वेहासं उपएज्जा, हंता उप्पएज्जा,अणगारे णं भंते ! भावियपा केवतियाई पभू पोक्खरिणीकि
गयाई रुवाई विउवित्तए?, सेसं तं चेव जाब विउब्धिस्संति वा । से भंते ! किं मायी विउब्वति अमायी विउ ब्बति?, गोयमा! मापी विउव्यह नो अमायी विउब्वइ, मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइया एवं जहा तइयसए
सर
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HERE
१३शरके मेशा
॥१२.३॥
चउत्थुसए जाव अस्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते! सेवं भंते ! जाब विहरइत्ति ( सूत्रं ४१८)॥१३-९॥ । | [म.] जेम कोई एक पुरुष रखने लइने गमन करे, ए प्रमाणे वन, वैदुर्य, यावत्-रिष्ट (श्यामरल) ए प्रमाणे उत्पलने हस्त|गत करी, पबने हस्तगत करी, ए प्रमाणे यावत् कोइ एक पुरुष सहस्रपत्रने लइने गति करे, तेम भावितात्मा अनगार पोते एवा
आकारे आकाशमां गति करे। [उ०] ए प्रमाणे जाण. [प्र.] हे भगवन् ! जेम कोई एक पुरुष बिसनी-कमळनी डांडलीने तोडी तोडीने गति करे, ते प्रमाणे अनगार पण पोते विसकृत्यने प्राप्त करी ( एवा आकारे) पोते गगनमा ममन करे। [उ.] पूर्ववत जाणवू. [म.] जेम कोइ एक मृणालिका-कमलनो छोर पाणीमां कायने-पोताना शरीरने डुवाडी दुवाडी (मुख बहार राखी) रहे, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पोते एवा आकारे गगनमा उडे ? बाकी पधुं वागुलीनी पेठे जाणवू. [सं०] जेम कोइ एक वनखंड होय, अने ते काळो, काळा प्रकाशवाळो, यावत्-मेघना समूहरूप, प्रसन्नता देनार अने ( दर्शनीय) होय, एज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण पोते बनखंखना कल्पने प्राप्त करी अर्थात् एवा आकारे पोते गगनमा उडे ! [उ.] बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. [प्र.] जेम कोई एक पुष्करिणी-वाव होय, अने ते चोखंडी, समान कांठावाळी, जेने अनुक्रमे शुश्नोमित वप्र-वंडी के एवी, पोपट वगेरे पक्षीओना मोटा शब्दवाळी, तेओना मधुर स्वरवाळी अने प्रसन्नता आफ्नार होय, ए प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण पुष्करिणीना कृत्यने प्राप्त करी-एवा आकारने विकी पोते आकाशमा उडे ! [३०] हा उडे. [प्र०] हे भगवन् ! मावितात्मा अनगार पुष्करिणीना कत्यने प्राप्त-एवा आकारवान केटलां रूपो विकुर्ववाने समर्थ थाय! [3] वाकी पूर्व प्रमाणे जाणवू, पण ते संग्रालिथी यावत् विकुर्वशे नहि. [प्र.] हे भगवन् ! (पूर्वोक्त रूपो) मायावाळो विङ्क के मायारहित (अनगार चिकुर्वे ? [उ.] हे गौतम
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प्रवास
www.kobatirth.org मायावालो विकुर्वे, पण मायारहित साधु न विकर्वे, मायावालो साधु विकुर्वणारूप प्रमाद खानकनी आलोचना अने प्रतिक्रमण पास्याकर्या शिवाय काळ करे-इत्यादि तृतीय शतकाना चोथा उद्देशकमां कमा प्रमाणे जाणवू, यावत् 'तेने आराधना धाय ' त्यां सुधी
उद्देशान. लकडे. 'हे भगवन् । ते एमज , हे भगवन् ! से एमज डे' एम कही (भगवान् गौतम) यावत् विहरे छे. ॥ ४९८ ॥ ॥१२. मनात
(१२०m भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीखत्रना १३ मा शतकमां नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थो.
उद्देशक १०. कति णं भंते ! छाउमस्थिपसमुग्धाया पनत्ता , गोयमा! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पन्नत्ता, तंजहावेषणासमुग्घाए एवं छाउमत्थियसमुग्धाया नेयम्वा जहा पन्नवणाए जाच आहारगसमुग्घायेत्ति । सेवं भंते ! & सेवं भंतेत्ति (सूत्र ४९९)॥१३-१० ॥ तेरसमं मयं समतं ॥
[प्र.] हे भगवन् ! छातिक समुद्घातो केटला कया छ ? [उ०] हे गौतम! छायनिक छ सदरातो कमाछे, ते आ प्रमाणे-१ वेदनासमुद्घात-इत्यादि ए प्रमाणे छायस्थिक समुद्घातो प्रज्ञापनासूत्रना समुद्घात पदमां कह्या प्रमाणे-आहारसमुद्घात सुधी जाणवा. हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ'-एम कही (भगवान गौतम) यावद् विहरे के. ४९९॥ भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १३ मा शतकमा दशमा उद्देसानो मूलार्थे संपूर्ण थयो.
॥इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे त्रयोदशं शतं समासं ॥
FEERIEWERPUR
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शतक १४. (उद्देशक १.)
| १४शतके
॥१२०५॥
उद्देशान
SHASHA
REAM
चरमु १ म्माद २ सरीरे ३ पोग्गल ४ अगणी तहा किमाहारे ६। संमिह ७ मंतरे ग्वल्लु ८ अणगारे ९ केवली चेव १० ॥७॥
(उद्देशक संग्रह) १ चरमशब्दसहित होवाथी चरमनामे प्रथम उद्देशक, २ उन्मादना अर्थनो प्रतिपादक होवाथी उन्माद नामे बीजो उद्देशक, ३ शरीरशन्दसहित होवाथी शरीरनामे बीजो उद्देशक, ४ पुद्गल-पुद्गलार्थ प्रतिपादित करवाथी पुगलनामे चोथो उद्देशक, ५ अग्निशब्दसहित होबाथी अग्निनामे पंचम उद्देशक, ६ किमाहार (कई दिशाना आहारवालो होय छे' (ए प्रश्नयुक्त होवाथी किमाहारनामे षष्ठ उद्देशक, ७'चिरसंसिडोसि गोयमा' आ पदमा आवेला संश्लिष्टशब्दसहित होवाथी सातमो संश्लिष्ट उद्देशक, ८ नरकपृथिवीना अन्तरने प्रतिपादन करवाथी आठमो अन्तर उद्देशक, ९ प्रारंभमां 'अनगार'-पद होवाथी नवमो अनगार उद्देशक, अने १. आरंभमां 'केवली' ए पद होवाथी दशमो केवली उद्देशक(ए प्रमाणे चौदमा शतकमा दश उद्देशको कहेवामां आवशे.) |
रायगिहे जाब एवं बयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरम देवावासं वीतिकंते परमं देवावासमसंपत्ते का एस्थ णं अंतरा कालं करेजा तस्मण भंते ! कहिं गती कहिं उववाए पन्नत्ते', गोयमा ! जे से तत्व परियस्मओ
तल्लेसा देवावासा तहिं तस्स उववाए पन्नत्ते, से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्समेव पडिवडइ, से य तस्थ गए नो विराहेजा एयामेव लेस्सं उवसंपजित्ताणं विहरति ॥ अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरम असुरकुमारा
।
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म्याक्यामासिः
॥ १२०६।।
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वाले वीतिकंते परमअसुरकुमारावास एवं भेव एवं जाव धणियकुमारावास जोइसियावास एवं वैमाणियावासं जाव विहरह || (सूत्रं ५०० ) ||
राजगृह नगरमा (भगवान् गौतम) याबद्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार (साधु) जेणे चरम-छेला देवावासनुं उल्लंघन कर्यु के, अने हजी परम-आगळना देवावासने प्राप्त थयो नथी, आ अवसरे ते काळ करे-मरण पामे तो हे भगवन् ! तेनी क्यां गति धाय अने तेनो क्यां उत्पाद थाय ? (उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसायस्थानने विषे वर्तमान अनगार चरमसौधर्मादिदेवलोकना आ छेडे वर्त्तमान देवावासनी स्थित्यादिना बन्धने योग्य अध्यवसायस्थानने ओळंगी गयो छे, अने परम-उपर रहेला सनत्कुमारादि देवलोकना स्थित्यादिना बन्धने योग्य अध्यवसायने प्राप्त थयो नथी, आ अवसरे काळ करे तो ते क्यों उपजे १ [30] हे गौतम! चरम देवावास अने परम देवावासनी पासे ते लेश्याबाळां देवावासो छे त्यां तेनी गति अने त्यां तेनो उत्पाद हेलो छ. सौधर्मादिदेवलोक अने सनत्कुमारादि देवलोकनी पासे ईशानादि देवलोकमा जे लेश्याए साधु मरण पाने ते लेश्यावाळा देवावासाने विषे तेनी गति अने तेनो उत्पाद थाय छे.) ते साधु त्यां जहने पोतानी पूर्व लेश्याने विराधे-छोडे तो ते कर्मलेश्याभावलेश्याथा पडे छे, अने जो ते त्यां जहने न विराधे तो तेज लेश्यानो आश्रय करी विहरे छे. [प्र०] हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार - आ तरफ छेला असुरकुमारावासने ओळंगी गयो छे अने परम अमरकुमारावासने प्राप्त थयो नथी, ते जो आ अवसरे मरण पामे तो ते क्या उपजे ? [अ०] ए प्रमाणे जाणं. ए रीते यावत् स्तनितकुमारावास, ज्योतिषिकात्रास अने वैमानिकावासपर्यन्त यावत् 'विहरे के' त्यांसुधी जाण
।। ५०० ।।
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१३वास उद्देशः१०
।। १३०६ ।।
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१३शतके #उद्देशा१. 1॥१२०७४
व्याख्या
नेरइयाणं भंते ! कहं सीहा गती कहं सीहे गतिविसप पण्णत्ते ?, गोयमा! से जहानामए-केह पुरिसे तरुणे प्रज्ञप्ति बलवं जुग जाव निउणसिप्पोवगए आउहियं बाहं पसारेजा पसारियं वा बाहं आउंटेना विक्खिण्णं वा मुर्हि ॥१२०७॥ साहरेज्जा साहरियं वा मुट्टि विक्विरेज्जा उन्निमिसियं वा अछि निमिसेज्जा निमिसियं वा अल्छि उम्मिसेजा,
भवे एयारूवे, णो तिणटे समढे, नेरड्या णं एगसमएण वा दुसमपण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उवबजंति, नेरहयाणं गोयमा! तहा सीहा गती तहा सीहे गतिविसए पणत्त एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाण चउसमइए विग्गहे भाणियव्वे । सेसं तं चेव ।। (सूत्रं ५०१)॥ | [40] हे भगवन् ! नैरयिकोनी केवा प्रकारनी शीघ्र गति कही , अने तेओनो केवा प्रकारनी शीघ्र गतिनो विषय (समय) | कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम ! जेम कोइ एक पुरुष तरुण, बलिष्ठ, युगवाको (विशिष्ट बलबाळा सुषमादिकाळमा उत्पन्न थयेलो) अने मायावत् निपुण शिल्पशास्त्रनो ज्ञाता होय; ते पोताना संकुचित हाथने (त्वराथी) पसारे अने पसारेला हाथने संकुचित करे. पसारेली
मुठिने संकुचित करे, अने संकोचेली मुठीने पसारे-उघाडे, उघाडेली आंखने मींची दे अने मींचेली आंखने उघाडे, हे गौतम! (नारकोनी) आवा प्रकारनी-शीघ्रगति अथवा शीघ्र गतिनो विषय होय ! आ अर्थ यथार्थ नथी. नारको एक समयनी (जुगतिवडे) अने बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिवडे उत्पन्न थाय छे. हे गौतम! तेवा प्रकारे (एक समय, वे समय के व्रण समयनी) नैरयिकोनी शीघ्रगति अथवा शीघ्रगतिनो विषय कह्यो छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी जाणवू. परन्तु विशेष ए छे के. एकेन्द्रियोने (उत्कृष्ट) चार समयनी विग्रहगति कहेवी. बाकी (पृथिवीकायिकादि दंडकने विषे) वधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. ॥ ५०१॥
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गोयमा! जे ण नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते ण नेरड्या अणंतरोववन्नगा, जे ण नेरहया अपढमममयोववनगा ते ॥१२०८॥
उमेशा ण नेरहण परंपरोक्वन्नगा, जे ण नेर० विग्गहगहसमावन्नगा ते ण नेरहया अणंतरपरंपरअणुववन्नगा, से सेण- १२०८॥ द्वेणं जाव अणुववन्नगावि, एवं निरंतरं जाव वेमा । अणंतरोववन्नगा ण भंते ! नेरड्या किं नेरइयाउयं पकरेंति? तिरिक्ख० मणुस्स. देवाउयं पकरेंति ?, गोयमा! नो नेरच्याउ पकरेंति जाव नो देवाज्यं पकरेंति ।।
[प्र०] हे भगवन् । शुं नैरयिको अनन्तरोपपत्र (जेओनी उत्पत्तिमा समयादिकनुं अन्तर नथी, अर्थात् नारकभवना प्रथम समये उत्पन्न थयेला एवा) छे, परंपरोपपत्र (जेओनी उत्पत्तिने बे-त्रण-इत्यादि समयनी परंपरा थयेलो छे तेवा) छे, अनंतरपरंपरानुपपन्न जेओनी अनन्तर अने परम्पर-ए नन्ने प्रकारनी उत्पत्ति थयेली नथी एवा) छे? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको अनन्तरोपपन्न रे, परंपरोपपन्न के अने अने अनन्तरपरंपरानुपपत्र पण छे. [३०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के, नैरयिको यावत्-अनन्तरपरंपरानुपपन्न के ? [उ.] हे गौतम! जे नैरयिको प्रथम समये उत्पन्न थया छे तेओ 'अनन्तरोपपन्न कहेवाय के, जे नैरयिकोनी उत्पत्तिमा प्रथम समय शिवाय द्वितीयादि समयो व्यतीत धया के तेओ 'परंपरोपपत्र' कहेवाय के अने जे नैरयिको विग्रहगतिने
प्राप्त थया छे ते 'अनन्तरपरंपरानुपपन्न' कहेवाय छे, माटे ते हेतुथी हे गौतम ! नैरयिको पूर्व प्रमाणे यावत्-अनन्तरपरम्परानुपपन्न 8. त्यांमृधी कहे. ए प्रमाणे निरन्तर यावत्-चैमानिको सुधी कहे,. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न (प्रथम समये उत्पन्न थयेला)|8|
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१४शतके उद्देशान
॥१२०९॥
नैरयिको नैरयिकनुं आयुष बांधे, तिर्यचन आयुष चांघे, मनुष्यनु आयुष बांधे, के देवर्नु आयुष बांधे ? [उ.] हे गौतम ! तेओ व्याख्या-12 नैरयिकर्नु आयुष न बांधे, यावद्-देवर्नु आयुष पण न बांधे.
परंपरोववनगाणं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति?, गोपमा ! नो नेरहयाउयं ॥१२०९॥
पकरेंति तिरिक्खजोणियाउयंपि पकरेंति मणुस्साउयपि पकरेंति नो देवाउयं परति । अणंतरपरंपरअणुववन्नगा णं भंते ! नेर० किं नेरइयाउयं प० पुच्छा, गोयमा! नो नेरहयाउयं पकरेंति जाब नो देवाउयं पकरेंति, एवं जाव वेमाणिया, नवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववनगा चत्तारिवि आउयाई प०, सेसं तं चैव २॥ नेरड्या णं भंते ! किं अणंतरनिग्गया परंपरनिग्गया अनंतरपरंपरअनिग्गया?, गोयमा! नेरइया णं अणंतरनिग्गयावि जाव अणंतरपरंपरअनिग्गयावि, से केणटेणं जाव अणिग्गयावि, गोयमा! जेणे नेरइया पढमसमय
निग्गया ते णं नेरहया अणंतरनिग्गया, जे णं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते गं नेरइया परंपरनिग्गया, जे पाणं नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतरपरंपर अणिग्गया, से तेणटेणं गोयमा ! जाव अणिग्गयावि, एवं जाय वेमाणिया ३॥
[प्र०] हे भगवन् ! परंपरोपपत्र नैरयिको शुं नैरकयिकर्नु आयुष बांधे, यावद्-देवतुं आयुष बांधे[उ०] हे गौतम! तेओ। नैरयिकर्नु आयुष बांधता नथी, तियचर्नु आयुष बांधे छे. मनुष्यन आयुष पण बांधे छ, देवर्नु आयुष बांधता नथी. [म०] हे भगवन् ! अनन्तरपरंपरानुपपन (विग्रहगतिने प्राप्त ययेला) नैरयिको शुं नैरयिकर्नु आयुष बांधे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! तेओ
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१५शतके है. उमेश
१२१०॥
| नैरयिकर्नु आयुष न बांधे, यावत-देवायुष पणन बांधे.ए प्रमाणे यावद वैमानिको सुधी जाणवू. परन्तु एटलो विशेष के के परंपव्याख्या
ट्रारोपपन्न पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिको अने मनुष्यो चारे प्रकारना आयुष बांधे छे. बाकी वर्षा पूर्व प्रमाणे कहे. [३०] हे भगवन् ! शुं नैर- प्राप्तिः यिको अन्तरनिर्गत (नरकादियी नीकळी भवान्तर प्राप्त धयेला जेओने प्रथम समय वर्ने, समयादिना अन्तरनो प्रभाव के) परंपरनि॥१२१०॥ र्गत (नरकादिथी नीकळी भवान्तरने प्राप्त थयेला जेओने बे-त्रण-इत्यादि समयोनुं अन्तर छे) अने अनन्तर-परम्परा निर्गत (जेओ
नरकथी नीकळी विग्रहगतिमा वर्तता होय छे, अने ज्यांसुची उत्पत्ति क्षेत्रने प्राप्त न थाय त्यांसुधी ते अनन्तरमाचे अने परंपरभावे अनिर्गत एवा) 1 [उ.] हे गौतम ! नारको अन्तरनिर्गत पण होय छे, यावत्-अनन्तरपरम्परा निर्गत पण होय छे. [.] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के यावत्-'नारको अनन्तरपरम्परानिर्गत १(उ०] हे गौतम ! जे नैरयिको नरकथी प्रथम समये नीकळेला के तेओ अनन्तरनिर्गत, जेओ प्रथमसमय व्यतिरिक्त द्वितीयादि समयी नीकळेला छे तेओ परंपरनिर्गत, अने जेओ विग्रहगतिने प्राप्त थयेला तेओ अनन्तरपरंपरानिर्गत के. माटे ते हेतुथी हे गौतम ! एम कडेवाय छे के नैरयिको यावत्-अनन्तरपरम्परानिर्गत के ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी (ए श्रण त्रण आलापको) कहेवा,
अणंतरनिग्गया णं भंते ! नरहया किं नेरइयाउगं पकति जाच देवाउयं पकरेंति?, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाच नो देवाउयं पकरेंसि । परंपरनिग्गया णं भंते! नेरहण कि नेरइयाउयं. पुच्छा, गोयमा ! नेरहया
उयपि पकरेंति जाव देवाउयपि पकरेंति । अणंतरपरंपरअणिग्गया णं भंते ! नेरइया पुच्छा, गोयमा! नो नेरह51 याउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति, एवं निरवसेसं जाव वेमाणिया ४ ॥ नेरइया णं भंते ! किं अणंतरं
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व्याख्या
प्रशतिः
॥१२१२॥
४ा उद्देशा
॥१२१२॥
PANCHARASHTRA
खेदोववनगा परंपर खेदोववनगा अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नगा?, गोयमा! नेरहया एवं एएणं अभिलावणं ते चेत्र चत्तारि दंडगा भाणियठवा । सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति जाव विहरह (सूत्रं ५०२) ॥ चोदसमसयस्स पढमो १४.१॥
[प्र.] हे भगवन् ! अनन्तरनिर्गत नारको शुं नरकायुष बांधे, के यावद्-देवायुष बांधे, [उ०] हे गौतम ! तेओ नरकायुष न बांधे, यावत्-देवायुष न बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! परंपरनिर्गत नारको शुं नरकायुष बांधे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम! तेओ नरकायुष पण बांधे, यावत्-देवायुष पण बांधे. [सं०] हे भगवन् ! अनन्तरपरंपरानिर्गत नारको शुं नारकायुष बांधे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! तेओ नरकायुष न बांध, यावद् देवायुष पण न बांधे. (कारणके अनन्तरपरंपरा निर्गत नारको विग्रहगतिने विषे होय छे अने त्या आयुषनो बन्ध थतो नथी.) ए प्रमाणे समग्र यावद् वैमानिको सुधी जाणवू. [म०] हे भगवन् ! नैरयिको शु अनन्तरखेदोपपन्न (समयादिना अन्तररहित प्रथम समये जेओनो दुःखयुक्त उत्पाद छे एवा छे, परंपरखेदोपपन्न (जेओना खेदयुक्त उत्पादमां बे-त्रण इत्यादि समयो थयेला छे एवा) के अनन्तरपरंपरखेदानुपपन्न (जेओनी उत्पत्ति अनन्तर-तुरतज अने परम्पर खेदवडे नथी तेवा) ? [उ.] हे गौतम! ए नैरपिको अनन्तरखेदोपपन्न-इत्यादि प्रणे प्रकारना छे. ए प्रमाणे ए अमिलापथी पूर्व प्रमाणे चार दंडको कहेवा हे भगवन् ! ते एमज के, हे भगवन् ! ते एमज छे. एम कही भगवान् गौतम यावत्-विहरे छ.।।५०२॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १४ मा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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उमेशा२ ॥१२१२॥
www.kabatirth.org उद्देशक २.
000प्रप्तिः
कनिविहे गं भंते ! उम्मादे पण्णते?, गोयमा ! दुविहे अम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जक्खावेसे य मोहणिजस्स ॥१२१२॥ ॐाय कम्मरस उदएणं, तत्थ णं जे से अक्स्वाएसे सेणं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोषणतराए चेव, तत्थ णं जे से
टू मोहणिज्जस्म कम्मस्म उदएणं से ण दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव ॥ नेरहयाणं भंते ! कतिविहे है| उम्मादे पण्णते ?, गोयमा! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जवावेसे य मोहणिजस्स य कम्मस्स उददणं, से
केणद्वेणं भंते ! एवं वुबह नेरायाणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जक्खावेसे य मोहणिज्जस्स जाच उदएण?, गोयमा। देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खेवणयाए जक्रवाएसं उम्मादं पाउणेजा, मोहणिज्जरस वा कम्मस्स उदएणं मोहणिजं उम्माय पाउणेजा, से तेणढणं जाव उम्माए । असुरकुमाराणं भंते ! कतिविहे उम्मादे पण्णत्ते, एवं जहेब नेरइयाणं नवरं देवे वा से महिडीयतराए असुभे
पोग्गले पक्विवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलापां पक्खेवणयाए जक्वाएसं उम्मादं पाउणेजा, मोहणिजस्स दिवा सेसं तं चेव, से तेणटेणं जाब उदएणं एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साणं, एएसिं जहा
भनेरइयाणं, वाणमंतरजोइसवेमाणियाण जहा असुरकुमाराणं (सूत्रं ५०३)॥ 131 [म.] हे भगवन् ! केटला प्रकारनो उन्माद कयो ? [३०] हे गौतम! वे प्रकारनो उन्माद कडोके, ते आ प्रमाणे-१
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१४शतक उद्देशः२ ॥१२१२॥
यवना आवेशरूप अने मोहनीयकर्मना उदयथी थयेलो. तेमा जे यक्षावेशरूप उन्माद छे ते सुखपूर्वक वेदी शकाय अने सुखपूर्वक व्याख्या
मूकी शकाय तेवो छ, अने तेमां जे मोहनीयकर्मना उदयर्थी थयेलो उन्माद छे ते दुःखपूर्वक वेदवा लायक अने दुःखपूर्वक मुकी प्रज्ञप्ति
शकाय तेवो छे. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनो उन्माद कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम ! तेओने बे प्रकारनो उन्माद ॥१२१३॥
दाहोय छे, ते आ प्रमाणे-१ यक्षावेशरूप उन्माद अने २ मोहनीयकर्मना उदयथी थयेलो उन्माद. [प्र०] हे भगवन् ! आप एम शा
हेतुथी कहो छो के, नैरयिकोने एक यक्षावेशरूप अने बीजो मोहनीयकर्मजन्य एम वे प्रकारनो उन्माद होय छे? [उ.] हे गौतम! देव ते नैरयिकना उपर अशुभ पुद्गलोनो प्रक्षेप करे अने ते अशुभ पुद्गलोना प्रक्षेपी ते नारक यक्षावेशरूप उन्मादने प्राप्त थाय; अने मोहनीय कर्मना उदयथी मोहनीयजन्य उन्मादने पामे; माटे हे गौतम ! ते हेतुथी यावत्---'मोहनीयजन्य उन्माद कह्यो छे.. [प्र०) हे भगवन् ! असुरकुमारोने केटला प्रकारनो उन्माद कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिकनी पेठे यावत् वे प्रकारनो उन्माद कह्यो के. परन्तु विशेष ए छे के तेनाथी महार्द्धिक-महासामर्थ्यवाळो देव ते (असुरकुमारो उपर) अशुभ पुद्गलोनो प्रक्षेप करे, अने ते अशुभ पुद्गलोना प्रक्षेप करवाथी ते यक्षावेशरूप उन्मादने प्राप्त थाय. अथवा मोहनीयकर्मना उदयथी मोहनीयजन्य उन्मादने
प्राप्त थाय. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे 'ते हेतुथी यावत्-मोहनीयजन्य उन्माद कह्यो ' त्यांसुधी जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमार का सुंधी जाणवू. पृथिवीकायिकथी आरंभी यावत् मनुष्योने नैरयिकनी पेठे जाणवू. जेम असुरकुमारोने कयु तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक 2. अने वैमानिक संबन्धे पण कहे. ॥ ५०३ ॥
अस्थि ण भंते ! पजन्न कालवासी बुढिगायं पकरेंति, हंता अस्थि ।। जाहे णं भंते ! सके देविंदे देवराया
मनुष्योने नैरयिमाद कह्यो त्य
कहे.
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१४शतके
१२१॥
बुट्टिका काउकामे भवति से कहमियाणि पकरेति ?, गोयमा! ताहे चेच ण से सके देविंदे देवराया अम्भितरपव्याख्या
&ारिसए देवे सहावेति, तए ण ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया ममाणा मज्झिमपरिमए देवे सदावेंति, तए णं प्राति ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया ममाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति, तप णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दा ॥१२१४॥ |विया समाणा बाहिर बाहिरगे देवे सहावेंति, तए णं ते बाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे
सदाति, तए णं ते जाव सदाविया समाणा वुट्टिकाए देवे महावति, तए णं ते बुटिकाइया देवा सद्दाविया समाणा बुट्टिकाचं पकरेंति, एवं स्खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया बुट्टिकायं पकरेंति ॥ अस्थि णं भंते । असुरकु
मारावि देवा बुटिकायं पकरेंति?, हंना अस्थि, किं पत्तियन्नं भंते । असुरकुमारा देवा बुट्टिकायं पकरेंति?, गोयमा! ४ जे इमे अरहंता भगवंता एएसिणं जम्मामहिमासु वा निश्वमणमहिमासु वा णाणुप्पायमहिमासु वा परि.
निब्याणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा! असुरकुमारावि देवा वुट्टिकायं पकरेंति, एवं नागकुमारावि एवं जाव थणियकुमारा वाणमंतरजोइसियवे० एवं चेव ।। (सू०५०४) ।। | [प्र.] हे भगवन् ! सुंएम छे के काले वरसनार पर्जन्य (मेघ) वृष्टिकाय (जलसमूह) ने वरसावे ? (अथवा जिन जन्ममहोत्सहैवादिकाले वृष्टि करनार पर्जन्य-इन्द्र दृष्टि करे ? [उ०] हा, गौतम वृष्टि करे. [प्र.] हे भगवन् ! ज्यारे देवेन्द्र अने देवनो राजा
शक्र वृष्टि करवानी इच्छावाळो होय त्यारे ते वृष्टि केवी रीते करे ? [३०] हे गौतम! (ज्यारे ते दृष्टि करवानी इच्छावाळो होय ) त्यारे देवेन्द्र अने देवनो राजा शक अभ्यन्तर परिषदना देवोने बोलावे छ, अने बोलावेला ते अभ्यन्तर परिषदना देवो मध्यम
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१४शतके उद्देशा२ ॥१२१५॥
| परिषदना देवोने बोलावे छे, मध्यम परिषदना बोलावेला ते देवो बहारनी परिषदना देवोने बोलावे छे, त्यारपछी बहारनी परिष-18 व्याख्या- |दना बोलावेला ते देवो बहारबहारना देवीने बोलावे छ, अने बोलावेला ते बहार बहारना देवो आभियोगिक देवोने बोलावे हे प्रज्ञप्ति
४ अने बोलावेला ते आभियोगिक देवो वृष्टिकायिक (वृष्टि करनारा ) देवीने बोलावे छे, पछी ते बोलावेला वृष्टिकायिक देवो वृष्टि ॥१२१५॥
हैकरे के. ए प्रमाणे हे गौतम ! देवेन्द्र देवनो राजा शक वृष्टि काय करे छे. [प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमार देवो पण शुं वृष्टि
करे छे ? [उ.] हे गौतम ! हा, करे हे. [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमार देवो शा हेतुथी वृष्टि करे छ ? [उ.] हे गौतम ! जे आ अरिहंत भगवंतो छ, एओना जन्मोत्सवनिमित्ते, दीक्षोत्सवानिमित्ते, ज्ञानोत्पत्तिनिमित्ते अने निर्वाणना उत्सवनिमित्ते ए प्रमाणे असुरकुमार देवो वृष्टि करे ने ए प्रमाणे नागकुमारो अने यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवु. वानव्यंतर ज्योतिषिक अने वैमानिक संबन्धे पण ए प्रमाणे जाणवू. ॥ ५०४॥
जाहे णं भंते। ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं काउकामे भवति से कहमियाणिं पकरेति?, गोयमा! ताहे &चेव णं से ईसाणे देविंदे देवराया अभितरपरिसए देवे सद्दावेति, तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया |
समाणा एवं जहेव सक्कस्स जाब तए णं ते आभिओगियदेवा सद्दाविया समाणा तमुक्काइए देवे सहाति, तए ण ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया ममाणा तमुक्कायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा! ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं पकरेति ॥ अत्थि ण भंते ! असुरकुमारावि देवा तमुक्कायं पकरेंति ?, हंता अस्थि । किं पत्तियन्नं भंते! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं पकरेंति ?, मोयमा! किडारतिपत्तियं वा पडिणीयविमोहणट्टयाए वा गुत्तीसंरक्खणहेउं वा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥१२१६ ।।
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अपणो वा सरीरपच्छायणट्टयाए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारावि देवा तमुक्कायं पकरेंति एवं जाव वेमाणिया । सेवं भंते २ ति जाव विहरह ( सूत्र ५०५ ) ।। १४-२ ।।
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[प्र०] हे भगवन् ! देवेन्द्र अने देवना राजा ईशान ज्यारे तमस्कायने करवाने इच्छे त्यारे ते तेने केवी रीते करे ? [30] हे गौतम ! त्यारे देवेन्द्र अने देवनाराज ईशान अभ्यन्तर परिषदना देवोने बोलावे छे, त्यारबाद बोलावेला ते अभ्यन्तर परिषदना देवोइत्यादि पूर्वोक्त वधुं शक्रनी पेठे यावत्-बोलावेला ते आभियोगिक देवो तमस्कायिक ( तमस्काय करनार ) देवोने बोलावे छे, अने त्यारपछी बोलावेला ते तमस्कायिक देवो तमस्काय करे छे. हे गौतम । ए प्रमाणे देवेंद्र अने देवना राजा ईशान तमस्काय करे छे. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं एम छे के असुरकुमार देवो पण तमस्कायने करे ? [अ०] हे गौतम ! हा, करे हे [प्र०] हे भगवन् ! असुरकुमार देवो शा हेतुथी तमस्काय करे ले ? [उ०] हे गौतम! क्रीडा के रतिनिमित्ते, शत्रुने मोह पाडवा निमित्ते, छुपावेला द्रव्यने साचवा निमित्ते अथवा पोताना शरीरने ढांकी देवा निमित्ते हे गौतम! ते असुरकुमार देवो पण तमस्काय करे छे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवुं. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे, एम कही भगवान् गौतम विहरे छे. ॥५०५ ||
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवती सूत्रा १४ मा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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१४ के
उद्देशः ॥१२१६॥
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उद्देशक ३.
१४शतके
व्याख्या
प्राशि
॥१२१७॥
देवे ण भंते ! महाकाए महासरीरे अणगारम्स भावियप्पणो मज्झमझेणं वीइवएन्जा, गोयमा! अत्थेगहएका ॥१२१७० वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो बीइवएजा, से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ अस्गतिए वीइवएना अत्यंगतिए नो बीइवएना, गोयमा! दुविहा देवा पण्णत्ता, जहा-मायी मिच्छादिवीउववनगा य अमायी सम्मदिवीउववनगा य, तत्थ ण जे से मायी मिच्छमिट्टीउववन्नए देवे से गं अणगारं भावियपाणं पासह २ नो वंदति नो नमसति नो सकारेति नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं जाव पज्जुवासति, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं वीइवएजा, तस्थ णं जे से अमायी सम्मबिडिउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासह पासित्ता वंदति नमंसति जाव पज्जुवासति, सेणं अणगारस्म भावियप्पणो मज्झमज्झेणं नो वीयीवएज्जा, से तेण गोयमा! एवं बुञ्चइ जाब नो वीइवएज्जा । असुरकुमारे ण भंते ! महाकाये महासरीरे एवं चेव एवं देवदंडओ भाणियव्यो जाय वेमाणिए । (सूत्र ५०६)॥
म०] हे भगवन् ! महाकाय-मोटा परिवारवाळो अने मोटा शरीरवालो देव मावितात्मा अनगारनी बच्चे थईने जाय ? [३०] हे गौतम ! केटलाएक देव जाय, अने केटला एक देव न जाय. [प्र०] हे भगवन् ! आप एम शा हेतुथी कहो छो के, 'केटलाएक देव जाय अने केटलाएक न जाय' [उ.] हे गौतम! देवो वे प्रकारना कहा छे ते आ प्रमाणे-१ मायीमिथ्याष्टिउपपम अने २
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पाकयाप्राप्ति ११२१८॥
अमायीसम्यग्दृष्टिउपपत्र तेमां जे मायीमिथ्याष्टिउपपम देवो छे ते भावितात्मा अनगारने जुए छे अने जोइने बांदतो नथी, नमतो
१४शक | नथी, सत्कार करतो नथी, सन्मान करतो नथी, अने कल्याणरूप अने मंगलभूत देवचैत्यनी पेठे यावत्-तेनी पर्युपासना करतो
माउवा नथी, तेथी ते देव भावितात्मा अनगारनी बच्चे थईने जाय. तेमा जे अमायीसम्यग्दृष्टिउपपन्न देवो नेते भावितात्मा अनगारने जुए छ, जोइने वांदे के, नमे के, यावत्-तेनी पर्युपासना करे , तेथी ते भावितात्मा अनगारनी बचे थईने न जाय, माटे ते हेतुर्थी हे गौतम! एम कडा छ के. 'कोई जाय अने कोइ न जाय. [प्र.] हे भगवन् ! घणा परिवारवाळा अने महाशरीरवाळा असुरकुमारो [भावितात्मा अनगारनी बच्चे थइने जाय?] इत्यादि प्रश्न. [उ.] पूर्ववत् जाणवू. ए प्रमाणे देवदंडक यावत्-वैमानिको सुधी कहेवो.
अस्थि णं भंते ! नेरडयाण सकारेति वा सम्माणेति वा किइकम्मेह वा अन्भुट्ठाणेइ वा अंजलिपग्गहेति वा आसणाभिग्गहेति वा आसणाणुप्पदाणेति वा इंतस्स पच्चुग्गच्छणया ठियस्स पज्जुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणया', नो तिगडे समढे । अस्थि णं भंते। असुरकुमाराणं सक्कारेति वा सम्माणेति या जाव परिसंसाहणया वा, हंता अस्थि, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढ विकाइयाण जाव चउरिदियाण, एएसिं जहा नेरइयाणं, अस्थि ण भंते ! पंचिदियतिरिक्वजोणियाणं सक्कारेह वा जाव पडिसंसाहणया, हंता अस्थि, नो चेव ण आ. सणाभिग्गहेह वा आसणाणुप्पयाणेह वा, मणुस्साणं जाव वैमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ।। (सूत्रं ५०७)॥
[प्र०] हे भगवन् ! नारकोमा सस्कार (विनय करवाने योग्य व्यक्तिनो आदर करवो), सन्मान (तथाविध सेवा करवी) कृति कर्म (वंदन), अम्युथान (गौरव करवाने लायक व्यक्तिने जोता आसननो त्याग करी उभा ध), अञ्जलिकरण (पने हाथ जोडवा),
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१४वरले
उदेका
आसनाभिग्रह (आसन आपबु), आसमानुप्रदान-गौरवने योग्य व्यक्तिमाटे आसनने एक स्थानयो बीजे स्थाने लावQ, गौरव योग्य व्याख्या
मनुष्यनी सामा जवु, बेठेलानी सेवा करवी, अने जाय त्यारे तेनी पाछळ जवु-इत्यादि विनय के ? [उ.] हे गौतम! ए अर्थ | समर्थ-युक्त नयी. अर्थात्-नैरयिकोने सत्कारादि विनय नथी. [प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमारोमा सत्कार, सन्मान यावत्-जनारनी पाछळ जवू-वगेरे विनय २१ [उ०] हे गौतम! हा छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. जेम नैरयिकोने कयुं तेम पृथिवीकायिकथी आरंभी यावत्-चतुरिन्द्रिय नीबो संबन्धे पण जाणवू. [म.] हे भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिकोमा सत्कार, यावत-बनारनी पाछळ बळावा जर्बु-इत्यादि विनय होय छे ? [उ०] हे गौतम! हा, होय छे. परन्तु आसनाभिग्रह-बासन आप, आसनानुप्रदान-आसनने एक स्थानथी बीजे स्थानके लागवं-इत्यादि विनय होतो नथी. मनुष्यो अने यावत्-वैमानिकोने जेम असुरकुमारने का तेम कोयु.॥५.७॥
अप्पडीए णं भंते ! देवे महड्डियरस देवरस मजझमझेणं वीइवरजा, नो तिणद्वे सबढे, समिट्टीए णं भंते। देवे समिडियरस देवस्स मज्झमझेणं बीहवएना, णो इणमटे समढे, पम पुण वीइवएजा, से णं भंते। किं सत्येणं अवकमित्ता पम् अणकमित्ता पम् ?, गोयमा ! अपकमित्ता पभू नो अणकमित्ता पभू, सेणं भंते । किं पुम्बि सत्येणं अवकमित्ता पच्छा वीपीवएना पुन्धि वीवि. पच्छा सस्पेणं अबकमेजा, एवं एएणं अभिलादेणं
जहा दसमसए आइडीउद्देसए तहेव निरक्सेसं पत्तारि दंडगा भाणियहा जाब महडिया वेभाषिणी पदियाए सामाणिजीए । (सनं १०८)॥
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व्याख्याप्राप्तिः
॥१२२०॥
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[प्र० ] हे भगवन्! अल्पऋद्धिवाको देव महाऋडिवाळा देवनी बचे थहने जाय? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ यथार्थ नथी. [प्र० ] हे भगवन् । समानऋद्धिवाको देव समानऋ दिवाळा देवनी वचे थईने जाय ? [अ०] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी. पण जो ते (समाऋद्धिवाको देव) प्रमत्त होय तो तेनी बच्चे थईने जाय. [अ०] हे भगन् ! ( बच्चे थईने जनार ते देव) शुं शखथी प्रहार | करीने जव समर्थ था के प्रहार कर्या शिवाय जवा समर्थ थाय ? [३०] हे गौतम ! शखप्रहार करीने जया समर्थ थाय, पण प्रहार कर्या शिवाय जवा समर्थ न धाय. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते (देव) प्रथम शखप्रहार करें अने पछी जाय के पहेलां जाय अने पछी शस्त्रप्रहार करे ? [30] इत्यादि आ प्रकारना अभिलापथी दशम शतकना आइडिअन मे ( आत्मर्द्धिक) उद्देशकमा कक्षा प्रमाणे समग्रपणे चार दंडको (त्रण आलापकसहित ) कहेवा, यावद् 'मोटी ऋद्धिवाळी वैमानिक देवी अल्प ऋद्धिवाळी वैमानिक देवीनी बच्चे धईने जाय. ' ॥ ५०८ ॥
रणभापुढ विनेरया णं भंते! केरिसियं पोग्गलपरिणामं पचणुग्भवमाणा बिहरति । गोयमा ! अणिहं जाव अमणामं, एवं जाव आहेसत्तमापुढविनेरहया, एवं वेदणापरिणामं, एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्दे | सए जाव आहेसत्तमापुढविनेरया णं भंते! केरिसयं परिग्गहसन्नापरिणामं पचणुभवमाणा विहरंति, गोयमा! अणि जाव अमणामं । सेवं भंते । २ त्ति (सूत्रं ५०९) ।। १४-३ ॥
[प्र.] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथिवीना नारको केवा प्रकारना पुलपरिणामने अनुभवता बिहरे हे ? [अ०] हे गौतम! तेओ अनिष्ट, यावत्-मनने नहि गमता पुलपरिणामने अनुभवता विहरे छे. ए प्रमाणे यावद - सातमी नरकपृथवीना नारको सुधी
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१४ उद्देशः* ।।१२२०॥
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SHA
व्याख्या
प्राशि ॥१२११॥
जाणवं. एरीते यावत्-वेदनापरिणामने पण अनुमवे -इत्यादि जेम जीवाभिगमसूत्रना बीजा नैरयिक उद्देशकमां का छे ते प्रमाणे अहिं कहे. यावत्-प्र०] हे भगवन् ! सातमी नरकपृथिवीना नैरयिको केवा प्रकारमा परिग्रहसंज्ञापरिणामने अनुभवे छे? [उ.] हे गौतम ! तेओ अनिष्ट, यावत्-मनने नहि गमतापरिग्रहसंज्ञापरिणामनो अनुभव करता विहरे छे, 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही (भगवन् गौतम) यावद् विहरे के. ।। ५.९॥
भगवत सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १४ मा शतकमां वीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
१४शतके उदेश ॥४२२१॥
उद्देशक ४. एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा! पुदि च णं करणेणं अणेगवन्नं अणेगरूवं परिणाम परिणमति, अह से परिणामे निजिन्ने भवति तओ पच्छा एगवन्ने एगरूवे सिया?, हंता गोयमा! एस णं पोग्गले तीते तं चेव जाब एगरूवे सिया ॥ एस णं भंते ! पोग्गले पड़प्पन्नं सासयं समयं, एवं क्षेत्र, एवं अगागयमणतंपि ॥ एम णं भंते ! खंधे तीतमणत !, एवं चेत्र स्वधेवि जहा पोग्गले ।। ( सूत्रं ५१.)॥
म.] हे भगवन् ! आ पुदगल (परमाणु के स्कन्ध) अनन्त-अपरिमित अने शाश्वत अतीतकाळने विषे एक समय सुधी रुक्षसे स्पर्शवाळो, एक समय सुपी अरुक्ष-स्निग्धस्पर्शवाळो, तथा एक समय सुधी रुक्ष अने स्निग्ध-पन्ने प्रकारना स्पर्शवाळो हतो? अने
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बाकयाप्राप्ति ॥१२२२॥
१ Pउमेश
G॥१२१॥
पूर्वे करण-प्रयोगकरण भने विस्रसाकरणथी अनेक वर्णवाळा अने (अनेक गन्ध, रम, स्पर्व अने संस्थानना मेदथी) अनेकरूपवाळा परिणामरूपे परिणत थयो हतो? (परमाणुनो भिन्न भिन्न समये अनेक वर्णादिरूपे परिणाम थाय छे, अने स्कन्धनो एकसमये अनेक वर्णादिरूपे परिणाम थाय छे.) हवे ते अनेकवर्णादिपरिणाम क्षीण थाय त्यार पछी ते पुद्गल एकवर्णवाळो अने एकरूपवाळो हतो? [उ.] हा गौतम ! आ पुद्गल अतीतकालने विषे-इत्यादि यावत्-' एकरूपवाळो हतो'-त्यां सुधी समग्र पाठ कहेवो. [प्र.] हे भगवन् ! आ पुद्गल (परमाणु के स्कन्ध) शाश्वत वर्तमान काळने विषे (एक ममय सुधी रूक्षस्पर्शवाळो, स्निग्धस्पर्शवाळो, तथा स्निग्ध अने रूक्ष-चन्ने स्पर्शवाळो होय ? अने प्रयोग अने विनसाथी अनेक वर्णादिरूपे परिणत थाय ? ते परिणामना क्षीण थया बाद एकवर्णवाळो अने एकरूपवाळो होय?) [उ०] पूर्वप्रमाणे उत्तर जाणवो. ए प्रमाणे अनागतकाल संबन्धे पण जाणवू. [१०] हे भगवन् ! अनन्त-अपरिमित अने शाश्वत अतीतकालने विषे पुद्गलस्कन्ध (एक समय सुधी रूक्षस्पर्शवाळो, स्निग्धस्पर्शवाळो तथा स्निग्ध अने रूक्ष-प बन्ने स्पर्शवालो हतो? अने अनेकवर्ण अने अनेकरूपवाला परिणामरूपे परिणत थ्यो हतो? पछी ते परिणामना क्षीण थवाथी तेनो एकवर्णवाळो अने एकरूपवाळो परिणाम थयो हतो?) [उ.] ए प्रमाणे जेम पुद्गलसंवन्धे कडं तेम स्कन्धसंबन्धे पण जाणवू. ।। ५१०॥ - एस भंते ! जीवे तीतमणतं मासयं समयं दुग्बी समयं अदुक्खी समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा? पुचि च करणेणं अणेगभूगं परिणाम परिणमइ अह से वेगणिजे निजिन्न भवति तओ पच्छा एगभावे एगभूप सिया?, हंता गोयमा! एम जीवे जाव एगभूप सिया, एवं पटुप्पन्नं मासयं समयं, एवं अणागयमणं सामयं समर्थ ॥
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मा १४शतके
व्याख्या प्रशतिः ॥१२२३॥
8॥१२२३॥
[F०] हे भगवन् ! आ जीव अनन्त-अपरिमित अने शाश्वत अतीतकाळने विषे एक समय (दुःखना हेतुथी) दुःखी, एक है समय (मुखना हेतुथी) अदुःखी-सुखी, तथा एक समय (सुख अने दुःख ना हेतुथी) दुःखी के सुखी हतो? अने पूर्वे करणथी-काल|स्वभावादि कारणवडे शुभाशुभकर्मबंधना हेतुभूत क्रियाथी-अनेक प्रकारना सुखिपणं अने दु:खिपणुं-इत्यादि भाववाला, अने अनेकरूपवाळा परिणामरूपे परिणत थयो हतो? त्यारपछी वेदवा लायक ज्ञानावरणादि कर्मनी निर्जरा थया बाद जीव एकभाक्वाळो अने एकरूपत्राळो हतो? [उ०] हा, गौतम ! आ जीव यावत्-एक रूपवालो हतो. ए प्रमाणे शाश्वत एवा वर्तमानसमयसंपन्धे तथा अनन्त अने शाश्वत भविष्यकाळ संवन्धे पण जाणवू. ॥ ५११॥
परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सामए असासए ?, गोयमा! सिय सामए सिय अमामए, से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासए सिय अमामए १, गोयमा! दबट्टयाए सासए बन्नपजवेहिं जाच फासपनवेहिं असासा | से तेगटेणं जाब सिय सासए सिय असासा ( सूत्रं ५१२) ।
[प्र.] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल शाश्वत के अशाश्वत छे ? [उ०] हे गौतम ! ते कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अ. शाश्वत छे. [म.] हे भगवन् ! आप एम शा हेतुथी कहो छो के 'कथंचित् शाश्वत के अने कथंचित् अशाश्वत [उ०] हे गौतम द्रव्यार्थरूपे ते परमाणुपुद्गल शाश्वत छ, अने वर्णपर्यायवडे यावत्-स्पर्शपर्यायवडे अशाश्वत छे, माटे ते हेतुथी हे गौतम ! एम कथुळे के 'परमाशुपुद्गल कथंचित् शाबत छे अने कथंचित छे.'। ५१२॥ परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं चरमे अचरमे?, गोयमा। दव्यादेसेणं नो चरिमे अचरिमे, खेत्तादेसेणं सिय परिमे
KARIARARIAS
SAR
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बाख्या-1 प्राप्ति
॥१२२४॥
उमेश १२२४॥
AA-%
CISION
सिय अचरिमे, कालादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, भाबादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे (सूत्रं ५१३)।
[प्र.] हे भगवन् ! शुं परमाणुपुत्गल चरम ले के अचरम छ। [उ.] हे गौतम ! (परमाणुपुद्गल) द्रव्यनी अंपेक्षाए चरम नथी, पण अचरम ले. क्षेत्रादेशथी कदाचित् चरम के अने कदाचित अचरम ने. कालादेशथी कदाचित् चरम के अने कदाचित् अचरम छे. भावादेशी कथंचित् चरम अने कथंचित् अचरम छे. ॥ ५१३ ॥
काविहे णं भंते । परिणामे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तंजहा-जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य, एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियब्वं । सेवं भंते ! २ जाव विहरति (सूत्र ५१४)॥१४-४॥
[म.] हे भगवन् ! परिणाम केटला प्रकारनो कयो के ? [उ०] हे गौतम ! परिणाम चे प्रकारनो कझो के, ते आ प्रमाणेजीवपरिणाम अने अजीवपरिणाम. ए प्रमाणे अहिं (प्रज्ञापना सूत्रनु) परिणामपद संपूर्ण कहे. हे भगवन् ! ते एमज , हे भगवन्। ते एमद -एम कही (भगवान गौतम) यावर विहरे छे. ॥५१४ ॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १४ मा शतकमां चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण वयो.
उद्देशक ५. नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमजझेणं वीइवाजा ?, गोयमा! अत्थेगतिए वीइदएज्जा अस्थेगतिए नो वीइवएना, से केणद्वेणं भंते । एवं वुबह अत्थेगइए वीइवाजा अत्थेगतिए नो वीइवएजा!, गोयमा! नेरइया |
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व्याख्या प्राप्ति ॥१२२५॥
१४शतके उदेशा५ ॥९२२५०
CHAHR
दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिममावनगा य अविग्गहमतिसमावनगा य, तत्थ जे से विग्गहगतिसमावन्नए नेरतिए से गं अगणिकायस्स मज्झमझेणं बीइवएना से ण तत्थ झियाएजा, णो तिणडे समढे, नो
खलु तस्थ मत्थं कमह, तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावन्नए नेरहए से णं अगणिकायस्स मज्झमझेणं णो वी| इवएज्जा, से तेणद्वेणं जाव नो वीइवएज्जा ।। असुरकुमारे ण भंते ! अगणिकायस्स पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिए |वीडवएज्जा अत्थेगतिए नो वीहवएज्जा, से केणट्टेणं जाव नो वीइवएजा, गोयमा! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता,
जहा-विग्गहगइसमावनगा य अविग्गहगहसमावनगा य, तस्थ णं जे से बिग्गहगहसमावन्नए असुरकुमारे से गं एवं जहेव नेरतिए जाव वक्कमति, तस्य णं जे से अविग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं बीतीयएजा अत्यंगतिए नो बीइव०, जेणं वितीवएज्जा से गं सत्य झियाएज्जा ?, नो तिणढे समढे, नो खलु तस्थ सत्थं कमति, से तेणटेणं एवं जाच धणियकुमारे, एगिंदिया जहा नेरदया। बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, नवरं जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा?, हंता झियाएजा, सेणं तं चेव एवं जाव चाउरिदिए।
[प्र.] हे भगवन् ! नारक अनिकायना मध्यभागमां थईने जाय! [उ०] हे मौतम ! कोई एक नारक जाय अने कोई एक नारक न जाय. [प्र.] ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो हो के, 'कोई एक नारक जाय अने कोइ एक नरक न जय' १ [उ.] हे गौतम ! नरयिको वे प्रकारना कहा, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला, अने अविग्रहगतिसमापन-उत्पत्तिक्षेत्रने प्राप्त थयेला.
से आप का बेतुकी को को कोर एक नाक जाम भने कोर एक नाक मजाक
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मेशा ॥१२१३
| तेमां जे विग्रहमतिने प्राप्त थयेल नारक छे ते अमिकापना मध्यमां थईने जाय. [३०] ते त्या बळे! [उ.] आ अर्थ यथार्थ नथी, पाख्या-1
लैं| केमके तेने अनिरूप शस्त्र असर करतुं नथी. तेमां जे अविग्रहमतिने प्राप्त थयेल नारक के ते अग्निकायनी मध्यमां थईने न जाय. प्राप्ति REVER माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कयु के, 'कोइ एक नारक जाय अने कोई एक न जाय. [१०] हे भगवन् ! असुरकुमारी अधिका
यनी बच्चे थईने जाय?-ए प्रश्न. [३०] हे गौतम ! कोई एक (असुरकुमार) जाय अने कोई एक न जाय. [अ०] हे भगवन् ! एम आप शा हेतुथी कहो छो के, कोई पक जाय अने कोई एक न जाय १ [उ०] हे गौतम ! अमरकुमरो ने प्रकारना कहा , तें आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थएला अने अविग्रहगतिने प्राप्त थयेला. तेमां जे विग्रहगतिने प्राप्त असुरकुमारो छे-इत्यादि बधुं नारकनी | पेठे जाणवू. यावत्-'तेने (अग्नि वगेरे) शस्त्र असर करतुं नथी.' तेमां जे अविग्रहगति प्राप्त असुरकुमारो के तेमांना कोई एक अग्मिनी द्रा वो थईने जाय अने कोई एक न जाय. [म.] जे अभि बच्चे थईने जाय ते त्यां बळे ? [उ.] ए अर्थ यथार्थ नथी. केमके तेने अग्नि
वगेरे शख असर करतुं नथी. ते हेतुर्थी हे गौतम ! एम कयु छ के 'कोइ एक (असुरकुमार) जाय अने कोइ एक न जाय.' ए प्रमाणे | यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाण. एकेन्द्रियो संवन्धे नैरयिकनी पेठे जाण. [H०] हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवो अग्निकायनी मध्यमां
थईने जाय ? [उ०] जेम असुरकुमारो संबन्धे कहां तेम बेहन्द्रिय संबन्धे कहे. परन्तु विशेष ए छेके, [भ] 'जे घेइन्द्रिय अनि बच्चे दाईने जाय, ते त्यां बळे ? [उ.] हा, ते त्यां पळे-एम कहे. अने बाकी बधुं पूर्वे कथा प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय सुधी जाणवू.
| पंचिंदियतिरिक्वजोणिए णं भंते ! अगणिकायस्स पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिए बीइवएना अत्थेगतिए नो 131 बीइवएखा, से केणगुणं.?, गोयमा। पंचिंवियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावन्नगा
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१४चवके उदेका ॥१२१००
लय अविग्गहगहसमावनगा य, विग्गहगइसमावन्नए जद्देव नेरइए जाव नो खलु तस्थ सत्थं कमह, अविग्गहगहव्याख्या
समावनगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-इडिप्पत्ता य अणिपिपत्ता य, तत्थ णं जे से ॥१२२७NDIपत पाचोदया
६ इडिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अस्थेगहए अगणिकायस्स मझमज्झेण वीयीवएजा अत्थेगइए नो बी |
यीवएज्जा, जेणं बीयीवएना से गं तत्थ झियाएजा, नो तिण? समहे, नो खलु तत्थ सस्थं कमद, तस्थ णं जे PIसे अणिप्पित्ते पंचिंदियतिरिक्वजोणिए से ण अत्धेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीयीवएज्जा अत्थेगBातिए नो वीइवएना, जेणे वीपीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा, हंता झियाएज्जा, से तेणद्वेणं जाव नो वीयीच. एज्जा, एवं मणुस्सेवि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिए जहा असुरकृमारे ।। ( सूत्रं ५.५)॥
[प्र.] हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अग्निनी बच्चे थईने जाय ?-ए प्रश्न. [उ०) हे गौतम ! कोइ एक जाय अने 31 कोई एक न जाय. [म.] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप भा हेतुथी कहो छो के कोई एक जाय अने कोइ एक न जाय' ? [उ०] हे
गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिको वे प्रकारना कया छे, ते आ प्रमाणे-विग्रहगतिने प्राप्त थयेला अने अविग्रहगतिने प्राप्त धयेला. तेमा जे विग्रहगतिने प्राप्त थयेला पंचेन्द्रियतियचयोनिको छे ते नैरयिकनी पेठे जाणवा, यावत्-'तेने शस्त्र असर करतुं नथी.' जे पंचेन्द्रियतिर्यचो अविग्रहमतिने प्राप्त थयेला छे ते वे प्रकाराना कमा छ, ते आ प्रमाणे-ऋद्धिप्राप्त (वैक्रियलब्धियुक्त) अने ऋद्धिने 2 अप्राप्त (वैक्रियलधिरहित ), तेमां जे पंचेन्द्रियतियचो ऋद्धिने प्राप्त थयेला के, तेमांथी कोई एक अग्निनी बचे थइने जाय अने
कोइ एक अग्निनी बच्चे थईने न जाय. [H०] जे अग्निनी बचे थईने जाय छे ते स्यां बळे? [उ०] ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी,
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प्राप्तिः ॥१२२८॥
१५शसके उदेशा५ **RCH
www.kobatirth.org केमके तेने शस्त्र असर करतुं नथी. तेमा जे पंचेन्द्रिय तिर्यचो ऋद्धिने प्राप्त थयेला नथी नेमाथी कोइ एफ अग्निनी बचे थईने' जाय अने कोई एक न जाय. [प्र०] जे जाय ते बळे ? [उ.] हा, वळे; माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम काळे के, यावत्-'कोइ एक अग्निनी वच्चे थइने जाय अने कोई एक न जाय' ए प्रमाणे मनुष्य संबन्धे पण जाणवू. जेम असुरकुमारो संबन्धे कद्यु, तेम
* मानव्यतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबन्धे पण कहे. ॥ ५१५ ॥
नेरतिया देस ठाणाई पच्चणुभषमाणा विहरंति, तंजहा-अणिहा सहा अणिट्ठा रूवा अणिट्ठा गंधा अणिट्ठा रसा अणिट्ठा फासा अणिट्ठा गती अणिट्ठा ठिती अणिढे लावन्ने अणिढे जसोकित्ती अणि उट्ठाणकम्मबलवी. रियपुरिसक्कारपरकमे । असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुम्भवमाणा विहरंति, तंजहा-इट्ठा मद्दा हट्ठा रूवा जाव इढे उट्ठाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमे, एवं जाव थणियकुमारा। पुढविकाइया छट्ठाणाई पञ्चणुम्भवमाणा वि०, [सं०-इटाणिट्ठा फासा इहाणिहा गती एवं जाव परक्कमे, एवं जाव वणस्सहकाइया । बेइंदिया सत्तट्ठाणाई पचणु
भवमाणा विहरंति, तंजहा-इटाणिट्ठा रसा सेसं जहा एगिदियाणं, तेंदिया णं अट्ठाणाई पञ्चणुभवमाणा वि., तं-इटाणिट्ठा गंधा सेसं जहा बेंदियाण, चउरिदिया नवट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं०-इहाणिट्ठा रूवा सेसं जहा तेंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-दहाणिट्ठा सहा जाव परकमे, एवं मणुस्सावि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं ५१६)।
नारको दश स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ अनिष्ट शब्द, २ अनिष्ट रूप, ३ अनिष्ट गंध, ४ अनिष्ट रस, ५
FANARACTERA
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व्याख्याप्रति १२२९॥
उडेका
अनिष्ट स्पर्श; ६ अनिष्ट गति, ७ अनिष्ट स्थिति, ८ अनिष्ट लावण्य, ९ अनिष्ट यशः कीर्ति अने १० अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य | तथा पुरुषकारपराक्रम. असुरकुमारो दश स्थानोने अनुभवता विहरे के, ते आ प्रमाणे-१ इष्ट शब्द, २ इष्ट रूप, यावत्-१० इष्ट | उत्थान, कर्म, बल, वीर्य अने पुरुषकार पराक्रम-ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सृधी जाणवू. पृथिविकायिको छ स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ इष्टानिष्ट स्पर्श, २ इष्टानिष्ट गति, यावत्-६ 'इष्टानिष्ट पुरुषकार-पराक्रम'-ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. बेइन्द्रिय जीवो सात स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ इष्टानिष्ट रस-इत्यादि समग्र एकेन्द्रियोनी पेठे अहिं कहे. तेइन्द्रिय जीवो आठ स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ इष्टानिष्ट गन्ध इत्यादि बाकी बधं बेइन्द्रियोनी पेठे कहे. चउरिन्द्रिय जीवो नव स्थानोने अनुभवता विहरे छे, ते आ प्रमाणे-१ इष्टानिष्ट रूप इत्यादि बाकी बधुं तेइन्द्रिय जीवोनी पेठे जाणवं. पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिको दश स्थानकोने अनुभवता विहरे ने, ते आ प्रमाणे-१ इष्टानिष्ट शब्द-1 इत्यादि यावत्-पराक्रम सुधी कहे. ए प्रमाणे मनुष्यो पण जाणवा. जेम असुरकुमार संबन्धे कर्जा तेम वानग्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबन्धे कहेयु. ॥ ५१६॥
देवेणं भंते! महिडीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाहत्ता पभू तिरियपब्वयं वा तिरियभित्ति मावा उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ?, गोयमा! णो तिणद्वे समझे । देवे णं भंते ! महिहिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरिय जाव पलंघेत्तए वा ?, हंता पभू। सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ५१७) ॥१४-५॥
[प्र.] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवालो देव बहारना-भवधारणीय शरीर व्यतिरिक्त पुद्गलोने ग्रहण कर्या
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व्याख्या
प्रशसि
॥१२३०॥
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शिवाय तिर्छा पर्वतने के तिछ (प्रकारनी) मीतने उलंघन के वारंवार उल्लंघना समर्थ थाय ? [ उ० ] हे गौतम! ए अर्थ यथार्थ नथी, (अर्थात् भ धारणीय शरीर व्यतिरिक्त बीजा बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय पर्वतादिने उल्लंघनानुं सामर्थ्य प्रवर्ततुं नथी.) [O] हे भगवन ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुगलोने ग्रहण करी तिर्छा (पर्वतने के तिर्की प्राकारनी मींतने उल्लंघना समर्थ के ? [ उ० ] हा गौतम ! समर्थ छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे' एम कही (भगवान् गौतम यावद् विहरे क्रे.) ।। ५१७ ।।
भगवत् धर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवती सूत्राना १४मां शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ६.
रायगिहे जाव एवं वयासी-नेरइया णं भंते । किमाहारा किंपरिणामा किंजोणीया किंठितीया पण्णत्ता ?, गोया ! नेरइया णं पोग्गलाहारा पोग्गलपरिणामा पोग्गलजोणिया पोग्गलद्वितीया कम्मोवगा कम्पनियाणा कम्मद्वितीया कम्मुणामेव बिप्यरियाममेंति, एवं जाव वैमाणिया ( सूत्रं ५१८ ) ।।
[प्र०] राजगृहमां (भगवन्द्र गौतम) आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् ! नारको शो आहार करे, अने ते (आहारनो) शो परिणाम थाय, तेनी योनि (उत्पत्तिस्थानक) कंधी होय, अने तेनी स्थिति अवस्थानुं कारण शुं क्रे ? [अ०] हे गौतम! नारको पुद्गलनो आहार करे, अने तेनो पुद्गलरूपे परिणाम थाय, (शीत अने उष्ण स्पर्शबाळा) पुलो एज तेनी योनि- उत्पत्तिस्थानक छे, (आयुषक
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१४शतके उद्देशा ।।११३०॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१२३१ ॥
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मना) पुलो ए तेनी नरकमां स्थितिनुं कारण छे, तथा ते (बन्धद्वारा ) कर्मने प्राप्त थयेला हे, ते नारकपणानुं निमित्तभूतकर्मवाळा छे, कर्मपुद्गलथी तेओनी स्थिति छे, अने कर्मने ली अन्य पर्यायने प्राप्त थाय छे. ए प्रमाणे यावद्-वैमानिको सुधी जाणवुं ॥५१८ ॥ नेरइया णं भंते! किं वीथीदब्वाई आहारेंति अवीचिदग्बाई आहारेंति ?, गोयमा ! नेरतिया वीचिदव्वाइंपि आहारेंति अवीचिदव्वाइंपि आहारेंति से केणद्वेणं भंते ! एवं वुबह नेरतिया वीचि० तं चैव जाव आहारेंति ?, गोमा ! जेणं नेरइया एगपएसूणाईपि दवाई आहारेंति ते णं नेरतिया वीचिदव्वाइं आहारेंति, जे णं नेरतिया पडिपुन्नाई दबाई आहारेंति, ते णं नेरइया अवीचिदबाई आहारेंति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जान आहारेति, एवं जाव बेमाणिया आहारेंति । ( सूत्र ५१९ ) ।।
[प्र०] हे भगवन् ! नारको वीचिद्रव्योनो आहार करे छे के अवीचि द्रव्योनो आहार करे छे ? [उ० ] हे गौतम नारको वीचिद्रव्योनो पण आहार करे छे अने अवीचिद्रव्योनो पण आहार करे छे, [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के, 'नारको वीचिद्रव्यो अने अवीचिद्रव्योनो पण आहार करे के' ? [उ० हे गौतम! जे नारको एक प्रदेश पण न्यून द्रव्योनो आहार करे क्रे तेओ वीचिद्रव्योनो आहार करे छे, अने जे नैरथिको परिपूर्ण द्रव्योनो आहार करे के तेओ अवीचि द्रव्योनो आहार करे छे, ते हेतुर्थी हे गौतम! एम कझुं छे के, 'नारको वीचि तथा अवीचि ए बने प्रकारना द्रव्योनो आहार करे छे.' ए प्रमाणे यावद्- 'वैमानिको आहार करे छे' त्यां सुधी जाणवुं ॥ ५१९ ॥
जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाई भोगभागाई भुंजिउंकामे भवति से कहमियाणि पकरेति १,
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१४ शतके
उद्देशः ३ ॥१२३१४
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प्रज्ञप्ति ॥१२३२॥
४ गोयमा ताहे व ण [ग्रंथानम् ९.००] से सके देविंदे देवराया एग मह नेमिपडिरूवर्ग विउन्वति एग जोपण-IPI मयसहस्स आयामविवभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्सं जाव अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं, तस्स
लायके
HIोडा णं नेमिपडिरूवस्म उपरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते जाव मणीणं फासे, तस्स ण नेमिपडिरूवगस्स बहु
॥१३॥ मज्झदेमभागे तत्थ ण महं एग पासायवडेंसगं विउवति पंच जोयणमयाई उड्डे उच्चत्तणं अड्डाइजाई जोयणसयाई विकाभेणं अन्भुग्गयमूसियवन्नओ जाव पडिरूवं, तस्स ण पासायडिंसगस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे, तस्स पासायबडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे जाव मणीणं फासो, मणिपेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं, तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं महं एगं देवसयणिज्नं विउच्चइ, सणिजवाओ जाव पडिरूवे, तस्थ ण से सके देविंदे देवराया अहहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणीएहिं नहाणीएण य गंघव्वाणीपण यमद्धिं महयाहयनजाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ।।
[म.] हे भगवन् ! देवोनो इन्द्र अने देवोनो राजा शक ज्यारे भोगवचा योग्य दिव्य (मनोज्ञ स्पर्शादिक) भोगोने भोगववाने 81 इच्छे त्यारे ने तेने ते वखते केवी रीते भोगवे ? [उ०] हे गौतम ! त्यारे ते देवोनो इन्द्र अने देवोनो राजा शक्र एक मोटुं चक्रना द जेनु (वृत्ताकार) स्थान विकुर्वे छे, तेनी लंबाइ अने पहोळह एक लाख योजननी अने तेनी परिधि त्रण लाख (मोळ हजार बसो स
त्यावीश योजन त्रण क्रोश, एकसो अठ्यावीश धनुष अने कंडक अधिक साहातेर) आंगुल छे. ते चक्रना आकारवाग स्थाननी उपर बरोबर सम अने रमणीय भूमिभाग कहेलो छे. (तेनुं वर्णन) यावत्-'मनोज्ञ स्पर्श होय जे त्यां सुधी जाण. ते चक्राकारवाळा ते
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व्याख्या
प्राप्ति ॥१२३३॥
१४शतके उद्देशा
१२३३॥
स्थाननी बरोबर मध्यभागे एक मोटो प्रासादावतंसक-भूषणरूप सुन्दर प्रासाद विकुर्वे के. ते उचाइमां पांचसे योनन उंचो अने तेनो विष्कंभ-विस्तार अढीसो योजननो छ, ते प्रासाद अभ्युद्गत-अत्यन्त उंचो (अने प्रभाना पुंजवडे व्याप्त होवाथी जाणे हसतो | होयनी!) इत्यादि प्रासादवर्णन जाणवू, यावत्-ते प्रतिरूप-सुंदर अने दर्शनीय से. तथा ते प्रासादावतंसकनो उल्लोच-उपरनो भाग पद अने लताओना चित्रामणथी विचित्र अने यावद्-दर्शनीय छे. वळी ते प्रासादावतंसकनो अंदरनो भाग बराबर सम अने रमणीय के, यावद 'त्यां मणिओनो स्पर्श होय ' त्यांसुधी वर्णन जाणवं. बळी त्या आठ योजन उंची एक मणिपीठिका छे, अने
ते चैमानिकोनी मणिपीठिका जेवी जाणवी. ते मणिपीठिकानी उपर एक मोटी देवशय्या विकुर्वे छे, ते देवशय्यानुं वर्णन यावत्टू'प्रतिरूप' छे त्यांमुधी कहेवू, त्यां देवनो इन्द्र अने देवनो राजा शक्र पोतपोताना परिवारयुक्त आठ पट्टराणीओ साथे गन्धर्वानीक
अने नाव्यानीक ए वे प्रकारना अनीकनी साधे मोटेथी आहत-चगाडेला नाट्य, गीत अने वादिनना शब्दवडे यावत्-भोगवटा योग्य | दिव्य भोगोने भोगवतो विहरे छे.
जाहे ईसाणे देविदे देवराया दिवाई जहा सके तहा ईसाणेवि निरवसेसं, एवं मणकुमारेवि नवरं, पासाय. वडेंसओ छ जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं तिन्नि जोयणसयाई विवभेणं, मणिपेढिया तहेच अट्ठजोयणिया, तीसे णमणिपेदियाए उवरि एस्थ णं महेगं सीहासणं विउवह सपरिवारं भाणियब्वं, तत्थ णं सणकुमारे देविंदे देवराया बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव चउहिं बावत्तरीहिं आयरकावदेवसाहस्सीहि य बहहिंसणं कुमारकप्पवासीहिं बेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य मद्धिं संपरिबुडे महया जाब विहरइ । एवं जहा सर्णकुमारे तहा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१२३४॥
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जाब पाणओ अच्चुओ नवरं जो जस्स परिवारो मो तस्स भाणियन्बो, पासायञ्चत्तं जं सरसु २ कप्पेसु विमा| णाणं उच्चत्तं अद्धद्धं विस्थारो जाव अचुयस्स नवजोयणसघाई उड्डुं उच्चत्तेणं अद्धपंचमाई जोयणसयाई विक्खंभेण, तत्थ णं गोयमा ! अच्चुए देविंदे देवराया दसहिँ सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरइ, सेस तं चेव, सेवं भंते । २ ति ( सूत्रं ५२० ) ।। १४-६ ।।
[प्र० ] हे भगवन् ! देवेन्द्र अने देवनो राजा ईशान दिव्य भोगोने भोगवत्रा इच्छे त्यारे ते केवी रीते भोगवे ? [उ० ] जेम शक्र संबन्धे कयुं तेम ईशान संबन्धे पण समग्र कहेवुं. ए प्रमाणे सनत्कुमारने विषे पण जाणवुं, परन्तु विशेष ए के के, ए प्रासादावर्तक उचाईमा छसो योजन अने पहोळाइमां त्रणसो योजन छे. तथा ते मणिपीठिकानी उपर एक मोडं सिंहासन सपरिवार - पोताना परिवारने योग्य आसनो सहित विकुर्वे -इत्यादि कहेतुं तेमां देवेन्द्र अमे देवनो राजा सनत्कुमार बद्दोंतेर हजार सामानिक देवो साथै यावत् बे लाख अठ्यासी हजार आत्मरक्षक देवो साथे, अने सनत्कुमार कल्पमा रहेनारा घणा वैमानिक देवो अने देवीओ साधे परिवृत थह (मोटा गीत अने वादित्रना) शब्दोवडे यावत्-विहरे छे. ए प्रमाणे जेम सनत्कुमार संबन्धे कनुं, तेम यावत् प्राणत तथा अच्युत देवलोक सुधी जाणबुं. परन्तु विशेष ए के के, जेनो जेटलो परिवार होय तेनो तेटलो अहिं कहेवो. पोतपोताना कल्पना विमानोनी उंचाइना जेटली प्रासादनी उंचाई जाणवी, अने उंचाइना अडधा भाग जेटलो तेनो विस्तार जाणवो, यावत्-अच्युत देव| लोकनो प्रासादावतंसक नवसो योजन उंचो छे, अने साडाचारसो योजन पहोळो छे. तेमां हे गौतम । देवेन्द्र देवराज अच्युत दश हजार सामानिक देवो साधे यावद् - विहरे छे. बाकी वधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'
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१४वके उद्देशः ६ |||१२३४ ॥
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व्याख्या
एम कही यावद्-(भगवान् गौतम ) विहरे छे. ।। ५२० ।।
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १४ मा शतकमा छडा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
१४शतके
प्रति ॥१२३५॥
उाशा
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उद्देशक ७. रायगिहे जाव एवं वयासी, परिमा पडिगया, गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-चिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा! चिरसंथुओऽसि मे गोयमा चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा चिरजुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा चिराणुवत्तीसि मे गोयमा! अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं, मरणा कायस्स भेदा इओ चुता दोवि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्मामो (सूत्रं ५२१)।
राजगृहमां यावद-परिषद् वांदीने पाछी गई. (भगवान् श्रीमहावीरस्वामी केवलजाननी अप्राप्तिथी खिन्न थयेला गौतमस्वामीने आश्वासन आपवा माटे पोतानो तेमनी सानो लांचा कालनो परिचय बतावी भविष्यमा पोतानी साथे तेमनी तुल्यता बताये ले-) श्रमण भगवंत महावीरे 'हे गौतम एम भगवान गौतमने बोलाची या प्रमाणे कहा- "हे गौतम। तुं मारी साथे घणां काळ सुधी स्नेहथी बंधायेल छे, हे गौतम । ते घणा लांबा काळथी (स्नेहने लीधे) मारी प्रशंसा करी छे, हे गौतम ! तारो मारी साथे षणा लांवा काळ्यी परिचय छे, हे गौतम! ते घणा लांचा काळथी मारी सेवा करी छे, हे गौतम : तुं घणा लांबा काळथी मने अनुसर्यो छे, हे गौतम ! तुं घणा लांना काळथी मारी साधे अनुकूलपणे वयों के,हे गौतम! अनन्तर (तुरतना) देवभवमा अने तुरतना
भी
केवलज्ञाननी
RAAGARLS
गवार गौतमले परिचय बता
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व्याख्याप्रचतिः
॥१२३६।।
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मनुष्य भवमां (ए प्रमाणे तारी साथै संबन्ध छे, ) वधारे शुं ? पण मरण पछी शरीरनो नाच थया बाद अहींथी व्यवी आपणे बने सरखा, एकार्थ- एकप्रयोजनवाळा, (अथवा एक सिद्धिक्षेत्रमा रहेवावाळा) विशेषता अने मेदरहित थईशुं ॥ ५२१ ।।
जहा णं भंते! वयं एयमहं जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोबवाइयावि देवा एयम जा० पा० ?, हंता गोमा ! जहा णं वयं एवमहं जाणामो पासामो नहा अणुत्तरोववाइयावि देवा एयमहं जा० पा०, से केणद्वेणं जाव पासंति ?, गोयमा ! अणुत्तरोच्चाइया णं अणताओ मणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्नागयाओ भवंति से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुम्बइ जाव पासंति (सूत्रं ५२२ ) ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! जेम आपणे बने आ (पूर्वोक्त) अर्थने जाणीए छीए अने जोइए छीए, तेम अनुसरौपपातिक देवो पण ए वात जाणे हे अने जुए छे ? [3] हा, गौतम ! जेम आपणे बने पूर्वोक्त वातने जाणीए छीए अने जोइए छीए तेम अनुत्तरौपपातिक देवो पण ए वातने जाणे हे अने जुए के [प्र०] हे भगवन् । ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'जेम आपणे जाणीए छीए तेम अनुत्तरौपपातिक देवो पण जाणे छे अने जुए है? [उ०] हे गौतम! अनुत्तरौपपातिक देवोए मनोद्रव्यनी अनंत वर्गणाओ ( अवधिज्ञाननी लब्धिथी (ज्ञेयरूपे) मेळवी छे, प्राप्त करी छे, अने (गुण- पर्यायना ज्ञानधी ) व्याप्त करी छे, माटे हे गौतम! एम कवाय छे के ते (अनुत्तरोपपातिक देवो) जाणे हे अने जुए छे. ।। ५२२ ।।
ऋषिणं भंते! तुलए पण्णत्ते ?, गोगमा ! छन्विहे तुल्लए पण्णसे, तंजहा-दन्वतुल्लए खेत्ततुल्लए कालतुल्लए भवतुल्लए भावतुल संठाणतुल्लए, से केणट्टणं भंते । एवं बुच्च दब्बतुल्लए २१, गोधमा ! परमाणुपोग्गले परमाणु
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१४ के
उद्देशः ७ ॥२२३६॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१२३७॥
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पोग्गलस्स दब्बओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गल व इरित्तस्स दव्वओ णो तुल्ले, दुपएसिए बंधे दुपए सियस्स स्वधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपए सिए खंधेदुपए सियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ णो तुल्ले, एवं जाव दसपएसिए, तुल्लसंखेाप एसिए बंधे तुल्लसंखेज्जप एसियस्स खंधस्स दवओ तुल्ले, तुल्लसंखेजपएसिए खंधे तुल्लसंखेन परसियवइरित्तस्स धस्स दव्वओ णो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेज्जप एसिएवि एवं तुल्लअनंतपए सिएबि, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचड़ दव्वओ तुल्लए । से केणद्वेणं भंते । एवं वुबह खेत्ततुल्लए २१, गोपमा । एगपएसोग ढे पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुल्ले, एगपएसोगाढे पोरंगले एगपएसो गाढव इरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ जो तुल्ले, एवं जाब दस परसोगाढे, तुल्लसंखेज पर सोगा हे० तुल्लसंखेज्ज०, एवं तुल्ल असंखेज्ज पएसोगा देवि, से तेण० जाव खेत्ततुल्लए ।
[प्र०] हे भगवन् ! केटला प्रकारे तुल्य कल छे ? [उ०] हे गौतम! तुल्य छ प्रकारे कहेलं छे, ते आ प्रमाणे- १ द्रव्य तुल्य, २ क्षेत्रतुल्य, ३ कालतुल्य, ४ भवतुल्य, ५ भावतुल्य अने ६ संस्थानतुल्य. [प्र० ] हे भगवन् ! द्रव्यतुल्य ए 'द्रव्यतुल्य' एम केम कहेवाय १ [उ०] हे गौतम! एक परमाणुपुद्गल बीजा परमाणुपुद्गलनी साथे द्रव्यथी तुल्य छे, पण परमाणुपुद्गल परमाणुपुद्गल शिवायना बीजा पदार्थ साथै द्रव्यथी तुल्य नथी; ए प्रमाणे द्विप्रदेशिक स्कन्ध ( बीजा ) द्विप्रदेशिक स्कन्धनी साथे द्रव्यथी तुल्य छे, पण द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्विप्रदेशिक स्कन्ध सिवायना बीजा पदार्थ साथे द्रव्यथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे यावत् - दशप्रदेशिक स्कन्ध सुधी कद्देवु. तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध (तेना) तुल्य संख्यातप्रदेशिक स्कन्धनी साथे द्रव्यथी तुल्य छे, पण तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध तुल्यसंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध शिवायना बीजा पदार्थ साथे द्रव्यथी तुश्य नथी, ए प्रमाणे तुल्य असंख्यात प्रदेशिक स्कन्ध
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१४ पाके
उद्देशः ७ ॥१२३७॥
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तथा तुल्य अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध संबन्धे पण जाणवु. माटे हे गौतम! ते कारणथी द्रम्बतुल्य ए 'द्रव्यतुल्य' कद्देवाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! क्षेत्रतुल्य ए 'क्षेत्रतुल्य' शा कारणथी कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम! आकाशना एक प्रदेशावनाढ- एक प्रदेशमा रहेल पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशमां रहेल पुद्गलद्रव्यनी साधे क्षेत्रथी तुल्य कद्देवाय छे; पण एक प्रदेशमां रुहेल पुद्गलद्रव्य शिवायना द्रभ्य साथै क्षेत्रथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे यावत्-दशप्रदेशावगाढ- दश प्रदेशमां रहेल पुद्गल द्रव्य संबन्धे पण जाणवु तथा तुल्यसंख्या| तप्रदेशावगाढ स्कन्धनी साथे तुल्यसंख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्ध तुल्य होय, ए प्रमाणे तुल्य असंख्यात प्रदेशावगाढ स्कन्ध संबन्धे पण जाणवु. माटे हे गौतम! ते हेतुथी क्षेत्रतुल्य ए 'क्षेत्रतुल्य' कहेवाय के.
सेकेणट्टेण भंते! एवं बुचड़ कालतुल्लएर ?, गोधमा । एगसमयठितीए पोग्गले एग० २ कालओ तुल्ले एगसमठितीए पोग्गले एगसमपठितीवइरिसस्स पोग्गलस्स कालओ णो तुल्ले, एवं जाब दससमयद्वितीए, तुल्लसं खेज्जसमपठितीए एवं चेव, एवं तुल्लअसंखेजसमपट्टितीएवि से तेणद्वेणं जाव कालतुल्लए । से केणद्वेणं भंते । एवं बुच्चइ-भवतुल्लए २१, गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स भवपाए तुले नेरइयवइरित्तस्स भवट्टयाए नो तुल्ले, तिरिक्खजोजिए एवं चेव, एवं मणुस्से एवं देवेवि, से तेणद्वेणं जाव भवतुल्लए । से केणट्टेणं भंते! एवं वुबइ-भावतुल भा बतुल्लए, गोयमा ! एगगुणकालए पोरगले एगगुणकालगस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले एगगुणकाल पोग्गले एगगुकालगवइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ णो तुल्ले, एवं जाव दसगुणकालए, एवं तुल्लसंखेज्जगुणकालए पोग्गले, एवं तुल्लअसंखेज्जगुणकालएवि एवं तुलअणंतगुणकालएवि, जहा कालए एवं नीलए लोहियर हालिदे सुकिल्लए, एवं
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१४ सके उद्देशः ७
।। १२३८ ॥
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व्याख्या
प्रहसिक ११२३९॥
ANSARKAR
सुन्भिगंधे एवं दुन्भिगंधे, एवं तित्ते जाव महुरे, एवं कक्खडे जाव लुक्खे, उदइए भावे उदइयस्स भावस्स भावओ
१४शतके |तुल्ले, उदइए भावे उदइयभावषहरित्तस्स भाबस्स भावओ नोतुल्ले, एवं उवसमिए• स्वइए. खओवसमिए० पारि
उद्देशा णामिए• संनिवाइए भावे संनिवाइयस्स भावस्स० से तेण?णं गोयमा! एवं बुच्चइ-भावतुल्लए २।
॥१२३९ [प्र.) हे भगवन् ! कालतुल्य ए 'कालतुल्य' शा हेतुथी कहेवाय ? [उ.] हे गौतम! एक समयनी स्थितिवाळ पुद्गलद्रव्य एक समयनी स्थितिकाळा पुद्गलनी साधे कालथी तुल्य के. एक समयनी स्थितिबार्छ पुद्गलद्रव्य एक समयनी स्थिति सिवायना पुद्गलद्रव्यनी साथे कालथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे यावत्-दशसमयनी स्थितिवाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे जाणवू. तुल्यसंख्यातासमयनी स्थितियाळा अने तुल्यअसंख्यात समयनी स्थितिवाळा पुद्गलद्रव्य संवन्धे पण ए प्रमाणे जाणवू. ते हेतुथी ए प्रमाणे कालतुल्य ए 'कालतुल्य' कहेवाय के. [म.] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छ के-भवतुल्य ए'भवतुल्य' छ ? [उ.] हे गोतम ! नारक जीव नारकनी साथै भवरूपे तुल्य छ, नारक नारक सिवायना बीजा जीव साथे भवरूपे तुल्य नथी. एप्रमाणे तिर्यंचयोनिक, मनुष्य अने देवसंबन्धे पण जाणवु. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी यावत्-'भवतुल्य' कहेवाय छे. [म.] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय ले के-भावतुल्य ए 'भावतुल्य' के ? [उ.] हे गौतम! एकगुण काळावर्णवाळु पुद्गलद्रव्य एकगुण कामवर्णवाळा पुद्गलद्रव्यनी साथे भावथी तुल्य है, परन्तु एकगुण काळावर्णवाल पुद्गलद्रव्य एकगुणकाम वर्ण शिवायना बीजा पुद्गलद्रव्य साचे भावतुल्य नथी. ए प्रमाणे यावद् दशगुण काळावर्णवाळा पुद्गल संबन्धे जाणवू. तुल्यसंख्यातगुणकाळा, तुल्यअसंख्यातगुणकाळा ६ अने तुल्यअनंतगुणकाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे पण एप्रमाणे जाणवू जेम काळावर्णवाळा पुद्गलद्रव्य संबन्धे कछु, तेम नील (लीलाई
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प्रातिः
राता, पीया अने शुक्ल पुद्गलद्रव्य संपन्चे पण जाणवं. ए प्रमाणे सुगवी, दुर्गंधी, कटुक यावद् मधुर द्रव्य संबन्धे तथा कर्कश (बरसठ) ब्बाकया-1
यानद्-रुक्ष पुद्गलद्रव्य संबन्धे जाणवं. औदयिक भाव औदपिक भावनी साथे भाववी तुल्य छे.औदायक भाव सिवायना बीजाभाव साये सारसक भावधी तुल्य नथी. ए प्रमाणे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भावसंबन्धे जाणवू.सांनिपातिक(अनेक भावना
* ॥१२४०॥
उदेश मळवावडे थयेला)माव सांमिपातिक भावनी साथे भावथी तुल्य के ते हेतुथी हे गौतम! एम कहेवाय छे के भावतुल्य ए'भावतुल्य छे.
18/॥१४॥ से केणतुणं भंते! एवं चुच्चह-संठाणतुल्लए २१, गोयमा! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ लातुल्ले, परिमंडलसंठाणवइरित्तस्स संठाणओ नो तल्ले, एवं वट्टे संसे चउरंसे आयए, समचउरंससंठाणे समचउरंस
स्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउरससंठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले, एवं सापरिमंडले, एवं जाव हुंडे, से तेण. जाव संठाणतुल्लए सं. २ (सूत्रं ५२३) ।।
[प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय के के-संस्थानतुल्य ए 'संस्थानतुल्य' छ । [उ०] हे गौतम ! (१) परिमंडलसंस्थान परिमंडलसंस्थाननी साथे संस्थानवडे तुल्य छ, परिमंडलसंस्थान ते शिवायना बीजा संस्थाननी साथे संस्थानवडे तुल्य नथी. |ए प्रमाणे (२) वृत्त (गोळ) संस्थान, (३) व्यस्र (त्रिकोण) संस्थान, (४) चतुरस्र-चोरससंस्थान अने (५) आयत लांबुं संस्थान पण
जाणवू. तथा समचतुरस्र संस्थान समचतुरस्र संस्थाननी साथे संस्थानथी तुल्य के, पण समचतुरस्र सिवायना बीजा संस्थाननी तु संस्थानथी तुल्य नथी. ए प्रमाणे न्यग्रोधपरिमंडल, अने यावत्-हुंड संस्थान सुधी जाणवं. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी यावत्-संस्था
तुल्य ए 'संस्थानतुल्य' कहेवाय छे. ॥५२३ ।।
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भत्तपञ्चक्वायए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव अझोववन्ने आहारमाहारेति अहे णं वीमसाए कालं क ध्याल्या.
१४वतके प्रवतिः
रेति तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे जाव अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति !, हंता गोयमा! भत्तपञ्चक्खायए णं उमेश
अणगारे तं चेब, से केणढणं भन्ते! एवं बु०-भत्तपञ्चक्खायए णं तं चेव !, गोयमा! भत्तपञ्चक्रवायए णं अण- का॥१२४२॥ दगारे मुच्छिा जाव अज्झोववन्ने आहारए भवद अहे थे वीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिा जावई
आहारे भवइ से तेणद्वेणं गोयमा! जाव आहारमाहारेति (सूत्रं ५२४) ॥
[प्र.] हे भगवन् ! मक्तप्रत्याख्यान करनार (आहारनो त्यागी) अनगार मूर्छित, यावत्-अत्यन्त आसक्त थईने आहार करे, अने पछी स्वभावथी काल-मारणांतिक साधात करे, त्यार पछी अमूर्छित-मूर्छा विना, अमृद्ध-लालच विना यावत्-अनासक्त थई आहार करे ? [उ०] हा, गौतम! भक्तप्रत्याख्यान करनार अनगार-इत्यादि पूर्व प्रमाणे आहार करे. [प्र.] हे भगवान् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के भक्तप्रत्याख्यान करनार अनगार-इत्यादि [पूर्व प्रमाणे] आहार करे ! [उ.] हे गौतम! भक्तप्रत्याख्यान करनार अनगार [प्रथम] मूर्छित, यावत्-आहारने विषे आसक्त होय छे, त्यार पछी स्वभावथी ते काल-मारणांतिक समुद्घात करे के अने स्यार बाद यावद् आहारने विणे अमूर्छित-रागरहित थई आहार करे . माटे हे गौतम! ते हेतुथी भक्तप्रस्याख्यान करनार अनगार पूर्व प्रमाणे यावत्-'आहार करे छे.' ।। ५२४ ॥
अत्थि भंते ! लवसत्तमा देवा ल.२१, हंता अस्थि, से केणढेणं भन्ते । एवं बुचह-लवसत्तमा देवा ल. २१, गोषमा से जहानामए-केह पुरिसे तरूणे जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा वीहीण वा गोधूमाण वा ज
BARABAR
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१४शतके
प्राप्तिः
उदेश
॥१२४२॥
१९५२७
AARCRAIBAR
वाण वा जवजवाण का पक्काण परियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपक्षणएणं असिअएणं पडिसाह| रिया प०२ पडिसंविषिया २ जाव इणामेव २ तिकटु सत्त लवए लुएन्जा, जति णं गोयमा । तेसि देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पते तो गं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झंता जाव अंतं करेंता, से तेणटेणं जाव लवसत्तमा देवा लवमत्तमा देवा (सूत्र ५२५) ।।
[प्र०] हे भगवान् । शुलवसत्तम देवो ए लवसत्तम देवो मे १ [उ.] हा, गौतम प्र ०] हे भगवान ! लवसत्तम देवो ए'लवसत्तम देवो' एम शा हेतुथी कहेवाय छ ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोई जुवान पुरुष यावत्-निपुण शिल्पनो ज्ञाता होय, अने ने पाकेला,लणवाने योग्य थयेला, पीला थयेला अने पीळीनाळवाळा शालि, व्रीहि, गहुं जव अने जबजब (धान्यविशेष ) ने (हाथथी) एकठा करी मुठिवडे ग्रहण करी, आ काप्या' प प्रमाणे शीघ्रतापूर्वक नवीन पाणी चडावेल तीक्ष्ण दातरडावडे सात लव (कोळी) जेटला समयमां कापी नाखे, हे गौतम! जो ते देवोनुं पटल (मात लव जेटलं) आयुष्य वधारे होत तो देवो तेज भवमा सिद्ध थात, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करत. माटे ते हेतुथी हे गौतम ! ते लवसत्तम देवो ए 'लवसत्तम' एम कहेवाय छे. ॥ ५९५ ।।
अत्धि णं भंते ! अणुत्तरोवबाइया देवा अ०२१, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते ! एवं बुचद अ०२ ?, गोयमा! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं अणुत्तरा सहा जाच अणुत्तरा फासा, से तेण?णं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव अणुत्तरोबवाइया देवा अ०२। अणुसरोववाइया णं भंते ! देवा णं केवतिएणं कम्मानसेंसेणं अणुत्तरोववाहयदेवत्ताए उववना, गोयमा! जावलियं छट्टभत्तिए ममणे निग्गंथे कम्म निजरेति एवनिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोवाइया
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हा देवा देवत्ताए उववक्षा । सेवं भंते ! २ त्ति (सूत्रं ५२३) ।। १४-७ ॥ व्याख्या
१४वतके PI प्राप्ति [म.] हे भगवन् ! अनुत्तरौपपाति देवो २ छे ? [उ.] हा गौतम ! छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी अनुत्तरौपपातिक देवो
उदेवा ॥१२५३॥
Bा 'अनुत्तरौपपातिक' एम कहेवाय छ ? [उ०] हे गौतम : अनुत्तरौपपातिक देवोनी पासे अनुत्तर शन्दो, यावत्-अनुत्तर स्पर्शो होय 8/॥२४॥
छे, माटे हे गौत्तम ! ते हेतुथी यावद् तेओने अनुत्तरौपपातिक देवो कहेवामां आवे छे. [प्र.] हे भगवन् ! केटलं कर्म बाकी | रहेवाथी अनुत्तरौपपातिक देवो अनुत्तरोपपातिकदेवपणे उत्पन्न थाय! [उ०] हे गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थ छट्ठ भक्तवडे जेटला कर्मनी
निर्जरा करे तेटलं कर्म वाकी रहेवाथी अनुत्तरोपपातीक देवो अनुत्तरोपपातिकदेवपणे उत्पन्न थाय ने. 'हे भगवान् ! ते एमज के पाहे भगवान् ! ते एमज के एम कही [ भगवान् गौतम] यावद् विहरे के ॥ ५२६ ॥
भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतासूत्रना १४ मा शतकमा सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ८. इमीसे ण भंते ! रयणप्पमाए पुढवीग सकरप्पभाए य पुढवीए केवतियं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते !, गोयमा! असंखेन्जाई जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते, सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए बालुयप्पभाए य पुढवीए
केवतिय एवं चेच, एवं जावतमाए अहेसत्तमाए य, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतियं आधालहाए अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा! असंखेजाई जोयणसहस्साई आवाहाए अंतरे पण्णत्ते । इमीसे णं भंते ! रयण
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प्रजाति ॥१२४४॥
उद्देश ॥११४
SAGAR
पभाए पुढवीए जोतिसस्स य केवतिय पुच्छा, गोयमा ! सत्तनउए जोयणसए आवाहाए अंतरे पण्णते, जोति. सस्स णं भंते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवतियं पुच्छा, गोयमा! असंखेज्जाई जोयण जाव अंतरे पण्णत्ते, सोहम्मीसाणाणं भंते ! सर्णकुमारमाहिंदाण घ केवतियं एवं चेव, सणंकुमारमाहिवाणं भंते ! बंभलोगस्स कप्पस्स य केवतियं एवं चेष, बंभलोगस्स णं भंते ! लंतगस्स य कप्पस्स केवतियं एवं चेब, लतयस्स गं भंते! महासुक्कस्स कप्पस्स केबतियं एवं चेव, एवं महामुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाणं, एवं आणयपाणयाण य कप्पाणं आरणच्चुयाण य कप्पाणं, एवं आरणच्चुयाणं गेविजविमाणाण य, एवं गेविज विमाणाणं अणुसरविमाणाण य । अणुत्तरविमाणाणं भंते। ईसिंपळभाराए य पुढवीए केवतिए पुच्छा, गोयमा! दुचालसजोयणे अवाहाए अंतरे पण्णत्ते, ईसिंपन्भाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अथाहाए पुच्छा, गोयमा ! देसूर्ण जोयणं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते (सूत्रं ५२७)। | [म.] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी अने शर्कराप्रभा पृथ्वीन अबाधावडे-व्यवधानवडे केटलं अन्तर कहेलु छ ? [उ.]
हे गोतम! असंख्य लाख योजन [ अबाधाए] अंतर कहेलुं छे. [40] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा अने चालुकाप्रभा पृथिवीनु केटो अबाधा५ बड़े अंतर कयु छ। [उ०) हे गौतम ! पूर्ववद जाणवू, ए प्रमाणे यावत्-तमा-छट्ठी नरकपृथिवी अने अधःसप्तम-सातमी नरक | पृथिवी सुधी जाणवु [40] हे भगवन् ! सातमी नरक पृथिवी अने अलोकन केटल अबाधावडे अंतर को छे? [उ०] हे गौतम! असंख्य लाख योजन अबाधाए अंतर का छे. [म.] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवी अने ज्योतिषिकर्नु (सूर्य-चन्द्रादिन)
KRECRUCIA-PLA
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व्याख्याप्रशसि ॥१२४५॥
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केटलं अचाधावडे अंतर कधुं छे-एम प्रश्न करवो. [अ०] हे गौतम! सातसो ने नेवु योजन अवाधावडे अंतर कछु ले. [प्र० ] हे भगवन् ! ज्योतिषिक अने सौधर्म-ईशान कल्पनु केटलुं अन्तर कधुं छे ? [अ०] हे गौतम! असंख्याता योजन यावत्-अन्तर कहु छे [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्म ईशान अने सनत्कुमार- माहेन्द्रनुं केंटलुं अन्तर कयु के ? [२] पूर्वप्रमाणे जाण. [प्र० ] हे भगवान् ! सनत्कुमार-माहेन्द्र अने ब्रह्मलोक कल्पनुं केटले अन्तर होय छे ? [] पूर्व प्रमाणे जाणं. [ प्र० ] हे भगवन् ! ब्रह्मलोक अने लांतककल्प बच्चे केटले अन्तर छे ? [उ० ] पूर्ववत जाणवु [प्र०] हे भगवन् ! लांतक अने महाशुक कल्पनुं कैटलुं अंतर होय छे ? [३०] पूर्ववत् जाणं. ए प्रमाणे महाशुक्र कल्प अने सहस्रारनुं अन्दर जाणवुं, तथा सहस्रार अने आनत - प्राणतकल्प अने आरणअच्युतकल्पनुं, आरण-अच्युतकल्प अने ग्रैवेयकनुं, अने ग्रैवेयक अने अनुत्तरविमाननुं अन्तर पूर्ववत् जाणवुं [प्र० ] हे भगवन् ! अनुत्तरविमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवीनुं केटलं अन्तर होय के ? [3] हे गौतम! बार योजननुं अबाधावडे अन्तर कर्तुं छे. [अ०] हे भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथिवी अने अलोकनुं कैटलुं अबाधावडे अंतर कधुं छे ? [अ०] हे गौतम! कड़क न्यून एक योजन अबाधाए अन्तर है. ॥ ५२७ ॥
एस णं भंते! सालरुखे उण्हाभिहए तण्हाभिहर दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छ हित कर्हि उववज्जिहिति?, गोयमा । इहेव रायगिहे नगरे सालरुवस्वत्ताए पञ्चायाहिनि, से णं तत्थ अचियवंदियसकारियसम्माणिए दिव्वे सच सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सह, से णं भंते !. तओहिंतो अनंतरं त्वहित्ता कहिं गमिहिति कर्हि उववज्जिहिति ?, गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव
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१४ शतके उद्देशा
।। १२४५॥
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व्याकयाप्रज्ञप्तिः ॥। १२४३॥
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अंतं काहिति । एस भंते ! साललट्ठिया उपहाभिया तहाभिषा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किया जाव कहिं उबवज्जिहिति ?, गोयमा ! इहेब जंबुद्दीवे २ भारहे वासे विझगिरिपायमूले महेसरीए नगरीए सामलिरुखत्ताए पञ्चायाहिति से णं तत्थ अचियवंदियपूय जाव लाउल्लोइयमहिए ग्रावि भविस्सह, से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उच्चट्टित्ता सेसं जहा सालरुक्खस्स जाव अंतं काहिति । एस णं भंते ! उंबरलट्ठिया उपहाभिहया ३ कालमासे कालं किवा जाव कहिं उववज्जिहिति ?, गोयमा ! इहेब जंबुतीचे २ भारहे वासे पाडलिपुत्ते नार्म नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पश्चायाहिति से णं तस्थ अच्चियवंदिय जाव भविस्सति, से णं भंते ! अनंतरं उच्चतित्ता सेसं तं चैव जाव अंतं काहिति (सूत्रं ५२८) ।।
[प्र०] हे भगवन् ! [ सूर्यनी] गरमीथी पीडित थयेलो, वृषाथी हणायेलो अने दावानळनी जाळथी मळेलो आ शालवृक्ष कालमासे - मरणसमये काल करी क्यां जशे अने क्यों उत्पन्न थशे ? [30] हे गौतम! आज राजगृह नगरमां फरीथी उत्पन्न थशे, अने ते त्यां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित अने दिव्य - प्रधानभूत थशे. तथा सत्यरूप - सत्यावपात - जेनी सेवा सफल थाय एवो, [पूर्वभवसंबन्धी देवोए] जेतुं प्रतिहारपणुं सांनिध्य कई छे एवो, तथा जेनी पीठ - चोतरो लींपैलो अने धोळेलो एवो ते (पूजनीय ) थशे. [प्र] हे भगवन् ! [ ते शालवृक्ष ] त्यांथी मरण पामी क्यां जशे अने क्या उत्पन्न थशे ? [अ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमां सिद्ध थशे. तथा यावत् - सर्व दुःखोनो अन्त करशे. [प्र०] हे भगवन् ! सूर्यनी गरमीथी हणायेल, तृषाथी पीडित थयेल तथा दावानळनी जाळथी बळेली आ शालयष्टिका शालवृक्षनी न्हानी शाखाओ कालमासे मरण समये काल
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१४ भा
उद्देशा
।। १२४३ ।।
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लोकरी क्या जशे अने क्या उत्पन्न थशे? [उ.] हे गौतम ! आज जंवृद्वीपना भारतवर्षमा विन्ध्याचलनी तळेटीमां माहेश्वरी व्याख्या
नगरीमा ते शाल्मली वृक्षरूपे उत्पन्न थशे, अने ते त्यां अर्चित, बंदित अने पूजित थशे, तथा यावत्-तेनो चोतरो लीपेलो, धोळेलो प्रति ॥१२४७॥
का अने पूजित थशे. [प्र.] हे भगवन् ! ते त्यांथी मरण पामी क्या जशे अने क्या उत्पन्न थशे ?-इत्यादि बधु शालवृक्षनी पेठे 8१२४ जाणवू, यावत्-ते सर्व दुःखोनो अन्त करशे. [प्र.] हे भगवन् ! [सूर्यनी] गरमीथी हणायेल, तृपाथी पीडायेल अने दवामिजाळथी बळी गयेल आ उंबरवक्षनी शाखा मरणसमये काल करी क्या जशे, क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! ते आज जंबूद्वीपना भारतवर्षमा पाटलिपुत्र नामना नगरमां पाटलिवृक्षपणे उत्पन्न थशे. अने त्यां ते अर्चित, बंदित अने यावत्-पूजनीय थशे. [प्र.] ते त्यांथी मरण पामी क्या जशे, क्या उत्पन्न थशे ? [उ.] ए बधु पूर्वनी पेठे जाणवु, यावत्-सर्व दु:खोनो अंत करशे.॥५२८॥
तेणं कालेण तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासीसया गिम्हकालसमयंसि एवं जहा उववाइए जाव आराहगा (सूत्रं ५२९) ।।
ते काले, ते समये अंबड परिमाजकना सातसो शिष्यो ग्रीष्म कालने समयने विषे विहार करता-इत्यादि मधु औषपातिक सूत्रमा कया प्रमाणे अहिं कहे, यावत्-'तेओ आराधक धया-त्यां मुधी जाणवू. ।। ५६९॥
बहुजणे णं भंते ! अन्नमनस्स एवमाइवह एवं-स्खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए एवं जहा उववाइए अम्मडस्स बत्तब्बया जाव दढप्पाण्णो अंतं काहिति (सूत्रं ५३०)।
हे भगवन् ! घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे के, 'अंबड परिव्राजक कांपिल्यपुर नगरमा सो घेर जमे छ'-त्यादि ।
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Acharya Shei arsuri Gyarmandie PRधु औषपातिक सूत्रमा का प्रमाणे अंबडनी बंधी वक्तव्यता कहेवी, यावत्-दृढप्रतिज्ञानी पेठे यावत्-'ते सर्व दुःखोनो अंत करो. पाण्या
अस्थि णं भंते ! अब्बाबाहा देवा अध्याबाहा देवा ?, हंता अस्थि, से केण?णं भंते ! एवं धुञ्चह-अव्वाबाहा ||श्चतके प्रतिः देवा २१, गोयमा! पभू णं एगमेगे अब्बाधाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविति
* ॥१२५८
उदेश
दावा ॥१३४८॥ दिव्वं देवज्जुर्ति दिव्वं देवजुति दिब्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीसतिविहं नविहिं उनसेत्तए, णो चेवणं तस्स पुरिसस्म किंचिवि आयाहं वा बाबाहं वा उप्पाएइ छविच्छेयं वा करेति, एसुहुमं च णं उबर्दसेन्जा, से तेणटेणं जाव अम्बाबाहा देवा २ (सूत्रं ५३१) ।
प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के अन्यायाध देवो ए 'अध्यावाध देवो' ( पीडा नहि करनारा) कहेवाय छे? [उ०] हा गौतम ! एम . [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेबाय के के अव्याबाध देवो ए 'अव्यानाध देवो' छ ? [उ.] हे गौतम !
एक एक अव्याचाध देव एक एक पुरुषनी एक एक पापण उपर दिव्य देवधि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवानुभाव अने बत्रीश प्रका★रना दिव्य नाट्यविधिने बतावी शकवा समर्थ छ, परन्तु ते पुरुषने स्वल्प के अधिक दुःख थवा देतो नथी, तेम तेना अवयवना
छेद पण करतो नथी. एवी सूक्ष्मतापूर्वक (नाब्यविधि) मतावी शके छे, ते हेतुथी अभ्याबाध देवो ए 'अव्यावाध' (पीडा नहि | करनार देवो) एम कहेवामां आवे छे.॥५३१ ।।।
पभू णं भंते ! सके देविंदे देवराया पुरिसस्स सीमं पाणिणा असिणा छिदित्ता कमंडलुमि पक्विवित्सए१, हता पभू, से कहमिदाणि पकरेति ?, गोयमा! छिदिया २ च णं पक्खिवेजा भिदिया भिदिया च णं पक्खि
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प्राप्तिः ॥१२४९॥
वेजा कोट्टिया कोहिया च पक्खिवेजा चुन्निया चुन्निया च णं पक्खिवेला तओ पच्छा विप्पामेव पडिसं
मा१४चतक घाएजा, नो चेव णं तस्स पुरिमस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएज्जा छविच्छेदं पुण करेति, एसुहुमं च णं
हुमचा उद्देशा पक्विवेजा।। (सूत्रं ५३२)॥
1 ॥१४॥ प्र०) हे भगवन् ! देवना इन्द्र अने देवना राजा शक (कोइ) पुरुषना माथाने हाथवडे तरवारथी कापी नाखी कमंडलुमा नाखवा समर्थ के ? [उ.] हा, समर्थ छे. [प्र.] ते ते वखते कमंडलमा केवी रीते नांखे ! [उ०] ते शक माथाने छेदी छेदीने, भेदी मेदीने कूटी कूटीने अने चूर्ण करी करीने कमंडलुमा नांखे, अने त्यार पछी तुरतज (ते माथाना अवयवोने) मेळवे-एकठा करे, एटलं सूक्ष्म करी कमंडलमा नांखे, तेना अवयवोनो बेद करे तो पण ते पुरुषने जरा पण पीडा उत्पन्न न थाय. ।। ५३२॥
अस्थि भंते ! जंभया देवा जंभया देवा, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते ! एवं वुचह-जंभया देवा जंभया देवा !, गोयमा! जंभगा णं देवा निचं पमुइयपक्कीलिया कंदप्परतिमोहणसीला जन्नं ते देवे कुद्धे पासेज्जा से ण पुरिसे महंतं अयस पाउणिज्जा, जे ण ते देवे तुढे पासेज्जा से ण महंतं जसं पारणेज्जा, से तेणटेणं गोयमा भगा देवा २॥ कतिविहा णं भंते ! भगा देवा पण्णता?, गोयमा। दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-अन्नजंभगा पाणजं. भगा वत्थजंभगा लेणजंभगा सयणजंभगा पुप्फजंभगा फलजंभगा पुप्फफलजंभगा विजाभगा अवियत्तजभगा, जंभगाणं भंते! देवा कहिं वसहि उति?, गोयमा! सब्वेसु चेव दीहवेयडेसु चित्तविचित्तजमगपब्वएम कंचणपन्चएसु य एत्थ णं जंभगा देवा वसहिं उति । जंभगाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता १.||
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पाच्या प्राप्ति पर
57
डोशाल ५॥१२५011
| गोयमा!ग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता। सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरनि (सूत्र ५३३) ॥ १४-८॥
[प्र.] हेभगवन् ! शु एम छे के जंभक देवो ते जुंभक (खच्छन्दचारी ) देवो छ ? [उ०] हा, गौतम! एम छे. [प्र०] हे भगवन् ! क्या हेतुथी ज़ुभकदेवो ए 'जुभकदेवों (खच्छन्दचारी देवो) कहेवाय! [उ०] हे गौतम ! मुंभकदेवो हमेशा प्रमोदवाळा, अत्यन्त क्रीडाशील, कंदर्पने विषे रतिवाळा अने मैथुन सेवबाना स्वभावबाळा होय हे, जे ते देवोने गुस्से थयेला जुए के, ते पुरुषो घणो अपयश पामे छ, तथा जेभो ते देवोने तृष्ट थयेला जुए के तेओ घणो यश पामे छे, माटे हे गौतम! ते हेतुथी जमकदेवो ए'जुंभकदेवों' एम कहेवाय . [प्र.] हे भगवन् ! जंभक देवो केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! दश प्रकारना का छ-१ अन्नज़ुभक, २ पानजभक, ३ वस्त्रजुंभक, ४ गृहज़ंभक, ५ शयनमक, ६ पुष्पभक, ७ फलज़ंभक, ८ पुष्प-फलजुंभक,
विद्याजुभक,अने १० अध्यक्तनँभक. [म०] हे भगवन् ! जंभक देवो क्या वसे छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ (जुभक) बधा की दीर्घ वैताढयोमां, चित्र, विचित्र, यमक अने समक पर्वतोमा तथा कांचनपर्वतोमा वसे छे. [प्र०] हे भगवन् ! जंभक देवनी
स्थिति केटला काळनी कही ने ? [उ०] हे गौतम । तेनी एक पल्योपमनी स्थिति कही छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही भगवान गौतम यावद् विहरे छे. ॥ ५३३ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १४ मा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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सर
१४शतक
॥१२॥१॥
SARA
उद्देशक ९. अणगारेणं भंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणहन पासह ने पुण जीवं मरूवि सम्मलेस्सं जाणा ॥१२५॥
पासइ ?, हंना गोयमा! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पासति ।। अत्थि भंते! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४१, हंता अस्थि ॥ कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्मा पोग्गला ओभामति जाव पभा | सेंति !, गोयमा जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेस्साओ पहिया अभिनिस्सडाओताओ ओभासंति पभाति एवं एएणं गोयमा! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति ४ (सूत्रं ५३४)
[प्र.] हे भगवन् ! (संयमभावनावडे ) भावितात्मा अनगार जे पोतानी कर्मलेश्याने (विशेषरूपे) जाणतो नथी, अने , (सामन्यरूपे) जोतो नथी ते सरूपी-सशरीरी अने कर्म लेश्यासहित जाणे अने जुए! [उ.] हा, गौतम ! भावितात्मा अनगार जे पोताना कर्मसंबन्धी लेश्याने जाणतो अने जोतो नथी ते शरीरसहित अने कर्म-लेश्यावाला पोताना आत्माने यावद्-जुए छे [प्र०]
हे भगवन् ! रूपी-वर्णादियुक्त सकर्मलेश्य-कर्मने योग्य कुष्णादि लेश्याना पुद्गलस्कन्धो प्रकाशित थाय छे ? [उ०] हा, गौतम ! IM सेवा पुद्गलस्कन्धो प्रकाशित थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! रूपवाळा अने कर्मने योग्य अथवा कर्मसंबन्धी लेडयाना जे पुद्गलोर
प्रकाशित थाय छे, यावत् प्रकाशित थाय छे ते केटला छे। [उ.] हे गौतम! चंद्र अने सूर्यना विमानोथी जे आ बहार नीकळेली हा लेश्याओ (प्रकाशना पुद्गलो) छे तेओ अवभासित थाय छे, प्रवासित थाय छ, ए प्रमाणे हे गौतम ! ए बधा रूपयुक्त, कर्मने
योग्य लेझ्यावाळा पुगलो प्रकाशित थाय छे. ॥ ५३४ ॥
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प्राप्तिः
शतके उमेशा ११५शा
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असुरकुमाराणं भंते ! किं भत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला?, गोयमा! अत्ता पोग्गला णो अणत्ता पोग्गला, ॥१२५॥
एवं जाव थणियकुमाराणं, पुदविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! अत्तावि पोग्गला अणत्तावि पोग्गला, एवं जाव मणुस्साणं, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाण जहा असुरकुमाराणं, नेरल्याणं भंते! किं इहा पोग्गला अणिट्ठा पोग्गला!, गोयमा! नोट्ठा पोग्गला अणिट्ठा पोग्गला जहा अत्ता भणिया एवं इठ्ठावि कंतावि पियावि मणुप्रावि भाणियब्वा, एए पंच दंडगा। देवेणं भंते ! महडिए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउम्वित्ता पम् भा
सासहस्सं भासित्तए, हंता पभू, साणं भंते ! कि एगा भासा भासासहस्स?, गोषमा! एगाणं सा भासा Mणो खलु तं भासासहस्सं ( सूत्र ५३५)॥
[.] हे भगवान् ! शुं नरयिकोने आस-सुखकारक पुद्गलो होय छे के अनात्त-दुःखकारक पुद्गलो होय छे' [उ.] हे गौतम ! तेओने आच पुद्गलो नथी पण अनात्त पुद्गलो होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! \ असुरकुमारोने आत्त-सुखकारक पुद्गलो होय छे के अनात पुद्गलो होय छे? [उ.) हे गौतम ! तेओने आत्त पुद्गलो होय छे, पण अनात्त पुद्गलो होता नथी. ए प्रमाणे | यावत् स्तनितकुमारो मुधी जाण. [प्र.] हे भगवान् ! सुं पृथिवीकायिकोने आत्त पुद्गलो होय छे के अनात पुद्गलो होय छे ?
उ.] हे गौतम ! तेओने आत्त पुद्गलो पण होय छे, अने अनात्त पुद्गलो पण होय . ए प्रमाणे यावत्-मनुष्यो सुधी जाणवं." वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिकोने असुरकुमारोनी पेठे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नारकोने इष्ट पुद्गलो होय के के अनिष्ट
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ECORRORIES
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१४तके
प्रवाप्ति ॥१३५३॥
॥१२५॥
पुत्मलो होय छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओने इष्ट पुद्गलो होता नथी, पण अनिष्ट पुगलो होय छे. जेम आस पुद्गलो संबंधे कछु, तेम इष्ट, कांस, प्रिय तथा मनोज्ञ पुद्गलो संबन्धे पण कहेवं. बळी ए प्रमाणे अहिं पांच दंडक कहेवा. [म.] हे भगवन् ! महर्दिक याण मोटा सुखवाळो देव हजार रूपोने विकु ने हजार भाषा बोलवा समर्थ छ ? [उ०] हा, गौतम ! नेम करवा समर्थ छे.५३५
तेणं कालेणं २ भगवं गोयमे अचिकग्गय बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकास लोहितगं पासह पासित्ता जायसड्डे जाव समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद जाब नमंसित्ता जाव एवं वया. सी-किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते! सूरियरस अट्टे, गोयमा! सुभे सूरिए तुभे सरियस अट्ठे । किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं मंते! सूरियस्स पभा एवं चेव, एवं छाया एवं लेस्सा (सूत्रं ५३६ )।
प्र] हे भगवन् ! ते एक भाषा छे के हजार भाषा छे ? [उ.] हे गौतम ! ते एक भाषा छे, पण हजार भाषा नथी. ते काले, ते समये भगवंत गौतमे तुरतनो उगेलो अने जासुमणाना पुष्पना पुंज जेवो रातो बालसूर्य जोयो, ते सूर्यने जोइने श्रद्धावाळा, अने यावत्-जेने प्रश्ननु कुतूहल उत्पन्न थयु ले एवा भगवंत गौतमस्वामी ज्या श्रमण भगवंत महावीर छ त्यो आव्या, अने यावत्-नमीने यावत्- आ प्रमाणे बोल्या-[प्र.] हे भगवन् ! सूर्य ए शुं छे अने भगवन् !सूर्यनो अर्थ शो हेतु छे ! [उ.] हे गौतम! सूर्य ए शुभ पदार्थ छे, अने सूर्यनो अर्थ पण शुभ छे. [१०] हे भगवन् ! सूर्य र शुछ अने सूर्यनी प्रभा ए झुं छे। [उ०] पूर्व | प्रमाणे जाणवं, ए प्रमाणे छाया-प्रतिबिंब अने लेश्या-प्रकाशना समूह संबन्धे पण जाणवू. ॥५३६ ॥
जे इमे भंते । अज्जत्ताए समणा निग्गंधा विहरंति पते णं कस्स तेयलेस्सं बीतीवयंति', गोयमा! मासप-1
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व्याक्याप्रशिः
॥१२५४।।
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रिवार कमणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेथलेस्सं बीइवयंति, दुमासपरियाए समणे निग्गंधे असुरिंदवज्जिबाणं भवणवासी देवाणं तेयलेस्सं वीयीवयंति, एवं एएणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे नि० असुर माणं देवाणं तेय० चउम्मासपरियाए सगहनक्वप्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेय पंचमात्र परियार य सचदिमसूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणं तेय० छम्मासपरियाए समणे मोहम्मीसाणाणं देवानं० सत्तमास परियार सणकुमारमाहिंदाणं देवानं अट्ठमासपरियार बंभलोगलंतगाणे देवाणं तेय० नवमासपरियाए | समणे महासुक्क सहस्साराणं देवाणं तेय० दसमासपरियाए आगयपाणय आरणच्चुयाणं देवार्ण एक्कारसमासप रियाए गेवेजगाणं देवाणः वारसमासपरियार समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्मं वीथीवयंति, तेण परं सुके सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव अंत करेति । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरति ॥ ( सूत्रं ५३७ ) ॥। १४ – ९ ॥
[म] हे भगवन् ! जे आ श्रमण निग्रंथो आर्यपणे - पापकर्मरहितपणे विहरे छे, तेओ कोनी तेजोलेश्याने मुखने अतिक्रमे छे? अर्थात् - मनुं सुख कोनाथी चडीयातुं छे । [अ०] हे गौतम ! एक मासना दीक्षा पर्यायवाळो श्रमण निर्बंध चानव्यंतर देवोनी तेजोलेश्याने सुखने अतिक्रमे छे, (अर्थात्-वानव्यंतर देवो करतां अधिक सुखी छे) वे मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्बंध असुरेंद्र सिवायना भवनवासी देवोनी तेजोलेश्याने मुखने अतिक्रमे छे. ए प्रमाणे ए पाठ वडे त्रण मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्बंध असुरकुमार देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे, चार मासना पर्याययाको श्रमण निर्बंध ग्रहगण, नक्षत्र अने तारारूप ज्योतिषिक देवोनी
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१४ शतके उद्देश ९ ।।१२५४॥
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बचाने अतिक्रमे छे, पांच मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्गथ, ज्योतिष्कना इन्द्र, ज्योतिष्कना राजा चन्द्र अने सूर्यनी तेजो.
१४शनके सल्याने अतिक्रमे छे, छ मासना पर्यायवाळो श्रमण निर्गध सौधर्म अने ईशानवासी देवोनी (तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे), सात
उद्देशा माला पर्यायवानो श्रमण निग्रंथ सनत्कुमार अने माहेन्द्र देवोनी, आठ मासना पर्यायवाळो श्रमण निग्रंथ ब्रह्मलोक अने लांतक 15॥१२५५० देवोनी, नव मासना पर्यायवाळो श्रमण निग्रंथ महाशुक्र बने सहस्रार देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छ, दश मासना पर्यायवाको श्रमण निग्रंथ आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे , अगीयार मासना पर्यायवाळो श्रमण निग्रंथ देयक देवोनी अने बार मासना पर्यायवाळो श्रमण निग्रंथ अनुत्तरौपपातिक देवोनी तेजोलेश्याने अतिक्रमे छे. त्यार बाद शुद्ध अने शुद्धतर परिणामवाळो थइने पछी सिद्ध थाय छे, यावत्-सर्य दुःखोनो अन्त करे छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ'-एम कही यावत विहरे छे. ॥५३७ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूचना १४ मा शतकमां नवमा उद्देशानो मलार्थ संपूर्ण थयो.
BARAKHAND
उद्देशक १०. - केवली णं भंते ! छउमत्थं जाणइ पासइ , हंता जाणइ पासइ, जहा भंते ! केवली छउमत्थं जाणइ पासह तहा णं सिद्धेवि छउमत्थं जाणइ पासह?, हंता जाणइ पासइ, केवली णं भंते ! आहोहिय जाणइ पासइ एवं घेव, एवं परमाहोहिय, एवं केवलिं एवं सिद्ध जाव जहा णं भंते! केवली सिद्ध जाणइ पासइ तहाणं सि-है।
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ब्याकयाप्रसिः ॥१२५६।।
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देवि सिद्धं जाणइ पासह ?, हंना जाणइ पासइ । केवली णं भंते । भासेज वा वागरेज वा १, ता भासेज वा वागरेल वा, जहा णं भंते ! केवली भासेज वा वागरेज वा तहा णं सिद्धेवि भासेल वा वागरेज वा ?, णो सिजट्टे समझे, से केणट्टणं भंते! एवं बुचइ जहा णं केवली णं भासेज वा बागरेज वा णो तहा णं सिद्धे भासेज चा वागरेज्ज वा ?, गोगमा ! केवली णं सउडाणे मकम्मे सबले सवीरिए सपुरिमक्कारपरक मे, सिद्धे णं अणुद्वाणे जाव अपुरिसक्कार परकमे, से तेणद्वेगं जाच वागरेज वा, केवली णं भंते! उम्मिसेज वा निमिसेज वार्ड, हंता उम्मिसेज वा निम्मिसेज वा एवं चैव एवं आउहेज्ज वा पसारेज वा एवं ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेरजा,
[प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी छवस्थने जाणे अने जुए ? [उ०] हा, जाणे अने जुए. [प्र] हे भगवन् ! जेम केवलज्ञानी छद्मस्थने जाणे अने जुए तेभ सिद्ध पण छद्मस्य जीवने जाणे अने जुए १ [३०] हा, गौतम ! जाणे अने जुए [प्र० ] हे भगवन् ! केवलज्ञानी अधोवधिकने - प्रतिनियतक्षेत्रविषक अवधिज्ञानवंतने जाणे अने जुए ? [उ०] हा, गौतम ! जाणे अने जुए. एम परमावधिज्ञानीने पण जाणे अने जुए. ए प्रमाणे केवलज्ञानी अने सिद्धने पण जाणे, यावत् - [प्र० ] जेम 'हे भगवन् ! केवलज्ञानी सिद्धने जाणे अने जुए तेम सिद्ध पण सिद्धूने जाणे अने जुए ? [अ०] हा, जाणे अने जुए. [प्र] हे भगवन् ! केवलज्ञानी बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर कहे ? [अ०] हा, गौतम ! केवली बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर कहे. [प्र० ] हे भगवन् ! जेम केवलज्ञानी बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर कड़े तेम सिद्ध पण बोले अथवा प्रश्ननो उत्तर आपे ? [अ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ-युक्त नथी, अर्थात् सिद्ध बोले नहि. [प्र० ] हे भगवन् ! क्या हेतुथी एम कहो छो के- 'जेम केवलज्ञानी बोले अथवा कहे तेम सिद्ध बोले नहि अथवा प्रश्नोत्तर न
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१४ शतके उद्देशः १० ।।११५६॥
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१४शतके उद्देशा. ॥१२५
॥१२५७॥
कहे' [उ.] हे गौतम ! केवलज्ञानी उत्थान-उमा थचु, कर्म-गमनादि क्रिया, बल, वीर्य अने पुरुषकार-पराक्रम सहित होय के पण सिद्धो उत्थानरहित, यावत्-पुरुषकार-पराक्रमरहित होय छे, माटे हे गौतम ! सिद्धो केवलीनी पेठे यावत्-प्रश्नोत्तर कहेता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी पोतानी आंख उघाडे अने मीचे ? [उ०] हा, गौतम ! आंख उघाडे अने मीचे, एज प्रमाणे शरीरने संकुचित करे अने प्रसारे, उमा रहे, बेसे अने आहे पडखे थाय, तथा शय्या (वसति) अने नैषेधिकी (थोडा काल माटे वसति) करे. ___ केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणति पासति ?, हंता जाणइ पासइ, जहा भंते ! केवली इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणइ पासह तहा णं सिद्धेवि इमं रयणप्पभं पुदवि रय णप्पभपुढवीति जाणइ पासह १, इंता जाणइ पासइ, केवली णं भंते ! सकरपर्भ पुढवि सकरप्पभापुरवीति जाणइ पासइ १, एवं चेव, एवं जाव अहेसत्तमा, केवली णं भंते । सोहम्मं कप्पं सोहम्मकप्पेत्तिजाणइ पासइ १, हंता जाण पासइ, एवं चेव, एवं ईसाणं एवं जाव अच्चुयं, केवल्ली णं भंते ! गेवेजविमाणे गेबेजविमाणेत्ति जाणइ पासह, एवं चेष, एवं अणुत्तरविमाणेचि, केवली णं भंते! ईसिपन्भारं पुढवि ईसिपम्भारपुढवीति जाणइ पासह, एवं चेव, केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गलेत्ति जाणइ पासही, एवं चेव, एवं दुपएसियं खंधं एवं जाब जहा णं भंते! केवली अणंतपएसियं स्वधं अणंतपएसिए स्वंधेत्ति जाण पासह तहाणं सिद्धेवि अणंतपएसियं जाव पासह, हंता जाणइ पासइ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति (सूत्रं ५३८) ॥१५-१०॥ चोर संम सयं संमत्तं ॥ १४॥
AMARRERAKAWARD
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व्याक्याप्रज्ञप्तिः ॥१२५८।।।
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[प्र०] हे भगवन् ! केवलज्ञानी रत्नप्रभा पृथिवीने आ 'रत्नप्रभा पृथिवी' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ? [अ०] हा गौतम ! जाणे अनेदेखे. [प्र० ] हे भगवन् ! जेम केवलज्ञानी रत्नप्रभा पृथिवीने आ 'रत्नप्रभा' एम जाणे अने देखे तेम सिद्ध पण रन्त प्रभा पृथिवीने 'रत्नभप्रा' - एम जाणे अने देखे ? [अ०] हा, ! गौतम जाणे अने देखे. [प्र० ] हे भगवान् ! केवलज्ञानी शर्कराप्रभा पृथिवीने 'शर्करामापृथिवी' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ? [3] पूर्व प्रमाणे जाणवुं. ए प्रमाणे यावत् - सातमी नरकपृथिवी सुधी जाणवुं. [प्र० ] हे भगवन् ! केवली सौधर्मकल्पने 'सौधर्मकल्प' एम जाणे अने देखे ? [अ०] हा, गौतम ! जाणे अने देखे. ए प्रमाणे ईशान अने यावत् अच्युतकल्प सुधी जाणवुं. [प्र] हे भगवन् ! केवलज्ञानी ग्रैवेयकविमामनने 'ग्रैवेयक विमान ' एजाणे अने देखे ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवं ए प्रमाणे यावत्- अनुत्तरविमान संबन्धे पण जाणं. [प्र० ] हे भगवन् ! केवलज्ञानी ईपत्प्राग्भारा पृथिवीने 'ईषत्प्राग्भारा पृथिवी' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ? [ उ ] ए प्रमाणे जाणवं [प्र० ] हे भगवन् ! केवनज्ञानी परमाणुपुद्गलने 'परमापुद्गल' ए प्रमाणे जाणे अने देखे ? [अ०] हा, गौतम ! जाणे अने देखे. ए प्रमाणे द्विप्रदेशिक स्कन्ध, अने यावत्-जेम - [प्र० ] हे भगवन् ! केवलज्ञानी अनन्तप्रदेशिक स्कन्धने 'अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध'- एम जाणे अने देखे तेम सिद्ध पण अनन्तप्रदेशिक स्कन्धने यावत्- जुए ? [अ०] दा, जाणे अने जुए. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज . ॥ ५३८ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रमा १४ मा शतकमां दसमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण घयो. ॥ इतिश्री चतुर्दशं शतकं समाप्तं ॥
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१४ शतके उद्देशः १० ।। १२५८॥
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शतक १५. (उद्देशक १.)
| उवार ॥१२५९॥
समाजमा
नमो सुयदेवयाए भगवईए। तेणं कालेण २ सावस्थी नाम नगरी होत्या, वन्नओ, तीसे णं मावस्थीए नगरीए पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तस्य ण कोट्ठए नाम चेहए होत्था, वन्नओ, तत्थ णं सावस्थीए नगरीए हाला. हला नाम कुंभकारी आजीविओबासिया परिवसति अड्डा जाव अपरिभूया आजीवियसमयंसि लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! आजीवियसमये अहे अयं परमटे सेसे अणदृत्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणी विहरह । तेणं कालेणं २ गोसाले मखलिपुत्ते चउव्वीसवासपरियाए हाहाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघपरिवुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरह, तए णं तस्स गोसा० मखलिपु. अन्नदा कदायि इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउन्भविस्था, तंजहा--साणे कलंदे कणियारे अच्छिद्दे अग्गिवेसायणे अज्जुन्ने गोमायुपुत्ते, तए ण ते छ दिसाचरा अढविहं पुत्वगयं मग्गदसमें स तेहिं २ मतिसहिं निज्जुहंति स०२ गोसालं मबलिपुत्ते उबहाइंसु, लए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्म महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेतणं सब्वेसि पाणाण भूयाणं जीवाणं सत्ताणं इमाई छ अणहक्कमणिजाई बागरणाई वागरेति, तं० लाभ अलाभं सुहं दुक्खं, जीवियं मरणं तहा । तए ण से गोमाले मंस्खलिपुत्ते तेण अ. टुंगरस महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावस्थीए नगरीए अजिणे जिणप्पलावी अणरहा भरहप्पलावी अ
AA
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प्राप्तिः
केवली केवलिप्पलावी असव्वन्नू सम्बन्नुप्पलावी अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरह (सूत्रं ५३९)॥ व्याख्या| ते काले अने ते समये श्रावस्ती नामे नगरी हती. वर्णन ते श्रावस्ती नगरीनी उत्तर-पूर्व दिशाए (ईशानकोणमा) कोष्ठक
१५शतके HIRE नामे चत्य हतुं. वर्णन. ते श्रावस्ती नगरीमा आजीविक मतनी उपासिका हालाहला नामे कुंभारण रहेती हती. ते ऋद्धिवाळी
उद्देशा
४॥१२६०॥ यावत्-कोइथी पराभव न पामे तेवी हती. तेणे आजीविकना सिद्धांतनो अर्थ (रहस्य) ग्रहण कर्यों हतो, अर्थ पूछयो हतो अने अर्थनो निश्चय कर्यों इतो. तेना अस्थिनी मज्ज। प्रेम अने अनुरागवडे रंगाएली हती. 'हे आयुष्मान ! आजीविकना सिद्धांतरूप अर्थ
तेज खरो अर्थ के अने तेज परमार्थ छ, बाकी सर्व अनर्थ -ए प्रमाणे ते आजीविकना सिद्धांतवडे आत्माने भावित करती विहहैरती हती. ते कालेअने ते समये चोवीश वर्षना दीक्षा पर्यायवाळो मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला नामे कुंभारणना कुंभकारापण
हाटमा आजीविकाना संघवडे परिवृत थई आजीविकना सिद्धांतबडे आत्माने भावित करतो विहरे ने. ते वखते ते मंखलिपुत्र गोशालकनी पासे अन्य कोई दिवसे आ छ दिशाचरो आव्या. ते आ प्रमाणे १ शान, २ कलंद, ३ कर्णिकार, ४ अछिद्र, ५ अग्निवेश्यायन अने ६ गोमायुपुत्र अर्जुन. त्यार पछी ते छ दिशाचरोए पूर्वश्रुतमां कहेला आठ प्रकारना निमिन, (नवमा) गीतमार्ग अने दशमा नृत्यमार्गने पोतपोतानी मतिना दर्शनवडे (पूर्वश्रुतमाथी) उद्धरी मंखलिपुत्र गोशालकनी (शिष्यमावे) आश्रय कर्यो. त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालक ते अष्टांग महानिमित्तना कइंक (स्वल्प ) उपदेशवडे सर्व प्राणीओ, सर्व भूतो, सर्व जीवो अने सर्व सत्वोने आ छ बाबतना अनतिक्रमणीय-अन्यथा न थाय तेवा उत्तर आपे ,ते छ बारत आ प्रमाणेः-तेस १ लाभ, २ अलाभ, ३ सुख, दुःख, ५ जीवित अने ६ मरण. त्यार पछी ते मखलिपुत्र गोशालक अष्टांग महानिमित्तना कोइक एवा उपदेशमात्रवडे श्रावस्ती |51
NAAD
NAGALAN
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व्याख्याप्रशतिः ॥१२६१ ॥
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नगरीमा अजिन छतां 'हूँ' जिन छु' एम प्रलाप करतो, अर्हत् नहि छतां 'हु' अर्हत् छु' एम मिथ्या बकवाद करतो, केवली नहि छतां 'हुं केवली छु' एम निरर्थक बोलतो, सर्वज्ञ नहि छतां 'हुं सर्वज्ञ छु' एम मिथ्या कथन करतो अने अजिन छतां जिन शब्दनो प्रकाश करतो विचरे थे. ॥ ५३९ ॥
तएण सावस्थी नगरीए सिंघाडगजाब पहेसु बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खह जाव एवं परूवेति एवं | म्बलु देवाणुपिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिण पलाबी जाव पगासेमाणे विहरति, से कहमेयं मने एवं १, तेण कालेणं २ सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतवासी इंदभूतीणामं अणगारे गोयमगोतेणं जाब छछट्ठेणं एवं जहा वितियसए नियंडुद्देसर जाव अडमाणे बहुजणमद्द निसामेति, बहुजणो अन्नमन्नस्स एयमाइक्खड़ ४ एवं स्वलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्त अजिणे जिणपलावी जाव पगासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं ?, तर णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म जान जाग्रसड्डे जाव भत्तपाणं पडिदंसेति जाब पज्जुवासमाणे एवं व० एवं खलु अहं भंते । तं चैव जाव जिणसद्दं पगासेमाणे विहरति से कहमेयं भंते! एवं तं इच्छामि णं भंते । गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उद्वाणपरियाणियं परिकहियं, गोयमादी समणे भगवं महाबीरे भगवं गोषमं एवं बयासी जपणं गोधमा से बहुजणे अमनस्स एवमाइकखइ ४ एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरइ तरणं मिच्छा, अहं पुण गोगमा । एवमाइक्वामि जाव परूबेमि एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलि
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१५ शतके
उद्देशः १ ।।१२६१#
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१५शतके
उमेशा ॥१२६॥
न्याया
नाम मंखे पिता होत्था, तस्स गं मखलिस्स मखस्स भदानाम भारिया होत्था सुकुमाल जाच पडिरूवा, तए प्राप्तिःणं सा भद्दा भारिया अन्नदा कदायि गुब्धिणी यावि होत्था, लेणं कालेणं २ सरवणे नामं सनिवेसे होत्था रिद्ध॥१२३२॥ थिमिए जाव सन्निभप्पगासे पासादीए ४, तत्थ णं सरवणे सनिवेसे गोबहुले नामं माहणे परिवसति अड्डे जाव
अपरिभूए रिउब्वेद जाव सुपरिनिहिए यावि होत्या, तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला यावि होत्या, तए णं से मंग्वली मखे नाम अन्नया कयाइ भदाए भारिपाए गुब्बिणीप सद्धिं चित्तफलगहत्थगए मखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुन्धि चरमाणे गामाणुगाम दुइजमाणे जेणेव सरवणे सन्निवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उवा० २ गोबहुलस्स माणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेति भंड.२ सरवणे सन्निवेसे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस भिक्खायरियाए अडमाणे बसहीए सब्दओ समंता मग्गणगवे सणं करेति वसहीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणे अन्नत्य वसहिं अलभमाणे तस्सेव गोचहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेससि वासावासं उवागए, तए ण सा भद्दा भारिया नवण्हं मामाण बहुपडिपुत्राणं अट्ठमाण राईदियाणं वीतिकताणं सुकुमालजाब पडिरूवगं दारगं पयाया, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारममे दिवसे वीतिकंते जाव बारमाहे दिवसे अयमेयारूवं गुण्णं गुणनिष्फन नामधेज़ क०-जम्हाणं अम्हं | इमे दारए गोबहुलस्स माहणस्म गोसालाए जाए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेजं गोसाले गोसालेत्ति, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज करेंति गोसालेति, लए ण से गोसाले दारए उम्मुक्कपालभावे
EKAR
उनक
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प्राप्ति ॥१२६१॥
२६॥
BREAKISHORS
विण्णायपरिणयमेत जोव्वणगमणुप्पत्ते सयमेव पाडिएक चित्तफलगं करेति सयमेव चित्तफलगहत्थगए मंखत्तिणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति ( सूत्रं ५४०)॥
त्यार बाद श्रावस्ती नगरीना श्रृंगाटकना आकारवाळा त्रिक अने यावत्-राजमार्गाने विषे घणा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे | S के, यावत्-एम प्ररूपे छ के 'हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे खरेखर मंखलिपुत्र गोशालक जिन थईने पोताने जिन कहेतो, यावत्जिन शब्दनो प्रकाश करतो विचरे छे, तो ए प्रमाणे केम मानी शकाय? ते काले ते समये महावीर स्वामी समोसर्या; यावत्पर्षदा (वांदीने) पाछी गइ. ते काले-ते समये श्रमणभगवंत महावीरना ज्येष्ठ अंतेवासी [शिष्य ] गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामे | अनगार यावत्-छट्ठ छट्ठने पारणे-इत्यादि बीजा शतकना निर्ग्रन्थ उद्देशकमां कया प्रमाणे यावत्-गोचरी माटे फरता घणा माण| सोनो शब्द सांभळे के, घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे के के, 'हे देवानुप्रिय ! खरेखर मखलिपुत्र गोशालक जिन थईने में पोताने जिन कहेतो, यावत्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो विचरे छे, तो ए प्रमाणे केम मानी शकाय' ? त्यार बाद भगवान् गौतम घणा माणसो पासेथी आ वात सांभळीने अने अवधारीने श्रद्धावाळा थई यावत्--भातपाणी देखाडी यावद-पर्युपासना करता आ प्रमाणे चोल्या-'ए प्रमाणे खरेखर हे भगवान् ! 'हुँ छ? छट्ठने पारणे इत्यादि पूर्वोक्त कहेवू, यावत्-ते गोशालक जिन शब्दनो प्रकाश करतो विहरे के, तो हे भगवान् ! ए प्रमाणे केम होय ? माटे हे भगवान् ! मंखलिपुत्र गोशालकनो जन्मथी आरंभीने अन्त सुधीनो आपनाथी कहेवायेलो वृत्तान्त सांभळवा इच्छु छु,' 'हे गौतम! ए प्रमाणे कही श्रमण भगवान् महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कह्यु-हे गौतम ! जे घणा माणसो परस्पर आप्रमाणे कहे छे के ए प्रमाणे खरेखर मंखलिपुत्र गोशालक जिन थइने बने पोताने
CASA%A5
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ब्याख्याप्राप्ति ॥१२३४॥
www.kobatirth.org जिन कहेतो यावत् अन्दनो प्रकाश करतो विचरे छे, ते मिथ्या-असत्य छे.' हे गोतम ! हुँ आ प्रमाणे कई छु, यावत्-प्ररूपु छु'ए प्रमाणे खरेखर आ मंखलिपुत्र गोशालकनो मंखलिनामे मंखजातिनो पिता हतो. ते मंखलिनामे मखने भद्रा नामे खी हती. ते सुकुमाल हाथ
१५शतके
उशा | पगवाळी, यावत् प्रतिरूप सुदर हती. त्यारवाद ते भद्रा नामे स्त्री अन्य कोई दिवसे गर्भिणीथइ. ते काले अने ते समये सरवण नामे
६।१२६॥ गाम हतुं. ते ऋद्धिवाळ, उपद्रवरहित, यावत् देवलोक समान प्रकाशवाळु अने मनने प्रसन्नता आफ्नार हतुं. ते सरवण नामे गामने विषे गोबहुल नामे ब्राह्मण रहे तो हतो. ते धनिक, यावत् कोइथी पराभव न पामे तेवो अने ऋग्वेद इत्यादि यावत् ब्रामणना शास्त्रोन विषे निपुण हतो. ते गोबहुल ब्राह्मणने एक गोशाला हती. ते वखते ते मंखलि नामे मंखभिक्षाचर अन्य कोइ दिवसे गर्भिणी एवी भद्रा नामे स्त्री साथे चित्रनुं पाटीउं हाथमा लइ मिक्षाचरपणावडे आत्माने भावित करतो अनुक्रमे विचरतो एक गामथी बीजे गाम जतो ज्यां सरवण नामे सनिवेश-प्राम छे अने ज्यां गोबहुल नामे ब्राह्मणनी गोशाला छे त्यां आव्यो; त्यां| आवीने गोबहुल नामे ब्राह्मणनी गोशालाना एक भागमा पोतानुं राचरचीखें मूक्युं, मूकीने सरवण नामे गाममा उच्च, नीच अने मध्यम कुळना घर समुदायमां मिक्षाचर्या माटे फरतो रहेवा माटे चोतरफ स्थाननी गवेषणा करवा लाग्यो, चोतरफ गवेषणा करतां कोई पण स्थळे रहेचानुं स्थान नहि मळता तेणे गोबहुल ब्राह्मणनी गोशालाना एक भागमा वर्षाऋतु माटे आवास कर्यो. ते वखते ते भद्रानामे स्त्रीए पूरा नवमास अने साडासात दिवस वित्या पछी सुकुमालहाथपगवाळा अने यावत् सुन्दर एवा पुत्रने जन्म आप्यो. त्यार बाद ते बाळकना माता-पिताए अगियारमो दिवस वीत्या पछी यावद्-बारमे दिवसे आ आवा प्रकारचें गुणयुक्त अने गुण| निष्पन्न नाम पाडयु. कारण के 'आ चाळक गोबहुलनामे ब्राह्मणनी गोशालामा उत्पन्न थयो छे, ते माटे आ बाळकनुं नाम
नरव
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प्राप्ति ॥१२६५॥
का १५शतके
उदेशा ॥१२३५॥
मोशालक हो'-एम विचारी मातापिताए ते बाळकन 'गोशालक' ए, नाम पाडगुं. त्यार बाद ते गोशालक नामे बाळक बाल्यावस्थानो त्याग करी विज्ञानवडे परिणतमतिवाळो थइ यौवनने प्राप्त थयो अने पोतेज स्वतंत्र चित्रपट हाथमां लइ मंखपणावडे आत्माने मावित करतो विहरवा लाग्यो. ॥ ५४० ॥ । तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! तीसं वासाई आगारवासमझे वसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बइए, तए णं अहं गोयमा! पढम वासावासं अद्धमासंअद्धमासेणं खममाणे अट्ठियगामं निस्साए पढम अंतरावासं वासावासं उवागए, दोच्चं वासं मासंमासेणं खममाणे पुब्वाणुपुन्धि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालिंदा बाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि ते १ अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हामि अहा.२ त्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए, तए णं अहं गोयमा! पढम मासखमणं उवसंपन्जित्ता णं विहरामि । तए ण से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुब्बाणुपुचि चरमाणे जाव दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालिंदा बाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ ते०२ |त्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेति भं.२ रायगिहे नगरे उच्चनीय जाव अनत्य कत्थवि वसहिं अलभमाणे तीसे य तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए।
ते काले अने ते समये हे गौतम ! में त्रीस वर्ष सुधी गृहवासमा रहीने मातापिता देवगत थया पछी ए प्रमाणे (आचारां
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॥१२६६।।
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गना बीजा श्रुतस्कंधना पंदरमा ) भावना अध्यनने विषे कशा प्रमाणे 'मातापिता जीवता दीक्षा नहि लर्ड' आवो अभिग्रह पूर्ण | थयो जाणी सुवर्णनो त्याग करी, बलनो त्याग करी- इत्यादि यावत्-एक देवद्रुष्य वस्त्रने ग्रहण करी मुंड-दीक्षित थईने गृहस्थावासमो त्याग करी प्रव्रज्यानो स्वीकार क्यों. ते बखते हे गौतम! हुं पहेला वर्धने विषे अर्धमास अर्धमासक्षमण करतां अस्थिग्रामनी निश्राए प्रथम वर्षाकालमा रहेवा माटे आव्यो, बीजा वर्षे मासक्षमण करतां करतां अनुक्रमे विहार करतां, एक गामथी बीजे गाम जतां ज्यां राजगृह नगर छे, ज्यां नालंदानो बाह्य भाग छे अने ज्यां तंतुवाय-वणकरनी शाला छे त्यां आग्यो, आवीने यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करी तंतुवायनी शालाना एक भागमां वर्षाऋतुमा रह्यो त्यार बाद हे गौतम! हुं प्रथम मासक्षमणनो स्विकार करी विहरखा लाग्यो. ते समये मंखलिपुत्र गोशालक चित्रपट हाथमां ग्रहण करी मंखपणा वडे - भिक्षाचरपणावडे आत्माने भावित करतो अनुक्रमे विचरतो, यावत्-एक गामथी बीजे गाम जतो ज्यां राजगृह नगर छे, ज्यां नालंदानो बाह्य भाग छे अने ज्यां वणकरनी शाला छे त्यां आग्यो, त्यां आवीने तंतुवायनी शालाना एक भागमां राचरचीलुं मूकयुं. मूकीने राजगृह नगरमा उच्च नीच अने मध्यम कुळमां आहारने माटे जतो, यावत्-बीजे क्यांड पण वसति नहि मळतां ते तंतुवायनी शालाना एक मागमां ज्यां हुं रहेलो हतो त्यां वर्षाऋतुमा रहेवा माटे आव्यो.
तर अहं गोयमा ! पदममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्वमामि तंतु० २ णालंदावाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवा० २ रायगिहे नगरे उच्चनीय जाव अहमाणे विजयस्स गा. हावइस्स हिं अणुपत्रिद्वे, तए णं से विजए गाहाबती ममं एजमाणं पासति २ हतुः खिप्पामेव आसणाओ
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१५ फे उद्देशः १ | ।। १२६६॥
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११२६७॥
॥१२६७७
अन्मुढे खि०५ पायपीढाओ पच्चोरुहइ २ पाउयाओ ओमुयह पा०२ एगसाडियं उत्तरासंग करेति अंजलिमउलि| यहत्थे ममं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ२ मम तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २ ममं वंदति नमंसति २ मम विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेस्सामित्तिक? तुपडि लाभेमाणेवि तुट्टे पडिलाभितेवि तुहे, तए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दब्वसुद्धेणं दायगसुद्धणं तवस्सिविसुदेणं तिकरणसुद्धेणं] पडिगाहगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध संसारे परित्तीकए गिर्हसि य से इमाई पंच | दिव्वाई पाउन्भूयाई, तंजहा- वसुधारा बुट्ठा १ दसवन्ने कुसुमे निवातिए २ चेलुक्खेवे कए ३ आहयाओ देवदुंदुभीओ ४ अंतरावि य णं आगासे अहो दाणे •त्ति घुढे देवेहिं ५, लए णं रायगिहे नगरे सिंघाडगजाब पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खा जाब एवं परूवेह-धन्ने णं देवाणुप्पिया! विजए गाहावती, कयत्थे णं देवाणुपिया विजये गाहावई, कयपुग्नेणं देवाणुप्पिया! विजए गाहावई, कपलक्खणे णं देवाणुप्पिया! विजये गाहाचई, कया णं लोया देवाणुप्पिया विजयस्स गाहावइस्त, सुलद्धे णं देवाशुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले विजय.
स्स गाहावहस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंच दिव्वाइं पाउन्भूयाई, मातंजहा-वसुधारा बुट्टा जाब अहो दाणे २ धुढे, तं धन्ने कयस्थे कयपुग्ने कयलक्खणे कया णं लोया सुलढे माणु|स्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स विज.२।
त्यार वाद हे गौतम ! हु प्रथम मासक्षमणना पारणाने दिवसे तंतुवायनी शालाथकी बहार नीकळी नालंदाना बहारना भागना
AAS
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व्याख्या प्राप्तिः
www.kobatirth.org मध्य भागमा थई ज्यां राजगृह नगर के त्या आव्यो. राजगृह नगरमा उच्च, नीच अन मध्यम कुळमां यावत्-आहार माटे फरता में | विजयनामे गाथापतिना घरमा प्रवेश कयों. ते वखते ते विजयनामे गाथापतिए मने आवतां जोयो, मने आवता जोईने प्रसन्न
जा१५शतके
उदेश | अने संतुष्ट थइ ते तुरत आसनथी उठ्यो, उठीने जल्दी सिंहासनथी उतरी पादुकानो त्याग करी एक साडीवाल्लं उतरासंग करी,
६।१२६८० अंजलिवडे हाथ जोडी सात आठ पगलां मारी सामो आव्यो, मारी सामो आवीने मने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, वंदन अने नस्मकार कर्या. वंदन अने नमकार करी 'मने पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारथी प्रतिलाभिश-सत्कारीश'-एम विचारी ते संतुष्ट थयो, प्रतिलाभतां पण संतुष्ट थयो, प्रतिलाम्या बाद पण संतुष्ट थयो, अने त्यार पछी ते विजयगाथापतिए द्रव्यनी शुद्धिथी, दायकनी शुद्धिथी अने पात्रनी शुद्धिथी तथा त्रिविध-मन, वचन, कायानी शुद्धिथी अने त्रिकरण शुद्धिथी दानवडे मने प्रतिलाभवाथी देवतुं आयुष बांध्यू, संसार अल्प को अने तेना घरमां आ पांच दिव्यो प्रगट थयां, ते आ प्रमाणे-१ वसुधारानी | दृष्टि, २ पांच वर्णना पुष्पोनी वृष्टि, ३ बजारूप वस्त्रनी वृष्टि, ४ देवदुंदुभिनु वागवू अने ५ आकाशने विषे 'आश्चर्यकारी दान,
आश्चर्यकारी दान'-एवी उत्घोषणा. त्यार बाद राजगृह नगरमा शृंगाटक-त्रिकमार्ग, यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्रप एम कहे , यावत् एवी प्ररूपणा करेके के 'हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति धन्य के, हे देवानुप्रिय! विजयगाथापति कृतार्थ छे,
हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति पुण्यशाली छे, हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति कृतलक्षण छे, हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापतिना A उभय लोक सार्थक छे अने विजयगाथापतिनुं मनुष्यसंबन्धी जन्म अने जीवितर्नु फल प्रशंसनीय छ, जेना घरने विषे तेवा प्रकारना
साधु-उत्तम अने सौम्य आकारवाला-श्रमणने प्रतिलाभवाथी आ पांच दिव्यो प्रगट थयां; ते पांच दिव्यो आ प्रमाणे-१ वमु-13
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१५चतके
व्याख्या
प्रवप्ति ॥१२६९॥
AASPatil
घारानी वृष्टि, यावत ५ 'आश्चर्यकारी दान, आश्चर्यकारी दान'-एवी उद्घोषणा. ते माटे से धन्य छे, कृतार्थ छे, कृतपुण्य के, कृतलक्षण के अने तेना बन्ने लोक सार्थक छे, तेमज विजयगाथापतिनु मनुष्यसंबन्धी जन्म अने जीविजन फर प्रशंसनीय छे.'
| उदेवार लए से गोसाले मखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव उवागच्छद तेणेव०२ पासह विजयस्स गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं वुटुं दसवन्नं कुसुमं निवडियं ममं च णं विजयस्स गाहावइस्स गिहाओ पडिनिक्खममाणं पासति २ हट्ठतुढे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवाग०२ ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ ममं वं० नमं० २ ममं एवं बयासी-तुज्झे णं भंते ! ममं धम्मायरिया, अहन्नं तुझं धम्मंतेवासी, तए णं अहं गोपमा! गोमालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम8 नो आढामि नो परिजाणामि तुसिपीए संचिट्ठामि, तर णं अहं गोयमा! रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमामि प० २ णालंद बाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवा० २ दोच्चं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, तए णं अहं गोयमा! दोच्चं मासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि तं. २ नालंदं बाहिरियं मज्झमझेणं जेणेव रायगिहे नगरे जाव अडमाणे आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्प विहे, तए णं से आणंदे गाहावती ममं एजमाणं पासति एवं जहेव विजयस्स नवरं मम विउलाए खजगविहीए पडिलाभेस्सामीति तुट्टे सेसं तं चेव जाव तचं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि,
त्यार बाद ते मंखलिपुत्र गोशालक घणा माणसो पासेथी आ वात सांभळी, अवधारी जेने संशय अने कुतूहल उत्पन्न थया छेहूँ
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H
१५वाव
व्याख्याप्राप्ति ॥१२७०॥
उशा ५॥१२७००
एवो ते विजयगृहपतिना घेर आग्यो. आवीने तेणे विजयगृहपतिना घरने विषे वर्षेली वसुधारा, नीचे पडेला पांच वर्णोना पुष्पो, तथा परथी बहार नीकळतां मने अने विजयगृहगतिने जोगा; जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थइ ते गोशालक ज्यां हु हतो त्यां आध्यो, त्यां आवी मने प्रणवार प्रदक्षिणा करी, वंदन अने नमस्कार करी तेणे या प्रमाणे का 'हे भगवान! तमे मारा धर्माचार्य छो अने हुं तमारो धर्मशिष्य छु.' ते वखते हे गौतम ! में मंखलिपुत्र गोशालकनी आ वातनो आदर न कर्यो, तेम स्वीकार न कयों परन्तु हुं मौन रह्यो. त्यार बाद हे गौतम ! हुं राजगृह नगर थकी नीकळी नालंदाना बहारना मध्य भागमा थई ज्यां तंतुवायनी शाला छे त्यां आव्या, त्यां आवी बीजा मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो. त्यार पछी हे गौतम ! बीजा मासक्षमणना पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी नीकळी नालंदाना बहारना मध्य भागमा थई ज्यां राजगृह नगर छे त्यां यावद भिक्षा माटे जतां आनंदगृहपतिना घेर प्रवेश कों. त्यार बाद ते आनंदगृहपति मने आवतो जोई-इत्यादि बधो वृत्तांत विजयगृहपतिनी पेठे [० ३.] जाणवो, परन्तु एटलो विशेष छे के 'मने अनेक प्रकारनी भोजन विधिर्थी प्रतिलामिश-एम विचारी ते आनंदगृहपति संतुष्ट थयो-इत्यादि बाकीर्नु वृत्तान्त पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत्-हुं त्रीजा मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो.
तए णं अहं गोयमा! तच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवापमालाओपडिनिक्खमामि तं.२ तहेव जाव अ. डमाणे सुणंदरस गाहावइस्स गिहं अणुपविटे, तए णं से सुणंदे गाहायती एवं जहेव विजयगाहादती नवरं मम सब्धकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलामेति सेंसं तं चेव जाब चउत्थं मासरखमणं उवसंपनित्ताणं विहरामि, तीसे णं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते एत्य णं कोल्लाए नाम सन्निवेसे होत्था सन्निवेसवनओ, तत्थ णं को
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ल्लाए संनिवेसे बहुले नाम माहणे परिवसह अड्डे जाव अपरिभूए रिउब्वेयजावमुपरिनिहिए याचि होत्या, तए णं भारया- से बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासियपाडिवगंसि विडलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमपणेण माहले आयामेत्था, तए
१५शतले अंबई गोवमा! चउत्थमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालामो पडिनिक्खमामि तं०२ गालंद बाहिरियं मन्झं
दाउद्देशा
॥१२७१० मज्झेणं निग्गच्छामि नि० २ जेणेव कोल्लाए संनिवेसे तेणेव उवागच्छामि २ कुल्लाए सन्निवेसे उच्चनीय. जाव अडमाणे बहुलस्स मारणस्म गिहं अणुप्पविटे, तर णं से बहुले माहणे मम एजमाणं तहेव जाव ममं विउलेणं महुघयसंनुत्तेणं परमन्नणं पडिलामेस्सामीति तुट्टे सेसं जहा विजयस्स जाव बहुले माहणे बहु ।
त्यार वाद हे गौतम ! में त्रीजा मासक्षमणना पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी बहार नीकळी यावत्-मिक्षाए जतां सुनन्द| गृहपतिना घेर प्रवेश को. त्यार बाद ते मुनन्दगृहपतिए-इत्यादि सर्व वृत्तांत विजयगृहपतिनी पेठे (सू० ३) जाणवी, परन्तु एटलो विशेष छे के तेणे मने सर्वकामना गुणयुक्त भोजनवडे प्रतिलाम्यो, वाकीनें बधु पूर्व प्रमाणे जाणवू. त्यार पछी हुं चोथा मास. क्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो. हवे ते नालंदाना बहारना भागथी थोडे दूर एक कोल्लाक नामे सभिवेश हतो. अहीं सन्निवेशनुं वर्णन जाणवू, ते कोल्लाक सन्निवेशने विषे बहुल नामे ब्राह्मण वसतो हतो. ते धनिक, यावत्-कोइथी पराभव न पामे तेवो इतो. ते ऋग्वेद-इत्यादि बामणोना शास्त्र तथा रीत-रीवाजमां कुशळ हतो. त्यार बाद ते बहुल नामे ब्राह्मणे कार्तिक चातुर्मासनी
प्रतिपदने विषे पुष्कळ मधु-खांड अने घी संयुक्त परमान-धीरवडे ब्राह्मणोने जमाल्या. ते वखते हे गौतम ! हुँ चोथा मासक्षमणना & पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी नीकळी नालंदाना बहारना मध्यभागमां थई ज्यां कोल्लाक नामे सनिवेश हतो त्या आन्यो,
लन
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उदेश १२७२॥
त्यां आधी कोलाक सनिवेशने उच्च, नीच अने मध्यम कुळमां यायत्-भिक्षाचर्याए जतां मे बहुल ब्राह्मणना घेर प्रवेश कर्यो. त्यार व्याख्या
| पछी ते बहुल ब्रामणे मने आवतां जोयो-इत्यादि पूर्व प्रमाणे कहे, यावत्-'मने मधु अने घृत संयुक्त परमानवडे प्रतिलाभीश' | प्राप्ति २२७शाला एम पारी ते संतुष्ट थयो बाकी बधु विजयगृहपतिनी पेठे (मू० ३) जाणवू, यावद-'बहुल ब्राह्मण धन्य छे.
तए णं से गोसाले मंस्खलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए अपासमाणे रायगिहे नगरे सभितरवाहिरियाए ममं सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेति ममं कत्थवि सुतिं वा खुति वा पवत्ति वा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवा० २ साडियाओ य पाडियाओ य कुंडियाओ य पाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेति आयामेत्ता सउत्तरोठं मुंडं कारेति स. २ तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमति तं० २ णालंदं बाहिरियं मज्झमज्झेणं निग्गच्छद निग्ग० २ जेणेव कोल्लागसन्निवेसे तेणेव उवागच्छद, तए णं तस्स कोल्लागस्स संनिवेसस्स बहिया बहिया बहुजणोअन्नमन्नस्स एवमाइक्वति जाव परूवेति--धन्ने णं देवाणुप्पिया! बहुले माहणे तं चेव जाव जीवियफले बहुलस्स माहणस्म ब.२, तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाय समुप्पजित्था-जारिसिया णं मम धम्मायरियस्म धम्मो. बदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स इडी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसकारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए नो खलु अत्थि तारिसिया णं अन्नस्स कस्सह तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्डी जुत्ती जाव प. रिकमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए तं निस्संदिद्धं च णं एस्थ ममं धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे
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व्याख्याप्रशतिः ॥१२७३॥
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भविस्सती तिकडु कोल्लागसन्निवेसे सभितरवाहिरिए ममं सव्वओ समता मग्गणगवेसणं करेइ ममं सवओ जाव करेमाणे कोल्लागसंनिवेसस्स बहिया पणियभूमीए भए सद्धिं अभिसमन्नागए, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हह्तुट्टे ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाय नमसित्ता एवं वयासी तुज्झे णं भंते! मम धस्मायरिया अहन्नं भंते! तुझं अंतेवासी, तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमहं पडिझुणेमि, नए णं अहं गोषमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि पणियभूमीए छब्बासाई लाभं अलाभं सुखं दुक्खं मक्कारमसकारं पचणुभवमाणे अणिञ्चजागरियं विहरित्था ( सूत्र ५४१ ) ॥
स्यारबाद मंखलिपुत्र गोशालके मने तन्तुवायनी शाळामां नहि जोवाथी राजगृह नगरनी बहार ने अंदर चोतरफ मारी गवेषणा तपास करी, परंतु मारी क्यांड पण श्रुति, क्षुति-शब्द के प्रवृत्ति नहि मळवाथी ज्यां तन्तुवायनी शाळा हती त्यां ते गयो, त्यां जईने तेणे शाटिका- अंदरना वस्त्रो, पाटिका उपरना वस्त्रो, कुंडीओ, उपानह - पगरखां अने चित्रपटने ब्राह्मणोने आपीने दाढी अने मुंछनुं मुंडन करायं. त्यारबाद तन्तुवायनी शाळा थकी नीकळी नालंदाना बाहेरना मध्य भागमां थई ज्यां कोल्लाक नामे सन्निवेश छे त्यां आव्यो. त्यारपछी कोलाक सभिवेशनां बहारना भागमां घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे ले के - 'हे देवानुप्रियो ! बहुल नामे ब्राह्मण धन्य हे' इत्यादि पूर्वे का प्रमाणे कहेतुं यावत्- 'बहुल ब्राह्मणनो जन्म अने | जीवितव्यनुं फळ प्रशंसनीय छे.' ते वखते घणा माणसो पासेथी आ बात सांभळीने अने अवधारीने मंखलिपुत्र गोशालकने आवा प्रकारनो आ विचार यावद - उत्पन्न थयो 'मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगावन महावीरने जेवी ऋद्धि, युति - तेज,
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१५ शतके उद्देवाः १
।। १२७३॥
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Thala
प्रचतिः ॥१२७४॥
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यश, बल, वीर्य अने पुरुषकार- पराक्रम लब्ध छे, प्राप्त थएल के सन्मुख धयेल छे, तेवा प्रकारनी ऋद्धि, सुति-तेज, यावत्पुरुषकार पराक्रम अन्य कोई तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने लब्ध प्राप्त के सन्मुख थएल नथी, ते माटे अवश्य अहिं मारा धर्माचार्य अने उपदेशक श्रमण भगवंत महावीर इशे'-एम विचारी ते कोल्लाक सन्निवेशनी बहार अने अंदर चोतरफ मारी मार्गणा | अने गवेषणा करवा लाग्यो. चोतरफ मारी गवेषणा करतां कोल्लाक सन्निवेषना बहारना भागमां मनोज्ञ भूमिने विषे ते मने मल्यो त्यारबाद ते मंखलिपुत्र गोशालक प्रसन्न अने संतुष्ट थई मने श्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत्-नमस्कार करी आ प्रमाणे बोल्यो— 'हे भगवन् ! तमे मारा धर्माचार्य छो, अने हुं तमारो शिष्य छु'. त्यारे हे गौतम! में मंखलिपुत्र गोशालकनी ए वातने स्वीकारी. त्यारबाद हे गौतम! हुं मंखलिपुत्र गोशालकनी साथै प्रणीतभूमीने विषे छ वर्ष सुधी लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, सत्कार अने असस्कारनो अनुभव करतो अने तेनी अनित्यतानो विचार करतो विहखा लाग्यो । ५४१ ।।
लए णं अहं गोपमा ! अन्नया कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पबुद्धिकार्यसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि सिद्धत्थगामाओ नगराओ कुम्मार (कुम्भ) गामं नगरं संपट्टिए विहाराए, तस्स पणं सिद्धत्थस्स गामस्स नगरस्स कुम्मार (कुम्म) गामस्स नगरस्सय अंतरा एस्थ णं महं एगे तिल भए पत्तिए पुष्फिए हरियगरेरियमाणे सिरीए अतीव २ उवसोमेमाणे २ चिह्न, तप णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तं तिलथंभगं पासइ २ ममं वं० नम २ एवं वयासी-एस भंते! तिलभए किं निष्फज्जिस्सह नो निष्फज्जिस्थति १, पए व सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाहत्ता २ कहिँ गच्छि हिंति कहिँ उबवज्जिहिंति ?, तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी - गोसाला ! एस णं तिल भए
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२५ शके
उद्देशः१ ॥१२७४॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः १२७५।।
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निष्फजिस्सह, नो न निष्कज्जिस्सह, एए य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाहत्ता २ एयस्स चैव तिलयं भगस्स एगाए तिलसंगलिया सत्त तिला पञ्चायाइस्संति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयमहं नो सद्द हति नो पत्तियति नो रोएह एयमहं असदहमा अपत्तिय० अरोपमाणे ममं पणिहाए अयण्णं मिच्छावादी भवउत्तिकद्दु ममं अंतिगाओ सणियं २ पचोसकह २ जेणेव से तिल भए तेणेव उवा० २ तं तिलथंभगं सलेडुपायं चेव उपाडे उ० २ एगते एडेति, तक्खणमेतं च णं गोयमा । दिव्वे अन्भवद्दलए पाउन्भूए, तए णं से दिव्वे अभ बद्दलए स्विपामेव पतणतणावृति २ विध्यामेव पविञ्ज्याति २ खिप्पामेव नवोदगं णातिमहियं पविरलपफुसियं रेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति जेणं से तिलथंभए आसत्थे पञ्चायाए तथेव बद्धमूले तत्थेव पतिट्ठिए, ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता २ तस्सेव तिलथं भगस्स एगाए तिलसंगलियाए मत्त तिला पचायाया || (सूत्रं ५४२ ) ॥
त्यारबाद हे गौतम! अन्य कोई दिवसे प्रथम शरद काळना समयमां ज्यारे वृष्टि थती न होती त्यारे में मंखलिपुत्र गोशालकनी साथै सिद्धार्थ ग्रामनामे नगरथी कूर्मग्राम नामे नगर तरफ जवा माटे प्रयाण कर्यु, सिद्धार्थ ग्रामनामे नगर अने कूर्मग्राम नगरनी बच्चे अहिं एक मोटो तलनो छोड पत्रवाळो, पुष्पवाळो, हरितपणाथी अत्यंत शोभतो अने शोभा डे अत्यंत अधिक अधिक दीपतो हतो. हवे ते मंखलिपुत्र गोशालके ते तलना छोडने जोयो, जोईने मने वंदन अने नमस्कार करी आ प्रमाणे कां के 'हे भगवन् ! आ तलनो छोड नीपजशे के नहि नीपजे ? आा सात तलना पुष्पना जीवो मरी मरीने क्यां जशे अने क्यां उपजशे' १ हे गौतम! त्यारे
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१५ शतके
उद्देशः १ ॥१२७५॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१२७६ ।।
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मंखलिपुत्र गोशालकने में आ प्रमाणे कं-'हे गोशालक ! आ तलनो छोड नीपजशे, नहि नीपजे एम नहि, आ सात तलना पुष्पना जीवो मरीमरीने आज तलना छोडनी एक तलफडीने विषे सात तलरूपे उपजशे.' त्यारे ए प्रमाणे कहेतां मारी आ वातनी मंखलिपुत्र गोशाल के श्रद्धा, प्रतीति तेम रूचि न करी, आ वातनी श्रद्धा नहि करता, प्रतीति नहि करतां अने अरूचि करतां 'मारा निमित्ते आ मिथ्यावादी थाओ' - एम समजी मारी पासेथी घीमे धीमे गयो, अने ज्यां ते तलनो छोड छे, त्यां आवीने तेणे ते तलना छोडने माटी सहित मूळ्थी उखेडी नांख्यो, उखेडीने तेने एकान्ते मूक्यो. हे गौतम! तत्काळ ज आकाशमां दिव्य वादळ थयुं, अने ते दिव्य वादळ क्षण वारमा ज गर्जना करवा लाग्युं, एकदम वीजळी चमकत्रा लागी, अने तुरतज अत्यंत पाणी अने अत्यंत का थाय तेवा थोडा पाणीनां बिंदुवाळी, रज अने धूळने शांत करनार एत्री दिव्य उदकनी दृष्टि थई. (अथवा सीतादिक महानदीओना | पाणी जेवा पाणीनी वृष्टि थई.) जेथी करी ते तलनो छोड स्थिर थयो, विशेष स्थिर थयो, उग्यो अने बद्धमूल थई त्यां ज प्रतिष्ठित थयो. ते सात तल पुष्पना जीवो मरण पामी पामीने तेज तलना छोडनी एक तलफळीमां सात तलरूपे उत्पन्न थया, ॥ ५४२ ॥
तणं अहं गोमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुंडग्गामे नगरे तेगेव उवा०, तर णं तस्स कुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडुं बाहाओ | पगिझिय २ सूराभिमुद्दे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ, आइञ्चतेयतवियाओ य से छप्पईओ सब्बओ समता अभिनिस्सति पाणभूयजीव सत्तदयट्ट्याए च णं पडियाओ २ तत्थेव २ भुजो २ पञ्च्चोरुभेति, तर णं से गोसाले मंम्बलिपुत्ते वेसियायणं बालतबर्हिस पासति पा २ ममं अंतिपाओ सणियं २ पच्चोसक्कड़ ममं० २
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१५ शके
उद्देशः १ ॥१२७६॥
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जेणेव वेसियायणे बालतबस्सी तेणेव उवा० २ वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणिए | ब्बाख्या
का१५शतके उदाहुजूयासेन्जागरण, तए णं से वेसियायणे यालतवस्सी गोसालस्स मखलिपुत्तस्स एयमटुंणो आढाति नो प्राप्ति ११२७७॥
परियाणाति तुसिणीए संचिट्ठति, तए ण से गोमाले मंस्खलिपुत्ते वेसियायणं चालतवस्मि दोचंपि नचपि एवं 1 ॥१२७० वयासी-किं भवं मुणी मुणिए जाव सेबायरए, तए णं से वेसियायणे चालतवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तणं दोचपि तच्चपि एवं बुत्त समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयाषणभूमीओ पच्चोरुभति आ०२ तेयासमुग्धाएणं समोहनइ तेयाममुग्धाएणं समोहन्नित्ता सत्तट्ट पयाई पच्चोसकह म०२ गोसालस्स मंख लिपुत्तस्स वहाए सरीरगंसि तेयलेस्सं निसिरह, लए णं अहं गोयमा गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स अणुकंपणट्टयाए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्ठयाए एत्थ ण अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स चालतवस्सिस्स सीओसिणा तेयलेस्सा पडिहया, तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी
मम सीयलियाए तेयलेस्साए सीओसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स *किंचि आवाहं वा वायाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणि पासित्ता सीओसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ सीओ०२
मम एवं वयासी-से गयमेयं भगवं! से गयमेयं भगवं!, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं क्यासी-किण्णं भंते । एस जयासिज्जायरए तुझे एवं क्यासी?-से गयमेयं भगवं! गयगयमेयं भगवं!, तए णं अहं गोयमा। गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुम णं गोसाला! वेसियायणं पालतवस्सि पाससि पासित्ता ममं अंतियाओ
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प्राप्ति ॥१२७८॥
RECE
४॥१२७
CASSGNESS
तुसिणियं २ पच्चोसकसि जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छसि ते. २ वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणिए उदाहु जयासेन्जायरए ?, तए णं से वेसियायणे चालतवस्सी तव एवमटुं नो आढाति नो परिजाणाति तुसिणीए संचिट्ठइ, तए णं तुम गोसाला वेसियायणं चालतवस्सि दोचंपि तच्चपि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणिए जाव सेज्जायरए, तए णं से वेमियायणे बालतवस्सी तुम दोच्चपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव पञ्चोसकति प० २ तव वहाए सरीरगंसि तेयलेस्स निस्सरह, ताणं अहं गोसाला! | तव अणुकंपणट्ठयाए वेसियायणस्स बालतपस्सिस्स सीओसिणतेयलेस्सापडिसाहरणट्ठयाए एत्थ णं अंतरा सी. यलियतेथलेस्सं निमिरामि जाव पडिहयं जाणित्ता तब य सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकोरमाणिं पासेत्ता मीओमिणं तेयलेस्सं पडिमाहरति सी०२ ममं एवं वयामी-से गयमे यं भगवं ! गयगयमेयं | भगवं, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमढे मोच्चा निमम्म भीए जाव संजायभये ममं वंदति नमंमति मम २ एवं वयासी-कहन्नं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति?, ताणं अहं गोयमा! गोसालं मं| स्खलिपुत्तं एवं वयासी-जेणं गोसाला एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण ग वियडासएणं मुटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डे बाहाओ पगिज्झिय २ जाव विहरति से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमढे मम्म विणएणं पडिसुणेति (सूत्रं ५४३)॥
त्यारबाद हे गौतम ! हुं मखलिपुत्र गोशालकनी साथे ज्यां कूर्मग्राम नामे नगर छे त्यां आव्यो. ते वखते ते कूर्मग्राम नग
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|१५शतके
१५२
उद्देशा 5॥१२७९३
तारनी बहार वेश्यायन नामे बालतपस्वी नितर छ? छटुना तप करवावडे पोताना बन्ने हाथ उंचा राखी राखीने सूर्यना सन्मुख उभो ध्याख्या
रही आतापनाभूमिने विषे आतापना लेतो विहरतो हतो. सूर्यना तेजबडे तपेली युकाओ चोतरफथी नीकलती हती, अने ते सर्व प्रशतिः ॥१२७२॥
| प्राण, भूत, जीव अने सच्चनी दयाने माटे पडी गयेली ते यूकाओने पाछी त्यां ने त्यां मूकतो हतो. हवे ते मंखलिपुत्र गोशालके वेश्यायन नामे बालतपस्वीने जोयो, जोईने मारी पासेथी ते धीमे धीमे पाछो गयो. पाछो जईने ज्या बेश्यायन नामे बालतपस्वी हे त्यां आवी वेश्यायन नामे बालतपस्वीने ए प्रमाणे क[-'शु तमे मुनि छो के मुनिक-चपकेल छो, अथवा यूकाना शय्यातर छो' ? त्यारे ते वेश्यायन नामे बालतपस्वीए मस्खलिपुत्र गोशालाकना ए कथननो आदर अने स्वीकार को नहि, परन्तु मौन धारण कयु. त्यारबाद ते मखलिपुत्र गोशालके वेश्यायन नामे बालतपस्वीने बीजीवार अने त्रीजीवार पण ए प्रमाणे कडं के तमे मुनि | छो, चसकेल छो, के यूकाना शय्यातर छो' ? ज्यारे भंखलिपुत्र गोशालके बीजी वार अने त्रीजी वार ए प्रमाणे कयु त्यारे ते वश्यायन नामे चालतपस्वी एकदम कुपित थयो अने यावत्-क्रोधे धमधमायमान थई आतापनाभूमिथी नीचे उतर्यो. नीचे आवीने तेजःसमुद्घात करी सात आठ पगला पाछो खसी मंखलिपुत्र गोशालकना वधने तेणे शरीरमाथी तेजोलेश्या बहार काढी. त्यारबाद हे गोतम ! मखलिपुत्र गोशालकना उपर अनुकंपाथी वेश्यायन बालतपस्वीनी तेजोलेश्यान प्रतिसंहरण करवा माटे आ प्रसंगे में शीत तेजोलेश्या बहार काढी, अने मारी शीत तेजोलेश्याए वेश्यायन बालतपस्वीनी उष्ण तेजोलेश्यानो प्रतिघात कर्यो. त्यारपछी ते वेश्यायन बालातपस्त्रीए मारी शीततेजोलेश्याथी पोतानी उष्ण तेजोलेश्यानो प्रतिघात थयेलो जाणीने अने मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने कइ पण थोडी के वधारे पीडा अथवा अवयवनो छेद नहि करायेलो जोईने पोतानी उष्ण तेजोलेश्याने पाछी खेंची लीधी,
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॥१२८००
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Acharya Shri पोतानी उच्च तेजोलेश्याने पाछी खेंचीने ते आ प्रमाणे बोल्यो-'हे भगवन ! में बाण्यु, हे भगवन् ! में जाण्यु.' त्यारपछी मख
लिपुत्र गोशालके मने ए प्रमाणे कां के 'हे भगवन्! आ युकाना शय्यातर बालतपस्वीए आपने 'हे भगवन् ! में जाण्यु, हे प्राप्तिः १२८०॥
भगवन् ! में जाण्यु' --- एम शु का ? त्यारे हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालकने में आ प्रमाणे कयु के-हे गोशालक ! तें वेश्यायन बालतपस्वीने जोयो अने जोईने मारी पासेथी धीमे धीमे तुं पाछो गयो, पाछो जईने ज्यां वेश्यायन बालतपस्वी हतो त्यां गयो, अने त्यां जईने तें वेश्यायन बालतपस्वीने एम कह्यु के-'शुं तमे मुनि छो, चसकेल छो के यूकाना शय्यातर छो? तो पण वेश्यायन बालतपस्वीर तारा ए कथननो आदर-स्वीकार न कयों अने ते मौन रह्यो. त्यारवाद हे गोशालक! तें वेश्यायन बालत पस्वीने बीजीवार अने त्रीजीवार पण प प्रमाणे का के-'तमे मुनि छो, चसकेल छो के यूकाना शय्यातर छो? त्यारवाद ज्यारे तें बीजीवार अने त्रीजीवार पण ए प्रमाणे का एटले ते वेश्यायन बालतपस्वी गुस्से थयो, अने यावत्-पाछो जईने तारो वध करवा माटे तेयो शरीरमाथी तेजोलेश्या बहार काढी. त्यारपछी हे गोशालक ! में तारी दयाथी वेश्यायन बालतपस्वी तेजोलेश्यानु प्रतिसंहरण करवा माटे ए अक्सरे में शीत तेजोलेश्या मूकी, यावत् नेणे तेनी उष्ण तेजोलेश्या प्रतिघात थएली जाणीने अने तारा शरीरने कइ पण थोडी के वधारे पीडा अथवा अवयवनो बेद नहि करायेलो ओईने पोतानी उष्ण तेओलेश्या पाछी खेंची लीधी अने पाछी खेंचीने मने ए प्रमाणे का के-'हे भगवन् ! में जाण्यु, हे भगवन् ! में जाण्यु.' त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालक मारी
पासेथी आवात सांभळी, हृदयमा अवधारी भय याम्यो, यावत्-भयभीत थई मने वंदन अने नमस्कार करी आ प्रमाणे बोल्यो151 'हे भगवन् ! (अप्रयोगकाळे) संक्षिप्त अने (प्रयोगकाळे) विपुल तेजोलेश्या केम प्राप्त थाय? त्यारे हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालकने |
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में ए प्रमाणे कछु-'हे गोशालका जे नखसहित बाळेली अडदना बाकडानी मुठीवडे अने एक विकटाशय-एक चुलुक पाणीवडे नि- १५वास
रन्तर छडुछडुनो तप करी उंचा हाथ राखी राखीने यावत्-विहरे तो तेने छ मासने अन्ते [अप्रयोगकाळे] संक्षिप्त अने (प्रयोगकाळे) प्रति RREmविस्तीर्ण एवी तेजोलेश्या प्राप्त थाय'. त्यारपछी मंखलिपुत्र गोशालके मारा आ कथननो विनयवडे सारी रीते स्वीकार कयों.॥५४३॥॥१९८१॥
तए णं अहं गोयमा! अनदा कदाइ गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धिं कुम्मगामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं तनगरं संपट्टिए विहाराए, जाहे य मोतं देसं हव्वमागया जस्थ णं से तिल_भए, तर णं से गोसाले मंखलिपुत्ते
ममं एवं बयासी-तुज्झे णं भंते । तदा ममं एवं आइक्वह जाव परूवेह-गोसाला! एस ण तिलथंभए निप्फ|जिस्सइ ननिफजिस्सहतं चेव जाव पचाइस्संति तण्णं मिच्छा, इमं च णं पञ्चक्खमेव दीसह एस णं से तिल.
भए णो निष्फन्ने अनिष्फममेव, तेय सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता २ नो एयरस चेव तिलधंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया, तए णं अहं गोयमा। गोसालं मंस्खलिपुत्तं एवं वयासी-तुम णं गोसाला! तदा ममं एवं आइक्खमाणस्म जाच परवेमाणस्स एयमढनो साहसिनो पत्तियसि नो रोयपसि एयमढे असइहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मम पणिहाए अयन्नं मिच्छावादी भवउत्तिका ममं अंतियाओ सणियं २ पचोसकसि प०२ जेणेव से तिलथंभए तेणेच उचा. २ जाव एगतमंते एडेसि, तक्खणमेत्तं गोसाला! दिवे अम्भवहलए पाउम्भूए, तर णं से दिव्वे अब्भवलए खिप्पामेव तं चेव जाव तस्स चेव तिलथंभगस्स पगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पचायाया, तं एसणं गोसाला! से तिलथंभए निप्फले णो अनिष्फलमेव, ते य सत्त
MARRIA
च परूवेह-गोसाय गं से गोसाले हत्थगाम ।
फजीवा
मखलिपुरानो रोयपालसणिय
कल
सेणेव सायन्नं मिस नो पति यासीस एगा
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ब्याकयाप्रशसिः
॥१२८२॥
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तिलपुष्पजीवा उद्दाहत्ता २ एस्स चैवं तिलधं भस्म एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पचायाया, एवं खलु गोसाला ! वणस्सइकाइया पउट्टपरिहारं परिहरति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं पवमाइक्खमाणस्स जाब परूवेमाणस्स एयम तो सद्दहति ३ एयमहं असद्दहमाणे जाव अरोएमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवा० २ ताओ तिलधंभयाओ तं निलसंगलियं खुइति खुड्डिता करयलंसि सत्त तिले पष्फोडेह, तए णं तस्स गोसालस्स मंग्गलिपुत्तस्स ते सत्त तिले गणेमाणस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पलिस्था - एवं खलु सब्बजीबाबि पपरिहारं परिहरति, एस णं गोषमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउछे, एस णं गोयमा ! गोसालहल मंखलिपुसस्स ममं अंतियाओ आयाए अवक्रमणे पं० ( सूत्र ५४४ ) ॥
त्यारबाद हे गौतम! अन्य कोई दिवसे मंखलिपुत्र गोशालकनीं साथै कूर्मग्रामनगरथी सिद्धार्थग्रामनगर तरफ जवा माटे में प्रयाण कर्यु. ज्यारे अमे ज्यां ते तलनो छोड हतो ते प्रदेश तरफ तुरत आव्या त्यारे मंखलिपुत्रे गोशालके मने ए प्रमाणे क हे भगवन् ! तमे मने ते वखते ए प्रमाणे कधुं हतु, यावत् - एम प्ररूपं हतुं के ' हे गोशालक ! आ तलनो छोड नीपजशे, नहि नीपजे एम नहि इत्यादि यावत्-तलरूपे उपजशे' ते मिथ्या-असत्य थयुं. आ प्रत्यक्ष देखाय के के आ पेलो तलनो छोड उग्यो नथी, अने तेथी उग्या शिवाय ते सात तल पुष्पना जीवो मरण पामी पामीने आज तलना छोडनी एक तरफळीमां सात तलरूपे उत्पन्न थया नथी. त्यारपछी मंखलिपुत्र गोशालकने में ए प्रमाणे कछु के 'हे गोशालक ! ते वखते ए प्रमाणे कहेतां यावत्प्ररूपणा करता मारा ए कथननी तुं श्रद्धा करतो न होतो, प्रतीति करतो न होतो, रुचि करतो न होतो, ए कथननी श्रद्धा नहि करता,
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१५ फे उद्देशः १ ॥१२८२॥
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१५सके
प्रति ॥१२८३॥
/॥२२८॥
CBROKAR
प्रतीति नहि करता अने रुचि नहि करता मने आश्रयी-मारा निमित्ते आ मिथ्यावादी धाओं-एम समजी मारी पासेथी धीमे धीमे पाछो गयो, पाछो जईने ज्यां ते तलनो छोड हतो त्या आवी यावत्-तेने माटीसहित उखाडीने एकांते मृकयो. हे गोशालक! ते | वखते तत्क्षणमा आकाशमां दिव्य वादळ प्रगट थयु, त्यारवाद ते दिव्य पाणीनुं वादळ एकदम गर्जना करवा लाग्यु-इत्यादि यावत् ते तलना छोडनी एक तलफळीमा सात तलरूपे उत्पम थया के. ते माटे हे गोशालक! ते तलनो छोड निष्पन थयो छे, अनि. प्पम छ एम नथी. ते सात तलना पुष्पना जीवो मरीने आज तलना छोडनी एक तलफळीमा सात तलरूपे उत्पन्न थया के. ए प्रमाणे हे गोशालक! वनस्पतिकायिको मरीने प्रवल परिहारनो परिहार-उपभोग करे के. अर्थात्-मरीने तेज शरीरमा पुन: उपजे छे. त्यारपछी मंखलिपुत्र गोशालके ए प्रमाणे कहेतां यावत्-प्ररूपणा करता मारा आ कथननी श्रद्धा, प्रतीति अने रुचि न करी, आ कथननी अश्रद्धा, यावत्-अरुचि करता ज्या ते तलनो छोड हतो त्या जईने तेणे ते तलना छोडथी ते तलनी तलफळीने तो. डीने हस्ततळमा मसळी सात तल बहार काढया. त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालकने ते सात तलने गणतां आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न भयोके 'ए प्रमाणे खरेखर सर्व जीवो पण प्रवृत्त परिहार परिहारे छे.' अर्थात्-मरीने तेज शरीरमा उत्पन थाय के. हे गौतम! मंखलिपुत्र गोशालकनो बा परिवर्तवाद के. अने हे गौतम! मारी पासेथी (तेजोछेश्यानो उपदेश) ग्रहण करीने | मंखलिपुत्र गोशालकर्नु आ अपक्रमण (जुदा पड) के.॥५४॥
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छटुंण्टेणं अनिविखतेणं तपोकम्मेणं उबाहामो पगिझिय २ जाब बिहरह, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अंतो छहं मासाणं
VORCHES
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उदेवार MERem
संखिसविउलतेयलेसे जाए (सूत्रं ५४५)॥ व्याख्या
त्यारपछी मंखलिपुत्र मोशालक नखसहित एक अडदना बाकुळानी मुठीवडे अने एक विकटाशय-चुलक पाणीवडे निरन्तर ॥१२८॥द छह छडनो तप करी उंचा हाथ राखी राखीने विचरे के. स्यारवाद ते मंखलिपुत्र गोशालकने छ मासने अन्ते संक्षिप्त अने विपुल
तेजोलेश्या उत्पन्न थई. ॥५४५॥ | तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नगा कयावि हमे छहिसाचरा अंतिय पाउन्भविस्था, तं० साणो तं चेव सवं जाव अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरति, तं नो खलु गोयमा ! गोसाले मस्खलिपुत्ते जिणे, जिगप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, गोसाले णं मखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरइ, तए णं सा महतिमहालया महवपरिसा जहा सिवे जाव पडिगया । तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाड| गजाव बहुजणो अनमन्नस्स जाव परूवेह-जन्नं देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव बिहरहतं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खा जाब परूवेह-एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नाम मंखे पिता होस्था, तए णं तस्स मखलिस्स एवं चेव तं सब्वं भाणियब्वं जाव अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरह, तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव विहरह, गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे
जिणप्पलावी जाव विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणऽपलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, तए शाण से गोसाले मंखलिपुत्त बहुजणस्स अंतियं एयमह सोचा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावण-15
करुन
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ब्याख्या
२२८५॥
Reshwar+RE
|भूमीओ पच्चोरुहइ आयावणभूमीओ पञ्चोकहहत्ता सावत्थि नगरि मज्झमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए १५३तके | कुंभकाराबणे तेणेव उवागच्छइ तेणे०२ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावगंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे महया ||
उद्देशः१ | अमरिसं वहमाणे एवं वावि विहरह (सूत्रं ५४६)॥
५॥१२८५॥ | त्यारपछी ते मखलिपुत्र गोशालकने अन्य कोई दिवसे आ छ दिशाचरो आवी मळ्या. तेना नाम आ प्रमाणे--१ ज्ञान-इत्यादि | सर्व पूर्वोक्त यावत्-जिन नहि छतां जिनशब्दने प्रकाशित करतो ते विहरे छे' त्यां मुधी कहे. माटे हे गौतम ! मखलिपुत्र गोशा लक खरी रीते जिन नथी, परंतु जिननो प्रलाप करतो, यावात्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो विहरे छे. मंखलिपुत्र गोशालक अजिन के. तो पण पोताने जिन कहेतो यावद्-जिन शब्दनो प्रकाश करतो ते विहरे के. त्यारबाद अत्यन्त मोटी पर्षदा शिवरा जर्षिना चरित्रने विषे कहुं छे तेम वांदीने पाछी गइ. त्यारपछी श्रावस्ती नगरीमा शृंगाटक-त्रिक मार्ग, यावत-राजमार्गमा घणा माणसो परस्पर यावत्-प्ररूपणा करे के के हे 'देवानुप्रियो । मंखलिपुत्र गोशालक जिन थई जिननो प्रलाप करतो यावत् विहरे के,
ते मिथ्या-असत्य छे. श्रमण भगवान महावीर एम कहे , याबद्-प्ररूपे छे के ए प्रमाणे खरेखर ते मंखलिपुत्र गोशालकने मंखलीनामे द मंख (भिक्षाचरविशेष) पिता हतो. हवे ते मंखलिने-इत्यादि सर्व यावत्-जिन नहि छतां जिन शब्दनो प्रकाश करतो विहरे से त्यां|
सुधी कहे. ते माटे मंखलिपुत्र गोशालक जिन नथी, परन्तु जिननो प्रलाप करतो यावद्-विहरे के. श्रमण भगवान् महावीर जिन छे, अने जिनप्रलापी, यावत्-जिन शम्दनो प्रकाश करता विहरे छे.' त्यारवाद ते मंखलिपुत्र गोशालक घणा माणसो पासेथी आ कथन सांभळी, विचारी, अत्यन्त गुस्से थयो, यावत्-अतिशय क्रोधे बळतो ते आतापना भूमिथी नीचे उतयों, आतापनाभूमिथी
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प्राप्तिः ॥१२८६॥
उगार ॥१२८६॥
CHECRECE
नीचे उतरी श्रावस्ती नगरीना मध्य भागमा थईने ज्या हालाहला कुंभारणनो कुंभकारापण-हाट छे त्यां आव्यो, आचीने हालाहला | कुंभारणना कुंभकारापण-हाटमां आजीविक संघवडे सहित अत्यन्त अमर्षने धारण करतो ए प्रमाणे विहरवा लाग्यो. ॥५४६॥
तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवामी आणंदे नाम थेरे पगइभइए जाव विणीए छटुं. छटेणं अणिक्वित्तणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवमा अपाणं भावेमाणे विहरह, तए णं से आणंदे थेरे छट्टकावमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छह तहेव जाव उच्चनीयमजिझम जाव अड. माणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं बीइवयह, तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते आणंद थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासह पा०२ एवं वयासि-एहि ताव आणंदा! इओ एग महं उवमियं निसामेहि, तए णं से आणंदे थेरे गोसालेण मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छति, तए णं से गोसाले मंग्वलिपुत्त आणंद थेरं एवं वयासी
ते काळे अने ते समये श्रमण मगवान् महावीरना शिष्य आनन्द नामे स्थविर प्रकृतिना भद्र अने यावद्-विनीत हता. ते छट्ठ छट्ठना निरन्तर तपकर्म करवावडे अने संयमवडे आत्माने भावित करता विहरता हता. हवे ते आनन्द स्थविरे छट्टक्षपणना पारणाने दिवसे प्रथम पौरुषीने विषे-इत्यादि गौतमस्वामीनी पेठे रजा मागी, अने यावत्-ते उच्च, नीच अने मध्यम कुळमां यावत्-गोचरीए जता हालाइला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटयी थोडे दूर गया. ते वखते मंखलिपुत्र गोशालके हालाहला कुंभार
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पाल्पा
उद्देशन ४॥१२८७॥
११२८७॥
SAR
णना हाटथी थोडे दर जतां आनन्द स्थचिरने जोया, जोईने तेणे ए प्रमाणे कधु के 'हे आनन्द ! अहिं आव, अने एक मारु दृष्टान्त सांभळ, ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके ए प्रमाणे कबूं एटले ते आनन्द स्थविर ज्यां हालाहला कुंभारणतुं कुंभकारापण छे, अने व्यो मखलिपुत्र गोशालक के त्यां आध्या.' हवे ते मंखलिपुत्र गोशालके आनन्द स्थविरने आ प्रमाणे कयु
एवं खलु आणंदा। इतो चिरातीयाए अदाए केह उच्चावगा वणिया अत्यअस्थी अस्थलुद्धा अस्थगवेसी अस्थकंखिया अत्यपिवासा अत्थगवेसणयाए णाणाविहविउलपणिपभंडमायाए सगडीसागडेणं सुबहुँ भत्तपाणं पत्थयणं गहाय एग महं आगामियं अणोहियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडवि अणुप्पषिट्ठा, तए णं तेसिं वणियाण तीसे आकामियाए अणोहियाए छिनावायाए दीहमद्धाए अहवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुव्वगहिए उदए अणुपुत्वेणं परिभुजेमाणे परि०२ खीणे, तए णं ते बणिया खीणोदता समाणा तहाए परिब्भवमाणा अन्नमन्ने महराति अन्न. २ एवं व०-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे आगामियाए जाच अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुब्बगहिए उदए अणुपुब्वेणं परिभुजेमाणे परि० खीणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे आगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सब्बओ समंता मग्गणगवेसणं करेत्तएत्तिकहु अन्नमनस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणेति अक्ष. २तीसे णं आगामियाए जाच अरवीए उदगस्स सव्वओ समंता मगणगवेसणं करेंति उदगस्स सब्बओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा एग महं वणसंडं आसावेंति किण्हं किण्होभासं जाव निकुरंषभूयं पासादीयं जाव पडिरूवं, तस्स णं वणसंडस्स बहुमजझदेसभाए एत्थ ण महेगं वम्मीयं आसाति,
PORAN
ASHREE
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॥१२८८ ॥
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तस्स णं वम्मियस्स चत्तारि बप्पुओ अम्भुग्गयाओ अभिनिसदाओ तिरियं सुसंपग्गहिमाओ अहे पन्नगद्धरू वाओ पन्नगद्धठाणमंठियाओ पासादीयाओ जाब पडिरूवाओ, तए णं ते वाणिया हह्तुङ० अन्नमन्नं सहावेशि अ० २ एवं बयासी - एवं खलु देवा ! अम्हे इमीसे आगामियाए जाव सव्वओ समता मग्गणगवेसण करेमाहिं इमे वणसंडे आसादिए किण्हे किण्हो भासे इमस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए इमे बम्मीए आसादिए इमस्स णं वम्मीपस्स चत्तारि वप्पुओ अब्भुग्गयाओ जाव पडिखदाओ तं सेयं खलु देवाणुनिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयम पढमं वपि भिन्दित्तए, अवियाई ओरालं उदगरपणं अस्सादेस्सामो, तए णं ते वाणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमहं पडिसुर्णेति अं० २ तस्स वम्मीयस्स पढमं वपि भिदति, ते णं तत्थ अच्छे पत्थं जच्च तणुयं फालियवन्नाभं ओरालं उदगरयणं आसादेति, तए णं ते वणिया हहतुट्ट पाणियं पिबंति पा० २ वाहणाई पज्जेति वा भायणाई भरेंति भा० २ दोपि अन्नमन्न एवं बदासी
'हे आनन्द ! ए प्रमाणे खरेखर आजथी घणा काल पहेलां अनेक प्रकारना घनना अर्थी, धनना लोभी, धननी गवेषणा करनारा, धनना कांक्षी, अने धननी तृष्णावाला केटला एक वणिकोए धन मेळवावा माटे अनेक प्रकारना पुष्कळ प्रणीत-मुन्दर भांड वस्तुओं (अथवा करीयाणारूप भांडने ) लईने तथा गाडी अने गाडाओना समूहवडे पुष्कळ अनाज अने पाणीरूप पाथेय ग्रहण करीने एक मोटी गामरहित, पाणीना प्रवाहरहित, सार्थादिकना आगमनरहित अने लांबा मार्गवाळी अटवीमां प्रवेश कर्यो.' त्यारपछी ते वणिकोनुं गामरहित. पाणीना प्रवाहरहित, सार्थादीकना आगमनरहित अने लांबा रस्तावाळी ते अटवीनो कंहक भाग गया पछी पूर्वे
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१५ सबके उद्देशः १ ॥१२८८ ॥
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उद्देशा ४॥१२८९॥
॥१२८९॥
लीथेलं पाणी अनुक्रमे पीतां पीता खूट . त्यारे पाणिरहित थयेला अने तृषाथी पीडाता ते वणिकोए परस्पर बोलावीने आ प्रमाणे कह्यु-'ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रियो ! आ मामरहित-इत्यादि यावत्-अटवीमा कंडक भाग गया पछी पहेलां लीधेलं आपणु पाणी अनुक्रमे पीतां पीतां खूटी गयुं छे, ते माटे हे देवानुप्रियो ! आ गामरहित, यावत्-अटवीने विषे आपणे पाणीनी चोतरफ गवेपणा करवी श्रेयस्कर छ'–एम विचार करी एक बीजानी पासेथी आ वात सांभळीने तेओए गामरहित यावत्-अटवीमां पाणीनी चोतरफ तपास करी. पाणीनी चोतरफ तपास करतां तेओने एकमोटुं वनखंड प्राप्त थपं. जे वनखंड श्याम अने श्याम कान्तिवाळु यावत्-महामेघना समूह जेवू, प्रसमता उत्पन्न करनार अने यावत्-सुन्दर इतुं. ते वनखंडना बरोबर मध्य भागमा तेओए एक मोटो वल्मिक-राफडो जोयो. ते वल्मिकने सिंहनी केशवाळी जेवां अवयवोवा उंचां चार शिखरो हता, ते ती - विस्तीर्ण नीचे अर्ध सर्पना जेवां, अर्ध सर्पनी आकृतिवाळा, प्रसन्नता उत्पन्न करनार अने यावत्-सुन्दर हता. ते वल्मिकने जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए एक बीजाने बोलावीने आ प्रमाणे कई के 'हे देवानुप्रियो। ए प्रमाणे खरेखर आपणे आ गामरहित-एवी अटवीमां यावत्-चोतरफ तपास करतां आ श्याम अने श्याम कान्तिवाळू वनखंड जोयुं, अने आ वनखंडना पराबर मध्य भागमा आ वल्मिक जोयो. आ वल्मिकने चार उंचां यावत्-प्रतिरूप-सुन्दर शिखरो छे, ते माटे हे देवानुप्रियो! आ वल्मिकर्नु पहेलु शिखर फोडq ए श्रेयस्कर के, के जेथी आपणे पुष्कळ उत्तम पाणी प्राप्त करीए.' त्यारपछी ते वणिकोए एक बीजा पासेथी आ कथन सांभळीने ते बल्मिकना प्रथम शिखरने फोल्यु. तेथी तेओने स्यां खच्छ, हितकारक, उत्तम, हलकुं अने स्फटिकना वर्ण जेवं, पुष्कळ अने उत्तम पाणी प्राप्त थयु. त्यारपछी प्रसन्न अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए पाणी पीयूं, अने (बळद
ऊर
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उदेकार १२९॥
नगेरे) वाहनोने पाणी पायु, पाणी पाईने पात्रो भाँ, पात्रो भरीने बीजी वार तेओने परस्पर आ प्रमाणे क{---- प्राप्तिः
एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स धम्मीयस्स पढमाए वप्पीए भिषणाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए १९९०॥ दात सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स दोबंपि वपि भिवित्तए, अधि याई एत्य ओरालं
सुवन्नरयणं आसादेस्सामो, तए ण ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमढे पडिसुणेति अं० २ तस्स वम्मीयस्स |दोचंपि बपि भिदंत ते णं तत्थ अच्छं जचं तवणि महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं सुवन्नरयणं अस्सादेति, सए ण ते वणिया हहतुह, भायणाई भरेंति २ पक्षहणाई भरेंति २ तच्चपि अन्नमन्नं एवं 10-एवं खलु दे! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पदमाए वप्पीए भिन्नाए ओराले उदगरयणे आसादिए दोचाए वप्पाए भिन्नाए ओराले सुवन्नरयणे अस्सादिए तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स तचंपि वपि भिदित्तए, अवि याई एत्य ओरालं मणिरयणं अस्सादेस्सामो, तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमट्ठ पडिसुणेति अं०२ तस्स पम्मीयस्स तच्चपि वरिप मिदंति, ते णं तत्थ विमलं निम्मलं नित्तलं निक्कलं महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं मणिरयणं अस्सादेति, तर णं ते वणिया हट्ट. भायणाई भरेंति भा०२ पबहणाई भरेंति २ चउत्थंपि अन्नमन्नं एवं वयासी--एवं स्खलु देवा! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए बप्पाए भिन्नाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए दोचाए वप्पाए भित्राए ओराले सुवष्णरयणे अस्सादिए तचाए वप्पाए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स बम्मीयस्स चउत्थंपि वपि भिदित्तए, अवि याई उत्तम
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१५पटक
व्याख्या प्रति ११२९९॥
महापं महरिहं ओराल वहररपणं अस्सादेस्सामो, तए णं तेसि बणियाण एगे धणिए हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए निस्सेय सिए हियसुहनिस्सेयसकामए ते वणिए एवं वयासी-एवं खलु देवा० अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिन्नाए ओराले उदगरयणे जाव तचाए बप्पाए भिन्नाए ओराले मणिरयणे
अस्सादिए, तं होउ अलाहि पज्जतंणे, एसा चउत्थी वप्पामा भिजउ, चउत्थीणं वप्पा सउवसग्गा यावि होत्या, | तए णं ते वणिया तस्स बणियस्स हियकामगस्स सुहकामजाव हियसुहनिस्सेयसकामगस्स एवमाइक्खमाणस्स
जाव परवेमाणस्स एयम४ नो सहहंति जाव नो रोयंति, एपमहें असदहमाणा जाव अरोएमाणा तस्स वम्मी-15 | यस्स चउत्थंपि वपि भिदंति,
'हे देवानुप्रियो । आपणे ए प्रमाणे खरेखर आ वरिमकना प्रथम शिखर भेदवावडे पुष्कळ उत्तम पाणी प्राप्त कर्यु, तो हे देवानुप्रियो । हवे आपणे आ बस्मिकना बीजा शिखरने भेदबु श्रेयस्कार योग्य , के जेथी आपथे अहिं उदार अने उत्तम सुवर्ण प्राप्त करीए.! त्यारवाद ते वणिकोए एक बीजानी पासेथी आ कथन सांभळीने ते वल्मिकना बीजा शिखरने पण फोडयु. तेथी तेमा स्वच्छ, उत्तम, तापने सहन करनार महाअर्थबाळ-महाप्रयोजनवाळु-अने महामूल्ययाळू पुष्कळ उत्तम सुवर्ण प्राप्त कयु. सुवर्णने प्राप्त करवाथी प्रसन्न अने संतुष्ट धयेला ते वणिकोए पात्रो भयाँ, पात्रो भरीने वाहनो भयाँ, वाहनो भरीने श्रीजी वार तेओ परस्पर ए प्रमाणे बोस्या-'हे देवानुप्रियो ! आपणे आ बल्मिकना प्रथम शिखरने मेदता उदार एवं उत्तम जल प्राप्त बने बीजु शिखर मेदतां उदार एवं उत्तम सुवर्ण प्राप्त कयु. ते माटे हे देवानुप्रियो । आपणे हवे आ बल्मिक त्रीजु शिखर तोड श्रेयस्कर के, के जेथी
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NA
वाक्या
१५सके उकार ॥१२९॥
अहिं उदार एबुं मणिरन प्राप्त करीए.' त्यारपछी ते वणिकोए एक बीजानी पासेथी आ कथन सांभळीने ते वल्मिकर्नु त्रीजु शिखर प्राप्ति
४ा पण मेघू. तेथी तेओए त्यां विमल, निर्मल, अत्यन्त गोळ, निष्कल-त्रासादिदोषरहित, महाअर्थ-महाप्रयोजनवाळु, महामूल्यवाळु ॥१२९२॥ अने उदार एवं मणिरत्व प्राप्त कर्य. मणिरखने प्राप्त करवाथी हृष्ट अने संतुष्ट थयेला ते वणिकोए पात्रो भयो, पात्रो भरीने वाहनो C
भयां, वाहनो भरीने तेओए चोथी वार पण एक बीजाने कह्यु के 'हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर आ बल्मिकना प्रथम शिख. रने मेदवाथी पुष्कळ अने उत्तम पाणी प्राप्त कर्य, बीजं शिखर मेदवाथी पुष्कळ सुवर्ण प्राप्त कर्य, त्रीजु शिखर भेदवाथी उदार मणिरत्न प्राप्त कयु, तो हे देवानुप्रियो ! आपणे हवे आ बल्मिकना चोथा शिखरने पण भेदवू योग्य छ, के जेथी आपणे उत्तम,
महामूल्य, महाप्रयोजनवालु, महापुरुषने योग्य अने उदार ए, वचरन प्राप्त करीए.' त्यारपछी ते वणिकोना हितनी इच्छावालो, 81 मुखनी इच्छाबाळो, पथ्यनी इच्छाबाळो, अनुकम्पावाळो, निश्रेयस-कल्याणनी इच्छावाळो, तेमज हित, सुख अने निश्रेयसनी
इच्छावाळो एक वणिक हतो, तेणे ते वणिकोने ए प्रमाणे कयु-- हे देवानुप्रियो ! आपणे आ बल्मिकना प्रथम शिखरने मेदवाथी उदार अने उत्तम जल प्राप्त कयु, यावत्-त्री जुं शिखर भेदवाथी उदार मणिरत्न प्राप्त कयु, एटलं घणं , हवे आपणे आ चोथु शिखर भेद, योग्य नथी, कारण के चो) शिखर कदाच आपणने उपद्रव करनार थाय' त्यारे ते वणिकोए हितनी इच्छाबाळा, | सुखनी इच्छावाळा यावत्-हित, सुख अने निश्रेयसनी इच्छावाळा तथा उपर प्रमाणे कहेता, यावत्-प्ररूपणा करता एवा ते वणि कना कथनमां श्रद्धा न करी, यावत् रुचि न करी, तेना कथननी श्रद्धा नहि करता, यावत्-रुचि नहि करता ते वणिकोए ते बल्मिकना चोथा शिखरने पण मेधु.
GARCAREKAR
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व्याख्याप्रशसि
॥१२९३॥
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ते णं तत्थ उग्गषिसं चंडविसं घोरबिसं महाविसं अतिकार्य महाकार्यं मसिमूसाकालगं नयणविसरोस पुन्नं अंजण पुंज नगरपगासं रत्तच्छं जमलजुघल चंचल चलंतजीहं धरणितलवेणिभूगं उक्कडफुडकूडिलजडुलकक्खडविकडफडाडोवकरणदच्छं लोहागर धम्म माणधमधर्मेतघोसं अणागलियचंडतिव्बरोसं समुहिं तुरियं चंचलं धर्मतं दिट्ठीविसं सप्पं संघर्हेति, तए णं से दिट्ठीविसे सप्पे तेहिं वणिएहिं संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसमिसे माणे सणियं २ उट्ठेति २ सरसरसरस्स वम्मीयस्स सिहरतलं दुरूहे सि०२ आहचं णिज्झाति आ०२ ते वणिए अणिमिसाए दिट्ठीए सत्रओ समता समभिलोएति, तए णं ते वणिया तेणं दिट्ठीविसेणं सप्पेणं अणिमिसाए दिट्ठीए सव्व समता समभिलोइया समाणा विप्पामेव सभंडमत्तोवगरणयाए एगाहचं कूडाहचं भासरासी कया यावि होत्था, तस्थ णं जे से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए जाब हियसुहनिस्सेयस कामए से णं अणुकंपयाए देवयाए सभंडमत्तोवगरणमायाए नियगं नगरं साहिए, एवामेव आणंदा । तववि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेणं नायपुत्तणं ओराले परियार आसाइए, ओराला कित्तिवन्नसहसिलोगा, सदेवमणुयासुरे लोए पुव्वंति गुरुवंति शुव्वंति इति खलु समणे भगवं महावीरे इति० २, तं जदि मे से अज्ज किंचिवि वदति तो णं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेमि जहा वा वालेणं ते वणिया, तुमं च णं आणंदा ! सारक्खामि संगोवामि जहा वा से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए जाव निस्सेयसकामए अणुकंपयाए देवथाए सभंडमतोव० जाव साहिए, तं गच्छ णं तुमं आणंदा! तब धम्मायरियरस धम्मोवएसगस्स समणस्स नायपुत्तस्स एय
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१५ सके उद्देशः १ ॥१२९३॥
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मटुं परिकहेहि । तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव संजायभए गोसाव्याख्या
१५सके प्राप्ति
लस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमति २ सिग्धं तुरियं साव१२९४॥ तथि नगरि मज्झमज्झणं निग्गच्छह नि.जेणेव कोट्ठए चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा०२ समणं C॥१२९॥
भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति र वंदति नमः २ एवं व०-एवं खलु अहं भंते ! छटुक्खमणपारणगंसि तुझेहिं अम्भणुनाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्चनीयजाव अडमाणे हालाहलाए जाव वीयीवयामि, तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं हालाहलाए जाव पासित्ता एवं वयासी-एहिताव आणंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि, नए णं अहं गोसालेणं मंखलिपुत्तणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभ काराषणे जेणेव गोसाले मखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छामि, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्त ममं एवं क्यासी-एवं खलु आणंदा! इओ चिरातीयाए अद्वाए केह उच्चावया वणिया एवं तं चेव जाच सव्वं निरवसेसं भाणियध्वं जाव नियगनगरं साहिए, तं गच्छ णं तुम आणंदा! धम्मायरियस्स धम्मोव. जाव परिकहेहि ( सूत्रं ५४७)॥
तेथी तेओए त्यां उग्रविक्वाळो, प्रचंडविषयाळो, घोरविषवाळो, महाविषवाळो, अतिकायवाळो, मोटा शरीरवाळो अने मपी तथा मूषाना समान काळावर्णचाळो, दृष्टिना विष अने रोपण्डे पूर्ण, मषीना ढगलाना जेवी कान्तिवाळो लाल आंखवाळो, जेने चपल अने साथे चालती बे जीमो के एवो पृथिवीतलमा वेणिसमान, उत्कट स्पष्ट वक्र जटिल-केशवाळीयुक्त अने विस्तीर्ण फणानो आ. टोप करवामां दक्ष, आकर-खाणने विषे अमिथी तपावेला लोढाना जेवो धमधमायमान शब्द के जेनो एवो, नहि जाणी शकाय |5.
SACCORRUKHABAR
SACABINAR
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Pउद्देशार
प्रजातिः ॥१२९५॥
RASA
६ तेवो उग्र अने ती रोषवाळो, श्वानना मुखपेठे त्वरित अने चपल शब्द करतो एवो दृष्टिविष सर्प स्पश्यों. त्यारबाद ते वणिकोए|8|१५शतके
ते दृष्टिविष सर्पनो स्पर्श कयों एटले अत्यन्त गुस्से थयेला, अने यावत-क्रोधथी वळता तेणे धीमे धीमे उठी सरसराद् करता बल्मिकना शिखर उपर चढीने सूर्यने जोइने ते वणिकोने अनिमिष दृष्टिवडे चोतरफ जोया. त्यारपछी ते दृष्टिविष सर्पे चोतरफ जोई ते 1४१२९५॥ वणिकोने पात्र विगेरे उपकरणसहित एक प्रहारवडे कूटाघात-पाषाणमययंत्रना आघातनी पेठे जल्दी भस्मराशिरूप कर्या, ते वणिकोमा जे वणिक ते वणिकोना हितनी इच्छावाळो, यावत-हित, सुख अने निःश्रेयसवकल्याणनी इच्छावाको हतो तेना उपर दयाथी ते देवे पात्र वगेरे उपकरण सहित तेने पोताना नगरे मूल्यो'. ए प्रमाणे हे आनन्द ! तारा पण धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्रे उदार पर्याय अवस्था प्राप्त कर्यो छे, अने तेनी देवो, मनुष्यो अने असुरोसहित आ जीवलोकमा 'श्रमण भगवान् महावीर, श्रमण भगवान् महावीर'--एवी उदार कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लोक-यश व्याप्त थया छ, व्याकुल थया छे, अने स्तवाया छे. तो जो मने ते आज कंइ पण कहेशे तो मारा तपना तेजबडे एक घाए कूटाघात-पाषाणमयन्त्रना आघातनी पेठे जेम सर्षे वणिकोने चाळया तेम बाळीने भस्म करीश. हे आन्द ! जेम ते वणिकोर्नु हित इच्छनार यावत्-निःश्रेयस-कल्याण इच्छनार ते वणिकने देवताए अनुकम्पाथी पात्रो वगेरे उपकरण सहित पोताने नगरे मूक्यो तेम हुं तारु संरक्षण अने संगोपन करीश, ते माटे हे आनन्द ! तुं जा, अने तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्रने आ वात कहे. त्यारबाद मंखलिपुत्र गोशालाए ते आ| नन्द स्थविरने आ प्रमाणे कयु एटले ते भय पाम्या, अने यावत्-भयभीत थयेला ते मंखलिपुत्र गोशालानी पासेयी अने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणथी पाछा वळीने शीघ्र अने त्वरित श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमांथी नीकळीने ज्यां कोष्ठक चैत्य हतुं अने
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व्याख्याप्रचासिः H१२९६॥
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,
ज्यां श्रमण भगवान् महावीर हता, त्यां आव्या. त्यां आवीने श्रमण भगवान् महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी वंदन अने नस्मकार करी आ प्रमाणे बोल्या- 'हे भगवन् ! खरेखर ए प्रमाणे हुं छट्टखमणना पारणाने विषे आपनी अनुज्ञाथी श्रावस्ती नगरीमां उच्च, नीच अने मध्यमकुळमां गोचरीए जतां हालाहला कुंभारणना घर पासेथी यावत्-जतो हतो, त्यां मंखलिपुत्र गोशालाए भने हालाइला कुंभारणना घरथी थोडे दूर जतां यावत्-जोहने ए प्रमाणे कं' हे आनन्द ! अहीं आव, अने मारुं एक दृष्टान्त सांभळ. त्यापछी मंलिपुत्र गोशालके ए प्रमाणे कां एटले ज्यां हालाहला कुंभारणतुं कुंभकारापण हतुं, अने ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो, त्यां हुं आग्यो, त्यारे मंखलिपुत्र गोशालके मने आ प्रमाणे कां- 'हे आनन्द ! खरेखर आजवी घणा काल पूर्वे अनेक प्रकारना केटलाएक वणिको इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहे, यावत्-देवताए पोताना नगरे सूक्यों.' ते माटे हे आनन्द ! तुं जा अने तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशकने यावत्-कहे ।। ५४७ ॥
तं पभू णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेषणं एगाहचं कूडाहचं भासरासि करेत्तए ? विसए णं भंते! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स जाव करेत्तए १ समत्थे णं भंते! गोसाले जाव करेत्तए ?, पभू र्ण आणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए, बिसए णं आणंदा ! गोसालस्स जाव करेत्तए, समत्थे णं आणंदा । गोमाले जाव करे०, नो चेव णं अरिहंते भगवंते, पारियावणिधं पुण करेजा, जावतिए णं आणंदा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तबते एत्तो अनंतगुणविसिद्धयरए चैव तबतेए अणगाराणं भगवंताणं, स्वतिखमा पुण अणगारा भगवंतो, जावइए णं आणंदा ! अणगाराणं भगवंताणं तबतेए एत्तो अनंतगुणविसिद्धयरए चैव तवतेए थेराणं भग
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१५ सके
उद्देषाः १
| ।। १२९६॥
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न्याल्या
५श्वक
४ा उद्देश
१२९७॥
A
बंताणं, खंतिस्त्रमा पुण थेरा भगवतो, जावतिए ण आणंदा थेराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्ठियतराए चेव तवतेए अरिहंताणं भगवंताणं, खतिवमा पुण अरिहंता भग०, तं पभू णं आणंदा! गोसाले मं- खलिपुत्ते तवेणं तेपणं जाव करेत्ता विसरणं आणंदा! जाव करे० समत्थे णं आणंदा! जाव करेनो चेव णं अरिहंते भगवंते, पारियावणियं पुण करेजा (सूत्रं ५४८)॥
[प्र०] हे भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक पोताना तपना तेजवडे एक घाए कूटाघातनी पेठे भस्मराशि करवाने प्रभु-समर्थ छ, हे भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालकनो यावत्-तेम करवानोविषय छे, हे भगवन् ! गोशालक यावत्-तेम करवाने समर्थ ? [उ.] हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक तपना तेजवडे यावत्-तेम करवाने प्रभु समर्थ छे, हे आनन्द ! गोशालक मंखलिपुत्रनो तेम करवानो यावत्-विषय के, हे आनन्द | तेम करवाने यावद्-गोशालक समर्थ छे, परन्तु अरिहंत भगवंतने पाळी भस्म करवा समर्थ नथी, तो पण तेमने परिताप-दुःख उत्पन्न करवा समर्थ के. हे आनन्द ! मखलिपुत्र गोशालकनुं जेटलं तपर्नु तेज , तेथी अनगार भगवंतनु अनंतगुण विशिष्ट तपतेज छे, कारण के अनगार भगवंत क्षमा-कोधनो निग्रह करवामां समर्थ के. हे आनंद ! अनगार भगवंतोन जेटलं तपोबल छे, तेथी अनंतगुण विशिष्ट तपोबळ स्थविर भगवंतोतुं में, केमके स्थविर भगवंतो क्षमा करवामां समर्थ होय छे. हे आनंद ! स्थविर भगवंतोनुं जेटलुं तपोवळ होय छे, तेथी अनंतगुण विशिष्ट तपोबल अरिहंत भगवंतोन होय छे, कारण के अरिहंत भगवंतो क्षमा करवामां समर्थ होय छे. हे आनंद ! मंखलिपुत्र गोशालक पोताना तप-तेजबडे यावत-भस्मराशि करवाने समर्थ छे, हे आनंद ! यावत्-तेम करवानो तेनो विषय (शक्ति) छे, हे आनंद !तेम करवाने यावत्-समर्थ छे. परन्तु अरिहंत भगवंतने
GRA
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प्रवातिः
१५क्तके उदेकार ॥१२९८॥
मतेम करवाने समर्थ नथी, मात्र तेमने दुःख उत्पन्न करवाने अक्तिमान् के.॥५४८॥ व्याख्या-1
तं गच्छ णं तुम आणंदा! गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमढे परिकहेहि-मा णं अलो। तुझं केह ॥१२९८॥ गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ, मा ण धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, मा णं
धम्मिए पडोयारेणं पडोयारेउ, गोसालेणं मखलिपुत्ते समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छ विपडिवन्ने, तए णं से आणंदे थेरे समणेण भ० महावीरेणं एवं वुत्ते स. समणं भ. म. वं. नम २ जेणेव गोयमाविसमणा निग्गंथा तेणेव उवाग०२ गोयमादिसमणे निग्गंथे आमंतेति आ०२ एवं व.-एवं खलु अजो! छट्ठक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्चनीय तं चेव सव्वं जाव नायपुत्तस्स एयमटुं परिकहेहि, तं मा णं अज्जो। तुज्झे केई गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ जाव मिच्छ विपडिबन्ने ( सूत्रं ५४९)॥ । हे आनंद! ते माटे तुं जा, अने गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थोने आ बात कहे के-'हे आर्यो! तमे कोई मखलिपुत्र गोशालकनी साथे धर्मसम्बन्धी प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचन न कहेशो, धर्मसंबंधी प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूलपणे अर्थन स्मरण न करावशी, अने धर्मसंबंधी प्रत्युपचार-तिरस्कार वडे तेनो तिरस्कार न करशो. मंखलिपुत्र गोशालके श्रमण निर्ग्रन्थो साथे मिथ्याव-म्लेच्छपणु अथवा अनार्यपणु विशेषतः आदर्य के.' त्यारपछी श्रमण भगवान् महावीरे ए प्रमाणे कडं एटले ते आनंद स्थ. विर श्रमण भगवंत महावीरने वांदी अने नमी ज्यां गौतमादि श्रमण निग्रन्थो छ त्यो आवीने तेणे गौतमादि श्रमण निग्रंथोने
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१५तके
उद्देशा
बोलाव्या बोलावीने आ प्रमाणे कयु के-'हे आर्यो । छट्ठ क्षपणना पारणाने दिवसे श्रमण भगवंत महावीरे अनुज्ञा आपी एटले हुं व्याख्याप्रातिः
श्रावस्ती नगरीमा उच्च, नीच अने मध्यकुळ मां गोचरीए जतो इतो-इत्यादि सर्व यावत् ज्ञातपुत्रने आ अर्थने कहे जे'-त्यांसुधी ॥१९९९॥
| कहे, ते माटे हे आर्यो ! तमे कोइ मंखलिपुत्र गोशालकने धर्मसंबन्धी तेना मतने प्रतिकूल वचन न कहेशो, यावत्-तेणे निग्रन्थो. नी साथे विशेषतः अनार्यपणुं आदर्यु छे. ॥ ५४९॥
जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंधाणं एयमटुं परिकहेह तावं च ण से गोसाले मंख. पु० हालाह. कुं. कृभकारावणाओ पडिनि. पडिनि० आजीवियसंघसंपरिबुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्धं तुरियं जाव सावधि नगरि मझमझेणं निग्ग.२ जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव समणे भ. महा. तेणेव उवा. ते.२ समणस्स भ. म. अदूरसामंते ठिचा समणं भ. महा० एवं बयासी-सुट्टणं आउसो! कासवा! मम |एवं वयासी, साहणं आउसो! कासवा ! ममं एवं वयासी-गोमाले मंखलिपुत्ते मम धम्मंतेवासी गोसाले. २, जेणं से मखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के मुक्काभिजाइए भविता कालमासे कालं किचा अनयरेसु देव
लोएसु देवत्ताए उववन्ने, अहन्नं उदाइनाम कुंडियायणीए अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अ. P२ गोसालस्स मंम्वलिपुत्तस्स मरीरगं अणुप्पविसामि गो. इमं सत्तमं पउद्दपरिहारं परिहरामि,
जेटलामा आनन्द सविर गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थोने आ बात कहे छे तेटलामा हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटथी नीकळी आजीविकसंघसहित पणा अमर्षने धारण करतो मंखलिपुत्र गोशालक शीघ्र अने त्वरित गतिए यावत्-श्रावस्ती नगरीना
ORIES
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प्रशतिः
रुसमट
www.kobatirth.org मध्यमाममाथी नीकळी ज्यां कोष्ठक चैत्व के अने ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्या आल्या. त्या आवीने तेणे श्रमण भगवंत महावीरथी थोडे दूर उभा रही श्रमण मगवंत महावीरने आ प्रमाणे को-'हे आम्युमान् काश्यपगोत्रीय! मने ए प्रमाणे सारं कहो
बीजेप्रमाणे माकडो १५०सके छो, हे आयुष्यमान् काश्यप ! तमे मने एम ठीक कहो छो के 'मंखलिपुत्र गोशालक मारो धर्मसंबन्धी शिष्य २. जे मंखलिपुत्र
॥१३.०॥ गोशालक समारो धर्म संबन्धी शिष्य हतो ते शुक्र-पवित्र अने शुकामिजातिवाळो-पवित्रपरिणामवाळो थईने मरणसमये काळ करी कोहपण देवलोकने विषे देवपणे उत्पन्न थयो के, हुं कौडिन्यायनगोत्रीय उदायी नामे छु, अने में गौतम पुत्र अर्जुनना शरीरनो त्याग करी मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरमा प्रवेश करीने आ सातमो प्रवृत्तपरिहार-शरीरान्तर प्रवेश कयों के..
जेवि याइं आउसो! कासवा! अम्हं समसि के सिझिसु वा सिझंति वा सिजिमस्संति वा सब्वे ते चउरासीति महाकप्पसयसहस्माइं सत्त दिब्वे मत्त संजूहे सत्त संनिगम्भे सत्त पउपरिहारे पंच कम्माणि सय. सहस्साई सहि च सहस्साई छच्च सए तिनि य कम्मसे अणुपुटवेणं खबत्ता तओपन्छा मिति बुज्झति मुचंति परिनिवाइंति मध्यदुक्खाणमंतं करेंसुवा करेंति या करिस्संति वा, से जहा वा गंगा महानदी जओ पवूढा जहिं वा पज्जुबत्थिया एस णं अद्धपंचजोयणसयाई आयामेणं अद्धजोयणं विक्खंभेणं पंच धणुसयाइं उब्वेक्षणं एपणं गंगापमाणेणं मत्त गंगाओ सा एगा महागंगा सत्त महागंगाओ सा एगासादीणगंगा सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मधुगंगा सत्त मच्चुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा सत्त लोहियगंगाओ सा एगा आवतीगंगा सत्त आव. तीगंगाओ सा एगा परमावती एवामेव सपुवावरेणं एगं गंगासयसहस्सं सत्तर सहस्सा छच्चगुणपन्ना गंगासया
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व्याख्या प्राक्षिः ॥१३०१॥
| उद्देशान
१३.१॥
भवंतीति मक्खाया, तासिं दुविहे उद्धारे पण्णत्ते, तंजहा
वळी हे आयुष्मान् काश्यप ! जे कोई अमारा सिद्धान्तने अनुसारे मोक्षे गयेला छे, जाय छे अने जशे ते सर्वे चोराशी लाख महाकल्प ( कालविशेष ), सात देवभवो, सात संयूथ निकायो, सात संज्ञीगर्म-मनुष्यगर्भवास, सात प्रवृत्तपरिहार -शरीरान्तरप्रवेश अने पांच लाख, साठ हजार, छसो त्रण कर्मना मेदोनो अनुक्रमे क्षय कर्या पछी सिद्ध थाय छे, बुद्ध थाय छे, मूकाय छ, निर्वाण पामे के अने सर्व दुःखनो अन्त कर्यो छे, करे छे अमे करशे. जेम गंगा महानदी ज्यांथी नीकळे के अने ज्यां समाप्त थाय छे ते | गंगानो अद्धा-मार्ग आयमलंबाइवडे पांचसो योजन छे, विष्कंभ-विस्तार अर्ध योजन छे, अने उडाइमां पांचसो धनुष -ए रीते
गंगाप्रमाणे सात गंगाओ मळीने एक महागंगा थाय छे, सात महागंगाओ मळीने एक सादीन गंगा थाय छे, सात सादीन गंगाओ | मळीने एक मृत्युगंगा थाय छे, सात मृत्युगंगा मळीने एक लोहितगंगा थाय छे, सात लोहितगंगाओ मळीने एक अवंतीगंगा थाय छे, सात अवंतीगंगाओ मळीने एक परमावतीगंगा थाय छे. ए प्रमाणे पूर्वापर मळीने एक लाख, सत्तर हजार, छसो अने ओगण पचास गंगा नदीओ थाय छे-एम कहुं छे. ते गंगानदीनी वालुकाकणनो वे प्रकारे उद्धार करो छे, ते आ प्रमाणे
सहमयोंदिकलेवरे चेव पायरबोंदिकलेवरे चेव, तत्थ णं जे से सुहमे बोंदिकलेवरे से ठप्पे, तत्थ णं जे से बायरे बौदिकलेवरे तओ णं वाससए ३ गए २ एगमेगं गंगावालुयं अवहाय जावतिएणं कालेणं से कोढे खीणे णीरए निल्लेवे निट्टिए भवति सेत्तं सरे सरप्पमाणे, एएणं सरप्पमाणेणं तिन्नि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे, चउरासीह महाकप्पसयसहस्साइं से एगे महामाणसे, अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चहत्ता उवरिल्ले
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व्याक्या
प्रचतिः ॥१३०२ ||
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माणसे संजू हे देवे उबवज्जति, ते णं तस्थ दिव्बाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरह विहरिता ताओ देवलोगाओ आवरणं भवक्चएणं ठिक्लएणं अनंतरं वयं चहता पढमे सन्निगन्ने जीवे पञ्चायाति,
१ सूक्ष्मवदिकलेवररूप अने २ बादरबौदिकलेवररूप. [जेमां वालुकाकणना सूक्ष्मनोंदि— सूक्ष्म आकारवाळा कलेवरो-असंख्यात खंडो कल्पेला छे ते सूक्ष्मत्रोंदिकलेवररूप उद्धार कहवाय छे, अने जेमां बादरबोंदि- बादर आकारवाळा कलेवरो-वालुकाकणो छे ते बादरबोंदिकलेवररूप उद्धार कहेवाय छे. ] तेमां सूक्ष्म बोंदिकलेवररूप उद्धार छे ते स्थापी राखवा योग्य छे. [ अर्थात् निरुपयोगी होवाथी तेना विश्वारनी आवश्यकता नथी.] तेमां जे नादबोंदिकलेबररूप उद्धार हे तेमांथी सो सो बर्षे एक एक वालुकाना कणनो अपहार करीए अने जेटला काळे गंगाना समुदायरूप ते कोठो क्षीण खाली धाय, नीरज-वालुकारहित थाय, निर्लेप थाय, अने निष्ठित समाप्त थाय त्यारे सरप्रमाण काल कहेवाय छे एवा प्रकारना त्रणलाख सरप्रमाण काळवडे एक महाकल्प थाय छे, चोराशीलाख महा कल्पे एक महामानस थाय छे. अनन्त संयूथ अनन्तजीवना समुदायरूप निकायथी जीव व्यवी संयूथ देवभवने विषे उपरना मानससरप्रमाण आयुषवडे उत्पन्न थाय छे १, अने ते त्यां दीव्य अने भोग्य एवा भोगोने भोगवतो विहरे छे. हवे ते देवलोकथी आयुषनो क्षय थवाथी, भवना क्षयथी अने स्थितिना क्षयथी तुरतज व्यवीने प्रथम संज्ञी गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्यपणे उत्पन्न थाय छे १.
ते णं तओहिंतो अनंतरं उच्चहित्ता मज्झिल्ले माणसे संजूहे देवे उबवजह से णं तत्थ दिव्वाई भोग भोगाई जाब विहरिता ताओ देवलोपाओ आउ०३ जाव महत्ता दोघे सन्निगन्मे जीवे पचायाति से णं तओहिंतो अनंतरं उच्चहिता द्विल्ले माणसे संजूहे देवे उबवजह से णं तत्थ दिब्वाई जाव चहत्ता तथे सन्निगन्भे जीवे पञ्चायति,
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१५
उद्देचा १
॥१३०२ ॥
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से तओहितो जाप उज्वद्वित्ता उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववनिहिति, से णं तत्थ दिव्वाई भोग जाव IPचइत्ता पत्ये सनिगम्भे जीवे पञ्चायति, से गं तओहितो अणंतरं उब्वहित्ता मझिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे
उववजति, से तस्य दिब्वाई भोग जाव चइत्ता पंचमे सनिगम्भे जीवे पचायानि, ___ सारवाद ते त्यांची व्यवीने सुरतज मध्यम मानस-सरप्रमाण आयुपवढे संयूष-देवनिकायविषे उत्पन्न थाय छे. २ त्या दिव्य भोगवया योग्य भोगोने भोगवी यावद-विहरी ते देवलोकथी आयुषना क्षयधी ३ यावत्-व्यवीने बीजा संञीगर्भ-गर्भज मनुष्यने विषे जन्मे छे. २. त्यारपछी त्यांची नीकळी तुरत हेठेना मानस प्रमाण आयुषवडे संयुथ-देवनिकायने विषे उपजे छ त्या दिव्य भोगोने भोगवी त्यांची व्यवी श्रीजा संजीगर्म-गर्मज मनुष्यने विषे जन्मे छे, ३ त्यांची यावत्-नीकळी उपरना मानसोचर-महामानस आयुषवडे संयूथ-देवनिकायने विष उपजे छे. त्या दिव्य भोगोन भोगवी यावत्-त्यांची व्यची चोथा संझीगर्भ-गर्मजमनुष्यने विष उपजे छे. ४. त्यांची व्यवीने तुरत मध्यम मानसोचर आयुषवडे संयूथ-देवनिकायमा उपजे छे ६. त्या दिव्य भोगो | भोगवी पावत्-त्यांधी च्यवी पांचमा संझीगर्म-गर्भज मनुष्यमा उत्पन्न थाय छे. ५.
से णं तओहिंतो अणंतरं उच्चहिता हिडिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उबवजति, से गं तत्थ विब्वाइंभोग जाव चात्ता छटे सनिगन्मे जीवे पचायाति,सेणं तओहिंतो अणंतरं उववाहित्ता बंभलोगे नाम से कप्पे पन्नत्ते | पाईणपडीणायते उदीणवाहिणविच्छिन्ने जहा ठाणपदे जाव पंच बडेंसगा पं०, तंजहा-असोगषडेंसए जाब पतिKIरूवा, से णं तस्य देवे उपवजह से णं तस्थ दस सागरोवमाइं विम्बाई भोग जापचहत्तासत्तमे सनिगम्मे जीवेश
जर
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॥१३.0
पञ्चायाति, सें णं तस्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुत्राणं अट्ठमाण जाव बीतिकंताणं सुकुमालगभलए मिउकुं. प्रति
डलकुंचियकेसए मढगंडतलकनपीढए देवकुमारसप्पभए दारए पयायति, सेणं अहं कासवा, तेणं अहं उसो! ॥१३०टकासवा! कोमारियाए पब्बजाए कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकन्नए चेव संखाणं पडिलभामि स.२ इमे सत्त
पउद्दपरिहारे परिहरामि,
त्यांची च्यवीने तुरत हेठेना मानसोत्तर आयुषरहित संयुथ-देवनिकायमा उपजे छे. ६. त्या दिव्य मोगोने भोगवी यावत्च्यवी छट्ठा संत्री गर्भज मनुष्योमा उपजे छे. ६. त्यांची नीकळी तुरत ब्रह्मलोक नामे कल्प देवलोक कयो छे, ते पूर्व तथा पश्चिम लांगो छ, अने उत्तर तथा दक्षिण विस्तारवाळो छे, जेम प्रज्ञापना सूत्रना स्थानपदने विषे का छे तेम अहिं जाणवू, यावत्-तेमां पांच अवतंसक विमानो कला छे, ते आ प्रमाणे-१ अशोकावतंसक, यावत्-प्रतिरूप-सुन्दर छे ते देवलोकमा उत्पन्न थाय छे. ७. त्यां दश सागरोपम सुधी दिव्य भोगो मोगवीने यावत्-त्यांथी च्यवीने सातमा संज्ञीगर्म-गर्भज मनुष्यमां उपजे छे. ७. त्यां। नव मास बरोबर पूर्ण थया पछी अने साडासात दिवस व्यतीत थया बाद सुकुमाल, भद्र, मृदु अने दर्भना कुंडलनी पेठे संकुचित केशवाळो, कर्णना आभूषणवडे जेना गालने स्पर्श थयो छे एचो, देव कुमारसमानकान्तिवाळो वाळक जन्म्यो; हे काश्यप ! ते हुँ दु, त्यारपछी हे आयुष्मन् काश्यप । कुमारावस्थामा प्रव्रज्यावडे कुमारावस्थामांब्रह्मचर्यवडे अविद्धकर्ण-व्युत्पन्न बुद्धिवाळा एवा मने | प्रव्रज्या ग्रहण करवानी बुद्धि थई अने सात प्रात्त परिहार-शरीरान्तरने विषे संचार कयों.
संजहा-एणेजगस्स मल्लरामस्स मंडियस्स रोहस्स भारहाइस्स अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स गोसालस मंख
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व्याख्याप्रति ॥१३०५ ॥
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लिपुत्तस्स, तत्थ णं जे से पढमे पट्टपरिहारे से णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया मंडियच्छिसि चेहयंसि उदाइस्स कुंडियायणस्स सरीरं विष्पजहामि उदा० २ एणेज्जगस्स सरीरगं अणुप्पविसामि एणे० २ बावीसं वासाइं पढमं परिहारं परिहरामि, तत्थ णं जे से दोचे पउट्टपरिहारे से णं उद्दंडपुरस्स नगरस्स वहिया चंदोपरणंसि बेइयंसि एणेजगस्स सरीरगं विप्पजहामि २ ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविसामि मल्ल० २ एकवीस बासाई दोघं पउठ्ठपरिवारं परिहरामि, तत्थ णं जे से तचे पउहपरिहारे से णं चंपाए नगरीए बहिया अंगमंदिरंभि चेहयंसि मल्लरामस्स सरीरगं विष्पजहामि मल्ल • मंडियस्स सरीरंगं अणुष्पविसामि मंडि० २ वीसं वासाहं तवं पपरिहारं परिहरामि, तत्थ णं जे से चउत्थे पडट्टपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावणंसि चेहयंसि मंडियस सरीरंगं विप्पजहामि मंडि० २ रोहस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, रोह० २ एकूणवीसं वासाइ य उत्थं पट्टपरिहारं परिहरामि तत्थ णं जे से पंचमे पउट्टपरिहारे से णं आलभियाए नगरीए बहिया पत्त| कालगसि चेहसि रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि रोह० २ भारद्दाइस्स सरीरगं अणुष्पविसामि भा० २ अट्ठारस वासाई पंचमं पउपरिहारं परिहरामि,
आ प्रमाणे- १ ऐणेयक, २ महराम, ३ मंडिक, ४ रोह, ५ भारद्वाज, ६ गौतमपुत्र अर्जुन अने ७ मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरमां प्रवेश कर्यो. तेमांचे प्रथम प्रवृचपरिहार- शरीरान्तर प्रवेशमां राजगृहनगरनी बहार मंडिकुक्षिनामे चैत्यने विषे इंडियायन गोत्रीय उदायनना शरीरनो स्थान करी ऐमेयकना शरीरमां प्रवेश कर्यो, प्रवेश करी बाबीश वर्ष सुधी प्रथम शरीरान्तरमां परार्वतन
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१५ फे उद्देशः १
।।१३०५
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K
कर्य. बीजा शरीरान्तरप्रवेशमा उइंडपुर नगरनी बहार चन्द्रावतरण चैत्यने विषना ऐषेयकना शरीरनो त्याग करी मल्लरामना शरी
४ारमा प्रवेश कयों, अने प्रवेश करीने एकवीश वरस सुधी बीजा शरीरान्तरमा परावर्तन कयु. वीजा शरीरान्तरप्रवेशमां चंपानगरीनी ॥१३०६॥
वहार अंगमंदिरनामे चैत्यने विषे मल्लरामना शरीरनो त्याग करी मंडिकना शरीरमा प्रवेश कर्यो, अने त्यां वीश वर्ष सुधी त्रीजुं शरीरान्तर परावर्तन कयु. तेमां जे चोथु शरीरान्तर परावर्तन के ते वाराणसी नगरीनी बहार काममहावन नामे चैत्यने विषे मंडिकना शरीरनो त्याग करी रोहकना शरीरमा प्रवेश कयों, प्रवेश करीने त्यां ओगणीश वर्ष सुधी चोधु शरीरान्तर परावर्तन कयु. तेमा जे पांच शरीरान्तर परावर्तन छे ते आलभिका नगरीनी बहार प्राप्तकाल नामे चैत्यने विषे रोहना शरीरनो त्याग करी भार. द्वाजना शरीरमा प्रवेश कयों, प्रवेश करीने अढार वर्ष सुधी पांचU शरीरान्तर परावर्तन कर्य.
तत्य जे से छटे पउद्दपरिहारे से ण वेसालीए नगरीए बहिया कोंडियायणंसि चेयसि भारदाइयस्म सरीरं विप्पजहामि भा०२ अन्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि अ०२ सत्तरस वासाई छर्ल्ड |पउद्दपरिहारं परिहरामि, तत्थ णं जे से सत्तमे पउपरिहारे से णं इहेव सावस्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभ. | कारीए कुंभकारावणंसि अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि अज्जुणयस्स २ गोसालस्स मंखलिपु त्तस्स सरीरगं अलं घिरं धुवं धारणिजं सीयसह उण्हसहं खुहासह विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं घिरसं. घयणंतिकटुतं अणुप्पविसामि तं० २तं से णं सोलस वासाइं इमं सत्तमं पउद्दपरिहारं परिहरामि, एवामेव आउसो । कासवा! एगणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउपरिहारा परिहरिया भवतीति मक्खाया, तं मुटु
AESARIBABA
ARATE
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मायाप्रशतिः ॥१३०७॥
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आउसो ! कासवा ! ममं एवं बयासी, साधु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं बयासी-गोसाले मंखलिपुत्ते मर्म धम्मंतेवासित्ति गोसाले० २ (सूत्रं ५५० ) ॥
मां जे छ शरीरान्तर परावर्तन छे ते वैशाली नगरीनी बहार कुंडियायननामे चैत्यने विषे भारद्वाजना शरीरनो त्याग करी गौतमपुत्र अर्जुनना शरीरमां प्रवेश कर्यो, प्रवेश करीने त्यां सचर वर्ष सुधी छ शरीरान्तर परावर्तन करें. तेमां जे सातचं शरी रान्तर परावर्तन के ते आज श्रावस्ती नगरीने विषे हालाहला कुंभरणना कुंभकारापण - हाटने विषे गौतमपुत्र अर्जुनना शरीरनो त्याग करी मंखलिपुत्र गोशालकनुं शरीर समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करना योग्य, शीतने सहन करनार, उष्णताने सहन करनार, क्षुधाने सहन करनार, विविध डांस मच्छर वगेरे परिषह अने उपसर्गने सहन करनार, तथा स्थिरसंघयणावालुं छे' -एम समजी तेमां में प्रवेश कर्यो, अने तेमां सोळ वरसमुभी आ सातनुं शरीरान्तरपरावर्तन कयुं छे. ए प्रमाणे हे आयुष्मन् काश्यप ! में एकसो तेत्री वर्षमा सात शरीरान्तर परावर्तन कर्या छेएम में ककुं छे. ते माटे हे आयुष्मन् काश्यप ! तमे मने ए प्रमाणे सारं कहो छो, हे आष्युमन् काश्यप ! तमे मने ए प्रमाणे ठीक कहो छो के 'संखलिपुत्र गोशालक मारो धर्मान्तेवासी छे. २. ॥ ५५० ॥
तए णं समणे भगवं महाबीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-गोसाला । से जहानामए-तेणए सिया गामेएहिं परम्भमाणे प० २ कत्थय गई वा दरिं वा दुग्गं वा णिनं वा पच्त्रयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उन्नालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणसूरण वा अत्ताणं आवरेत्ताणं विद्वेजा, से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मन्नइ अप्पच्छपणे थ पच्छण्णमिति अध्याणं मन्नति अणिलुके णिलुकमिति
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१५
उद्देशः १ ॥१३०७॥
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१५शक
*देशार
॥१३.८०
www.kobatirth.org अप्पाणं ममति अपलाए पलायमिति अप्पाणं मन्नति एवामेव तुमंपि गोसाला | अगले संते अन्ममिति अप्पाणं बाच्या-16
उपलभसि, तं मा एवं गोसाला, नारिहसि गोसाला!, सचेव ते सा छाया नो अन्ना (सूत्रं ५५१)॥ प्रति
उपर प्रमाणे गोशालके कह्यु एटले श्रमण भगवान महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कयु-'हे गोशालक! जेम १३०८॥
कोई चोर होय अने ते ग्रामवासी जनोथी पराभव पामतो २ कोई गा-खाडो, गुफा, दुर्ग-दुःखे जवा योग्य स्थान, निम्न-नीचाण प्रदेश, पर्वत के विषम-खाडा अने टेकरावाळा प्रदेशने नहि प्राप्त करतो एक मोटा ऊनना लोमथी, शणना लोभयी, कपासना लोमथी बने तणना अग्रभामथी पोताने डांकीने रहे, अने ते नहि ढंकाया छतां हुँ ढंकायेल हुँ एम पोताने माने, अप्रच्छन-नहि छपाया छतां पोताने प्रच्छन-छुपायेल माने, नहि संतावा छतां पोताने संतायेल माने, अपलापित-गुप्त नहि छतां पोताने गुप्त माने, ए प्रमाणे हे गोशालक! तु पण अन्य नहि छतां हुं अन्य छ-एम पोताने देखाडे के. ते माटे हे गोशालक! एम नहि कर, गोशालक ! एम करवाने तुं योग्य नथी. तेज आ तारी प्रकृति छे, अन्य नथी. ॥ ५५१ ॥
तएणं से गोसाले मंस्खलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ समणं | भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसति उच्चा०२ उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेति उद्धंसेत्ता उचावयाहिं निम्भंडणाहिं निम्भंछेति उ०२ उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति उ. ९एवं बयासी-नहेसि कवादविणद्वेसि कदाइ भट्ठोऽसि कयाइ नढविणद्वे भट्ठसि कदापि, अज्जन भवसि, नाहि ते ममाहितोसुह मस्थि॥ (सूत्र ५५२)॥
MES
ASIABAD
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प्रति
उमेशा ॥१३.९॥
PORAKAR
श्रमण भगवान महावीरे ए प्रमाणे कडं एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक एकदम गुस्से थयो अने श्रमण भगवान् महावीरने अनेक प्रकारना अनुचित वचनोबडे आक्रोश करवा लाग्यो, आक्रोश करीने अनेक प्रकारनी उद्धर्षणा-पराभवना वचनोवडे तिरस्कार करवा लाग्यो, तिरस्कार करी अनेक प्रकारनी निर्भर्सना बडे निर्भसित करवा लाग्यो, निर्भर्त्सना करी अनेक प्रकारनी निश्छोटना कर्कश बचनोवडे हलका पाडवा प्रयत्न करवा लाग्यो, अने तेम करी ते गोशालक आ प्रमाणे बोल्यो-"कदाचित-हुँ एम मार्नु छु के तुं नष्ट थयो छे, कदाचित् विनष्ट थथो छे, कदाचित् भ्रष्ट थयो छे, अने कदाचित् नष्ट, विनष्ट अने भ्रष्ट थयो छे, कदाचित् तुं आजे हइश नहि, तने माराथी सुख थवान नथी". ॥ ५५२ ॥
तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओम. अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूती णामं अणगारे पगइभइए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागेणं एयमढे असदहमाणे उठाए उट्टेति उ०२ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्त तेणेव उवा २ गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासी-जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति सेविताव वंदति नमसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासह, किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चेव पवाविए भगवया चेव मुंडाविए भगवया चेव सेहाविए भगवया चेव सिक्खाविए भगवया चेव पहुस्सुतीकए भगवओ चेव मिच्छ विप्पडिवन्ने, तं मा एवं गोसाला!, नारिहसि | गोसाला!, सच्चेव ते सा छाया नो अन्ना, तए ण से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं एवं खुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सव्वाणुभूति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहवं जाव भासरासि करेति, तएणं से
RADHA
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गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूति अणगारं तवेणं तेएणं एगाह कूडाहर्ष जाव भासरासिं करेत्ता पोचपि समज्यिादाणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ जाव सुहं नत्यि। ते काळे अने ते समये श्रमण भगवंत महावीरना अन्तेवासी-शिष्य पूर्व देशमा उत्पन्न थयेला सर्वानुभूति नामे अनगार भद्र
18॥१२१०॥ प्रकृतिना अने यावद विनीत हता. ने पोताना धर्माचार्यना अनुरागथी आ गोशालकनी वातनी अश्रद्धा करता उठ्या, उठीने ज्यां
मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्यां आवी मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कधु-" हे गोशालक! जे तेवा प्रकारना श्रमण के बा. ६ मणनी पासे एक पण आर्य-निर्दोष अने धार्मिक सुवचन सामळे छे ते पण तेने वंदन अने नमस्कार करे , यावत् ते कल्याणकर | अने मंगलकर देवना चैत्यनी पेठे तेनी पर्युपासना करे छे; पण हे गोशालक! तारे माटे तो शुकहे, !!! भगवंते तने दीक्षा
आपी, अर्थात् शिष्यरूपे स्वीकार कयों, भगवंते तने मुंब्या, भगवंते तने प्रतसमाचार शीखन्यो, भगवते तने शिक्षित कयों अने भगवते तने बहुश्रुत कयों, तो पण ते भगवंतनी साथे अनार्यपणुं आदर्यु छे ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, हे गोशालक तुं एम करवाने योग्य नथी. आ तेज तारी प्रकृति छ, अन्य नथी." ए प्रमाणे सर्वानुभूति अनगारे का एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक गुस्से थयो, अने सर्वानुभूति अनगारने पोताना तपना तेजथी एक प्रहारे करी कूटाघात-पाषाणमय यंत्रना आघातनी पेठे बाळी भस्म कर्या. त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालके सर्वानुभूति अनगारने पोताना सपना तेजथी एक पाए कूटाधानी पेठे भमराशि करीने पीजी वार पण श्रमण भगवंत महावीरने अनेक प्रकारनी आक्रोशना वडे आक्रोश कर्यो, यावत्-'माराथी तमने मुख थवानुनथी."
तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसल जाणवए सुणक्खत्ते णाम अणगारे पगह
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२५.
उमेश
॥१३११॥
भद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागेणं जहा सब्याणुभूती तहेव जाव सञ्चेव ते सा छाया नो अन्ना । तए णं से
गोसाले मंखलिपुत्ते मुणवत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सुनक्वत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परिप्रावि ॥१२११॥
तावेइ, तर णं से सुनक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मखलिपुत्तणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे | भगवं महाबीरे तेणेव उवागच्छद २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो२वंदह नमसइ २ सयमेव पंच महम्बयाई आरुमेति स०२ ममणा य समणीओ य खामेह सम०२ आलोइयपडिते समाहिपत्ते आणुपुब्बीए कालगए।
ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान महावीरना अन्तेवासी कोशलदेश-अयोध्यादेशमा उत्पन्न थयेला सुनक्षत्र नामे अनलागार भद्र प्रकृतिना अने यावत्-विनीत हता. ते धर्माचार्यना असुरागथी-इत्यादि जेम सर्वानुभूति संबन्धे का तेम अहिं यावत्
'आ तारी प्रकृति के अन्य नथी' त्यांमृधी कहे; मुनक्षत्र अनगारे ए प्रमाणे का एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक अत्यंत गुस्से । थयो, अने सुनक्षत्र अनगारने तेणे तपना तेजधीवाल्या. मंखलिषुत्र गोशालकवडे तपना तेजथी पळेला सुनक्षत्र अनगारे ज्या श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवी श्रमण भगवंत महावीरने प्रणवार प्रदक्षिणा करी वन्दन अने नमस्कार करी खयमेव पांच महाव्रतनो उच्चार करी साधुओ अने साध्वीओने खमान्या, खमाबीने आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थई ते अनुक्रमे काळधर्मने पाम्या.
तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्वत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेत्ता तञ्चपि समण भगवं महाबीरं उचावयाहिं आउसणाहिं आउसति सव्यं तं चेव जाव सुहं नथि । तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंख-| लिपुत्तं एवं बयासी-जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा तं चेव जाव पज्जुवासेह,
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व्याक्या
प्रज्ञप्तिः १३१२॥
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किमंग पुण गोसाला ! तुमं मए चैव मुंडाबिए पब्बाबिए मए चैव जाव भए चैव बहुस्सुईकए मम चैव मिच्छ विपडिने ?, तं मा एवं गोसाला ! जाब नो अन्ना, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महाबीरेणं एवं वृत्ते समाणे आसुरुते ५ तेयसमुग्धारणं समोहन्नइ तेया० सत्तट्ठ पयाई पचोसकइ २ समणस्स भगवओ महावीरस्स बहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति, से जहानामए वाउक्कलियाई वा वायमंडलियाइ वा सेलंसि वा कुइंसि वा भंसि वा धूभंसि वा आवरियमाणी वा निवारियमाणी वा सा णं तथेव णो कमति नो पक्षमति एवामेत्र गोसालस्सवि मंखलिपुत्तस्स तवे तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स बहाए सरीरगंसि निसिट्ठे समाणे से णं तत्थ नो कमति नो पक्कमति अंचियंचि करेति अंचि० २ आयाहिणपयाहिणं करेति आ० २ उ बेहासं उप्पइए, से णं तओ पडिहए पडिनियन्ते समाणे तमेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २ अंतो २ अणुष्पविट्ठे, तर णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सरणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं बयासीतुम आउसो ! कासवा ! ममं तवेणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहबकंती छमत्थे चैव कालं करेस्ससि, तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी - नो खलु अहं गोसाला ! तव तवेणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं जाव कालं करेस्सामि, अहन्नं अन्नाई सोलस वासाई जिणे सुहस्थी बिहरिस्सामि, तुमं णं गोसाला ! अप्पणा चेब सयेणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जर परिगयसरीरे जाव छउमत्ये चेव कालं करेस्ससि,
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१५ फे
उद्देचा १ ॥१३१२॥
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प्रकाशित
त्यारबाद मंखलिपुत्र गोशालक मुनक्षत्र अनगारने तपना तेजथी पाळीने त्रीजीवार श्रमण भगवंत महावीरने अनेक प्रकारना अनुचित वचनोथी आक्रोश करवा लाग्यो-इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहे, यावद-"तने माराथी मुख थवार्नु नथी." त्यारे श्रमण भगका वान् महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कडं के 'हे गोशालक ! जे तेवा प्रकारना श्रमण अने ब्राह्मणर्नु [आर्य अने धार्मिक
उमेशा
॥१३१३॥ मुबचन सांभळे छे-इत्यादि] पूर्वोक्त कहे, ते तेनी यावत्-पर्युपासना करे छे, तो हे गोशालक ! तारे माटे तो शुं कहे!! में तने प्रवज्या आषी, यावत्-में तने बहुश्रुत कर्यो, अने ते मारी साथे मिथ्यात्व-अनार्यपणुं आदयु के. ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, यावत्-ते आ तारी ज प्रकृति छ, अन्य नथी.' श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कडं एटले ते मखलिपुत्र गोशालक अत्यंत गुस्से थयो, अने तैजस समुद्घात करी, सात आठ पगला पाछो खसी तेणे श्रमण भगवंत महावीरनो वध करवा माटे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढी. जेम कोह बातोत्कलिका [जे रही रहीने वायु वाय ते] के बंटोळीओ होय ते पर्वत, भीत, स्तंभ, के स्तूपवडे आवरण करायेलो के निवारण करायेलो होय तो पण तेने विषे समर्थ थतो नथी, विशेष समर्थ थतो नथी, ए प्रमाणे मंख3) लिपुत्र गोशालकनी तपोजन्य तेजोलेश्या श्रमण भगवंत महावीरनो वध करवा माटे शरीरमांधी बहार काढथा छतां तेने विषे समर्थथती नथी, विशेष समर्थ थती नथी, पण गमनागमन करे , गमनागमन करीने प्रदक्षिणा करे छ, प्रदक्षिणा करी उंचे आकाशमा
उछळे के, अने त्यांची स्खलित थईने पाछी फरती तपोजन्य तेजोलेश्या मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने वाळती वाळती वेना शरीकरनी अंदर प्रविष्ट थाय छे. त्यारवाद पोतानी तेजोलेश्यावडे परामवने प्राप्त थयेला मंखलिपुत्र गोशालके श्रमण भगवंत महावीरने
आ प्रमाणे कडे-'हे आयुष्मन् काश्यप ! मारी तपोजन्य तेजोलेश्याथी पराभवने प्राप्त थई छ मासने अन्ते पिचज्वरयुक्त शरीर छ ।
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व्याकयाप्राप्तिः ४२३१४।।
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जेनुं एवो तुं दाहनी पीडाथी उग्रस्थ अवस्थामां काळ करीश.' त्यारे भ्रमण भगवंत महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने ए प्रमाणे क के 'हे गोशालक ! हुं तारी तपोजन्य तेजोलेश्याथी पराभव पानी छ मासने अन्ते यावत्- काळ करीश नहि, पण बीजा सोळ वरस सुधी जिन तीर्थंकरपणे गन्धहस्तीनी पेठे विश्वरीश, परन्तु हे गोशालक ! तुं पोतेज तारा तेजथी पराभव पामी सात रात्रिने अन्ते पिसज्वरथी पीडित शरीरवाळो थई छमस्थावस्थामां काळ करीश. '
तए णं सावस्थीए नगरीए सिंघाडग जाब पहेसु बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्खड़ जाव एवं परुवेइ, एवं खलु देवाणुपिया ! सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेहए दुवे जिणा संलवंति, एगे वयति - तुमं पुत्रिकालं करेस्ससि, एगे वदति-तुमं पुचि कालं करेस्समि, तन्ध ण के पुण सम्माबादी ? के पुण मिच्छावादी ?, तस्थ णं जे से अहप्पहाणे जणे से वदति-समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी, अजोति समणे भगवं महावीरे ममणे निग्गंधे आमंतेत्ता एवं वयासी-अज्जो ! से जहानामए तणरासी वा कट्टरासीद वा पत्तरासीह वा तगारासीह वा तुसरासीइ वा बुमरासीइ वा गोमयरासीइ वा अवकररासीइ वा अगणिशामिए अगणिसिए अगणिपरिणामिए हवतेये गयतेये नतेये भट्टतेये लुत्तते एविणतेये जाव एवामेव गोसाले मंखलिपुते मम बहाए सरीरगंसि तेयं निसिरेत्ता हपतेये गयतेथे जाव विणद्वतेये जाए, तं देणं अज्जो ! तुज्झे गोसालं मंग्वलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोषणाए पडिचोएह धम्मि० २ श्रम्मियाए पडिसारणाए पडिसा रेह धम्मि० २ धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह धम्मि० २ अहेहि य हेकहि य पसिणेहि प वागरणेहि य कारणेहि य
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१५ शतके उद्देशः १ ॥१३१४॥
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१५सके उद्देशा
॥१.१५॥
॥१३१५॥
ORAO
| निप्पट्ठपसिणवागरण करेह,
त्यार पछी श्रावस्तीनगरीमा शृंगाटकना आकारवाला त्रिकोण मार्गमां यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे के, यावत्-आ प्रमाणे प्ररूपे छे-“हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर श्रावस्तीनगरीनी बहार कोष्ठक चैत्यने विषे वे जिनो परस्पर कहे छे, तेमां एक आ प्रमाणे कहे छ के 'तुं प्रथम काळ करीश' अने बीजा एम कहे के के 'तुं प्रथम काळ करीश.' तेमा कोण सम्यग्वादी-सत्यवादी छे, अने कोण मिथ्यावादी छ ? तेमां जे जे प्रधान-मुख्य माणसो छे ते बोले छे के श्रमण भगवान् महावीर सम्यगवादी, अने मंखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी." श्रमण भगवान महावीरे 'हे आर्यों'ए प्रमाणे निर्ग्रन्थोने बोलावी एम को के हे 'पार्यो : जेम कोई तृणनो कोइ काष्ठनो राशि, पांदडानो राशि, त्वचा-छालनो राशि, तुष-फोतरानो राशि, भुसानो रात्रि, छाणनो राशि, अने कचरानो राशि अनिथी दग्ध थयेलो, अप्रिथी युक्त अने अमिथी परिणमेलो होय तो ते जेतुं तेज हणायु , जेनुं तेज गयेलुं छे, जेनुं तेज नष्ट थयु के, जेन तेज भ्रष्ट थयु छे, जेनुं तेज लुप्त थयेलुं के अने जेर्नु विनष्ट थयेखें के एवो यावत्-थाय, ए प्रमाणे मखलिपुत्र गोशालक मारो वध करवा माटे शरीरमाथी तेजोलेश्या बहार काढीने जेनुं तेज हणायुं के एवो, तेजरहित अने यावत-विनष्टतेजवाळो थयो छे, माटे हे आर्यों ! तमारी इच्छाथी तमे मखलिपुत्र गोशालकनी साथे धार्मिक प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचन कहो, धार्मिक प्रतिचोदना करी धार्मिक प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूलपणे विस्मृत अर्थन संस्मरण करावो, धार्मिक प्रतिसारणा करी धार्मिक वचनना प्रत्युपचारवडे प्रत्युपचार करो, तेमज अर्थ-प्रयोजन, हेतु, प्रश्न, व्याकरण-उत्तर अने कारण वडे पूछेला प्रश्ननो उत्तर न आपी के तेम निरुत्तर करो'.
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डडेवार
का तए णं ते समणा निग्गंधा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समण भगवं महावीर ववंति नमसंति वं. न. जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेद उवागच्छति तेणेव २ गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए
१५शतके प्राप्ति
है पडिचोयणाए पडिचोएंति ध०२ धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेति ध०२ धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति १३१६॥ ध.२ अटेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव वागरणं वागरेंति । तए णं से गोमाले मंग्वलिपुत्ते समणेहिं निग्गं
3॥१३१६॥ पाथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोतिजमाणे जाव निप्पट्टपसिणवागरणे कीरमाणे आसुरुत्ते जाव मिसि | मिसेमाणे नो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाषाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेदं वा करेत्तए, तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मखलिपुत्तं समणेहिं निम्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोए. जमाणं धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाणं धम्मिएणं पडोयारेण य पडोयारिजमाणं अडेहि य हेहि य जाव कीरमाणं आसुरुत्तं जाच मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंधाणं सरीरगस्स किंचिवि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाण पासंति पा- २ गोसालस्म मखलिपुत्तस्स अंतियाओ आयाए अवमंति आयाए अवकमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति ते. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ० २ बंदंति नमं० २ समर्ण भगवं महावीरं उवसंपन्जित्ताणं विहरंति, अस्थेगइया आजीविया थेरा गोसाल चेव मंखलिपुत्तं उवसंपबित्तार्ण विहरति ।
ज्यारे श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कडं त्यारे ते श्रमण निर्ग्रन्थो श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे. वंदन-15
SEC56fASON
CARE
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उमेश १३१
॥१३१७॥
नमस्कार करी ज्यां गोशालक मंखलिपुत्र छेत्या आवी मंखलिपुत्र गोशालकने धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचनो PI कहे छ, धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना करी धार्मिक प्रतिसारणा-तेना मतने प्रतिकूलपणे अर्थन स्मरण करावे छे, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा
करी धर्मसंबन्धी वचनना प्रत्युपचारवडे प्रत्युपचार करे छे अने अर्थ-प्रयोजन, हेतु अने कारणवडे यावत्-नेने निरुत्तर करे छ, त्यार बाद श्रमण निन्थोए धार्मिक प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल प्रश्नो करी अने यावत्-तेने निरुत्तर कयों एटले मंखलिपुत्र गोशाकक अत्यन्त गुस्से थयो अने यावत्-क्रोधथी अत्यंत प्रज्वलित थयो, परन्तु श्रमण निर्ग्रन्थोना शरीरने कहपण पीटा के उपद्रव करवाने तथा तेना कोइ अवयवनो छेद करवाने समर्थ न थयो. सारपछी आजीविक स्थविरो श्रमण निम्रन्थो वडे धर्मसंबन्धी तेना मतथी प्रतिकूलपणे कडेवायेला, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूलपणे स्मरण करावायेला, अने धर्मसंपन्धी प्रत्युपचारवडे प्रत्युचार करायेला तथा अर्थ अने हेतुथी यावत्-निरुत्तर करायेला, अत्यन्त गुस्से करायेला, यावत् क्रोधथी चळता, श्रमण अने निर्घन्धना शरीरने कइपण पीडा-उपद्रव के अवयवोना छेद नहि करता रवा मंखलिपुत्र गोशालकने जोइने तेनी पासेथी पोते नीकळ्या, अने त्यांथी नीकळी ज्या श्रमण भगवंत महावीर के त्या आल्या, त्यां आबीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार
प्रदक्षिणा करी, वांदी अने नमीने श्रमण भगवान महावीरनो आश्रय करी दिहरवा लाग्या, अने केटलाएक आजीविक खविरो सामंखलिपुत्र मोशालकनोज आश्रय करी विहरवा लाग्या.
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्टाए हव्यमागए तमढे असाहेमाणे रुंदाई पलोएमाणे दीहुण्डाइनीसासमाणे वाढियाए लोमाई हुँचमाणे अवई कंड्यमाणे पुलिं पष्फोरेमाणे हत्थे विणिधुणमाणे दोहिवि पाएहिं
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॥१३१८॥
SAMMERSI
उशार १२१८॥
भूमि कोहेमाणे हा हा अहो। हओऽहमस्सीतिका समणस्स भ.महा. अंतियाओ कोट्टयाओ चेड्याओ पडिनिक्खमति प. २ जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छह ते०१ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंवकूणगहत्थगए मज्जपाणगंपियमाणे अभिक्खणं गायमाणे अभिक्खणं नचमाणे अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे सीयलएणं महियापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाइं परिसिंचमाणे विहरति (सूत्रं ५५३)॥
त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालक जेने माटे शीघ्र आव्यो हतो ते कार्यने नहि साधतो, दिशाओ तरफ लांबी दृष्टिथी जोतो, दीर्घ अने उष्ण नीसासा नांखतो, दाढिना वाळने खेचतो, अवटु-डोकनी पाछळना भागने खजवाळतो, पुतप्रदेश ने प्रस्फोटित करतो, हस्तने हलावतो अने बन्ने पगवडे भूमिने कूटतो, 'हा हा ! अरे। हुं हणायो छ'-एम विचारी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने कोष्ठक चैत्यथी नीकळी ज्यां श्रावस्ती नगरी छे, अने ज्यां हालाहलानामे कुंभारणतुं कुंभकारापण-हाट के त्यां आव्यो, त्यां आवीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणमा जेना हाथमा आम्रफल रहेलुं छे एवो, मद्यपान करतो,वारंवार गातो, वारंवार नाचतो, वारंवार हालाहला कुंभारणने अंजलि करतो अने माटीना भाजनमा रहेला शीतल माटीना पाणीवडे गात्रने सींचतो विहरे छे. ॥ ५५३ ॥ । अजोति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं क्यासी-जावतिए णं अज्जो। गोसालेण मंखलिपुत्तेणं ममं वहाए सरीरगंसि तेथे निसट्टे से गं अलाहि पज्जत्ते सोलसहं जणवयाणं, तं०-अंगाणं वंगाणं मगहाणं मलयाणं मालवगाणं अस्थाणं वत्थाणं कोस्थाण पाढाणं लाढाणं बजाणं मोलीण कासीणं कोसलाणं
CA+
ON
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ध्याख्या
प्रज्ञप्तिः १३१९ ।।
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अवाहाणं सुभुत्तराणं घाताए बहाए उच्छादणयाए भासीकरणयाए, जंपिय अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाह लाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंवकूणगहत्थगए मजपाणं पियमाणे अभिक्खणं जाव अंजलिकम्मं करेमाणे बिहरह, तस्सवि य णं वज्जस्स पच्छादणट्टयाए इमाइं अट्ठ चरिमाइं पन्नवेति, तंजहा -- चरिमे पाणे चरिमे गेये चरिमे नद्वे चरिमे अंजलिकम्मं चरिमे पोक्स्खलसंवहए महामेहे चरिमे सेयणए गंधहत्थी चरिमे महासिलाकंटए संगामे अहं चणं इमीसे ओसप्पिणीए समाए चवीसाए तित्थकराणं चरिमे तित्थकरे सिज्झिस्सं जाव अंत करेस्संति, जंपि य अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं महियापाणएण आयंचणिउदरणं गायाई परिसिंचमाणे विहरह तस्सव य णं वज्जस्स पच्छादणट्टयाए इमाहं चत्तारि पाणगाई पनवेति, से किं तं पाणए ?, पाणए चउव्विहे पत्ते, तंजहा - गोपुए हत्थमद्दियए आयवतत्तए सिलाप भट्ठए, सेत्तं पाणए,
'हे जार्यो !' एम कहीने श्रमण भगवान् महावीरे श्रमण निर्ग्रन्थोने आमंत्रीने ए प्रमाणे कनुं के हे आयो ! मंखलिपुत्र गोशालके मारो वध करवा माटे शरीरथकी तेजोलेश्या काढी हती, ते आ प्रमाणे- १ अंग, २ बंग, ३ मगध, ४ मलय, ५ मालव, ६ अच्छ, ७ वत्स, ८ कौत्स, ९ पाट, १० लाट, ११ वज्र, १२ मौली, १३ काशी, १४ कोशल, १५ अबाध अने १६ संयुक्तरए सोळ देशनो घात करवा माटे, वध करवा माटे, उच्छेदन करवा माटे, भस्म करवा माटे समर्थ हती, वळी हे आर्यो ! मंखलिपुत्र | गोशालक हालाहला कुंभारणना कुंमकारपणमां आम्रफल हाथमां ग्रहण करी मद्यपान करतो, वारंवार यावत्- अंजलिकर्म करतो विहरे के ते अवद्य - दोषने प्रच्छादन-ढांकवा माटे आ आठ चरम-छेली वस्तु कहे छे. ते आ प्रमाणे- १ चरम पान, २ चरम गान,
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१५ उद्देशः १
| ।। १३१९॥
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प्रशासि १३२०॥
नाAAAAERONA
३ चरम नाब, ४ चरम अंजलिकर्म, ५ चरम पुष्कल संवत महामेष, ६ चरम सेचनक गन्धहस्ती, ७ चरम महाशिलाकंटक संग्राम अने ८ हुआ अवसर्पिणीमा चोवीश तीर्थकरोमा चरम तीर्थकरपणे सिद्ध थईश, अने यावत्-'सर्व दुःखोनो अन्त करीश'. बळी हे आर्यो! मंखलिपुत्र गोशालक माटीना पात्रमा रहेला माटीमिश्रित शीत पाणीवडे शरीरने सींचतो विचरे छे ते अवधने पण
ठमेशा ढाकवाने माटे आ चार प्रकारना पानक-पीणां अने चार नहि पीवा योग्य (शीतल अने दाहोपशमक) अपानक जणावे - ॥१३२०॥ म.] पाणी केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ.] पाणी चार प्रकारे कर्जा थे, ते आ प्रमाणे-१ गायना पृष्ठथी पडेलं, २ हाथथी मसळेलं. सूर्यना तापथी तपेलु, अने ४ शिलाथी पडेटु. ए प्रमाणे पाणी कहा. | से किं तं अपाणए?, अपाणए चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-धालपाणए तयापाणए सिंपलिपाणए सुद्धपाणए, | से किं तं थालपाणप?, २ जणं दाथालगं वा दावारगं वा दाकुंभगं वा दाकलसं वा सीयलगं उल्लगं हत्थेहिं | परामुसह न य पाणियं पियह सेत्तं धालपाणए, से किं तं तयापाणए!, २ जण अंचं वा अंबागं वा जहा पओगपदे जाव बोरं वा तिंदुरुयं वा तरुयं वा तरुणगं वा आमगंवा आमगंसि भावीलेति वा पवीलेति वा नय पाणियं पियह सेत्तं तयापाणए, से किं तं सिबलिपाणए ?, २ जपणं कलसंगलियं वा मुग्गसंगलियं वा माससंगलियं वा सिंबलिसंगलियं वा तरुणियं आमियं आसगंसि आवीलेति वा पीलेति वा ण य पाणियं पियति सेत्तं सिंबलिपाणए, से किं तं सुद्धपाणए ?, सु. जपणं छम्मासे सुद्ध खाइमं खाइति दो मासे पुढविसंथारोचगए दो मासे कट्ठसंथारोवगए दो मासे दम्भसंथारोषगए, तस्स णं बहुपडिपुत्राणं छहं मासाणं अंतिमराइए इमे दो 31
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अति
१५ का उद्देशा
॥१३२१॥
देवा महड़िया जाव महेसक्खा अंतियं पाउम्भवंति, तं०-पुषभद्दे य माणिभद्दे य, तए णं ते देवा सीयलएहिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामुमति जेणे ते देवे साइजति से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेति जेणं ते देवे नो साइजति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति, से णं सएणं तेषणं सरीरगं झामेति स. २ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति, सेत्तं सुद्धपाणए।
म.] अपानक केटला प्रकारे । [उ०] अपानक चार प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-१ स्थालनु पाणी, २ वृक्षादिनी छालन पाणी, ३ शीगोनुं पाणी अने ४ शुद्ध पाणी (देवहस्तना स्पर्शनुं पाणी.) [प्र.] स्थालपाणी केवा प्रकारे कबुछे? [उ.] जे उदकथी मीजायेलो स्थाल, पाणीथी भीनो वारक-करवडो, पाणीथी भीनो मोटो घट, पाणीथी भीनो न्हानो घट, अथवा पाणीथी भीना मादीना वासण, तेनो हाथथी स्पर्श करे पण पाणी न पीए ते स्थालपाणी, ए प्रमाणे स्थालपाणी कधु[म.] त्वचापाणी केवा प्रकारचें ? [उ.] जे आंबो अंबाडग-इत्यादि प्रथोमपदमा कडा प्रमाणे यावद-बोर तिंदुरुक सुधी जाणवा, ते तरुण-अपक अने आम-काचा होय, तेने मुखमा नांखी थोडुं चावे, विशेष चावे, पण पाणी न पीए ते त्वचापाणी. ए प्रमाणे त्वचापाणी को. [प्र०] शीगोनुं पाणी केवा प्रकारर्नु छ ? [उ.] जे कलायसिंबली-वटाणानी शींग, मगनी भींग, अडदनी शीग के किंवलीनी शींग वगेरे तरुण-अपक अने आम-काची होय तेने मुखमां थोडे चाचे के विशेष चावे, पण तेनुं पाणी न पीए ते धींगोनू पाणी कहेवाय, ए प्रमाणे शीगर्नु पाणी क[.[प्र.] शुद्ध पाणी केवा प्रकारर्नु छ ? [उ.] जे छ मास सुधी शुद्ध खादिम आहारने खाय, तेमांवे मास सुधी पृथिवीरूप संस्तारकने विषे रहे, वे मास मुधी लाकडाना संस्तारकने विवे रहे, अनेबे मास मधीदर्भना संस्तारकने
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MIRROT
AMERASHRESTHABAR
www.kobetth.org विवे रहे, तेने बरोबर पूर्ण बयेला छ मासनी छेल्ली रात्रीए महर्दिक बने यावत् महासुखवाळा दे देवो तेनी पासे प्रगट पाय, ते आ | प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्रा त्यारपछी ते देवो शीतल अने आई हस्तवडे भरीरना अवयवोनो स्पर्श करे, हवे जे ते देवाने अनुमोदे, एटले तेना आ कार्यने सारं जाणे ते आशीविषपये कर्म करे, जे ते देवोने न अनुमोदे, तेना पोताना शरीरमा अनिकाय उत्पन्न याय, अने ते पोताना तेजवडे शरीरने बाळे, अने त्यारपडी ते सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करे, ते शुद्ध पानक कडेवाय. ए प्रमाणे शुद्ध पानक क.
तत्थ णं सावत्थीए नयरीए अयंपुले णामं आजीविओवासए परिवसह अड्डे जाव अपरिभूए जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अभया कदापि पुत्ररत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुनजागरिय जागरमाणस्स अयमेपारवे अम्भथिए जाच समुप्पज्जित्था-किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता, तए णं तस्स अघपुलस्स आजीविओवासगस्स दोचपि अयमेयासवे अम्भत्थिए जाव समुप्प-14 जिस्था-एवं खलु मम धम्मायरिए धम्मोपदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पन्ननाथदसणधरे जाव सम्वन्नू सव्वदरिसी इहेव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिखुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरह, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते गोसालं मखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता इम एयारूवं वागरण वागरित्तएत्तिकद्द एवं संपेहेति एवं०२ कल्लं जाब जलते पहाए कयजाव अप्पमहग्याभरणालंकिय सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति सा०२ पायविहारचारेणं सावधि नगरिं मज्झमझेणं जेणेव हालाहलाए
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पाल्वाप्रवतिः
कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवाग०२ पासइ गोसालं मखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगयं जाव अंजलिकम्मं करेमाणं, सीधलएणं मट्टिया जाव गायाइं परिसिंचमाणं पासह २ लजिए
दिशा विलिए विड़े सणिय २ पच्चोसकर, तए णते आजीवियाथेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पच्चोसकमाणं
१३२३॥ पासह पा. २ एवं वयासी-एहि ताव अयंपुला! पत्तओ, तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीवियथेरेहिं एवं वुत्ते समाणे जेणेव आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छह तेणेव. २ आजीविए थेरे वंदति नमसति २ नच्चासन्ने जाव पज्जुवासह, अयंपुलाइ आजीविया थेरा अयं पुलं आजीवियोवासगं एवं ३०-से नूणं ते अयंपुला! पुष्धरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता, तए णं तव अयंपुला! दोचंपि अयमेया. तं चेव सवं भाणियब्वं जाव सावधि नगरिं मज्झमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव इहं तेणेव हामागए, से नूणं ते अयंपुला! अढे समढे!, हंता अस्थि, जंपि य अयंपुलातब धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंस्खलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए जाव अंजलि करेमाणे विहरति तत्थविणंटू भगवं इमाइं अट्ठ चरिमाइं पनवेति, तं०-चरिमे पाणे जाव अंतं करेस्सति, जंपिय अयंपुला! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंग्वलिपुत्ते सीयलएण महिया जाव विहरति तस्थवि णं भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई चत्तारि अपाणगाई पनवेति, से किं तं पाणए? २ जाव तो पच्छा सिज्मति जाव अंतं करेति, तं गच्छ णं तुम अयंपुला ! एस चैव तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते इम एपारूवं वागरणं वागरेहिति,
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व्याक्याप्रज्ञप्तिः १३२४॥
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ते श्रावस्ती नगरीमां अयं पुलनामे आजीविक्रमतनो उपासक-श्रावक रहेतो हतो. ते धनिक, यावस् कोइथी पराभव न पाये तेवो अने हालाहला कुंभारणनी पेठे यावत्-आजीविकना सिद्धान्तवडे आत्माने भावीत करतो विहरतो हतो. त्यापछी ते अयं पुलना मे आजीविकोपासकने अन्य कोह दिवसे कुटुंबजागरण करता मध्यरात्रिना समये आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न थयो के "केवा आकारे (कीटविशेष) कहेली है ?" त्यारपछी ते अयंपूलनामे आजीविकोपासकने बीजीवार आवा प्रकारनो आ संकल्प उत्पन्न थयो के "ए प्रमाणे खरेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक उत्पन्न थयेला ज्ञान-दर्शनने धारण करनारा, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे, तेओ आज श्रावस्ती नगरीमा हालाहला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटमां आजीविकसंघसहित आजीविकना सिद्धान्तवडे आत्माने भावित करता विहरे छे. ते माटे मारे आवती काले यावत्-सूर्योदय थये मंखलिपुत्र गोशांलकने वंदन करी, पर्युपासना करी आवा प्रकारनो आ प्रश्न पूछवो श्रेयरूप के " - एम विचारी काले यावत्-सूर्योदय थये स्नान करी, बलिकर्म करी, अल्प अने महामूल्य आभरणवडे शरीरने अलंकृत करी, पोताना घर थकी बहार नीकळी, पगे चाली, श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमां थई, ज्यां हालाहला नामे कुंभारणनुं कुंभकारापण हे त्यां आवी ते हाल इला नामे कुंभारणना कुंभकारापणमां जेना हाथमां आम्रफल रहेलं छे एवा यावत्-हालाहला कुंभारणने अंजलिकर्म करता अने शीतल माटीमिश्रित जलवडे यावत् - शरीरना अवयवने सिंचता मंखलिपुत्र गोशाळकने जुए छे; जोइने ते लञ्जित, विलखो अने वीडित थई धीमे धीमे पाछो जाय छे. त्यारपछी ते आजीविक स्थविरोए लजित यावत्-पाछा जता आजीविकोपासक अर्थ पुलने जोई ए प्रमाणे कछु - 'हे अयंपुल ! अहिं आव ज्यारे आजीविक स्थविरोए प प्रमाणे कछु त्यारे ते अयंपुल ज्यां आजीविक स्थविरो हता त्यां आग्यो, जने त्यां आवी आजीविक
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उद्देशः १ ॥१३२४॥
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व्याक्याभवतिः
॥१३१५॥
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| स्वविरोने वंदन - नमस्कार करी अत्यन्त पासे नहि तेम अत्यंत दूर नहि एम बेसी पर्युपासना करवा लाग्यो. 'हे अपुल ।' एम कही आजीविक स्थविरोए आजीविकोपासक अयंपुलने ए प्रमाणे क- "हे अयंपुल 1 खरेखर तने मध्यरात्रिना समये यावत्-केवा आकारवाळी हल्ला कहेली के ? ( एवो संकल्प थयो इतो १ ) त्यारपछी तेने बीजीवार आया प्रकारनो आ संकल्प थयो हतो ? - इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहेनुं, यावत्-श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमां ज्यां हालाहला कुंभारणनुं कुंभकारापण के अने ज्यां आ स्थान है, त्यां तुं शीघ्र आयो. हे अर्थपुल ! खरेखर आ बात सत्य के ? हा सत्य छे, हे अयंपुल ! चली तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला कुंमारणना कुंभकारापणामां आम्रफल हाथमां लह यावत् - अंजलि करता निहरे छे, तेमां पण ते भगवान् आठ चरमनी प्ररूपणा करे छे. ते आ प्रमाणे- १ चरमपानक०, यावत् सर्व दुःखनो अन्त करशे, वळी हे अयंपुल ! तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक संखलिपुत्र गोशालक शीतल माटीना पाणीवडे यावत्-शरीरने छांटता यावत्-विहरे छे, तेमां | पण ते भगवान् चार पानक अने चार अपानक प्ररूपे छे. पानक केवा प्रकारे छे ? यावत्-त्यारपछी ते सिद्ध थाय छे, यावत्'सर्व दुःखोनो अन्त करे ले,' ते माटे हे अयंपुल ! तुं जा, अने आ तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक ने आवा प्रकारनो आ प्रश्न पूछजे.'
तणं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहि थेरेहिं एवं पुत्ते समाणे हद्वतुट्ठे उट्ठाए उद्वेति उ० २ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तप णं ते आजीविया येरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंबकूणगएढावणट्टयाए एगंतमंते संगारं कुब्बह, तर णं गोसाले मंखलिपुते आजीवियाणं चेराणं संगारं परिच्छ
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१५ शतके उद्देशः १
।। १३२५॥
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१५पात
१३२५॥
|सं २ अंबकूणगं एगंतमंते एडेइ, तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवाग
६ तेणेव० २ गोसालं मखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासति, अयंपुलादी गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियोप्राप्ति ॥२६॥
वासगं एवं वयासी-से नूणं अयंपुला! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हव्वमागए, से नूणं अयंपुला! अट्टे समढे, इता अस्थि, तं नो खलु एस अंबकूणए, अंबचोयए ण एसे, किंसठिया हल्ला पन्नत्ता, वंसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता, वीणं वाएहि रे वीरगा वी०२, तए णं से अपुले आजीवियोवासए गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं बागरणं वागरिए समाणे हद्वतुढे जाव हियए गोसालं मखलिपुत्तं वं० न०२पसिणाई पु. प. २ अट्ठाई परियादियइ अ०२ उठाए उद्वेति उ०२ गोसालं मखलिपुत्तं वं. न. २ जाव पडिगए। ___ त्यारबाद ते अयंपुल आजीविक स्थविरोए ए प्रमाणे कर्जा एटले हृष्ट अने संतुष्ट थई उठ्यो, उठीने ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्यां जवा तेणे विचार कयों. त्यारे ते आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकने आम्रफल एक स्थळे मुकाववा माटे संकेत
कर्यो. त्यारवाद ते मंखलिपुत्र गोशालक आजीविक स्थविरोनो संकेत जाणी आम्रफलने एक स्थळे मूके छे. त्यारपछी ते आजीवि४. कोपासक अर्थपुल ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्या आवी मंखलिपुत्र गोशालकने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत्-पर्युपासना करे
के. 'हे अयंपुल ! ए प्रमाणे कही मंखलिपुत्र गोशालके आजीविकोपासक अयंपुलने आ प्रमाणे कहा-अयंपुल ! खरेखर तने मध्यरात्रिना समये यावत्-तने संकल्प थयो हतो, अने ज्यां हुँ छ त्यां मारी पासे तुं शीघ्र आग्यो, हे अयंपुल! खरेखर आ बात सत्य के' हा सत्य छे. ते माटे खरेखर आ आम्रनी गोटली नथी, परन्तु ते आम्रफलनी छाल दे. "केवा आकारवाळी हल्ला होय "
AAAAABASAHASHA
AMSABHAIRCRACT
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१५शतके उमेद्वार
PALA
[आवो जे संकल्प थयो हतो तेना उत्तरमां] बांसना मूलना आकार जेवी हल्ला होय . [वळी बच्चे गोशालक उन्मादमा कहे छे] " हे वीरा! वीणा वगाड, हे वीरा। वीणा वगाड." त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालके आवा प्रकारनो आ प्रश्ननो उत्तर आप्यो एटले प्रसन-संतुष्ट अने जेनु चित्त आकर्षित थयुं छे एवो आजीविकोपासक अयं पुल मखलिपुत्र गोशालकने बंदन-नमस्कार करी प्रश्नो पूछे छे, प्रश्नो पूछीने अर्थ ग्रहण करे , अर्थ ग्रहण करी उठी (पुनः ) मंखलिपुत्र गोशालकने वंदन अने नमस्कार करी यावत्-ते (स्वस्थानके) पाछो जाय के.
तए ण से गोसाले मखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएड २ आजीविए थेरे सहावेह आ० २ एवं क्यासीतुझे णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणेत्ता सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेह सु०२ पम्हलसुकुमालाए गंधका साईए गायाई लूहेह गा० २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिपह स०२ महरिहं हंसलवणं पडसाडगं नियंसेह मह० २ सवालंकारविभूसियं करेह स.२ पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दूरूहेह पुरि०२ सावस्थीए नयरीए सिंघाडगजाबपहेसु महया महया सहेणं उग्घोसेमाणा एवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तिस्थयराणं चरिमे तिस्थयरे सिद्धे जाव सव्वदुक्खापहीणे इडिसकारसमुदएणं मम सरीरगस्म णीहरणं करेह,तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमढे विणएणं पडिमुणेति (सूत्रं ५५४) ।
त्यारपाद मंखलिपुत्र गोशालके पोतार्नु मरण (नजीक) जाणीने आजीविक स्थविरोने बोलाम्या, अने बोलावी तेथे ए प्रमाणे
CARRAS
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प्रातिः ॥ १८॥
SHREGIBAKSHARA
www.kobatirth.org क-'हे देवानुप्रियो । ज्यारे मने कालधर्म प्राप्त बयेलो जाणो त्यारे सुगंधी गन्धोदकवडे स्नान करावजी, स्नान करावी लावाला अने सुकमाल गन्धकापाय (सुगंधी भगवा) बलवडे शरीरने साफ करजो, शरीरने साफ करी सरस गोशीर्षचन्दनवडे शरीरने विलेपन करजो, विलेपन करी महामूल्य हंसना चिहवाळा पटशाटकने पहेरावजो, पहेरावी सर्वालंकारथी विभूषित करजो, विभूषित करी
दावार हजार पुरुषोषी उपाढया लापक शीविकामां बेसाडजो, शीविकामा बेसाडी श्रावस्ती नगरीमा माटकना आकारवाळा यावत्-राजमार्गमा मोटा मोटा शब्दथी उद्घोषणा करता आ प्रमाणे कहेजो-"ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रियो । मखलिपुत्र गोशालक जिन, जिनप्रलापी, यावद-जिनशब्दने प्रकाश करता विहरीने आ अवसर्पिणीना चोवीश तीर्थकरोगां छेल्ला तीर्थकर थईने सिद्ध थया, यावत्-सर्वदुःखरहित थया-आ प्रमाणे ऋद्धि अने सत्कारना समुदायथी मारा शरीरने बहार काढजो." त्यारे ते आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकनी ए वातनो विनयपूर्वक स्वीकार कयों. ॥५५४ ॥
तए णं तस्स गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अ. म्भस्थिए जाव समुप्पजिस्था-णो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसर पगासेमाणे विहरंति, अहं गं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए समणमारए ममणपडिणीए आयरियउबझायाणं अयसकारए अवनकारए अकित्तिकारए पहहिं असम्भावुम्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे विहरित्ता सएणं तेएणं अन्नाइडे समाणे अंतो सत्सरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे वाहवकंतीए छउमस्थे चेव कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, एवं संपे.
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१५ शतके
जाणेत्ता बामे
पालावी जाव जिणसास
रीए सिंघ
लहेति एवं संपेहित्ता आजीविए थेरे सद्दावेह आ०२ उच्चावयसवहसाबिए करेति उच्चा०२ एवं वयासी-नो खलु व्याख्या| अहं जिणे जिणप्पलावी जाच पकासेमाणे विहरंति, अहन्नं गोसाले मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव
उमेश ॥१३२९॥ कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, तंतुझे णं देवाणु-18३२९॥
| प्पिया! ममं कालगयं जाणेत्ता वामे पाए सुंबेणं बंधह वा०२ तिक्खुत्तो मुहे उढुहह ति०२ सावस्थीए नगघरीए सिंघाडगजाब पहेसु आकडिवि किड़ि करेमाणा महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा उ• एवं बदह-नो खलु देवा
गुप्पिया! गोसाले मंस्खलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाच विहरिए, एसणं गोसाले चेव मंग्वलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगण, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरह महया अणिडीअसक्कारस. मुदएणं मम सरीरगस्स नीहरणं करेजाह, एवं वदित्ता कालगए (सूत्रं ५५५)।
हवे ते मंखलिपुत्र गोशालकने सात रात्री परिणमतां-व्यतीत थतां सम्यक्त्व प्राप्त थयु, अने तेने आया प्रकारनो अध्यवसाय संकल्प उत्पम थयो-"हुँ खरेखर जिन नथी, तो पण जिनप्रलापी, यावत् जिन शब्दने प्रकाशतो विहयों ९.९ श्रमणनो घात करनार, श्रमणने मारनार, श्रमणनो प्रत्वनीक-विरोधी, आचार्य अने उपाध्यायनो अपयश करनार, अवर्णवादकारक अने अपकीर्ति करनार मंखलिपुत्र गोशालक मु. तथा घणी असद्भावनावडे अने मिथ्यात्वाभिनिवेशवडे पोताने, परने अने बने व्युबाहितप्रान्त करतो, व्युत्पादित (मिथ्यात्वयुक्त) करतो विहरीने मारा पोतानी तेजोलेश्यावडे पराभव पामी सात रात्रीना अन्ते पित्तज्वरथी म्यात शरीरवाळो थई दाइनी उत्पत्तिथी छबावखामाज काल करीश. श्रमण भगवान् महावीर जिन के अने जिनप्रलापी यावत्
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व्याख्या
१५पतके
प्रज्ञप्ति
॥१३३०॥
CAR
जिनशन्दने प्रकाशित करता विहरे " एम विचारी ते ( गोशालक) आजीविक स्थविरोने बोलावे छे, बोलावीने अनेक प्रकारना ४ सोगन आपे छे, सोगन आपीने ते आ प्रमाणे बोल्यो-“हुँ खरेखर जिन नथी, पण जिनप्रलापी-जिनशन्दने प्रकाश करतो वियों | छु, श्रमणनो घात करनार मंखलिपुत्र गोशालक छु, यावत्-छद्मस्थवस्थामा काळ करीश. श्रमण भगवान् महावीर जिन, जिनध. लापी, यावत्-जिनशन्दनो प्रकाश करता विहरे के माटे हे देवानुप्रियो ! तमे मने काळधर्म पामेलो जाणीने मारा डावा पगने दोरडावती बांधी प्रणवार मुखमा धुंकजो, थूकीने श्रावस्ती नगरीमा श्रृंगाटकना आकारवाळा, यावत्-राजमार्गने विषे धसडता अत्यन्त मोटे शब्दे उद्घोषणा करता करता एम कहेजो के 'हे देवानुप्रियो! मस्खलिपुत्र गोशालक जिन नथी, पण जिनप्रलापी अने जिनशन्दने प्रकाशित करतो वियों छे. आ श्रमणनो घात करनार मंखलिपुत्र गोशालक यावत्-छमावस्थामांज काळधर्म पाम्यो के, श्रमण भगवान महावीर जिन अने जिनप्रलापी थई यावत्-विहरे छे, एम ऋद्धि अने सत्कारना समुदाय शिवाय मारा शरीरने बहार काढजो"-एम कहीने ते (गोशालक) काळधर्म पाम्यो. ॥ ५५॥
तए णं आजीविया थेरा गोसालं मखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवाराइं पिहंति दु०२ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावधि नगरि आलिहंति सा. गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सरीरगं वामे पादे सुंबेणं बंधंति वा०२ तिक्खुत्तो मुहे उठूभंति २ सावत्थीए नगरीए सिंघाडगजाब पहेसु आकडिविकटिं करेमाणा णीयं २ सद्देणं उग्धोसेमाणा उ.२ एवं बयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरिए एस णं व गोसा० मंखलिपु. समणघायए
R
OTA
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व्याख्याप्रशतिः ॥१३३१।।
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जाब छउमत्थे चेव कालगए सम० भ० महा० जिणे जिणप जाव विहरइ सवहपडिमोक्खणगं करेंति स० २ दोपि पूयासकारथिरीकरणट्टयाए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वामाओ पादाओ सुंषं मुयंति सु० २ हालाहला• ॐ० ॐ० दुवारययणाई अवगुणंति अ० २ गोसालस्स मंस्वलिपुत्तस्स सरीरगं सुरभिणा गंधोदरणं पहाणेति तं चैव जाव महया हड्डिसकारसमुदएणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरस्स नीहरणं करेंति ॥ ( सूत्रं ५५६ ) ॥
त्यारपछी आजीविक स्थविरोध मंखलिपुत्र गोशालकने काळधर्म पामेल जाणीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना द्वार बन्ध कर्या. वारणा बन्ध करीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना बरोबर मध्यभागमां श्रावस्ती नगरीने आळेखीने मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने डावे पगे दोरडावडे बांधीने त्रणवार मुखमां थुंकीने श्रावस्ती नगरीना शृंगाटकना आकारवाळा, यावत्-राजमार्गने विषे घडता धीमा धीमा शब्दयी उद्घोषणा करता करता आ प्रमाणे बोल्या" हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र- गोशालक जिन नथी, पण जिनप्रलापी थईने यावत्-वियों छे, आ भ्रमणघातक मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छद्मस्थवस्थामांज काळधर्म पाम्यो छे. श्रमण भगवान् महावीर जिन, अने जिनप्रलापी थईने यावत्-बिहरे छे, " ए प्रमाणे तेओ शपथथी छूटा थाय छे, अने बीजीवार तेनी पूजा अने सत्कारने स्थिर करवामाटे मंखलिपुत्र गोशालकना डाबा पगथी दोरडं छोडी नांखे छे, छोडी नांखी हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना द्वार उघाडे के, उघाडीने मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने सुगन्धी गन्धोदकवडे स्नान करावे छे इत्यादि पूर्वोक्त कहेनुं यावत् - अत्यन्त मोटी ऋद्धि अने लत्कारना समुदायथी मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने बहार काढे छे. ।। ५५६ ॥
तए णं सम० भ० म० अम्नया कदापि सावस्थीओ नगरीओ कोहयाओ चेहयाओ पडिनिक्लमति पडि० २
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१५ शतके उद्देश १ ॥ १३३२ ॥
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व्याख्या
१५ शतके
॥२३३२॥
SEARCH
बहिया जणवयविहारं विहरह। तेणं कालेणं २ मेंद्रियगामे नाम नगरे होस्था, पनओ, सस्स णं मेंडियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एस्थ णं सालकोट्ठए नाम चेहए होत्था, वसओ जाव पुढविसिलापहओ, तस्स णं सालकोढगस्स णं चेहयस्स अदरसामंते एस्थ णं महेगे मालुयाकछए यावि होस्था किण्हे किण्होभासे जाव निरंवभूए पत्तिए पुफिर फलिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अतीव २ उबसोमेमाणे चिट्ठति, तस्थ णं में ढियगामे नगरे रेवती नाम गाहावाणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूया, तए णं समणे भगवं महावीरे अक्षया कदापि पुरुवाणुपुखि चरमाणे जाव जेणेन में ढिपगामे नगरे जेणेव सालको चेहए जाव परिसा पडिगया। तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्म सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउम्भूए उज्जले आव दुरहियासे पित्तजरपरिगयसरीरे वाहवतीए यावि विहरति, अविणई लोहियवच्चाइंपि पकरेइ, चाउठवन्नं च णं वागरेति-एवं खलु समणे भ. महा• गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइडे समाणे अंतो उपहं मासाणं पित्तजरपरिगयसरीरे वाहयवंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सति । तेणं कालेणं २ समणस्स भग. महा. अंतेवासी सीहे नाम अणगारे पगहभइए जाब विणीए मालुयाकच्छगस्म अदूरसामंते छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तणं २ तवोकम्मेणं उड़पाहा जाब विहरति,
त्यारपछी श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोई दिवसे श्रावस्ती नगरीथी अने कोष्ठक चैत्यथीनीकळी बहारना देशोमा विहरे का. ते काले ते समये मेंढिकग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. ते मेंटिकग्राम नामे नगरनी बहार उत्तर-पूर्व दिशाने विषे अहिं
RADHE
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व्याख्या
साणकोष्ठक (श्वानकोष्ठक ?) नामे चैत्य हेतुं, वर्णन. यावत्-पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते साणकोष्ठक चैत्यनी थोडे दूर अहिं एक मोटुं | एक मालुका (एक बीजवाळा) पक्षन वन हतुं. ते श्याम, श्यामकान्तिवालु, यावत्-महामेघना समूह जे इतुं. वळी ते पत्रवाईं,
१५ शतके
| उद्देश पुष्पवाळू, फलबाळु, हरितवर्णवडे अत्यन्त देदीप्यमान अने श्री-शोभावडे अत्यन्त सुशोभित इतुं. ते मेडिकग्राम नामे नगरमां 15॥१३॥ रेवतीनामे गृहपत्नी (घरधणियाणी) रहेती हवी. ते ऋद्धिवाळी अने कोइथी पराभव न पामे तेबी हती. ते समये श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोई दिवसे अनुक्रमे विहार करता यावत्-ज्यां मेंढिकग्राम नामे नमर छे, अने ज्यां साणकोष्ठक नामे चैत्य के त्यां आल्या, यावत्-पर्षदा चांदीने पाछी गई. ते वखते श्रमण भगवंत महावीरना शरीरने विषे महान पीडाकारी, उज्ज्वल-अत्यन्त दाह करनार, यावत्-दुःखे सहन करवा योग्य, यावत्-जेणे पित्तज्वरवडे शरीर व्याप्त कयु छे एवो अने जेमा दाह उत्पन्न थाय के एवो रोग पेदा थयो, अने तेथी लोहीवाळा झाडा थवा लाग्या. चार वर्णना मनुष्यो कहे के के-“ए प्रमाणे खरेखर श्रमण भगचान् महावीर मंखलिपुत्र गोशालकना तपना तेजवडे पराभव पामी छ मासने अन्ते पित्तज्वरयुक्त शरीरवाळा थईने दाहनी उत्पत्तिथी छबस्थावस्थामां काळ करशे." ते काले ते समये श्रमण भगवान् महावीरना अन्तेवासी-शिष्य सिंहनामे अनगार प्रकृतिवडे भद्र, यावद-विनीत हता. ते मालुकावचनथी थोडे दूर निरन्तर छट्टनो तप करवावडे बाहु उचा राखी यावत् विहरे छे..
तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणतरियाए वहमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पबित्थाएवं खलु मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्ससमणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायके पाउम्भूए उबले जाव छउमस्थे चेव कालं करिस्सति, बदिस्संति यणं अनतिधिया छामस्थेचेव कालगए,
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१३३४॥
करANA
हमेण एयारवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पचोरुभइ आया०२
१५ शतके जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवा० २ मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसइ मालुया०२ महया ३ सद्देणं कुहुकु.
उद्देश १ हुस्स परुन्ने । अजोत्ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति आ० २ एवं वयासी-एवं खलु अजो! G॥१३३४॥ मम अंतेवासी मीहे नाम अणगारे पगइभद्दए तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव परुने, तं गच्छह णं अजो। तुज्झे सीहं अणगारं सद्दावेह, ताण ते समणा निग्गंधा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वं. न. २ समणस्स भगः म० अंतियाओ सालकोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिक्रवमंति सा०२ जेणेव मालुयाकच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छन्ति २ सीहं अणगारं एवं वयासी-सीहा! तव धम्मापरिया माति,
ते वखते ते सिंह अनगारने ध्यानान्तरिकाने विषे वर्तता आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन थयो "ए प्रमाणे खरेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवंत महावीरना शरीरने विषे अत्यन्त दाह करनार, महान् पीडाकारी रोग पेदा थयो छे | इत्यादि यावत्-ते छमावस्थामां काळधर्म पामो, अन्यतीर्थिको कहेशे के ते छमस्थवस्थामा काळधर्म पाम्या"-आवा प्रकारना आ | मोटा मानसिक दुःखवडे पीडित थयेल ते (सिंह अनगार) आतापना भूमिथी नीचे उतरी ज्या मालुकावन के त्यां आवीने मालुकावननी अंदर प्रवेश करीने तेणे मोटा शब्दथी कुहुकुहु (ठुठवो मूकी) ए रीते अत्यन्त रुदन कयु. श्रमण भगवान महावीरे 'हे आर्यो। ए प्रमाणे श्रमण निर्ग्रन्थोने बोलावी ए प्रमाणे कह्यु-“हे आर्यों! ए प्रमाणे खरेखर मारा अन्तेवासी सिंहनामे अनगार 51
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मा१५ शतके
प्रकृतिवढे भद्र छ-इत्यादि पूर्वोक्त कडेवू, यावत्-तेणे अत्यन्त रुदन कयु, ते माटे हे आयों! जाओ, अने तमे सिंह अनगारने म्याख्या-18 प्राप्ति बोलावो.” ज्यारे श्रमण मगवंत महावीरे ए प्रमाणे कयु एटले ते श्रमण निर्ग्रन्थो श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करे छे, नमे छे,
| उद्देश सावंदन करी नमीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने साणकोष्ठक चैत्यथी नीकळी ज्या मालुकावन अने ज्या सिंह अनगारsanal ताछे त्यां आवे , त्या आवीने तेणे सिंह अनगारने ए प्रमाणे कछु-“हे सिंह! धर्माचार्य तमने बोलावे छे."
तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं निग्गंथेहिं सद्धिं मालुयाकछछगाओ पडिनिक्खमति प.जेणेव सालकोट्ठए चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा० २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ.. जाव पज्जुवासति, सीहादि ! समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं वयासी-सेनूर्ण ते सीहा! झाणंतरियाए बहमाणस्स अयमेयारूवे जाव परूने, से नूणं ते सीहा! अढे समढे १, हंता अस्थि, तं नो खलु अहं सीहा ! गोसालस्म मखलिपुत्तस्स तवे तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाब कालं करेस्स, अहन्नं अन्नाई अद्धसोलस वामाई जिणे महत्थी विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तुम सीहा ! मेंद्रियगाम नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिहे, तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवखडिया तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्ने पारिवासिए मजारकहए कुक्कुडमसए तमाहराहि एएणं अट्ठो, तए णं से सीहे अणगारे समणेणे भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे हद्दतुढे जाव हियए समणं भगवं महावीरं वं. नमवं० न० अतुरियमचवलमसंभिंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति मु.२ जहा गोयमसामी जाव जेणेव समणे भ०म० तेणेव उपा०२ समणं भ.
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः
ASON-
G
|महा. बंद. न.२ समणस्स भ० महा. अंतियाओ सालकोट्ठयाओ चेहयाओ पडिनिक्खमति प०२ अतु६ रियजाव जेणेव में दियगामे नगरे तेणेव उवा० २ मेंढियगाम नगरं मझमझेणं जेणेव रेवतीए गाहावाणीए
१५ शतके गिहे लेणेव उवा० २ रेवतीए गाहावतिणीए गिहं अणुप्पविद्वे, तए सा रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं
Pउद्देश
G॥१३३६॥ एजमाणं पासति पा० २ हद्वतुट्ठ• खिप्पामेव आसणाओ अन्भुद्वेद २ सीह अणगारं सत्ता पयाई अणुगच्छा, स.२तिक्खुत्तो आ. २ वंदति न. २ एवं बयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोयणं,
त्यारे ते सिंह अनगार श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मालुकावनथी नीकळी ज्या साणकोष्ठक चैत्य छे, अने ज्या श्रमण भगवंत महावीर ळे त्यां आवे , त्या आवी श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करे, यावत् पर्युपासना करे के. श्रमण भगवंत महावीरे 'हे सिंह!" ए प्रमाणे सिंह अनगारने बोलावी आ प्रमाणे कधु-'हे सिंह! खरेखर ध्यानान्तरिकामा वर्तता तने आवा प्रकारनो आ संकल्प थयो हतो, यावत् तें अत्यन्त रुदन कयु हतुं ? हे सिंह ! खरेखर आ वात सत्य के ? हा, सत्य छे. हे सिंह ! हुं नक्की मंखलिपुत्र गोशालकना तपना तेजी पराभव पामी छ मासने अन्ते यावत् काल करीश नहि, हुं बीजा सोळ वरस जिनपणे | गन्धहस्तिनी पेठे विचरीश. ते माटे हे सिंह! तुं में ढिकग्राम नगरमा रेवती गृहपत्नीना घेर जा, स्यां रेवती गृहपत्नीए मारे माटे ट्रा कोहळाना फळो संस्कार करी तैयार कयाँ छ, तेनुं मारे प्रयोजन नथी, परन्तु तेथी बीजो गहकाले करेलो मार्जारकृत-मार्जारनामे
वायुने शान्त करनार बीजोरापाक , तेने लाव, एनुं मारे प्रयोजन के. त्यारपछी श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे को एटले | ते सिंह अनगार प्रसम्म अने संतुष्ट, यावद प्रफुल्लितहृदयवाला थई श्रमण भगवंत महावीरने बंदन अने नमस्कार करी त्वरा, चपलता
SAIRAAKRA
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व्याख्याप्राप्तिः ॥१३३७॥
१५शतके उमेश
१३३७॥
अने उतावळरहितपणे मुखवत्रिका प्रतिलेखन करी गौतमस्वामिनी पेठे ज्यां श्रमण भगवंत महावीर के त्यां आवे छे. त्या आवीने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने साणकोष्ठक चैत्यथी नीकळे छे, त्यांथी नीकाळी त्वरारहितपणे यावद-ज्यां में ढिकग्राम नामे नगर छे त्यां आवे , त्यां आवी मेंटिकग्राम नगरना मध्यभागमा थई ज्यां रेवती गृहपरलीजें घर छे, त्यां आवी तेणे रेवती गृहपत्नीना घरमा प्रवेश कयों. त्यारे ते रेवती गृहपत्नीए सिंह अनगारने आवता जोया, जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थई जल्दी आसनथी उमी थई, उमी थईने सिंह अनगारनी सामे सात आठ पगला सामी गई, | सामी जइने तेणे वणवार प्रदक्षिणा करी वंदन अने नमस्कार करी ए प्रमाणे कयु-“हे देवानुप्रिय ! आगमननु प्रयोजन कहो."
नए णं से सीहे अणगारे रेवति गाहावी एवं बयासी-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए! समण भ. म. अट्ठाए दुवे कयोयसरीरा उबक्खडिया तेहिं नो अत्थे, अस्थि ते अने पारिवासिए मजारकडए कुक्कुडमंसए एयमाहराहि, तेणं अट्ठो, तर णं सा रेवती गाहावाणी सीहं अणगारं एवं वयासी-केस णं सीहा! से पाणी वा तबस्सी | वा जेण तव एस अहे मम ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए जओ णं तुम जाणासि एवं जहा खंदए जाव जओ णं अहं जाणामि, तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठा जेणेव भत्तधरे तेणेव उवा २ पत्तगं मोएति पत्तगं मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवा० २ सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं संम निस्सिरति, तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दब्वसुदेणं जाव दाणेणं सीहे अणगारे पडिलामिए समाणे देवाउए निषद्धे जहा विजयस्स जाच जम्मजीवियफले. रेवतीए गाहावतिणीए रेवती.
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२, तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिक्स्वमति० २ मेंढियगाम नगरं मज्झमझेणं fariच्छति निरगच्छत्ता जहा गोयमसामी जान भन्तवाणं पडियंसेति २ समणस्स भगवओ महावीरस्स पार्णिसि तं सत्यं संमं निस्सिरिति, तए णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिण जाव अणज्झोवबसे बिलमिव पन्नगभूषणं अप्पाणेण तमाहारं सरीरकोद्वगंसि पक्वियति, तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स तबाहारं आहारि| मस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके विप्पामेव उवसमं पत्ते हट्ठे जाए आरोगे बलिपसरीरे तुट्ठा समणा तुट्ठाओ समणीओ तुट्टा मावया तुट्ठाओ सावियाओ तुट्ठा देवा तुट्टाओ देवीओ, सदेवमणुग्रासुरे लोए हट्ठे तुट्ठे जाए सम भगवं महावीरे हट्ट० २ । (सूनं ५५७) ।।
व्याख्या प्रज्ञप्तिः
।। १३३८ ।।
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त्यारे ते सिंह अनगारे रेवती गृहपत्नीने एम कनुं "ए प्रमाणे खरेखर तमे श्रमण भगवंत महावीरने माटे वे कोहळा संस्कार करी तैयार कर्या छे, देनुं प्रयोजन नथी, परन्तु बीजो गइकाले करेलो मार्जारकृत ( मार्जारवायुने शमावनार ) बीजोरापाक के तेने आपो, तेनुं प्रयोजन छे.” त्यारे ते रेवती गृहपत्नीए सिंह अनगारने ए प्रमाणे कछु - "हे सिंह ! कोण आ ज्ञानी के तपस्वी छे के जेणे तने आ रहस्य (गुप्त) अर्थ तुरत कह्यो, अने जेथी तुं जाणे छे ?' ए प्रमाणे स्कन्दकना अधिकारमां का प्रमाणे अहिं कहेनुं, यावत्- जेथी (भगवंतना कथनथी) हुं जाणुं छु. त्यारे ते रेवती गृहपत्नी सिंह अनगारनी ए बात सांभळी, हृदयमां अवधारी हृष्ट अने संतुष्ट थई ज्यां भक्तगृह-रसोखं छे त्यां बावीने पात्र नीचे मूके के पात्र नीचे मूकीने ज्यां सिंह अनगार छे त्यां आवे छे त्यां आवीने सिंह अनगारना पात्रने विषे ते सर्व (बीजोरापाक) आपे छे. ते समये ते रेवती गृहपत्नीए द्रव्यशुद्ध एवा यात्रत्-ते दानवडे
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११५ के उद्देश १
।। १३३८ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३३९ ।। ।
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सिंह अनगारने प्रतिलामित करवाथी देवायुष बांध्यं यावत्- विजयनी पेठे रेवतीए 'जन्म अने जीवितव्यनुं फल प्राप्त कर्यु २' - एवी उद्घोषणा थई. हवे ते सिंह अनगार रेवती गृहपत्नीना घरथी नीकळी मेंढिकग्राम नगरना मध्यभागमां धईने नीकळे के, नीकळी गौतमस्वामिनी पेठे भात - पाणी देखाडे छे. देखाडी श्रमण भगवंत महावीरना हाथमां ते सर्व सारी रीते मूके छे. त्यारबाद श्रमण | भगवंत महावीर मूर्छा - आसक्तिरहित, यावत् तृष्णारहितपणे सर्प जेम बिलमां पेसे तेम पोते ते आहारने शरीररूप कोष्ठमां नांखे छे. हवे ते आहारने खाधा पछी श्रमण भगवंत महावीरनो ते महान् पीडाकारी रोग तुरतज शान्त थयो. ते दृष्ट, रोगरहित अने बलवान शरीरवाळा थया. श्रमणो तुष्ट थया, श्रमणीओ तुष्ट थई, श्रावको तुष्ट थया, श्राविकाओ तुष्ट थई, देवो तुष्ट थया, देवीओ तुष्ट थई, अने देव, मनुष्य अने असुरो सहित समग्र विश्व संतुष्ट थयुं के 'श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट-रोगरहित थया.' ॥५५७|| भंतेत्ति भगवं गोपमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमं० २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी पाई जाणवए सव्वाणुभूतीनामं अणगारे पगतिभद्दए जान विणीए से णं भंते । तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेर्ण तवेणं तेणं भासरासीकए समाणे कहिं ग० कहिं उबवन्ने १, एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सच्चाणुभूतीनामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं भासरासीकए समाणे उ चंदिमसूरिय जाव बंभलंतकमहासुके कप्पे वीहवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवताए उबवन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाण देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता तत्थ णं सव्वाणुभूतिस्सवि देवस्स अट्ठारस सागरोमाई ठिती पन्नत्ता, से णं भंते! सब्वाणुभूती देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्वएणं ठिक्खणं
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१५ शतके उद्देश १ ॥१३३९॥
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व्याख्या. प्रज्ञप्तिः ॥१३४० ॥
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जाब महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवर सुनते नामं अणगारे पगड़भद्दए जाब विणीए से णं भंते! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताबिए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कर्हि उबबसे ?, एवं खलु गोषमा ! ममं अंतेवासी सुनक्खसे नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेण तवेणं तेएणं परितारिए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेत्र उबा० २ वंदति नम० २ सयमेव पंच महब्वयाई आरुभेति सयमेव पंच महब्वयाई० समणा य समणीओ य खामेति २ आलोइयपडिते समाहिपत्ते कालमासे कालं किवा उ चंदिमसूरियजाव आणयपाणयारणए कप्पे बीईवइत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबबन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं साग रोमाई ठिली पण्णत्ता, तत्थ णं सुनक्खत्तरसवि देवरस बाबीसं सागरोवमाई सेसं जहा सव्वाणुभूतिस्स जाव अंतं काहिति ॥ ( सूत्रं ५५८ ) ।
[प्र० ] भगवान् गौतमे भगवन् !' एम कही भ्रमण भगवान् महावीरने वंदन अने नमस्कार करी ए प्रमाणे कछुए प्रमाणे खरेखर देवानुप्रिय एवा आपना अन्तेवासी पूर्वदेशमां उत्पन्न थयेला सर्वानुभूति नामे अनगार जे प्रकृतिना मद्र हता, यावत्-विनीत हे भगवन् ! ज्यारे तेने मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी भस्मराशिरूप कर्या त्यारे ते मरीने क्यां गया, क्या उत्पन्न ? [O] "ए प्रमाणे खरेखर हे गौतम! मारा अन्तेवासी पूर्वदेशोत्पन्न सर्वानुभूतिनामे अनगार प्रकृतिना भद्र यावद - विनीत हता, तेने ज्यारे मंखलिपुत्र गोशाल के भस्मराशिरूप कर्या त्यारे ते ऊर्ध्वलोकमां चन्द्र अने सूर्यने, यावत्-ब्रह्म, लान्तक अने महाशुक्र
हता,
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१५ के उदेश १
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥ १३४१॥
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कल्पने ओळंगी सहस्रार कल्पमां देवरूपे उत्पन्न थयां त्यां केटलाएक देवोनी अदार सागरोपमनी स्थिति कही छे. त्यां सर्वानुभूति देवनी पण अढार सागरोपमनी स्थिति के, ते सर्वानुभूति देव ते देवलोकधी आयुषनो क्षय थवाथी यावत्-महाविदेहक्षेत्रमां सिद्ध थशे, यावद्- सर्व दुग्खोनो अन्त करते. [प्र० ] ए प्रमाणे खरेखर देवानुप्रिय एवा आपना शिष्य कोशल देशमा उत्पन्न थयेला सुन| क्षत्र नामे अनगार प्रकृतिना भद्र, यावत्- विनीत हता, तेने ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी परिताप उत्पन्न कर्यो त्यारे ते मरणसमये काळ करीने क्यां गया, क्यां उत्पन्न थया ? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे खरेखर मारो शिष्य सुनक्षत्र नामे अनगार प्रकृतिनो भद्र यावत्- विनीत हतो, तेमें ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी परिवाप उत्पन्न कर्यो त्यारे ते मारी पासे आव्यो, मारी पासे आवी वन्दन - नमस्कार करी स्वयमेव पांच महाव्रतोनो उच्चार करी श्रमण अने श्रमणीओने खमावी, आलोचना अने प्रतिक्रमण करी, समाधि प्राप्त थई मरणसमये काळ करीने ऊर्ध्वलोकमां चन्द्र अने सूर्यने तथा यावत्-आणत, प्राणत अने आरण कल्पने ओळंगी अच्युतदेवलोकमां देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां केटलाएक देवोनी बावीश सागरोपमनी स्थिति कही थे. तेमां नक्षत्र देवनी पण बावीश सागरोपमनी स्थिति छे. बाकी बधुं सर्वानुभूति संबन्धे कबुं छे तेम अहिं जाणवुं यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करशे. २१५५८।।
एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते से णं भंते! गोसाले मंखलिते कालमासे कालं किवा कहिं ग० कहिं उब० ?, एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते समणघायए जाय छउत्थे चैव कालमासे कालं किवा उ चंदिम जाच अच्चुए कप्पे दे० उ०, तस्थ णं अस्थेग देवाणं बाबीसं मा० ठिती प० तस्थ णं गोमालस्सवि देवस्स बावीमं सा० ठिती प० । से णं भंते । गोसाले देवे
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१५
उदेक १ ॥१३४१।।
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ताओ देव. आउक्ख०३ जाव कहिं उववजिहिति!, गोयमा इहेव जंबू०२ भारहे वासे विंझगिरिपायमूले व्याख्या
पुंडेसु जणवएसु सयदुबारे नगरे संमुतिस्स रनो भहाप भारियाए कुञ्छिसि पुसत्ताए पञ्चायाहिति, सेणं तस्य
नवण्हं मासाणं बहुप० जाव वीतिकंताणं जाव सुम्वे दारए पयाहिति, जं रयणिं च णं से दारए जाइहिति तं ॥१३४२॥ रणिं च णं सयदुवारे नगरे सम्भितरबाहिरिण भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वासे
११.४॥ वासिहिति, तए णं तस्स दारगरस अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीतिवंते जाव संपत्ते चारसाहदिवसे अयमेतयारूवं गोणं गुणनिष्फन्नं नामधेनं काहिंति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणंसि सयदुवारे
नगरे सम्भितरबाहिरिए जाव रयणवासे वुढे त होउ णं अम्हं इमस्म दारगस्म नामधेनं महापउमे महा०, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेनं करेहिंति महापउमोत्ति, ताणं तं महापउमं दारगं अम्मापियरो सा. तिरेगट्ठवासजायगं जाणिसा सोभणसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुत्तसि महया २रायाभिसेगेणं अभिसिंचेहिंति, से णं नस्थ राधा महया हिमवंतमहंत बन्नओ जाव विहरिस्सइ, तए णं तस्स महापउमस्म रनो अन्नदा कदायि दो देवा महड्डिया जाव महेसक्वा सेणाकम्म काहिंति, २०-पुन्न भहे य माणिभद्दे य, तए णं मयदुवारे नगरे बहवे राईसरतलबर जाव मत्थवाहप्पभिईओ अन्नमन्नं सदावेहिंति, अ०२ एवं बदेहिंति-जम्हा णं देवा गुप्पिया! अम्हं महापउमस्म रन्नो दो देवा महड़िया जाच सेणाकम्मं करेंति, तं०-पुनभद्दे य माणिभद्दे य, तं होउ णं देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स रन्नो दोचपि नामधेने देवसेणे दे० २, तए णं तस्स महापउमस्स रनो5
BARSAनकल
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१५पल्के
उधर ॥१४॥
॥१३४३॥
REAA5
दोचेऽवि नामधेने भविस्मति देवसेणेत्ति देव.,
[प्र.] ए प्रमाणे खरेखर देवानुप्रिय एवा आपनो अन्तेवासी शिष्य मंखलिपुत्र गोशालक छे, ते मंखलिपुत्र गोशालक मरण समये काळ करीने क्यां गयो, क्या उत्पन थ्यो। [उ.] ए प्रमाणे खरेखर हे गौतम! मारो अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र
I गोशालक जे श्रमणनो घातक अने यावत्-छबस हतो, ते मरण समये काळ करीने उर्वलोकमां चन्द्र अने सूर्यने ओळंगी यावद अच्युतकरपने विषे देवपये उत्पन थयो. त्यां केटलाएक देवोनी बावीश सागरोपमनी स्थिति कही छे, त्यां मोशालक देवनी पण वावीश सागरोपमनी स्थिति छे. [प्र.] से गोशालक देव ते देवलोकथी आयुषना वय थवाथी : यावत्-क्या उत्पन्न थशे १ [उ.] हे गौतम! आ जंबूद्वीपनामे द्वीपमा भरतक्षेत्रने विषे विन्ध्याचल पर्वतनी तळेटीमां दूनामे देशने विषे शतद्वारनामे नगरमां संमुति (सन्मूर्ति) नामे राजाने भद्रा नामे भार्यानी कुक्षिने विषे पुत्ररूपे उत्पन्न थशे. ने त्यां नवमास बरोबर पूर्ण थया पाद अने साडासात दिवस वीस्था पछी यावत्-सुन्दर बाळकने जन्म आपशे. जे रात्रिने विष ने बाळकनो जन्म थशे, ते रात्रिने विषे शतद्वार नामे नगरमा अंदर अने बहार अनेक भारप्रमाण अनेक कुंभप्रमाण वृष्टिरूप पानी वृष्टि अने रजनी वृष्टि थशे. ते वखते ते बाळकना मात-पिता अगीयारमो दिवस वीत्या पछी बारमे दिवसे आवा प्रकारचं गुणयुक्त अने गुणनिष्पन नाम करने-“जे हेतुथी अमारा आ पाळकनो जन्म थयो एटले अतहार नगरने विषे बाम अने अंदर रखनी वष्टि थई, ने माटे अमारा आपाळकतुं नाम 'महाप' २ हो." त्यारपछी ते बाळकना मात-पिता 'महापद्य एवं नाम पाडशे. त्यारपछी ते महापच बाळकने मातापिता कंडक अधिक आठ वर्षनो थयेलो जागीने सारा तिथि, करण, दिवस नक्षत्र अने महतने विषे अत्यन्त मोटा राज्यामिषेकवडे अमिषेक करशे.
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प्रज्ञप्तिः
| ते राजा थशे, ते महाहिमवान आदि पर्वतनी जेम बलवाळो थशे-इत्यादि वर्णन आणवू, यावत्-ते विहर. हवे अन्य कोई दिवसे व्याख्या | ते महापन राजानुं महर्द्धिक यावत्-महासुखवाला बे देवो सेनाकर्म करशे. ते देवोना नाम आ प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्र.
१९५पके
उद्देश ॥१३४४॥ दत्यारपछी शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ, युवराजा, तलवर, यावत्-सार्थवाह प्रमुख परस्पर बोलावीने ए प्रमाणे
m कहेश के:-हे देवानुप्रियो ! 'जे हेतुथी अमारा महापन राजानुं वे महद्धिक देवो यावत्-सेनाकर्म करे , ते देवोना नाम आ प्रमाणे| पूर्णभद्र अने माणिभद्र, ते माटे हे देवानुप्रियो ! अमारा महापद्म राजानु बीजु नाम 'देवसेन' २ हो, ते वखते ते महापद्य राजार्नु 'देवसेन' एबुं बीजु नाम थशे.
तए णं नस्स देवसेणस्स रन्नो अन्नया कयाइसेते संखनाल विमलसन्निगासे चउईते हत्थिरयणे समुप्पजिस्सह, तए णं से देवसेणे राया त सेयं संवतलविमलसन्निगासं चउइंतं हस्थिरयणं दूरूढे समाणे सयदुवारं नगरं मज्झ-3 मझेणं अभिवर्ण२ अतिजाहिति निजाहिति य, तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसरजाव पभिईओ अनमन सद्दावेंति अ.२ षदेहिंति-जम्हाणं देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्म रन्नो सेते संखतल विमलसनिकासे चउदंते हथिरपणे समुप्पन्ने त होउ णं देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रम्रो तच्चेवि नामधेजे विमलवाहणे वि०२, तए णं नस्स देवसेणस्स रन्नो तचेवि नामधेजे भवि. विमलवाहणेत्ति । तए णं से विमलवाहणे राया अन्नया कदायि ममणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवजिहिति अप्पेगतिए आउसेहिति अप्पेगतिए अवह सिहिति अप्पेगतिए निच्छोडेहिति अप्पेगतिर निभत्थेहिति अप्पेगतिए बंधेहिति अप्पेगतिए णिभेहिति अप्पेगतियाणं छविच्छेदं करेहिति
AEBAGAR
FACHAR
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पास्या
१५
BREAGRAM
अप्पेगतिए पमारेहिइ अप्पेगतियाणं उहवेहिति अप्पेगतियाणं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं आञ्छिदिहिति। |विञ्चिविहिति भिदिहिति अवहरिहिति अप्पेगतियाणं भत्तपाणं वोछिदिहिति अप्पेगतिए णिनगरे करेहिति
अप्पेगतिए निविसर करेहिति, तए ण सयदुवारे नगरे बहवे राईसरजाव बदिहिंति–एवं खलु देवाणु विम-8 लवाहणे राया समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवन्ने अप्पेगतिए आउस्सति जाव निम्धिसए करेति, तं नो खलु देवाणुप्पिया! पयं अम्हं सेयं नो खलु एयं विमलवाहणस्स रनो सेयं नो स्वस्लु एवं रजस्स पा रहस्स वा बलस्स वा वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा जणवयस्स चा सेयं जणं विमलवाहणे राया समणेहिं निरगं. हिं मिकछ विप्पडिबन्ने, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं विमलवाहणं रायं एयम8 विनवित्तएत्तिकहु अन्नमअस्स अंतियं एयमट्ठ पडिसुणेति अ०२ जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उ०२ करयलपरिग्गहा विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धाति ज. ३ एवं ब-एवं खलु देवाणु० समणेहिं निग्गंधेहिं मिच्छ विपजिवना अप्पेगतिए आउस्संति जाव अप्पेशतिए निविसए करेंति, तं नो खलु एयं देवाणुप्पियाणं सेयं नो खलु एवं अम्हं सेयं नो खलु एयं रजस्स वा जाव जणवयस्स वा सेयं जं णं देवाणुप्पिया! समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विपतिवसा, तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया! एअस्स अट्ठस्स अकरणयाए,
त्यारवाद ते देवसेन राजाने अन्य कोई दिवसे वेत, निर्मल शंखना तळीयासमान अने चार दन्तवालु हस्तिरन उत्पन्न यथे, & त्यारे ते देवसेन राजा वेत, निर्मल शंखना तळसमान अने चार दन्तवाला हस्तिरन उपर चढीने शतद्वार नगरना मध्यभागमा बईने ।
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RECSIABAR
पारंवार जशे अने नीकळशे. ते वखते शतद्वार नगरने विष घना मांगलिक राजाओ, युवराजा यावत्-सार्थवाह प्रमुख एकबीजाने PM बोलावशे, बोलावीने कोशे के 'हे देवानुप्रियो । जेथी अमारा देवसेन राजाने श्रेत, निर्मल शंखतळना जेवो भने चार दांतवाळो उत्तम हल्ली उत्पन थयो , ते माटे हे देवानुप्रियो ! अमारा देवसेन राजानु त्रीजं नाम 'चिमलवाहन' हो. त्यारे ते देवसेना राजार्नु 'विमलवाहन' एवं त्रीजु नाम पडशे. स्वारवाद ते विमलवाहन राजा अन्य कोई दिवसे श्रमण निग्रन्थोनी साघे मिथ्यात्वअनार्यपणु आचरशे, केटलाएक श्रमण निग्रन्थोनो आक्रोश करशे, केटलाकनी हांसी करशे. केटलाएकने ज्दा पाडशे, केटलाएकनी निर्भर्त्सना करशे, केटलाएकने बांधशे, केटलाएकने रोकशे, केटलाएकना अवयवोनो बेद करशे, केटलाएकने मारने, केटलाएकने उपद्रव करशे, केटलाएकना वस्त्र, पात्र, कांवल अने पादच्छन छेदशे, विशेष छेदशे, मेदशे, अपहरण करशे; केटलाएकना भातपाणीनो विच्छेद करशे, केटलाएकने नगरथी पहार काढशे बने केटलाएकने देशथी बहार काढशे.ते समये शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ अने युवराजाओ यावत् परस्पर-कहेशे के 'हे देवानुप्रियो! ए प्रमाणे खरेखर विमलवाहन राजाए श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्य छ, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढे, ते माटे हे देवानुप्रियो। ए आपणने श्रेयरूप नथी, आ विमलवाहन राजाने श्रेयरूप नधी, तेमज आ राज्यने, आ राष्ट्रने, पलने, वाहनने, पुरने, अन्तःपुरने के देशने श्रेयरूप नथी के जे विमलवाहन राजाए श्रमण निग्रन्थोनी साये मिथ्या-अनार्यपणु स्वीकार्य छे. ते माटे हे देवानुप्रियो । आपणे विमलवाहन राजाने आ पात जणाववी योग्य है.' एम विचारी एकनीजानी पासे आ वातनो स्वीकार करे थे, स्वीकार करीने ज्यां विमलबाहन राजा के त्वां आवे के, त्यां आवीने करतल परिग्रहीत करीने-हाथ जोडीने विमलवाहन राजाने जय अने विजयधी
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शि
धावे छे. वधावीने एम कहेशे के–'हे देवानुप्रिय! आप श्रमण निबन्योनी सावे मिध्या-अनार्यपणाने आचरता केटलाएकनो
१५ मास्या
आक्रोश करो छो, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढो छो, ते देवानुप्रिय एवा आपने श्रेयरूप नथी, ए अमने पण श्रेयरूप Bा नथी, तेमज आ राज्यने, यावद-देनने श्रेयरूप नथी के जे देवानुप्रिय एवा आप श्रमण निन्थोनी साधे मिध्यात्व-अनार्यपणु
P१३४ ॥१२वा आचरो छो, ते माटे हे देवानुप्रिय! आप नहि करवावडे आ कार्ययी बन्ध पडो.'
al तए णं से विमलवाहणे राया तेहिं बहहिं राईसरजाव सत्यवाहप्पभिईहिं एयमट्टे विनत्ते समाणे नो धम्मो
त्ति नो तथोत्ति मिच्छाविणएणं एयमद्वं पडिसुणेहिति, तस्स णं सयदुवारस्स नगरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ ण सुभूमिभागे नाम उजाणे भविस्सइ सम्बोउय वन्नओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउप्पए सुमंगले नाम अणगारे जाइसंपन्ने जहा धम्मघोसस्स बनओ जाव संवित्तविउलतेयलेस्से तिमाणोवगए सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते मुटुंछट्टेणं अणि जाव आयावेमाणे विहरिस्सति । तए णं से विमलवाहणे राया अन्नया कदापि रहचरियं काउं निजाहिति, तए से विमलवाहणे राया सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगारं छटुंछटेणं जाव आयावेमाणं पासिहिति पा.२ आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं रहसिरेणं [ग्रन्थानम् १००००] गोल्लावहिति, तए ण से सुमं. गले अणगारे विमलवाहणेणं रखा रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे सणियं २ उद्वेहिति उ.२ दोपि उर्छ वाहाओ पगिजिमय जाब आयावेमाणे विहरिहिति, तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोचंपि रहसिरेणं है
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पाख्या
॥१३४८॥
॥१३४॥
CBRECOSछली
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Acharya Shriy णोल्लादेहिति, तए से सुमंगले अणगारे विमलवाहणणं रखा वोपि रहसिरेणं णोल्लाविए समाणे सणिय २ उद्वेहिति उ.२ ओहिं पउंजेहिति २ ता विमलवाहणस्स रण्णो तीतद्धं ओहिणा आभोएहिति २त्ता विमलवाहणं रायं एवं बाहिति-नो खलु तुमं विमलवाहणे राया नो खलु तुमं देवसेणे राया नो खलु तुमं महापउने रागा, तुमण्णं इओ तचे भवागहणे गोसाले नाम मखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए, तं जति ते तदा सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं पभुणावि होऊणं सम्मं सहियं खमियं तितिक्खयं अहियासियं, जाइ ते तदा सुनक्खत्तेणं अण. जाव अहियासियं, जहते तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभुणावि जाच अरियासियं, तं नो खलुते अहंतहा सम्मं सहिस्सं जाव अहियासिस्सं, अहं ते नवरं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेजामि, | ज्यारे ते घणा मांडलिक राजाओ, युवराजाओ यावत्-सार्थवाहप्रमुख आ बाबत विनंति करने त्यारे ते विमलवाहन राजा 'धर्म नथी, तप नथी'-एबी बुद्धिथी मिथ्या विनयवडे आ बात कबूल करशे. हवे ते शतद्वार नगरनी बहार उत्तर-पूर्व दिशाए अहिं सुभूमिभाग नामे उद्यान हवे. ते सर्व ऋतुना पुष्पादिकयुक्त-इत्यादि वर्णन जाणवू. ते काले ते समये विमलनामे तीर्थकरना प्रपौत्र शिष्य परंपरामा थयेला सुमंगल नामे अनगार हशे. ते जातिसंपन्न-इत्यादि धर्मघोष अनगारना वर्णन प्रमाणे वर्णन करवू, यावत्& संक्षिप्त जने विपुल तेजोलेश्याचाळा, त्रण ज्ञानवडे सहित ते मुममल नामे अनगार मुभूमिमाग नामे उद्यानयी थोडे दूर निरन्तर
छनो तप करवावडे यावत्-बातापना लेता विहरशे. हवे ते विमलवाहन राजा अन्य कोई दिवसे रथचर्या करवा निकलश स्यारे
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मुभूमिमाम नामे उचानयी थोडे दूर रथचर्या करतो ते विमलवाहन राजा निरंतर छडुनो तप करता यावत आतापमा लेता सुमंगल अनमारने मोशे. जोइने कोपाविष्ट पयेलो यावत्-क्रोधवी अत्यन्त बळतो एवो ते राजा स्थना अग्रभामवडे समंगल अनगारने अमिधातीपाटी नाखवे. ज्वारे विमलवाहन राजा रखना जनभागवडे ते ममंगल अनगारने पाडी नाखो त्यारे ते धर्ममल जनगार धीमे धीमे उठणे, उठीने बीजीवार ऊंचा हाथ करी करीने आतापना लेता विहरशे; त्यारे ते विमलवाहन राजा सुमंगल जनगारने पीजीवार रथना अग्रभागवडे अमिषात करी पाही नांखशे. ज्यारे विमलवाहन राजा सुमंगल अनगारने बीजीवार स्थना अग्रभागवडे अमिषात करी पाडी नांखचे त्यारे ते सुमंगल अनगार धीमे धीमे उठशे, उठीने अवविज्ञान प्रयुंजशे, अवविज्ञान प्रयुंजीने विमलवाहन राजाने अतीतकाळे अवधिज्ञान बहे जोशे, जोईने विमलवाहन राजाने एम कहेशे-"तुं खरेखर विमलवाइन राजा नथी, तुं खरेवर देवसेन राजा नबी, तुं खरेखर महापन राजा नथी, तुं आ भवथी बीजा भवमां मंबलिपुत्र गोशालकमामे इतो, अने श्रमणनो घात करनार हुँ छमखावस्थामा काळधर्म पाम्यो हतो, जो ते वखते सर्वानुभूति अनगारे समर्थ छत्ता | पण वारो अपराध सम्यक् प्रकारे सहन कर्यो, तेनी क्षमा करी, तितिक्षा करी अने वेने अभ्यासित कों; जो के ते बखते सुनक्षत्र जनगारे पण यावत्-अध्यासित-सहन कर्यो, जो के ते समबे अमष भगवान महावीरे समर्थ छतां पण यावत्-सहन कयों, परन्तु खरेखर ते प्रमाणे सम्यक् सहन नहिं कक, यावद-अध्यासित नहि, बौदा, रथ अने सारषिसहित तने मारा तफ्ना तेजबी एकमाए इटापास-पाषाणमय यंत्रना आपातनी जेम मस्मराशिरूप करीब."
तए णं से विमलबादणे रापा समंगणं अणगारेणं एवं बुरे समाणे आरुसले जाव मिसिमिसेमाणे
सरकार
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जरा.
सुमंगलं अणागारं तपि रहसिरेणं गोल्लावहिति, तए णं से सुमंगले अणगारे विमलपाइणेणं रणा व्याख्या तिचंपि रहसिरेण नोलाविए समाणे आसुरुत्ते जाच मिसिमिसेमाणे आपावणभूमीओ पचोरमा आ०२ तेया-18
तासमुग्धारणं समोहंनिहिति तेया०२ सत्तह पयाई पचोसकिहिति साह.२ विमलवाहणं रायं सहयं सरह १३५011
ससारहियं तवेणं तेएणं जाव भातरासिं करेहिति। सुमगले णं भंते ! अणणारे विमलवाहणं रायं सहर्ष जाव भासरासिं करेत्ता कहिं गच्छिहिति कहिं उपजिहिति?, गोयमा! सुमंगले अणगारेण विमलवाहणं रायं सहयं जाच भासरासिं करेत्तापहर्हि चउत्थछट्टमवसमदुवालसजावविचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अपाणं भाषमाणे | वाहूई वासाई सामनपरियागं पाउणेहिति २त्ता मासियाग संलेहणाए सर्टि भत्ताई अणसणाए जाव छेदेत्ता आलोइयपडिक समाहिपत्ते उड़े चंविमजाव गेविजविमाणावाससयं बीयीवइत्ता सब्बट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति, तत्थ ण देवाणं अजाहलमणुकोसेणं तेत्तीस सागरोक्माई ठिती प०, तत्व ण सुमंगलस्सवि देवस्स अजहन्नमणुकोण तेत्तीस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता । से ण मंते ! सुमंगले देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेति (सूत्रं ५५९)॥
ज्यारे ते सुमंगल अनगारे ए प्रमावे कधू स्पारे अत्यन्त गुस्से थयेलो अने यावत्-अत्यन्त क्रोधथी बळतो ते विमलवाहम राजा सुमंगल अनमारने श्रीजी बार पण रचना अग्रमाग बढे अभिघात करी पाडी नांखशेक्यारे विमलवाहन राजा रथना अग्रभागवडे त्रीजीवार ते सुमंगल अनगारने अमिषाव करी पाडी नांखशे. त्यारे अत्यंत गुस्से थयेला अने यावत्-क्रोषथी पळता एवा
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दाते सुमंगल अनमार आतापना भूमियी उतरी तेजस समुद्घात करशे, तैजस समुद्घात करीमे, सात आठ पगला पाछा जइ घोडा, IN रथ अने सारथिसहित विमलवाहन राजाने भस्मराशिरूप करशे. [40] हे भगवन् ! सुमंगल अनगार घोडासहित, यावत्-विमलवा- IT हन राजाने भस्मराविरूप करीने [काळ करी] क्यां नशे, क्या उत्पन्न थशे? [उ.] हे गोतम ! सुमंगल अनगार विमलवाहन 51
१३५१॥ राजाने घोडासहित यावत्-भस्मराशिरूप करीने घणा प्रकारना छह, अहम, दशम [चार उपवास], द्वादश भक्त [पांच उपवास]] यावत्-विचित्र तपकर्म बडे आरमाने भावित करता घणा वरस सुघी श्रमणपणाना पर्यायने पाळशे. पाळीने मासिक संलेखना बडे साठ भक्त अनशानपणे वीताबीने आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थई ऊर्ध्व लोकमां चन्द्र अने सूर्य, यावत-सो प्रैवेयक विमानावासने ओळंगी सर्वार्थसिद्ध महाविमानमा देवपणे उपजशे. त्यां देवोनी जघन्य अने उत्कृष्टरहित एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही थे. त्यां समंगल देवनी पण जघन्य अने उत्कृष्टरहित एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति इशे. ते सुमंगल देव देवलोकथी यावत्-भवना क्षय थवाथी महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध थशे, यावत सर्व दुःखोनो अन्त करशे. ॥ ५५९ ।।
विमलवाहणे णं भंते ! राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहए जाव भासरासीकए समाणे कहिं गच्छहिति कहिंदी उवजिहिति?, गोयमा! विमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे अहेसतमाए पुढवीए उकोसकालद्विइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, से णं ततो अणंतरं उव्वहिता मच्छेस उववजिहिति, मे णं तत्थ सत्यवो वाहवकंतीए कालमासे कालं किचा दोचंपि अहे सत्तमाए पुरवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि मरगंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, सेणं तओऽणंतरं उब्वहिता वोचपि मच्छेसु उववजिहिति,
कन्य
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व्याख्या
१५
॥१५॥
॥१३५॥
CEBOGGE
www.kobatirth.org तस्थविणं सस्थवजो जाब किच्चा छडीए समाए पुरवीए उकोसकालाडियंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उवजिदिति, से णं तभोहितो जाब उव्व द्वित्ता इत्थिपासु उववजिहिति, सत्यविण सत्थवज्झे दाह जाव दोचंपि छड्डीए तमाए पुरवीए उकोसकालजाब उब्बत्तिा बोचंपिइथियासु उववा, लस्थविण सस्थवज्झे जाव किया पंचमाए धूमप्पमाए पुढवीए उकोसकालजाव उव्याहिता उरएसु उववजिहिति, तस्थविणं सस्थवजा जाय किचा दोषंपि पंचमाए जाय उव्वहिता दोपि उरएस उववजिहिति, जाव किचा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालहितीयसि जाय उन्धहिता सीहेसु उपजिहिति, तत्थविण सत्थवजझे तहेव जाव किया वोचंपि चउत्थीए पंकजाव उवाहित्तायोपि सीहेसु उवध जाव किक्षा तबाए वालुयपभाए उक्कोसकालजाव उध्वहिता पक्खीसु उवव० तत्थविणं सत्यवझे जाव किक्षा दोपि तचाए वाल्लुयजाव उव्वहिता दोबंपि स्वीसु उवव जाव किया दोचाए सकरप्पभाए जाव उज्वहिता सिरीसवेसु स्वय. तस्थविण सत्व. जाब किच्चा दोपि दोषाए सकरप्पभाए जाव उव्वहिता दोबंपि सिरीसवेसु उवषः जाब किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वितीगंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववनिहिति,जाच उध्वहितासण्णीम उवक, तत्थविणं सत्ववज्झे जाप किचा
असनीसु उववजिहिति, तत्थवि ण सत्थवज्झे जाव किच्चा दोचंपि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स | असंखेजहभागद्वितीयंसि णरगंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, से णं तओ जाव उव्वहिता जाई इमाई खहयरविहाणाई भयंति, तं.-चम्मपक्खीणं लोमपत्रीण समुग्गपक्खीण विषयपक्खीणं तेसु अणेगसयसहस्सखुतो
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2॥१५॥
सक
उहाइत्ता २ तत्थेव २ मुनो २ पचायाहिति, सम्बत्थवि णं सस्थवज्झे वाहवकंतीए कालमासे कालं किया जाई इमाई भुयपरिसप्पविहाणाई भवंति, तंजहा-गोहाण नउलाण जहा पनवणापए जाव जाहगाणं, तेसु अणेगसयसहस्सत्तो सेसं जहा स्वहचराणं जाव किया जाइं इमाई उरपरिसप्पविहाणाई भवंति, तं०-अहीणं अयग| राणं आसालियाणं महोरगाणं, तेसु अगसयसह जाय किया जाई इमाई चउप्पदविहाणाई भवंति, सं0एगखुराणं दुखुराणं गडीपदाणं सणहपदाणं, तेसु अणेगसयसहस्स जाब किचा जाई इमाई जलयरविहाणाहं भवंति २०-मच्छाणं कच्छमाणं जाव सुसुमाराणं, तेसु अणेगसपसह जाव किया जा इमाई चाउरिदियविहाणाई भवंति, तं-अंधियाणं पोत्तियाणं जहा पनवणापदे जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसयसह जाब किया जाई इमाई तेहंदियविहाणाई भवंति, सं.-उवधियाणं जाव हथिसोंडाणं तेसु अणेगजाब किचा जाई इमाई बइंदियविहाणाई भवंति २०-पुलाकिमियाणं जाव समुहलिक्स्वाणं तेसु अणेगसयजाब किवा जाइं इमाई पणस्साविहाणाई भवंति, सं.-इलाणं गुच्छाणं जाप कुहणाणं, तेसु अणेगसय जाब पचायाइस्सह, उस्सनं चणं कड्यरुक्खेतु कडपबल्लीसु सम्वत्याविणं सस्थयजो जाव किवा जाई इमाई चाउकाझ्याविहाणाई भवंति, संजहा-पाईणवायाणं जाव सुदवायाणं तेसु अणेगलयसहसजाव किया जाइं इमाइं तेउवाइयविहाणाई भवंति, | सं०-इगालाणं जाब सरकंतमणिनिस्सियाणं, तेस बणेगसयसा जाब किचा जाई इमाई भाउकाइयविहाणाई वंति,०-उस्साणं जाव खातोषगाणं, तेसु बगेगसपसहजाब पछयातिस्सा, उस्सयां पण खारोवएस्सु
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माख्या
CRBREAK
| खातोवएस, सब्बत्यविणं सत्थषज्मे जाव किया जाई इमाई पुषिकाइयविहाणाई भवंति, तं०-पुढवीणं सबराणं जाव सूरकंताण, तेसु अगसयजाव पचायाहिति, उत्सव खरवायरपुढविद्याइएसु, सबस्थविणं सस्थषज्झे जाव किचा रायगिहे नगरे बाहिंवरियत्ताए उचलजिहिद, तस्थवि णं सस्थवजा जाय किचा दुचंपि | रायगिहे नगरे अंतोवरियत्ताए उववजिहिति, (सूत्रं ५६०)॥
[प्र. हे भगवन् । ज्यारे सुमंगल अनगार घोडासहित विमलवाहन राजाने यावत्-भस्मराशिरूप करशे त्यारवाद ते क्या जशे, क्या उत्पम थशे ! [उ.] हे गौतम ! सुमंगल अनगारे घोडासहित यावत्-मस्मराशिरूप कर्या पडी ते विमलवाहन राजा अब सलम पृथिवीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकने विषे नारकपणे उत्पन्न यशे. त्याथी च्यवीने तुरत मत्स्पोने विषे उत्पन यशे. त्यां पण अखण्डे बघ थवाथी दाहनी पीडाबडे मरणसमये काळ करीने बीजीवार पण अघासतम नरकपृथिवीमा उत्कृष्टखितिवाळा नरकावासने विषे नारकपणे उत्पन्न यशे. त्यांची अन्तररहितपणे च्यवी बीजीवार पण मत्स्योमा उत्पन यचे. त्या पण शत्रवडे वध थवाथी यावत्-काळ करीने छडी खमा नामे नरकथिवीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकमां नरयिकपणे उत्पन। बशे. त्यांची नीकळी तुरतज स्त्रीने विषे उत्पन यशे. त्या पण शत्रद्वारा वध थता दाइनी पीडाथी यावत्-बीजीवार छट्ठी तमा पृथिवीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकमां नारकपणे उत्पन्न थशे. यावर त्यांची नीकळीने बीजीवार पण स्त्रीबोमा उत्पन्न थशे. त्यां पण शस्त्रबडे वध पवाथी यावद काळ करीने पांचमी धूमप्रभाने विष उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकवासमां यावत् उत्पन्न यचे. त्यांथी नीकळीने उसपरिसर्पमा उत्पम यशे. त्यां पण शबवडे बध थवाची काळ करीने बीजीकार पांचमी नरकथि
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A
डोश
।
वीमा उत्पक था, त्यांची नीकळी यावत् बीजीवार उपरिसपोमा उत्पन्न पचे. त्यांची यावत् काळ करीने चौथी पंकप्रभा पृथिचीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाला नरकने विष नारकपणे उत्पन था, यावात त्यांची नीकळी सिंहोमां उत्पन यशे, त्यां पण शस्त्र बडे वध थवाथी ते प्रमाणेज यावत् काळ करीने वीजीवार चोथी पंकप्रमामा उत्पन थई, यावत् त्यांची नीकळी बीजीवार सिंहोमां उत्पन थशे, त्यांची यावत्-काळ करीने त्रीजी वालुकाप्रमामा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकवासमा उत्पन्न थई, त्यांची नीकळी पक्षीयोमा उत्पब थशे. त्या पण शखबरे वध थवाथी यावत् काळ-करी पीजीवार त्रीजी वालुकाप्रभामा उत्पत्र थई, यावत्-त्यांची नीकळी वीजीवार पक्षीओमा उत्पन्न यो. यावत्-काळ करी त्यांथी बीजी शर्कराप्रमामा उत्पन्न थई, यावद-त्यांची नीकळी सरीसृप (शीकारी पशुओ) ने विषे उपजचे. त्यां शखबरे वध थवाथी यावद-काळ करी बीजीवार शर्कराप्रमाने विषे याचन-उत्पन थशे. अने त्यांची नीकळी वीजीवार सरीसृपमा उत्पम यथे, यावत् काळकरीने या रसप्रभापृथिवीने विषे उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकावासमा नैरयिकपणे उत्पमयशे. यावत्-त्यांची नीकळीने संज्ञीने विषे उपजशे. त्यां पण शत्रवडे वध थवाथी पावन-काळ करीने असंबीमा उत्पम थशे. त्यांपण अखबहे बच यतां यावत्-काळ करीने बीजीवार पण बा रसप्रभापृथिवीमा पस्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाला नरकावासमा नारकपणे उत्पन थशे. हये त्यांची यावत् नीकळीने जे खेचरना मेदो, ते आ प्रमाणे-चर्मपश्चीयो (चामडानी पांखवाळा), लोमपचीओ (पिंडानी पांखवान), समुद्गकपक्षीओ जेनीसर्वदा उडता पण पांखो पीडायेल होप ते अने वितत पक्षीओमा [जेनी हमेशां विस्तारेली पांख होय तेमां] अनेक लाख चार मरण पामी पामीने त्या वारंवार उत्पन यचे. सर्वत्र शखध थवाथी दाहनी उत्पचिवडे मरणसमये काळ करी जे आ जपरिसर्पना मेदो, ते आ प्रमाणे-बो, नोळीबा
APARE
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२५तके
॥२३५१॥
www.kobatirth.org | इत्यादि प्रज्ञापना सनना प्रथम प्रज्ञापना पदमे विषे कयुके ते प्रमाणे आणवू, यावत-जाहक भने चउप्पाइस जीवोमा अनेक लाख
४ वार मरण पामी पुनः त्या वारंवार उत्पन थशे. बाकी बधुं खेचरनी पेठे जाणवू. यावत्-काळ करी जे आ उरम्परिसर्पना मेदो प्रजाति: होय छे, जे आ प्रमाणे- साप, अजगर, आशालिका अने मनोरग; तेमां अनेक लाखबार मरण पामी यावत्-काळ करी जे आ ॥१३५६॥
चतुष्पदना मेदो होय . ते आ प्रमाणे-१.एक खरीवाळा, २बे खरीवाला, ३गंडीपद अने ४ नखसहित पगवाळा, तेमा अनेक लाखबार उत्पन थशे, त्यांथी यावत् काळ करी जे आ जलचरना मेदो होय जे, ते आ प्रमाणे-कच्छप [काचवा] यावत् सुसुमार तेोमां. अनेक लाखबार उपजशे, यावत्-काळ करी जे आ चउरिन्द्रिय जीवोना भेदो छ, ते आ प्रमाणे-अंधिक, पौत्रिक इत्यादि जेम प्रज्ञापनासत्रना प्रथम प्रज्ञापनापदमां कमा प्रमाणे यावत् गोमयकीडाओमां अनेक लाखबार उपजशे. त्यां उत्पन थई काळ करी जे आ तेइन्द्रिय जीवोना भेदो छे, ते आ प्रमाणे-उपचित, यावत् हस्तिशौंड, तेओमां उत्पन्न या यावत् काळ करी जे आ बेइन्द्रि| योना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-पुलाकृमि यावत् समुद्रलिक्षा, तेओमां अनेक लाखवार उपजशे. उपजी यावत् काळ करी जे आ वनस्पतिना मेदो छ, ते आ प्रमाणे-पक्षो, गुच्छक, यावत् कुहुना; तेओमा अनेक लाखबार मरण पामी उत्पन थशे, विशेषे करीने कटुक घृक्षोमां अने कटुक वेलीमा उपज, अने सर्व खळे शस्त्रवडे वध थवायी यावत् काळ करीने जे आ वायुकायिकना मेदो छ, | ते आ प्रमाणे-पूर्वनो वायु, यावत् शुद्ध वायु; तेमां अनेक लाखबार उत्पन्न थशे. यावत् काळ करी जे आ तेउकायिकना मेदो छ, नाते आ प्रमाणे-अंगारा, यावत् सूर्यकान्तमणि निश्रित अग्नि, तेमां अनेक लाखवार उत्पन्न थशे. उत्पन थई जे आ अप्कायिकना
मेदोळे, ते आ प्रमाणे-अवश्याय-माकळनुं पाणी, यावत् खाईनुं पाणीतेमां अनेक लक्षवार यावत् उत्पन थशे. बहुधा खारा
CHEREAK
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उदेश 3॥१२५७॥
रापानीमा अने खाईना पाणीमा उत्वा पशे; अने सर्व स्थळे अखबडे वच पवायी यावत-काळ करीने जे आ पृथिवीकायिकना मेदो
IND,ते का प्रमाणे-पृथिवी, शर्करा-करा, यावत्-पूर्यकान्तमणि; तेश्रोमा अनेक लाखवार उत्पन थशे. विशेषतः खरवादरपुअति थिवीकायिकने विषे, सर्वत्र शत्रवडे वय थवाने लीधे यावत-काळ करीने राजगृह नगरनी बाहेर वेश्यापणे उत्पन थशे. त्या पण
अन्नबहे वध यतां यावत्-काळ करी बीजीवार राजगृह नगरनी अंदर वेश्यापणे उत्पन्न यशे.॥५६॥
तत्थवि ण सस्थवझे जाव किवा इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमले वेमेले सनिवेसे माहणकुलंसि वारियत्ताए पचायाहिति । तए णं तं वारियं अम्मापियरो उम्मुकबालभावं जोब्बणगमणुप्पत्तं पडिरूबएणं सुंकेणं पडिरूवएणं विणएणं पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारिपत्ताए दलहस्सति, साणं तस्स भारिया भविस्सति इट्ठा कता जाव अणुमया भंडकरंगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोषिया चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडओविव सुसारक्खिया सुसंगोविया मा णं सीयं मा णं उण्हं जाच परिसहोवसग्गा फुसंतु । तए णं
सा पारिया अन्नदा कदापि गुग्विणी ससुरकुलाओ कुलघरं निजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे Mकालं किच्चा दाहिणिग्लेसु अग्गिामारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति,
- त्या पण शस्त्रवडे बघ थवाची यावत्-काळ करीने जाज अंबद्वीपमा भारत वर्षने विचे विन्ध्याचलपर्वतनी पासे विमेल नामे गाममा ब्रामणकुलने विष पुत्रीपणे उत्पन थशे.ते पुत्री ज्यारे वायभावनो त्याग करी यौवनने प्राप्त पत्यारे तेना मातापिता उचित इम्य अने उचित विनयक्डे योग्य माने भाीपणे पापळे ते पुत्री तेली सीध हे इष्ट, कान्त, पावत-अनुमत, परेणाना करें
एणं पहिसाव अम्मापियो,
रहा कता
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१५
॥१४५
दीया जेबी, तेलनी कल्लीनी पेठे अत्यंत सुरक्षित, बसनी पेटीनी पेठे सारी रीते (निरुपद्रव स्थाने) राखेली अने रत्नना रंडीयानी
पेठे सारी रीते रक्षण करायेली हथे. वे शीत, उष्ण, यावत्-परिसह अने उपद्रवो न पः माटे अत्यंत संगोपित-रक्षण करायेली
दीडशे. मन्य कोई दिबसे ते ब्रामणपुत्री गर्मिषी यथे, अने समस्यायी पीयेर जता रस्तामा दवाधिनी याला बडे बळी मरणसमये १३५८॥
काळ करी दक्षिणदिशाना अग्निकुमार देवोमां देवपणे उत्पन थशे. | सेणं नतोहितो अणंतरं उध्वद्वित्ता माणुस्सं विग्ग भिहिति माणुस्सं २ केवलं मोहिं बुजिनहिति के.२ मुंडे भवित्ता आगारामओ अणगारियं पब्बाहिति, तस्वविय गं विरापियसामने कालमासे कालं किया दाहिणिलंसु असुरकुमारेसु देवेसु देवताए उववनिहिति,से णं तओहिंतो जाव उध्वहिता माणुसं विग्गहं तं चेव जाव तस्थविणं विराहियसामने कालमासे जाव किया दाहिणिल्लेम नागकुमारेमु देवेसु देवसाए उपजिहिति, से
तओहितो अगंतरं एवं पएणं अभिलावेणं वाहिणिल्लेम सुबमकुमारेसु एवं वाहिणिल्लेस विज्जुकुमारेसु एवं | अग्निकुमारवजं जाब दाहिणिल्लेसु थणियकुमारेसु, से णं तओ जाव उध्वहिता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाब विराहियसामने जोइसिएम देवेसु उपवजिहिति, सेणं नओ अणतरं वयं पाता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाच अधिराहियसामने कालमासे कालं किया सोहम्मे कप्पे देवत्साए उबवनिहिति, से गंसओहितो अणंतरं चयं चहत्ता माणुस्सं विग्ग लभिहिति केवलं चोहिं बुजिमाहिति, तस्थवि णं अविराहियसामने कालमासे कालं [किवा ईसाणे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति, सेणं नओ चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लाभाहिति, तस्थविणं
BIGAME
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MAA
अविराहियसामने कालमासे कालं ] किवा सणकुमारे कप्पे देवताए उववजिहिति, से णं तओहितो एवं जहा | सणकुमारे तहाभलोए महामुके भाणए आरणे, सेणं तओ जाव अविराहियसामने कालमासे कालं किया सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति, सेणं तओहिंतो अणंतरं चयं चहत्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई
उदेश' कुलाई भवंतितं.-अड्डाइं जाव अपरिभ्याई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, एवं जहा उवबाइए दर- 3॥१३५९॥ पहनवत्तव्यय सञ्चेव वत्तध्वया निरवसेसा भाणियच्या जाव केवल वरनाणदंसणे समुप्पजिहिति।
त्यांची अन्तररहितपणे च्यवीने मनुष्यना देहने धारण करी मात्र पोधि-सम्यग्दर्शन पामशे. केवळ सम्यग्दर्शन पामी मुंड | थई गृहवासनो त्याग करी अनगारिता-दीक्षा ग्रहण करशे. त्या पण श्रामण्य दीक्षाने विराधी दक्षिण दिशाना असुरकुमार देवोमां देवपणे उत्पन थशे. त्यारपछी ते त्यांथी यावत्-नीकळी मनुष्य शरीर प्राप्त करी-इत्यादि पूर्वोक्त कहे यावत्-त्या पण श्रमणपणुं विगधी मरणसमये काळ करी दक्षिण निकायना नागकुमार देवोमां देवपणे उत्पन थशे हवे ते त्यां अन्तररहितपणे व्यवीइत्यादि ए पाठ बडे दक्षिण निकायना सुवर्णकुमारने विषे, ए प्रमाणे विद्युत्कुमारने विषे, एम यावत्--अग्निकुमार सिवाय दक्षिण निकायना स्तनितकुमारने विषे उत्पन थचे. यावत्-ते त्यांथी निकळी मनुष्य शरीर प्राप्त करणे, यावत्-श्रमणपणु विराधी ज्योतिषिक देवमा उत्पन्न पशे. हवे ते त्यांची अन्तररहितपणे व्यवीने पुन: मनुष्यशरीर प्राप्त करशे, यावत्-श्रमणपणु विराध्या सिवाय मरणसमये काळ बरी सौधर्मदेवलोकने विष देवपणे उत्पन धो. ते त्यांची अन्तररहित स्थवीमे मनुष्यशरीर प्राप्त करणे, अने केवळ सम्यग्दर्शननो अनुभव करशे. त्या पण भमणपणुं विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करी ईशानदेवलोकमां देवपणे उत्पच थशे. त्यांची
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१५रके
उद्देश
ररहित व्ययी महापणाने विराध्या सिवाय मरणसमयेकाला महाडक, आनंत अने आरण देवलोकान लोकम! देवपणे उत्पश्चा
Acharya Shri व्यवी मनुष्यशरीर प्राश करणे, त्या पण अमणपणुं विराध्या शिमय मरणसमये काकरी सनकमार देवलोकमा देवपणे उत्पत्र
यश. त्याथी च्यवी जेम सनत्कुमारने विष का तेम ब्रह्मदेवलोक, महाबुक, आनंत अने आरण देवलोकने विषे जाणवू.हवे ते त्यांची प्राप्ति
ताच्यवी यावत्-श्रमणपणाने विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करीने सर्वार्थसिद्ध महाविमानने विषे देवपणे उत्पम घशे. त्यांची अन्त॥१६॥
ररहित व्यवी महाविदेहक्षेत्रने विष जे आ आवा प्रकारना पनिक, यावत्--कोइथी पराभव नहि पामे तेषां इलो छे, तेवा कुलोमां पुत्ररूपे उत्पन थशे. ए प्रमाणे जेम औपपातिकतने विष दृढप्रतिज्ञनी वक्तव्यता कही ले ते सपळी वक्तव्यता अहिं कोबी, यावत्तेने उत्तम केवलज्ञान अने केवलदर्षन उत्पन थशे.
तए णं से दढप्पाने केवली अप्पणो तीबद्धं आभोरहिह अप्प.२ समणे निग्गंधे सहावेहिति सम.२ एवं बविही-एवं स्वस्तु अहं अनो। इओ चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम मंस्खलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमस्थेचेच कालगए तम्मूलगं च णं अहं अनो! अणादीयं भणवदाग दीहमदं चाउरंतसंसारफतारं अणुपरियहिए, तंमा णं अजो! तुझंपि केपि भवतु आयरियपरिणीए उवज्झायपडिणीए आयरियउचजमायाणं अयसकारए अपन्नकारए अकित्तिकारए, मा णं सेवि एवं चेव अणावीयं अणवदग्गं जाव संसारकंतारं अशुपरियहिहिति जहा णं अहं । तरण ते समणा निग्गंथा दढप्पहनस्स केवलिस अंतियं एयमदं सोचा निसम्म भीया तस्था तसिया संसारभउठिवग्गा दहप्पाइन केवलिं बंदिहिंति ०२ तस्स ठाणस्स आलोइएहिति निविहिंति जाप परिवजिहिंति, नए णं से बसप्पाइने केवली बहूई वामाई केवलपरियागं पाउणिहिति यहिं २ अप्पणो आउ
अCREAK
HERI
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5 सेसं जाणेत्ता भत्तं पञ्चक्खाहिति एवं जहा उववाइए जाब सव्वदुक्खाणमंत काहिति । सेवं भंते ! २त्ति जावर व्याख्याहै विहरह (सूत्रं ५६१)॥ तेयनिसग्गो समत्तो॥ समत्तं च पन्नरसम सयं एकसरयं ॥ १५-१॥
12१५ शतके प्रज्ञाप्त ___ स्यारवाद ते दृढप्रतिज्ञ केवली पोसानो अतीत काळ जोशे, जोईने श्रमण निर्ग्रन्थोने बोलावशे, चोलावीने ए प्रमाणे कहेशे
८ उद्देश ॥१३६१॥
॥१३६१॥ ४ा 'हे आयों! ए प्रमाणे खरेखर आजथी घणो काळ पहेला हुं मंखलिपुत्र गोशालक नामे हतो; अने हुं श्रमणोनो घात करी यावत्
छबस्वावस्थामां काळधर्म पाम्यो. हे आर्यो! ते निमित्ते हुँअनादि, अनन्त अने दीर्षमार्गवाळा चारमतिरूप संसाराटवीमा भम्यो. ते माटे तमे कोई आचार्पना प्रत्यनीक-द्वेषी न यशो, उपायायना प्रत्यनीक न शो, आचार्य अने उपाध्ययना अयश करनारा, अवर्णवाद करनारा अने अकीर्ति करनारा न यो, अने ए प्रमाणे मारी पेठे अनादि, अनन्त यावत् संसाराटवीमां न ममशो. त्यार| पछी ते श्रमण निग्रन्थो स्वप्रतिश केवलीनी पासे ए वात सामळी, अवधारी भय पामी, त्रस्त थई. त्रास पामी अने संसारना भयची है उनि थई दृढप्रतिक्ष केवलीने वंदन करणे, नमस्कार करणे, वंदनम्नमस्कार करी ते पापखानकनी आलोचना अने निन्दा करो, यावत् चारित्रनो खीकार करशे. त्यारपछी रदप्रतिज्ञ केवली घणा वर्ष पर्यन्त केवलपर्यायने पाळी पोतार्नु आयुष थोई बाकी जाणीने 81 भक्तप्रत्याख्यान करणे, ए प्रमाणे औपपातिकसूत्रमा कडा प्रमाणे यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करशे. 'हे भगवन् । ते एमजले, हे मगवन् ! ते एमज' एम कही [भगवान गौतम] यावत् विहरे के. ॥ ५६१ ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीयत्रना १५ मा श्चतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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प्रशतिः
१३६
शतक १६. (उद्देशक १) अहिगरणी जरा कम्मे जावतियं गंगदत्त ५ सुमिणे य । उवओग लोग बलि ओही १.दीप उवही दिसा पणिया १४॥ ७६ ॥ | [उदेशकार्थसंग्रह-१ अधिकरणी-एरण प्रमुख संवन्धे पहेलो उद्देशक, २ जरादि अर्थ संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ कर्म वगैरे | संबन्धे श्रीजो उदेशक, ४ उद्देशकना प्रारंभमा 'जावतिय' यावतिक शब्द होवाथी यावतिक नामे चोयो उदेशक, ५ गंगदत्त देव | संपन्धे पांचमो उद्देशक, ६खम विषे छहो उद्देशक, ७ उपयोग संबन्धे सातमो उदेशक, ८ लोकस्वरूप संबन्धे आठमो उद्देशक, ९पलीन्द्र संवन्धे नवमो उद्देशक, १. अवधिज्ञान संवन्धे दशमो उद्देशक, ११ दीपकुमार संबन्धे अगीयारमो उद्देशक, तथा १२ उदधिकुमार, १३ दिक्कुमार अने १४ स्तनितकुमार संबन्धे वारमाची चौदमा धी प्रण उद्देशको-ए प्रमाणे सोळमा शतकमां चौद उदेशको कहेबाना के.
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-अस्थि गं भंते ! अधिकरणिसि बाउपाए बक्कमति !, इंता अस्थि, से मंते । किं पुढे उद्दाइ अपुढे उदाह, गोयमा! पुढे उदाह नो अपुढे उदाइ, से भंते ! किं ससरीरी निकसमइ असरीरी निक्वमह एवं जहा स्वंदए जाच नो असरीरी निक्स्वमह (सूत्रं ५६२)।
[प्र.] ते काळे ते समये राजगृह नगरमां यावत् पर्युपासना करता ( भगवान् गौतम) आ प्रमाणे बोल्या के-के भगवन् !
NCERAKSHM
RRAOK
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व्याख्याप्रधति
|अधिकरणी ( एरण) उपर (हयोडो मारती बखते) वायुकाय उत्पन थाय! [उ०] गौतम हा, पाय. [प्र. मगवन् ! ते वायुकायनो बीजा कोर पदार्थ साथे स्पर्श पाय तोज ते मरे के स्पर्श थया सिवाय पण मरे ! [उ.] हे गौतम ! तेनो वीजा पदार्थ १६ शतके साये स्पर्श थाय तोज मरे, पण स्पर्श थया सिवाय न मरे. [प्र०] हे भगवन् । (ज्यारे वायुकाय मरण पामे त्यारे) ते शरीरसहित
१३६॥ भवान्तरे जाप के शरीरहित जाय ! [३०] हे गौतम ! आवावतमा जेम स्कंदकना उद्देशकमां कडं के, ते प्रमाणे यावत् 'शरीररहित बईने जतो नथी' त्यांमुधी अहिं जाणवू.॥५६२॥
इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं काल संचिट्ठति !, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं 81 ६ तिलि राइंदियाई, अमेवि तत्य वाउयाए बक्कमति, न विणा पाउयाएणं अगणिकाए उज्जलति (सूत्रं ५६३) ॥ ।
[] हे भगवन् ! सगडीमां अग्निकाय केटला काळ मधी (सचेतन) रहे ? [उ०] हे मौतम ! जघन्यथी अंताहूर्त सुधीर अने उत्कृष्टथी त्रण रात्रिदिवस मुधी रहे. बळी त्यां अन्य वायुकायिक जीवो पण उत्पम थाय छे, कारणके वायुकाय विना अमिकाय प्रज्वलित पतो नथी. ॥ ५६३ ॥
पुरिसे ण भंते! अयं अयकोसि भयोमएणं संहासएणं उब्धिहमाणे वा पब्धिहमाणे वा कतिकिरिए. | गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोहसि अयोमएणं संडासएणं उध्विहिति वा पब्धिहिति वा सावं च ण से पुरिसे कातियाए जाच पाणाइवायकिरियाप पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिपिय गं जीवाणं सरीरेहितो अए निव्वत्तिए अयकोढे निब्यत्तिए संडासए निव्वत्तिए इंगाला निब्बत्तिया इंगालकड़िणी निव्वत्तिया मत्था
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निव्वत्तिया तेविय गंजीवा-काइयाए जाव पंचाहि किरियाहिं पुट्ठा । पुरिसे णं भंते ! अयं अपकोटाओ अयोमरण । व्याख्या 18 संडासएण गहाय अहिकरणिसि उक्खियमाणे वा निक्खिवमाणे वा कतिकिरिए, गोधमा! जावं च ण से
काशके पुरिसे अयं अयकोडाओ जाव निक्खिवह वा तावं च णं से पुरिसे काहयार जाव पाणाइवायकिरिपाए पंचहिं ॥१३६४॥
किरियाहिं पुढे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहितो अयो निब्बत्तिए संडासए निबत्तिए चम्मेढे निव्वत्तिए मुहिए निबत्तिए अधिकरणि. अधिकरणिखोडी णि. उदगदोणी णि अधिकरणसाला निब्बत्तिया तेवि य णं जीवा
काहयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा (सूत्रं ५६४)। * प्र०] हे भगवन् ! लोढाने पाववानी भट्ठीमा लोढाना सांडसावडे लोढाने ऊंचु के नीचुं करनार पुरुषने केटली क्रियाओ
लागे? [उ०] हे गौतम ! ज्यांसुधी ते पुरुष लोढाने तपावधानी भडीमा लोढाना सांडसावडे लोढाने उंचु के नीचे करे के त्यांसुधी ते पुरुषने कायिकीथी मांडीने प्राणातिपात क्रिया सुधीनी पांच क्रियाओ लागे, बळी जे जीवोना शरीरथी लोढुं पन्युं छे, | लोढानी भट्ठी बनी छे, सांडसो बन्यो छे, अंगारा बन्या छे, अंगाराकर्षणी (अंगारा काढवानो सळीयो) बनी छे अने धमण बनी 181 ते बधा जीवोने पण कायिकी यावत्-पांन क्रियाओ लागे छे. [प्रक] हे भगवन् ! लोढानी भट्ठीमांथी लोढाना सांडसावडे लोढाने | लई तेने एरण उपर लेता अने मूकता पुरुषन केटली क्रियाओ लागे । [उ०] हे गौतम! ते पुरुष ज्यासुधी लोढानी भट्ठीमांथी लोढाने लिई यावत् एरण उपर मूके में, त्यांसुधी ते पुरुषने कापिकी यावत् प्राणातिपात सुधीनी पांच क्रियाओ लागे के. वळी जे जीवोमा शरीरथी लोढुं बन्धुके, सांडसो वन्यो छ, चमेंष्टक घण बन्यो के, नानो हथोडो बन्यो छे, एरण बनी छ, एरण खोडवानुं लाकई
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शके उदेश
बन्युं छे, गरम लोढाने ठारवानी पाणीनी द्रोणी (इंडी) पनी हे अने अधिकरणशाला (लोहारनी कोड) बनी ते जीवोने पण ब्याक्या
कापिकी यावत् पांच क्रियाओ लागे छे. ॥५६॥
का ॥१६॥
* जीवेणं भंते ! कि अधिकरणी अधिकरणं, गोपमा जीवे अधिकरणीवि अधिकरणपि, से केणटेण भंते! एवं बुबह जीवे अधिकरणीवि अधिकरणंपि!, गोयमा! अविरतिं पडच से तेजष्टेणं जाप अहिकरणपि ॥ नेराइए। णं भंते ! किं अधिकरणी अधिकरणं?, गोपमा! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, एवं जहेच जीवे तहेव नेरहपति, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए ।। जीवे णं भंते! किं साहिकरणी निरहिकरणी ?, गोयमा! साहिकरणी नो निरवि करणी, से केणद्वेणं पुच्छा, गोषमा! मविरतिं पडल, से तेणटेणं जीवे नो निरहिकरणी एवं जाव वेमाणिए । जीवे णं भंते! किं आयाहिकरणी पराहिकरणी तदुभयाहिकरणी, गोयमा! आपाहिकरणीति पराहिकरणीवि तदुभयाहिकरणीचि, से केणटेणं भंते । एवं बुचा जाव तदुभयाहिकरणीवि, गोयमा! अविरतिं पशुध, से तेणद्वेणं जाव तदुभयाहिकरणीवि, एवं जाव बेमाणिए । जीवाणं भंते ! अधिकरणे किं आपप्पओगनिव्वत्तिए परप्पयोगनिव्वत्तिए तदुभयप्पयोगनिमबत्तिए !,गोयमा आयप्पयोगनिब्बत्तिएवि परप्पयोगनियत्तिएविताभयप्पयोगनिव्वसिएवि, से केणतुणं भंते! एवं बुबह, गोपमा। अविरतिं पडुच, से तेणद्वेणं जाव तदुभयप्पयोगनिब्यत्तिगवि, एवं जाय वेमाणियाणं (सूत्रं ५६५)॥
[प्र०] हे भगवन् ! जीव अधिकरणी अधिकरणवालो के अधिकरण उ०] गौतम! जीव अधिकरणी पण
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अधिकरण पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! र प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे! [उ.] व्याख्या- || हे गौतम! अचिरतिने आश्रयी, अर्थात अविरतिरूप हेतुथी जीच अधिकरणी पण छ अने अधिकरण पण छे. [प्र०] हे भगवन् । तारके प्रज्ञासिल नरयिक अधिकरणी के के अधिकरण १ [30] हे गौतम! नरयिक अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे, जेम जीव संबंधे
उदेश ॥१३६६॥
कह्यु नेम नैरयिक संबंधे पण जाणवू, अने ए प्रमाणे यावर निरंतर वैमानिक सुधीना जीव संबन्वे पण जाणवं. [प्र.] हे भगवन् ! ॐ जीव साधिकरणी छे के निरधिकरणी छे? [उ.] हे गौतम! जीव साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी नथी. [प्र०] हे भगवन् ।
ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव साधिकरणी छे अने निरधिकरणी नथी'१ [उ०] हे गौतम! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अवरतिरूप हेतुथी जीवो साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी जाणवं. [म.] हे भगवन् ! j जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छे के तदुभयाधिकरणी छे ? [उ०] हे गौतम! जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छ अने तदुभयाधिकरणी . [4] हे भगवन् । एप्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव आत्माधिकरणी, पराधिकरणी अने तदुभयाधिकरणी पण छ ? [3] हे गौतम ! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी जीव यावत्-निाधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी जाणवू. [अ०] हे भगवन् ! जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगयी थाय थे, परप्रयोगथी थाय के के भय प्रयोगथी थाय ने १ [उ.] हे गौतम ! जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगधी, परप्रयोगयी अने तदुभयप्रयोगथी पण धाय छे. [म.] | हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगथी, परप्रयोगथी अने तदुभयप्रयोगपी थाय. PID ? [30] हे गौतम ! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् जीवोर्नु अधिकरण अविरतिरूप हेतुथी यावद तदुमयप्रयोगथी थाय छे. |
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व्याख्याप्रज्ञठिः ॥१३६७।।
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प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी जाणवुं. ।। ५६५ ।।
कणं भंते ! सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा। पंच सरीरगा पण्णत्ता, तंजड़ा - ओरालिए जाव कम्मए, कति णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, संजहा- सोइंदिए जाव फार्सिदिए, कतिविहे णं भंते । जोए पण्णत्ते ?, गोयमा ! तिबिहे जोए पण्णत्ते, तंजा - मगजोए बहजोए कायजोए ॥ जीवे णं भंते ! | ओरालि सरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं ?, गोगमा ! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, से केणट्टेणं भंते! एवं बुचइ अधिकरणीयि अधिकरणंपि?, गोयमा ! अविरतिं पडुच, से तेणद्वेणं जावअधिकरणपि, पुढविकाइए णं भंते! ओरालि यसरीरं नित्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं?, एवं चेव, एवं जाब माणुस्से । एवं वेडव्विसरीरंपि, नवरं जस्स अस्थि, जीवे णं भंते! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी० १, पुच्छा गोमा ! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, से केणद्वेषां जाब अधिकरणंपि १, गोयमा । पमायं पहुच, से तेणद्वेणं जाव. अधिकरणं, एवं मणुस्सेवि, तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं सव्वजीवाणं भाणियव्वं, एवं कम्मगसरीरंपि । जीवे णं भंते! सोइदियं निव्वतेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं ?, एवं जहेब ओरालिपसरीरं तहेब सोइंदियंपि भाणियव्वं, नवरं जस्स अस्थि सोइंदियं, एवं चक्खिदियघार्णिदियजिभिदियफासिंदियाणवि, नवरं जाणियब्वं जस्स जं अस्थि । जीबे णं भंते! मणजोगं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं, एवं अहेष सोइंदियं तब निरवसेसं बड़जोगो एवं शेष, नवरं एगिदियवजाणं, एवं कायजोगोवि, नवरं सव्वजीवाणं जाब वैमाणिए ।
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१६ शतके उद्देश १ ॥१३६७॥
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१३६८॥
उदेश
सेवं भंते सेवं भंते ! ति (सूत्रं ५६६)॥१६-१॥ ६ [प०] हे भगवन् ! शरीरो केटला कमां उ.] हे गौतम ! शरीरो पांच का के, ते आ प्रमाणे-१ औदारिक, यावत्
५ कार्मण. [म.] हे भगवन् ! इंद्रियो केटली कही छ ? [उ.] हे गौतम ! इंद्रियो पांच कही छ, ते आ प्रमाणे-१ श्रोत्रंद्रिय, यावत् ५ स्पन्द्रिय. [प्र.] हे भगवन् ! योगना केटला प्रकार कमा १ [उ.] के गौतम ! योगना प्रण प्रकार कसा, ते जा प्रमाणे-१ मनयोग, २ वचनयोग अने ३ काययोग. [प्र.] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी । [उ.] हे गौतम! ते अधिकरणी पण छे बने अधिकरण पण . [प] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो हो के 'औदारिक' शरीरने
बांधतो जीव अधिकरणी छे अने अधिकरण पण १[उ०] हे गौतम अविरतिने आश्रयी. अर्थात् अविरतिरूप हेतुपी पूर्व प्रमाचे ४ी यावद-अधिकरण पण के. [म.] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो पृथ्वीकायिक जीव अधिकरणी छे के अधिकरण के ?
[उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे जाणवं. अने ए प्रमाणे यावत् मनुम्यो सुधी जाणवू. ए प्रमाणे वैक्रिय शरीर संबंधे पण समजबू, पण सेमा र विशेष के के जे जीवोने जे शरीर होय तेमना विशे ते शरीर संबन्धेकडे. [प्र०] हे भगवन् ! आहारक शरीरने बांधतो | जीव अधिकरणी-दस्यादि प्रश्न. [उ.] गौतम ! ते अधिकरणी पण के अने अधिकरण पण. [म.] हे भगवन् ! ते र प्रमाणे
पा हेतुथी कहो छो के ते यावत-जाधिकरण पण ? [उ०] हे गौतम! प्रमादने आश्रयी, अर्थात् प्रमादरूप कारणने लइने ते यावत्-'अधिकरण पण.ए प्रमाणे मनुष्य संबंधे पण जाणवं. औदारिक शरीरनी पेठे तैजस शरीर संबंधे पण को, पण तेमा विशेष ए के, [तेजस शरीर सर्व जीवोने होबाथी] सर्व जीबोने विषेर प्रमाणे समजबु. एज प्रमाणे कार्मण शरीर विष पण जाण.
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व्याख्या
२६ शसके
प्रवासिर
[प्र०] हे भगवन् ! गोवेन्द्रियने बांधतो जीव अधिकरणी छे के अधिकरण के ? [उ.] हे गौतम ! जेम औदारिक शरीरने विषे कहेलं के तेम श्रोत्रंद्रियने विषे पण कहे. विशेष ए के के जे जीवोने श्रोत्रंद्रिय होय तेमना विपे ते कहे. ए प्रमाणे चक्षुरिद्रिय, प्राणेंद्रिय, जिद्रिय, अने स्पशेंद्रिय संबंधे पण जाणवं. विशेष र केजे जीवोने जे इन्द्रिय होय तेमना विषे ते इन्द्रिय संबन्थे
Kउदेश २
n el कहे. [म.] हे भगवन ! मनोयोगने बांधतो जीव अधिकरणी छे के अधिकरण १ [३०] हे गौतम ! जेम श्रोत्रंद्रियना विषयमा
कमु छ तेम आ विषयमा पण वधू कहे. ए प्रमाणे वचनयोग संवन्धे पण समजबु. विशेष ए के वचनयोगमा एकेंद्रिय जीवो न 51 लेवा. ए प्रमाणे काययोग संबन्धे जाणवू. अने तेमा विशेष ए के काययोग सर्व जीवोने होवाथी सर्वना विषे ते समजबु. ए प्रमाणे ६ यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू, 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ॥ ५६६ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमां प्रथमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. (उद्देशक २) रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते। किं जरा सोगे, गोयमा! जीवाणं जरावि सोगेवि, से केणद्वेणं | भंते । एवं बु० जाव सोगेवि!, गोयमा! जेणं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति तेसि गं जीवाणं जरा, जेणं जीवा13. माणसं वेदणं वेति तेसिणं जीवाणं सोगे, से तेणढणं जाव सोगेवि, एवं नेरइयाणवि, एवं जाव थणियकुमा राणं, पुरविकाइयाणं भंते! किं जरा सोगे,गोयमा ! पुषिकाइयाणं जरा, नो सोगे, सेकेणद्वेणं जाव नो सोगे,
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गोषमा पुढषिकाहया णं सारीरं देवणं वेति नो माणसं वेदणं वेदेति से तेणटेणं जाब नो सोगे, एवं जाव चउ. ध्याख्या- रिदिपाणं, सेसाणं जहा जीवाणं जाब वेमाणियाण, सेवं भंते ! २त्ति जाव पज्जुवासति (सूत्रं ५६७)॥
1४२६ शतके प्रज्ञप्तिः 1 [भ] राजगृहमा भगवान् गौतम यावत् आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् । जीवोने जरा-पद्धावस्था अने शोक होय
छे उमेश २ [उ.] हे गौतम! जीवोने जरा पण होप छे अने शोक पण होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो हो के, जीवोने जरा अने शोक होय छे ? [उ०] हे गौतम ! जे जीवोने शारीरिक वेदना होय छे ते जीवोने जरा होय छे, अने जे जीवोने मानसिक वेदना होय छे ते जीवोने शोक होय छे माटे ते हेतुथी एम काछ के जीवोने जरा अने शोक होय छे, ए प्रमाणे नैरपिको संबंधे तथा यावत् स्तनितकुमारो सधी जाणवू. [म.] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकोने जरा अने शोक होय छ। [उ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिकने जरा होय छे, पण शोक नथी होतो. [प०] हे भगवन् । तेनु शु कारण के पृथिवीकायिकोने जरा होय बने शोकन होय ? [उ.] हे गौतम! पृथिवीकायिको शारीरिक वेदनाने अनुभवे छे, पण मानसिक वेदनाने अनुभवता नथी माटे तेओने जराद होय छे, पण शोक नथी होतो. १ प्रमाणे यावत् चतुरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवु. बाकीनाजीवो माटे सामान्य जीवोनी पेठे समजवं.
अने ए प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज के एम कही यावत् पर्युपासना करे छे. ॥ ५६७॥ स तेणं कालेणं २ सक्के देविंदे देवराया बबाणी पुरंदरे जाव मुंजमाणे विहरह, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं है|२ विपुखणं ओहिणा आभोएमाणे २ पामति समण भगवं महावीरं जंबुद्दीवे २ एवं जहा ईसाणे तइयसए तहेव
सकोवि नवरं आमिओगेण सद्दावेतिहरी पायत्ताणियाहिवई सुघोसा घंटा पालओ विमाणकारी पालगं विमाणं
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V
१६ शतके उद्देश २
उत्तरिल्ले निजाणमग्गे दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपब्वए सेसं तं चेद जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति धम्मकहा व्याख्या
जाव परिसा पडिगया, तए णं से सके देविंद देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा प्राप्ति ।१३७१॥
निसम्म हहतुट्ट. समण भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं वयासी-कतिविहे णं भंते ! उग्गहे पन्नते, सक्का! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-देविंदोग्गहेरायोग्गहे गाहाबहउग्गहे सागारियउग्गहे साहम्मियउग्गहे ।।
जे इमे भंते! अवताए समणा निग्गंथा विहरति एएसिणं अहं उग्गहं अणुजाणामीतिका समणं भगवं महा 5 वीरं वंदति नमसति २ तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति २ जामेव विसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए।
भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महा. वंदति नम०२ पवं वयासी-जणं भंते ! सक्ने देविंदे देवराया तुझे wणं एवं बदइ सचे णं एसमढे १, हंता सच्चे (सूत्रं ५६८)॥
ते काळे ते समये शक, देवेंद्र, देवराज, वज्रपाणि, पुरंदर यावद-मुखने मोमवतो विहरे, अने पोताना विशाल अवधिज्ञान वडे आ समस्त जंबूद्वीपने अवलोकतो अबलोकतो जंबूद्वीपमा श्रमण भगवंत महावीरने जुए छे. अहीं तृतीय शतकमां कहेल ईशानेन्द्रनी वक्तव्यता प्रमाणे शक्रनी वधी वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए छे के आ शक आभियोगिक देवोने बोलावतो नथी. एनो सेना धिपति हरिनममेषी देव के, घंटा सुघोषा छ, पालक नामे देव विमाननो बनावनार छ, विमाननुं नाम पालक, एनो निकळबानो मार्य उत्तर दिशाए, दक्षिण पूर्वमां-अनिकोममा रतिकर पर्वत के. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. यावत्-शक पोतार्नु नाम संभळावी भगवंतनी पर्युपासना करे छे. श्रमण भगवंत महावीरे धर्मकथा कही. यावत्-समा पाछी गई,. त्यारवाद ते शक, देवेन्द्र,
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देवराज श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी हर्षवाळो अने संतोषचालो थई श्रमण भगवंत महावीरने चांदी, व्याख्या- नमी आ प्रमाणे बोल्यो-[म०] हे भगवन् ! अवग्रह केटला प्रकारनो कबो छ । [उ०] हे शक्र ! अपग्रह पांच प्रकारको कझो छे. प्रज्ञप्तिः
ते आ प्रमाणे-१ देवेन्द्रावग्रह, २ राजावग्रह, ३ गृहपतिअवग्रह, ४ सागारिकावग्रह अने ५ सार्मिकावग्रह. जे आ श्रमण नियन्यो |NLINN. ॥१३७२।।
आजकाल विचरे छे वेओने हुं अवग्रहनी अनुज्ञा आपुंछु. एम कही ते शक श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी तेज दिम्य विमान | उपर बेसी ज्यांथी आन्यो हतो त्यां चाल्यो गयो. [५०] 'भगवन् ! एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी
आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् । शक्र देवेन्द्र देवराजे जे अपने पूर्व प्रमाणे [अवग्रह संबंधी ] क ते अर्थ सत्य के ? [उ०] हा गौतम र अर्थ सत्य के.॥५६८॥
सक्के णं भंते ! देविंदे देवराया किं सम्मावादी मिच्छावादी ?, गोयमा ! सम्मावादी नो मिच्छावादी॥ सके रणं भंते ! देविंदे देवराया कि सचं भासं भासति मोसं भासं भासति सचामोसं भासं भासति असचामोसं भासं
भासति ?, गोयमा सबंपि भासं भामति जाव असचामोसंपि भासं भासति ॥ सकेणं भंते । देविंदे देवराया किं सावज्जं भासं भासति ?, अणवजं भासं भासति ?, गोयमा! साबजपि भासं भासति अणवबंपि भासं | भासति, से केणटेणं भंते ! एवं बुबह-सावळपि जाव अणवजपि भासं भासति ?, गोयमा जाहे णं सके देविंदे देवराया सुहुमकार्य अणिजूहित्ताणं भासं भासति ताहे णं सके देविंदे देवराया सावज भासं भासति, जाहे णं सके देविदे देवराया मुहुमकायं निहितार्ण भासं भासतिताहे णं सके देविंदे देवराया अणषजं भासं
ति?, अणवावलंपि जाणं सक
कि
सेकेण?
अजिजूनिहिताण
ब
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व्याख्या प्रति
॥१३७३॥
RECRACHNORAN
भासति, से तेणढणं जाव भासति, सके णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए अभवसि सम्मविट्ठीए एवं | जहा मोउद्देसए सणकुमारो जाव नो अचरिमे ॥ (सूत्रं ५६९)।
१६ शतके [.] हे भगवन् ! शक देवेन्द्र देवराज धुं सत्यवादी के मिथ्यावादी छे ? [उ०] हे गौतम! ते सत्यवादी छे पण मिथ्या-IX
| उद्देश २ ही वादी नथी. [प्र.] हे भगवन् ! शक देवेन्द्र देवराज सत्यभाषा बोले , मृषा भाषा बोले छे, सत्यमृषा भाषा बोले के असत्या| मषा भाषा बोले के ? [उ.] हे गौतम ! ते सत्व भाषा बोले छे, यावत्-असत्यामृषा भाषा पण बोले छे. [प्र.] हे भगवन् ! शक देवेन्द्र देवराज सावध (पापयुक्त) भाषा बोले के निरवध (पापरहित) भाषा बोले? [उ०] हे गौतम! ते सावध अने निस्वद्य बसे माषा बोले. [प्र. हे मगवन् ! तेनुं शुं कारण के शक सावध अने निरवद्य ए बने भाषा चोले[उ.] हे गौतम । शक देवेंद्र देवराज ज्यारे सूक्ष्म काय-हस्त अथवा वस्त्र बडे मुख ढाक्या बिना बोले त्यारे ते सावध भाषा बोले छे अने मुख ढांकीने बोले त्यारे ते निरवद्य भाषा बोले छे, माटे ते हेतुथी ते शक्र सावध अने निरवध पन्ने भाषा बोले छे. [म०] हे भगवन् ! ते शक्र देवेन्द्र देवराज भत्रसिद्धिक छे, अमरसिद्धिक छे, सम्पग्रष्टि छ, [के मिथ्यारष्टि छे!][उ.] जेम वीजा शतकना प्रथम उद्देश्चकमा सनस्कुमार माटे का छे म अहिं पण जाणवू. अने ते यावत् ,-'अचरम नबी ए पाठ सुधी कडेचं. ॥ ५६९ ॥
जीवाणं भंते ! किं चेयकता कम्मा कति अचेयकडा कम्मा कलंति?, गोयमा! जीवाणं चेयकडा कम्मा कञ्चति नो अचेयकता कम्मा कजंति, से केण. भंसे! एवं बुखा जाव कति ?, गोयमा! जीवाणं आहारोषचिया पोग्गला घोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला,महा २ णं से पोग्गला परिणमंति नथि अचेयकमा
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प्रवतिः
| उमेश ४ ॥१३७
कम्मा समणाउसो, दुहाणेसु दुसेजासु दुन्निसीहियासुतहारणेतेपोग्गला परिणमंति नस्थि अचेयकडा कम्मा व्याख्या- समणाउसो!, आर्यके से वहाए होति, संकप्पे से वहाए होति, मरणंते से वहाए होति, तहा २ ण ते पोग्गला
परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो, से तेणट्टेणं जाव कम्मा कजंति, एवं नेरतियाणवि एवं जाव १३७४॥
घेमाणियाणं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरति ॥ (सूत्रं ५७०) ॥ १६-२॥ | [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना कर्मों चैतन्यकृत होय के के अचैतन्यकृत होय छ ? उ.] हे गौतम! जीवोना कर्मों चतन्यकृत | होय छे पण अचतन्यकृत नथी होता. [प्र० हे भगवन् । तेनु शु कारण छे के 'जीवोना कर्मों चैतन्य कृत होय छे पण अचैतन्यकृत नथी होता' ? [उ०] हे गौतम! जीवोए ज आहाररूपे, शरीररूपे अने कलेवररूपे उपचित (संचित) करेला पुगलो ते ते रूपे परिणमे छे, माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! अचैतन्यकृत को नथी. तथा दु:स्थानरूपे, दुशय्यारूपे, अने दुर्निषद्यारूपे ते ते पुद्गलो
परिणमे छे माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! अचैतन्यकृत कर्मपुदलो नथी. तथा ते आतंकरूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे, संकहैल्परूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे अने मरणांतरूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! कर्मपुद्गलो
| अचैतन्यकत नथी. ते कारणथी यावत्-जीवोना कर्मो अचैतन्यकृत नथी. ए प्रमाणे नैरयिको संबंधे अने यावत् वैमानिको संबंधे |पण जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज थे, हे भगवन् ! ते एमज' एम कही यावद् विहरे छे. ।। ५७० ॥
. भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमां वीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्या
१६शतके
प्रहसि
दाउदेश
॥१३७५॥
KARNER
शतक १६. (उद्देशक ३) रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिज्न जाव अंतराइयं, एवं जाव वेमा । जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ, एवं जहा पन्नवणाए वेदावेउद्देसओ सो व निरवसेसो भाणियव्यो, वेदाधोवि तहेव, बंधावेदोवि तहेव, पंधापंधोवि तहेच भाणियब्यो जाब वेमाणिया5 गंति । सेवं भंते ! २ जाव विहरति (सूत्रं ५७१) ॥
[प्र०] राजगृहमा (भगवान् गौतम) यावत् आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! केटली कर्मप्रकृतिओ कही १[30] है। | गौतम! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय, यावत् ८ अंतराय. ए प्रमाणे यावत वैमानिको सुधी जागवू. [प्र०] हे भगवन् ! कानावरणीय कर्मने वेदतो जीव बीजी केटली कर्मप्रकृतिओ वेदे के! [उ.] हे गौतम ! आठे कर्मप्रकृतिकोने वेदे छे. ए प्रमाणे अहीं प्रज्ञापनास्त्रमा कडेल 'वेदावेद' नामनो समग्र उद्देशक कडेवो. तथा तेज प्रकारे 'वेदाबंध' नामनो उद्देशक पण कडेवो. तेवीज रीते 'बंधावेद नामनो तथा 'बंधाध' नामनो उदेशक पण कडेवो. ए प्रमाणे यावद्वैमानिको सुधी जाणवू. है भगवन् ! ते एमज है, हे भगवन् ! ते एमज ' एम कही याव-विहरे छे. ।। ५७१ ॥ तए सबणे भगवं महावीरे अन्नदा कदापि राबगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेहयाओ पडिनिक्खमति
छछर
B oks
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Acharya Shr a garsuri Gyanmandir २. बहिया जणवयविहारं विहरति, तेणं कालेणं तेणं समपण उल्लुयतीरे नाम नगरे होस्था, बनाओ, तस्स णं व्याख्या- उल्लुयतीरस्स नगरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं एगजंबूए नाम घेइए होत्या, पन्नओ, तए णंदा१६चतके प्रज्ञप्ति
समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुब्वाणुपुचि चरमाणे जाव एगजंबूए समोसढे जाच परिसा पडिगया, | उदेश १३७६॥
मंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह नमसह वंदित्सा नमंसित्ता पर क्यासी-अणगारस्स गंभंते। भाषियप्पणो छटुंछट्टेण अणिक्वित्तणं जाव आयावेमाणस्स जाब तस्स णं पुरच्छिमेणं अवडं दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पादं वा बाहं वा अरू वा आउद्दावेत्तए वा पसारेत्तए था, पञ्चच्छिमेणं से अव दिवसं कम्पति इत्थं वा पादं वा जाच ऊरं वा बाउंटावेसए वा पसारेत्तए वा, तस्स णं अंसियाओ संबंति तं च वेजे अदक्खु ईसिं पाडेति ईसिं २ अंसियाओ छिदेजा से नूणं भंते! जे छिदति तस्स किरिया कजाति जस्म छिज्जति नो तस्स किरिया कजहणपणत्थेगेण धम्मतराइएणं, हंता गोयमा! जे छिदति जाव धम्मतराएणं । सेवं भंते! सेवं भंतेति ॥ (सूत्रं ५७२) ॥ १६-३॥
त्यारवाद श्रमण भगवंत महावीरे अन्य कोई दिवसे राजगृह नगरना गुणसिलक चैत्यथी नीकळी बहारना बीजा देशोमां विहार कों. ते काळे ते समये उल्लुकतीर नामर्नु नगर इतुं. वर्णक ते उल्लुकतीर नामना नगरनी बहार ईशान कोणमा एकजंक नामर्नु
चैत्य हतुं. वर्णक. स्यार पछी अनुक्रमे विचरता श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोई दिवसे एकजनामक चैत्यमा समोसा, या Pावत्-सभा पाछी गइ. त्यार पछी 'भगवन् । एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे बोल्या
का ते समये उल्लुकता
माता श्रमण भगवंत महा
भगवंत महावीरन
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व्याख्या प्रति ॥१३७७॥
१६ शतके
उद्देश ३ u 1991
RECEILAS
[4] हे भगवन् ! ण्ड छबुना तपपूर्वक यावत्-निरंतर आतापना लेता भावितात्मा एवा अनगारने दिवसना पूर्वार्ध मागमा | पोताना हाथ, पग, यावत्-उरु सापळने संकोचचा के पहोळा करवा कल्पता नथी, अने दिवसना पश्चिमा भागमा पोताना हाथ, पग, यावत् उसने संकोचवा अने पोहळा करवा कल्पे छे. हवे (कायोत्सर्गमा रहेला) एवा ते अनमारने (नासिकामां) अर्शोने लटकता होय अने ते अशोंने कोई वैद्य जुए, जोईने ते अर्शने कापवाने ते ऋषिने भूमि उपर सूवाडीने तेना अर्शी कापे तो हे भगवन् । ते कापनार वैद्यने क्रिया लागे के जेना अंशों कपाय ले तेने धर्मातराय रूप क्रिया सिवाय बीजी पण क्रिया लागे? [उ०] हे गौतमा हा, जे कापे छ तेने शुभ क्रिया लागे, अने जेना अझै कपाय के तेने धर्मातराय सिवाय बीजी क्रिया नथी लागती. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ. ।। ५७२ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमा श्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
SHREE
S ICAL
शतक १६. (उदेशक ४) रायगिहे जाव एवं वयासी-जावतियन्नं भंते। अन्नइलायए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एषति कम्म नरएसुकि नेरतियाणं वासेण वा वाहिं वा वाससएहिं वा खपति, णो तिणढे समढे, जावतियण्णं भंते। | चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएस किं नेरहया वाससएणं वा वाससरहिं वा वाससहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेहिं (ण) वा खवयंति', णो तिणडे समढे, जावतियन्नं भंते। छहमत्तिए समणे
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व्याख्या
। प्रज्ञप्तिः
॥१३७८॥
GANGOCHARACA*
निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतिय कम्मं नरएसुनेरहया वाससहस्सेण वा वाससहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेण(हिं)।
या ववयंति ?, णो तिणडे समढे, जावतियन भंते ! अट्ठमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निलरेति एवतियं कम्म १६ इतके है नरएसु नेरतिया वाससयसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं या वासकोडीए(हिं) वा स्वयंति', नो तिणढे समहे | Pउरेशा [म०] राजगृहमां यावत् आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! अन्नग्लायक (अब विना ग्लान थएलो-नित्यमोजी) श्रमण
५॥२३७ | निथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीवो नरकमां एक वरसे, अनेक वरसे के सो वरसे खपावे। [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. [म.] हे भगवन् । चतुर्थभक्त (एक उपवास) करनार श्रमण निथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीबो नरकमा सो बरसे, अनेक सो बरसे के हजार वरसे सपावे? (उ.] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी [प्र०] हे भगवन् ! छनुभक्त (खे उपवास) करी श्रमण निग्रंथ जेटलु कर्म खपावे वेटलुं कर्म नैरयिको नरकमा एक हजार वरसे, अनेक हजार बरसे के | एक लाख वरसे खपावे? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. [म.] हे भगवन् ! अष्टम भक्त (त्रण उपचास ) करी श्रमणनिथ जेटलुं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिको नरकमा एक लाख वरसे, अनंक लाख बरसे के एक क्रोड वरसे खपावे ? [उ.] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी.
जावतियन्नं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया वासकोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए चा स्वयंति, नो तिणढे समढे, से केणष्टेण भंते! एवं बुचा जावतियं अन्नदलातए समणे निग्गंथे कम्म निजरेति एवतियं कम्मं नरएसुनेरतिया वासेण वा वासेंहिं वा वाससएण वा(जाब)
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यं सुकं जडिलं गठिल्लापहामिहए तण्हामिह आरजराजजरियदेहे सिदिलताबासको
वास(सयोसहस्सेण वा नो खवयंति जावतियं चउत्थभत्तिए, एवं तं व पुब्वभणियं उचारेयब्वं जाव वासको. व्याख्या
डाकोडीए वा नो स्ववयंति', गोयमा। से जहानामए-के पुरिसे जुने जराजजरियदेहे सिढिलतयावलितरंगसं- 131१६ शतके
पिणद्धगत्ते पविरलपरिसडियदंतसेडी उपहामिहए तण्हामिहर आउरे झुझिए पिवासिए दुन्यले किलंते एगं महं लाउद्देश ॥१३७९० कोसंबगंडियं सुकं जडिलं गंठिल्लं चिकणं वाइद्धं अपत्तिय मुंडेका परसुणा अवकमेना, तए णं से पुरिसे महंताई
१३७९॥ २ सदाई करेइ नो महंताई २ लाई अबदालेह, एषामेव गोयमा! नेरहयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई चिक्क8णीकयाई एवं जहा छट्टसए जाच नो महापबवसाणा भवंति, से जहानामए-केई पुरिसे अहिकरणिं आउडेमाणे
महया जाव नो महापजवसाणा भवंति, से जहानामए-कई पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी निउणसिप्पोवगए | एग महं सामलिगंडियं उल्लं अजडिलं अगंठिल्लं अचिकणं अवाइद्धं मपत्तियं तिक्खेण परसुणा अक्षमज्जा, तए जाणं से पुरिसे नो महंताई १ सहाई करेति महंताई २ दलाई अवदालेति, एवामेव गोयमा! समणाणं निग्गंथाणं
अहावावराई कम्माहं सिदिलीकयाई णिष्ट्रियाई कयाई जाव खिप्पामेव परिविद्धत्थाई भवंति जावतिय तावतियं है जाव महापञ्जवसाणा भवंति, से जहा वा केह पुरिसे सुबतणहत्यगं जायतेयंसि पक्विवेजा एवं जहा छट्ठसए
तहा अयोकवल्लेवि जाच महाप० भवंति, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुखा जावतियं अमइलायए समजे निग्गंधे किम्मं निजरेति तं चेव जाप पासकोडाकोडीए वा नो खवयंति ॥ 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति जाव विहरह I (सत्रं ५७३ ) ॥ १६-४॥
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व्याख्या-1
www.kobatirth.org मा [म.] हे भगवन् । दशम भक्त (चार उपवास) करनारो श्रमण निय जेटई कर्म खपावे तेरहुं गर्म नैरयिक जीवो नरकमा
एक कोड बरसे, अनेक कोड वरसे के कोटाकोटी परसे खपावे ? [१०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे मगवन् र १५बतके प्रज्ञप्ति दूप्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'अमग्लायक अमण निथ जेटलुं कर्म खपाचे वेटलुं कर्म नैरयिक जीवो नरकमा एक बरसे,
उमेशा है अनेक वरसे के एक सो घरसे पण खपावे, अने चतुर्थभक्त करनार श्रमण निथ जेटलं कर्म खपावे तेटलुं कर्म नैरयिको नरकमा
सो बरसे, अनेक सो बरसे के लाख बरसे न खपावे-इत्यादि बधं पूर्व सूत्रनी पेठे कहे, यावत्-कोटाकोटी वरसेन खपावे ?' (उ०] हे गौतम ! जेम कोई एक घरहो, परपणथी जर्जरित शरीरवाळो, ढीला पडी गएला अने चामडीना बळीयावर व्याप्त धयेला | गात्रवाळो, थोडा अने पडी गएला दांतवाळो, गरमीथी व्याकुल थयेलो, तरसथी पीडाएल, दुःखी, भूख्यो तरसो, दुर्वल बने
मानसिक क्लेशचाळो पुरुष होय अने ते एक मोटा कोशच नामना पवनी सकी, बांकी चुंकी गांठोपाळी, चिकणी, वांकी अने निरा. | धार रहेली मंडिका-गंडेरी उपर एक सुंड (बुट्टा) पाशुपडे प्रहार करे, तो ते पुरुष मोटा मोटा अन्दो (हुंकार) करे पण मोटा मोटा कपडा न करी शके. एज प्रमाणे हे गौतम! नैरयिकोर पोताना पापकमों गाढ कया छ, चिकणा कर्या के-इत्यादि बधु छड्डा शतकमां कमा प्रमाणे को. यावत्-तेथी ते नैरयिको (अत्यंत वेदनाने वेदता छतां पण महानिर्जरावाला अने) निर्वाणरूप फलवाला
यता नथी. बळी जेम कोई एक पुरुष एरण उपर पण मारतो मोटा सन्द करे (परन्तु ते एरणना स्थल पुद्गलोने नोटवाने समर्थ लिथतो नथी, ए प्रमाणे नैरयिको गाढ कर्मवाळा होय , तेथी तेओ) यावद-महापर्यवसानवाला नथी. तथा जेम कोई एक तरुण I बलवान, यावत्-मेधावी अने निपुण कारीगर पुरुष एक मोटा शिमगना वृक्षनी लीली, जटा विनानी, गांठो विनानी, चिकाश131
KACHECE
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म्यास्या
११३८
CREAK
विनानी, सीधी अने आधारवाळी गंडिका उपर तीक्ष्ण हाडावडे प्रहार करे तो ते पुरुष मोटा मोटा शब्दो करतो नथी पण मोटा | मोटा दळने फाडे छे, एज प्रमाणे हे गौतम ! जे अमण निथोए पोताना कर्मोने यथास्थूल, शिथिल यावत्-निष्ठित करेला, यावत्-ने कर्मो शीघ्रज नाश पामे के अने यावत्-तेओ (श्रमणो) महापर्यवसानवाला थाय छे. वळी जेम कोइ एक पुरुष सूका पासना |
| उमेश
P१३८१॥ पळाने यावत्-अमिमा फेंके (अने ते शीघ्र बळी जाय ए प्रमाणे श्रमण निग्रन्थोना यथा बादर कर्मो शीघ्र नाश पामे.) तथा| पाणीना टीपाने तपाबेल लोढाना कडायामां नाखे तो ते जलदी नाश पामे ए प्रमाणे श्रमण निन्चना कर्म शीघ्र विमस्त थाय है| इत्यादि वधुं छटा शतकनी पेठे कोQ, यावत्-तेजो महापर्यवसानबाळा थाय . माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कj के 'अलग्लायक श्रमण निथ जेटलं कर्म खपावे-इत्यादि वर्षा पूर्व प्रमावेज कहे-यावत् तेटलुं कर्म कोटाकोटी वरसे पण नैरयिक जीव न खपावे. 'हे भगवन् । ते एमज हे भगवन् ! ते एमज छ-' एम कही यावद-विहरे छे.॥ ५७३ ।। . भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीपत्रना सोळमा शतकमा चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. (उद्देशक ५) | तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होस्था वनओ, एगजबूए चेहए वनओ, तेणं कालेणं तेणं ६ समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ सके देविंद देवराया बबपाणी एवं जडेव
वितियउसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ जाच जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छा।
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१६ शतके उद्देशा५ ॥१३८
जाव नमंसित्ता एवं बयासी-देवे णं भंते ! महडिए जाब महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगव्याख्या-14
४| मित्तए ?, नो निणढे समढे, देवे णं भंते ! महडिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमिप्रज्ञप्ति
दत्तए ?, हंता पभू , देवे णं भंते ! महडिए एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए २ एवं भासित्तए वा वागरित्तए वा ४|३ उम्मिसावेत्तए वा निमिमावेत्तए वा ४ आउहावेत्तए वा पसारेत्तए वा ५ ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा डाचेइत्तए वा ६ एवं विउवित्तए वा ७ एवं परियारावेत्तए वा ८ जाव हंता पभू, इमाई अट्ठ उक्वित्तपसिणवाग| रणाई पुच्छह, इमाई २त्ता संभंतियवंदणएणं वंदति संभंतिय०२त्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति २ जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए (सूत्र ५७४)॥
। ते काळे, ते समये उल्लुकतीर नामर्नु नगर हतुं. वर्णक. एकजंबक नामर्नु चैत्य हतुं. वर्णक. ते काळे ते समये स्वामी समोसर्याः दियावत्-सभा पर्युपासना करे छे. ते काळे ते समये शक देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि-इत्यादि जेम बीजा उद्देशकमां कहेवामां आव्यु
के तेम दिव्य विमान बडे अहीं आव्यो, अने यावत्-जे तरफ श्रमण भगवंत महावीर हता ते तरफ जइ यावत-नमी आ प्रमाणे का बोल्यो [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय अहीं आववा समर्थ
के ? [उ०] हे शक्र! ना, ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋदिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुगलोने है ग्रहण करीने अहीं आवा समर्थ छ ? [उ०] हे शक्र ! हा समर्थ के. हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो देव यावत्-एज प्रमाणे बहारना पुद्गलोने ग्रहण करीने १ जवाने, २ बोलवाने, ३ उत्तर देवाने, ४ आंख उघाडबाने के आंख मींचवाने, ५ शरीरना अवयवोने
RESOURCESSHRESTHA
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मा१६ शक्के
व्याख्याप्रमाप्तिः ॥१३८३
उद्देशः५ ॥१३८३॥
ASSASSUNGSSHOSHG
संकोचवाने के पहोळां करवाने, ६ स्थान शय्या के निषद्या-खाध्यायभूमिने भोगववाने, ७ विकुर्ववाने अने ८ परिचारणा-विषयोपभोग करवाने समर्थ छ ? [उ०] हा यावत्-समर्थ छे. ते देवेन्द्र देवराज पूर्वोक्त संक्षिप्त आठ प्रश्नो पूछी अने उत्सुकता-उतावळ पूर्वक भगवंत महावीरने वांदी तेज दिव्य विमान उपर चढी ज्यांथी आव्यो हतो त्यां ते पाछो चाल्यो गयो. ॥ ५७४॥
भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति २ एवं क्यासी-अन्नदा णं भंते ! सके देविंदे है | देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमसति सकारेति जाव पज्जुबासति, किण्हं भंते! अन्ज सके देविदे देवराया देवागुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छह २ संभंतियवंदणएणं वंदति णमंमति २ जाव पडिगए ?. गोय. मादि समणे म. भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं २ महासुके कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा महड्डिया जाव महेसक्खा एगविमाणसि देवत्ताए उववन्ना, तं0-माथिमिच्छदिहिउववन्नए य अमायि| सम्मदिहिउववन्नए य, तए णं से माथिमिच्छादिहिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मदिहिउववन्नगं देवं एवं वयासीपरिणममाणा पोग्गला नो परिणया अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तए ण से अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नए देवे तं मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं देवं एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया नो अपरिणया,तं मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं एवं पडिहणइ २ ओहिं पउंजइ ओहिं २ ममं ओहिणा आभोएइ ममं २ अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयतीरे नगरे एगजंबूण चेहए अहापडिरूवं जाव विहरति, त सेयं
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खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाब पज्जुबासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तएत्तिकहु एवं संपेहेइ व्याख्या४ा एवं, संपेहित्ता चउहिवि सामाणियसाहस्सीहिं परिवारो जहा मृरियाभस्स जाव निग्घोसनाइयरवेणं जेणेव
१६ शतके प्रज्ञप्तिः
जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयातीरे नगरे जेणेव एगजबूए चेइए जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्य ॥१३८४॥
Pउद्देश:५ गमणाए, तए णं से सके देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देवहिं दिव्वं देव जुति दिवं देवाणुभागं दिव्वं
॥१३८४ तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छह संभंतिय जाव पडिगए (सूत्रं ५७५) ॥
[प्र०] 'भगवन् ! एम कही पूज्य गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! अन्य दिवसे | देवेन्द्र देवराज शक देवानुप्रिय आपने वंदन, नमन, सत्कार यावत्-पर्युपासना करे छे, पण हे भगवन् ! आजे तो ते शक्र देवेन्द्र देवराज देवानुप्रिय एवा आपने संक्षिप्त आठ प्रश्नो पूछी अने उत्सुकतापूर्वक वांदी नमी यावत्-केम चाल्यो गयो? [उ०] 'हे गौतम'! एम कही, श्रमण भगवंत महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कयु-हे गौतम ! ए प्रमाणे खरेखर ते काळे ते समये महाशुक्र कल्पना महासामान्य नामना विमानमां मोटी ऋद्धिवाळा, यावत्-मोटा मुखवाळा वे देवो एकज विमानमां देवपणे उत्पन्न थया, तेमां एक मायी मिथ्यारष्टि रूपे उत्पन्न थयो अने एक अमायी सम्यग्दृष्टिरूपे उत्पन्न थयो. त्यारपछी उत्पन्न थयेला ते मायिमिथ्यारष्टि देवे उत्पन्न थयेला अमायिसम्यग्दृष्टि देवने आ प्रमाणे कयु के-परिणाम पामता पुद्गलो 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के (हजी) ते परिणमे छे माटे ते परिणत नथी, पण 'अपरिणत' छे. त्यारवाद उत्पन्न थयेला ते अमायी सम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला ते मायी मिथ्यादृष्टि देवने कथु के, परिणाम पामता पद्गलो परिणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न
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प्राप्ति
॥१२४२॥
RKESIDHAARALIA
| वाण वा जवजवाण वा पक्काण परियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपजणएणं असिअएणं पडिसाहरिया प०२ पडिसंखिविया २ जाव इणामेव २ तिकटु सत्त लवए लुएन्जा, जति णं गोयमा । तेसिं देवाणं एक
इ.१५शतके तियं कालं आउए पहुप्पते तो णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झंता जाव अंतं करेंता, से तेणडेणं जाव
*उचा
१९५० लवसत्तमा देवा लवमत्तमा देवा (सूत्र ५२५) ।।
[प्र.] हे भगवान् । शुलवसत्तम देवो ए लवसत्तम देवो मे १ [उ.] हा, गौतम .प्र०] हे भगवान् ! लवसत्तम देवो ए 'लवसत्तम देवो' एम शा हेतुथी कहेवाय छ ? [उ०] हे गौतम ! जैम कोई जुवान पुरुष यावत्-निपुण शिल्पनो ज्ञाता होय, अने ने पाकेला,लणवाने योग्य थयेला, पीला थयेला अने पीळीनाळवाळा शालि, व्रीहि, गहुं जव अने जबजब (धान्यविशेष ) ने (हाथथी) एकठा करी मुठिवडे ग्रहण करी, आ काप्या' प प्रमाणे शीघ्रतापूर्वक नवीन पाणी चडावेल तीक्ष्ण दातरडावडे सात लव (कोळी) जेटला समयमां कापी नाखे, हे गौतम! जो ते देवोनुं पटल (मात लव जेटलं) आयुष्य वधारे होत तो देवो तेज भवमा सिद्ध थात, यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करत. माटे ते हेतुथी हे गौतम ! ते लवसत्तम देवो ए 'लवसत्तम' एम कहेवाय छे. ॥ ५२५ ।।
अत्धि णं भंते ! अणुत्तरोवबाइया देवा अ०२१, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते ! एवं बुचद अ०२ ?, गोयमा! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं अणुत्तरा सहा जाच अणुत्तरा फासा, से तेण?णं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव अणुत्तरो. बवाइया देवा अ०२। अणुसरोववाइया णं भंते ! देवा णं केवतिएणं कम्मानसेंसेणं अणुत्तरोववाहयदेवत्ताए उववना, गोयमा जावलियं छट्टभत्तिए ममणे निग्गंथे कम्म निजरेति एवनिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोवाइया का
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
।। १३८५ ।।
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कवाय, कारण के ते परिणमे छे माटे ते परिणत कद्देवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. ए प्रमाणे कही उत्पन्न थयेला ते अमायिसम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला मायिमिध्यादृष्टि देवनो पराभव कर्यो. त्यारपछी तेणे ( सम्यग्दृष्टि देवे ) अवधिज्ञाननो उपयोग कर्यो, भने अवधिद्वारा मने जोईने ते सम्यग्दृष्टि देवने आ प्रकारनो संकल्प उत्पन्न थयो के जंबुद्वीपमां भारतवर्षमां ज्यां उब्लुक तीर नामनुं नगर छे, अने ते नगरमां ज्यां एकजंबूक नामनुं चैत्य हे त्यां श्रमण भगवंत महावीर ययायोग्य अवग्रह लेइने विहरे छे, तो त्यां जई ते श्रमण भगवंत महावीरने वांदी यावत् पर्युपासी आ प्रकारनो प्रश्न पूछवो ए मारे माटे श्रेयरूप छे, एम विचारी चार हजार सामानिक देवोना परिवार साथे-जेम सूर्याभ देवनो परिवार कह्यो छे तेम अहिं पण समजनुं यावद - निर्घोष नादित स्वपूर्वक जे तरफ जंबूद्वीप छे, जे तरफ भारतवर्ष के, जे तरफ उल्लुकतीर नामनुं नगर छे, अने जे तरफ एकजंबूक नामनुं चैत्य के तथा ज्यां आगळ हुं विद्यमान हुं ते तरफ आववाने तेणे (सम्यग्दृष्टि देवे) विचार कर्यो. त्यारबाद ते देवेन्द्र देवराज शक्र मारी तरफ आता ते देवनी तेवा प्रकारनी दिव्य देवर्षि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव अने दिव्य तेजोराशिने न सहन करतो आठ संक्षिप्त प्रश्न पूछी अने उत्सुकतापूर्वक बांदी यावत्-चाल्यो गयो. ।। ५७५ ॥
जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमहं परिकहेति तावं च णं से देवे तं देतं हव्यमा गए, तए णं से देवे ममणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदति नम॑सति २ एवं वयासी एवं खलु भंते! महासुके कप्पे महासामाणे बिमाणे एगे माथिमिच्छदिविवन्नए देवे ममं एवं व्यासी- परिणममाणा पोग्गला नो परिया अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तप णं अहं तं मायिमिच्छदिट्टिउबवन्नगं देवं
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१६ शतके उद्देशः ५ ॥१३८५।।
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥१३८६ ॥
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एवं बयासी - परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया परिणमंतीति पोगला परिणया णो अपरिणया, से कहमेयं भंते! एवं १, गंगदस्त्तादि ! समणे भगवं महाबीरे गंगदत्तं एवं व्यासी- अहंपि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि परिणममाणा पोग्गला जाब नो अपरिणया सच्चेणमेसे अट्ठे, तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म हह्तुट्ठे समणं भगवं महावीरं वंदनि नम० २ नचासन्ने जाब पज्जुवासति, नए णं समणे भ० महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्मं परिकहेह जाव आराहए भवति, त णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ० अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठे उट्टाए उट्ठेति उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति २ एवं वयासी अहं यह भंते ! गंगदन्ते देवे किं भवसिद्धिए अभव सिद्धिए १, एवं जहा सुरियाभो जाव बत्तीसतिबिहं नट्टविहं उबदंसेति उव० २ जात्र तामेव दिसं पडिगए (सूत्रं ५७६) ।।
जे वखते श्रमण भगवंत महावीर पूर्व प्रमाणेनी वात पूज्य गौतमने कही रह्या छे तेज बखते ते ( सम्यग्दृष्टि देव ) त्यां शीघ्र आन्यो अने पछी ते देवे श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी वांदी नमी आ प्रमाणे करूं के [प्र० ] हे भगवन् ! महाशुक्र कल्पमां महासामान्य नामना विमानमां उत्पन्न थरला मायी मिध्यादृष्टि देवे मने आ प्रमाणे कछु के परिणाम पामतां पुद्गलो 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के ते पुद्गलो हजी परिणमे छे माटे ते 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय पछी में ते मायी मिध्यादृष्टि देवेने आ प्रमाणे कछु के-परिणाम पामता पुद्गलो 'परीणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. कारण के ते वृद्धलो परिणमे छे, माटे ते 'अपरिणत' न कहेवाय, पण 'परिणत' कहेवाय. तो हे भगवन् । ए मारुं
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१६ शतके उद्देशः५ ॥१३८६॥
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व्याख्या
प्रशतिः
॥१३८७।।
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कथन के छे ? [उ०] 'गंगदत्त' ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे ते गंगदच देवने आ प्रमाणे कछु के है गंगदत्त 1 हुं पण ए प्रमाणे कहुं छु ४, के परिणाम पामता वृद्धलो यावत्- 'अपरिणत' नथी पण 'परिणत' थे, अने ते अर्थ सत्य छे. त्यार पछी भ्रमण भगवंत महावीर पाथी ए वातने सांभळी अवधारी ते गंगद देव हर्षवाळो अने संतोषवाळो थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी बहु दूर नहि अने बहु नजीक नहीं एवी रीते पासे बेसी सेओनी पर्युपासना करे थे. पछी श्रमण भगवत ! महावीरे ते गंगदत्त देवने अने ते मोटामां मोटी समाने धर्मकथा कही, यावत्-ते आराधक थयो. पछी ते गंगदत्त देव श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी अवधारी हर्ष अने संतोषयुक्त थई उभो थयो, उभो थईने श्रमण भगवंत महावीर ने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो के - [प्र० ] हे भगवंत ! हुं गंगदरा देव भवसिद्धिक छु के अभवसिद्धिक छु १ [उ०] जेम सूर्याभ देव संबन्धे का तेनी पेठे बधुं जाणवु यात्रत् ते गंगदत देव चत्रीय प्रकारना नाटक देखाडी ज्यांथी आग्यो हतो त्यां पाठो चाल्यो गयो. ॥ ५७६ ॥
संतेत्ति भगवं गोगमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वग्रामी - गंगदत्तस्स णं भंते । देवस्स मा दिव्वा देवडी दिव्या देवत्ती जाव अणुपविट्ठा ?, गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुष्पविट्टा कूडागारसालादिहंतो जाय | सरीरं अणुष्पविट्ठा। अहो णं भंते! गंगदत्ते देवे महड्डिए जाव महेसक्खे ?, गंगदत्तणं भंते ! देवेणं सा दिव्या देवडी दिखा देवजुत्ती किण्णा लद्धा जाव गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्वा देवड्डी जाव अभिसमन्नागया ?, गोयमादी ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोषमं एवं वयासी - एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणं २ इहेब जंबुद्दीवे २ भार हे वासे हरिणापुरे नामं नगरे होत्था बनाओ, महसंबवणे उज्जाणे वनओ, तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे गंगदत्ते नामं
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१६ शतके उद्देशः ५ ॥१३८७॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१३८८॥
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गाहावती परिवसति अड्डे जाव अपरिभूए, तेणं कालेणं २ मुणिसृव्वए अरहा आदिगरे जाव सव्वन्नू सव्वद|रिसी आगासगएणं चक्केणं जाव पकडिलमाणेणं प० सीसगणसंपरिवुडे पुत्रवाणुपुवि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जाव जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जाब विहरति परिसा निग्गगा जाव पज्जुवासति, तए णं से गंगदत्ते | गाहावती इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्टतुट्ट जाव कयबलिजाब सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति २ पायवि हारचारेणं हस्थिणागपुरं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ जेणेव सहसंघवणे उखाणे जेणेव मुणिसुब्बए अरहा तेणेव उवागच्छ २ मुनिसुव्वयं अहं तिक्खुत्तो आ २ जाव निविहाए पज्जुवासणाए पज्जुबासति,
[प्र०] 'हे भगवन् ! एम कही पूज्य गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कछु के-हे भगवन् । ए गंगदत्त देवनी ते दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति यावत्-क्यां गई ? [अ०] हे गौतम! ते दिव्य देवर्द्धि ते गंगदत्त देवना शरीरमां गई, अने शरीरमां | अनुप्रविष्ट थई, आ स्थळे पूर्वोक्त कूटागार शालानो दृष्टांत जाणवो. अने ते यावत्- 'शरीरमां अनुप्रविष्ट थई'. हे भगवन् ! ए गंगदरा देव तो मोटी ऋद्धिवाको यावत्-मोटा सुखवाळो छे. [प्र० ] हे भगवन् ! गंगदत्त देवे ते दिव्य देवर्द्धि अने दिव्य देवश्रुति शाथी मेळवी, यावद-दिव्य देवर्द्धि तेने शाथी अभिसमन्वागत प्राप्त थई ? [उ०] 'भो गौतम ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे पूज्य गौतमने आ प्रमाणे कछु के-हे गौतम! ते काळे ते समये आज जंबुद्वीपमां, भारतवर्षमां इस्तिनापुर नामनुं नगर हतुं. वर्णन. त्यां सहस्रवण नामनुं उद्यान इतुं वर्णन. ते हस्तिनापुर नगरमा आठ्य, यावद - अपरिभूत एवो गंगदत्त नामनो गृहपति रहे तो हतो. ते काळे, ते समये आदिकर, यावत्- सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत चक्रसहित, यावत् देवोवडे खेचाता धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगणथी
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१६ के उद्देशः५
॥१३८८॥
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१३८९ ॥
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संपरित भई पूर्वानुपूर्वी विचरता अने ग्रामानुग्राम विहरता यावत् - श्रीमुनिसुव्रत नामे अरहंत यावत्-जे तरफ सहस्राम्रवण नामनुं उद्यान हृतुं त्यां आध्या अने यावत् विहरवा लाग्या. सभा वांदवा मीक्ळी अने यावत् पर्युपासना करवा लागी. त्यारबाद ते गंगदत्त नामे बृहपति आवी रीसे श्रीमुनिसुव्रत स्वामी अध्यानी बात सांभली हर्षवाळो अने संतोषवाळो थई यावद - बलिकर्म करी शरीरने शणगारी पोतानाघरथी नीकळयो, नीकळी पगे वालीने हस्तिनापुर नगरनी दचोवच्च थई जे तरफ सहस्राम्रवण नामनुं उद्यान इतु अने ज्यां श्रीमुनिसुव्रत अरहंत इता त्यां आवी सुनिसुव्रत अरहंतने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, यावत्-त्रण प्रकारनी पर्युपसासना | वडे पर्युपासना करवा लाग्यो.
तए
मुणिसुध्वए अरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महतिजाव परिसा पडिगया, तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिन्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठ० उद्वार उद्वेनि २ मुणिसुब्वयं अरहं चंदन नमसति वंदिता नमसित्ता एवं क्यासी-सदहामि णं भंते! निग्गंधं पावपणं जाव से जहेयं तुझे वदह, जं नवरं देवाणुपिया ! जेहपुत्तं कुटुंबे ठावेमि तए णं अहं देवाशुपियाणं अंतियं मुंडे जाव पव्वयामि, अहासुहं | देवाणुपिया ! मा पडिबंध करेह,
त्यार पछी के श्रीमुनिसुव्रत स्वामीए ते गंगदच गृहपतिने तथा ते मोटी महासभाने धर्मकथा कही; यावत्-सभा पाछी गई. त्यार बाद ते गंगदत्त नामे गृहपति श्रीमुनिसुव्रत अरिहंत पासेथी धर्मने सांभळी, अत्रधारी हर्ष तथा संतोषयुक्त थई उभो थयो, उठीने श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो के हे भगवन् ! हुं निर्ग्रथना प्रवचनमां श्रद्धा करुं हुं यावत्- आप जे
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१६ शतके उद्देश:५
||१३८९॥
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१६ शतके | उद्देशा५ ॥१३९०
प्रमाणे कहो हो ते तेमज मार्नु छु. विशेष ए के हे देवानुप्रिय ! मारा मोटा पुत्रने कुटुंबनो मुख्यभूत स्थापीने आप देवानुप्रियनी व्याख्या- पासे मुंड थई यावत्-प्रवज्या लेवा इच्छु छु. (श्रीमुनिसुव्रत स्वामीए का के) हे देवानुप्रियि ! जेम सुख थाय तेम कर, विलंब न कर. प्रशतिः
है। नए ण से गंगदत्त गाहाबई मुणिसुब्बएणं अरहया एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ मुणिमुब्वयं अरिहं वंदति नम- I ॥१३९॥
सति, वंदत्तिा न० मुणिसुब्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उजाणाओ पडिनिक्म्वमति प०२ जेणेव | हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ विउलं असणं पाण जाव उबक्खडावेति उ. २ मित्तणाति|णियगजाव आमंतेति आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए जहा पूरणे जाच जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेति तं मित्सणाति जाव जेट्टपुत्तं च आपुच्छति आ०२ पुरिससहस्सवाहणियं सीयं दुरूहति पुरिससह २ मित्तणातिनियगजाय परिजणेणं जेट्टपुत्तेण य ममणुगम्ममाणमग्गे सब्बिड्डीए जावणादितरवेणं हथिणागपुरं मजझमझेणं निग्गच्छद नि. २ जेणेव महसंबवणे उजाणे तेणेष उवा०२ छत्तादिते नित्थगरातिमा पामति एवं जहा उदायणो जाब सयमेव आभरणं मुगइ म०२ सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति स २ जेणेव मुणिसुब्बए अरहा एवं जहेच उदायणो तहेव पचइए, तहेब एक्कारस अंगाई अहिलह जाब मासियाए संलेहणाए सर्हि भत्ताई अणसणाए जाव छेदेति सर्टि भत्ताइं० २ आलोइयपडिकंते ममाहिपत्ते कालमासे कालं किवा महासुक्के कप्पे महामामाणे विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्नं सि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने, तए णं से गंगदत्त देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पञ्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छति, तंजहा-आहारपज्जत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए, एवं खलु गोयमा! गंगद
कम
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ।।१३९१ ।।
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| तेणं देवेणं सा दिव्या देवड्डी जाव अभिसम० । गंगदत्तस्स णं भंते! देवरस केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ?, गो |यमा ! सत्तरससागरोवमाई ठिती, गंगदत्ते णं भंते । देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव महाविदेहे वासे सिनिहित जाय अंतं काहिति ॥ 'सेवं भंते! सेवं भंते 'ति । (सूत्रं ५७७ ) ॥ १६-५ ॥
ज्यारे ते मुनिसुव्रत स्वामीए वे गंगदत्त नामे गृहपतिने ए प्रमाणे क ं त्यारे ते हर्षयुक्त अने संतोषयुक्त थई मुनिसुव्रत स्वा मीने वांदी, नमी मुनिसुव्रत स्वामी पासेथी सहस्राम्रवण नामना उद्यानयी नीकळी जे तरफ हस्तिनापुर नगर के अने ज्यां पोतानुं घर छे त्यां आग्यो, आवीने विपुल अशन, पान-यात्रत् - तैयार करावी पोताना मित्र, ज्ञाति स्वजन वगेरेने नोवर्या. पछी स्नान करी पूरण शेठनी पेठे यावत्-पोताना मोटा पुत्रने कुटुंबमां मुख्य तरीके स्थापी पोताना मित्र, ज्ञाति स्वजन वगेरेने तथा मोटा पुत्रने पूछी हजार पुरुषबडे उपाडी शकाय तेवी शिविकामां बेसी, पोताना, मित्र, ज्ञाति स्वजन यात्रत् परिवारवडे तथा मोटा पुत्रवडे अनुसरातो सर्वं ऋद्धिसहित यावत्-वादिना थता घोषपूर्वक हस्तिनापुरनी वच्चावच्च निकली जे तरफ सहस्राम्रवण नामे उद्यान है, ते तरफ आवी तीर्थंकरना छत्रादि अतिशय जोई यावत्-उदायन राजानी पेठे यावद-पोतानी मेळेज पोताना घरेणा उतार्या अने पोतानी मेळेज पंचमुष्टिक लोच क्यों. त्यार बाद श्रीमुनिसुव्रतस्वामीनी पासे जई उदायन राजानी पेठे दीक्षा लीधी. यावत्-तेज प्रमाणे ते गडदच अणगार अगीयार अंगो भथ्यो, यावत्-एक मासनी संलेखना वडे साठ भक्त-त्रीश दिवस अनशनपणे वीतrat आलोचन - प्रतिक्रमण करी समाधिपूर्वक मरणसमये मृत्यु प्राप्त करी ते महाशुक्र कल्पमां महासामान्य नामना विमानमां उपपात | सभाना देवशयनीयमां यवात्-गंगदत्त देवपणे उत्पन्न थयो. पछी ते तुरतज उत्पन्न धयलो गंगद देव पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे
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१६ शतके उद्देश:५
।। १३९१ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३९२॥
उशा५
CROCHAK
www.kobatirth.org पर्याप्तपणाने पाम्यो. ते पर्याप्तिना पांच प्रकार आ प्रमाणे के-आहारपर्याप्ति, यावत्-भाषामनःपर्याप्ति.९ प्रमाणे हे गौतम! ते गंगदत्त देवे ते दिव्य देवधि पूर्वोक्त कारणथी यवत्-प्राप्त करी के. [५०] हे भगवन् ! ते गंगदत्त देवनी स्थिति केटला कानी १६ शतके कही छ ! [3.) हे गौतम ! तेनी स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे. [प्र.] हे भगवन् ! ते गंगदत्त देव तेना आयुषनो क्षय थया पछी ते देवलोकथी निकळी क्या जशे? [१०] हे गौतम! ते महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध यशे, यावद-सर्वे दुःखोनो नाश करशे. 'हे
13॥१३९॥ भगवन् ! ते एमज, हे भगवन् ! ते एमज के.'॥ ५७७॥ भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. उद्देशक ६. कतिविहे णं भंते ! सुविणदसणे पण्णते?, गोयमा! पंचविहे सुविणदसणे पण्णते, तंजहा-अहातचे पयाणे चिंतासुविणे तविवरीए अवत्तदसणे॥सुत्त णं भंते ! सुविणं पासति जागरे सुविणं पासति सुत्तजागरे सुविणं पासति ?, गोयमा! नो सुत्त सुविणं पासह नो जागरे सुविणं पासह सुत्तजागरे सुविणं पासइ ।। जीवा गं भंते ! किं सुत्ता जागरा सुत्नसागरा, गोयमा! जीवा सुत्तावि जागरावि भुत्तजागरावि, नेरइया भंते ! किं सुत्ता.? पुच्छा, गोयमा! नेरइया सुत्ता नो जागरा नो सुसजागरा, एवं जाव चरिंदिया, पंचिंदिपतिरिक्खजोणिया भंते ! किं सुत्ता० पुच्छा, गोयमा! सुत्ता नो जागरा सुत्तजागरावि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिपा जहा नेरइया । (सूत्रं ५७८)॥
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- हे भगवन् ! स्वप्नदर्शन केटला प्रकारर्नु कयु छ ? [उ०] हे गौतम ! पंच प्रकार स्वप्नदर्शन का छे. ते आ प्रमाणे
१५ शतके व्याख्या र यथातथ्य खप्नदर्शन, २ प्रतान स्वप्नदर्शन, ३ चिंता स्वप्नदर्शन, ४ तद्विपरित स्वप्नदर्शन, अने ५ अव्यक्त स्वप्नदर्शन. [प्र० प्राप्ति
31 हे भगवन् ! यतेलो प्राणी स्वप्न जुए, जागतो प्राणी स्वप्न जुए के सूतो जागतो प्राणी स्वप्न जुए ? [१०] हे गौतम! समेलो ||१३९॥ ॥१३९॥
प्राणी स्वप्न न जुए, जागतो प्राणी स्वप्न न जुए पण सूतो जागतो प्राणी स्वप्नने जुए. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो मतेला छे, जागृत छे के सूता-जागता के ? [उ०] हे गौतम ! जीवो सूनेला पण छे, जागृत पण छे अने सूता-जागता पण छे. [३०] हे
भगवन् ! नरयिको सूतेला वे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! नैरयिको सूतला हे, पण जागता के सूता-जागता नथी. ए प्रमाणे ६ दायावत्-चउरिन्द्रिय संबन्धे पण जाण. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिको सुतेला वे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम
तेओ सूतेला के अने सूता जागता पण छे. पण (तदन) जागता नथी. मनुष्यना प्रश्नमा सामान्य जीवोनी पेठे जाणवं. वानव्यंतर,
ज्योतिषिक अने वैमनिक देवोना प्रश्नमां नैरयिकोनी पेठे समजबु.॥५७८ ॥ ६ संखुडे णं भंते ! सुविण पासह असंधुडे सुविणं पासइ संवुडासंवुडे सुविणं पासह ?, गोयमा ! संवुडेवि
सुविणं पासइ, असंवुडेवि सुविणं पासइ,संवुडासंबुद्धेवि सुविण पामह, संवुडे सुविणं पासति अहातचं पासति, असंबुडे सुविणं पासति तहावित होजा असहा वा तं होजा, संखुडासंबुडे सुविणं पासति एवं चेव ॥ जीवा णं भंते ! किं संवुडा असंवुडा संवुहासंवुहा?, गोयमा! जीवा संवुडावि असंवुडावि संवुडासंवुडाधि, एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियव्यो ।। कति भंते ! सुविणा पण्णत्ता, गोयमा! बायालीसं सुविणा पन्नत्ता
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उमेशा ॥१३९४१
| कई मंते ! महासुथिणा पण्णता?, गोयमा तीस महासुविणापण्णत्ता, कतिणं भंते ! सब्वसुविणा पण्णता, ध्यारूपाप्रज्ञप्तिः
४ गोयमा! बावत्तरि सव्वसुषिणा पण्णत्ता । तित्थयरमायरोणं भंते ! तित्थगरंसि गम्भं वक्कममाणंसि कति ॥१३९४॥
महासुविणे पासित्ताण पडिबुज्झति', गोयमा! तित्थयरमायरो लिस्थयरंसि गम्भ बक्कममाणसि एएसि तीसाए महासुविणाण इमे चोदस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, .-गयउसभसीहअभिसेयजाव सिहिं छ । चकवहिमायरो णं भंते ! चकवहिसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुझंति ?, गो|यमा। चावहिमायरो चक्कवहिंसि जाव बक्कममाणंसि एएसिसीसाग महासु. एवं जहा तिस्थगरमायरो जाच सिहं च । वासुदेवमायरो णं पुच्छा, गोयमा! वासुदेवमायरो जाव वक्कममाणंसि एएसिं चोहसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबु.। बलदेवमायरो वा णं पुच्छा, गोयमा! बलदेवमायरो जाव एएसि चोदसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडि। मंडलियमायरो भंते ! पुच्छा, गोयमा! मंडलियमायरो जाव एएसिं चोइसण्हं महासु. अन्नयरं एगं महं सुविण जाच पडिवु. (सूत्रं ५७९) ।
[प्र०] हे भगवन् ! संवृत्त जीव स्वम जुए, असंवृत जीव स्वप्न जुए के संधूतासंवृत जीव स्वप्न जुए? [उ०] हे गौतम! संवृत, | असंवृत अने संवृतासंवृत ए त्रणे जीवो स्वप्न जुए, पण संवृत जीव सत्य स्वप्न जुए, असंवृत जीव जे स्वप्न जुए ते सत्य पण होय | असत्य पण होय; तथा असंवृतनी पेठे संवृतासंवत जीव पण स्वम जुए.[३०] हे भगवन् ! जीवो संवत छे, असंवृत के के संवृतासंवृत छ? [उ०] हे गौतम! जीवो संवृत, असंवृत अने संवृतासंवृत ए ऋणे प्रकारना के.जेम सुप्त जीवोनु वर्णन करेल तेम अहीं पण
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समज.प्र.] हे भगवन् ! स्वप्न केटला प्रकारना कह्यां छे ? [उ.] हे गौतम ! स्वप्नो बेतालीश प्रकारना कहां से. [40] हे भग-17! व्याख्या
१६ सके वन् ! महास्वप्न केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! महास्वप्न त्रीश प्रकारना कहां छे. [40] हे भगवन् ! बधा मळीने 13 प्राप्तिः ।
उद्देशा का केटलां स्वप्नो कहां छ [३०] हे गौतम ! बधा मळीने बहोतेर स्वप्नो कहां छे. [म०] हे भगवन् ! ज्यारे तीर्थकरनो जीव गर्भमां ॥१३९५॥ ॥१३९५॥
होय त्यारे तीर्थकरनी माताओ केटला महास्वप्न जोईने जागे? [उ०] हे गौतम ! ज्यारे तीर्थकरनो जीव गर्भमा अवतरे त्यारे तीर्थकरनी माताओ त्रीस महास्वप्नोमांथी चौद महास्वप्नो जोईन जागे छे. ते आ प्रमाणे १ हाथी, २ बलद, ३सिंह, यावत् १४ अग्नि. म.] हे भगवन् ! ज्यारे चक्रवर्तीनो जीव गर्भमा अवतरे त्यारे चकवींनी माताओ केटला महास्वप्न जोईने जागे[उ०] हे गौतम ज्यारे चक्रवर्तीनो जीव गर्भमा अवतरे त्यारे चक्रवर्तीनी माताओ ए त्रीस महास्वप्नोमांथी चौद महास्वप्नो तीर्थकरनी माताओनी पेठेज जुए छे अने पछी जागे , ते चौद स्वप्न पूर्व प्रमाणे जाणवा, यावत्-अमि. [प्र०] एज प्रमाणे वासुदेवनी मातानी स्वप्नसंबन्धे पृच्छा। [30] हे गौतम! ज्यारे वासुदेवनो जीव गर्ममा अवतरे त्यारे वासुदेवनी माताओ ए चौद महास्वप्नोमांथी कोई पण सात महास्वप्नो जोईने जागे छे. [प्र.] ए प्रमाणे बलदेवनी माताओ संबन्धे स्वप्ननो प्रश्न. [उ०] हे गौतम बलदेवनी माताओ ए चौद महास्वप्नोमाथी कोई पण चार महास्वप्नो जोईने जागे छे. [प्र.] मांडलिक राजानी माताना स्वप्ननी एज प्रमाणे पृच्छा करवी. [उ०] हे गौतम! मांडलिक राजाओनी माताओए चौद स्वप्नोमांथी कोई पण एक महास्वप्नने जोईने नागे ॥५७९॥
समणे भ० महावीरे छउमस्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दम महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे,तं..एगच णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ताण पडिबुद्धे १ एगं च ण महं सुकिल्लपक्वगं
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| उमेश *॥१३९॥
www.kobatirth.org | पुंसकोइरू सुविणे पासि०२एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलग सुविमे पासित्ताणं पडिबुद्धे ३ एग व्याख्या
४च णं महं दामदुर्ग सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता०४ एग च णं महंसेयगोबग्गं सुविणे पा०५ एग चणं महं प्रज्ञप्ति ॥१३९६॥
पउमसरं सचओ समंता कुसुमिय. सुविणे. ६ एगं च णं मह सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलिय भुयाहिं तिनं सुविणे पासित्ता०७ एगं च णं महं विणयरं तेयसा जलंतं सुधिणे पासि०८ एगं च णं महं हरिवेकलियवन्नामेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पब्वयं सब्बओसमंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ताण पडिबुद्धे ९ एगं च णं
महं मंदरे पच्चए मंदरचूलियाए उरिं सीहासणवरगय अपाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे १० । | ज्यारे श्रमण भगवंत महावीर छास्थपणामा हता त्यारे तेओ एक रात्रिना छेल्ला प्रहरमा आ दश महास्वप्नो जोईने जाग्या. | ते आ प्रमाणे-(१) 'एक मोटा भयंकर अने तेजस्वी रूपवाळा ताड जेवा पिशाचने पराजित कयों' एवं स्वप्न जोईने तेओ जाग्या. (२) एक मोटा धोळी पाखवाळा पुस्कोकिलने (नरजातिना कोयलने) तेओए स्वप्नमा जोयो अने जोईने जाग्या. (३) एक मोटा चित्रविचित्र पांखवाळा पुस्कोकिलने स्वममा जोई तेओ जाग्या. (४) एक महान् सर्वरत्नमय मालायुगलने स्वममा जोईने जाग्या. (५) एक मोटा अने धोला मायना धणने स्वममा जोई तेओ जाग्या. (६) चारे बाजुथी कुसुमित थएला एक गोटा पद्मसरोवरने | स्वममा जोईने जाग्या. (७) 'हजारो तरंग अने कल्लोलथी व्याप्त एक महासागरने पोते हाथवडे तयों एवं स्वम जोई तेओ जाग्या. (८) तेजथी जळहळता एक मोटा सूर्यने स्वममां जोईने जाग्या. (९) एक मोटा मानुषोचर पर्वतने लीला वैडूर्यना वर्ण जेवा पोताना आंतरडाबडे सर्व बाजुएथी आवेष्टित अने परिवेष्टित थयेला स्वप्नमा जोईने जाग्या. (१०) अने एक महान् मंदर (मेरु) पर्वतनी
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CHAPRA
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व्याख्या
SONG
मंदर चूलिका उपर सिंहासनमा बेठेल पोताना आत्माने जोई तेओ जाग्या.
१५शतके जपणं समणं भगवं म० एगं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पा. जाव पडिबुद्ध तणं समणेणं
उद्देश६ भगवया महा. मोहणिले कम्मे मूलाओ उग्यापिए १ जन्नं समणे भ० म०पगं महं सुकिल्लजाय पडिबुद्धे तण्णं | ॥१३९॥
॥१३९७॥ समणे म.म. सुकन्झाणोवगए विहरति २ जण समणे भ०म० एग महं चित्तविचित्तजाव पडिबुद्धे तणं समणे भ० म० विचित्त ससमयपरसमइयं दुवालसंग गणिपिडगं आघवेति पनवेति परवेति दंसेति निदंसेति उवदसति, तंजहा-आयारं सूयगडं जाव दिहिवायं ३, जपणं समणे भ० म० एमं महं दामदुगं सम्वरपणामयं सुविणे पासित्ताण पडिबुद्धे तण्णं समणे भ०म० दुविहं धम्म पन्नवेति, तं०-आगारधम्म वा अणागारधम्म वा ४, जपणं समणे भ० म० एगं महं सेयगोवरगं जाव पडिवुद्धे तपणे समणस्स भ० म० चाउव्वण्णाइन्ने समणसंघे, तं०समणा समणीओ साविया सावियाओ५, जपणं समणे भ० म० एग महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तणं समणे जाव वीरे चउठिबहे देवे पनवेनि, तं०-भवावासी वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए ६, जन्नं समणे भग०म०
एग महं सागरं जाव पडिबुद्धे तन्नं समणेणं भगवया महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे जाव संसारकतारे तिन्ने २७, जन्न समणे भगवं म० एग महंदिणयरं जाव पडिबुद्धे तन्न समणस्स भ०म० अगते अणुत्तरे नि०नि० क. दापडि केवल दस०] (जाव) समुप्पन्ने ८, जपणं समणे जाव वीरे एग महं हरिवेरुलिय जाय पडिबु० तण्ण सम-16
स्सि भ० म० ओराला कित्तिवनसासिलोया सदेवमणुयामुरे लोए परिभमंति-इति खलु समणे भगवं महा
MUSIC
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वीरे इति०९, जन्नं समणे भगवं महावीरे मंदरे पच्चए मंदरचूलियाए जाव पडिबुद्धे तणं समणे भगवं महावीरे व्याख्या
१६वके प्रज्ञप्तिः 18 सदेवमणुासुराए परिसाए मझगए केवली धम्मं आघवेति जाव उवदंसेति ॥ (सूत्रं ५८०)॥
उमेशा Rell (१) श्रमण भगवंत महावीर (प्रथम स्वममा ) जे भयंकर अने तेजस्वी रूपवाळा तथा ताडना जेवा एक पिशाचने पराजित
करेलो जोईने जाग्या तेथी (तेना फळरूपे) श्रमण भगवंत महावीरे मोहनीय कर्मने मूलथी नष्ट कयु. (२) श्रमण भगवंत महावीरे (बीजा स्वप्नमा) जे एक मोटो धोळी पांखवाळो यावत-पुस्कोकिल जोयो अने जाग्या तेथी तेना फळरूपे श्रमण भगवंत महावीर शुक्ल ध्यान प्राप्त करी विहर्या. (३) श्रमण भगवंत महावीर (वीजा स्वप्नमा) जे एक मोटो चित्र विचित्र पांखवाळो यावत्-पुस्को. किल जोईने जाग्या नेवी श्रमणभगवंत महावीरे विचित्र स्वसमय अने परसमयना (विविध विचारयुक्त) द्वादशांग गणिपिटक कबु. का प्रज्ञाप्यु, दर्शाब्यु. निदव्युं अने उपदर्शव्यू. ते द्वादशांगना नाम आ प्रमाणे छे-(१) आचार (२) सूत्रकृत, यावत्-(१२) दृष्टिवाद.४
(४) श्रमण भगवंत महावीरे (चोथा स्वप्नमां) जे एक महान् सर्वरत्नमय मालायुगल जोडे अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे वे प्रकारनो धर्म कहो, ते आप्रमाणे-सागार धर्म अने अनगार धर्म. (५) श्रमण भगवंत महावीर (पांचमा स्वप्नमा) जे एक धोळी गायोनुं महान् धण जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरनो चार प्रकारको संघ थयो, ते आ प्रमाणे-१ साधु, २ साध्वी. ३ श्रावक अने ४ श्राविका. (६) श्रमण भगवंत महावीरे (छट्ठा स्वप्नमा) जे एक मोटुं यावत्-पम सरोवर जोईने जाग्या तेथी श्रमण | भगवंत महावीरे भवनवासी, वानव्यं तर, ज्योतिषिक, अने वैमानिक एवा चार प्रकारना देवोने प्रतिबोध कर्यो. (७) श्रमण भगवंत महावीरे (सातमा स्वप्नमा) जे एक मोटा यावद महासागरने पोते हाथ वडे तरेलो जोयो अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे181
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| अनादि अने अनन्त यावत्-संसाररूप कांतारने पार कयों. (८) श्रमण भगवंत महावीरे (आठमा स्वप्नमां) जे तेजथी जळहळतो एक
१६ शतके व्यायामोटो सूर्य जोयो अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरने अनंत, अनुत्तर, निरावरण, निावात, समग्र अने प्रतिपूर्ण एवं केवळ Pा उद्देशा ॥१३९९॥
ज्ञान अने केवळ दर्शन उत्पन्न थयु. (९) श्रमण भगवंत महावीरे (नवमा स्वप्नमा) एक मोटा मानुषोत्तर पर्वतने नील वैडूर्यना वर्ण ॥१३९९॥ पूजेचा, पोताना आंतरडाथी चारे बाजुए आवेष्टित अने परिवेष्टित करेलो जोयो अने जोइने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरनी
देवलोक, मनुष्य लोक अने असुरलोकमां-"आ श्रमण भगवंत महावीर " एवी उदार कीर्ति, स्तुति, सन्मान अने यश व्याप्त थया. (१०) श्रमण भगवंत महावीरे (दशमा स्वममा) पोताना आत्माने मंदरपर्वतनी चूलिका परना सिंहासनमा बेठेलो जोयो अने जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे केवळी थई देव, मनुष्य अने असुर युक्त परिषदमां बेसी धर्म कह्यो, यावत्-उपदशाब्यो. ५८०
इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हयपति वा गयपति वा जाब वसमपंतिं वा पासमाणे पासति दुरूहमाणे दुरूहति दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तवणामेव बुज्झति तेणेव भवग्गहणेणं सिझति जान अंतं करेति। ६ इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं दामिणिं पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे पुढे पासमाणे पासति संवेल्लेमाणे |
संवेल्लेह संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति तेणेव भवग्गहणेण जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा एगं महं रज्जु पाईणपडिणायतं दुहओ लोगते पुढे पासमाणे पासति छिदमाणे छिदति छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं किण्हसुत्तगंवा जाव सुकिल्लसत्तगंवा पासमाणे पासति उग्गोवेमाणे उग्गोवेह उग्गोवितमिति अप्पाणं मनति तक्खणामेव जाव
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www.kobatirth.org अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुषिणंते एग महं अयरासिंवा तंबरासिंवा तउयरासिंवा सीसगरासि वा व्याख्याप्रज्ञप्ति पासमाणे पासति दुरूहमाणे दुरूहति दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तक्रवणामेव वुज्झति दोघेणं भवग्गहणे णं
उमेशा ॥१४००॥ सिज्झति जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते पगं महं हिरन्नरासि वा सुकन्नरासिं वा रयणरामि
*18001 वा वहररासि वा पासमाणे पासइ दुरूहमाणे दुरूहह दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तक्रवणामेव बुज्झति तेणेष 5 भवग्गहणेणं सिजाति जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं तणरासिं चा जहा तेयनिसग्गे जाव अवकररासि वा पासमाणे पासति विक्खिरमाणे विक्खिरह विकिण्णमिति अप्पाणं मन्नति तखणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति ।
कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटी अश्वपंक्ति, गजपंक्ति, यावत्-वृषम (बलद) पंक्तिने जुए अने तेना उपर चढे तथा |ते उपर पोते चढयो के एम पोताने माने, अने ए प्रमाणे जोई जो तुस्त जाग जागे तो ते तेज मधमां सिद्ध थाय, यावन-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वमने अन्ते समुद्र ने बने पडखे अडकेलु तथा पूर्व अने पश्चिम तरफ लावु एक मोटुंदामण जुए, अने तेने बीटाळे अने ते पोते वींटाळयु छ एम पोताने माने तथा ने प्रकारे जोई शीघ्र जागे तो तेज भवमा सिद्ध थाय, यावत
सर्व दुःखोनो नाश करे. कोइ स्त्री अथवा पुरुष ( स्वप्नने अन्ते ) बन्ने बाजुए लोकान्तने स्पशेलु तथा पूर्व अने पश्चिम लांबु एक MIमोटुं दोरडं जुए, अने तेने कापी नाखे अने ते पोते कापी नास्यु छ एम पोताने माने तथा ते प्रकारे जोद शीघ्र जागे तो ते यावत
सर्व दुःखोनो नाश करे. कोइ स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटुं काळु सूतर, यावत-धोढुं सूतर जुए तथा तेने उकेले अने ||
SAMREKOCHERS
उस्लम
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तेने पोते उकेल्यु छ एम पोताने माने अने एम जोई पछी ते तुरत जागे तो ते यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री अथवा व्याख्या | पुरुष स्वमने अन्ते एक मोटा लोढाना ढगलाने, तांबाना ढगलाने, कथीरना ढगलाने अने सीसाना ढगलाने जुए अने ते उपर चढे
१६ शतके प्रज्ञप्तिः
उदेश 51 अने पोते ते उपर चढयो छे एम पोताने माने तथा एम जोई शीघ्र जागे तो ते यावत-चे भवमा सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो ॥१४०१॥
१४.१॥ | नाश करें. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वमन वेडे एक मोटा हिरण्य-रूपाना ढगलाने, मृवर्णना ढगलाने, रत्नना ढगलाने अने वज्रना | दमलाने जुए अने ते उपर चढे अने पोते ते उपर चढयो एम पोताने माने तथा तुरत जागे तो ते तेज भवमां सिद्ध थाय, यावत्सर्व दुःखनो नाश करे. कोई स्त्री के पुरुष खप्नने अन्ते एक मोटा घासना ढगलाने, तेजोनिसर्ग नामना पंदरमा प्रतकमा कडा प्रमाणे यावत्-कचराना ढगलाने जुए अने तेने विखेरे अने पोते विखेयों के एम पोताने माने अने जो तुरत जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे.
इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते पगं महं सरथंभं वा वीरणिथंभं वा वंसीमूलथंभं वा वल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पासह उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ उम्मूलितमिति अप्पाणं मन्नइ तवणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंनं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते पगं महं ग्वीरकुंभं वा दधिकुंभ का धयकुंभं वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासति उ. पाडेमाणे उप्पाडेइ उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नतितक्खणामव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसे चा सुविणं ते एग महं सुरावियडकुंभ वा सोवीरवियडकुंभ वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे पासति भि-15 दमाणे भिदति भित्रमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव वुमति दोघेणं भव. जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे
RECEBCREGARDSCRIBE
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वा सुविणंने एगं महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति ओगाहमाणे ओगाहति ओगादमिति अप्पाणं मन्नव्याख्या
१६ इतके ६ ति तक्खभामेव० सेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा जाव सुविणंते एगं महं सागरं उम्मीवीयीजाव कलियं प्रज्ञप्तिः
| उमेशा १४.०॥
पासमागे पासति तरमाणे तरति तिन्नमिति अपाणं मन्मति तक्खणामेव बु. तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी|PR४.२॥ वा जाव सुविणते एगं महं भवणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासति [दुरूहमाणे दुरूहति दुरूढमिति०] अणु-13 पविसमाणे अणुप्पविमति अणुप्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव वुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा मुविणंते एगं महं विमाणं सव्वरयणामयं पासमाणे पामइ दुरूहमाणे दुरूहति दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तावणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति ॥ (सूत्रं ५८१)॥
कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटा शरस्तंभने, वीरणस्तंभने, वंशीमूलस्तंभने वा बल्लिमूलस्तंभने जुए अने तेने उखेडे | अने पोते तेने उखेडयो के एम पोताने माने अने पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री या पुरुष खप्नने छेडे एक मोटा श्रीरकुंभने, दधिकुंभने, घृतकुंभने अने मधुकुंभने जुए अने तेने उपाडे तथा पोते तेने उपाइयो छ एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत् सर्व दुःखनो नाश करे, कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटा सुराना विकट (मोटा) कुंभने, सौवीरना मोटा कुंभने तैलकुंभने, के वसाकुंभने जुए, तेने भेदे अने पोते तेने भेदी नांख्यो छे एम पोताने माने, पछी तुरत जागे तो चे भवमा यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे, कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते कुसुमित एना एक मोटा पद्म सरोवरने जुए, तमा प्रवेश करे अने पोते तेमा प्रवेश कयों छे एम पोताने माने, पछी तुरत जाने तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नात्र
मछम
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१६ शतके
व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१४०३॥
॥१४.३॥
RECE-CROCOCCARE
करे, कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते तरंगो अने कल्लोलोथी व्याप्त एक मोटा सागरने जुए अने तरे, तथा पोते तेने तरी गयो के एम पोताने मान, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री के पुरुष खप्नने अन्ते सर्व रत्नमय बनेलं एक मोटुं भवन जुए अने तेमा प्रवेशे, पोते तेमा प्रवेश कयों के एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते सर्व रत्नमय एक मोटुं विमान जुए, तेना उपर चढे अने पोते ते उपर चढयो के एम पोताने माने. त्यारपछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. ॥ ५८१ ॥
अह भंते ! कोहपुडाण वा जाव केयतीपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिज्जमाणाण वा जाव ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोहे वाति जाव केयई वाइ, गोयमा! नो कोटे वाति जाव नो केयई वाती घाणसहगया पोग्गला वाति । सेवं भंते २ त्ति ( सूत्रं ५८२ ) ॥ १६-६॥
[प्र.] हे भगवन् ! कोष्ठपुटो, यावत्-केतकीपुटो यावत्-एक स्थानथी स्थानान्तरे लई जवाता होय त्यारे पवनानुसारे जे (मनो गंध) वाय छे तो ते कोष्ठ वाय छे के यावत्-केतकी वाय छे ? [उ०] हे गौतम! कोष्ठपुटो के केतकी पुटो वाता नथी, पण मंधना जे पुद्गलो छे ते वाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज के, हे भगवन् ! ते एमज थे.' ॥ ५८२॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १६ मा शतकमा छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
छHASIRKAकरन
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व्याख्याप्रज्ञातिः ॥१४०४॥
शतक १६. (उद्देशक ७.)
६सके
उदेश कतिबिहे णं भंते ! उचओगे पन्नत्ते ?, गोयमा दुविहे उवओगे पमत्त एवं जहा उपयोगपदं पनवणाए तहेव Fre.m निरवसेस भाणियब, पासणयापदं च निरवसेस नेयव्वं । सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ५८३) ॥१६-७॥
[प] हे भगवन् ! केटला प्रकारनो उपयोग कहो छ ! [उ०] हे गौतम ! उपयोग बे प्रकारनो कमो के. जेम प्रज्ञापना सूत्रमांना उपयोग पदामां कहेवामां आम्युं छे तेम अहीं वधू कहे. तेमज अहीं श्रीसमें 'पश्यत्तापद' पण समन कहे. 'हे भगवन् ! ते | एमज, हे भगवन् ! ते एमज ॥ ५८३ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १६ मा शतकमा सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. (उद्देशक ८.) किंमहालपण भंते ! लोए पन्नत्ते ?, गोयमा! महतिमहालए जहा बारसमसए तहेव जाव असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं, लोयम्स णं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा अ. जीवा अजीवदेसा अजीव पएमा!, गोयमा! नो जीवा जीवदेसावि जीवपएसावि अजीवावि अजीबदेसावि अजीचपएसावि । जे जीवदेमा ते नियम एगिदियदेसा अहना एगिदियदेमा य बेइंदियस्म य देसे गवं जहा
कम
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व्याख्या-
प्राप्तिः
॥१४०५॥
RAICROCRACHOD
दसमसए अग्गेधीदिसा तहेव नवरं देसेसु अणिदियाणं आइल्लविरहिओ। जे अरूपी अजीवा ते छब्धिहा, अ
५१६ शतके |द्धासमयो नत्थि, सेसं सं चेव सव्वं निरवसेसं। लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले परिमंते किं जीवा० ?, एवं चेव, 17
उद्देश: एवं पञ्चच्छिमिल्लेवि, उत्तरिल्लेवि, लोगस्सणं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा? पुच्छा, गोपमा! मो जीवा
॥१४०५॥ जीवदेसावि जाव अजीवपएसावि । जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेमा य अणिदियदेसा प अहवा एगिदियदेसा य अणिदिय० दियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेमा य अणिदियदेमा य बेंदियाण य देसा, एवं मनिझ. ल्लविरहिओ जाव पंचिंदि०, जे जीवप्पएसा ते नियम एगिदियप्पएसा य अणिदियप्पएसा य अहवा एगिदियप्पएसा य अजिंदियप्पएमा प दियस्सप्पदेसा य अहवा एगिदियपएसा य अणिदिनप्पएसा य बेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिओ जाच पंचिंदियाणं, अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं ॥
[प्र०] हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो को छे ? [उ.] हे गौतम! लोक अत्यन्त मोटो कह्यो छे. जेम बारमा शतकमां कह्यु छ तेम अहीं पण लोक संबंधी बधी हकीकत कहेवी, यावत्-ते लोकनो परीक्षेप-परिधि असंख्येय कोटाकोटी योजन . [प्र०] हे भगवन् ! लोकना पूर्व चरमांतमा ( पूर्व बाजुना छेडाना अंते ) १ जीवो छ, २ जीवदेशो छे, ३ जीवप्रदेशो छ, ४ अजीवो छ, ५ | अजीवदेशो छ, ६ के अजीवप्रदेशो के ? [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी, पण जीवदेशो छ, जीवप्रदेशो छ, अजीवो छ, अजी-15 वदेशो छे अने अजीवप्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो के ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना देशो छ, अथवा एकेंद्रियना देशो अने अनिन्द्रियनो (एक) देश -इत्यादि वधू दशमा शतकमां कहेल आग्रेयी दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे कहे. विशेष ए के, देशोना विष.
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Pायमा अनिद्रियो माटे प्रथम भांगो न कहेवो. त्यां जे अरूपी अजीवो रहेला छे ते छ प्रकारना छ अने अद्धासमय ( काळ) नथी. व्याख्याप्रशतिः
४ बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना दक्षिण दिशाना चरमांतमा (दक्षिण बाजुना छेडाने अंते) जीवो छइत्यादि सर्व पूर्व प्रमाणे पूछबु [उ०] पूर्व प्रमाणेज वधु कहे, अने ए प्रमाणे पश्चिम चरमांतमा तथा उत्तर चरमतिमा पण सम
उमेश ॥१४०६॥
C२४०६ | जg. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना उपरना चरमांतमा जीवो छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नधी, पण जीवदेशो
छे, जीवप्रदेशो छे, यावत्-अजीवप्रदेशो पण छे.जे जीवदेशो छ ते अवश्य एकेंद्रियोना देशोअने अनिद्रियोना देशो छे. १ अथवा हा एकेंद्रियोना देशो, अनिद्रियोना देशो अने बेइंद्रियनो एक देश छे. २ अथवा एकेंद्रियोना देशो अनिद्रियोना देशो अने बेइंद्रियोना | देशो छे, एम वचला भांगा सिवायना त्रिकसंयोगी वीजा बधा भांगा कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-पंचेंद्रियो सुधी कहे. त्यां जे जीवप्रदेशो छ ते अवश्य एकेंद्रियोना प्रदेशो अने अनिद्रियोना प्रदेशो छे. १ अथवा एकेंद्रियोना प्रदेशो, अनिद्रियोना प्रदेशो अने एक बेइंद्रियना प्रदेशो छ. २ अथवा एकेंद्रियोना प्रदेशो, अनिद्रियोना प्रदेशो अने बेइंद्रियोना प्रदेशो छे. ए प्रमाणे प्रथम मांगा सिवायना बीना बधा भांगा कहेवा. तथा ए प्रमाणे यावत्-पंचेंद्रिय सुधी जाणवु. अने दशमा शतकमां कहेल तमा दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे अहीं अजीबोनी वक्तव्यता कहेवी.
लोगस्स णं भंते ! हेडिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा ?, गोयमा! नो जीवा जीवदेसावि जाव अजीवप्पए-है सावि, जे जीयदेसा ते नियम एगिदियदेसा अहवा एगिदियदेमा य बेइंदिरास्स देसे अहवा एगिदियदेसा य दियाण य देमा एवं मज्झिल्लविरहिओजार अणिदियाण पदेमा आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरि
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मंते तहेव, अजीया जहेव उवरिल्ल चरिमंते तहेव ॥ इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते ! व्याख्या किं जीवा ? पुच्छा, गोयमा! नो जीवा एवं जहेब लोगस्स तहेव चत्तारिवि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले, उवरिल्ले:
1४१६ शतके प्रज्ञप्ति
है| उद्देशः८ ॥१४०७०
| जहा दम मसए विमला दिसा तहेव निरवसेसं, हेडिल्ले चरिमंते तहेव नवरं देसे पंचिंदिसु तियभंगोत्ति सेसं तं चेव, एवं जहा स्यणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सकरप्पभागवि उवरिमहेडिल्ला जहा रयणप्पभाए हेडिल्ले। एवं जाव अहे सत्तमाए, एवं सोहम्मस्सवि जाच अच्चुयस्स गेविजविमाणाणं एवं चेव, नवरं उवरिमहेडिल्लेसु चरमंतेसु देसेसु पंचिंदियाणवि मज्झिल्लविरहिओ चेव एवं जहा गेवेजविमाणा तहा अणुत्तरविमाणावि ईसिपम्भारावि (मत्रं ५८४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! लोकना हेठलना चरमांतमा शुं जीवो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी, जीवदेशो छे. जीवप्रदेशो छ, यावत्-[ अजीवो, अजीवना देशो अने] अजीवना प्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो छे ते अवश्य एकेंद्रियना देशो छ १ अथवा एकेंद्रियोना देशो अने बेइंद्रियनो देश छे. २ अथवा एकेंद्रियोना देशो अने बेइंद्रियोना देशो छे. ए प्रमाणे वचला भांगा शिवाय वीजा बधा भांमा कहेवा, अने ते यावत्-अनिद्रियो मुधी जाणवू. सर्वना प्रदेशोनी बाबतमा पूर्व चरमांतना प्रश्नोत्तर प्रमाणे जाणवं, पण तेमा प्रथम भांगो न कहेवो. अजीवोनी बाबतमा उपरना चरमांतमां कह्या प्रमाणे बंधु कहे. [प्र०] हे भगवन् ! आ
रजप्रमा पृथ्वीना पूर्व चरमांतमा जीवो छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी. जेम लोकना चार चरमांत कया| है| तेम रत्नप्रभाना पण चारे चरमांत यावत्-उत्तरना चरमांत सुधी जाणवा. दशमा शतकमां कहेल विमला दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे *
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www.kobatirth.org आ रत्नप्रभाना उपरना चस्माननी पण वतन्यता जाणवी. तथा रत्नप्रभा पृथ्वीनो नीचलो चरमांत पण लोकनी नीचेना चरमांतनी व्याख्या
पेठे जाणवो. परन्तु विशेष ए के जीवदेशोना संबंधे पंचेंद्रियोमा त्रण भांगा कहेवा. बाकीर्नु बधु तेज प्रमाणे कहेवु. रत्नप्रभा पृथ्वीना प्रज्ञप्ति
उशा८ ॥१४०८॥ चार चरमांतनी पेठे शर्करानभा पृथिवीना पण चार चरमांत कहेवा. अने रत्नप्रभा पृथिवीना नीचेना चरमांतनी पेठे शर्कराप्रभानो
१४०८॥ उपलो तथा नीचेलो चरमांत समनवो. ए प्रमाणे यावत्-सातमी पृथिवी सुधी जाणवु तथा सौधर्म दिवलोक] यावत्-अच्युत (देवलोक] संबंधे पण एज प्रमाणे समजवु. 7वेयक विमानो संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवू पण तेमा विशेष ए छे के उपला अने हेठला चरमांत विपे देशो संबंधे पंचेंद्रियोमा पन वचलो भांगो न कहेवो. बाकीनु बधुपूर्व प्रमाणे ज कहेचु तथा ग्रेवेयक विमा ननी पेठे अनुत्तर विमाननी अने ईपरप्राग्मारा पृथिवीनी पण वक्तव्यता कडेवी. ।। ५८४ ॥
परमाणुपोग्गले णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? पञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं | जाव गच्छति। उत्सरिल्लाओ दाहिणिल्लं जाव गच्छति ? उवरिल्लाओ चरमंताओ हेडिल्लं चरिमंतं एग जाय गच्छति ? हेडिल्लाओ चरिमंताओ उवरिलं चरिमंतं एगममएणं गच्छति ?, हंता गोयमा! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरच्छिमिलंत चेव जाव उवरिलं चरिमंतं गच्छति ॥ (सूत्रं ५८५)॥
[प्र.] हे भगवन् ! परमाणुपुदगल एक समयमा लोकना पूर्व चरमांतथी-डाथी पश्चिम चरमांतमा, पश्चिम चरमांतथी पूर्व IPघरमांतमा दक्षिण चरमांसथी उत्तर चरमांतमा, उत्तर चरमांतथी दक्षिण चरमांतमा उपरना चरमतिथी नीचेना चरमांतमां, अने|31
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नीचेना चरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय ? [उ.] हे गौतम! हा, परमाणु पुद्गल एक समये लोकना पूर्व चरमान्तथी पश्चिम व्याख्या चरमांवमा, यावन-नीचेना घरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय. ॥ ५८५ ।।
१६ शतके प्रज्ञप्ति
पुरिसे गंभंते ! वासं वामति ? नो वासं वामतीति ? इत्थं वा पायं वा पाहुं वा ऊ वा आउढावेमाणे वा प-18| उद्देशा८ ॥१४०९॥
१४.९॥ सारेमाणे वा कतिकिरिए ?, गोयना ! जावं च ण से पुरिसे बासं वासति वासं नो वासतीति हत्थं वा जाच ऊर वा आउट्टावेति वा पसारेति या तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे (सूत्रं ५८६)॥
प्र०] हे भगवन । 'वरसाद बरसे के नथी बरसतो'ए [जाणवाने ] माटे कोई पुरुष पोतानो हाथ, पग, बाहु, के उरु संकोचे के पसारे बो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! 'बरसाद बरसे के के नथी वरसतो'ए जाणवाने माटे जे
पुरुष पोतानो हाथ, यावत्-उरु संकोचे के पसारे ते पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे. ॥ ५८६ ॥ का देवे णं भंते। महडिए जाच महेमक्खे लोगते ठिच्चा पभू अलोगसि हत्थं वा आच ऊरं वा आउंटावेत्ता या
पसारेत्तए वा!, जो निणढे समझे, से केणटेणं भंते ! एवं बुचड़ देवे ण महड्डीए जाव लोगते ठिच्चा णो पभू अलो. है। गंसि हत्थं वा जाव पमारेत्तए चा?, गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला बौदिचिया पोग्गला कलेवरचिया
पोग्गला पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिजड, अलोए ण नेवस्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला से तेणटुणं जाच पसारेत्तए वा ।। सेवं भंते ! २त्ति ॥ (सूत्रं ५८७ ) ॥ १६-८॥
[प्र.] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवालो यावत्-मोटा सुखवालो देव लोकांतमा रहीने अलोकमां पोताना हाथने, यावत्-उरुने |
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४१० ।।
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संकोचवा के पसारा समर्थ के ? [अ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे या हेतुथी कहो छो के ' मोटी ऋद्धिवाळो देव लोकान्मां रहीने अलोकमां पोताना हाथने, यावत् - उरुने पसारखा समर्थ नथी' [उ०] हे गौतम 1 जीवोने (अनुगत एवा) आहारोपचित, शरीरोपचित अने कलेबरोपचित पुद्गलो होय छे, तथा पुद्गलोने आश्रयीनेज जीवोनो अने अजीवोनो (पुद्गलोनो) गतिपर्याय कहेवाय के. अलोकमां तो जीवो नथी, तेम पुद्गलो पण नथी माटे ते हेतुथी पूर्वोक्त देव यावत्पसारखा समर्थ नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ' ॥ ५८७ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १६ मा शतक्रम आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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शतक १६. (उद्देशक ९.)
कहिनं भंते! बलिस्म बहरोपणिदस्स बहरोयणरन्नो सभा सुहम्मा पन्नता ? गोयमा ! जंबुहीवे दीवे मंदररस पव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेजे जहेव चमरस्स जाव बापालीसं जोषण सहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं बलि|स्स वइरोयदिस्स वह० २ रुपगिंदे नामं उपायपत्र पन्नत्ते सत्तरस एकवीसे जोयणसए एवं पमाणं जहेब तिगिच्छकूडस्स पासायवाडेंसगस्सवि तं चैव पमाणं सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परियारेणं अट्ठो तहेव नवरं fiभाई ३ सेसं तं चैव जाव बलिचंचाए रायहाणीए अन्नेसिं च जाव रुपगिंदस्स णं उत्पायपव्वयस्स
१६ के उमेशः९
॥ १४१०॥
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥ १४११ ॥
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उत्तरेणं छोडिसए तहेब जाब चत्तालीसं जोघणसहस्साई ओगाहिता एस्थ णं बलिस्स बहरोपणिस्स वइरोयणरन्नो बलिचचा नाम रामहाणी पन्नता एवं जोपणलय सहस्सं पमाणं तहेब जाव बलिपेढस्स उववाओ जाव आपरक्खा सच्वं तहेव निरवसेमं नवरं सातिरेगं सागरोवमं ठितीं पन्नत्ता सेसं तं चेत्र जाव वली वइरोयणिदे बली २ || सेवं भंते । २ जाव विहरति ॥ (सूत्रं ५८८ ) ।। १६-९ ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र अने वैरोचन राजा एवा बलिनी सुधर्मा ममा क्या कहेली (आवेली छे ? [३०] हे गौतम! जंबूद्वीप नामे द्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तरे तिरछु असंखेय (द्वीप-समुद्रो ओळंगीने) --इत्यादि जेम चमरनी हकीकतमां कं छे तेम अरुणवर दीपनी बाह्यवेदिकाथी अरुणवर समुद्रमां बैंतालीस हजार योजन अवगाह्या पछी चैरोचनेन्द्र अने वैरोचनराजा एवा बलिनो रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत को ले. ते उत्पात पर्वत १७२१ योजन उंचो छे. बाकीनुं बधुं तेनुं प्रमाण तिगिच्छिकूट पर्वतनी पेठे जाणत्रं तेना प्रासादावतंसकतुं पण प्रमाण तेज प्रमाणे जाणधुं तथा बलिना परिवार साधे सपरिवार सिंहासन पण ते प्रमाणे कहेवु. रुचकेन्द्र नामनो अर्थ पण ते प्रमाणे कहेवो. विशेष ए के अहिं रुचकेन्द्र (रत्नविशेष) नी प्रभावाळां उत्पलादि जाणवां. बाकी धुं तेज प्रमाणे यावत्-ते बलिचंचा राजधानीतु तथा अन्योनुं (आधिपत्य करतो विहरे वे.) त्यांसुधी कहेवु. ते रुचकेन्द्र उत्पात पर्वतनी उत्तरे छ सो (पंचावन क्रोड, पांत्रीश लाख, पचास हजार योजन अरुणोदय समुद्रमां तिरछु जइने नीचे रत्नप्रभा पृथ्वीमां) इत्यादि पूर्ववत् यावत् चालीस हजार योजन गया पछी त्यां वैरोचनेन्द्र बैरोचनराजा एवा बलिनी 'बलिचंचा' नामनी राजधानी कही (आवेली) छे. ते राजधानीनो विष्कंभ- विस्तार एक लाख योजन के, बाकीनुं वधुं प्रमाण पूर्व प्रमाणे जाणवु, अने ते यावत्
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१६ शतके उद्देशः ९
॥ १४११ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४१२॥
बलिपीठ सुधी समजबूतथा उपपात, यावत्-आत्मरक्षको-ए बधुपूर्ववत् समजवू. विशेष ए के वैरोचनेन्द्र वैरोचन राजा एवा
बलिनी स्थिति सागरोपम करतां कइंक अधिक कही छे. अने बाकी बधु ते संबंधे पूर्व प्रमाणेज जाणवू. यावत्-'वैरोचनेन्द्र पलि छे, हा वैरोचनेन्द्र बलि छ' त्यां सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज , हे भगवन् ! ते एमन के.' ॥ ५८८ ॥
भगवत सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १६ मा शतकमा नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
१६ शतके | उदेशा१०
शतक १६. (उद्देशक १०.) कति विहे गं भंते ! ओही पन्नत्ते?, गोयमा! दुविहा ओही प०, ओहीपदं निरवसेसं भाणियव्वं ॥ सेवं भंते।। सेवं भंते! जाव विहरति ॥ (सूत्रं ५८९) ॥ १६-१०॥
[प्र०] हे भगवन ! अवधिज्ञान केटला प्रकारे कयु छ ? [उ०] हे गौतम ! अवधिज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे. अहिं 'प्रज्ञापना' ॐ सूत्रनुं तेत्रीसमु अवधिषद संपूर्ण कहे. हे भगवन् ! ते एमजबे, हे भमवन् ! ते एमज छे-एम कही यावद्-विहरे छे. ॥ ५८९ ॥
भगवत् सुधर्म स्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीउत्रना १६ मा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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शतक १६. (उद्देशक ११-१२-१३-१४.) व्याख्या
१६ शतके प्रज्ञप्ति
उमेश: दीवकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा सब्वे समुस्सासनिस्सासा?, णो तिणद्वे ममढे, एवं जहा पढमसएट्रा१४१३॥
वितिय उद्देसए दीवकुमाराणं वत्तब्बया तहेब जाव समाउया समुस्सासनिस्मासा । दीवकुमाराणं भंते ! कति १४१३॥
लेस्साओ पन्नत्ताओ!, गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा जाव तेउलेस्सा । एएसिणं | भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साण जाव तेउलेस्साण य कयरे २ हिंतो जाव विसेमाहिया वा?, गोयमा! सब्व. हाथोवा दीपकुमारा तेउलेस्सा काउलेस्सा असंखेजगुणा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया। एएसि
णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे २ हितो अप्पड्डिया वा महडिया वा?, गोयमा! ही कह लेस्साहितो नीललेस्सा महदिया जाच सव्वमहड्डिया तेउलेस्सा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति । ६ उदहिकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा० एवं चेब, सेवं०१६-१२॥ एवं दिसाकुमारावि ॥१६-१३ ॥ एवं धणियकुमाराऽवि, सेवं भंते सेवं भंते ! जाव विहरइ ॥१६-१४ ॥ सोलसमं सयं समत्तं (सूत्रं ५९०) ॥१६-१४ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! द्वीपकुमारो बधा समानआहारवाला छे, समानउच्छ्वास-निःश्वासचाळा ३१ [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ टू समर्थ नथी. अहिं जेम प्रथम शतकना द्वितीय उद्देशकमा दीपकुमारोनी वक्तव्यता कहेली छे ते बधी कहेवी, यावत्-समान आयुष्य
बाळा अने समान उच्छ्वास-निःश्वासवाळा (नथी) त्या सुधी जाणवू [प्र.] हे भगवन् ! दीपकुमारोने केटली लेश्याओ कही?
CATEGRICA
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क उमेश
7
१४१५॥
[उ०] हे गौतम ! तेओने चार लेश्याओ कही हे. ते आ प्रमाणे-१ कृष्णलेश्या, यावत्-४ तेजोलेश्या. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णव्याख्या-ट्रालेश्यावाळा यावत-तेजोलेक्याराका द्वीपकमारोमां कोण कोनाथी यावत-विशेषाधिक छ? [उ०] हे गौतम! सौथी थोडा द्वीप
प्रज्ञप्तिः ॥१४१४॥
कुमारो तेजोलेश्यावाला के, कापोतलेश्यावाळा असंखेयगुणा छे, तेथी नीललेश्यावाला विशेषाधिक छे, अने तेना करतां कृष्णलेश्याMI वाळा विशेषाधिक के. [40] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला, यावत तेजोलेश्यावाळा-ए द्वीपकुमारोमा कोण कोनाथी अल्पर्षिक छे 51 अने महर्षिक के ? [उ०] हे गौतम ! कृष्णलण्याचाळा करतां नीललेश्यापाळा द्वीपकुमारो महधिक है यावत्-तेजोलेश्यावाळा सौथी
महर्षिक छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छ हे भगवन् ! ते एमज है'-एम कही यावद विहरे छे.-(१६-११) [प्र०] हे भगवन् ! शु उदधिकुमारो बधा समान आहारवाला छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणेज बधुजाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-(१६-१२) ए प्रमाणे दिक्कुमारो दिपे तेरमो उद्देशक जाणवो अने ए प्रमाणे स्तनितकुमारो विषे चौदमो उद्देशक समजबो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे-एम कही यात्र-विहरे छे. ॥ ५९० ॥
भगवन् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १६ मा शतकमा ११-१२-१३-१४ उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
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इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे योदशं शतं समाप्तम् ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१४१५।।
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शतक १७. (उद्देशक १.)
नमो देवया भगवईए || कुंजर १ संजय २ सेलेसि ३ किरिय ४ ईसाण ५ पुढवि ६-७ दग ८-९ वाज १०-११ | एमिंदिप १२ नाग १३ सुवन्न १४ विज्जु १५ वायु १६ ग्ग १७ सत्तर से || ७७ ||
(उद्देशक संग्रह) १ कुंजर- कोणिकना प्रधान हस्ती संबन्धे प्रथम उद्देशक, २ संयतादि संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ शैलेशी प्राप्त अनगार संबन्धे बीजो उद्देशक, ४ क्रिया-कर्म संबन्धे चोथो उद्देशक, ५ ईशानेन्द्रनी सुधर्मासभा संबन्धे पांचमो उद्देशक, ६-७ पृथिवीकायिक संबन्धे छट्टो अने सातमो उद्देशक, ८-९ अकायिक संबन्धे आठमो अने नवमो उद्देशक, १०-११ वायुकायिक संबन्धे दशमो अने अगीयारमो उद्देशक, १२ एकेन्द्रिय जीव संबन्धे बारमो उद्देशक, १३-१७ नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार अने अधिकुमार संबन्धे अनुक्रमे तेरथी आरंभी सत्तर उद्देश को-ए प्रमाणे सत्तरमा शतकमां सत्तर उद्देशको कहेवामां आवशे.
रायगिहे जाब एवं बयासी उदायी णं भंते । हत्थराया कओहिंतो अनंतरं उब्वद्दित्ता उदाहित्थिरायत्ताए उबवशो?, गोमा ! असुरकुमारेहिंतो देवेहिंतो अनंतरं उब्वहित्ता उदापि हत्थिरायत्ताए उववन्ने, उदायी णं भंते! हस्थिराया कालमासे कालं किया कहिं गच्छहिति कहिं उचयज्जिहिति? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए उको ससागरोवमतियंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति, से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उच्चद्दित्ता कहिं ग० कहिं उ०१, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति । भूयाणंदे णं भंते! हत्थराया
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११७ शतके उद्देशः १ ॥१४१५॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥ १४१६ ।।
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कओहिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता भूगाणंदे हस्थिरायत्ताए एवं जहेब उदायी जाव अंतं काहिति ॥ (सूत्रं ५९९) ॥ [प्र० ] राजगृह नगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! उदायी नामे प्रधान हस्ती कई गतिमांथी मरण पामी तुरत अहीं उदायी नामे प्रधान हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे ? [उ०] हे गौतम! ते असुरकुमार देव थकी मरण पामी तुरत अहीं उदायी नामे प्रधान हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे. [प्र० ] हे भगवन् ! आ उदाथी नामे हस्ती मरणसमये मरी क्यां जशे, क्यां उत्पन्न थशे ? [30] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीने विषे एक सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थितिवाळा नरकावासमा नैरयिकपणे उत्पन्न थशे. [प्र०] हे भगवन् ! ते (उदायी हस्ती) त्यांथी मरण पामी तुरत क्यों जशे क्यों उत्पन्न थशे ? [अ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रम उत्पन्न थई सिद्ध थशे, सर्व दुःखोनो अन्त करशे. [प्र० ] हे भगवन् ! भूतानंद नामे प्रधान हस्ती कई गतिमांथी मरण पामी तुरत अहिं भूतानंद नामे हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे ? [उ० ] जेम उदायी नामे हस्तीनी वक्तव्यता कही तेम भूतानंदनी पण वक्तव्यता अहिं जाणवी. याच सर्व दुःखोनो अन्त करशे ।। ५९१ ।।
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पुरिसे णं भंते! तालमारुहइ ता० २ तालाओ तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ?, गोयमा जावं च णं से पुरिसे तालमारुहह तालमा० २ तालाओ तालफलं पयालेइ वा पवालेह वा तावं च णं से पुरिसे काइगाए जाब पंचहि किरियाहिं ! ट्ठे, जेसिंपिग णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए तलफले निव्वत्तिए | तेऽवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरिया हि पुट्ठा ॥ अहे णं भंते ! से तालप्फले अप्पणी गरुयत्ताए जाव पश्चोत्रयमाणे जाई तस्थ पाणाई जाव जीविद्याओ ववशेवेति तए णं भंते । से पुरिसे कति किरिए ?, गोधमा !
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१७ शतके
उद्देशः १ ॥१४१६॥
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व्याख्याप्रक्षप्तिः ॥ १४१७॥
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जायं च णं से पुरिसे तलप्फले अप्पणी गरुयत्ताए जाव जीविपाओ वधरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाब चउहि किरियाहिं पुट्ठे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जाब चउहिं किरियाहिं पुट्ठा, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तालफले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा जाव पंचहि किरिया हिं पुट्टा, जेबिन से जीवा अहे बीससाए पञ्चोत्रयमाणस्स उबग्गड़े बहंति तेऽविष णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरिगाहिं पुट्ठा ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! कोई पुरुष वाडना झार उपर चढे, अने ते ताडना झाड उपर चढी त्यां रहेला ताडना फळने हलावे के नीचे पाडे तो ते पुरुषने केटली क्रियाओ लागे ? [अ०] हे गौतम ! जेटलामा पुरुष ताड उपर चढी ताडना फळने इलावे के नीचे पाडे, तेटलामां ते पुरुषने कायिकी बगेरे पांच क्रियाओ लागे. जे जीवशेना शरीरद्वारा वाड वृक्ष तथा ताडनुं फळ उत्पन्न थयुं छे ते जीवोने पण कायिकी बगेरे पांच क्रियाओ लागे. [प्र०] हे भगवन् ! ( ते पुरुषे हलाव्या के तोडघा पछी) ते ताडनुं फळ पोताना भारने लीघे यावत्-नीचे पढे, अने नीचे पडता ते ताडना फळद्वारा जे जीवो हणाय, यावत्-जीवितथी जूदा थाय, तो तेथी ते फळ तोडनार पुरुषने केटली क्रियाओ लागे ? [अ०] हे गौतम! जेटलामां ते पुरुष ताडना फळने तोडे अने पछी ते फळ पोताना मारने लीघे नीचे पडता जीवोने यावत्-जीवितथी जूदा करे तो वेटलामां (तोडनार) पुरुषने कायिकी बगेरे चार क्रियाओ लागे, जे जीवोना शरीरथी ताडनुं वृक्ष नीपज्युं के वे जीवोने यावत् चार क्रियाओ लागे, अने, जे जीवोना शरीरथी साडनुं फळ नीपज्यं ते जीत्रोने तो कायिकी यावद यांचे क्रियाओ लागे. तथा जे जीवो स्वाभाविक रीते नीचे पडता ताडना फळना उपकारक थाय
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१७ शतके
उद्देशः१ ॥१४१७॥
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व्याख्याअज्ञप्तिः
॥ १४१८॥
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के ते जीवोने पण कायिक यावत्-पांचे क्रियाओ लागे.
पुरिसे षणं भंते! रुवस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए !, गोपमा ! जावं चणं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुढे, जेसिंपिय णं जीवाणं सरीरेहिंनो मूले निव्वत्तिए जाब बीए निव्वत्तिए तेविय णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा, अहे णं भंते! से मूले अप्पणी गरुयत्ता जाव जीविधाओ ववशेवेह तओ णं भंते! से पुरिसे कति किरिए, गोमा ! जावं च णं से मूले अपणो जाव बबरोवेह तावं च गं से पुरिसे काइयाए जाव चउहिं किरियाहिं पुढे, जेसिंपिंग णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्यत्तिए जाब बीए निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जात्र चउहिं पुट्ठा, जेसिंपिंग णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरि याहि कंदे, जेविय णं से जीवा अहे बीमसाए पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे वर्हति तेवि णं जीवा काएयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा || पुरिसे णं भंते! रुक्स्वस्स कंदं पचालेह, गो० तावं चणं मे पुरिसे जात्र पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए तेवि णं जीवा जाव पंचाहिँ किरियाहिं पुट्ठा, अहे णं भंते ! से कंदे अप्पणो जान चउहिं पुढे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए खंधे नि० जाव चाहिं पुट्ठा, जेसिंपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे निव्वत्तिए सेवि य णं जीवा जाब पंचहि पुट्ठा, जेवि य से जीवा अहे वीससार पञ्चोवयमाणस्स जाव पंचहि पुट्ठा जहा खंधी एवं जाव बीयं (सूत्रं ५९२ ) ।।
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| १७ शतके उद्देशः१ ॥१४८॥
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ति प्र०) हे भगवन् ! कोइ पुरुष झाडना मूळने हलाये के नीचे पाडे तो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे १ [३०] हे गौतम! |P! भ्याख्या
झाडना मूळने हलावनार के नीचे पाडनार पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे, अने जे जीवोना शरीरथी मूळ यावत् वीजावक 18नीपज्यां छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे. [प्र.] हे भगवन् ! त्यार पछी ते मूळ पोताना मारने लीधे नीचे
II उद्देशार ॥१४१९॥ दोपडे अने बीजा जीवोनु घातक थाय तो तेथी मूळने हलावनार के तोडनार ते पुरुपने केटली क्रिया लागे ! [उ०] हे गौतम! जेट-1*
131१५१९॥ लामा ते मुळ पोताना भारने लीधे नीचे पडे अने वीजा जीयोनु घातक थाय तेटलामा ते पुरुषने कायिकी वगेरे चार क्रियाओ, लाग. तथा जे जीवोना शरीरथी कंद नीपज्यो छे, यावत्-धीज नीप, छे ते जीवोने कायिकी यावत् - चार क्रियाओ लागे. बळी जे जीयोना शरीरथी मूळ नीपज्यूछे ते जीवोने कायिकी यात-पांच क्रियाओ लागे. तथा जे जीयो स्वाभाविक रीते नीचे पडता मूलना उपग्राहक- उपकारक छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे के. [प्र.] हे भगवन् ! कोई पुरुष वृक्षना कंदने इलावे तो तेने केटली क्रिया लागे ? [उ.] हे गौतम ! कंदने इलावनार ते पुरुषने याव-पांच कियाओ लागे. तथा जे जोबोना शरीरथी मृळ यावत् बीज नीपज्यू के ते जीवोने पण पांच क्रियाओ लागे . [प्र०] हे भगवन् ! त्यार पछी ते कन्द पोताना भारने
लीधे नीचे पडे अने यावत्-जीवोनो घात करे तो ते पुरुषने केटली क्रियाओ लागे? [उ.] ते पुरुषने यानन-चार कियाओ लागे. 2(साक्षात् घातक नहि होवाथी प्राणातिपातक्रिया न लागे.) तथा जे जीवोना शरीरोथी मृळ, स्कंध वगेरे नीपज्यां छे ते जीवोने
परमपराए घातक होवाथी प्राणातिपात क्रिया सिवाय चार क्रियाओ लागे अने जे जीवोना शरीरोथी कंद नीपज्यो के ते जीवोने यावत् पांचे क्रियाओ लागे. वळी जे जीवो स्वाभाविक रीते नीचे पडना ते कंदना उपकारक होय ते जीवोने पण पांचे क्रियाओ
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प्रचप्तिः
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S a rsuri Gyanmandir लागे. जम कंद संबन्धे वक्तव्यता कही तेम याव-बीज संबन्धे पण जाणवी. ॥ ५९२ ।। व्याख्या- ४ा कति भंते ! सरीरगा पण्णता?, गोयमा! पंच सरीगंगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालियजावकम्मए । कति
१७ हिण भंते ! इंदिया पं०१, गोयमा! पंच इंदिया पं०,०-सोइंदिप जाब फासिदिए। कतिविहे गं भंते ! जोए प०१,
18 उद्देशा ॥१४२०
तावहणमतजार ५
१५२०॥ | गोयमा तिविहे जोए प०, तं-मणजोए चयजोए कायजोए । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निम्वत्तेमाणे कति 131 किरिए ?, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, एवं पुढविकाइपथि एवं जाव मणुस्से। जीचा भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कति किरिया:, गोयमा! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि, एवं पुढाविकाइया एवं जाव मणुस्सा, एवं वेउब्वियसरीरेणचि दो दंडगा, नवरं जस्स अस्थि वेउब्वियं, एवं जाव कम्मगसरीरं, एवं मोइंदियं जाव फासिदियं, एवं मणजोगं वयजोगं कायजोगं जस्स ज अस्थि तं भाणियवं, एए एगत्तपुहुत्तेणं छच्चीसं दंगा (सूत्रं ५९३)।
[प्र.] हे भगवन् ! केटला शरीरो कहाँ छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच शरीरो कहां छे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिक, यावत्१५ कार्मण. [प्र०] हे भगवन् ! केटली इन्द्रीयो कही । [उ०] हे गौतम ! पांच इन्द्रियो कही छे, ते आ प्रमाणे-१ श्रोत्रेन्द्रिय, टू यावत्-५ स्पर्शेन्द्रिय. [म०] हे भगवर ! योग केटला प्रकारनो कझो के ? [उ.] हे मौतम ! योग त्रण प्रकारनो कबो , ते आ
प्रमाणे-मनयोग, वचनयोग अने काययोग. [म.] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो जीव केटली क्रिायवाळो होय? [उ०] महे गौतम ! औदारिक शरीरने बांधतो जीव कोइवार त्रण क्रियावाळो, कोइवार चारक्रियावाळी अने कोइबार पांच क्रियात्राळो होय. 18
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एते पृथिवीकायिक संबन्धे कहेतुं तथा ए प्रमाणे दंडकना क्रमयी यावत्-मनुष्य सुधी जाण. [प्र० ] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधता अनेक जीवोने केटली क्रियाओ लागे ? [उ०] हे गौतम ! तेओने कदाचित् त्रण क्रियाओ, कदाचित् चार क्रियाओ अने कदाचित् पांच क्रियाओ लागे ए प्रमाणे यावत् दंडकना क्रमथी पृथिवीकायिको सुधी जाणवुं तथा ए क्रमयी यावत्-मनुष्यो सुधी जण. ए प्रमाणे वैक्रिय शरीर संबन्धे पण एक वचन अने बहुवचनने आश्रयी वे दंडको कहेवा. परन्तु जे जीवोने बैंकिय शरीर होय ते जीवोने आश्रयी कहेवु ए प्रमाणे यावत् कार्मणशरीर सुधी समज. श्रोत्रेन्द्रियथी आरंभी यावत्-स्पर्धेन्द्रिय सुधी पण एज क्रमथी जाणवु. बळी मनयोग, वचनयोग अने काययोग विषे पण ए प्रमाणे कहेवु, परन्तु जेने जे योग होय तेने ते योगसंबन्धे कहें. एम बधा मळीने एकवचन अने बहुवचनने अश्रयी छबीश दंडको कहेवा. ।। ५९३ ।।
कतिषिणं भंते! भावे पण्णत्ते ?, गोपमा ! छन्विहे भावे प०, तं० - उदहए उवसमिए जाव सन्निवाइए, से किं तं उदहए ?, उदहए भावे दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा -- उदइए उदयनिफन्ने य, एवं एएवं अभिलावेणं जहा अणुओगदारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव से तं सन्निवाइए भावे ॥ सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति ॥ ( सू० ५९४ ) ।। १७-१ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! भाव केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! भाव छ प्रकारना कया है. ते आ प्रमाणे- १ औद विक, २ औपशमिक, यावत् - ६ सांनिपातिक [प्र० ] हे भगवन् ! औदयिक भाव केटला प्रकारे कह्यो छे. [उ०] हे गौतम ! औदचिक भाव वे प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-औदयिक अने उदयनिष्पन्न. ए प्रमाणे आ अमिलाप बडे अनुयोगद्वारमां जेम छ
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[१७ शतके उद्देशः १
॥ १४२१५
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JGI नामनी वक्तव्यता कही के ते बघी अहिं कहेवी. यावत-ए प्रमाणे सांनिपातिक भाव सुधी कडेवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे। ध्याख्या8 भगवन् ! ते एमज छे'. ॥ ५९४ ॥
दात प्रज्ञप्तिः भगषत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १७ मा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उमेशर ॥१४२२॥
१४२२॥ शतक १७. (उद्देशक २) से नूर्ण भंते ! संयतविरतपडिहयपञ्चखायपावकम्मे धम्मे ठिए अस्संजयअविरय अपडिहयपचक्खायपावकम्मे अधम्मे ठिते संजयासंजए धम्माधम्मे ठिते?, हंता गोयमा! संजयविरयजाव धम्माधम्मे ठिए, एएसिणं भंते ! धम्मसि वा अहम्मंसि वा धम्माधम्मसि वा चकिया केइ आमहत्तए वा जाव तुयहित्तए वा?, गोयमा! णो तिणढे समढे, से केणं ग्बाइ अटेणं भंते ! एवं वुचइ जाव धम्माधम्मे ठिते !, गोयमा! संजयविरयजाव पावकम्मे धम्मे ठिते धम्म चेव उवसंपत्तिाणं विहरति, असंयतजाव पावकम्मे अधम्मे ठिए अधम्म चेव उवसंपन्जित्ताणं विहरह, संजयासंजए धम्माधम्मे ठित धम्माधम्मं चेव उपसंपज्जित्ताणं विहरति, से तेणटेणं जाव ठिए ॥ जीवा णं भंते ! किं धम्मे ठिया अधम्मे ठिया धम्माधम्मे ठिया ?, गोयमा! जीवा धम्मेवि ठिता अध. म्मेवि ठिता धम्माधम्मेवि ठिना, नेरह० पु०१, गोयमा! णेरड्या णो धम्मे ठिता अधम्मे ठिता णो धम्माधम्मे ठिता, एवं जाव चउरिदिया, पंचिंदियातिरिक्खजो पुच्छा, गोयमा! पंचिंवियतिरिक्खजोणि नो धम्मे ठिया
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१७शतके &ा उमेशार
दा अधम्मे ठिया धम्माधम्मेवि ठिया, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोहसवेमाणिया जहा नेर० (सू० ५९५) ।। IR.. भ्याख्या
[प्र०] हे भगवन् ! संयत, प्राणातिपातादिथी विरतिवाळो अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कयु छे एवो जीव प्राठि ॥१४२३॥ चारित्र धर्ममा स्थित होय, असंयत, अविरत अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कयु नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित
3॥१४२३॥ | होय, तश संयतासंयत जीव धर्माधर्ममा खित होय ? [उ०] हे गौतम! हा, संयत अने विरत जीव धर्ममां स्थित होय, संयता| संयत जीव यावत्-धर्माधर्ममां स्थित होय. [म.] हे भगवन् ! ए धर्ममां, अधर्ममा अने धर्माधर्ममां कोई जीव वेसवाने यावत
आळोटवाने समर्थ छ ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी (अर्थात्-ते जीवनो स्वभाव होबाथी धर्ममा, अधर्ममां के धर्माधर्ममा कोई जीव बेसी शकतो नथी.) [म.] हे भगवन् ! शा कारणथी आप एम कहो छो के–'यावत-धर्माधर्ममां स्थित होय' ? [उ०] हे गौतम! संयत, विस्त अने जेणे पापकर्मनुं प्रत्याख्यान कयु छ एवो जीव धर्ममां स्थित होय एटले धर्मनो आश्रय करी-स्वीकार करीने विहरे. ए प्रमाणे असंयत, अविरत अने जेणे पापकर्मनु प्रत्यख्यान कर्य नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित होय-एटले अधर्मनो आश्रय करी विहरे, तथा संयतासंपत जीव धर्माधर्ममां स्थित होय-पटले जीव धर्माधर्मनो-देशविरतिनो आश्रय करी विहरे. ते माटे हे गौतम ! यावत्-'स्थित होय'. [४०] हे भगवन् ! शुं जीवो धर्ममा स्थित होप, अधर्ममां स्थित होय के धर्माधर्ममा स्थित होय ! [उ०] हे गौतम! जीवो धर्ममां पण स्थित होय, अधर्ममां पण स्थित होय अने धर्माधर्ममां पण स्थित होय. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे नरयिक संबन्धे पृच्छा करवी. [३०] हे गौतम ! नैरयिको धर्ममा स्थित न होय, तेम धर्माधर्ममां स्थित न होय, पण अधर्ममां स्थित होय. ए प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय जीवो सुधी जाणवू. [१०] पंचेन्द्रिय तिर्यच जीवो संबन्धे पृच्छा.
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Acharya Shri garsuri Gyanmandie काउ.] गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यच जीवो धर्ममा स्थित नथी, पण तेओ अधर्ममा अने धर्माधर्ममा स्थित छे. मनुष्योने विषे सामान्य व्याख्या४ाजीवोनी पेठे वक्तव्यता कडेची. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको विषेनी वक्तव्यता नैरयिकोनी पेठे कहेगी. ॥ ५९५॥
७ प्रज्ञतिः अन्नउस्थिया णं भंते ! एबमाइक्वंति जाव परूवेति-एवं खलु समणा पंडिया समणोवासया पालपंडिया
का उद्देशान ॥१४२४॥
॥१२॥ जम्स णं एगपाणाएवि दंडे अणिक्वित्ते से णं पगंतवालेत्ति वत्तव्वं सिया, से कहमेयं भंते ! एवं , गोयमा! जपणं ते अन्नउत्थिया एबमाइक्वंति जाव वत्तवं मिया, जे ते एवमाहंसुमिच्छ ते एकमा०, अहं पुण गोयमा! एबमाइक्वामि जाय परवेमि एवं खलु ममणा पंडिया समतोवासगा बालपंडिया जस्स णं एगपाणाएवि दंडे निक्वित्ते से शं नो एगलबालेत्ति वत्तब्वं सिया ॥ जीवाणं भंते ! किं वाला पंडिया वालपंडिया), गोयमा! जीवा यालावि पंडियावि बालपंडियावि, नेरझ्याण पुच्छा, गोयमा! नेरइया बाला नो पंडिया नो बालपंडिया, एवं जाव चउरिदिगाणं, पंचिंदियतिरिक्व० पुच्छा, गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया बाला नो पंडिया बालपडियावि, मणुस्मा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया (सूत्रं ५९६)॥
[0] हे भगवन् ! अन्यतीथिको एम कहे जे, यावत् एम प्ररूपे में के 'श्रमणो' पंडित कहेवाय के अने श्रमणोपासको बालपंडित कवाय , पण जे जीवने एक पण जीवना बधनी अविरति छे ते जीव 'एकांत बाल' कडेवाय, तो हे भगवन् ! आ (अन्यतीथिकोर्नु कथन) सत्य केम होय ? [उ.] हे गौतम! जे अन्यताविको आ प्रमाणे कहे छ के यावत्-एकान्त बाल' कडेवाय, परन्तु जेओए एम कई तेओए मिथ्या-असत्य का छे, हे गौतम! हुँ तो आ प्रमाणे कहुं छु-यावत् प्ररूपुंछ के-ए प्रमाणे खरेखर 181
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श्रमणो पंडित छ अने श्रमणोपासको बालपंडित हे, पण जे जीवे एक पण प्राणिना वधनी विरति करी के ते जीव 'एकांतवल' न व्याख्याकवाय, ( परन्तु 'बालपंडित' कहेवाय) [प्र०] हे भगवन् ! शु जीवो बाल-विरतिरहित छ, पंडित-सर्वविरतिवाळा छ के बाल
१७ शतक प्रवतिः
| उमेशा R४२५॥
डित-देशविरति युक्त छ। [उ०] हे गौतम! जीवो वाल पण छे, पंडित पम छे अने बालपंडित पण छे [प्र.] नैरयिको संबन्धे Shayari दाए प्रमाणे प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! नैरपिको बाल छ, पण पंडित नथी, तेम बालपंडित पण नथी. ए प्रमाणे दंडकना
क्रमथी यावत्-चउरिद्रियो सुधी जाणवु [0] पंचेन्द्रिय तिर्यचो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यचो पाल अने
बालपंडित होय छे, पण पंडित होता नथी. मनुष्यो संबंधे सामान्य जीवोनी वक्तव्यता कहेवी. तथा वानव्यतर, ज्योतिषिक अने है। वैमानिक संबंध नैरयिकनी वक्तव्यता (सू० ७) कहेवी. ॥ ५९६ ॥ । अमउत्थिया णं भंते ! एचमाइक्खंति जाव पवेति-वं खलु पाणातिवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणः | सल्ले वट्टमास्स अन्न जीवे अने जीवाया पाणावायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाप मिच्छादंस
सल्लविवेगे वहमाणस्स अन्ने जीवे अन्ने जीवाया, उपपत्तियाए जाव परिणामियाए वहमाणस्म अन्ने जीवे अन्ने जीवाश, उपपत्तियाए उग्गहे ईहा अवाए धारणाए वहमाणस्स जाव जीवाया, उहाणे जाव परक्कमे बद्दमाणस्स जाव जीवराया, नेरइयत्त, तिरिवखमणुस्सदेवत्ते वद्यमाणस्स जाव जीवाया, नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए वट्टमा| जस्स जाव जीवाया, एवं कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए, सम्मदिट्टीए ३ एवं चखुदंसणे ४ आभिणियोहिय. नाणे ५ मतिअन्नाणे ३ आहारसन्नाए ४ एवं ओरालियसरीरे ५ एवं मणजोए ३ सागारोवओगे अणागारोवओगे
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वदृमाणस्स अपणे जीवे अन्ने जीवाया, से कहमेयं भंते! एवं ?, गोयमा ! जपणं ते अन्नउत्थिया एइमाइक्खंति व्याख्या-18 जाब मिच्छ ते एबमासु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्वामि जाव परूवेमि-एवं खलु पाणातिवाए जाच मि- शतके प्रज्ञप्ति
च्छादमणमल्ले बदमाणस्म सञ्चेव जीवे सच्चेव जीवाया जाव अणागारोबओगे बद्दमाणस्स सच्चेच जीवे सच्चेच Vउद्देशान ॥१४२६
१४२६॥ जीवाया ।। (सूत्रं ५९७)॥
[प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीथिको आ प्रमाणे कहे , यावद प्ररूपे छे के प्राणातिपातमां, मृषावादमा यावत्-मिथ्यादर्शनश ल्यमां वर्तता प्राणीनो जीव अन्य के अने जीवात्मा तेथी अन्य छ, प्राणातिपातविरमणमां, यावद-परिग्रहविरमणमां, क्रोधना त्यागमां-यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यना त्यागमा वर्तता प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी तेनो जीवात्मा अन्य छे. औत्पत्तिकी बुद्धिमां, यावत्-पारिणामिकी बुद्धिमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छ; अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणामां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेशी अन्य छे उत्थानमा, यावत्-पुरुषकार-पराक्रममा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे नैरयिकपणामां, पंचेंद्रियतिर्यचपणामां, मनुष्यपणामां तथा देवपणामां वर्तमान जीव अन्य छे अने जीवात्मा अन्य छे; ज्ञानावरणीयमा यावत्-अंतरायमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छे; कृष्णलेश्यामां, यावत्-शुक्ललेझ्यामां, तथा सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिध्यादृष्टिमां, १ चक्षुदर्शन २ अचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन अने ४
केवल दर्शनमां, ५ आभिनिवोधिकसान, श्रुनज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवळज्ञानमां, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने भविभंगज्ञानमा, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, निद्रासंत्रा अने मैथुनसंज्ञामां, अने एज प्रमाणे औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक ||
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व्याख्या.
प्रज्ञप्तिः
॥ १४२७॥
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शरीर, तेजस शरीर अने कार्मण शरीरमां, तथा मनोयोग, वचनयोग, अने काययोगमां, साकारोपयोग अने अनाकारोपयोगमां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेनो जीवात्मा अन्य छे. तो हे भगवन् ! ते केम सत्य होय ? [अ०] हे गौतम ! जे अन्यतीर्थको ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-तेओ मिथ्या कहे छे. हे गौतम! हुं तो आ प्रमाणे कहुं हुं यावत् प्ररूपुं हुं - " प्राणातिपात यावत् - मिथ्यादर्शनमां वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे यावत् - अनाकारोपयोगमा वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे. " ।। ५९७ ॥
देवे णं भंते! महड्डीए जाव महेस० पुत्रवामेव रूबी भवित्ता पभू अरूविं त्रिवित्ताणं चिट्ठित्तए ?, जो तिणट्टे समट्ठे, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुबह-देवे णं जाव नो पभू अरूविं विउब्वित्ताणं चिट्टित्तए १, गोयमा ! अहमेयं जाणामि अमेयं पामामि अहमेयं बुज्झामि अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि, मए एवं नायं मए एवं दि मए एवं बुद्धं मए एवं अभिसमन्नागयं जपणं तहागग्रस्स जीवस्स सरूविस्स मकम्मस्स सरागस्स सवेद [ण]स्स समोहस्स मलेसस्स ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविष्यमुक्कस्स एवं पन्नायति, तंजहा - कालत्ते वा जाव सुक्तिलत्ते वा सुगंधत्ते वा दुभिगंध वा तित्ते वा जाव महुर० कक्खडत्ते जाव लुक्खन्ते, से तेणट्टेणं गोयमा ! जान चिट्टित्तए । सचेत्र णं भंते! से जीवे पुण्वामेव अरूवी भवित्ता पभू रूवि विउब्वित्ताणं चिट्टित्तए !, णो तिणट्टे० जाव चि०, गो० ! अहमेयं जाणामि जान जन्नं तहागग्रस्स जीवस्स अरूवस्स अक्रम्मस्स अरागस्स अवेदस्स अमोहरम अलेसम्म अमरीरस्स ताओ सरीराओ विष्यमुकस्स णो एवं पन्नायति, तं०-कालत्ते वा जाव
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१७ शतके उद्देशः२
॥१४२॥
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व्याख्या-हा
याके उद्देशा२ ॥१४२८॥
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Acharya Shri r भालुक्खत्ते वा, से तेणढे जाव चिद्वित्तए वा ।। सेवं भंते ! ति (सूत्रं ५९८)॥१७-२॥
1 [40] हे भगवन् । मोटी ऋद्धिवाळो, यावन-मोटा सुखवाळो देव पहेला रूपी होईने-मूर्त स्वरूप धारण करी पछी अरूपी रूप प्रज्ञप्तिः
है (अमूर्त रूप) विकुम्ने रहेवा समर्थ छ ? [उ०] ते अर्थ समर्थ नथी. प्रि०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के ॥१४२८४
|'मोटी ऋद्धिघालो देव यावत्-अरूपी रूप विकुर्वीने रहेका समर्थ नथी'' [उ०] गौतम! हु ए जाणुं छु, हुए जोउं छु, हुंए निचित जाणु छु, हुंए सर्वथा जाणु छु, में ए जाण्युं छे, में ए जोयु छ, में निश्ति जाण्यु छ अने में ए सर्वथा जाण्यु छ के, तेवा प्रकारना रूपवाळा, कर्मवाळा, रागबाळा, वेदवाळा, मोहवाळा, लेश्यामाळा, शरीरवाला अने ते शरीरथी नहि मुकायेला-जूदा नहीं थयेला जीवने विषे एम जगाय छ, से आ प्रमाणे-ते शरीरयुक्त जीवमां-काळापणु, यावत्-धोळापणुं, सुगंधिपणु के दुर्गधिषणु, कडवाणु के यावत्-मधुरपणु, तथा कर्कशपणुं के यावत्-रुक्षपणुं होय छे, माटे हे गौतम ! ते हेतुथी ते देव पूर्व प्रमाणे यावत्अरूपी रूप विकुर्ववा समर्थ नथी. [०] हे भगवन् ! तेज देवरूप जीव पहेला अरूपी थईने पछी रूपी आकार विकृर्ववा समर्थ छ? [उ.] ए अर्थ समर्थ नधी-इत्यादि यावत्-'विकुर्वबा समर्थ नथी' त्यांसुधी जाणवू. कारण के हे गौतम ! हुए जाणुं छु के, यावत्रूप विनाना, कर्म विनाना, राग विनाना, वेद विनाना, मोह विनाना, लेश्या विनाना, शरीर विनाना अने शरीरथी जूदा थयेला तेवा प्रकारना जीवने विषे एम जणातुं नथी के, ते जीवा काळापणु याक्त-लुखापणुं छे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी यावत्-ते देव | | पूर्व प्रमाणे चिकुवा समर्थ नथी. "हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे." ।। ५९८ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगक्तीमत्रना १६ मा शतकमां चीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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शतक १७. (उद्देशक ३) ध्यास्या
१७श्तके प्रज्ञप्ति
नरेशा ॥१५२९॥ सेलेसि पडिखनए णं भंते ! अणगारे सया समियं पयति वेयति जावतं तं भावं परिणमति, णो तिणद्वे
1 ॥१४२९॥ द्रसमडे, णपणत्थेगेणं परपयोगेण । कतिविहा ण भंते ! एयणा पण्णत्ता, गोयमा! पंचविहा एयणा पण्णत्ता,
जहा-दटवेयणा खेत्तगणा कालेयणा भायणा भवेयणा, दन्वेयणा णं भंते! कतिथिहा प०१, गोयमा! चउ विहा प०, संजहा-नेरहयदब्वेयणा तिरिक्ष मणुस्स० देवदब्वेयणा, से केण एवं बुचह-नेरहयदवेयणा २१, गोयमा ! जन्नं नेरड्या नेरहमदब्वे वहिंसु वा वदति वा वहिस्संति धा ते णं तत्थ नेरतिया नेरतियदवे वट्टमाणा नेहयदन्वेयण पइंसु वा एहसंति वा, से तेणद्वेणं जाव चव्वेयणा, से केणटेणं मंते! गवं बुध तिरिक्वजोणियदन्वेषणा एवं चेव, नवरं तिरिक्वजोणियब्वे भाणियध्वं, सेसं तं चेच, एवं जाब देवववेयणा । खेत्तयणा गं
भंते ! कतिविहा पण्णता?, गोयमा! चउब्बिहा प०, तं-नेरइयखेत्तेपणा जाव देवखेत्तयणा, से केणद्वेणं भंते ! हैं। एवं वुबह नेरइयखेत्तयणा ०२१, एवं चेव नवरं नेरहरखेत्तेयणा भाणियच्या, एवं जाप देवखेत्तयणा, एवं का
लेपणावि, एवं भवेयणावि, भावेयणावि जाब देवभावेयणा (सूत्रं ५९९)॥ | प्र०] हे भगवन् ! शेलेशी अवस्खाने प्राप्त धयेल अनगार शुं सदा निरन्तर कंपे, विशेष कंपे, अने यावत-ते ते भावे परिणमे ? [उ.] एअर्थ समर्थ नी, मात्र एक परप्रयोग विना (अर्थान-शैलेशी अवस्थामां आत्मा अत्यन्त स्थिरताने प्राप्त भयेल होवायी।
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परप्रयोग सिवाय न कं.). [प्र.] हे भगवन् ! एजना (कंपन) केटला प्रकारनी कही छ ? [उ०] हे गौतम! एजना पांच प्रकारनी व्याख्या- 18| छे, ते आ प्रमाणे-१ द्रव्यएजना, २ क्षेत्रएजना, ३ कालएजना, ४ भावएजना अने ५ भवएजना. [H०] हे भगवन् ! द्रव्यएजना १७ शतके प्रज्ञप्तिः दि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ.] हे गौतम! ते चार प्रकारनी कही है, ते आ प्रमाणे-१ नैरयिकद्रव्यएजना, २ तिर्यंचयोनिक
2 उमेशा ॥१४३. द्रव्य एजना, ३ मनुष्यद्रव्यएजना अने ४ देवद्रव्यएजना. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी नैरयिकद्रव्यएजना' २ कडेवामां आवे
१४३०॥ | १ [उ०] हे गौतम ! जे माटे नैरयिको नैरयिकद्रव्यमा वर्तता हता, वर्ते के अने वर्तशे, ते नैरयिकोए नैरयिकद्रव्यमा चर्तता
नैरयिकद्रव्यनी एजना करी हती, करे के अने करशे, ते माटे यावत्-नैरयिकद्रव्यएजना कहेवामां आवे छे. [१०] हे भगवन् ! | तिर्यंचयोनिकद्रव्यएजना २ कहे वाय तेनु शुं कारण ! [उ०] पूर्व प्रमाणेज जाणवं. विशेष ए के नैरयिकद्रव्यने बदले तिर्यंचयो
निकद्रव्य कहे यु. बाकी वधुं तेज प्रमाणे जाणवू. तथा ए प्रमाणे मनुष्यद्रव्यएजना अने देवद्रव्यएजना पण जाणवी. [प्र०] हे भग|वन् ! क्षेत्रएजना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे-१ नैरयिकक्षेत्रएजना, यावत् | ४ देवक्षेत्रएजना. [प्र.] हे भगवन् ! नैरयिक क्षेत्रएजना २ कदेवानुं शुं कारण ! [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के नैरयिक-13 द्रव्यएजनाने बदले नैरयिकक्षेत्रएजना कहेवी. अने एम यावत्-देव क्षेत्रएजना सुधी जाणवू. तथा कालएजना, भवएजना अने भाव एजना विषे पण ए प्रमाणे जाणवू. यावत्-देवभावएजना मृधी समज. ।। ५९९ ।। | कतिविहा णं भंते ! चलणा पण्णत्ता !, गोयमा ! तिविहा चलणा प०, तं०-सरीरचलणा इंदियचलणा जोग चलणा, सरीरचलणाणं भंते ! कतिविहा प.?, गोयमा! पंचविहा प०, तं०-ओरालियसरीरचलणा जाव क-18
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥१४३१
CHEDCAMERICACHC
म्मगसरीरचलणा, इंदियचलणा भंते ! कतिविहा प०१, गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, संजहा-सोइंदियचलणा जाव फासिंदियचलणा, जोगचलणा गंभंते ! कतिविहा प०१, गो! तिथिहा पं०, तं०-मणजोगचलणा वह
५१७वतके
उमेशा जोगचलणा कायजोगचलणा, से केणटुणं भंते! एवं वुबह ओरालियसरीरचलणा ओ०२१, गोयमा! जंणं
॥१४३१॥ जीचा ओरालियसरीरे बढमाणा ओरालियसरीरपायोगाई दबाई ओरालियसरीरत्ताए परिणामेमाणा ओरालियसरीरचलणं चलिंसु वा चलंति वा चलिरसंति वा से तेणटेणं जाब ओरालियसरीरचलणा० ओ० २, से केण. तुणं भंते । एवं बु. बेउवियसरीरचलणा वेउ, एवं चेव नवरं वेउब्वियसरीरे बदमाणा एवं जाव कम्मगसरीरचलणा, से केणट्टेणं भंते ! एवं चु. सोइंदियचलणा २१, गोयमा! जन्नं जीवा सोइंदिए वढमाणा सोइंदियपाओगाई दब्बाई सोइंदियत्ताए परिणामेमाणा सोइंदियचलणं चलिंसु वा चलंति वा चलिस्संति वा से तेणटेणं जाव सोतिदियचलणा सो०२, एवं जाब फासिंदियचलणा, से केणढणं एवं बुचड़ मणजोगचलणा २१, गोयमा! ६ जणं जीवा मणजोए बहमाणा मणजोगप्पाओगाई दवाइं मणजोगत्ताए परिणामेमाणा मणजोगचलणं चलिंसुरू
वा चलिंनि वा चलिस्संति वा से तेणटेणं जाव मणजोगचलणा मण. २, एवं वइजोगचलणावि, एवं कायजोग. चलणावि ॥ (सू०६००)।
[0] हे भगवन् ! चलना केटला प्रकारनी कही ? [उ.] हे गौतम चलना त्रण प्रकारनी कही . ते आ प्रमाणे-शरीरचलना, इन्द्रियचलना अने योगचलना. [१०] हे भगवन् ! भरीरचलना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! शरीरचलना
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श उद्देशा३ १५३२॥
पांच प्रकारनी कही छै, ते आ प्रमाणे-१ औदारिकभरीरचलना, यावद-५ कार्मणशरीरचलना. [३०] हे भगवन् ! इन्द्रियचलना व्याख्या-18 केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ भोत्रेन्द्रियचलना, यावत्-५ स्पशेन्द्रियचलना. प्रज्ञप्ति 15[.] हे भमवन् ! योगचलना केटला प्रकारनी कही छे? [उ०] हे गौतम ! योगचलना त्रण प्रकारनी कही , ते आ प्रमाणे॥१४॥२॥
मनोयोगचलना, वचनयोगचलना अने काययोगचलना. [सं०] हे भगवन् ! शा हेतुथी औदारिकशरीरचलना २ कवाय के ? ठा[उ०] हे गौतम! जे माटे औदारिक शरीरमां वर्तता जीवोए औदारिकशरीरयोग्य द्रव्योने औदारिकशरीरपणे परिणमावता औदा
रिकशरीरनी चलना करी , करे के अने करशे, ते कारणथी हे गौतम ! औदारिकशरीरचलना २ कहेवामां आवे छे. [प्र.] हे भगवन् ! शा कारणथी वैक्रियशरीरचलना २ कहेवामां आवे के? [उ०] पूर्व प्रमाणे नधु जाण. विशेष ए के वैक्रियशरीरने विषे वर्तता' इत्यादि कहे. (अर्थात्-औदारिकने बदले बधे वैक्रिय कहे.) अने एज प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीरचलना सुधी जाणवु [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी भोत्रेन्द्रियचलना २ कहेवामां आवे के ? [उ०] हे गौतम । श्रोत्रेन्द्रियने धारण करता
जीवीए श्रोत्रेन्द्रिययोग्य द्रव्योने श्रोत्रेन्द्रियपणे परिणमावता श्रोत्रेन्द्रियनी चलना करी, करे के अने करशे, ते कारणथी श्रोत्रेमान्द्रियचलना २ कहेवामां आवे . ए प्रमाणे यावत्-स्पर्शेन्द्रिय चलना सुधी जाणवू. [40] हे भगवन् ! शा कारणथी मनोयोग
चलना २ कहेवामां आवे छे! [उ०] हे गौतम ! जे कारणथी मनयोगने धारण करता जीवोए मनयोग्य जीवोए मनयोग्य द्रव्योने मनयोगपणे परिणमावता मनोयोगनी चलना करी, करे के अने करशे, ते कारणथी मनोयोगचलना २ कहेवामां आवे छे. ए प्रमाणे वचनयोगचलना तथा काययोगचलना पण जाणवी. ॥ ६०० ।।
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व्याख्या प्रज्ञप्तिा
॥१४॥३॥
ARRORESCARAMATA
अह भंवे! संबेगे निवेए गुरुसाहम्मियसुस्मृमणया आलोयणया निंदणया गरहणया खमावणया सुयसहायता विठसमणया भावे अप्पडिबद्धया यिणिवणया विवित्तसयणासणसेवणया सोइंदियसंवरे जाव फासिं
५१७ शतक
* उशा३ दियसंबरे सोमपञ्चवाणे सरीरपञ्चक्स्वाणे कसायपञ्चकवाणे संभोगपञ्चक्खाणे उवहिपचखाणे भत्तपञ्चकवाणे
18॥१४३३॥ स्त्रमा विरागया भावसचे जोगसच्चे करणसच्चे मणसमण्णाहरणया वयसमन्नाहरणया कायममन्नाहरणया कोह|विवेगे जावमिच्छादसणसल्लविवेगे गाणसंपन्नया सणस. चरित्तसं वेदणअहियासणया मारणंतियअहियास णया एएणं भंते ! पया किंपज्जवसाणफला पण्णत्ता? समणाउसो!, गोयमा! संवेगे निचेगे जाव मारणंतियअहियास.एए सिद्धिपज्जवसाणफला पं० समणाउसो।।। सेवं भंते! २ जाब विहरति (सू०६०१)॥१७-३॥
[H०] हे भगवन् ! संवेग-मोक्षनो अभिलाप, निर्वेद-संसारथी विरक्तता, गुरुओनी तथा साधर्मिकोनी सेवा, पापोनी आलो। चना-गुरु समक्ष कथन, निंदा-आत्मद्वारा दोपोनी निन्दा, गर्दा-परसमक्ष पोताना दोषो प्रगट करवा, क्षमापना, उपशांतता, श्रुतसहायता-श्रुताभ्यास, मावाप्रतिवद्धता-हावादि भावोने विपे अप्रतिबंध, पापस्थानोथी निवृत्त वु, विविक्तशयनासता-च्यादिरहित वसति अने आसननो उपयोग, श्रोत्रेन्द्रियसंचर, यावत्-स्पर्शन्द्रियसंवर, योगप्रत्याख्यान, शरीरप्रत्याख्यान, कषायप्रत्याख्यान, संभोगप्रत्याख्यान, उपधिप्रत्याख्यान, भक्तप्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य-प्रतिलेखनादि क्रियानु यथार्थ करवू, मनःसमन्बाहरण-मननुं संगोपन, वचःसमन्बाहरण-वचनसंगोपन, कायसमन्दाहरण-कायसंगोपन, क्रोधनो त्याग, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग, ज्ञानसंपन्नता, दर्शनसंपन्नता, चारित्रसंपन्नता, क्षुधादि वेदनामां सहनशीलता अने मारणान्तिक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४३४ ॥
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कष्टमां सहनशीलता-ए बधा पदोनुं हे आयुष्मान् श्रमण ! अन्तिम फळ शुं क हे ? [उ०] हे गौतम! संवेग, निर्वेद, यावत्-मारणांतिक कष्टमां सहनशीलता ए बधा पदोन्तुं अंतिम फळ मोक्ष कछु छे. "हे भगवन् ! ते एमज छे. हे भगवन् ! ते एमज छे." ।। ६०१ ॥ भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रमा १७ मा शतकमां जीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ४)
काले २ रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी -अस्थि भंते जीवाणं पाणावापूर्ण किरिया कड ?, हंता अस्थि, सा भंते ! किं पुद्धा कज्जह अपुट्टा कजह ?, गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ नो अपुट्ठा कलह, एवं जहा पढमसए छट्टुद्देसए जाब नो अणाशुपुब्बिकडाति वक्तवं सिया, एवं जाव बेमाणियाणं, नवरं जीवाणं एगिंदियाण य नित्र्वाघाणं छद्दिसिं वाघाये पडुच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि सेसाणं नियमं छद्दिसं । अस्थि णं भंते! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जइ १, हंता अस्थि, सा भंते । किं पुढा० कजड़ जहा पाणाड़वाएणं दंडओ एवं मुमावाएणवि, एवं अदिन्नादाणेणवि मेहुणेवि परिग्गहेणवि, एवं एए पंच दंडगा ५ । समयनं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते! किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्ठा कज्जह, एवं तहेब जाव बत्तव्वं सिया जाव वैमाणियाणं, एवं जाय परिग्गहेणं, एवं एतेवि पंच दंडगा १० | जंदेसेणं भंते ! जीवाणं पाणाड़वा
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१७ शतके उद्देशः ४ ॥१४३४ ॥
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व्याख्या-1 प्रज्ञप्ति ॥१४३५॥
एणं किरिया कब ति एवं चेव जाव परिग्गहेणं, एवं एतेवि पंच दंडगा १५ । जंपएसन्नं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते ! किं पुट्ठा कजति एवं तहेव दण्डओ एवं जाव परिग्गहेणं २०, एवं एए वीसं31
१७वतक दंडगा ॥ (सूत्रं ६०२)॥
* उमेशा [प्र०] ते काळे ते समये राजगृह नगरमा (भगावन् गौतम) यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! जीवो बडे प्राणातिपातद्वारा क्रिया-कर्म कराय छ। [उ.] हा कराय . [म.] हे भगवन् ! ते क्रिया (कर्म) रपृष्ट-आत्माए स्पर्शली कराय के अ. स्पृष्ट-आत्माना स्पर्श विना कराय ? [उ०] हे गौतम ! ते स्पृष्ट कराय, पण अस्पृष्ट न कराय-इत्यादि बधु प्रथम शतकना छट्टा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवु'; यावत्-ते क्रिया (कर्म) अनुक्रमे कराय के, पण अनुक्रम विना कगती नयी. ए प्रमाणे दंडकना क्रमथी यारत-वैमानिको सुधी जाण. परन्तु विशेष ए के जीवो अने एकेन्द्रियो व्याघात-प्रतिबंध सिवाय छ ए दिशामाथी आवेलां | कर्म करे छे, अने जो व्याघात होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, कदाच चार दिशामांथी अने कदाच पांच दिशामांथी, आवेला कर्म करे छे. (जे एकेन्द्रियो लोकान्ते रहेला छे, तेने उपरनी अने आसपासनी दिशाथी कर्म आववानो संभव नथी, तेथी तेओ कचित् त्रण दिशामाथी कदाचिद चार दिशामांथी, अने कदाचित् पांच दिशामांथी आवेलु कर्म करे छे अने बाकीना जीवो लोकना | मध्य भागमा होत्राथी व्याघातना अभाव छ ए दिशामांथी आवेलु कर्म करे छे. ते सिवाय बाकीना जीवो तो अवश्य छ ए दिशा-15) माथी आवेला कर्म करे छे.) [प्र०] हे भगवन् ! जीवो मृषावादद्वारा कर्म करे ? [उ०] हा, करे छे. [प्र.] हे भगवन् ! भुते क्रिया-कर्म स्पृष्ट कराय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम प्राणातिपात संबंन्धे दंडक कझो के तेम मृषावाद संबन्धे पण दंडक कद्देवो. एम ।
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www.kobatirth.org अदत्तादान, मैथुन अने परिग्रहसंबन्धे पांचे दंडको कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! जे समये जीवो प्राणातिपातद्वारा (कर्म) करे छे ते || व्याख्या-14 समये हे भगवन् ! ते स्पृष्ट कर्म करे के के अस्पृष्ट कर्म करे के ? [उ०] पूर्व प्रमाणे जाणवू. यावत-ते 'अनानुपूर्वीकृत नथी' त्यां- १७शतके प्रज्ञप्तिः
सुधी कईचु. ए प्रमाणे-याचन-दंडकना क्रमथी वैमानिको सुधी यावत्-परिग्रह संबन्धे जाणवु बधा मळीने पूर्ववत् पांचे दंडको उदेशः४ ॥१४३६॥
मृपावाद संबन्धे कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! जे क्षेत्रमा जीवो प्राणातिपात द्वारा कर्म करे छ ते क्षेत्रमा स्पृष्ट के अस्पृष्ट करे 2-13 इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे उचर कहेवो. यावत्-परिग्रह मुघी जाणवू. एम पांचे दंडको कहेवा. [प्र.] हे भगवन् ! जे प्रदेशमां जीवो ग्राणातिपात द्वारा कर्म करे छे ते प्रदेशमां शुं स्पृष्ट कर्म करे छेके अस्पृष्ट कर्म करे छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे दंडक कहेवो. [उ०] ए प्रमाणे यावत्-परिग्रह मुधी जाणवू. एम बधा मळीने वीश दंडको कहेवा. ।। ६०२॥
जीवाणं भंते ! किं अत्तकडे दुस्खे परकडे दुक्खे तदुभयकडे दुक्खे ?, गोयमा! अत्तकडे दुक्खे नो परकडे दुक्खे नो तदुभयकडे दुक्खे, एवं जाव चेमाणियाणं, जीवाणं भंते ! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति परकडं दुक्खं वेदेति तदुभयकडं दुग्व वेदेति ?, गोयमा! अत्तकडं दुक्खं वेदेति नो परकडं दुक्खं वेदेति नो तदुभयकडं |दुक्खं वेदेति, एवं जाव वेमाणियाण । जीवाणं भंते ! किं अत्तकडा वेयणा परकडा वेयणा पुच्छा, गोयमा! अदत्तकडा वेयणा णो परकडा वेयणा णो तदुभयकडा वेयणा एवं जाव वेमाणियाणं, जीवा णं भंते ! किं अत्तकडं है
वेदणं वेदेति परक वे. ० तदुभयक वे बे०१, गोयमा! जीवा अत्तकडं वेय० वे० नो परक० नो तदुभय. 12 एवं जाव वेमाणियाणं । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ६०३) ॥ १७-४ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥१४३७॥
[प्र०] भगवन् ! जीवोने जे दुःख छे ते \ आत्मकृत छ, परकृत छे के उभयकृत छ ? [30] हे गौतम जीवोने जे दुःख के ते आत्तकृत है, परकृत नथी, तेम उभयकृत पण नधी, प प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. [प्र०] है
I उद्देशा४ भगवन् ! नीवो शुं आत्मकृत दुःख वेदे छे, परकत दुःख वेदे छे के तदुभयकृत दुःख वेदे छ ? [30] हे गौतम ! जीवो आत्मकृत 8॥१४३७॥ दुःख वेदे छ परकृत के उभयकृत दुःख वेदता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाण. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने जे वेदना छे ते शुं आत्मकृत छे, परकत छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] गौतम ! वेदना आत्मकृत छे, परकृत के उभयकृत नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जणवं. [१०] हे भगवन् ! जीवो शु आत्मकृत वेदनाने वेदे छे, परकृत वेदनाने वेदे छे के उभयकृत वेदनाने वेदे छ ? [उ.] हे गौतम ! जीवो आत्मकृत वेदनाने वेदे छे; परकृत के उभयकृत वेदनाने वेदता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ॥६०३ ॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १७ मा शतकमां चोथा उद्देशानो मलार्थ संपूर्ण थयो.
ECRACE
ARRORCEBOOK
शतक १७. (उद्देशक ५) कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पण्णत्ता, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पन्च-18 यस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्प. पुढ० बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिमसूरिय जहा ठाणपदे जाव मसे ईसाणव.सए महाविमाणे से गं ईसाणषटेंसए महाविमाणे अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई एवं जहा दस
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| मसए सविमाणवत्तब्यथा सा इहवि ईसाणस्स निरक्सेसा भाणियन्वा जाव आयरक्खा, ठिती सातिरेगाई दो व्याख्या- सागरोवमाई, सेस तं चेव जाब ईसाणे देविदे देवराया ई०२, सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति (सूत्र ६०४)॥१७-५॥ १७ शतके प्रज्ञप्तिः [प्र.] हे भमवरी देवेंद्र देवराज ईशाननी सुधर्मा सभा क्या कही छे! [उ०] हे गौतम! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मंदरपर्वतनी
उदेश:५ ॥१४॥८॥
G॥१५३८ उत्तरे आ रत्नप्रभा पृथिवीना अत्यन्त सम अने रमणीय भूमिमामयी उपर चंद्र अने सूर्यने मूकीने आगळ गया पछी-यावत्-(प्रज्ञा पनास्त्रना बीजा) स्थानपदमां कह्या प्रमाणे मध्यभागमा ईशानावतंसक विमान आवे छे. ते ईशानावतंसक नामे महाविमान साडा बार काख योजन लांबु अने पहोळ छ-इत्यादि यावत्-दशम शतकमां शक्रविमाननी वक्तव्यता कही छे ते बधी अहीं ईशान संबंधे | यावद-आत्मरक्षकनी वक्तव्पता सुधी कहेवी. ते ईशानेन्द्रनुं आयुष किंचित् अधिक वे सागरोपमर्नु छ, बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. मायावत-देवेंद्र देवराज ईशान छे २. 'हे भगवन् ! ते एमज डे, हे भगवन् । ते एमज छे'.॥ ६०४॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीम्बना १७ मा शतकमा पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ६.) पुदविकाइए भंते ! इमीसे रय० पुढ० समोहए २ जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढ विकाइयत्ताए उववजित्तए से भंते । किं पुचि उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा पुचि वा संपाणित्ता पच्छा उवव.१, गोयमा! पुचि वा उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा पुचि वा संपाउणित्ता पच्छा उववजेजा, से केगटेणं जाव पच्छा उवत्र जेज्जा!,181
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१४३९॥
SECRECAPACLACEMA*
गोयमा! पुढविकाइयाणं तओ समुग्घाया पं०, तं०-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्याए मारणं तियसमुग्याए, मार| पतियससुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणति सम्वेग वा समोहणनि देसणं समोहन्नमाणे पुलिंब संपा
५१७ शतके
| उद्देश६ उणित्ता पच्छा उचवजिन्ना, सब्वेणं समोहणमाणे पुचि उववजेत्ता पच्छा संपाउणेजा, से तेणटेणं जाद उवव
४१४३९॥ जिजा। पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव समोहए स० २ जे भविए ईसाणे कप्पे पुढवि * एवं चेव ईसाणाव, एवं जाव अच्यगेविजविमाणे, अणुत्तरविमाणे ईसिपम्भाराए य एवं चेव । पुढविकाइए णं भंते! सकरप्पभाए पुढचीए समोहए २ स. जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवि० एवं जहा रयणप्पभाए पुढविकाइए उवबाइओ एवं सकारप्पभाएवि पुदबिकाइओ उववाएयव्वो जाव ईसिपम्भाराए, एवं जहा रयणप्पभाए वत्तब्बया भणिया एवं जाव अहेमत्तमाए समोहए ईसीपम्भाराए उववारयम्बो। सेवं भंते ! २ त्ति (सूत्रं ६०५)॥१७-६॥
[प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमां मरण समुद्घात करीने सौधर्मकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न धवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! शुं प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-पुद्गल ग्रहण करे के प्रथम पुद्गल ग्रहण करे | अने पछी उत्पन्न थाय! [उ०] हे गौतम! ते प्रथम उत्पन्न याय अने पछी पद्गल ग्रहण करे; अथवा प्रथम पुद्गल ग्रहण करे अने पछी उत्पन्न थाय. [प्र०] ते शा कारणथी यावत्-पछी उत्पन्न थाय ? [३०] हे गौतम पृथिवीकायिकोने त्रण समुद्घातो कमा छ। ते आ प्रमाणे-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात अने मारणांतिक समुद्घात. ज्यारे जीव मारणांतिक समुद्घात करे छे त्यारे देशथी पण समुद्घात करे छे अने सर्वथी पण समुद्घात करे छे. ज्यारे देशथी समृद्घात करे छे त्यारे प्रथम पुद्गल ग्रहण करे छे अने*
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Acharya Shrir agarsuri Gyanmandir Pा पछी उत्पम थाय छे, ज्यारे सर्वयी समुद्घात करे छे त्यारे प्रथम उत्पन्न थाय छे अने पछी पुद्गल ग्रहण करे छे. ते कारणथी। व्याख्या
18 यावत-पछीथी उत्पन थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव आ रनप्रभा पृथिवीमां यावत्-मरणसमुद्घात करी जे प्रज्ञप्तिः
उद्देशः६ ईशानकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छ -इत्यादि पृच्छा. [उ०] पूर्व प्रमाणे ईशानकल्पसंचन्थे जाग. एम पावत्॥१४४०॥
L ॥१४४०।अच्युत, वेयक विमान, अनुत्तर विमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवी संबन्धे पण जण. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव
आ शराप्रभा पृथिवीमां मरण समुद्घात करीने सौधर्भकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] | जेम रत्नप्रभा पृथिवीना पृथिवीकायिकनो उत्पाद कह्यो छे तेम शर्कराप्रभाना पृथिवीकायिकनो उत्पाद कहेवो. यावत्-ए प्रमाणे ईष
साम्भारा पृथिवी सुधी जाणवं, तथा जेम रत्नप्रभाना पृथिवीकायिकनी वक्तव्यमा कही तेम यावत्-सातमी नरक पृथिवी मुधीमां मरणसमुद्घातथी समवहत थयेला जीवनो ईषत्प्राग्भारामा उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ६०५ भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमा छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ७) पुढविकाइए ण भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढ Kधीकाइयत्ताए उवववजिराए से णं भंते ! किं पुब्बि सेसं तं चेव जहा रयणप्पभापुढ विकाइए सब्वकप्पेसु जाव का ईसिपम्भाराए ताव उववाइओ एवं सोहम्मपृढ विकाइओवि सत्तसुवि पुढवीसु उववाएयचो जाव अहेसत्तमाए, 181
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प्रज्ञप्तिः ॥-१४४१ ॥
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एवं जहा सोहम्मपुढ विकाइओ सव्यपुढवी उबबाइओ एवं जाव ईसिप भारापुढविकाइओ सम्बपुढवी उबवाएयवो जाव आहेसत्तमाए, सेवं भंते । २ ।। (सूत्रं ६०६) ।। १७-७ ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव सौधर्मकल्पमां मरणसमुद्घात करी आ स्वप्रमा पृथिवीमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम रत्नप्रभा पृथिवीना पृथिकायिक जीवनो वथा कल्पोमां यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमां उपपात कहेवामां आव्यो के तेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो पण साते नरकपृथिवीमां यावत् सप्तम नरक सुधी उपपात कद्देवो. तथा जेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो सर्व पृथिवीओमां उपपात को तेम बघा स्वर्गों, यात्रत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमां पृथिवीकायिक जीवनो पण सर्व पृथिवीओमां यावत्सामी नरकपृथिवी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज के, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ।। ६०६ ॥
भगवत् धर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रमा १७ मा शतकमां सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
शतक १७. (उद्देशक ८ . )
आउकाइए णं भंते ! इमीले रगणनभाए पुढबीए समोह० २ जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयताएं उब वजितए एवं जहा पुढविकाइओ तहा आउकाइओवि सव्वकप्पेसु नाव ईसिप माराए तहेब उबवायच्वो एवं जहा रयणप्पा आउकाइओ उबवाइओ तहा जाब आहेसन्तमापुढ बि आउकाइओ उपषाएयब्यो जाव ईसिप भा
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११७ शतके उद्देशः७ ॥२४४२॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४४२ ।।
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राए, सेवं भंते । २ ॥ सूत्रं ६०७) ।। १७-८ ॥
[[प्र० ] हे भगवन् ! जे अकायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमां मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमां अष्कायिकपणे उत्पन्न यात्राने योग्य - इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पृथिवी कायिकसंबन्धे कथं ने तेम अष्कायिकसंबन्धे पण बघा कल्पोमां कहेनुं, यावत्-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमां पण ते प्रमाणे उपपात कहेवो. तथा जेम रत्नप्रभाना अष्कायिक जीवनो उपपात को छे तेम यावत्-सातमी पृथिवीना अकायिकजीवन पण यावद - ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे.' ||६०७|| भगवद् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ९)
आउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए समोह० जे भविए इमीसे रयणप्पभाग पुढवीए घणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उनवजित्तए से णं भंते! सेसं तं चैव एवं जाब आहेसत्तमाए जहा सोहम्मआउकाइओ एवं | जाव ईसिन्भारा आउकाइओ जाव आहेसत्तमाए उबवायव्वो, सेवं भंते ! २ || (सूत्रं ६०८) ।। १७-९ ॥
[प्र० ] हे भगवन ! जे अप्कायिक जीव सौधर्मकल्पमां मरणसमुद्घातने प्राप्त थईने आ रत्नप्रभाना घनोदधिवलयोमा अष्कावि कपणे उत्पन्न भवान योग्य छे, ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [30] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. एम यावत् अधः सप्तम पृथिवी सुधी जाण. जेम सौधर्मकल्पना अष्कायिकनो (नरक पृथिवीमां ) उपपात को तेम यावत् ईषत्प्राग्भार पृथिवीना अच्कायिक
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१७ शतके उद्देवाः८-९ ॥१४४२७
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४
भ्याख्या. प्रजाति ॥१४४३॥
१७ शतके उमेशार. ॥१४॥
जीवनो यावत्-अधःसलम पृथिवी सुधी उपपात कडेचो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ. ॥ ६०८ ॥ भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमां नत्रमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण क्यो.
शतक १७. (उद्देशक १०) वाउक्काइए ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कम्मे वाउक्काइयक्षाए उववजित्तए से णं जहा पुढ विकाइओ तहा धाउकाइओवि नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्धाया पं०, तं०-वेदणासमुग्घाए जाव बेउब्धियसमुग्याए, मारणतियसमुग्घाएणे समोहणमाणे देसेण वा समो० सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समो. हओ ईसिपम्भाराए पचवाएयव्यो, सेवं भंते ! २ (सूत्रं ६०९) ॥ १७-१०॥
[प्र.] हे भगवन् ! जे वायुकायिक जीव आरसप्रभामां मरणसमुद्घातने प्राप्त थइने सौधर्मकल्पमा बायकायिकपणे उत्पनथवाने योग्य ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ.] जेम पृथिवीकायिकसंबन्धे कहेवामा आब्यु छे तेम वायुकायिकसंबन्धे पण जाण. विशेष ए के वायुकायिकने चार समुद्धात होय; अने ते आ प्रमाणे-वेदनासमुद्धात, यावत्-वैक्रियसमुद्घात. ते वायुकायिक मार
णांतिक समुद्घातबडे समवहत थई देशथी समुद्घात करे ये-इत्यादि बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू; यावत्-सातमी नरकपृथिवीमां | समुद्घातने प्राप्त थयेल वायुकायिकनो ईषत्वाम्मारामा उपपात कडेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज .' ६०१
भगवन् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
ॐER
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शतक १७. (उद्देशक ११) व्याख्यावाउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए स०२ जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए तणुवाए
१७शतके प्रज्ञप्तिः
का उद्देशः११ ॥१४४४॥ घणवायवलएसुतणुगयवलएसु बाउकाइयत्ताए उववजेत्तए से णं भंते ! सेसं तं चेव एवं जहा सोहम्मे बाउ
५१४४४॥ काइओ सत्तसुवि पुढचीसु उववाहओ एवं जाव ईसिपम्भाराए वाउचाइओ अहेसत्तमाए जाय उववाएयवो, सेवं भंते!२॥ (सूत्रं ६१०)॥१७-११॥
[प्र.] हे भगवन् ! जे वायुकायिक जीव सौधर्मकल्पमा समुद्घात करी आ रनप्रभा पृथिवीना धनवात, तनुवात, घनत्रातब&लयो के तनुवातवलयोमा वायुकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ.] बाकी वर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवं.
अने जेम सौधर्मकल्पना वायुकायिकनो साते पृथिवीमा उपपात करो ते प्रमाणे यावत्-ई-प्राग्मारा पृथिवीना वायुकायिकनो यावत्-अधःसप्तय पृथिवीपर्यत उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ।। ६१ ॥
__ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीन श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां अगीयारमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक १२) एगिदियाणं भंते! सम्वे समाहारा सच्चे समसरीरा एवं जहा पढमसए वितियउद्देसए पुढविकाइयाणं वित्तव्यया भणिया सा चेव एगिदियाणं इह भाणियव्वा जाव समाउया समोववनगा । एगिदिया णं भंते! क-18
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भ्याख्या प्रज्ञप्ति ॥१४४५॥
| तिलेस्साओ प.?, गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पं०, तं०-कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । एएसिणं भंते ! एगिदि याणं कण्हलेसाणं जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सम्वत्योवा एगिदियाणं तेउलेस्मा काउलेस्मा अणतगुणा
१७ शतके
उरेशा१२ | णीललेस्सा विसेमाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया। एएसिणं भंते ! पगिदियाणं कण्हलेस्सा इड्डी जहेव दीवकु.
१४४५॥ | माराणं, सेवं भंते! २॥ (सूत्र ६११) १७-१२ ॥
[प्र.] हे भगवन् ! बधा एकेन्द्रिय जीवो समान आहारवाळा छ, समान शरीरवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] जेम प्रथम शत-13 कना द्वितीय उद्देशकमां पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही छे तेम अहीं एकेन्द्रियो संबन्धे पण कहेवी. यावत-समान आयुष्यवाळा नथी, तेम साथे उत्पन यता पण नथी. [प्र.] हे भगवन् ! एकेन्द्रियोने केटली लेश्याओ कही छे १ [उ०] हे गौतम ! तेओने चार* लेश्याओ कही है. ते आ प्रमाणे-१ कृष्णलेश्या, यावत्-४ तेजोलेश्या. [म०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला, यावत्-(तेजोलेश्या वाळा ए एकेन्द्रियोमा) कोण कोनाथी यावत् विशेषाधिक! [उ०] हे गौतम ! सौथी थोडा तेजोलेश्यावाळा एकेन्द्रियो थे, तेथी अनंतगुण अधिक कापोतलेश्यावान छे, तेथी विशेषाधिक नीललेश्यावाला छ, अने तेथी विशेषाधिक कृष्णलेश्यावाळा छे. प्र.] हे भगवन् ! ए कृष्ण लेश्यावाला, यावत्-तेजोलेश्यावाला एकेन्द्रियोनी ऋद्धि-सामर्थ्य संबन्धे प्रश्न.-एटले कृष्णलेश्यावाळा यावत्तेजोलेश्याबाळा एकेन्द्रियोमा कोण अल्पऋद्धिवाळो अने कोण महर्षिक छ ? [उ०] जेम द्वीपकुमारोनी ऋद्धि कही ले तेम एकेन्द्रियोनी कडेवी. हे भगवन् ! ते एमज, हे भगवन् ! ते एमज छे. ॥ ६११ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १७ मा प्रतकमां पारमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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CUR
शतक १७. (उद्देशक १३) व्याख्याप्रज्ञप्तिः नागकुमारा णं भंते ! सवे समाहारा जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्देसे तहेव निरवसेसं भाणियब्वं जाव ॥१४४६४ाडीति, सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति ॥ (सूत्रं ६१२) ॥ १७-१३ ।।
०] हे भगवन् ! बधा नागकुमारो समान आहारवाळा -इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम सोळमा शतकना द्वीपकुमार उद्देशकमां कहेवामां आव्यू छे तेम यावत्-ऋद्धि सुधी कहे. 'हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत-विहरे छे. ६१२ |
भगवद सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १७ मा शतकमा तेरमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
१७शतके उमेशः१३
१४ ॥१५४६॥
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शतक १७. (उद्देशक १४) सुवनकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा एवं चेच, सेवं भंते!२॥ (सूत्र ६१३) ॥१७-१४ ।।
[प्र०] हे भगवन् ! बधा सुवर्णकुमारो समान आहारवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] पूर्व प्रमाणे बधुजाणवू. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ।। ६१३ ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १७ मा शतकमां चौदमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्या प्रजाप्तिः ॥१४४७
४/१७ शतके
उमेश:१५
शतक १७. (उद्देशक १५.) विज्जुकुमारा गं भंते ! सम्वे समाहारा एवं चेव, सेवं भंते !२॥ (सूत्रं ६१४) ।। १७-१५॥
[प्र०] हे भगवन् ! वधा विद्युत्कुमारो समान आहारवाला छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे वधुजाणवु 'हे भगवन् ! ते |एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.॥६१४ ॥
भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां पंदरमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
C॥१४४७॥
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शतक १७. (उद्देशक १६) वायुकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा एवं चेव, सेवं भंते ! २॥ (सूत्रं ६१५) ॥१७-१६ ॥
[प्र.] हे भगवन् ! वधा वायुकुमारो समान आहारवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] पूर्व प्रमाणे बधु जाणवु हे भगवन् ! ते एमन छे, हे भगवन् । ते एमज छे. ॥ ६१५ ॥
ममवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमां सोळमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
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व्याख्या प्रज्ञाशिः ॥१४४८॥
शतक १७. (उदेशक १७) अग्गिकुमारा भंते सव्वे समाहारा एवं चेब, सेवं भंते!२॥ (सूत्रं ६१६) १७-१७॥ सत्तरसम सयं समता
उशः१७ [प.] हे भगवन् ! बधा अग्निकुमारी समान आहारवाला छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे पधु जाणवं. हे भगवन् ! ते
IG१५४८॥ एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ॥ ६१६ ॥ भगवत सुधर्मस्त्रामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां सत्तरमा उद्देशनो मूलार्थ
संपूर्ण थयो अने सत्तरमा शतकनी पूर्णाहुति थइ.
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॥ इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे गूर्जरभाषानुवादसहिता
पंचमो भागः समाप्तः ॥
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इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे पंचमो भागः समाप्तः।।
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व्याख्याप्रशसि ॥१३०९ ।।
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श्रमण भगवान् महावीरे ए प्रमाणे कझुं एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक एकदम गुस्से थयो अने श्रमण भगवान् महावीरने अनेक प्रकारना अनुचित वचनोवडे आक्रोश करवा लाग्यो, आक्रोश करीने अनेक प्रकारनी उद्धर्षणा - पराभवना वचनोवडे तिरस्कार करवा लाग्यो, तिरस्कार करी अनेक प्रकारनी निर्भर्त्सना वडे निर्भसित करवा लाग्यो, निर्भर्त्सना करी अनेक प्रकारनी निश्कोटना कर्कश बचनोवडे हलका पाडवा प्रयत्न करवा लाग्यो, अने तेम करी ते गोशालक आ प्रमाणे बोल्यो - "कदाचित - हुं एम मानुं छु के तुं नष्ट थयो छे, कदाचित् विनष्ट थयो छे, कदाचित् भ्रष्ट थयो छे, अने कदाचित् नष्ट, विनष्ट अने भ्रष्ट थयो छे, कदाचित् तु आजे दश नहि, तने माराथी सुख थवानुं नथी”. ॥ ५५२ ॥
ते काले २ समणस्स भगवओ म० अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूती णामं अणगारे पगइ भइए जाव विणीए धस्मायरियाणुरागेणं एयमहं असद्दहमाणे उडाए उट्ठेति उ० २ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवा० २ गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी- जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंति एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति सेबि ताव वंदति नम॑सति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेहयं पज्जुवासइ, किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया चैव पव्वाविए भगवया चैव मुंडाविए भगवया चैव सेहाविए भगवया चैव सिक्खाविए भगवया चैव बहुस्सुतीकए भगवओ वेव मिच्छं विष्पडिवन्ने, तं मा एवं गोसाला !, नारिहसि गोसाला !, सचैव ते सा छाया नो अन्ना, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सब्वाणुभूतिणा अणगारेणं एवं बुत्ते समाणे आसुरुते ५ सव्वाणुभूर्ति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहथं जाव भासरासि करेति, तएर्ण से
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उद्देश :१
॥। १३०९ ॥
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४॥११॥
गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूति अणगारं तवेणं तेएणं एगाह कूडाहच जाव भासरासिं करेत्ता योपि समज्याधणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ जाव सुहं नत्यि। १३१०॥
ते काळे अने ते समये श्रमण भगवंत महावीरना अन्तेवासी-शिष्य पूर्व देशमा उत्पन्न थयेला सर्वानुभूति नामे अनगार भद्र | प्रकृतिना अने यापद विनीत हता. ने पोताना धर्माचार्यना अनुरागथी आ गोशालकनी वातनी अश्रद्धा करता उठ्या, उठीने ज्या
मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्यां आवी मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कधु-" हे गोशालक! जे तेवा प्रकारना श्रमण के बा. अणनी पासे एक पण आर्य-निर्दोष अने धार्मिक सुवचन सामळे छे ने पण तेने वंदन अने नमस्कार करे है, यावत् ते कल्याणकर | अने मंगलकर देवना चैत्यनी पेठे तेनी पर्युपासना करे छे; पण हे गोशालक! तारे माटे तो शुकहे, !!! भगवंते तने दीक्षा
आपी, अर्थात् शिष्यरूपे स्वीकार कयों, भगवंते तने मुंब्या, भगवंते तने प्रतसमाचार शीखन्यो, भगवते तने शिक्षित कयों अने भगवते तने बहुश्रुत कयों, तो पण ते भगवंतनी साथे अनार्यपणुं आदर्यु छे ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, हे गोशालक तुं एम करवाने योग्य नथी. आ तेज तारी प्रकृति छ, अन्य नथी." ए प्रमाणे सर्वानुभूति अनगारे का एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक गुस्से थयो, अने सर्वानुभूति अनगारने पोताना तपना तेजथी एक प्रहारे करी कूटाघात-पाषाणमय यंत्रना आघातनी पेठे बाळी भस्म कर्या. त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालके सर्वानुभूति अनगारने पोताना सपना तेजथी एक पाए कूटाधानी पेठे भमराशि करीने पीजी वार पण श्रमण भगवंत महावीरने अनेक प्रकारनी आक्रोशना वडे आक्रोश को, यावत्-'माराथी तमने मुख थवानुनथी."
तेणं कालेणं२ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसल जाणवए सुणक्खत्ते णाम अणगारे पगह
SARKARIMAR
TECREAM
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उदेश ॥१३११॥
भद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागेणं जहा सब्याणुभूती तहेव जाव सञ्चेव ते सा छाया नो अन्ना । तए णं से
गोसाले मंखलिपुत्ते मुणवत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सुनक्वत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परिप्रावि ॥१२११॥
तावेह, तए णं से सुनक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मस्खलिपुत्तणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे | भगवं महाबीरे तेणेव उवागच्छद २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो२वंदह नमसइ २ सयमेव पंच महम्बयाई आरुमेति स०२ ममणा य समणीओ य खामेह सम०२ आलोइयपडिते समाहिपत्ते आणुपुब्बीए कालगए।
ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान महावीरना अन्तेवासी कोशलदेश-अयोध्यादेशमा उत्पन्न थयेला सुनक्षत्र नामे अनलागार भद्र प्रकृतिना अने यावत्-विनीत हता. ते धर्माचार्यना असुरागथी-इत्यादि जेम सर्वानुभूति संबन्धे का तेम अहिं यावत्
'आ तारी प्रकृति के अन्य नथी' त्यांमृधी कहे; मुनक्षत्र अनगारे ए प्रमाणे का एटले ते मंखलिपुत्र गोशालक अत्यंत गुस्से । थयो, अने सुनक्षत्र अनगारने तेणे तपना तेजधीवाल्या. मंखलिषुत्र गोशालकवडे तपना तेजथी पळेला सुनक्षत्र अनगारे ज्या श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवी श्रमण भगवंत महावीरने प्रणवार प्रदक्षिणा करी वन्दन अने नमस्कार करी खयमेव पांच महाव्रतनो उच्चार करी साधुओ अने साध्वीओने खमान्या, खमाबीने आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थई ते अनुक्रमे काळधर्मने पाम्या.
तए से गोसाले मंखलिपुत्त सुनक्वत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेत्ता तपि समण भगवं महाबीरं उचावयाहिं आउसणाहिं आउसति सव्यं तं चेव जाव सुहं नथि । तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंख-| लिपुत्तं एवं बयासी-जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा तं चेव जाव पज्जुवासेह,
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॥२१॥
LAASHA
www.kobatirth.org किमंग पुण गोसाला! तुम मए चेव मुंडाविए पब्बाधिए मए व जाव भए चेव बहुस्सुईकए मम चेव मिच्छ विप्पडियने,तं मा एवं गोसाला! जाव नो अना, तए णं से गोसाले मंग्वलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुते ५ तेयसमुग्घाएणं समोहन तेया. सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्का २ समणस्स भगवओ
उदेकार
॥११॥ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति, से जहानामए वाउकलियाइ वा वायमंडलियाइ वा सेलंसि वा कुइंसि वा धंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजमाणी वा निवारित्रमाणी वा सा णं तस्येव णो कमति नो पक्कमति8 एवामेत्र गोसालस्सवि मंखलिपुत्तस्स तवे तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स बहाए सरीरगंसि निसिढे समाणे से णं तत्थ नो कमति नो पक्कमति अंचियंचिं करेति अंचि०२ आयाहिणपयाहिणं करेति आ०२ उड्डे वेहासं | उप्पइए, से तओ पडिहए पडिनियत्त समाणे तमेव गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २ अंतो |२ अणुष्पविहे, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं तेएणं अन्नाइहे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं बयासीतुम णं आउसो! कासवा! मम तवेणं तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तजरपरिगयसरीरे दाहच. कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि, तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मखलिपुत्तं एवं बयासी-नो खलु
अहं गोसाला! तव तवेणं तेएण अन्नाइडे समाणे अंतो छण्हं जाव कालं करेस्मामि, अहन्नं अन्नाई सोलस वासाई |जिणे सुहस्थी विहरिस्सामि, तुम णं गोसाला! अप्पणा चे सयेणं तेएणं अन्नाइहे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि,
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उमेशा ॥१३१३॥
त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालक मुनक्षत्र अनगारने तपना तेजथी पाळीने त्रीजीवार श्रमण भगवंत महावीरने अनेक प्रकारना
अनुचित वचनोथी आक्रोश करवा लाग्यो-इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहेवू, यावद-"तने माराथी मुख थवार्नु नथी." त्यारे श्रमण भगप्रालि
का वान् महावीरे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कडं के 'हे गोशालक ! जे तेवा प्रकारना श्रमण अने ब्राह्मणर्नु [आर्य अने धार्मिक
मुबचन सांभळे छे-इत्यादि] पूर्वोक्त कहे, ते तेनी यावत्-पर्युपासना करे छे, तो हे गोशालक! तारे माटे तो शु को!! में तने प्रवज्या आषी, यावत्-में तने बहुश्रुत कर्यो, अने ते मारी साधे मिथ्यात्व-अनार्यपणुं आदयु के. ते माटे हे गोशालक ! एम नहि कर, यावत्-ते आ तारीज प्रकृति छ, अन्य नथी.' श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कडं एटले ते मखलिपुत्र गोशालक अत्यंत गुस्से थयो, अने तेजस समुद्घात करी, सात आठ पगला पाछो खसी तेणे श्रमण भगवंत महावीरनो वध करवा माटे शरीरमांथी तेजोलेश्या बहार काढी. जेम कोह बातोत्कलिका [जे रही रहीने वायु वाय ते] के बंटोळीओ होय ते पर्वत, भीत, स्तंभ, के स्तूपवडे आवरण करायेलो के निवारण करायेलो होय तो पण तेने विषे समर्थ यतो नथी, विशेष समर्थ थतो नथी, ए प्रमाणे मंख लिपुत्र गोशालकनी तपोजन्य तेजोलेश्या श्रमण भगवंत महावीरनो वध करवा माटे शरीरमाथी बहार काढथा छतां तेने विषे समर्थथती नथी, विशेष समर्थ थती नथी, पण गमनागमन करे , गमनागमन करीने प्रदक्षिणा करे छ, प्रदक्षिणा करी उंचे आकाशमा
उछळे छे, अने त्यांची स्वलित थईने पाछी फरती तपोजन्य तेजोलेश्या मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने पाळती वाळती तेना शरीकरनी अंदर प्रविष्ट थाय छे. त्यारवाद पोवानी तेजोलेश्यावडे परामवने प्राप्त थयेला मंखलिपुत्र गोशालके श्रमण भगवंत महावीरने
आ प्रमाणे को-'हे आयुष्मन् काश्यप! मारी तपोजन्य तेजोलेश्याथी पराभवने प्राप्त थई छ मासने अन्ते पिचज्वरयुक्त शरीर के।
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१५वके उमेवार
8॥११॥
जेनुं एवो तुं दाइनी पीडाथी छमस्थ अवस्थामा काळ करीश.' त्यारे श्रमण भगवंत महावीरे मखलिपुत्र गोशालकने ए प्रमाणे कयु व्याख्या-16
के 'हे गोशालक! तारी तपोजन्य तेजोलेश्याथी पराभव पामी छ मासने अन्ते यावत्-काळ करीश नहिं, पण पीजा सोळ वरस प्राप्ति २१॥
& सुधी जिन-तीर्थकरपणे गन्धहस्तीनी पेठे विचरीश, परन्तु हे गोशालक! तुं पोतेज तारा तेजथी पराभव पामी सात रात्रिने अन्ते |पिसज्वरथी पीडित शरीरवाळो थई छमस्थावस्थामा काळ करीश.'
तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ जाव एवं परूवेह, एवं दाखलु देवाणुपिया! सावस्थीए नगरीए बहिया कोहए चेहए दुवे जिणा संलवंति, एगे बयति-तुमं पुयि कालं
करेस्ससि, एगे वदति-तुमं पुदि कालं करेस्समि, तन्थ ण के पुण सम्मावादी ? के पुण मिच्छावादी, तस्थ णं जे से अहप्पहाणे जणे से बदति-समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले मंस्खलिपुत्ते मिच्छावादी, अज्जोति समणे भगवं महावीरे ममणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं बयासी-अनो! से जहानामए तणरासीइ वा कट्टरासीइ वा पत्तरासीह वा तयारासीइ वा तुसरासीइ वा बुसरासीइ वा गोमयरासीइ वा अवकररासीइ वा अगणिझामिए अगणिभूसिए अगणिपरिणामिए हयतेये गयतेये नहतेये भट्टतेये लुत्ततेएविणहतेये जाव एवामेव गोसाले मखलिपुत्ते मम वहाए सरीरंगसि तेयं निसिरेत्ता हयतेये गयतेये जाव विणट्टतेये जाए, तं देणं अजो! तुझे गोसाल मंग्वलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह धम्मि०२ धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह धम्मि. र धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह धम्मिा २ अडेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य कारणेहि य
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१५सके | उद्देशान ॥१३१५॥
GORAK
९ निप्पट्ठपसिणवागरण करेह,
त्यार पछी श्रावस्तीनगरीमा शृंगाटकना आकारवाळा त्रिकोण मार्गमा यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्पर आ प्रमाणे कहे के, यावत्-आ प्रमाणे प्ररूपे छ-"हे देवानुप्रियो ! ए प्रमाणे खरेखर श्रावस्तीनगरीनी बहार कोष्ठक चैत्यने विषे वे जिनो परस्पर कहे छे, तेमा एक आ प्रमाणे कहे छ के 'तुं प्रथम काळ करीश' अने बीजा एम कहे के के 'तुं प्रथम काळ करीश.' तेमा कोण सम्यग्वादी-सत्यवादी छे, अने कोण मिथ्यावादी छ ? तेमां जे जे प्रधान-मुख्य माणसो छे ते बोले छे के श्रमण भगवान् महावीर सम्यग्रवादी थे, अने मंखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी के." श्रमण भगवान् महावीरे 'हे आर्यो ।' ए प्रमाणे निर्ग्रन्थोने बोलावी एम को के हे 'पार्यो : जेम कोई तृणनो कोइ काष्ठनो राशि, पांदडानो राशि, त्वचा-छालनो राशि, तुष-फोतरानो राशि, सुसानो रात्रि, छाणनो राशि, अने कचरानो राशि अनिथी दग्ध थयेलो, अप्रिथी युक्त अने अग्निथी परिणमेलो होय तो ते जेनुं तेज हणायु के, जेनुं तेज गयेलुं छे, जेनुं तेज नष्ट थयु के, जेन तेज भ्रष्ट थयुं छे, जेनुं तेज लुप्त थयेलुं अने जेर्नु विनष्ट थयेखें के एवो यावत्-थाय, ए प्रमाणे मखलिपुत्र गोशालक मारो वध करवा माटे शरीरमाथी तेजोलेश्या बहार काढीने जेनुं तेज हणायु के एवो, तेजरहित अने यावत-विनष्टतेजवाळो थयो छेमाटे हे आर्यों ! तमारी इच्छाथी तमे मखलिपुत्र गोशालकनी साथे धार्मिक प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचन कहो, धार्मिक प्रतिचोदना करी धार्मिक प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूलपणे विस्मृत अर्थन संस्मरण करावो, धार्मिक प्रतिसारणा करी धार्मिक वचनना प्रत्युपचारवडे प्रत्युपचार करो, तेमज अर्थ-प्रयोजन, हेतु, प्रश्न, व्याकरण-उत्तर अने कारण वडे पूछेला प्रश्ननो उत्तर न आपी के तेम निरुत्तर करो'.
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का तए णं ते समणा निग्गंधा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समण भगवं महावीर ६ वदति नमसंति वं. न. जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेद उवागच्छति तेणेव २ गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए
१५शतके प्राप्ति ॥१३१६॥
है पडिचोयणाए पडिचोएति ध०२ धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेति ध०२ धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति ध.२ अटेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव वागरणं वागरेंति । तए णं से गोमाले मंग्वलिपुत्ते समणेहिं निग्गं
3॥१३१६॥ पाथेहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोतिजमाणे जाव निप्पट्टपसिणवागरणे कीरमाणे आसुरुत्ते जाव मिसि | मिसेमाणे नो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाषाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेदं वा करेत्तए, तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मखलिपुत्तं समणेहिं निम्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोए. जमाणं धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाणं धम्मिएणं पडोयारेण य पडोयारिजमाणं अढेहि य हेहि य जाव कीरमाणं आसुरुत्तं जाच मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंधाणं सरीरगस्स किंचिवि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाण पासंति पा- २ गोसालस्म मखलिपुत्तस्स अंतियाओ आयाए अवमंति आयाए अवकमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति ते. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ० २ बंदंति नमं० २ समर्ण भगवं महावीरं उवसंपन्जित्ताणं विहरंति, अस्थेगइया आजीविया थेरा गोसाल चेव मंखलिपुत्तं उवसंपबित्तार्ण विहरति ।
ज्यारे श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कडं त्यारे ते श्रमण निर्ग्रन्थो श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे. वंदन-15
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१९ गोशार
१३१
नमस्कार करी ज्यां गोशालक मंखलिपुत्र के त्या आवी मंखलिपुत्र गोशालकने धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल वचनो व्याख्या
PI कहे छे, धर्मसंबन्धी प्रतिचोदना करी धार्मिक प्रतिसारणा-तेना मतने प्रतिकूलपणे अर्थन स्मरण करावे छे, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा
होकरी धर्मसंबन्धी वचनना प्रत्युपचारवडे प्रत्युपचार करे छे बने अर्थ-प्रयोजन, हेतु अने कारणवडे यावत-नेने निरुत्तर करे छे, १३१७॥
त्यार बाद श्रमण निन्थोए धार्मिक प्रतिचोदना-तेना मतथी प्रतिकूल प्रश्नो करी अने यावत्-तेने निरुत्तर कयों एटले मंखलिपुत्र
गोशालक अत्यन्त गुस्से थयो अने यावत्-क्रोधथी अत्यंत प्रज्वलित थयो, परन्तु श्रमण निर्ग्रन्थोना शरीरने कहपण पीटा के ४ उपद्रव करवाने तथा तेना कोई अश्यवनो छेद करवाने समर्थ न थयो, त्यारपछी आजीविक स्थविरो श्रमण निन्थो वडे धर्म-18
संबन्धी तेना मतथी प्रतिकूलपणे कडेवायेला, धर्मसंबन्धी प्रतिसारणा-तेना मतथी प्रतिकूलपणे स्मरण करावायेला, अने धर्मसंपन्धी प्रत्युपचारवडे प्रत्युचार करायेला तथा अर्थ अने हेतुथी यावत्-निरुत्तर करायेला, अत्यन्त गुस्से करायेला, यावत् क्रोधथी चळता, श्रमण अने निर्ग्रन्थना शरीरने कइपण पीडा-उपद्रव के अवयवोना छेद नहि करता रवा मंखलिपुत्र गोशालकने जोइने तेनी पासेथी पोते नीकळ्या, अने त्यांथी नीकळी ज्या श्रमण भगवंत महाबीर के त्या आल्या, त्यां आबीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी, वांदी अने नमीने श्रमण भगवान महावीरनो आश्रय करी दिहरवा लाग्या, अने केटलाएक आजीविक खविरो मंखलिपुत्र गोशालकनोज आश्रय करी विहरवा लाग्या.
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्टाए हव्यमागए तमटुं असाहेमाणे रुंदाई पलोएमाणे दीहुण्हाई नीसासमाणे वाढियाए लोमाई हुँचमाणे अवई कंड्यमाणे पुलिं पष्फोरेमाणे हत्थे विणिधुणमाणे दोहिवि पाएहिं
कसक
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व्याक्याप्रज्ञातिः
॥१३२८॥
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भूमि कोडेमाणे हा हा अहो ! हओऽहमस्सीतिक समणस्स भ० महा० अंतियाओ कोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिक्खमति प० २ जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेध उबागच्छ ते० २ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अंबकूणगहत्थगए मजपाणगं पियमाणे अभिक्खणं गायमाणे अभिक्खणं नचमाणे अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे सीयलपणं महियापाणएणं आयंचणिउदरणं गायाई परिसिंचमाणे विहरति (सूत्रं ५५३ ) ॥
त्यारबाद मंखलिपुत्र गोशालक जेने माटे शीघ्र आव्यो हतो ते कार्यने नहि साधतो, दिशाओ तरफ लांबी दृष्टिथी जोतो, दीर्घ अने उष्ण नीसासा नांखतो, दाढिना वाळने खेचतो, अवटु-डोकनी पाछळना भागने खजवाळतो, पुतप्रदेशने प्रस्फोटित करतो, हस्तने हलावतो अने बन्ने पगवडे भूमिने कूटतो, 'हा हा ! अरे । हुं हणायो छु'- एम विचारी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने कोष्ठक चैत्यथी नीकळी ज्यां श्रावस्ती नगरी छे, अने ज्यां हालाहलानामे कुंभारणनुं कुंभकारापण-हाट के त्यां आव्यो, त्यां आवीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणमां जेना हाथमां आम्रफल रहेलं छे एवो, मद्यपान करतो, वारंवार गातो, वारंवार नाचतो, वारंवार हालाहला कुंभारणने अंजलि करतो अने माटीना भाजनमां रहेला शीतल माटीना पाणीवडे गात्रने सींचतो विहरे छे. ॥ ५५३ ॥
अजोति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंधे आमंतेत्ता एवं वयासी - जावतिए णं अज्जो । गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं ममं बहाए सरीरगंसि तेथे निसट्टे से णं अलाहि पज्जते सोलसण्हं जणवयाणं, तं०-अंगाणं वंगाणं मगहाणं मलयाणं मालवगाणं अस्थाणं वत्थाणं कोस्थाणं पाढाणं लाढाणं बज्राणं मोलीणं कासीणं कोसलाणं
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१५ के उद्देशः१
॥१३१८॥
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प्रवामिः १३१९॥
BABPM
अवाहाणं सुंभुत्तराणं घाताए वहाए उच्छावणयाए भासीकरणयाए, जंपिय अज्जो! गोसाले मंस्खलिपुत्ते हालाह-II लाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंवकूणगहत्थगए मजपाणं पियमाणे अभिक्खणं जाव अंजलिकम्मं करेमाणे
१५ विहरह, लस्सवि य ण बनस्स पच्छादणट्ठयाए इमाइं अट्ठ चरिमाइं पन्नवेति, तंजहा-चरिमे पाणे चरिमे गेये
उमेशा चरिमे नहे चरिमे अंजलिकम्म चरिमे पोक्खलसंबद्दए महामेहे चरिमे सेयणए गंधहस्थी चरिमे महासिलाकंटए संगामे अहं च ण इमीसे ओसप्पिणीए समाए चउवीसाए तित्थकराणं चरिमे तित्थकरे सिज्झिस्सं जाव अंतं करेस्संति, जंपि य अजो! गोसाले मखलिपुत्ते सीयलएणं महियापाणएण आयंचणिउदएणं गायाई परिसिंच. माणे विहरह तस्सवि य णं वनस्स पच्छादणट्ठयाए इमाई चत्तारि पाणगाई पनवेति, से किं तं पाणए ?, पाणए चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-गोपुट्ठए हस्थमदियए आयवतत्तए सिलापम्भट्ठए, सेत्तं पाणए, | 'हे आर्यो।' एम कहीने श्रमण भगवान् महावीरे श्रमण निर्ग्रन्थोने आमंत्रीने ए प्रमाणे कयु के हे आर्यों! मंखलिपुत्र गोशालके मारो वध करवा माटे शरीरथकी तेजोलेश्या काढी हती, ते आ प्रमाणे-१ अंग, २ बंग, ३ मगध, ४ मलय, ५ मालक, ६ अच्छ, ७ वत्स, ८ कौत्स, ९ पाट, १० लाट, ११ वन, १२ मौली, १३ काशी, १४ कोशल, १५ अबाध अने १६ संभुक्तर|ए सोळ देशनो घात करवा माटे, वध करवा माटे, उच्छेदन करवा माटे, भस करवा माटे समर्थ हती, वळी हे आर्यों मखलिपुत्र गोशालक हालाहला कुंभारणना कुंमकारपणमां आम्रफल हाथमा ग्रहण करी मद्यपान करतो, वारंवार यावत्-अंजलिकर्म करतो विहरे छे ते अवद्य-दोषने प्रच्छादन-ढांकवा माटे आ आठ चरम-छेल्ली वस्तु कहे . ते आ प्रमाणे-१ चरम पान, २ चरम गान,
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प्रशासि १३२०॥
नाSAGARORA
३ चरम नाब, ४ चरम अंजलिकर्म, ५ चरम पुष्कल संवत महामेष, ६ चरम सेचनक गन्धहस्ती, ७ चरम महाशिलाकंटक संग्राम अने ८ हुं आ अवसर्पिणीमा चोवीश तीर्थकरोमा चरम तीर्थकरपणे सिद्ध थईश, अने यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करीश'. बळी हे आर्यो! मंखलिपुत्र गोशालक माटीना पात्रमा रहेला माटीमिश्रित शीत पाणीवडे शरीरने सींचतो विचरे छे ते अवधने पण ठोकार ढाकवाने माटे आ चार प्रकारना पानक-पीणां अने चार नहि पीवा योग्य (शीतल अने दाहोपशमक) अपानक जणावे - ॥१३२०॥ म.] पाणी केटला प्रकारे कयुं छे ? [उ.] पाणी चार प्रकारे कर्जा थे, ते आ प्रमाणे-१ गायना पृष्ठथी पडेलं, २ हाथथी मसळेलं. सूर्यना तापथी तपेलु, अने ४ शिलाथी पडेटु. ए प्रमाणे पाणी का. | से किं तं अपाणए?, अपाणए चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-धालपाणए तयापाणए सिंपलिपाणए सुद्धपाणए, | से किं तं थालपाणप?, २ जणं दाथालगं बा दावारगं वा दाकुंभगं वा दाकलसं वा सीयलगं उल्लगं हत्थेहि | परामुसह न य पाणियं पियह सेत्तं धालपाणए, से किं तं तयापाणए!, २ जण अंचं वा अंबागं वा जहा पओगपदे जाव बोरं वा तिंदुरुयं वा तरुयं वा तरुणगं वा आमगंवा आमगंसि भावीलेति वा पवीलेति वा न य पाणियं पियह सेत्तं तयापाणए, से किं तं सिबलिपाणए ?, २ जपणं कलसंगलियं वा मुग्गसंगलियं वा माससंगलियं वा सिंबलिसंगलियं वा तरुणियं आमियं आसगंसि आवीलेति वा पचीलेति वा ण य पाणियं पियति सेत्तं सिंबलिपाणए, से किं तं सुद्धपाणए ?, सु. जण्णं छम्मासे सुद्ध खाइमं खाइति दो मासे पुढविसंथारोचगए दो मासे कट्ठसंथारोवगए दो मासे दम्भसंथारोषगए, तस्स णं बहुपडिपुत्राणं छहं मासाणं अंतिमराइए इमे दो 31
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देवा महड़िया जाव महेसावा अंतियं पाउम्भवंति, तं०-पुषभद्दे य माणिभद्दे थ, तए णं ते देवा सीयलएहिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामुर्मति जेणे ते देवे साइजति से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेति जेणं ते देवे
१५ अGि नो साइजति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति, से णं सएणं तेषणं मरीरगं झामेति स.२तओ
Gउद्देशा
॥१३२१॥ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति, सेत्तं सुद्धपाणए।
[.] अषानक केटला प्रकारे के? [उ०] अपानक चार प्रकारे छे, ते आ प्रमाणे-१ स्थालनु पाणी, २ वृक्षादिनी छालन पाणी, ३ शीगोनुं पाणी अने ४ शुद्ध पाणी (देवहस्तना स्पर्शनुं पाणी.) [प्र.] स्थालपाणी केवा प्रकारे कबुछे? [उ.] जे उदकथी मीजायेलो स्थाल, पाणीथी भीनो वारक-करवडो, पाणीथी भीनो मोटो घट, पाणीथी मीनो न्हानो घर, अथवा पाणीथी भीना माटीना वासण, तेनो हाथथी स्पर्श करे पण पाणी न पीए ते स्थालपाणी, र प्रमाणे स्वालपाणी कधु[म.] त्वचापाणी केवा प्रकारचें के ? [उ.] जे आंबो अंबाडग-इत्यादि प्रथोमपदमा कडा प्रमाणे यावद-बोर तिंदुरुक सुधी जाणवा, ते तरुण-अपक अने आम-काचा होय, तेने मुखमा नांखी थोडुं चावे, विशेष चावे, पण पाणी न पीए ते त्वचापाणी. ए प्रमाणे त्वचापाणी को. [प्र०] शीगोनू पाणी केवा प्रकारर्नु ? [उ.] जे कलायसिंबली-वटाणानी शींग, मगनी भींग, अडदनी शीग के किंवलीनी शींग वगेरे तरुण-अप अने आम-काची होय तेने मुखमां थोडे चावे के विशेष चावे, पण तेनुं पाणी न पीए ते धींगोनू पाणी कहेवाय, ए प्रमाणे शीगनुं पाणी क . [प्र.] शुद्ध पाणी केवा प्रकारच्छे १ [उ.] जे छ मास सुधी शुद्ध खादिम आहारने खाय, | तेमांवे मास सुधी पृथिवीरूप संस्तारकने विषे रहे, वे मास मुधी लाकडाना संस्तारकने विषे रहे. अनेबे मास मधी दर्भना संस्तारकने
R
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प्राप्ति MIRROT
AMERASHRESTHABAR
www.kobetth.org विषे रहे, तेने बरोबर पूर्ण बयेला छ मासनी छेल्ली रात्रीए महर्दिक बने यावत् महासुखवाला दे देवो तेनी पासे प्रगट थाय, ते आ प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्र; त्यारपछी ते देवो शीतल अने आई हस्तवडे शरीरना अवयवोनो स्पर्श करे, हवे जे ते देवाने अनुमोदे, एटले तेना आ कार्यने साहं जाणे ते आशीविषपये कर्म करे, जे ते देवोने न अनुमोदे, तेना पोताना शरीरमा अनिकाय उत्पन्न याय, अने ते पोताना तेजवडे शरीरने बाळे, अने त्यारपडी ते सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करे, ते शुद्ध पानक कडेवाय. ए प्रमाणे शुद्ध पानक क.
तत्थ णं सावत्थीए नयरीए अयंपुले णामं भाजीविओवासए परिवसइ अढे जाव अपरिभूए जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अभया कदायि पुत्ररत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुनजागरिय जागरमाणस्स अयमेपारवे अम्भत्थिए जाच समुप्पज्जित्था-किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता, तए णं तस्स अयं पुलस्स आजीविओवासगस्स दोचपि अयमेयासवे अम्भत्थिए जाव समुप्प-14 जित्था-एवं खलु मम धम्मायरिए धम्मोपदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पन्ननाथदसणधरे जाव सम्वन्नू सव्वदरिसी इहेव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिखुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरह, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते गोसालं मखलिपुत्तं वंदित्ता जाब पज्जुवासेत्ता इम एयारूवं वागरण वागरित्तएतिकट्ट एवं संपेहेति एवं०२ कल्लं जाब जलते पहाए कयजाव अप्पमहग्याभरणालंकिय सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति सा०२ पायविहारचारेणं सावधि नगरिं मज्झमझेणं जेणेव हालाहलाए
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पाल्वा
१५सके
कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवाग०२ पासइ गोसालं मखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगयं जाव अंजलिकम्मं करेमाणं, सीधलएणं मट्टिया जाव गायाइं परिसिंचमाणं पासह २ लजिए विलिए विड़े सणिय २ पच्चोसकर, तए णते आजीवियाथेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पच्चोसकमाणं
दिशा
१३२३४ पासह पा. २ एवं वयासी-एहि ताव अयंपुला! पत्तओ, तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीवियथेरेहिं एवं वुत्ते समाणे जेणेव आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छह तेणेव. २ आजीविए थेरे वंदति नमसति २ नच्चासन्ने जाव पज्जुवासह, अयंपुलाइ आजीविया थेरा अयं पुलं आजीवियोवासगं एवं ०-से नूणं ते अयंपुला! पुष्धरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता, तए णं तव अयंपुला! दोचंपि अयमेया. तं चेव सवं भाणियब्वं जाव सावधि नगरिं मज्झमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव इहं तेणेव हामागए, से नूणं ते अयंपुला! अढे समढे!, हंता अस्थि, जंपि य अयंपुलातब धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंस्खलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए जाव अंजलि करेमाणे विहरति तत्थवि णंटू | भगवं इमाई अट्ठ चरिमाइं पनवेति, तं०-चरिमे पाणे जाव अंतं करेस्सति, जंपिय अयंपुला! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंग्वलिपुत्ते सीयलएण महिया जाव विहरति तस्थवि णं भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई चत्तारि अपाणगाई पनवेति, से किं तं पाणए? २ जाव तो पच्छा सिज्मति जाव अंतं करेति, तं गच्छणं तुम अयंपुला ! एस चैव तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते इम एपारूवं वागरणं वागरेहिति,
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प्राप्तिः
SOHABICAENISHAD
www.kabatirth.org ते श्रावस्ती नगरीमा अयंपुलनामे आजीविकमतनो उपासक-श्रावक रहेतो हतो. ते धनिक, यावत-कोइयी पराभव न पामे तेवो अने हालाहला कुंभारणनी पेठे यावत्-आजीविकना सिद्धान्तवडे आत्माने भावीत करतो विहरतो हतो. त्यापछी ते अयंपुलनामे
कार है आजीविकोपासकने अन्य कोई दिवसे कुटुंबजागरण करता मध्यरात्रिना समये आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन्न भयो के उद्देशा "केवा आकारे (कीटविशेष) कहेली ?" त्यारपछी ते अयंपुलनामे आजीविकोपासकने बीजीवार आवा प्रकारनो आ संकल्प उत्पन्न
॥१३२० थयो के "ए प्रमाणे व रेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक उत्पन थयेला ज्ञान-दर्शनने धारण करनारा, यावत् सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे, तेओ आज श्रावस्ती नगरीमा हालाइला कुंभारणना कुंभकारापण-हाटमां आजीविकसंघसहित आजीविकना सिद्धान्तवडे आत्माने भावित करता विहरे छे. ते माटे मारे आवती काले यावत्-सूर्योदय थये मंखलिपुत्र गोशालकने वंदन करी, पर्युपासना करी आवा प्रकारनो आ प्रश्न पूछवो श्रेयरूप छे"-एम विचारी काले यावत्-सूर्योदय थये स्नान करी, पलिकर्म करी, अल्प अने महामूल्य आभरणवडे शरीरने अलंकृत करी, पोताना घर थकी बहार नीकळी, पगे चाली, श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमा थई, ज्यां हालाहला नामे कुंभारण- कुंभकारापण , त्यां आवी ते हाल इला नामे कुंभारणना कुंभकारापणमा जेना हाथमां आम्रफल रहेल के एवा यावत्-हालाहला कुंभारणने अंजलिकर्म करता अने शीतल माटीमिश्रित जलवढे यावत्-शरीरना अवयवने सिंचता मंखलिपुत्र गोशाककने जुए छ; जोइने ते लज्जित, विलखो अने वीडित थई धीमे धीमे पाछो जाय छे. त्यारपछी
ते आजीविक स्थविरोए लजित यावत्-पाछा जता आजीविकोपासक अयं पुलने जोई ए प्रमाणे कडं-'हे अयंपुल ! अहिं आव. का ज्यारे आजीविक स्थविरोए १ प्रमाणे का त्यारे ते अयंपूल ज्यां आजीविक स्थविरो हता त्यां आव्यो, जने त्यां आवी आजीविक151
करून
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सविरोने चंदन-नमस्कार करी अत्यन्त पासे नहि तेम अत्यंत दूर नहि एम बेसी पर्युपासना करवा लाग्यो. 'हे अयंपुल। एमा कही आजीविक स्थविरोए आजीविकोपासक अयघुलने ए प्रमाणे कहा-“हे अयंपुल । खरेखर तने मध्यरात्रिना समये याव-केवा
१५क्तके आकारवाळी हल्ला कहेली के ? ( एवो संकल्प थयो हतो!) त्यारपछी तेने बीजीवार आचा प्रकारको आ संकल्प थयो हतो?
P॥१३१५॥ इत्यादि पूर्वोक्त सर्व कहे, यावत्-श्रावस्ती नगरीना मध्यभागमा ज्यां हालाहला कुंभारण- कुंभकारापण के अने ज्या आखाम के, त्या तुं शीघ्र आग्यो. हे अयंपुल! खरेखर आ वात सत्य? हा सत्य के. हे अयं पुल! चळी तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणामां आम्रफल हाथमां लइ यावत्-अंजलि करता विहरे छे, तेमां पण ते भगवान आठ चरमनी प्ररूपणा करे छे. ते आ प्रमाणे-१ चरमपानक०, थावत् सर्व दुःखनो अन्त करशे. वळी हे अयंपुल! तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक शीतल माटीना पाणीवडे यावत-शरीरने छांटता यावद-विहरे छे, तेमां पण ते भगवान् चार पानक अने चार अपानक प्ररूपे के. पानक केवा प्रकारे छ ? यावत्-त्यारपडी ते सिद्ध थाय थे, यावत्'सर्व दाखोनो अन्त करे .' ते माटे हे अयंपुल! तुंजा, अने आ तारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक मखलिपुत्र गोशालकने मावा प्रकारनो आ प्रश्न पछजे.'
तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहिं थेरेहिं एवं पुत्ते समाणे हद्वतुढे उहाए उद्वेति उ०२ | जेणेव गोसाले मंस्खलिपुत्ते तेणेव पहारेत्य गमणाए, तए णं आजीविया येरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंबणगएडावणयाए एगंतमंते संगारं कुव्वा, तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते आजीषियाणं घेराणं संगारं पनि
FIRS
M
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१५पात
१३२५॥
सं २ अंबकूणगं एगंतमंते एडेइ, तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवाग प्राप्ति
६ तेणेव० २ गोसालं मखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासति, अयंपुलादी गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियो॥२६॥
वासगं एवं वयासी-से नूणं अयंपुला! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हव्वमागए, से नूर्ण अयंपुला! अढे समझे?, इंता अस्थि, तं नो खलु एस अंबकूणए, अंबचोयए णं एसे, किंसठिया हल्ला पन्नत्ता, वंसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता, वीणं वाएहि रे वीरगा वी०२, तए णं से अपुले आजीवियोवासए गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं बागरणं वागरिए समाणे हद्वतुढे जाव हियए गोसालं मखलिपुत्तं वं० न०२पसिणाई पु. प. २ अट्ठाई परियादियइ अ०२ उट्ठाए उद्वेति उ०२ गोसालं मखलिपुत्तं वं. न. २ जाव पडिगए। ___ त्यारबाद ते अयंपुल आजीविक स्थविरोए ए प्रमाणे कर्जा एटले हृष्ट अने संतुष्ट थई उठ्यो, उठीने ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्यां जवा तेणे विचार कयों. त्यारे ते आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकने आम्रफल एक स्थळे मुकाववा माटे संकेत
कर्यो. त्यारवाद ते मंखलिपुत्र गोशालक आजीविक स्थविरोनो संकेत जाणी आम्रफलने एक स्थळे मूके छे. त्यारपछी ते आजीवि४. कोपासक अर्थपुल ज्यां मंखलिपुत्र गोशालक हतो त्या आवी मंखलिपुत्र गोशालकने त्रणवार प्रदक्षिणा करी यावत्-पर्युपासना करे
के. 'हे अयंपुल ! ए प्रमाणे कही मंखलिपुत्र गोशालके आजीविकोपासक अयंपुलने आ प्रमाणे कहा-अयंपुल ! खरेखर तने मध्यरात्रिना समये यावत्-तने संकल्प थयो हतो, अने ज्यां हुँ छ त्यां मारी पासे तुं शीघ्र आग्यो, हे अयंपुल! खरेखर आ बात सत्य के' हा सत्य छे. ते माटे खरेखर आ आम्रनी गोटली नथी, परन्तु ते आम्रफलनी छाल दे. "केवा आकारवाळी हल्ला होय "
AAAAABASAHASHA
AAMAHAGAON
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ARRI
[आवो जे संकल्प थयो हतो तेना उत्तरमां] बांसना मूलना आकार जेवी हल्ला होय . [वळी बच्चे गोशालक उन्मादमा कहे छे] "हे वीरा! चीणा वगाड, हे वीरा। वीणा वगाड." त्यारवाद मंखलिपुत्र गोशालके आवा प्रकारनो आ प्रश्ननो उत्तर आप्यो
१५शतके एटले प्रसन-संतुष्ट अने जेनु चित्त आकर्षित छे एवो आजीविकोपासक अयंपुल मखलिपुत्र गोशालकने बंदन-नमस्कार करी
V१३९०० प्रश्नो पूछे छे, प्रश्नो पूछीने अर्थ ग्रहण करे छ, अर्थ ग्रहण करी उठी (पुनः ) मंखलिपुत्र गोशालकने वंदन अने नमस्कार करी यावत्-ते (स्वस्थानके) पाछो जाय के.
तए ण से गोसाले मंस्खलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएड २ आजीविए थेरे सहावेह आ० २ एवं वयासीतुझे णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणेत्ता सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेह सु०२ पम्हलसुकुमालाए गंधका साईए गायाई लुहेह गा० २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपह स०२ महरिहं हंसलवणं पडसाडगं नियंसेह मह २ सवालंकारविभूसियं करेह स.२ पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दूरूहेह पुरि०२ सावत्थीए नयरीए सिंघाडगजानपहेसु महया महया स हेणं उग्रोसेमाणा एवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तिस्थयराणं चरिमे तिस्थयरे सिद्धे जाव सव्वदुक्खापहीणे इडिसकारसमुदएणं मम सरीरगस्म णीहरणं करेह, तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमढे विणएणं पडिमुणेति (सूत्रं ५५४) ।
त्यारपाद मंस्खलिपुत्र गोशालके पोता मरण (नजीक) जाणीने आजीविक स्थविरोने बोलान्या, अने बोलावी तेणे ए प्रमाणे
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प्रातिः २०१८॥
शतक मेवार २३२८॥
TAGRECORAKASHA
www.kobatirth.org {-'हे देवानुप्रियो । ज्यारे मने कालधर्म प्राप्त बयेलो जाणो त्यारे सुगंधी गन्धोदकवडे स्नान करावजी, स्नान करावी लावाला अने सुकमाल गन्धकापाय (सुगंधी भगवा) बलवडे शरीरने साफ करजो, शरीरने साफ करी सरस गोशीर्षचन्दनवडे शरीरने विलेपन करजो, विलेपन करी महामूल्य हंसना चिहवाळा पटशाटकने पहेरावजो, पहेरावी सर्वालंकारथी विभूषित करजो, विभूषित करी | हजार पुरुषोषी उपाढया लापक शीविकामां बेसाडजो, शीविकामां बेसाडी श्रावस्ती नगरीमा अंमाटकना आकारवाला यावत्-राज- मार्गमा मोटा मोटा शब्दयी उद्घोषणा करता आ प्रमाणे कहेजो-"ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रियो । मखलिपुत्र गोशालक जिन, जिनप्रलापी, यावद-जिनभन्दने प्रकाश करता विहरीने आ अवसर्पिणीना चोवीश तीर्थकरोमां छेल्ला तीर्थकर थईने सिद्ध थया, यावत्-सर्वदुःखरहित थया-आ प्रमाणे ऋद्धि अने सत्कारना समुदायथी मारा शरीरने बहार काढजो." त्यारे ते आजीविक स्थविरोए मंखलिपुत्र गोशालकनी ए वातनो विनयपूर्वक स्वीकार कयों. ॥५५४ ॥
तए णं तस्स गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अ. म्भस्थिए जाव समुप्पजिस्था-णो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसर पगासेमाणे विहरंति, अहं गं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए समणमारए ममणपडिणीए आयरियउबझायाणं अयसकारए अवनकारए अकित्तिकारए पहहिं असम्भावुम्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे विहरित्ता सएणं तेएणं अन्नाइडे समाजे अंतो सत्सरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे वाहवकंतीए छउम स्थे चेव कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, एवं संपे.
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बा१५ शतके
लहेति एवं संपेहित्ता आजीविए थेरे सद्दावेह आ०२ उच्चावयसवहसाबिए करेति उच्चा०२ एवं वयासी-नो खलु व्याख्या
| अहं जिणे जिणप्पलावी जाच पकासेमाणे विहरंति, अहन्नं गोसाले मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव ॥१३२९॥ कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, तंतुझे णं देवाणु-18३२९॥
| प्पिया! ममं कालगयं जाणेत्ता बामे पाए मुंबेणं बंधह वा०२तिक्खुत्तो मुहे उत्रुहह ति०९ सावस्थीए नगशरीए सिंघाडगजाब पहेसु आकडिविकिडिं करेमाणा महया २ सद्देणं उग्रोसेमाणा उ• एवं बदह-नो खलु देवा
गुप्पिया! गोसाले मंस्खलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाच विहरिए, एसणं गोसाले चेव मंग्वलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगण, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाच विहरह महया अणिडीअसक्कारस. मुदएणं मम सरीरगस्स नीहरणं करेजाह, एवं वदित्ता कालगए (सूत्रं ५५५)।
हवे ते मंखलिपुत्र गोशालकने सात रात्री परिणमतां-व्यतीत थतां सम्यक्त्व प्राप्त थयु, अने तेने आवा प्रकारनो अध्यवसाय संकल्प उत्पम थयो-"हुँ खरेखर जिन नथी, तो पण जिनप्रलापी, यावत् जिन शब्दने प्रकाशतो विहयों हूं.हुं श्रमणनो घात करनार, श्रमणने मारनार, श्रमणनो प्रत्वनीक-विरोधी, आचार्य अने उपाध्यायनो अपयश करनार, अवर्णवादकारक अने अपकीर्ति करनार मखलिपुत्र गोशालक मु. तथा घणी असद्भावनावडे अने मिथ्यात्वाभिनिवेशवडे पोताने, परने अने रमेने व्युग्राहितप्रान्त करतो, व्युत्पादित (मिथ्यात्वयुक्त) करतो विहरीने मारा पोतानी तेजोलेश्यावडे पराभव पामी सात रात्रीना अन्ते पित्तज्वरथी म्याप्त शरीरवाळो थई दाइनी उत्पत्तिथी छबावस्थामाज काल करीश. श्रमण भगवान् महावीर जिन के अने जिनप्रलापी यावत्
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व्याख्या
१५पतके
प्रज्ञप्ति
॥१३३०॥
॥१५३०॥
CAR
जिनशन्दने प्रकाशित करता विहरे " एम विचारी ते ( गोशालक) आजीविक स्थविरोने बोलावे छे, बोलावीने अनेक प्रकारना ४ सोगन आपे छे, सोगन आपीने ते आ प्रमाणे बोल्यो-“हुँ खरेखर जिन नथी, पण जिनप्रलापी-जिनशन्दने प्रकाश करतो वियों | छु, श्रमणनो घात करनार मंखलिपुत्र गोशालक छु, यावत्-छद्मस्थवस्थामा काळ करीश. श्रमण भगवान् महावीर जिन, जिनध. लापी, यावत्-जिनभन्दनो प्रकाश करता विहरे के माटे हे देवानुप्रियो ! तमे मने काळधर्म पामेलो जाणीने मारा डावा पगने दोरडावती बांधी प्रणवार मुखमा धुंकजो, थूकीने श्रावस्ती नगरीमा श्रृंगाटकना आकारवाळा, यावत्-राजमार्गने विषे धसडता अत्यन्त मोटे शब्दे उद्घोषणा करता करता एम कहेजो के 'हे देवानुप्रियो! मस्खलिपुत्र गोशालक जिन नथी, पण जिनप्रलापी अने जिनशन्दने प्रकाशित करतो वियों छे. आ श्रमणनो घात करनार मंखलिपुत्र गोशालक यावत्-छमावस्थामांज काळधर्म पाम्यो के, श्रमण भगवान महावीर जिन अने जिनप्रलापी थई यावत्-विहरे छे, एम ऋद्धि अने सत्कारना समुदाय शिवाय मारा शरीरने बहार काढजो"-एम कहीने ते (गोशालक) काळधर्म पाम्यो. ॥ ५५॥
तए णं आजीविया थेरा गोसालं मखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवाराइं पिहंति दु०२ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावधि नगरि आलिहंति सा. गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सरीरगं वामे पादे सुंबेणं बंधंति वा०२ तिक्खुत्तो मुहे उठूभनि २ सावत्थीए नगरीए सिंघाडगजाब पहेसु आकडिविकटिं करेमाणा णीयं २ सद्देणं उग्धोसेमाणा उ.२ एवं बयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरिए एस णं व गोसा० मंखलिपु. समणघायए
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OTA
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सा
१५ शतके उदेश
मजाच छउमत्थे चेव कालगए सम० भ० महा० जिणे जिणप्प जाब विहरह सवहपडिमोक्खणगं करेंति स०२ व्याख्या
दोचंपि पूयासकारथिरीकरणट्टयाए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वामाओ पादाओ सुंषं मुयंति सु०२ हालाहला. कुं. कुं० दुवारययणाई अवगुणति अ०२ गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेति तं | | चेव जाव महया इढिसकारसमुदएणं गोसालस्स मखलिपुत्तस्स सरीरस्स नीहरणं करेंति ॥ (सूत्रं ५५६)॥
त्यारपछी आजीविक स्थविरोए मखलिपुत्र गोशालकने काळधर्म पामेल जाथीने हालाहला कुंभारणना कुंभकारापणना द्वार बन्ध कर्या. वारणा बन्ध करीने हालाइला कुंमारणना कुंभकारापणना बरोबर मध्यभागमा श्रावस्ती नगरीने आळेखीने मंखलिपुत्र
गोशालकना शरीरने डावे पगे दोरडावडे बांधीने त्रणवार मुखमा थुकीने आवस्ती नगरीना शृंगाटकना आकारवाळा, पावत्-राजMमार्गने विषे घसडता धीमा धीमा अन्दथी उद्घोषणा करता करता था प्रमाणे बोल्या-“हे देवानुप्रियो । मंखलिपुत्र-गोशालक
जिन नथी, पण जिनप्रलापी थईने यावत्-वियों छे, आश्रमणघातक मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छाखवस्थामाज काळधर्म पाम्यो के. श्रमण भगवान महावीर जिन, अने जिनप्रलापी थईने यावत्-विहरे छे," ए प्रमाणे तेओ शपथथी छटा थाय छ, अने बीजीवार तेनी पूजा अने सत्कारने स्थिर करवामाटे मंखलिपुत्र गोशालकना डावा पगथी दोरडं छोडी नांखे, छोडी नांखी हालाहला कुंमारणना कुंभकारापणना द्वार उघाडे छे, उघाडीने मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने सुगन्धी गन्धोदकवडे स्नान करावे छे-इत्यादि पूर्वोक्त कहे, यावत्-अत्यन्त मोटी ऋद्धि अने लत्कारना समुदायधी मंखलिपुत्र गोशालकना शरीरने बहार काढे ३.॥५५६ ॥ तए ण सम भ० म० अन्नपा कदापि सावत्थीमो नगरीओ कोढयाओ चेइयाओ परिनिक्लमति परि.२
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व्याख्या
१५ शतके उद्देश
॥१३॥
॥२३३२॥
बहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेण २ मेंद्रियगामे नाम नगरे होस्था, पनओ, सस्स णं मेंडियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्य णं सालकोट्ठए नाम चेहए होत्था, वन्नओ जाव पुढविसिलापहओ, तस्स णं सालकोढगस्स णं चेहयस्स अदरसामंते एस्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होस्था किण्हे किण्होभासे जाव निरंवभूए पत्तिए पुफिर फलिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अतीव २ उबसोमेमाणे चिट्ठति, तस्थ णं में ढियगामे नगरे रेवती नाम गाहापणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूया, तए णं समणे भगवं महावीरे अझया कदायि पुव्वाणुयुधि चरमाणे जाव जेणेव में ढिपगामे नगरे जेणेव सालको चेहए जाव परिसा पडिगया। तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्म सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउन्भूए उजले जाव दुरहियासे पित्तजरपरिगयसरीरे वाहवतीए यावि विहरति, अविणई लोहियवच्चाईपि पकरेइ, चाउठवन्नं च णं वागरेति-एवं खलु समणे भ. महा. गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइडे समाणे अंतो उछह मासाणं पित्तजरपरिग-1 यसरीरे दाहयवंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सति । तेणं कालेणं २ समणस्स भग. महा. अंतेवासी सीहे नाम अणगारे पगहभइए जाब विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूरसामंते छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तणं २ तवोकम्मेणं उड़पाहा जाब विहरति,
त्यारपछी श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोई दिवसे श्रावस्ती नगरीथी अने कोष्ठक चैत्यथीनीकळी बहारना देशोमा विहरे का. ते काले ते समये मेंढिकग्राम नामे नगर हतुं. वर्णन. ते मेंटिकग्राम नामे नगरनी बहार उत्तर-पूर्व दिशाने विषे अहिं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१३३३॥
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साणकोष्ठक (श्वानकोष्ठक १) नामे चैत्य इतुं वर्णन, यावत्-पृथिवीशिलापट्ट डतो. ते साणकोष्ठक चैत्यनी थोडे दूर अहिं एक मोर्ड एक मालुका (एक बीजवाळा) वृक्षनुं वन हतुं. ते श्याम, श्यामकान्तिवाळु, यावत्- महामेघना समूह जेतुं हतुं. वळी ते पत्रवाळु, पुष्पवाळु, फलवाळु, हरितवर्णवडे अत्यन्त देदीप्यमान अने श्री - शोभावडे अत्यन्त सुशोभित हतुं. ते मेडिकग्राम नामे नगरमां रेवतीनामे गृहपत्नी (घरघणियाणी) रहेती हवी. ते ऋद्धिवाळी अने कोइथी पराभव न पामे तेवी हती. ते समये श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोइ दिवसे अनुक्रमे विहार करता यावत्-ज्यां मेंढिकग्राम नामे नगर छे, अने ज्यां साणकोष्ठक नामे चैत्य हे त्यां आव्या, यावत्-पर्षदा वांदीने पाही गई. ते वखते श्रमण भगवंत महावीरना शरीरने विषे महान पीडाकारी, उज्ज्वल - अत्यन्त दाह करनार, यावत्-दुःखे सहन करवा योग्य, यावत्-जेणे पित्तज्वरवडे शरीर व्याप्त कर्यु छे एवो अने जेमां दाह उत्पन्न थाय छे एवो रोग पैदा थयो, अने तेथी लोहीत्राळा झाडा थवा लाग्या. चार वर्णना मनुष्यो कहे छे के "ए प्रमाणे खरेखर श्रमण भगचान् महावीर मंखलिपुत्र गोशालकना तपना तेजवडे पराभव पामी छ मासने अन्ते पित्तज्वरयुक्त शरीरवाळा थईने दाहनी उत्पत्ति थी छवस्थावस्थामा काळ करशे." ते काले ते समये श्रमण भगवान् महावीरना अन्तेवासी - शिष्य सिंहनामे अनगार प्रकृतिवडे भद्र, यावत्-विनीत हता. ते मालुकावचनथी थोडे दूर निरन्तर छट्ठनो तप करवावडे बाहु उचा राखी यावत् विहरे छे.
तर णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वहमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्ससमणस्स भगवओ महावीररस सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए उज्जले जाव छडमत्थे चेव कालं करिस्सति, वदिस्संति य णं अन्नतित्थिया छउमत्थे चेव कालगए,
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१५ शतके उद्देश १ ॥१३३३॥
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१३३४॥
करANA
हमेण एयारवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पचोरुभइ आया०२
१५ पातके जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवा० २ मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसइ मालुया०२ महया ३ सद्देणं कुहुकु हुस्स परुन्ने । अजोत्ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति आ० २ एवं वयासी-एवं खलु अजो!
१३३४॥ मम अंतेवासी मीहे नाम अणगारे पगइभद्दए तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव परुने, तं गच्छह णं अजो। तुज्झे सीहं अणगारं सद्दावेह, ताण ते समणा निग्गंधा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समण भगवं महावीरं वं. न. २ समणस्स भगः म० अंतियाओ सालकोट्टयाओ चेहयाओ पडिनिक्रवमंति सा०२ जेणेव मालुयाकच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छन्ति २ सीहं अणगारं एवं बयासी-सीहा! तव धम्मापरिया माति,
ते वखते ते सिंह अनगारने ध्यानान्तरिकाने विषे वर्तता आवा प्रकारनो आ संकल्प यावत्-उत्पन थयो "ए प्रमाणे खरेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवंत महावीरना शरीरने विषे अत्यन्त दाह करनार, महान् पीडाकारी रोग पेदा थयो छे | इत्यादि यावत्-ते छमावस्थामां काळधर्म पामो, अन्यतीर्थिको कहेशे के ते छमस्थवस्थामा काळधर्म पाम्या"-आवा प्रकारना आ | मोटा मानसिक दुःखवडे पीडित थयेल ते (सिंह अनगार) आतापना भूमिथी नीचे उतरी ज्या मालुकावन के त्यां आवीने मालुकावननी अंदर प्रवेश करीने तेणे मोटा शब्दथी कुहुकुहु (ठुठवो मूकी) ए रीते अत्यन्त रुदन कयु. श्रमण भगवान महावीरे 'हे आर्यो। ए प्रमाणे श्रमण निर्ग्रन्थोने बोलावी ए प्रमाणे कह्यु-“हे आर्यों! ए प्रमाणे खरेखर मारा अन्तेवासी सिंहनामे अनगार 51
AA
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मा१५ शतके
प्रकृतिवढे भद्र छ-इत्यादि पूर्वोक्त कहे, यावत्-तेणे अत्यन्त रुदन कयु, ते माटे हे आयों! जाओ, अने तमे सिंह अनमारने व्याख्या-15 प्रज्ञप्ति बोलावो." ज्यारे श्रमण मगवंत महावीरे ए प्रमाणे कयु एटले ते श्रमण निर्ग्रन्थो श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करे छे, नमे थे,
| उद्देश १ १ ॥ वंदन करी नमीने श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने साणकोष्ठक चैत्यथी नीकळी ज्या मालुकावन ने अने ज्या सिंह अनगारsanel ताछे त्यां आवे , त्यां आबीने तेणे सिंह अनगारने ए प्रमाणे कधु-“हे सिंह! धर्माचार्य तमने बोलावे छे."
तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं निग्गंथेहिं सद्धिं मालुयाकछछगाओ पडिनिक्खमति प०२ जेणेव सालकोट्ठा चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा० २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ.. जाव पज्जुवासति, सीहादि ! समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं बयासी-सेनूर्ण ते सीहा! झाणंतरियाए बहमाणस्स अयमेयारूवे जाव परूने, से नूणं ते सीहा! अढे समढे?, हंता अस्थि, तं नो खलु अहं सीहा! गोसालस्म मखलिपुत्तस्स तवे तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाब कालं करेस्स, अहन्नं अन्नाई अद्धसोलम वामाई जिणे महत्थी विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तुम सीहा ! मेंद्रियगाम नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिहे, तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवखडिया तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्ने पारिवासिए मजारकहए कुक्कुडमसए तमाहराहि एएणं अट्ठो, तए णं से सीहे अणगारे समणेणे भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे हद्दतुढे जाव हियए समणं भगवं महावीरं वं. नम०० न० अतुरियमचवलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति मु.२ जहा गोयमसामी जाव जेणेव समणे भ०म० तेणेव उवा०२ समणं भ.
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व्याख्या प्रज्ञप्ति
HERAN नोकळी ज्या माणका यावत् पर्युपासना को ताने आचा
CREAMSRO
www.kobatirth.org |महा. बंद. न.२ समणस्स भ० महा. अंतियाओ सालकोट्ठयाओ चेहयाओ पडिनिक्खमति प०२ अतु| रियजाव जेणेव में दियगामे नगरे तेणेव उवा०२ में डियगाम नगरं मझमझेणं जेणेव रेवतीए गाहावाणीए
१५ शतके गिहे तेणेव उवा०२ रेवतीए गाहावतिणीए गिहं अणुप्पविद्वे, तए
Pउद्देश सा रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं
६१३३६॥ एजमाण पासति पा० २ हद्वतुट्ठ खिप्पामेव आसणाओ अन्भुद्वेद २ सीह अणगारं सत्ता पयाई अणुगच्छद, स.२तिक्खुत्तो आ. २ वंदति न. २ एवं बयासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोयणं,
त्यारे ते सिंह अनगार श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मालुकावनथी नीकळी ज्यां साणकोष्ठक चैत्य छ, अने ज्या श्रमण भगवंत महावीर के त्यां आवे , त्यां आवी श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करे, यावत् पर्युपासना करे के. श्रमण भगवंत महावीरे 'हे सिंह!" ए प्रमाणे सिंह अनगारने बोलावी आ प्रमाणे कधु-'हे सिंह! खरेखर ध्यानान्तरिकामा वर्तता तने आवा प्रकारनो आ संकल्प थयो हतो, यावत् तें अत्यन्त रुदन कयु हतुं ? हे सिंह ! खरेखर आ वात सत्य के ? हा, सत्य छे. हे सिंह ! हुं नक्की मंखलिपुत्र गोशालकना तपना तेजी पराभव पामी छ मासने अन्ते यावत् काळ करीश नहि, हुं चीजा सोळ वरस जिनपणे | गन्धहस्तिनी पेठे विचरीश. ते माटे हे सिंह! तुं में ढिकग्राम नगरमा रेवती गृहपत्नीना घेर जा, त्या रेवती गृहपत्नीए मारे माटे ट्रा कोहळाना फळो संस्कार करी तैयार कयाँ छ, तेनुं मारे प्रयोजन नथी, परन्तु तेथी बीजो गइकाले करेलो मार्जारकृत-मारिनामे
वायुने शान्त करनार बीजोरापाक ने, तेने लाव, एनुं मारे प्रयोजन के. त्यारपछी श्रमण भगवंत महावीरे ए प्रमाणे कयुएटले | ते सिंह अनगार प्रसम्म अने संतुष्ट, यावद प्रफुल्लितहृदयवाला थई श्रमण भगवंत महावीरने बंदन अने नमस्कार करी त्वरा, चपलता
SIDHAAR
सिंह " ए प्रमाणे सिंह अनात महावीरने वणवार प्रदक्षिणालाणकोष्ठक चैत्य छे, अने ज्या
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१५शतके
प्राप्तिः ॥१३७॥
उमेश १
5॥१३३७॥
अने उतावळरहितपणे मुखवत्रिका प्रतिलेखन करी गौतमस्वामिनी पेठे ज्यां श्रमण भगवंत महावीर के त्यो आवे छे. त्या आवीने श्रमण भगवंत महावीरने बंदन अने नमस्कार करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने साणकोष्ठक चैत्यथी नीकळे छे, त्यांथी नीकळी स्वरारहितपणे यावद-ज्यां में ढिकग्राम नामे नगर छे त्यां आवे , त्यां आवी मेंटिकग्राम नगरना मध्यभागमा थई ज्यां रेवती गृहपरलीजें घर छे, त्यां आवी तेणे रेवती गृहपत्नीना घरमा प्रवेश कयों. त्यारे ते रेवती गृहपत्नीए सिंह अनगारने आवता जोया, जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थई जल्दी आसनथी उमी थई, उमी थईने सिंह अनगारनी सामे सात आठ पगला सामी गई, सामी जाने तेणे त्रणवार प्रदक्षिणा करी वंदन अने नमस्कार करी ए प्रमाणे कयु- "हे देवानुप्रिय ! आगमननुं प्रयोजन कहो."
नए णं से सीहे अणगारे रेवति गाहावाणी एवं बयासी-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए! समण भ० म. अट्ठाए | दुवे कबोयसरीरा उबक्खडिया तेहिं नो अत्थे, अस्थि ते अने पारिवासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए एयमाह
राहि, तेणं अट्ठो, तर णं सा रेवती गाहावाणी सीहं अणगारं एवं वयासी-केस णं सीहा! से पाणी वा तबस्सी | वा जेण तव एस अहे मम ताब रहस्सकडे हव्वमक्खाए जओ णं तुमं जाणासि एवं जहा खंदए जाव जओ णं अहं जाणामि, तए णं सारेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स अंतियं एयम सोचा निसम्म हद्वतुट्ठा जेणेव भत्तधरे तेणेव उवा २ पत्तगं मोएति पत्तगं मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवा० २ सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं संम निस्सिरति, तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धेणं जाव दाणेणं सीहे| अणगारे पडिलामिए समाणे देवाउए निषद्धे जहा विजयस्स जाच जम्मजीवियफले. रेवतीए गाहावतिणीए रेवती.
असर
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तक
व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१३३८॥
www.kobatirth.org २,लए ण से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिक्खमति०२ मेंढियगाम नगरं मज्झमजणं निग्गच्छति निग्गरत्ता जहा गोयमसामी जाव भत्तपाणं पडिसेति २ समणस्स भगवओ महावीरस्स पाणिसि तं सम्वं संम निस्सिरिति, तए णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिा जाव अणज्झोववन्ने बिलमिच पन्नग| भूएणं अप्पाणेणं नमाहारं मरीरकोटुगंसि पक्विवति, तए णं ममणस्स भगवओ महावीरस्सतमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसमं पत्ते हटे जाए आरोगे बलियसरीरे तुट्ठा समणा तुट्ठाओ समणीओ तुहा मावया तुहाओ साचियाओ तुहा देवा तुहाओ देवीओ, सदेवमणुयासुरे लोए हढे तुढे जाए समणे भगवं महावीरे हट्ट०२। (सूत्रं ५५७) ।
त्यारे ते सिंह अनगारे रेवती गृहपत्नीने एम का-"ए प्रमाणे खरेखर तमे श्रमण भगवंत महावीरने माटे बे कोहळा संस्कार करी तैयार कर्या छे, देनु प्रयोजन नथी, परन्तु बीजो गइकाले करेलो मार्जारकृत ( मार्जारवायुने शमावनार ) बीजोरापाक के तेने आपो, तेनु प्रयोजन के." त्यारे ते रेवती गृहपत्नीए सिंह अनमारने ए प्रमाणे का-हे सिंह ! कोण आ ज्ञानी के तपस्वी छे के जेणे तने आ रहस्य (गुप्त) अर्थ तुरत करो, अने जेथी तुं जाणे छ ?' ए प्रमाणे स्कन्दकना अधिकारमा का प्रमाणे अहिं कहेg, यावत्-जेथी (भगवंसना कथनथी) ९ जाणुं छु. त्यारे ते रेवती गृहपत्नी सिंह अनमारनी ए वात सांभळी, हृदयमा अवधारी हृष्टाद अने संतुष्ट थई ज्यां भक्तगृह-रसोई छे त्या बाबीने पात्र नीचे मूके के पात्र नीचे मूकीने ज्यां सिंह अनगार के त्यां आवे छे, त्या आवीने सिंह अनगारना पात्रने विणे ते सर्व (बीजोरापाक) आपे के.ते समये ते रेवती गृहपत्नीए द्रव्यशुद्ध एवा यावत्-ते दानवडे
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१५ शतके
PROSARDA
उदेश ॥१३३९॥
व्याख्या-1
I सिंह अनगारने प्रतिलामित करवाथी देवायुष बांध्यु, यावत-विजयनी पेठे रेवतीए 'जन्म अने जीवितव्यर्नु फल प्राप्त कर्य २'-एवी प्रजाति: II उद्घोषणा थई. हवे ते सिंह अनगार रेवती गृहपत्नीना घरथी नीकळी में ढिकग्राम नगरना मध्यभागमा थईने नीकळे , नीकळी ॥१३॥९॥ गौतमस्वामिनी पेठे भात-पाणी देखाडे छे. देखाडी श्रमण भगवंत महावीरना हाथमा ते सर्व सारी रीते मूके छे. त्यारबाद श्रमण
भगवंत महावीर मूर्छा-आसक्तिरहित, यावत्-तृष्णारहितपणे सर्प जेम चिलमा पेसे तेम पोते ते आहारने शरीररूप कोष्ठमां नांखे वे. हवे ते आहारने खाधा पछी श्रमण भगवंत महावीरनो ते महान् पीडाकारी रोग तुरतज शान्त थयो. ते हृष्ट, रोगरहित अने बलवानशरीरवाळा थया. श्रमणो तुष्ट थया, श्रमणीओ तुष्ट थई, श्रावको तुष्ट थया, श्राविकाओ तुष्ट थई, देवो तुष्ट थया, देवीओ तुष्ट थई, अने देव, मनुष्य अने असुरो सहित समग्र विश्व संतुष्ट थयु के 'श्रमण भगवान महावीर हृष्ट-ोगरहित थया.' ॥५५७॥ । भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमं.२ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाण अंतेवासी | पाईणजाणवए सव्वाणुभूतीनाम अणगारे पगतिभद्दए जाब विणीए, से णं भंते । सदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे कहिं ग कहिं उववन्ने ?, एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सवाणुभूतीनाम अणगारे पगइभद्दए जाच विणीए, से णं तदा गोसालेणं मखलिपुत्तणं तवेणं भासरासीकए समाणे उड्डे चंदिमसूरिय जाव बंभलतकमहामुक्के कप्पे वीइवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पनत्ता तत्थ णं सव्वाणुभूतिस्सवि देवस्स अट्ठारस सागरो. वमाई ठिती पन्नत्ता, से णं भंते! सव्वाणुभूती देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवावएण ठिहक्खएणं
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जाब महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवर सुनव नामं अणगारे पगड़भद्दए जाव विणीए से णं भंते! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताबिए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कर्हि उबबसे ?, एवं खलु गोषमा ! ममं अंतेवासी सुनक्खसे नामं अणगारे पगइभद्दए जान बिणीए से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तणं तवेणं तेएणं परितारिए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेच उबा० २ बंदति नम० २ सयमेव पंच महब्वयाई आरुभेति सयमेव पंच महत्वयाई० समणा य समणीओ य खामेति २ आलोइयपडिते समाहिपत्ते कालमासे कालं किवा उ चंदिमसूरियजाव आणपाणयारणए कप्पे बीईवत्ता अच्चुए कप्पे देवताए उबबन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोमाई ठिली पण्णत्ता, तत्थ णं सुनक्खत्तरसवि देवस्स बाबीसं सागरोवमाई सेसं जहा सव्वाणुभूतिस्स जाव अंतं काहिति ॥ ( सूत्रं ५५८ ) ।।
[प्र० ] भगवान् गौतमे भगवन् !' एम कही भ्रमण भगवान् महावीरने वंदन अने नमस्कार करी ए प्रमाणे कछुए प्रमाणे खरेखर देवानुप्रिय एवा आपना अन्तेवासी पूर्वदेशमां उत्पन्न थयेला सर्वानुभूति नामे अनगार जे प्रकृतिना मद्र हता, यावत्- विनीत हे भगवन् ! ज्यारे तेने मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी भस्मराशिरूप कर्या त्यारे ते मरीने क्यां गया, क्या उत्पन्न ? [०] "ए प्रमाणे खरेखर हे गौतम! मारा अन्तेवासी पूर्वदेशोत्पन्न सर्वानुभूतिनामे अनगार प्रकृतिना भद्र यावद - विनीत हता, तेने ज्यारे मंखलिपुत्र गोशाल के भस्मराशिरूप कर्या त्यारे ते ऊर्ध्वलोकमां चन्द्र अने सूर्यने, यावत्-ब्रह्म, लान्तक अने महाशुक्र
द्वता,
व्याख्या. प्रज्ञप्तिः
॥१३४० ॥
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१५ के उदेश १
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॥ १३४१॥
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कल्पने ओळंगी सहस्रार कल्पमां देवरूपे उत्पन्न थयां त्यां केटलाएक देवोनी अदार सागरोपमनी स्थिति कही छे. त्यां सर्वानुभूति देवनी पण अढार सागरोपमनी स्थिति के, ते सर्वानुभूति देव ते देवलोकथी आयुषनो क्षय थवाथी यात्रत् महाविदेहक्षेत्रमां सिद्ध थशे, यावद्- सर्व दुग्खोनो अन्त करले. [प्र० ] ए प्रमाणे खरेखर देवानुप्रिय एवा आपना शिष्य कोशल देशमा उत्पन्न थयेला सुनक्षत्र नामे अनगार प्रकृतिना भद्र, यावत्-विनीत हता, तेने ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी परिताप उत्पन्न कय त्यारे ते मरणसमये काळ करीने क्यां गया, क्यां उत्पन्न थया । [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे खरेखर मारो शिष्य सुनक्षत्र नामे अनगार प्रकृतिनो भद्र यावत्- विनीत हतो, तेमें ज्यारे मंखलिपुत्र गोशालके तपना तेजथी परिताप उत्पन्न कर्यो त्यारे ते मारी पासे आव्यो, 'मारी पासे आवी वन्दन - नमस्कार करी स्वयमेव पांच महाव्रतोनो उच्चार करी भ्रमण अने श्रमणीओने खमावी, आलोचना अने प्रतिक्रमण करी, समाधि प्राप्त थई मरणसमये काळ करीने ऊर्ध्वलोकमां चन्द्र अने सूर्यने तथा यावत्-आणत, प्राणत अने आरण कल्पने ओळंगी अच्युतदेवलोकमां देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां केटलाएक देवोनी बावीश सागरोपमनी स्थिति कही थे. तेमां सूनक्षत्र देवनी पण बावीश सागरोपमनी स्थिति छे. बाकी बधुं सर्वानुभूति संबन्धे कहूं छे तेम अहिं जाणवुं यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करशे. २१५५८ ।।
एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते से णं भंते! गोसाले मंखलिते कालमासे कालं किवा कहिं ग० कहिं उब० ?, एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते समणघायए जाय छउत्थे चैव कालमासे कालं किवा उ चंदिम जाच अच्चुए कप्पे दे० उ०, तस्थ णं अस्थेग देवाणं बाबीसं मा० ठिती प० तस्थ णं गोमालस्सवि देवस्स बावीमं सा० ठिती प० । से णं भंते । गोसाले देवे
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१५
उदेक १ ॥१३४१ ।।
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१५
ताओ देव. आउक्ख०३ जाव कहिं उववजिहिति!, गोयमा इहेव जंबू०२ भारहे वासे विंझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु सयदुबारे नगरे संमुतिस्स रनो भहाप भारियाए कुञ्छिसि पुसत्ताए पञ्चायाहिति, सेणं तस्य
नवण्हं मासाणं बहुप० जाव वीतिकंताणं जाव सुम्वे दारए पयाहिति, जं रयणिं च णं से दारए जाइहिति तं ॥१३४२॥
१३४ रणिं च णं सयदुवारे नगरे सभितरबाहिरिण भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वासे
वासिहिति, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एकारसमे दिवसे वीतिकंते जाव संपत्ते चारसाहदिवसे अयमेतयारूवं गोणं गुणनिष्फन्नं नामधेनं काहिंति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणंसि सयदुवारे
नगरे सम्भितरबाहिरिए जाव रयणवासे वुढे त होउ णं अम्हं इमस्म दारगस्म नामधेनं महापउमे महा०, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेनं करेहिंति महापउमोत्ति, ताणं तं महापउमं दारगं अम्मापियरो सा. तिरेगट्ठवासजायगं जाणिसा सोभणसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुत्तसि महया २रायाभिसेगेणं अभिसिंचेहिंति, से णं नाथ राया महया हिमवंतमहंत बन्नओ जाव विहरिस्सइ, तए णं तस्स महापउमस्म रनो अन्नदा कदायि दो देवा महड्डिया जाच महेसरवा सेणाकम्म काहिंति, २०-पुन्नभद्दे य माणिभद्दे य, तए णं मयबारे नगरे बहवे राईसरतलबर जाव मत्थवाहप्पभिईओ अन्नमन्नं सद्दावेहिति, अ०२ एवं बदेहिंति-जम्हा णं देवा. णुप्पिया! अम्हं महापउमस्म रन्नो दो देवा महड़िया जाच सेणाकम्मं करेंति, तं०-पुनभद्दे य माणिभद्दे य, तं होउ णं देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स रन्नो दोचपि नामधेने देवसेणे दे० २, तए णं तस्स महापउमस्स रनो5
BARADARS
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१५पले
उमेश ॥१३४३॥
॥१३४॥
REAA5
दोचेऽवि नामधेने भविस्मति देवसेणेत्ति देव.,
[म.] ए प्रमाणे खरेखर देवानुप्रिय एवा आपनो अन्तवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक छे, ते मंखलिपुत्र गोशालक मरण समये काळ करीने क्यां गयो, क्या उत्पन थ्यो। [उ.] ए प्रमाणे खरेखर हे गौतम! मारो अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र
I गोशालक जे श्रमणनो घातक अने यावत्-छबस हतो, ते मरण समये काळ करीने उप्रलोकमा चन्द्र अने सूर्यने ओळंगी यावत् अच्युतकरपने विषे देवपये उत्पन थयो. त्यां केटलाएक देवोनी बावीश सागरोपमनी स्थिति कही जे, त्यां मोशालक देवनी पण वावीश सागरोपमनी स्थिति छे. [प्र.] ते गोशालक देव ते देवलोकथी आयुषना वय थवाथी : यावत्-क्या उत्पन्न थशे १ [उ.] हे गौतम! आ जंबूद्वीपनामे द्वीपमां भरतक्षेत्रने विषे विन्ध्याचल पर्वतनी तळेटीमां दूनामे देशने विषे शतद्वारनामे नगरमां संमुति (सन्मूर्ति) नामे राजाने भद्रा नामे भार्यानी कुक्षिने विषे पुत्ररूपे उत्पन्न थशे. ने त्यां नवमास बरोबर पूर्ण थया पाद अने साडासात दिवस वीस्था पछी यावत्-सुन्दर बाळकने जन्म आपशे. जे रात्रिने विषे ने बाळकनो जन्म थशे, ते रात्रिने विषे शतद्वार नामे नगरमां अंदर अने बहार अनेक भारप्रमाण अनेक कुंभप्रमाण वृष्टिरूप पानी वृष्टि अने रखनी वृष्टि थशे. ते वखते ते बाळकना मात-पिता अगीयारमो दिवस वीत्या पछी बारमे दिवसे आवा प्रकारचं गुणयुक्त अने गुणनिष्पन नाम करने-“जे हेतुथी अमारा आ माळकनो जन्म थयो एटले अतहार नमरने विषे बाह्य अने अंदर रखनी वृष्टि थई, ते माटे अमारा आ पाळकतुं नाम 'महापत्र' २ हो." त्यारपछी ते बाळकना मात-पिता 'महापद्य एवं नाम पाडशे. त्यारपछी ते महापच वाळकने मातापिता कंडक अधिक आठ वर्षनो थयेलो जागीने सारा तिथि, करण, दिवस नक्षत्र अने महर्तने विषे अत्यन्त मोटा राज्यामिषेकवडे अमिषेक करशे.
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२
१९५तके
उदेश.
m
| ते राजा थशे, ते महाहिमपान आदि पर्वतनी जेम बलबाळो थशे-इत्यादि वर्णन आणवू, यावत्-ते विहर. हवे अन्य कोई दिवसे व्याख्या
| ते महापन राजानुं महर्द्धिक यावत्-महासुखवाला बे देवो सेनाकर्म करशे. ते देवोना नाम आ प्रमाणे-पूर्णभद्र अने माणिभद्र. प्रज्ञप्ति ॥१३४४॥
दत्यारपछी शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ, युवराजा, तलवर, यावत्-सार्थवाह प्रमुख परस्पर बोलावीने ए प्रमाणे
कहेश के:-हे देवानुप्रियो ! 'जे हेतुथी अमारा महापन राजानुं वे महर्द्धिक देवो यावत्-सेनाकर्म करे , ते देवोना नाम आ प्रमाणे| पूर्णभद्र अने माणिभद्र, ते माटे हे देवानुप्रियो ! अमारा महापद्म राजा बीजु नाम 'देवसेन' २ हो, ते वखते ते महापद्य राजार्नु 'देवसेन' ए बीजु नाम थशे.
तए णं नस्स देवसेणस्स रनो अन्नया कयाइ सेते संखनालविमलसन्निगासे चउइंते हत्थिरयणे समुप्पजिस्सह, तए णं से देवसेणे राया त सेयं संवतलविमलसन्निगासं चउइंतं हत्थिरयणं दूरूढे समाणे सयदुवारं नगरं मज्झ-13 मझेणं अभिवर्ण२ अतिजाहिति निजाहिति य, तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसरजाव पभिईओ अनमन सद्दाति अ.२ षदेहिंति-जम्हाणं देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्म रन्नो सेते संखतल विमलसन्निकासे चउदंते हथिरपणे समुप्पन्ने त होउ णं देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रम्रो तच्चेवि नामधेजे विमलवाहणे वि० २, तए णं नस्स देवसेणस्स रन्नो तल्चेवि नामधेजे भवि. विमलवाहणेत्ति । तए ण से विमलवाहणे राया अन्नया कदायि ममणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवजिहिति अप्पेगतिए आउसेहिति अप्पेगतिए अवह सिहिति अप्पेगतिए निच्छोडेहिति अप्पेगतिर निभत्थेहिति अप्पेगतिए बंधेहिति अप्पेगतिए णिभेहिति अप्पेगतियाणं छविच्छेदं करेहिति
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के
दाउ
॥१२४५॥
अप्पेगतिए पमारेहिइ अप्पेगतियाणं उहवेहिति अप्पेगतियाणं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं आञ्छिदिहिति। विञ्चिविहिति भिंदिहिति अवहरिहिति अप्पेगतियाणं भत्तपाणं वोछिदिहिति अप्पेगतिए णिनगरे करेहिति ।
१५ अप्पेगतिए निविसर करेहिति, तए ण सयदुवारे नगरे बहवे राईसरजाव बदिहिंति–एवं खलु देवाणु विम-8 लवाहणे राया समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवन्ने अप्पेगतिए आउस्सति जाव निम्धिसए करेति, तं नो खलु देवाणुप्पिया! पयं अम्हं सेयं नो खलु एयं विमलवाहणस्स रनो सेयं नो स्वस्तु एवं रजस्स पा रहस्स वा बलस्स वा बाहणस्स वा पुरस्स या अंते उरस्म वा जणवयस्स चा सेयं जणं विमल वाहणे राया समणेहिं निग्गं.
हिं मिक; विप्पडिबन्ने, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं विमलवाहणं रायं एयम8 विनवित्तएत्तिकहु अन्नमबस्स अंतियं एयमट्ठ पडिसुणेति अ०२ जेणेव विमलवाहणे राया तेणेच उ. २ करयलपरिग्गहा विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धाति ज. ३ एवं ब-एवं खलु देवाणु० समणेहिं निग्गंधेहिं मिच्छ विप्पविना अप्पेगतिए आउस्संति जाव अप्पेशतिए निविसए करेंति, तं नो खलु एयं देवाणुप्पियाण सेयं नो खलु एवं अम्हं सेयं नो खलु एयं रजस्स वा जाव जणवयस्त वा सेयं जं णं देवाणुप्पिया! समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विपतिवसा, तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया! एअस्स अट्ठस्स अकरणयाए,
त्यारवाद ते देवसेन राजाने अन्य कोई दिवसे वेत, निर्मल शंखना तळीयासमान अने चार दन्तवालु हस्तिरन उत्पन्न यथे, & त्यारे ते देवसेन राजा श्वेत, निर्मल घेखना तळसमान अने चार दन्तवाला हस्तिरन उपर चढीने शतद्वार नगरना मध्यभागमा बईने ।
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मेष
॥१४॥
AECSIABAR
पारंवार जशे अने नीकळशे. ते वखते शतद्वार नगरने विष घना मांडलिक राजाओ, युवराजा यावत्-सार्यवाह प्रमुख एकबीजाने PM बोलाव, बोलावीने कहे के 'हे देवानुप्रियो । जेथी अमारा देवसेन राजाने श्रेत, निर्मल शंखतळना जेवो भने चार दांतवाळो उत्तम इस्ती उत्पन्न भयो छे, ते माटे हे देवानुप्रियो ! अमारा देवसेन राजानु त्रीशुं नाम "विमलवाहन' हो. त्यारे ते देवसेन राजार्नु 'विमलवाहन' एवं त्रीजु नाम पडशे. स्वारवाद ते विमलवाहन राजा अन्य कोई दिवसे श्रमण निग्रन्थोनी साघे मिथ्यात्वअनार्यपणुं आचरशे, केटलाएक श्रमण निग्रन्थोनो आक्रोश करशे, केटलाकनी हांसी करशे. केटलाएकने ज्दा पाडशे, केटलाएकनी निर्भर्त्सना करशे, केटलाएकने बांधशे, केटलाएकने रोकशे, केटलाएकना अवयवोनो बेद करो, केटलाएकने मारने, केटलाएकने उपद्रव करशे, केटलाएकना वस्त्र, पात्र, कांवल अने पादच्छन छेदशे, विशेष छेदशे, मेदशे, अपहरण करश; केटलाएकना भातपाणीनो विच्छेद करशे, केटलाएकने नगरथी पहार काढशे बने केटलाएकने देशथी बहार काढशे.ते समये शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ अने युवराजाओ यावत् परस्पर-कहेशे के 'हे देवानुप्रियो! ए प्रमावे खरेखर विमलवाहन राजाए श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्य छे, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढे, ते माटे हे देवानुप्रियो। ए आपणने श्रेयरूप नथी, आ विमलवाहन राजाने श्रेयरूप नधी, तेमज आ राज्यने, आ राष्ट्रने, बलने, वाहनने, पुरने, अन्तःपुरने के देशने श्रेयरूप नथी के जे विमलबाहन राजाए श्रमण निग्रन्थोनी साये मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्य छे. ते माटे हे देवानुप्रियो । आपणे विमलवाहन राजाने आ पात जणाववी योग्य है.' एम विचारी एकनीजानी पासे आ वातनो स्वीकार करे , स्वीकार करीने ज्यां विमलबाहन राजा के त्वां आवे के, त्यां आवीने करतल परिग्रहीत करीने-हाथ जोडीने विमलवाहन राजाने जय अने विजयथी
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मास्या
वि
॥१३४॥
बचावे छे. वधावीने एम कहेशे के-'हे देवानुप्रिय! आप श्रमण निबन्योनी सावे मिध्या-जनार्यपणाने आचरता केटलाएकनो
१५ आक्रोश करो छो, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढो छो, ते देवानुप्रिय एवा आपने श्रेयरूप नथी, ए अमने पण श्रेयरूप Bा नथी, तेमज आ राज्यने, यावत्-देशने श्रेयरूप नथी के जे देवानुप्रिय एवा आप श्रमण निन्थोनी साधे मिध्यात्व-अनार्यपणु P१३४
आचरो छो, ते माटे हे देवानुप्रिय ! आप नहि करवावडे आ कार्ययी बन्ध पडो.' al तए णं से विमलवाहणे राया तेहिं बहहिं राईसरजाव सत्यवाहप्पभिईहिं एयमट्टे विनत्त समाणे नो धम्मो
त्ति नो तथोत्ति मिच्छाविणएणं एयमद्वं पडिसुणेहिति, तस्स णं सयदुवारस्स नगरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीमागे एत्थ ण मुभूमिभागे नाम उजाणे भविस्सइ सब्योउय वन्नओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउपए सुमंगले नाम अणगारे जाइसंपन्ने जहा धम्मघोसस्स बनाओ जाच संवित्तविउलतेयलेस्से तिमाणोवगए सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते मुटुंछट्टेणं अणि जाव आयावेमाणे विहरिस्सति । तए णं से विमलवाहणे राया अन्नया कदापि रहचरियं काउं निजाहिति, तए से विमलवाहणे राया सुभूमिभागस्स उजाणम्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगारं छटुंछडेणं जाव आयावेमाणं पासिहिति पा.३ आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं रहसिरेणं [ग्रन्थानम् १००००] गोल्लावहिति, तए ण से सुमं. गले अणगारे विमलवाहणेणं रखा रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे सणियं २ उद्वेहिति उ.२ दोपि उर्छ वाहाओ8 पगिजिमय जाब आयावेमाणे विहरिहिति, तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोपि रहसिरेणं
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पाख्या
॥१३४८॥
RECRABAR
___www.kobatirth.org णोल्लाहिति, तए से सुमंगले अणगारे विमलवाहणणं रक्षा वोपि रहसिरेणं गोल्लाविए समाणे सणिय २ उद्वेहिति उ.२ ओहिं पउंजेहिति २ ता विमलवाहणस्स रण्णो तीतद्धं ओहिणा आभोएहिति २त्ता विमलवाहणं रायं एवं बाहिति-नो खलु तुमं विमलवाहणे राया नो खलु तुम देवसेणे राया नो खलु तुमं महापउने
॥१३४ रागा, तुमण्णं इओ तचे भवागहणे गोसाले नाम मखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए, तं जति ते तदा सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं पभुणावि होऊणं सम्मं सहियं खमियं तितिक्खयं अहियासियं, जाइ ते तदा सुनक्खत्तेणं अण. जाव अहियासियं, जहते तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभुणावि जाच अरियासियं, तं नो खलुते अहं तहा सम्मं सहिस्सं जाव अहियासिस्सं, अहं ते नवरं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं एगाहवं कूडाहचं भासरासिं करेजामि,
ज्यारे ते घणा मांडलिक राजाओ, युवराजाओ यावत्-सार्थवाहप्रमुख आ बाबत विनंति करने त्यारे ते विमलवाहन राजा 'धर्म नथी, तप नथी'-एवी बुद्धिथी मिथ्या विनयवडे आ बात कबूल करशे. हवे ते शतद्वार नगरनी महार उत्तर-पूर्व दिशाए अहिं सुभूमिभाग नामे उद्यान हवे. ते सर्व ऋतुना पुष्पादिकयुक्त-इत्यादि वर्णन जाणवू. ते काले ते समये विमलनामे तीर्थकरना प्रपौत्र शिष्य परंपरामा थयेला सुमंगल नामे अनगार हशे. ते जातिसंपन्न-इत्यादि धर्मघोष अनगारना वर्णन प्रमाणे वर्णन करवु, यावत्संक्षिप्त जने विपुल तेजोलेश्याचाळा, त्रण ज्ञानवडे सहित ते मुमंगल नामे अनगार मुभूमिमाग नामे उपानथी थोडे दूर निरन्तर छनो तप करवावडे यावत्-बातापना लेता विहरशे. हवे ते विमलवाहन राजा अन्य कोई दिवसे रथचर्या करवा निकलश स्यारे 5
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व्याख्याप्रायः ॥१३४९ ॥
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सुभूमिमा नामे उद्यानयी थोडे दूर रथचर्या करतो ते विमलवाहन राजा निरंतर छडनो तप करता यावत् आतापमा लेखा मुमंगल जनमारने मोशे जोड़ने कोपाविष्ट भयेलो यावत् — क्रोधथी अत्यन्त वळतो एवो ते राजा रथना अग्रभागवडे सुमंगल अनगारने | अभिघात की पाडी नांखशे. ज्यारे विमलवाहन राजा रथना जग्रभागवडे ते सुमंगळ अनगारने पाडी नाखशे त्यारे ते सुमंगल जनगार धीमे धीमे उठशे, उठीने बीजीवार ऊंचा हाथ करी करीने आतापना लेता बिहरशे; त्यारे ते विमलवाहन राजा सुमंगल जनगारने बीजीवार रथना अग्रभागवडे अभिघात करी पाडी नांखशे. ज्यारे विमलवाहन राजा सुमंगल अनगारने बीजीवार रथना जग्रभागवडे अभिघात करी पाडी नांखशे त्यारे ते सुमंगल अनगार धीमे धीमे उठसे, उठीने अवधिज्ञान प्रयुजशे, अवधिज्ञान | प्रयुंजीने विमलवाहन राजाने अतीतकाले अवधिज्ञान बढे जोशे, जोईने विमलवाहन राजाने एम कद्देशे - "तुं खरेखर बिमलवाइन राजा नयी, तुं खरेखर देवसेन राजा नमी, तुं खरेवर महापद्म राजा नथी, तुं आ भवयी जीवा भवमां मंखलिपुत्र गोशालकनामे हतो, अने श्रमणनो बात करनार तुं छावस्थामां काळधर्म पाम्पो हतो, जो ते वखते सर्वांनुभूति अनगारे समर्थ छता पण तारो अपराध सम्यक् प्रकारे सहन कर्यो, तेनी क्षमा करी, तितिक्षा करी अने तेने अभ्यासित कर्यो; जो के ते बखते सुनक्षत्र जनमारे पण यावत्---अध्यासित सहन कर्यो, ओ के से समने श्रमण भगवान् महावीरे समर्थ छतां पण यावत् सहन कर्यो, परन्तु खरेखर हुं ते प्रमाणे सम्यक् सहन नहिं करूं, यावत्-अभ्यासिव नहि, हुं पैौडा, रथ जने सारघिसहित तने मारा तपना तेजभी एकमाए कूटाघात - पाषाणमय यंत्रना आघातनी जैम मस्मराशिरूप करीये."
तर णं से विमलबाइणे राया समंगलेग अणणारेण एवं तुले समाने आरुसले जाब मिसिमिसेमाणे
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१
॥१३४९॥
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व्याख्या प्रशतिः १३५०॥
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सुमंगलं अणागारं तबंधि रहसिरेणं गोलावेहिति, तए णं से सुमनले अणगारे विमलबाईजेणं रण्णा तपि रसिरेण नोलाविए समाणे आसुरुत्ते जाब मिसिमिसेमाणे आपावणभूमीओ पचोक भइ आ० २ तेयासमुग्धारणं समोहंनिहिति तेया० २ सत्तट्ट पयाई पोसहिहिति सञ्च० २ विमलवाहनं रायं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं जाव भातरासिं करेहिति । सुमंगले णं भंते ! अणगारे विमलवाहणं राधे सहर्ष जाव भासरासि करेता कहिं गच्छिहिति कहिँ उबवजिहिति ?, गोयमा ! सुमंगले अणगारे णं विमलवाहणं रा सहयं जाव भासरासि करेत्ता बहूर्हि चउत्थमवसमदुवालस जाव विचिसेहिं तवोकस्मेहिं अध्याण भाषेमाणे बहूइं वासाई सामन्नपरियागं पाउणेहिति २ त्ता मासियाप संलेहणाए सहि भत्ताई अणसणाए जाब छेदेता आलोयपडिले समाहिपत्ते उ चंदिमजाव गेविजविमाणावाससयं बीयीवइत्ता सम्बट्टसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति, तत्थ णं देवाणं अजलमणुकोसेणं तेतीसं सागरोवमाई ठिती १०, तत्थ णं सुमंगलसवि देवरस अजहन्नमणुकोण तेत्तीस सागरोवमाई ठिती पत्ता । से णं भंते! सुमंगले देवे ताओ देवलो| गाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाब अंतं करेति ( सूत्रं ५५९ ) ।।
ज्यारे ते सुमंगल अनगारे ए प्रमाणे कटुं स्पारे अत्यन्त गुस्से थयेलो अने यावत्-अत्यन्त क्रोधथी बळतो ते विमलवाहन राजा सुमंगल अनगारने श्रीजी चार पण रथना अग्रभाग कडे अभिघात करी पाडी नांखशे; ज्यारे विमलवाहन राजा रथना अग्र भागवडे श्रीजीवार ते सुमंगल अनगारने अभिषाव करी पाडी नांखशे, त्मारे अत्यंत गुस्से थयेला अने यावत्-क्रोषथी वळता एवा
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उदेश
दाते सुमंगल अनमार आतापना भूमियी उतरी तेजस समुद्घात करशे, तैजस समुद्घात करीमे, सात आठ पगला पाछा जइ घोडा, IN रथ अने सारथिसहित विमलवाहन राजाने भस्मराशिरूप करशे. [40] हे भगवन् ! सुमंगल अनगार घोडासहित, यावत्-विमलवा- IT हन राजाने भस्मराविरूप करीने [काळ करी] क्या बने, क्या उत्पन थशे? [उ.] हे गोतम ! सुमंगल अनगार विमलवाहन
P१३५१॥ राजाने घोडासहित यावत्-भस्मराशिरूप करीने घणा प्रकारना छह, अहम, दशम [चार उपवास], द्वादश भक्त [पांच उपवास]] यावत्-विचित्र तपकर्म बडे आरमाने भावित करता घणा वरस सुघी श्रमणपणाना पर्यायने पाळशे. पाळीने मासिक संलेखना बडे साठ भक्त अनशानपणे वीताबीने आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थई ऊर्ध्व लोकमां चन्द्र अने सूर्य, यावत-सो प्रैवेयक विमानावासने ओळंगी सर्वार्थसिद्ध महाविमानमां देवपणे उपजशे. त्या देवोनी जघन्य अने उत्कृष्टरहित एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही थे. त्यां समंगल देवनी पण जघन्य अने उत्कृष्टरहित एवी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति इशे. ते सुमंगल देव देवलोकथी यावत्-भवना क्षय थवाथी महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध थशे, यावत सर्व दुःखोनो अन्त करशे. ॥ ५५९ ।।
विमलवाहणे णं भंते ! राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहए जाव भासरासीकए समाणे कहिं गच्छहिति कहिंदी उवजिहिति?, गोयमा! विमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे अहेसतमाए पुढवीए उकोसकालद्विइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, से णं ततो अणंतरं उव्वहिता मच्छेस उववजिहिति, मे णं तत्थ सत्यवो वाहवकंतीए कालमासे कालं किचा दोचंपि अहे सत्तमाए पुरवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि मरगंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, सेणं तओऽणंतरं उब्वहिता वोचपि मच्छेसु उववजिहिति,
कन्य
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व्याख्या
॥१५॥
www.kobatith.org तस्थवि ण सस्थवजो जाब किचा छडीए समाए पुरवीए उकोसकालछिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उवजिरिति, से णं तभोहितो जाब उव्व द्वित्ता इत्थिपासु उववजिहिति, सत्यविण सत्थवज्झे दाह जाव दोचंपि छड्डीए
११५ तमाए पुरवीए उकोसकालजाब उब्बत्तिा बोचंपिइथियासु उववा, लस्थविण सस्थवज्झे जाव किया पंचमाए धूमप्पमाए पुढवीए उकोसकालजाव उव्याहिता उरएसु उववजिहिति, तस्थविणं सस्थवजो जाव किचा दोषंपि
M ॥१५७ पंचमाए जाय उव्वहिता दोपि उरएस उववजिहिति, जाव किचा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालहितीयसि जाय उन्धहिता सीहेसु उववजिहिति, तत्थविण सत्थवजझे तहेव जाव किया वोचंपि चउत्थीए पंकजाव उवाहित्तादोपि सीहेसु उवध जाव किक्षा तबाए वालुयपभाए उक्कोसकालजाव उध्वहिता पक्खीसु उवय तत्थवि णं सत्थवझे जाव किवा दोपि तच्चाए बालुयजाव उव्वहिता दोचंपि पक्वीसु उवव जाव किया दोचाए सकरप्पभाए जाव उज्वहिता सिरीसवेसु स्वय. तस्थविण सत्व. जाब किच्चा दोपि दोषाए सकरप्पभाए जाव उव्वहिता दोबंपि सिरीसवेसु उवषः जाब किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वितीगंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववन्निहिति,जाव उव्वहितासणीसु उवक, तत्थविणं सत्थवजझे जाव किया असनीसु उववजिहिति, तथावि ण सत्थवज्झे जाव किच्चा दोचंपि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखेजहभागहितीयंसि णरगसि नेरइयत्ताए उववाजिहिति, से णं तओ जाव उव्वहिता जाई इमाई खहयरविहाणाई भयंति, तं.-चम्मपक्खीणं लोमपत्रीण समुग्गपक्खीण विषयपक्खीणं तेसु अणेगसयसहस्सखुतो
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बप्तिः ॥१३५३
उमेश P॥१५॥
उहाइत्ता २ तत्थेव २ भुनो २ पचायाहिति, सम्वत्थवि णं सस्थवज्झे वाहवकंतीए कालमासे कालं किया जाई इमाई भुयपरिसप्पविहाणाई भवंति, तंजहा-गोहाण नउलाण जहा पनवणापए जाव जाहगाणं, तेसु अणेगसयसहस्सत्तो सेसं जहा स्वहचराणं जाव किया जाइं इमाई उरपरिसप्पविहाणाई भवंति, तं०-अहीणं अयग| राणं आसालियाण महोरगाणं, तेसु अगसपसह जाय किया जाई इमाई चउप्पदविहाणाई भवंति, सं.एगखुराणं दुखुराणं गडीपदाणं सणहपदाणं, तेसु अणेगसयसहस्स जाब किचा जाई हमाइं जलयरविहाणाहं भवंति २०-मच्छाणं कच्छमाणं जाव सुसुमाराणं, तेसु अणेगसपसह जाव किया जा इमाई चाउरिदियविहाणाई भवंति, तं-अंधियाणं पोत्तियाणं जहा पनवणापदे जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसयसह जाब किया जाई इमाई तेहंदियविहाणाई भवति, तं.-उवधियाणं जाव हथिसोंडाणं तेसु अणेगजाब किचा जाई इमाई बइंदियविहाणाई भवंति २०-पुलाकिमियाणं जाव समुहलिक्स्वाणं तेसु अणेगसपजाब किचा जाइं इमाई वणस्साविहाणाई भवंति, सं.-इलाणं गुच्छाणं जाप कुहणाणं, तेसु अणेगसय जाब पचायाइस्सह, उस्सनं चणं कड्यरुक्खेतु कडपबल्लीसु सम्वत्याविणं सस्थयजो जाव किवा जाई इमाई चाउकाझ्याविहाणाई भवंति, तंजहा-पाईणवायाणं जाब सुदवायाणं तेसु अणेगलयसहस्सजाव किया जाइं इमाई तेउवाइयविहाणाई भवंति, | सं०-इगालाणं जाय सूरकंतमणिनिस्सियाणं, तेस अणेगसयसा जाब किचा जाई इमाई भाउकाइयविहाणाई वंति,०-उस्साणं जाव खातोपगाणं, तेसु बगेगसपसहजाब पछयातिस्सा, उस्सयां पण खारोवएस्सु
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6
मेह
| खातोवएस, सम्बत्यविणं सत्थवज्मे जाव किया जाई इमाई पुषिकाइयविहाणाई भवंति, तं०-पुढवीणं सबव्याख्या राणं जाव सूरकंताणं, तेसु अगसयजाव पचायाहिति, उत्सवणे खरवायरपुरविवाइएस, सम्बस्थविणं
सिस्थषज्झे जाव किचा रायगिहे नगरे बाहिंवरियत्ताए उवमविहिद, तस्थवि णं सस्थवजा जाय किचा दुचंपि ॥१३५४॥
रायगिहे नगरे अंतोवरियत्ताए उववजिहिति, (सूत्रं ५६०)॥
[प्र.] हे भगवन् । ज्यारे सुमंगल अनगार घोडासहित विमलवाहन राजाने यावत्-भस्मराशिरूप करशे त्यारवाद ते क्यों जशे, क्या उत्पम थशे ! [उ.] हे गौतम ! सुमंगल अनगारे घोडासहित यावत्-मस्मराशिरूप कर्या पछी ते विमलवाहन राजा अबसलम पृथिवीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकने विषे नारकपणे उत्पमयशे. त्यांथी च्यवीने तुरत मत्स्पोने विषे उत्पन यशे. त्या पण अखण्डे बघ थवाथी दाहनी पीडाबडे मरणसमये काळ करीने बीजीवार पण अघासतम नरकपृथिवीमा उत्कृष्टखितिवाळा नरकावासने विषे नारकपणे उत्पन्न यशे. त्यांची अन्तररहितपणे च्यवी बीजीवार पण मत्स्योमा उत्पन थशे. त्या पण शत्रवडे वध थवाथी यावत्-काळ करीने छडी खमा नामे नरकथिवीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिबाळा नरकमां नरयिकपणे उत्पन। बशे. त्यांची नीकळी तुरतज स्त्रीने विषे उत्पमयशे. त्या पण शस्त्रद्वारा वध थता दाहनी पीडाथी यावत्-बीजीवार छवी तमा पृथिवीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकमां नारकपणे उत्पन्न थशे. यावत त्यांची नीकळीने वीजीवार पण स्त्रीयोमा उत्पन्न थशे. त्यां पण शस्त्रबडे वध पवाथी यावद काळ करीने पांचमी धूमप्रभाने विष उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकवासमां यावत् उत्पन्न यचे. त्यांथी नीकळीने उसपरिसर्पमा उत्पम यशे. त्यां पण शबवडे बध थवाची काळ करीने बीजीवार पांचमी नरकथि
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बासि
वीमा उत्पक था, त्यांची नीकळी यावत् बीजीवार उपरिसपोमा उत्पन्न पचे. त्यांची यावत् काळ करीने चौथी पंकप्रभा पृथिचीमा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाला नरकने विष नारकपणे उत्पन था, यावा त्यांची नीकळी सिंहोमां उत्पन यशे, त्यां पण शस्त्र
१५
डोश बडे वध थवाथी ते प्रमाणेज यावत् काळ करीने वीजीवार चोथी पंकप्रमामा उत्पन थई, यावर त्यांची नीकळी बीजीवार सिंहोमां ४ उत्पन यशे, त्यांची यावत्-काळ करीने श्रीजी वालुकाप्रभामा उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकवासमा उत्पन्न थई, त्यांची नीकळी
पक्षीयोमा उत्पब थशे. त्या पण शखबरे वध थवाथी यावत् काळ-करी पीजीवार त्रीजी वालुकाप्रभामा उत्पत्र थई, यावत्-त्यांची नीकळी वीजीवार पक्षीओमा उत्पन्न यो. यावत्-काळ करी त्यांथी बीजी शर्कराप्रमामा उत्पन्न थई, यावद-त्यांची नीकळी सरीसुप (शीकारी पशुओ) ने विषे उपजचे. त्यां शखबरे वध थवाथी यावद-काळ करी बीजीवार शर्कराप्रमाने विषे यावत्-उत्पन थशे. अने त्यांची नीकळी वीजीवार सरीसृपमा उत्पम यथे, यावत् काळकरीने या रसप्रभापृथिवीने विषे उत्कृष्ट काळनी स्थितिवाळा नरकावासमा नैरयिकपणे उत्पमयशे. यावत्-त्यांची नीकळीने संज्ञीने विषे उपजशे. त्यां पण शत्रवडे वध थवाथी यावत्-काळ करीने असंबीमा उत्पम थशे. त्यांपण अखबहे बच यतां यावत्-काल करीने बीजीवार पण आ रसप्रभापृथिवीमा पस्योपमना असंख्यातमा भागनी स्थितिवाला नरकाबासमा नारकपणे उत्पन थशे. हये त्यांची यावत् नीकळीने जे खेचरना मेदो, ते आ प्रमाणे-चर्म
पक्षीयो (चामडानी पांखवाळा), लोमपचीओ (पिंडानी पांखवान), समुद्गकपक्षीओ जेनीसर्वदा उडता पण पांखो पीडायेल होप 12 ते] अने वितत पक्षीओमा [जेनी इमेशां विस्तारेली पांख होय तेमा ] अनेक लाख बार मरण पामी पामीने त्या वारंवार उत्पनी
ने. सर्वत्र शखध थवाथी दाहनी उत्पचिवडे मरणसमये काळ करी जे आ जपरिसर्पना मेदोहे, ते आ प्रमाणे-यो, नोळीबा
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ANAPAEKार
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२५तके
१३५१
BCC
www.kobatirth.org | इत्यादि प्रज्ञापना सनना प्रथम प्रज्ञापना पदमे विषे कयुके ते प्रमाणे आणवू, यावत-जाहक भने चउप्पाइस जीवोमा अनेक लाख
४ वार मरण पामी पुनः त्या वारंवार उत्पन थशे. बाकी बधुं खेचरनी पेठे जाणवू. यावत्-काळ करी जे आ उरम्परिसर्पना मेदो प्रजाति: होय छे, जे आ प्रमाणे- साप, अजगर, आशालिका अने मनोरग; तेमां अनेक लाखबार मरण पामी यावत्-काळ करी जे आ ॥१३५६॥
चतुष्पदना मेदो होय . ते आ प्रमाणे-१.एक खरीवाळा, २बे खरीवाला, ३गंडीपद अने ४ नखसहित पगवाळा, तेमा अनेक लाखबार उत्पन थशे, त्यांथी यावत् काळ करी जे आ जलचरना मेदो होय जे, ते आ प्रमाणे-कच्छप [काचवा] यावत् सुसुमार तेओमा. अनेक लाखबार उपजशे, यावत्-काळ करी जे आ चउरिन्द्रिय जीवोना भेदो छ, ते आ प्रमाणे-अंधिक, पौत्रिक इत्यादि
जेम प्रज्ञापनासत्रना प्रथम प्रज्ञापनापदमां कमा प्रमाणे यावत् गोमयकीडाओमां अनेक लाखबार उपजशे. त्यां उत्पन थई काळ करी 5/जे आ तेइन्द्रिय जीवोना भेदो छे, ते आ प्रमाणे-उपचित, यावत् हस्तिशौंड, तेओमां उत्पन्न या यावत् काळ करी जे आ बेइन्द्रि| योना मेदो छे, ते आ प्रमाणे-पुलाकृमि यावत् समुद्रलिक्षा, तेओमां अनेक लाखवार उपजशे. उपजी यावत् काळ करी जे आ वनस्पतिना मेदो छ, ते आ प्रमाणे-पक्षो, गुच्छक, यावत् कुहुना; तेओमा अनेक लाखबार मरण पामी उत्पन थशे, विशेषे करीने कटुक घृक्षोमां अने कटुक वेलीमा उपज, अने सर्व खळे शस्त्रवडे वध थवायी यावत् काळ करीने जे आ वायुकायिकना मेदो छ,
ते आ प्रमाणे-पूर्वनो वायु, यावत् शुद्ध वायु; तेमां अनेक लाखबार उत्पन्न थशे. यावत् काळ करी जे आ तेउकायिकना मेदो छ, नाते आ प्रमाणे-अंगारा, यावत् सूर्यकान्तमणि निश्रित अग्नि, तेमां अनेक लाखवार उत्पन्न थशे. उत्पन थई जे आ अप्कायिकना
मेदोळे, ते आ प्रमाणे-अवश्याय-माकळनुं पाणी, यावत् खाईनुं पाणीतेमां अनेक लक्षवार यावत् उत्पन थशे. बहुधा खारा
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उदेश १२१७॥
र पानीमा अने खाईना पानीमा उत्पम पशे; अने सर्व स्थळे शखबडे वच्च पवायी यावत-काळ करीने जे आ पृथिवीकायिकना मेदो
IND, ते वा प्रमाणे-पृथिवी, शर्करा-करा, यावत्-पूर्यकान्तमणि; तेश्रोमा अनेक लाखवार उत्पम थशे. विशेषतः खरवादरपुसाति थिवीकायिकने विषे, सर्वत्र शनवडे वय थवाने लीधे यावत-काळ करीने राजगृह नगरनी बाहेर वेश्यापणे उत्पन थशे. त्या पण
अन्नबहे वध यतां यावत्-काळ करी बीजीवार राजगृह नगरनी अंदर वेश्यापणे उत्पन्न थशे.॥५६॥
तत्थविण सस्थवझे जाव किवा इहेब जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे विंझगिरिपायमले वेमेले सन्निवेसे माहणकुलंसि वारियत्ताए पचायाहिति । तए ण तंवारियं अम्मापियरो उम्मुखबालभावं जोवणगमणुप्पत्तं पडिरूबएणं सुंकेणं पडिरूवएणं विणएणं पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारिपत्ताए बलइस्सति, साणं तस्स भारिया भविस्सति इट्ठा कता जाव अणुमया भंडकरंगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोषिया चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडओविव सुसारक्खिया सुसंगोविया मा णं सीयं मा णं उण्हं जाब परिसहोवसग्गा फुसंतु। तए णं
सा पारिया अन्नदा कदापि गुग्विणी ससुरकुलाओ कुलघरं निजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे Mकालं किच्चा दाहिणिलेसु अग्गिामारेसु देवेतु देवत्ताए उववजिहिति,
- त्या पण शस्त्रवडे बघ थवाची यावत्-काळ करीने जाज अंबद्वीपमा भारत वर्षने विचे विन्ध्याचलपर्वतनी पासे विमेल नामे गाममा बामणकुलने विष पुत्रीपणे उत्पन थशे.ते पुत्री ज्यारे वायभावनो त्याग करी यौवनने प्राप्त पत्यारे तेना मातापिता उचित इम्य अने उचित विनयक्डे योग्य माने माचीपणे पापळे ते पुत्री तेली सीध हे इष्ट, कान्त, पावत-अनुमत, परेणाना कर
एणं पहिसाव अम्मापियो,
रहा कता
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सार ॥१५
१३५८॥
उन्न
दीया जेबी, तेलनी डल्लीनी पेठे अत्यंत सुरक्षित, बसनी पेटीनी पेठे सारी रीते (निपाव स्थाने) राखेली अने रत्नना बरंडीयानी
पेठे सारी रीते रक्षण करायेली ह. ते शीत, उष्ण, यावद-परिसह अने उपद्रवो नम्पः माटे अत्यंत संगोपित-रक्षण करायेली दाइशे. मन्य कोई दिबसे ते ब्रामणपुत्री गर्मिषी यथे, अने बहरगामी पीयेर जता रस्तामा दवाधिनी ज्याला बडे बळी मरणसमये
काळ करी दक्षिणदिशाना अग्निकुमार देवोमां देवपणे उत्पम यशे. । सेणं नतोहितो अणंतरं उबत्तिा माणुस्सं बिग्ग भिहिति माणुस्सं २ केवलं मोहिं बुजिमाहिति के.२ मुंडे भवित्ता आगारामओ अणगारियं पब्बाहिति, तस्थषिय गं विरापियसामने कालमासे कालं किया वाहिणिलेस असुरकुमारेसु देवेसु देवताए उववजिहिति,से णं तओहिंतो जाव उध्वहिता माणुसं विग्गहं तं चेच जाव | तस्थविणं विराहियसामने कालमासे जाव किया दाहिणिल्लेम नागकुमारेमु देवेसुदेवसाए उपजिहिति, से
ओहितो अणंतरं एवं गएणं अभिलावेणं वाहिणिल्लेसु सुबमकुमारेसु एवं वाहिणिल्लेस विज्जुकुमारेसु एवं | अग्निकुमारबज जाप दाहिणिल्लेसु थणियकुमारेसु, से णं तओ जाव उम्वहिता माणुस्सं बिग्गहं लभिहिति जाब विराहियसामने जोइसिएम देवेसु उपवजिहिति, सेणं तओ अणतरं चयं पाता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाच अधिराहियसामने कालमासे कालं किया सोहम्मे कप्पे देवत्साए उबपब्रिहिति, से गंगओहिंतो अणंतरं चयं बहता माणुस्सं विग्गलभिहिति केवलं बोहिं युजिनहिति, तत्पविणं अविराहियसामने कालमासे कालं [किवा ईसाणे कप्पे देवत्ताए उववाजिहिति, सेणं नओ चइत्ता माणुस्सं विग्गहं महिति, तत्थविण
र
हति, सेणं तओता माणुस्सं विगए
सामने कालमा
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अविराहियसामने कालमासे कालं ] किवा सणकुमारे कप्पे देवताए उववजिहिति, से णं तओहितो एवं जहा | | सणकुमारे लहाभलोए महामुके भाणए आरणे, से गं तओ जाव अविराहियसामने कालमासे कालं किया सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति, सेणं तओहिंतो अणंतरं चयं चहत्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई
उदेश' कुलाई भवंतितं.-अड्डाइं जाव अपरिभ्याई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, एवं जहा उवबाइए दर
3॥१३५९॥ पहनवत्तव्यय सञ्चेव वत्तध्वया निरवसेसा भाणियच्या जाव केवल वरनाणदंसणे समुप्पजिहिति।
त्यांची अन्तररहितपणे च्यवीने मनुष्यना देहने धारण करी मात्र घोधि-सम्यग्दर्शन पामशे. केवळ सम्यग्दर्शन पामी मुंड | थई गृहवासनो त्याग करी अनगारिता-दीक्षा ग्रहण करशे. त्या पण श्रामण्य दीक्षाने विराधी दक्षिण दिशाना असुरकुमार देवोमां देवपणे उत्पन थशे. त्यारपछी ते त्यांधी यावत-नीकळी मनुष्य शरीर प्राप्त करी-इत्यादि पूर्वोक्त कई यावत्-त्या पण श्रमणपणुं विगधी मरणसमये काळ करी दक्षिण निकायना नागकुमार देवोमां देवपणे उत्पन थशे हवे ते त्यां अन्तररहितपणे व्यवीइत्यादि ए पाठ बडे दक्षिण निकायना सुवर्णकुमारने विषे, ए प्रमाणे विद्युत्कुमारने विषे, एम यावत्--अग्निकुमार सिवाय दक्षिण निकायना स्तनितकुमारने विषे उत्पन थचे. यावत्-ते त्यांथी निकळी मनुष्य शरीर प्राप्त करणे, यावत्-श्रमणपणु विराधी ज्योतिषिक देवमा उत्पन्न पशे. हवे ते त्यांची अन्तररहितपणे व्यवीने पुन: मनुष्यशरीर प्राप्त करशे, यावत्-श्रमणपणु विराध्या सिवाय मरणसमये काळ ब्री सौधर्मदेवलोकने विष देवपणे उत्पन धो. ते त्यांची अन्तररहित स्थवीमे मनुष्यशरीर प्राप्त करणे, अने केवळ सम्यग्दर्शननो अनुभव करशे. त्या पण भमणपणुं विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करी ईशानदेवलोकमां देवपणे उत्पच थशे. त्यांची
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१५रके
महाक, आनंत अने आरण देवलापान लोकम! देवपणे उत्पा
उद्देश
ररहित व्यवी महान विराध्या सिवाय मरणसमये
Acharya Shri व्यवी मनुष्यशरीर प्राश करने, त्या पण अमणपणुं विराध्या शिमय बरणसमये काकरी सनकमार देवलोकमा देवपणे उत्पत्र
यश. त्याथी च्यची जेम सनत्कुमारने विष का तेम ब्रह्मदेवलोक, महाबुक, आनंत अने आरण देवलोकने विषे जाणवू.हवे ते त्यांची
तीव्यवी यावत्-श्रमणपणाने विराध्या सिवाय मरणसमये काळ करीने सर्वार्थसिद्ध महाविमानने विषे देवपणे उत्पम घशे. त्यांची अन्त॥१६॥
सररहित व्यवी महाविदेहक्षेत्रने विष जेबा बावा प्रकारना पनिक, यावत्-कोइथी पराभव नहि पामे तेवां बालो छे, तेवा कुलोमां
पुत्ररूपे उत्पन थशे. ए प्रमाणे जेम औपपातिकतने विष दृढप्रतिज्ञनी वक्तव्यता कही ले ते सपळी बक्तव्यता अहिं कोबी, यावत्तेने उत्तम केवलज्ञान अने केवलदर्षन उत्पन थशे.
तए णं से दढप्पाने केवली अप्पणो तीबद्धं आभोरहिह अप्प.२ समणे निग्गंधे सहावेहिति सम.२ एवं बविही-एवं स्वस्तु अहं अजो। इओ चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम मंस्खलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमस्थेचेच कालगए तम्मूलगं च णं अहं अनो! अणादीयं भणवदाग दीहमद चाउरंतसंसारफतारं अणुपरियहिए, तंमा अजो! तुझंपि केयि भवतु आयरियपरिणीए उवज्झायपडिणीए आयरियउचजमायाणं अयसकारए अपकारए अकित्तिकारए, मा णं सेवि एवं चेव अणावीयं अणवदग्गं जाव संसारकंतारं अणुपरियहिहिति जहा णं अहं । तरण ते समणा निग्गंथा दढप्पहनस्स केवलिम्स अंतियं एयमदं सोचा निसम्म भीया तस्था तसिया संसारभउठिवग्गा दहप्पहन केवलि विहितिबं०२ तस्स ठाणस्स बालोइएहिति निविहिंति जाप परिवजिहिति, तए णं से पप्पाने केवली बाई वामाई केवलपरियागं पाउणिहिति बहहिं २ अप्पणो आउ
अCROR
CARE
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5 सेसं जाणेत्ता भत्तं पञ्चक्खाहिति एवं जहा उववाइए जाच सव्वदुक्खाणमंतं काहिति । सेवं भंते ! २त्ति जावर व्याख्याविहरइ (सूत्रं ५६१)॥ तेयनिसग्गो समत्तो॥ समत्तं च पन्नरसम सयं एकसरयं ॥ १५-१॥
12१५ शतके प्रज्ञात
Cउद्देश ॥१३६१॥
___ स्यारवाद ते दृढप्रतिज्ञ केवली पोलानो अतीत काळ जोशे, जोईने श्रमण निर्ग्रन्थोने बोलावशे, चोलावीने ए प्रमाणे कहेशे४ा 'हे आयों! ए प्रमाणे खरेखर आजथी घणो काळ पहेलो हुं मंखलिपुत्र गोशालक नामे हतो; अने हुं श्रमणोनो घात करी यावत्
छबस्वावस्थामां काळधर्म पाम्यो. हे आर्यो! ते निमित्त हुँ अनादि, अनन्त अने दीर्षमार्गवाळा चारमतिरूप संसाराटवीमा भम्यो. ते माटे तमे कोई आचार्पना प्रत्यनीक-द्वेषी न यशो, उपायायना प्रत्यनीक न यशो, आचार्य अने उपाध्ययना अयश करनारा, अवर्णवाद करनारा अने अकीर्ति करनारा न यशो, अने ए प्रमाणे मारी पेठे अनादि, अनन्त यावत् संसाराटवीमां न ममशो. त्यार| पछी ते श्रमण निग्रन्थो प्रतिक्ष केवलीनी पासे ए वात सामळी, अवधारी भय पामी, त्रस्त थई. त्रास पामी अने संसारना भयची उनि थई दृढप्रतिक्ष केवलीने वंदन करणे, नमस्कार करशे, वंदनम्नमस्कार करी ते पापखानकनी आलोचना अने निन्दा करो, यावत् चारित्रनो स्वीकार करशे. त्यारपछी रदप्रतिक केवली घणा वर्ष पर्यन्त केवलपर्यायने पाळी पोतार्नु आयुष थोई बाकी जाणीने 81 भक्तप्रत्याख्यान करशे, ए प्रमाणे औपपातिकसूत्रमा कडा प्रमाणे यावत् सर्व दुःखोनो अन्त करते. 'हे भगवन् । ते एमजले, हे मगवन् ! ते एमज' एम कही [भगवान गौतम] यावत् विहरे के. ॥ ५६१ ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीयत्रना १५ मा श्चतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
ARAN
SORRORE
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व्याख्या.
प्रज्ञप्तिः
१३६२॥
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शतक १६. (उद्देशक १)
अहिगरणी जरा कम्मे जाबतिथं गंगदत्त ५ सुमिणे य । उबओग लोग बलि ओही १० दोष उदही दिसा पणिया १४ ॥ ७६ ॥
[उद्देशकार्थसंग्रह - ] १ अधिकरणी - एरण प्रमुख संबन्धे पहेलो उद्देशक, २ जरादि अर्थ संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ कर्म वगेरे संबन्धे श्रीको उद्देशक, ४ उद्देशकना प्रारंभमां 'जावतिय' यावतिक शब्द होवाथी यावतिक नामे चोथो उद्देशक, ५ गंगद देव संबन्धे पांचमो उद्देशक, ६ स्वप्न विषे छट्टो उद्देशक, ७ उपयोग संबन्धे सातमी उद्देशक, ८ लोकस्वरूप संबन्धे आठमो उद्देशक, ९ बलीन्द्र संबन्धे नवमो उद्देशक, १० अवधिज्ञान संबन्धे दशमो उद्देशक, ११ द्वीपकुमार संबन्धे अगीयारमो उद्देशक, तथा १२ उदधिकुमार, १३ दिक्कुमार अने १४ स्तनितकुमार संबन्धे बारमाथी चौदमा मुधी त्रण उद्देशको—ए प्रमाणे सोलमा शतकमां | चौद उद्देशको कहेबाना से.
लेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं व्यासी— अस्थि णं भंते! अधिकरणिसि वाडयाए वक्कमति ?, हंता अस्थि, से भंते । किं पुढे उद्दार अपुढे उद्दाह १, गोषमा ! पुढे उदाह नो अपुढे उद्दाह, से भंते! किं ससरीरी निकलमइ असरीरी निक्समह एवं जहा खंदए जाब नो असरीरी निक्वमह (सूत्रं ५३२ ) । [प्र.] ते काळे ते समये राजगृह नगरमां यावत् पर्युपासना करता ( भगवान् गौतम ) आ प्रमाणे बोल्या के हे भगवन् !
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१६ श उमेश १
॥ १३६२॥
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F
अधिकरणी ( एरण) उपर (हयोडो मारती बखते) वायुकाय उत्पन थाय! [उ०] गौतम हा, पाय. [प्र०मगवन्! ते व्याख्या
वायुकायनो बीजा कोर पदार्थ साथे स्पर्श पाय तोज ते मरे के स्पर्श थया सिवाय पण मरे ? [उ.] हे गौतम ! तेनो वीजा पदार्थ १६ शतके ॥१३६३॥ रासाये स्पर्श थाय तोज मरे, पण स्पर्श थया सिवाय न मरे. [प्र०] हे भगवन् । (ज्यारे से वायुकाय मरण पामे त्यारे) ते शरीरसहित
१३६॥ भवान्तरे जाप के शरीरहित जाय ! [३०] हे गौतम ! आवावतमा जेम स्कंदकना उद्देशकमां कडं के, ते प्रमाणे यावत् 'शरीररहित बईने जतो नथी' त्यांमुधी अहिं जाणवू.॥५६२॥
इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं काल संचिट्ठति !, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं 81 |तिति राइंदियाई, अनेवि तत्य वाउयाए बकमति, न विणा पाउयाएणं अगणिकाए उज्जलति (व ५६३)॥ । [4] हे भगवन् ! सगडीमा अग्निकाय केटला काळ सुधी (सचेतन) रहे? [उ०] हे मौतम ! जघन्यथी अंताहूर्व मुधी अने उत्कृष्टथी त्रण रात्रिदिवस मुधी रहे. बळी त्यां अन्य वायुकायिक जीवो पण उत्पम थाय छे, कारणके वायुकाय विना अधिकाय प्रज्वलित पतो नथी. ॥ ५६३ ।।
पुरिसे ण भंते! अयं अयकोसि भयोमएणं संहासएणं उब्धिहमाणे वा पब्धिहमाणे वा कतिकिरिए. | गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोहंसि अयोमएणं संडासएणं उध्विहिति वा पब्बिाहिति वा सावं च ण से पुरिसे कातियाए जाच पाणाइवायकिरियाप पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिपिय गं जीवाणं सरीरेहितो अए निव्वत्तिए अयकोडे निव्वत्तिए संडासए निव्वत्तिए इंगाला निब्बत्तिया इंगालकहिणी नियत्तिया मत्था
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॥
www.kobatirth.org निव्वत्तिया तेविय गंजीवा-काइयाए जाव पंचाहि किरियाहिं पुट्ठा । पुरिसे णं भंते ! अयं अपकोटाओ अयोमरणा 15 संडासएण गहाय अहिकरणिसि उक्खिवमाणे वा निक्खिबमाणे वा कतिकिरिए, गोधमा ! जावं च णं से | पुरिसे अयं अयकोठाओ जाव निक्विबइ वा तावं पणं से पुरिसे काहयार जाब पाणाइवायकिरियाए पंचहिं
हा उद्देश ॥१३६४॥
॥२५ किरियाहिं पुढे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहितो अयो निब्बत्तिए संडासए निबत्तिए चम्मेढे निब्बत्तिए मुहिए निवत्तिए अधिकरणि. अधिकरणिखोडी णि. उदगदोणी णि अधिकरणसाला निव्वत्तिया तेवि य णं जीवा
काहयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा (सूत्रं ५६४) । * प्र०] हे भगवन् ! लोढाने पाववानी भट्टीमा लोढाना सांडसावडे लोढाने ऊंचु के नीचुं करनार पुरुषने केटली क्रियाओ
लागे? [उ०] हे गौतम ! ज्यांसुधी ते पुरुष लोढाने तपावधानी भट्ठीमा लोढाना सांडसावडे लोढाने उंचुं के नीचे करे के त्यांसुधी ते पुरुषने कायिकीथी मांडीने प्राणातिपात क्रिया सुधीनी पांच क्रियाओ लागे. बळी जे जीवोना शरीरथी लोढुं पन्युं छे, | लोढानी भट्टी बनी छे, सांडसो बन्यो छे, अंगारा बन्या छे, अंगाराकर्षणी (अंगारा काढवानो सळीयो) बनी छे अने धमण बनी 181 हाते बधा जीवोने पण कायिकी यावत्-पांन क्रियाओ लागे छे. [प्र०) हे भगवन् ! लोढानी भट्ठीमांथी लोढाना सांडसावडे लोढाने |&
लई तेने एरण उपर लेता अने भूकता पुरुषने केटली क्रियाओ लागे। [उ०] हे गौतम! ते पुरुष ज्यांसुधी लोढानी भट्ठीमांथी लोढाने लिई यावत् एरण उपर मुके थे, त्यांसुधी ते पुरुषने कापिकी यावत् प्राणातिपात सुधीनी पांच क्रियाओ लागे के. वळी जे जीवोना शरीरथी लोढुं बन्धु के, सांडसो बन्यो छ, चमेंष्टक घण बन्यो के, नानो हथोडो बन्यो छे, एरण बनी छ, एरण खोडवानुं लाकई
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ब्याक्याप्रजाति
१६ शतके उद्देश
बन्युं छे, गरम लोढाने ठारवानी पाणीनी द्रोणी (इंडी) पनी हे अने अधिकरणशाला (लोहारनी कोड) बनी ते जीवोने पण
कापिकी यावत् पांच क्रियाओ लागे के. ॥५६॥ का जीवेणं भंते ! कि अधिकरणी अधिकरणं, गोपमा जीवे अधिकरणीवि अधिकरणपि, से केणटेण भंते।
* एवं बुबह जीवे अधिकरणीवि अधिकरणंपि!, गोयमा! अविरतिं पडच से तेजष्टेणं जाप अहिकरणपि ॥ नेरदए। णं भंते ! किं अधिकरणी अधिकरणं?, गोपमा! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, एवं जहेच जीवे तहेव नेरहएपि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए ।। जीवे णं भंते! किं साहिकरणी निरहिकरणी ?, गोयमा! साहिकरणी नो निरवि करणी, से केणद्वेणं पुच्छा, गोषमा! अविरतिं पडल, से तेणटेणं जीवे नो निरहिकरणी एवं जाव वेमाणिए । जीवे णं भंते ! किं आयाहिकरणी पराहिकरणी तदुभयाहिकरणी, गोयमा! आपाहिकरणीवि पराहिकरणीवि तदुभयाहिकरणीचि, से केणटेणं भंते । एवं बुचा जाव तदुभयाहिकरणीवि, गोयमा! अविरतिं पशुध, से तेणटेणं जाव तदुभयाहिकरणीवि, एवं जाव बेमाणिए । जीवाणं भंते! अधिकरणे किं आपप्पओगनिव्वत्तिए परप्पयोगनिब्बत्तिए तदुभयप्पयोगनिमबत्तिए !,गोयमा आयप्पयोगनिब्बत्तिएवि परप्पयोगनिव्वत्तिएविताभयप्पयोगनिव्वसिएवि, से केणतुणं भंते! एवं बुबह, गोपमा। अविरतिं पडुच, से तेणद्वेणं जाव तदुभयप्पयोगनिब्यत्तिगवि, एवं जाव वेमाणियाणं (सूत्रं ५६५)॥
[प्र०] हे भगवन् ! जीव अधिकरणी अधिकरणवालो के अधिकरण उ०] गौतम! जीव अधिकरणी पण
फिल्ड
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अधिकरण पण छे. [प०] हे भगवन् ! र प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे' [उ.] व्याख्या- 8| हे गौतम! अचिरतिने आश्रयी, अर्थाद अविरतिरूप हेतुथी जीच अधिकरणी पण छ अने अधिकरण पण के. [प्र०] हे भगवन् ! दा१६ करके प्रज्ञासिल नरयिक अधिकरणी के के अधिकरण [30] हे गौतम! नैरयिक अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण छे, जेम जीव संबंधे
IPउदेश ॥१३६६॥
कह्यु नेम नैरयिक संबंधे पण जाणवू, अने ए प्रमाणे यावर निरंतर वैमानिक सुधीना जीव संबन्वे पण जाणवं, [प्र.] हे भगवन् ! 51 झुंजीव साधिकरणी छे के निरधिकरणी छे। [उ०] हे गौतम! जीव साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी नथी. [प्र०] हे भगवन् ।
ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव साधिकरणी छे अने निरविकरणी नथी'१ [उ०] हे गौतम! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अवरतिरूप हेतुथी जीवो साधिकरणी छे, पण निरधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी जाणवं. [प०] हे भगवन् ! | जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छे के तदुभयाधिकरणी छे ? [उ.] हे गौतम! जीव आत्माधिकरणी छे, पराधिकरणी छ अने तदुभयाधिकरणी के. [प्र.] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'जीव आत्माधिकरणी, पराधिकरणी अने तदुभयाधिकरणी पण छ ? [3] हे गौतम ! अविरतिने आश्रयी, अर्थात् अविरतिरूप हेतुथी जीव यावत्-निाधिकरणी नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी जाणवू. [५०] हे भगवन् ! झुं जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगयी थाप थे, परप्रयोगथी थाय के के भय प्रयोगथी थाय ने १ [उ.] हे गौतम ! जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगधी, परप्रयोगयी अने तदुभयप्रयोगथी पण धाय छे. [म.]
हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के जीवोनुं अधिकरण आत्मप्रयोगथी, परप्रयोगथी अने तदुभयप्रयोगपी थाय. सके ? [३०] हे गौतम ! अविरतिने आश्रयी, अर्थात जीवोनुं अधिकरण अविरतिरूप हेसुथी यावद नदुमयप्रयोगथी थाय हे. ए |
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व्याख्याप्रज्ञठिः ॥१३६७।।
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प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी जाणवुं. ।। ५६५ ।।
कणं भंते! सरीरगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तंजड़ा - ओरालिए जाव कम्मए, कति णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, संजहा- सोइंदिए जाव फार्सिदिए, कतिविहे णं भंते । जोए पण्णत्ते ?, गोयमा ! तिबिहे जोए पण्णत्ते, तंजा - मगजोए बहजोए कायजोए ॥ जीवे णं भंते ! | ओरालि सरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं ?, गोगमा ! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, से केणट्टेणं भंते! एवं बुचइ अधिकरणीयि अधिकरणंपि?, गोयमा ! अविरतिं पडुच, से तेणद्वेणं जावअधिकरणपि, पुढविकाइए णं भंते! ओरालि यसरीरं नित्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं १, एवं चेव, एवं जाब माणुस्से । एवं वेडव्विसरीरंपि, नवरं जस्स अस्थि, जीवे णं भंते! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी० १, पुच्छा गोमा ! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, से केणद्वेषां जाब अधिकरणंपि १, गोयमा । पमायं पहुच, से तेणद्वेणं जाव. अधिकरणं, एवं मणुस्सेवि, तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं सव्वजीवाणं भाणियव्वं, एवं कम्मगसरीरंपि । जीवे णं भंते! सोइंदियं निव्वतेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं ?, एवं जहेब ओरालिपसरीरं तहेब सोइंदियंपि भाणियव्वं, नवरं जस्स अस्थि सोइंदियं, एवं चक्खिदियघार्णिदियजिभिदियफासिंदियाणवि, नवरं जाणियब्वं जस्स जं अस्थि । जीबे णं भंते! मणजोगं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं, एवं अहेष सोइंदियं तब निरवसेसं बड़जोगो एवं शेष, नवरं एगिंदिप वजाणं, एवं कायजोगोबि, नगरं सव्वजीवाणं जाब वैमाणिए ।
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१६ शतके उद्देश १ ॥१३६७॥
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व्यारूपा प्रज्ञप्तिः ॥१३६८।।
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सेवं भंते । सेवं भंते! ति (सूत्रं ५६६) ।। १६-१ ।।
[प्र० ] हे भगवन् ! शरीरो केटलां कलां ! [उ०] हे गौतम ! शरीरो पांच कक्षां के, ते आ प्रमाणे-१ औदारिक, यावत् ५ कार्मण. [प्र० ] हे भगवन् ! इंद्रियो केटली कही छे ? [उ०] हे गौतम! इंद्रियो पांच कहीं छे, ते आ प्रमाणे - १ श्रोत्रेद्रिय, यावत् ५ स्पन्द्रिय. [प्र०] हे भगवन् ! योजना केटला प्रकार कथा के ? [उ० ] हे गौतम! योगना त्रण प्रकार कथा के, से जा प्रमाणे- १ मनयोग, २ वचनयोग अने ३ काययोग. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने गांधतो जीव अधिकरणी छे ? [उ०] | हे गौतम! ते अधिकरणी पण छे अने अधिकरण पण . [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के 'औदारिक' शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी छे अने अधिकरण पण के' ? [अ०] हे गौतम! अविरतिने आश्रयी. अर्थात् अविरतिरूप हेतुयी पूर्व प्रमाणे यावत्-अधिकरण पण के. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो पृथ्वीकायिक जीव अधिकरणी के के अधिकरण के ? [[अ०] हे गौतम! पूर्व प्रमाणे जाणवुं. अने ए प्रमाणे यावत् मनुष्यो सुधी जाणं. ए प्रमाणे वैक्रिय शरीर संबधे पण समजनुं, पण रोमां ए विशेष के के जे जीवोने जे शरीर होय तेमना विषे ते शरीर संबन्धे कहे. [प्र०] हे भगवन् ! आहारक शरीरने बांधतो जीव अधिकरणी इत्यादि प्रश्न. [30] हे गौतम ? ते अधिकरणी पण के अने अधिकरण पण छे. [प्र० ] हे भगवन् । ते ए प्रमाणे शाहेतुथी कहो छो के ते यावत्- 'अधिकरण पण छे' ? [३०] हे गौतम! प्रमादने आश्रयी, अर्थात् प्रमादरूप कारणने लइने ते यावत्- 'अधिकरण पण छे.' ए प्रमाणे मनुष्य संबंधे पण जाणवुं. औदारिक शरीरनी पेठे वैजस शरीर संबंधे पण कहेतुं, पण तेमां विशेष एछे के, [ तैजस शरीर सर्व जीवोने होवाथी] सर्व जीबोने विषे ए प्रमाणे समज. एज प्रमाणे कार्मण शरीर विषे पण जाण
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१६ पास उदेश १ ||12346
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व्याख्या प्रालि
[प्र०] हे भगवन् ! बोत्रेन्द्रियने बांधतो जीव अधिकरणी के के अधिकरण के ? [उ.] हे गौतम ! जेम औदारिक शरीरने विषे कहेलं के तेम श्रोत्रंद्रियने विषे पण कहे. विशेष ए के के जे जीवोने श्रोत्रंद्रिय होय तेमना विपे ते कहे. ए प्रमाणे चक्षुरिद्रिय, प्राणेंद्रिय, जिद्रिय, अने स्पशेंद्रिय संबंधे पण जाणवं. विशेष ए के जे जीवोने जे इन्द्रिय होय तेमना विष ते इन्द्रिय संबन्थे
*उदेश २
n el कहे. [म.] हे भगवन ! मनोयोगने बांधतो जीव अधिकरणी छे के अधिकरण १ [३०] हे गौतम ! जेम श्रोत्रंद्रियना विषयमा
कमु छ तेम आ विषयमा पण वधू कहे. ए प्रमाणे वचनयोग संवन्धे पण समज. विशेष ए के वचनयोगमा एकेंद्रिय जीवो न 51 लेवा. ए प्रमाणे काययोग संबन्धे जाणवू. अने तेमा विशेष ए के काययोग सर्व जीवोने होवाथी सर्वना विषे ते समजबु. ए प्रमाणे ६ यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू, 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ॥ ५६६ ॥ भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमा प्रथमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. (उद्देशक २) रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते। किं जरा सोगे, गोयमा! जीवाणं जरावि सोगेवि, से केणद्वेणं | भंते । एवं बु० जाव सोगेवि!, गोयमा! जेणं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति तेसि गं जीवाणं जरा, जेणं जीवा131 द माणसं वेदणं वेति तेसि जीवाणं सोगे, से तेणद्वेणं जाव सोगेवि, एवं नेरइयाणवि, एवं जाव थणियकुमा
राणं, पुरविकाइयाणं भंते! किं जरा सोगे,गोयमा ! पुषिकाइयाणं जरा, नो सोगे, सेकेणद्वेणं जाब नो सोगे,
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· ध्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३७० ।।
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गोषमा ! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेदेति नो माणसं वेदणं वेदेंति से तेणट्टेणं जाव नो सोगे, एवं जान चउ रिंदियाणं, सेसाणं जहा जीवाणं जाब बेमाणियाणं, सेवं भंते । २ त्ति जाव पज्जुवासति (सूत्रं ५६७ ) |
[प्र०] राजगृहमां भगवान् गौतम यावत् आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! शुं जीवोने जरा- वृद्धावस्था अने शोक होय छे ? [+] हे गौतम! जीवोने जरा पण होप के अने शोक पण होय छे. [प्र० ] हे भगवन् । ते ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो हो के, जीवोने जरा अने शोक होय छे ? [उ०] हे गौतम! जे जीवोने शारीरिक वेदना होय छे ते जीवोने जरा होय छे, अने जे जीवोने मानसिक वेदना होय छे ते जीवोने शोक होय के माटे ते हेतुथी एम कम छे के जीवोने जरा अने शोक होय छे, र प्रमाणे नैरयिको संबंधे तथा यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाण. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकोने जरा अने शोक होय के ? [अ०] हे गौतम ! पृथिवीकायिकने जरा होय छे, पण शोक नथी होतो. [प्र०] हे भगवन् । तेनुं शुं कारण के पृथिवीकायिकोने जरा होय अने शोक न होय ? [अ०] हे गौतम! पृथिवीकायिको शारीरिक वेदनाने अनुभवे छे, पण मानसिक वेदनाने अनुभवता नथी माटे तेओने जरा होय छे, पण लोक नथी होतो. ए प्रमाणे यावत् चतुरिंद्रिय जीवो सुधी जाणवुं. बाकीना जीवो माटे सामान्य जीवोनी पेठे समज. अने ए प्रमाणे यावत् वैमानिको सुधी कहेतुं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे २' एम कही यावत् पर्युपासना करे छे. ।। ५६७ ।।
ते काले २ सके देविंदे देवराया वज्रपाणी पुरंदरे जाव भुजमाणे बिहरह, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं १२ विपुलेणं ओहिणा आभोरमाणे २ पासति समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे २ एवं जहा ईसाणे तइयसए तहेव सोबि नवरं आभिओगे ण सहावेति हरी पायन्ताणियाहिवई सुघोसा घंटा पालओ विमाणकारी पालगं बिमाणं
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१६ शतके उद्देश २ ॥१३७०॥
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व्याख्या-
१६ शतके उद्देश २
प्राप्ति ।१३७१॥
उत्सरिल्ले निजाणमग्गे दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपब्वए सेसं तं चेद जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति धम्मकहा जाव परिसा पडिगया, तए णं से सके देविंद देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म हहतुट्ट. समण भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं वयासी-कतिविहे णं भंते ! उग्गहे पन्नते, सक्का! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-देविंदोग्गहेरायोग्गहे गाहाबहउग्गहे सागारियउग्गहे साहम्मियउग्गहे ।।
जे इमे भंते! अवताए समणा निग्गंथा विहरति एएसिणं अहं उग्गहं अणुजाणामीतिका समणं भगवं महा 5 वीरं वंदति नमसति २ तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति २ जामेव विसं पाउम्भूए तामेव विसं पडिगए।
भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महा. वंदति नम०२ पवं वयासी-जणं भंते ! सक्ने देविंदे देवराया तुझे |णं एवं वदह सचे णं एसमद्वे ?, हंता सच्चे (सूत्रं ५६८)॥
ते काळे ते समये शक, देवेंद्र, देवराज, वज्रपाणि, पुरंदर यावद-मुखने मोमवतो विहरे, अने पोताना विशाल अवधिज्ञान वडे आ समस्त जंबूद्वीपने अवलोकतो अबलोकतो जंबूद्वीपमा श्रमण भगवंत महावीरने जुए छे. अहीं तृतीय शतकमां कहेल ईशानेन्द्रनी वक्तव्यता प्रमाणे शनी वधी वक्तव्यता कहेवी. विशेष ए छे के आ शक्र आभियोगिक देवोने बोलावतो नथी. एनो सेना धिपति हरिनममेषी देव के, घंटा सुघोषा छ, पालक नामे देव विमाननो बनावनार छ, विमाननुं नाम पालक, एनो निकळबानो मार्य उत्तर दिशाए, दक्षिण पूर्वमां-अनिकोममा रतिकर पर्वत के. बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. यावत्-शक पोतार्नु नाम संभळावी भगवंतनी पर्युपासना करे छे. श्रमण भगवंत महावीरे धर्मकथा कही. यावत्-समा पाछी गई,. त्यारवाद ते शक, देवेन्द्र,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३७२।।
देवराज श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी, अवधारी हर्षवाळो अने संतोषचालो थई श्रमण भगवंत महावीरने चांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो-[म०] हे भगवन् ! अवग्रह केटला प्रकारनो कबो छ । [उ०] हे शक्र ! अपग्रह पांच प्रकारको कझो छे. ते आ प्रमाणे-१ देवेन्द्रावग्रह, २ राजावग्रह, ३ गृहपतिअवग्रह, ४ सागारिकावग्रह अने ५ सार्मिकावग्रह. जे आ श्रमण निर्ग्रन्थो INLIN..
आजकाल विचरे छे वेओने हुं अवग्रहनी अनुज्ञा आपुंछु. एम कही ते शक श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी तेज दिम्य विमान | उपर बेसी ज्यांथी आन्यो हतो त्यां चाल्यो गयो. [५०] 'भगवन् ! एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी
आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् । शक्र देवेन्द्र देवराजे जे अपने पूर्व प्रमाणे [अवग्रह संबंधी ] क ते अर्थ सत्य के ? [उ०] हा गौतम र अर्थ सत्य के.॥५६८॥ | सके णं भंते ! देविंदे देवराया किं सम्मावादी मिच्छावादी ?, गोयमा! सम्मावादी नो मिच्छावादी॥ सके
भंते ! देविंदे देवराया कि सचं भासं भासति मोसं भासं भासति सचामोसं भासं भासति असचामोसं भासं भासति ?, गोयमा सबंपि भासं भामति जाव असचामोसंपि भासं भासति ॥ सकेणं भंते । देविंदे देवराया किं सावलं भासं भासति ?, अणवज भासं भासति ?, गोयमा! सावर्जपि भासं भासति अणवजंपि भासं | भासति, से केणटेणं भंते ! एवं बुबह-सावळपि जाव अणवजपि भासं भासति ?, गोयमा जाहे णं सके देविंदे देवराया सुहुमकार्य अणिजूहित्ताणं भासं भासति ताहे णं सके देविंदे देवराया सावज भासं भासति, जाहे णं सके देविदे देवराया मुहुमकायं निहितार्ण भासं भासतिताहे णं सके देविंदे देवराया अणषजं भासं
ब
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व्याख्या प्रति
॥१३७३॥
भासति, से तेणढणं जाव भासति, सके णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए अभवसि सम्मविट्ठीए एवं | जहा मोउद्देसए सर्णकुमारो जाव नो अचरिमे ॥ (सूत्रं ५६९)।
१६ शतके [प.] हे भगवन् ! शक देवेन्द्र देवराज झुं सत्यवादी के के मिथ्यावादी छे ? [उ०] हे गौतम ! ते सत्यवादी छे पण मिथ्या-14
| उद्देश २ हावादी नथी. [प्र.] हे भगवन् ! शक देवेन्द्र देवराज सत्यभाषा बोले , मृषा भाषा बोले छे, सत्यमृषा भाषा बोले के के असत्या
| मृषा भाषा बोले के ? [उ.] हे गौतम ! ते सत्व भाषा बोले छे, यावत्-असत्यामृषा भाषा पण बोले छे. [4.] हे भगवन् ! शक | देवेन्द्र देवराज सावध (पापयुक्त) भाषा बोले के निरवध (पापरहित) भाषा बोले? [उ०] हे गौतम! ते सावध अने निस्वद्य बने माषा बोले. [प्र०] हे मगवन् ! तेनुं हुं कारण के शक सावध अने निरवद्य ए बने भाषा चोले ? [उ.] हे गौतम । शक देवेंद्र देवराज ज्यारे सूक्ष्म काय-हस्त अथवा वस्त्र वडे मुख ढाक्या बिना बोले त्यारे ते सावध भाषा बोले छे अने मुख ढांकीने बोले त्यारे ते निरवद्य भाषा बोले छे, माटे ते हेतुथी ते शक्र सावध अने निरवध पन्ने भाषा बोले छे. [म०] हे भगवन् ! ते शक्र देवेन्द्र देवराज मत्रसिद्धिक छे, अमरसिद्धिक छ, सम्पारष्टि छ, [के मिथ्यारष्टि छे !][उ.] जेम श्रीजा शतकना प्रथम उद्देशकमा सनस्कुमार माटे का छे वेम अहिं पण जाणवू. अने ते यावद,-'अचरम नथी' ए पाठ सुधी कडेचं. ॥ ५६९ ॥
जीवाणं भंते ! किं चेयकता कम्मा कति अचेयकडा कम्मा कलंति?, गोयमा जीवाणं चेयकडा कम्मा कञ्चति नो अचेयकता कम्मा कजंति, से केण. भंसे! एवं बुखा जाव कति !, गोयमा! जीवाणं आहारोब-- चिया पोग्गला बौदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला,महा २ णं से पोग्गला परिणमंति नथि अचेयकमा
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प्रशतिः
| उमेश ४ ॥१३७
| कम्मा समणाउसो, दुट्टाणेसु दुसेजासु दुन्निसीहियासु तहा२णं ते पोग्गला परिणमंति नस्थि अचेयकडा कम्मा व्याख्या- समणाउसो!, आर्यके से वहाए होति, संकप्पे से वहाए होति, मरणंते से वहाए होति, तहा २ ण ते पोग्गला
परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो, से तेणटेणं जाव कम्मा कजंति, एवं नेरतियाणवि एवं जाव घेमाणियाणं । सेवं भंते! सेवं भंते ! जाब विहरति ॥ (सूत्रं ५७०) ।। १६-२॥ | [प्र०] हे भगवन् ! जीवोना कर्मों चैतन्यकृत होय के के अचैतन्यकृत होय छ ? [उ.] हे गौतम जीवोना कर्मों चतन्यकृत | होय छे पण अचतन्यकृत नथी होता. [प्र० हे भगवन् । तेनु शु कारण छे के 'जीवोना कर्मों चैतन्य कृत होय छे पण अचैतन्यकृत नथी होता' ? [उ०] हे गौतम! जीवोए ज आहाररूपे, शरीररूपे अने कलेवररूपे उपचित (संचित) करेला पुगलो ते ते रूपे परिणमे छे, माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! अचैतन्यकृत को नथी. तथा दु:स्थानरूपे, दुशय्यारूपे, अने दुर्निषद्यारूपे ते ते पुद्गलो
परिणमे छे माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! अचैतन्यकृत कर्मपुदलो नथी. तथा ते आतंकरूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे, संकहैल्परूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे अने मरणांतरूपे परिणमी जीवना वध माटे थाय छे माटे हे आयुष्मन् श्रमण ! कर्मपुद्गलो | अचैतन्यकत नथी. ते कारणथी यावत्-जीवोना कर्मो अचैतन्यकृत नथी. ए प्रमाणे नैरयिको संबंधे अने यावत् वैमानिको संबंधे पण जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज थे, हे भगवन् ! ते एमज' एम कही यावद् विहरे छे. ॥ ५७० ॥
. भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमां वीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्या शतक १६. (उद्देशक ३)
४१६शतके प्रकाशि
उदेश ॥१३७५॥
रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ?, गोवमा! अट्ठ कम्मपयडीओ ६ पण्णत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिज्न जाब अंतराइयं, एवं जाव वेमा । जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्मं वेदे*माणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ, एवं जहा पन्नवणाए वेदावेउद्देसओ सोचेष निरवसेसो भाणियव्यो, वेदाधोवि तहेव, बंधावेदोवि तहेव, पंधापंधोवि तहेव भाणियव्यो जाब वेमाणियागंति । सेवं भंते ! २ जाब विहरति (सूत्रं ५७१) ।
[म.] राजगृहमा (भगवान् गौतम) यावत् आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! केटली कर्मप्रकृतिओ कही १ [३०] हे। | गौतम! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे. ते आ प्रमाणे-१ ज्ञानावरणीय, यावत् ८ अंतराय. ए प्रमाणे यावत वैमानिको सुधी जाग. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मने वेदतो जीव बीजी केटली कर्मप्रकृतिओ वेदे छ। [उ०] हे गौतम ! आठे कर्मप्रकृतिबोने
वेदे छे. ए प्रमाणे अहीं प्रज्ञापनावमां कहेल 'वेदावेद' नामनो समन उद्देशक कडेवो. तथा तेज प्रकारे 'वेदाबंध' नामनो उदेशक Pा पण कडेवो. तेवीज रीते 'बंधावेद' नामनो तथा 'बंधाबंध' नामनो उदेशक पण कडेवो. ए प्रमाणे याव-वैमानिको मुधी जाणवू. है भगवन् ! ते एमज है, हे भगवन् ! ते एमज ' एम कही यावद-विहरे के. ।। ५७१॥ तएणं समजे भगवं महावीरे अन्नदा कदापि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओचेश्याओ पडिनिक्खमति
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः १३७६॥
CRICHARSH
l andra
Acharya Shr a garsuri Gyanmandir |२ बहिया जणश्यविहारं विहरति, तेणं कालेणं तेणं समपर्ण उल्लुपतीरे नाम मगरे होत्या, बलामो, तस्स णं उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं एगजंबूए नाम चेहए होत्या, पन्नओ, तए णंदा१६ यतके समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुब्वाणुपुचि चरमाणे जाव एगजंबूए समोसढे जाच परिसा पडिगया,
| उदेश भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदा नमंसह वंदित्सा नमंसित्ता पर क्यासी-अणगारस्स गंभंते!
५॥१७॥ भाषियप्पणो छटुंछट्टेण अणिक्वित्तणं जाव आयावेमाणस्स जाब तस्स णं पुरच्छिमेणं अवटु दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पादं वा बाहं वा अरुं वा आउद्दावेत्तए वा पसारेत्तए था, पञ्चच्छिमेणं से अव दिवसं कम्पति इत्थं वा पादं वा जाच ऊरं वा आउंटावेसए वा पसारेत्तए वा, तस्स णं अंसियाओ लंबंति तं च वेजे अदक्खु ईसिं पाडेति ईसिं २ अंसियाओ छिवेज्जा से नूणं भंते! जे छिदति तस्स किरिया कति जस्म छिज्जति नो तस्स किरिया कजाणपणत्थेगेण धम्मतराइएणं, हंता गोयमा! जे छिदति जाव धम्मतराएणं । सेवं भंते! सेवं भंतेति ॥ (सूत्रं ५७२) ॥ १६-३॥
त्यारबाद श्रमण भगवंत महावीरे अन्य कोई दिवसे राजगृह नगरना गुणसिलक चैत्यथी नीकळी बहारना बीजा देशोमां विहार कर्यो. ते काळे ते समये उल्लुकतीर नामर्नु नगर इतुं. वर्णक ते उल्लुकतीर नामना नगरनी बहार ईशान कोणमा एकएक नामर्नु चैत्य हतुं. वर्णक. स्यार पछी अनुक्रमे विचरता श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोई दिवसे एकजनामक चैत्यमा समोसा, या वत्-सभा पाछी गइ. त्यार पछी 'भगवन् । एम कही भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे बोल्या
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व्याख्या प्रति ॥१३७७॥
१६ शतके उद्देश ३ २३७७
SCRECHARG
[4] हे भगवन् ! ण्ड छबुना तपपूर्वक यावत्-निरंतर आतापना लेता भावितात्मा एवा अनगारने दिवसना पूर्वार्ध मागमा | पोताना हाथ, पग, यावत्-उरु सापळने संकोचचा के पहोळा करवा कल्पता नथी, अने दिवसना पश्चिमा भागमा पोताना हाथ, पग, यावत् उरुने संकोचवा अने पोहळा करवा कल्पे छे. हवे (कायोत्सर्गमा रहेला) एवा ते अनमारने (नासिकामां) अर्शोने लटकता होय अने ते अशोंने कोई वैद्य जुए, जोईने ते अर्शने कापवाने ते ऋषिने भूमि उपर सूवाडीने तेना अर्को कापे तो हे भगवन् । ते कापनार वैद्यने क्रिया लागे के जेना अंझे कपाय के तेने धर्मातराय रूप क्रिया सिवाय बीजी पण क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम! हा, जे कापे छ तेने शुभ क्रिया लागे, अने जेना अर्को कपाय छे तेने धर्मातराय सिवाय बीजी क्रिया नथी लागती. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज . ।। ५७२ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमा श्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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शतक १६. (उदेशक ४) रायगिहे जाव एवं वयासी-जावतियन्नं भंते। अन्नइलायए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एषति कम्म नरएसुकि नेरतियाणं वासेण वा वाहिं वा वाससएहिं वा खपति, णो तिणढे समढे, जावतियण्णं भंते। | चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएस किं नेरहया वाससएणं वा वाससरहिं वा वाससहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेहिं (ण) वा खवयंति', णो तिणडे समढे, जावतियन्नं भंते। छहमत्तिए समणे
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व्याख्या
। प्रज्ञप्तिः
॥१३७८॥
GANGOCHARACA*
निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतिय कम्मं नरएसुनेरहया वाससहस्सेण वा वाससहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेण(हिं)
या ववयंति ?, णो तिणडे समढे, जाबतियन भंते ! अट्ठमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निलरेति एवतियं कम्म १६ इतके है नरएसु नेरतिया वाससयसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं या वासकोडीए(हिं) वा स्वयंति', नो तिणढे समहे | Pउरेशा [म०] राजगृहमां यावत् आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! अन्नग्लायक (अम विना ग्लान थएलो-नित्यमोजी) श्रमण
५॥२३७८ | निथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीवो नरकमां एक वरसे, अनेक वरसे के सो वरसे खपावे। [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ-यथार्थ नथी. [म.] हे भगवन् । चतुर्थभक्त (एक उपवास) करनार श्रमण निथ जेटलं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिक जीबो नरकमा सो बरसे, अनेक सो बरसे के हजार वरसे सपावे? (उ.] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी [प्र०] हे भगवन् ! छनुभक्त (खे उपवास) करी श्रमण निग्रंथ जेटलु कर्म खपावे वेटलुं कर्म नैरयिको नरकमा एक हजार वरसे, अनेक हजार बरसे के | एक लाख वरसे खपावे? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. [म.] हे भगवन् ! अष्टम भक्त (त्रण उपचास ) करी श्रमणनिथ जेटलुं कर्म खपावे तेटलं कर्म नैरयिको नरकमा एक लाख वरसे, अनंक लाख बरसे के एक क्रोड वरसे खपावे ? [उ.] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी.
जावतियन्नं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया वासकोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए चा स्वयंति, नो तिणढे समढे, से केणष्टेण भंते! एवं बुचा जावतियं अन्नदलातए समणे निग्गंथे कम्म निजरेति एवतियं कम्मं नरएसुनेरतिया वासेण वा वासेंहिं वा वाससएण वा(जाब)
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ४१३७९ ।।
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वास (सय) सहस्सेण वा नो वबयंति जावतियं चउत्थभत्तिए, एवं तं देव पुष्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव वासको | डाकोडीए वा नो स्ववयंति ?, गोयमा । से जहानामए- केह पुरिसे जुने जराजजरियदेहे सिढिलत याव लितरंगसंपिणद्धगत्ते पविरल परिसडियदंतसेवी उण्हामिहए तण्हामिहर आउरे झुंझिए पिवासिए दुब्बले किलते एवं महं कोसंथगंडियं सुकं जडिलं गंठिल्लं चिकणं वाइद्धं अपत्तियं मुंडेपा परसुणा अवकमेज्जा, तर णं से पुरिसे महंताई २ सहाई करेइ नो महंताई २ दलाई अवद्दालेह, एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकाई चिकणीकचाई एवं जहा छट्टसए जाव नो महापावसाणा भवंति से जहानामए केई पुरिसे अहिकरण आउडेमाणे महया जाय तो महापज्जबसाणा भवंति से जहानामए केई पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी निउणलिप्पोषगए एगं महं सामलिगंडियं उल्लं भजडिलं अगंठिलं अभिकर्ण अवाहद्धं मपत्ति तिषखेण परसुणा अक्षमेला, तर णं से पुरिसे नो महंताई २ सहाई करेति महंताई २ दलाई अवदालेति, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंधाणं अहाबादराई कम्माई सिटिलीकयाइं मिट्टियाई कथाई जाव विप्पामेव परिविद्धत्याएं भवंति जावतियं तावतियं | जाव महापज्जवसाणा भवंति से जहा वा केइ पुरिसे सुकतणहत्थगं जायतेयंसि पक्लिवेला एवं जहा छसए तहा अयोकवल्लेवि जाब महाप० भवंति से तेणद्वेणं गोपमा ! एवं बुबा जावतियं अनइलायए समणे निांचे कम्मं निज्जरेति तं चैव जाव वासकोडाकोडीए वा नो वबयंति ॥ 'सेवं भंते ! सेवं भंते 'ति जाब बिहरह (सूत्रं ५७३ ) ।। १६-४ ॥
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व्याख्या-1
प्रशति
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Acharya Shri n garsuri Gyanmandir मा [म.] हे भगवन् । दशम भक्त (चार उपवास) बरनारो श्रमण निय जेटई कर्म खपावे तेरहुं गर्म नैरयिक जीवो नरकमा
एक क्रोड बरसे, अनेक कोड वरसे के कोटाकोटी परसे खपावे ? [१०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. [व] भगवन् र १५ बालके दूप्रमाणे आप शा हेतुथी कहो छो के 'अमग्लायक भमण निथ जेटलुं कर्म खपाचे तेटलुं कर्म नैरयिक जीवो नरकमा एक बरसे,
उमेशा है अनेक वरसे के एक सो घरसे पण खपावे, अने चतुर्थभक्त करनार श्रमण निथ जेटलं कर्म खपावे तेटलुं कर्म नैरयिको नरकमा
सो बरसे, अनेक सो बरसे के लाख मरसे न खपावे-इत्यादि धुं पूर्व सूत्रनी पेठे कहे, यावत्-कोटाकोटी वरसेन खपावे?' [उ.] हे गौतम ! जेम कोई एक घरडो, घरपणथी जर्जरित शरीरवाळो, ढीला पडी गएला अने चामडीना बळीयावर व्याप्त धयेला | गात्रवाळो, थोग अने पडी गएला दांतबाळो, गरमीथी व्याकुल थयेलो, तरसथी पीडाएल, दुःखी, भूख्यो तरसो, दुर्वल बने
मानसिक क्लेशचाळो पुरुष होय अने ते एक मोटा कोशच नामना पवनी सकी, बांकी चुंकी गांठोपाळी, चिकणी, वांकी अने निरा. | धार रहेली मंडिका-गंडेरी उपर एक सुंड (बुट्टा) पाशुबडे प्रहार करे, तो ते पुरुष मोटा मोटा शन्दो (हुंकार) करे पग मोटा मोटा ककडा न करी शके. एज प्रमाणे हे गौतम! नैरयिकोर पोताना पापकमों गाढ कया छ, चिकणा का के-इत्यादि अधुं छड्डा शतकमां कमा प्रमाणे को. यावत्-तेथी ते नैरयिको (अत्यंत वेदनाने वेदतां छतां पण महानिर्जरावाळा अने) निर्वाणरुप फलवाला
यता नथी. बळी जेम कोई एक पुरुष एरण उपर पण मारतो मोटा सन्द करे (परन्तु ते एरणना स्थल पुद्गलोने वोटवाने समर्थ थितो नथी, ए प्रमाणे नैरयिको गाढ कर्मवाळा होय, तेथी तेओ) यावद-महापर्यवसानवाला नथी. तथा जेम कोई एक तरुण
बलवान, यावत्-मेधावी अने निपुण कारीगर पुरुष एक मोटा शिमगाना वृक्षनी लीली, जटा विनानी, गांठो पिनानी, चिकाश131
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व्याख्या
११३८
CREAK
विनानी, सीधी अने आधारवाळी गंडिका उपर तीक्ष्ण हाडावडे प्रहार करे तो ते पुरुष मोटा मोटा शब्दो करतो नथी पण मोटा | मोटा दळने फाडे छे, एज प्रमाणे हे गौतम ! जे अमण निथोए पोताना कर्मोने यथास्थूल, शिथिल यावत्-निष्ठित करेला, यावत्-ने कर्मो शीघ्रज नाश पामे के अने यावत्-तेओ (श्रमणो) महापर्यवसानवाला थाय छे. वळी जेम कोइ एक पुरुष सूका पासना |
| उमेश
P१३८१॥ पळाने यावत्-अमिमा फेंके (अने ते शीघ्र बळी जाय ए प्रमाणे श्रमण निग्रन्थोना यथा बादर कर्मो शीघ्र नाश पामे.) तथा| पाणीना टीपाने तपाबेल लोढाना कडायामां नाखे तो ते जलदी नाश पामे ए प्रमाणे श्रमण निन्चना कर्म शीघ्र विमस्त थाय हैइत्यादि वधुं छडा शतकनी पेठे को, यावत्-तेओ महापर्यवसानवाला थाय . माटे हे गौतम ! ते हेतुथी एम कर्यु के के 'अ-8 ग्लायक श्रमण निथ जेटलं कर्म खपावे-इत्यादि वर्षा पूर्व प्रमावेज कहे-यावत् तेटलुं कर्म कोटाकोटी वरसे पण नैरयिक जीव न खपावे. 'हे भगवन् । ते एमज, हे भगवन् । ते एमज के-' एम कही यावत्-विहरे छे. ॥ ५७३ ।। . भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीपत्रना सोळमा शतकमा चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. (उद्देशक ५) | तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होस्था वनओ, एगजबूए चेहए वनओ, तेणं कालेणं तेणं ६ समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ सके देविंद देवराया बबपाणी एवं जडेव
वितियउसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ जाच जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छा।
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जाव नमंसित्ता एवं बयासी-देवे णं भंते ! महडिए जाब महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगव्याख्या-14
४| मित्तए ?, नो निणढे समढे, देवे णं भंते ! महडिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमि- १६ शतके प्रज्ञप्ति दत्तए ?, हंता पभू , देवे णं भंते ! महडिए एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए २ एवं भासित्तए वा वागरित्तए वा
उद्देशा५ ॥१३८२५
॥१३८ ३ उम्मिसावेत्तए वा निमिमावेत्तए वा ४ आउहावेत्तए वा पसारेत्तए वा ५ ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा डाचेइत्तए वा ६ एवं विउवित्तए वा ७ एवं परियारावेत्तए वा ८ जाव हंता पभू, इमाई अट्ठ उक्वित्तपसिणवाग| रणाई पुच्छह, इमाई २त्ता संभंतियवंदणएणं वंदति संभंतिय०२त्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति २ जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए (सूत्र ५७४)॥
। ते काळे, ते समये उल्लुकतीर नामर्नु नगर हतुं. वर्णक. एकजंबक नामर्नु चैत्य हतुं. वर्णक. ते काळे ते समये स्वामी समोसर्याः दियावत्-सभा पर्युपासना करे छे. ते काळे ते समये शक देवेन्द्र देवराज वज्रपाणि-इत्यादि जेम बीजा उद्देशकमां कहेवामां आव्यु
के तेम दिव्य विमान बडे अहीं आव्यो, अने यावत्-जे तरफ श्रमण भगवंत महावीर हता ते तरफ जइ यावत-नमी आ प्रमाणे का बोल्यो [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय अहीं आववा समर्थ
के ? [उ०] हे शक्र! ना, ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋदिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो देव बहारना पुगलोने है ग्रहण करीने अहीं आवधा समर्थ छ ? [उ०] हे शक्र ! हा समर्थ के. हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो देव यावत्-एज प्रमाणे बहारना पुद्गलोने ग्रहण करीने १ जवाने, २ बोलवाने, ३ उच्चर देवाने, ४ आंख उघाडबाने के आंख मींचवाने, ५ शरीरना अवयवोने 31
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मा१६ शक्के
उद्देशः५ ॥१३८३॥
संकोचवाने के पहोळां करवाने, ६ स्थान शय्या के निषद्या-खाध्यायभूमिने भोगववाने, ७ विकुर्ववाने अने ८ परिचारणा-विषयोव्याख्या
पभोग करवाने समर्थ छ ? [उ०] हा यावत्-समर्थ छे. ते देवेन्द्र देवराज पूर्वोक्त संक्षिप्त आठ प्रश्नो पूछी अने उत्सुकता-उतावळ प्रमाप्तिः । ॥१३८३०
पूर्वक भगवंत महावीरने वांदी तेज दिव्य विमान उपर चढी ज्यांथी आव्यो हतो त्यां ते पाछो चाल्यो गयो. ॥ ५७४ ॥
भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति २ एवं क्यासी-अन्नदा णं भंते ! सके देविंदे है देवराया देवाणुप्पियं वदति नमसति सक्कारेति जाव पज्जुबासति, किण्हं भंते ! अज सक्के देविंदे देवराया देवागुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छह २ संभंतियबंदणएणं वंदति णमंमति २ जाव पडिगए ?. गोय.
मादि समणे म. भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं २ महासुके कप्पे महासामाणे विमाणे हैदो देवा महड्डिया जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए उववन्ना, तं०-मायिमिच्छदिहिउववन्नए य अमायि.
सम्मदिहिउववन्नए य, तएणं से माथिमिच्छादिहिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मदिहिउववन्नगं देवं एवं वयासीपरिणममाणा पोग्गला नो परिणया अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तए ण से अमायिसम्मदिट्ठीउववन्नए देवे तं मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं देवं एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया नो अपरिणया,तं मायिमिच्छदिट्ठीउबवन्नगं एवं पडिहणइ २ ओहिं पउंजइ ओहिं २ ममं ओहिणा आभोएइ ममं २ अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयतीरे नगरे एगजंबूण चेहए अहापडिरूवं जाव विहरति, त सेयं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३८४॥
खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाब पज्जुबासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तएत्तिकहु एवं संपेहेइ ४ा एवं, संपेहित्ता चउहिवि सामाणियसाहस्सीहिं परिवारो जहा मृरियाभस्स जाव निग्घोसनाइयरवेणं जेणेव
१६ शतके जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयातीरे नगरे जेणेव एगजबूए चेइए जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्य
12 उद्देश:५
॥१३८४ गमणाए, तए णं से सके देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देवहिं दिव्वं देव जुति दिवं देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छह संभंतिय जाव पडिगए (सूत्रं ५७५) ॥
[प्र०] 'भगवन् ! एम कही पूज्य गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! अन्य दिवसे | देवेन्द्र देवराज शक देवानुप्रिय आपने वंदन, नमन, सत्कार यावन-पर्युपासना करे छे, पण हे भगवन् ! आजे तो ते शक्र देवेन्द्र देवराज देवानुप्रिय एवा आपने संक्षिप्त आठ प्रश्न पूछी अने उत्सुकतापूर्वक वांदी नमी यावत्-केम चाल्यो गयो? [उ०] 'हे गौतम'! एम कही, श्रमण भगवंत महावीरे भगवंत गौतमने आ प्रमाणे कयु-हे गौतम ! ए प्रमाणे खरेखर ते काळे ते समये महाशुक्र कल्पना महासामान्य नामना विमानमां मोटी ऋद्धिवाळा, यावत्-मोटा मुखवाळा वे देवो एकज विमानमां देवपणे उत्पन्न थया, तेमां एक मायी मिथ्यारष्टि रूपे उत्पन्न थयो अने एक अमायी सम्यग्दृष्टिरूपे उत्पन्न थयो. त्यारपछी उत्पन्न थयेला ते माथिमिथ्यादृष्टि देवे उत्पन्न थयेला अमायिसम्यग्दृष्टि देवने आ प्रमाणे कयु के-परिणाम पामता पुद्गलो 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के (हजी) ते परिणमे छे माटे ते परिणत नथी, पण 'अपरिणत' छे. त्यारवाद उत्पन्न थयेला ते अमायी सम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला ते मायी मिथ्यादृष्टि देवने कथु के, परिणाम पामता पुद्गलो परिणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' न
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| कहेवाय, कारण के ते परिणमे छे माटे ते परिणत कहेवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. ए प्रमाणे कही उत्पन्न थयेला ते अमायि-IY! व्याख्यासम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला मायिमिध्यादृष्टि देवनो पराभव कों. त्यारपछी तेणे (सम्यग्दृष्टि देवे) अवधिज्ञाननो उपयोग
1१६ शके प्रज्ञप्ति
* उद्देशः५ 15कयों, अने अवधिद्वारा मने जोईने ते सम्यग्दृष्टि देवने आ प्रकारनो संकल्प उत्पन्न थयो के जंवृद्वीपमा भारतवर्षमां ज्यां उब्लुक-IAnitam ॥२३८५॥
दू तीर नामर्नु नगर के, अने ते नगरमा ज्यां एकजंबूक नामर्नु चैत्य ने, त्यां श्रमण भगवंत महावीर ययायोग्य अवग्रह लेइने विहरे
छे, तो त्यां जई ते श्रमण भगवंत महावीरने चांदी यावत्-पर्युपासी आ प्रकारनो प्रश्न पूछवो ए मारे माटे श्रेयरूप छे, एम विचारी ४ा चार हजार सामानिक देवोना परिवार साथे-जेम सूर्याभ देवनो परिवार कह्यो छे तेम अहिं पण समज-यावद-निर्घोष नादित स्वतापूर्वक जे तरफ जंबुद्धीप छे, जे तरफ भारतवर्ष ने, जे तरफ उल्लुकतीर नामर्नु नगर छे, अने जे तरफ एकजंबुक नामर्नु चैत्य छ
तथा ज्यां आगळ हुं विद्यमान छु ते तरफ आवचाने तेणे (सम्यग्दृष्टि देवे) विचार कर्यो. त्यारवाद ते देवेन्द्र देवराज शक्र मारी तरफ ॐ आवता ते देवनी तेवा प्रकारनी दिव्य देवर्षि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव अने दिव्य तेजोराशिने न सहन करतो आठ संक्षिप्त प्रश्नो पूछी अने उत्सुकतापूर्वक वांदी यावत्-चाल्यो गयो. ॥ ५७५ ॥
जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमटुं परिकहेति तावं च णं से देवे तं देसं हव्वमा गए, तए णं से देवे ममणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति २ एवं वयासी- एवं खलु भंते! महासुक्के है कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छदिट्टिउववन्नए देवे ममं एवं क्यासी-परिणममाणा पोग्गला नो परि
या अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तए णं अहं तं मायिमिच्छदिट्टिउववन्नगं देवं
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एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला परिणया णो अपरिणया, व्याख्या-4 से कहमेयं भंते ! एवं?, गंगदत्तादि ! समणे भगवं महावीरे गंगदत्त एवं बयासी-अहंपिणं गंगदत्ता! एवमा. प्रज्ञप्तिः
इक्वामि परिणममाणा पोग्गला जाब नो अपरिणया सच्चेणमेसे अटे, तए णं से गंगदत्त देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयम8 सोचा निसम्म हद्वतु समणं भगवं महावीरं वंदति नमं० २ नचासन्ने जाव पज्जुवा- 18॥१३८६॥ सति, तए समणे भ. महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेह जाब आराहए भवति, तए णं से गंगदत्त देवे समणम्स भगवओ. अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्टे उट्टाए उठेति उ.२ समण भगवं महावीरं वदति नमसति २ एवं बयासी-अहं पहं भंते ! गंगदत्त देवे किं भवसिद्धिए अभव सिद्धिए, एवं जहा
सूरियाभो जाव बत्तीसतिविहं नविहं उबदंसेति उव. २ जान तामेव दिसं पडिगए (मत्रं ५७६) । | जे वखते श्रमण भगवंत महावीर पूर्व प्रमाणेनी वात पूज्य गौतमने कही रहा के तेज बखते ते ( सम्यग्दृष्टि देव) त्यां शीघ्र |
आव्यो अने पछी ते देवे श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा करी वांदी नमी आ प्रमाणे का के-[H०] हे भगवन् ! महाशुक्र कल्पमा महासामान्य नामना विमानमा उत्पन्न थएला मायी मिथ्यादृष्टि देवे मने आ प्रमाणे कछु के परिणाम पामतां पुद्गलो |'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरिणत' कहेवाय. कारण के ते पुद्गलो हजी परिणमे छे माटे ते 'परिणत' न कहेवाय, पण 'अपरि
| णत' कहेवाय. पछी में ते मायी मिथ्यादृष्टि देवेने आ प्रमाणे कयु के-परिणाम पामता पुद्गलो 'परीणत' कहेवाय, पण 'अपरिणत' मन कहेवाय. कारण के ते पुद्गलो परिणमे छे, माटे ते 'अपरिणत' न कहेवाय, पण 'परिणत' कहेवाय. तो हे भगवन् ! ए मारु
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥१३८७।।।
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कथन के छे ? [उ०] 'गंगदत्त' ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे ते गंगदच देवने आ प्रमाणे कछु के है गंगदत्त 1 हुं पण ए प्रमाणे कहुं छु ४, के परिणाम पामता वृद्धलो यावत्- 'अपरिणत' नथी पण 'परिणत' के अने ते अर्थ सत्य छे. त्यार पछी भ्रमण भगवंत महावीर पाथी ए वातने सांभळी अवधारी ते गंगद देव हर्षवाळो अने संतोषवाळो थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी बहु दूर नहि अने बहु नजीक नहीं एवी रीते पासे बेसी सेओनी पर्युपासना करे थे. पछी श्रमण भगवत ! महावीरे ते गंगदत्त देवने अने ते मोटामां मोटी समाने धर्मकथा कही, यावत्-ते आराधक थयो. पछी ते गंगदत्त देव श्रमण भगवंत महावीर पासेथी धर्मने सांभळी अवधारी हर्ष अने संतोषयुक्त थई उभो थयो, उभो थईने श्रमण भगवंत महावीर ने वांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो के - [प्र० ] हे भगवंत ! हुं गंगदरा देव भवसिद्धिक छु के अभवसिद्धिक छु १ [उ०] जेम सूर्याभ देव संबन्धे का तेनी पेठे बधुं जाणवु यात्रत् ते गंगदत देव चत्रीय प्रकारना नाटक देखाडी ज्यांथी आग्यो हतो त्यां पाछो चाल्यो गयो. ॥ ५७६ ॥
संतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वग्रामी - गंगदत्तस्स णं भंते । देवस्स मा दिव्वा देवडी दिव्या देवजुत्ती जाव अणुपविट्ठा, गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुष्पविट्ठा कूडागारसालादिहंतो जाय सरीरं अणुष्पविट्ठा। अहो णं भंते! गंगदत्ते देवे महड्डिए जाव महेसक्खे ?, गंगदत्तणं भंते ! देवेणं सा दिव्या देवडी दिखा देवजुत्ती किण्णा लद्धा जाब गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्वा देवड्डी जाव अभिसमन्नागया ?, गोयमादी ! समणे भगवं महाबीरे भगवं गोयमं एवं वयासी - एवं खलु गोयमा ! लेणं कालेणं २ इहेब जंबुद्दीवे २ भारहे बासे हरिणापुरे नामं नगरे होत्था बनाओ, सहसंबवणे उज्जाणे वनओ, तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे गंगदत्ते नामं
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१६ शतके उद्देशः ५
१३८७॥
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उमेश ॥२३८८
www.kobatirth.org ॐागाहावती परियसति अढे जाव अपरिभूए, तेणं कालेणं २ मुणिसुब्बए अरहा आदिगरे जाव सम्वन्नू सव्वदव्याख्या- रिसी आगासगएणं चक्केणं जाव पकडिलमाणेणं प० सीसगणसंपरिखुडे पुब्वाणुपुन्धि चरमाणे गामाणुगामं दूइप्रज्ञप्तिः जमाणे जाव जेणेव सहसंपवणे उजाणे जाच विहरति परिसा निग्गगा जाव पज्जुवासति, तए णं से गंगदत्ते ॥१३८८॥
गाहावती इमीसे कहाए लद्धसमाणे हद्वतुट्ट जाव कयरलिजाब सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्वमति २ पायवि हारचारेणं हस्थिणागपुरं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ जेणेव सहसंबवणे उजाणे जेणेव मुणिसुम्बए अरहा | तेणेव उवागच्छद २ मुणिसुव्वयं अरहं तिक्खुत्तो आ. २ जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुषासति,
प्र०] 'हे भगवन् ! एम कही पूज्य गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने आ प्रमाणे कांके-हे भगवन् ! ए गंगदत्त देवनी ते दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति यावत्-क्यां गई! [उ.] हे गौतम! ते दिव्य देव िते गंगदत्त देवना शरीरमा गइ, अने शरीरमां अनुप्रविष्ट थई. आ स्थळे पूर्वोक्त कूटागार शालानो दृष्टांत जाणवो. अने ते यावत्-'शरीरमा अनुप्रविष्ट थई'. हे भगवन् ! ए गंगदत्त
देव तो मोटी ऋदिवाळो यावत्-मोटा सुखवाळो के. [प्र०] हे भगवन् ! गंगदत्त देवे ते दिव्य देवदि अने दिव्य देवधुति शाथी ४ा मेळवी, यावत्-दिव्य देवर्द्धि तेने शाथी अभिसमन्वागत-प्राप्त थई ? [उ.] 'भो गौतम ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे पूज्य
गौतमने आ प्रमाणे कधु के-हे गौतम ! ते काळे ते समये आज जंबूद्वीपमां, भारतवर्षमा हस्तिनापुर नामर्नु नगर हतुं. वर्णन. त्यां सहस्रम्रवण नामर्नु उद्यान हतुं. वर्णन. ते हस्तिनापुर नगरमा आय, यावद-अपरिभूत एवो गंगदत्त नामनो गृहपति रहेतो इतो. ते काळे, ते समये आदिकर, यावत्-सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत चक्रसहित, यावत्-देवोपडे खेचाता धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगणथी
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अरहंत यावा लागीबारी शरी
१६ शतके * उद्देशः५
।१३८९॥
संपरिकृत थई पूर्वामुघूर्वी विचरता अने ग्रामानुग्राम विहरता यावत्-श्रीमुनिसुव्रत नामे अरहंत यावत्-जे तरफ सहस्राब्रवण नामर्नु व्याख्या
उद्यान रतुं त्यां आव्या अने यावत विहरवा लाग्या. सभा वांदवा मीकळी अने यावत्-पर्युपासना करवा लागी. त्यारबाद ते गंमदत्त प्रज्ञप्तिः
नामे वृहपति आवी रीते श्रीमुनिसुव्रत स्वामी आव्यानी वात सांभली हर्षवाको अने संतोषवाळो थई यावत-बलिकर्म करी शरीरने ॥१३८९॥
शणगारी पोतानाघस्थी नीकळ्यो, नीकळी पगे चालीने इस्तिनापुर नगरनी दचोवच थई जे तरफ सहलाम्रवण नामर्नु उद्यान
हतुं अने ज्यां श्रीमुनिसुव्रत अरहंत हता त्यां आवी मुनिसुव्रत अरहंतने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, यावत्-त्रण प्रकारनी पर्युपसासना 31 बडे पर्युपासना करवा लाग्यो. हा तए थे मुणिसुखए अरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महतिजाव परिसा पडिगया, तए ण से गंग
दत्ते गाहावती मुणिसुब्वयस्स अरहओ अंतियं धम्म सोचा निसम्म हतुट्ट. उट्ठार उद्वेनि २ मुणिसुब्वयं अरहं वंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सहहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुज्झे वदह, जनवरं देवाणुप्पिया! जेट्टपुत्तं कुडंबे ठावेमि तए णं अहं देवाणुपियाण अंतिय मुंडे जाव पव्वयामि, अहासुह देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह,
त्यार पछी हे श्रीमुनिसुव्रत खामीए ते गंगदत्त गृहपतिने तथा ते मोटी महासभाने धर्मकथा कही; यावत्-सभा पाछी गई. हत्यार बाद ते गंगदत्त नामे गृहपति श्रीमुनिसुव्रत अरिहंत पासेथी धर्मने सांभळी, अबधारी हर्ष तथा संतोषयुक्त थई उभो थयो, है उठीने श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने बांदी, नमी आ प्रमाणे बोल्यो के हे भगवन् ! हुं निग्रंथना प्रवचनमा श्रद्धा करुं हुं, यावत्-आप जे
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कहो होते तेमज मानुं हुं विशेष ए के हे देवानुप्रिय ! मारा मोटा पुत्रने कुटुंबनो मुख्यभूत स्थापने आप देवानुप्रियनी पासे झुंड थई यावत् प्रब्रज्या लेवा इच्छु छु. (श्रीमुनिसुव्रत स्वामीए कछु के) हे देवानुप्रियि ! जेम सुख थाय तेम कर, विलंब न कर. नए णं से गंगद गाहावई मुणिसुच्वएणं अरया एवं वृत्ते समाणे हद्वतुट्टः मुणिसुब्वयं अरिहं वंदति नर्मसति, बंदति न० मुनिसुव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमति ०२ जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ बिउलं असणं पाणं जाव उबक्खडावेति उ० २ मित्तणातिगिजाब आमंतेति आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए जहा पूरणे जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेति तं मित्तणाति जाव जेट्ठपुत्तं च आपुच्छति आ०२ पुरिससहस्सवाहणियं सीगं दुरूहति पुरिससह० २ मित्तणातिनियगजाय परिजणेणं जेइपुसेण य समणुगम्ममाणमग्गे सब्बिड्डीए जावणादितरवेणं हत्थिणागपुरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छ नि० २ जेणेव महसंयत्रणे उज्जाणे तेणेव उवा० २ छत्तादिते नित्थगरातिमए पामति एवं जहा उदायो जाब सयमेव आभरणं मुग्रइ स० २ सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति स २ जेणेव मुणिसुब्बए अरहा एवं जहेब उदायणो तहेव
इए, तब एक्कारस अंगाई अहिबह जाब मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताई अणसणाए जाव छेदेति सट्ठि भत्ताइं० २ आटोग्रपडिते समाहिपत्ते कालमासे कालं किवा महासुके कप्पे महामामाणे विमाणे उबवायसभाए देवसयणिसि जाव गंगदत्तदेवताए उयन्ने, तर णं से गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तर समाणे पंचविहाए पत्तीए पजत्तिभावं गच्छति, तंजड़ा-आहारपज्जत्तीए जाब भासामणपबत्तीए, एवं खलु गोयमा ! गंगद
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१६ शतके उद्देश५ ॥१३९०॥
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इत्तेणं देवेणं सा दिव्या देवड्डी जाव अभिसमः । गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता, गोन। व्याख्या यमा! मत्तरससागरोवमाई ठिती, गंगदत्ते णं भंते । देवे ताओ देवलोगाओ आउखएणं जाव महाविदेहे चासे
I४१६ शतके
उद्देश:५ सिरिसहिति जाव अंतं काहिति ॥ "सेवं भंते ! सेवं भंते।'त्ति॥ (सूत्रं ५७७) ।। १६-५॥ ॥१३९१॥
॥१३९१॥ ज्यारे ते मुनिसुव्रत स्वामीए ते गंगदत्त नामे गृहपतिने र प्रमाणे कात्यारे ते हर्षयुक्त अने संतोषयुक्त थई मुनिसुव्रत खामीने बांदी, नमी मुनिसुव्रत स्वामी पासेथी सहखाम्रवण नामना उद्यानयी नीकळी जे तरफ हस्तिनापुर नगर के अने ज्या पोतार्नु घर छे त्यां आव्यो. आवीने विपुल अशन, पान-यावत्-तैयार करावी पोताना मित्र, ज्ञाति स्वजन वगेरेने नोतर्या. पडी स्नान करी पूरण शेठनी पेठे यावत्-पोताना मोटा पुत्रने कुटुंबमा मुख्य तरीके स्थापी पोताना मित्र, ज्ञाति स्वजन वगेरेने तथा मोटा पुत्रने पूछी हजार पुरुषवडे उपाडी शकाय तेवी शिविकामां बेसी, पोताना, मित्र, ज्ञाति. स्वजन यावत् परिवारवडे तथा मोटा पुत्रवडे अनुसरातो सर्व ऋद्धिसहित यावत्-वादिनना थता घोषपूर्वक हस्तिनापुरनी वच्चोवञ्च निकली जे तरफ सहस्राप्रवण नामे उद्यान छे, ते तरफ आची तीर्थकरना छत्रादि अतिशय जोई यात्रत-उदायन राजानी पेठे यावत्-पोतानी मेळेज पोताना घरेणा उतार्या अने पोतानी मेळेज पंचमुष्टिक लोच कयों. त्यार बाद श्रीमनिसुव्रतस्वामीनी पासे जई उदायन राजानी पेठे दीक्षा लीधी. यावत्-तेज प्रमाणे ते गडदच अणगार अगीयार अंगो भयो, यावद-एक मासनी संलेखना बडे साठ भक्त-त्रीश दिवस अनशनपणे वीतानी
आलोचन-प्रतिक्रमण करी समाधिपूर्वक मरणसमये मृत्यु प्राप्त करी ते महाशुक्र करपमा महासामान्य नामना विमानमा उपपात | सभाना देवशयनीयमा यवान-गंगदत्त देवपणे उत्पन्न भयो, पछी ते तुरतज उत्पम थलो गंगदत्त देव पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे ||
RECENSECRUARMk
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www.kobatirth.org पर्याप्तपणाने पाम्यो. ते पर्याप्तिना पांच प्रकार आ प्रमाणे वे-आहारपर्याप्ति, यावत्-भाषामनःपर्याप्ति- ५ प्रमाणे हे गौतम! ते व्याख्या- गंगदत्त देवे ते दिव्य देवधि पूर्वोक्त कारणथी यवत्-प्राप्त करी के. [५०] हे भगवन् ! ते गंगदत्त देवनी स्थिति केटला कानी १६ शतके प्रज्ञप्तिः
| कही छ ! [उ.) हे गौतम! तेनी स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे. [प्र.] हे भगवन् ! ते गंगदत्त देव तेना आयुषनो क्षय थया ॥१३९२॥
उशा५ पछी ते देवलोकथी निकळी क्या जशे? [१०] हे गौतम! ते महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध यशे, यावद-सर्वे दुःखोनो नाश करशे. 'हे
1 १३९२॥ भगवन् ! ते एमज, हे भगवन् ! ते एमज के.'॥ ५७७ ॥ भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सोळमा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. उद्देशक ६. कतिविहे णं भंते ! सुविणसणे पण्णते?, गोयमा! पंचविहे सुविणदसणे पण्णते, तंजहा-अहातचे पयाणे द चिंतासुविणे तविवरीए अवत्तदसणे॥सुत्त णं भंते ! सुविणं पासति जागरे सुविणं पासति सुत्तजागरे सुविणंद |पासति ?, गोयमा! नो सुत्त सुविणं पासह नो जागरे सुविणं पासह सुत्तजागरे सुविणं पासइ ।। जीवा गं भंते ! किं सुत्ता जागरा सुत्तजागरा!, गोयमा! जीवा सुत्तावि जागरावि भुत्तजागरावि, नेरइया भंते ! किं
सुत्ता.? पुच्छा, गोयमा! नेरइया सुत्ता नो जागरा नो सुसजागरा, एवं जाव चरिंदिया, पंचिंदिपतिरिक्ख&ाजोणिया णं भंते ! किं सुत्ता० पुच्छा, गोयमा! सुत्ता नो जागरा सुत्तजागरावि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमं
तरजोइसियवेमाणिपा जहा नेरइया ॥ (सूत्रं ५७८)॥
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व्याख्या अज्ञप्तिः ॥१३९३।।
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[] हे भगवन् ! स्वप्नदर्शन केटला प्रकारनुं कछु छे ? [अ०] हे गौतम! पांच प्रकारनुं स्वप्नदर्शन का छे. ते प्रमाणे१ यथातथ्य खप्नदर्शन, २ प्रतान खप्नदर्शन, ३ चिंता स्वप्नदर्शन, ४ तद्विपरित स्वप्नदर्शन, अने ५ अव्यक्त स्वप्नदर्शन. [प्र० ] हे भगवन् ! तेलो प्राणी स्वप्न जुए, जागतो प्राणी स्वप्न जुए के सूतो जागतो प्राणी स्वप्न जुए ? [४०] हे गौतम! सुमेलो प्राणी स्वप्न न जुए, जागतो प्राणी स्वप्न न जुप पण सूतो जागतो प्राणी स्वप्नने जुए. [प्र० ] हे भगवन् ! जीवो स्तेला छे, जागृत छे के सूता-जागता के ? [अ०] हे गौतम! जीवो सूनेला पण छे, जागृत पण छे अने सूता-जागता पण छे. [प्र० ] है भगवन् ! नैरयिको सूतेला इत्यादि प्रश्न. [३०] हे गौतम ! नैरथिको बतला हे, पण जागता के सूता-जागता नथी. ए प्रमाणे यावत् - चउरिन्द्रिय संबन्धे पण जाणवुं [प्र० ] हे भगवन् ! पंचेंद्रिय तिर्यचयोनिको सुतेला बे-इत्यादि प्रश्न. [अ०] हे गौतम! तेओ सूतेला के अने सूता जागता पण छे. पण (तद्दन) जागता नथी. मनुष्यना प्रश्नमां सामान्य जीवोनी पेठे जाणवुं वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमनिक देवोना प्रश्नमां नैरयिकोनी पेठे समजबुं ॥ ५७८ ।।
संबुडे णं भंते! सुविणं पासह असंबुडे सुविणं पासह संबुडासंकुडे सुविणं पासह ?, गोपमा । संबुडेवि सुविणं पास, असंवुडेवि सुविणं पासह, संबुडासंकुडेवि सुविणं पासह, संवुडे सुविणं पासति अहातचं पासति, असंबुडे सुविणं पासति तहावि तं होजा अग्रहा वा तं होजा, संबुडाबुडे सुविणं पासति एवं चैव ॥ जीवा णं भंते! किं संबुडा असंवुडा संबुद्धासंबुडा ?, गोगभा ! जीवा संबुडावि असंवुडावि संवुडासंकुडाधि, एवं जव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियव्वो । कति णं भंते । सुविणा पण्णत्ता !, गोपमा ! बायालीसं सुविणा पक्षता,
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१६ शतके उद्देशः ६ ॥१३९३॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३९४॥
उशा
॥१९॥
ANGRESE
| कई ! महामुथिणा पण्णता?, गोपमा तीस महासुविणापण्णत्ता, कतिणं भंते ! सव्वसुविणा पण्णता, 8| गोयमा! बावत्तरि सव्वसुषिणा पण्णत्ता । तित्थयरमायरोणं भंते ! तित्थगरंसि गम्भं वक्कममाणंसि कति
महासुविणे पासित्ताण पडिवुझंति', गोयमा! तित्थयरमायरो लिस्थयरंसि गम्भं बक्कममाणसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, सं०-गयउसमसीहअभिसेयजाव सिहिं
छ । चकवहिमायरो णं भंते ! चकवदिसि गम्भं वकममाणंसि कति महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुज्झंति ?, गो|यमा। चावहिमायरो चक्कवहिंसि जाव बक्कममाणंसि एएसिसीसाए महासु. एवं जहा तिस्थगरमायरो जाच सिहं च । वासुदेवमायरो णं पुच्छा, गोयमा! वासुदेवमायरो जाव वक्कममाणंसि एएसिं चोहसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबु.। बलदेवमायरो वा णं पुच्छा, गोयमा! बलदेवमायरो जाव एएसि चोदसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडि। मंडलियमायरो भंते । पुच्छा, गोयमा! मंडलियमायरो जाव एएसिं चोइसण्हं महासु. अन्नयरं एगं महं सुविण जाच पडिवु. (सूत्रं ५७९) ।
[प्र०] हे भगवन् ! संवृत्त जीव स्वम जुए, असंवृत जीव स्वप्न जुए के संधूतासंवृत जीव स्वप्न जुए? [उ.] हे गौतम! संवृत, | असंवृत अने संवृतासंवृत ए त्रणे जीवो स्वप्न जुए, पण संवृत जीव सत्य स्वप्न जुए, असंकृत जीव जे स्वप्न जुए ते सत्य पण होय | असत्य पण होय; तथा असंवृतनी पेठे संवृतासंवत जीव पण स्वम जुए. [३०] हे भगवन् ! जीवो संहत छे, असंवृत के संवृत्तासंवृत छ? [उ०] हे गौतम! जीवो संवृत, असंवृत अने संवृतासंवृत ए ऋणे प्रकारना के.जेम सुप्त जीवोनु वर्णन करेल तेम अहीं पण
स
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व्याख्या
MPROCURGACEBOOK
समज. प्र०] हे भगवन् ! स्वप्न केटला प्रकारना कहां छ? [उ०] हे गौतम ! स्वप्नो नालीश प्रकारना कहां थे. [प्र०] हे भग-17!
१६ शतके वन् ! महास्वप्न केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! महास्वप्न त्रीश प्रकारना कहां छे. [40] हे भगवन् ! बधा मळीने 13
उद्देशा६ का केटलां स्वप्नो कहां छ [३०] हे गौतम ! बधा मळीने बहोतेर स्वप्नो कहां छे. [३०] हे भगवन् ! ज्यारे तीर्थकरनो जीव गर्भमां ॥१३९५॥
होय त्यारे तीर्थकरनी माताओ केटला महास्वप्न जोईने जागे: [उ०] हे गौतम ! ज्यारे तीर्थकरनो जीव गर्भमा अवतरे त्यारे तीर्थकरनी माताओ त्रीस महास्वप्नोमांथी चौद महास्वप्नो जोईने जागे छे. ते आ प्रमाणे १ हाथी, २ बलद, ३सिंह, यावत् १४ अग्नि. [प्र.] हे भगवन् ! ज्यारे चक्रवर्तीनो जीच गर्भमा अवतरे त्यारे चक्रवर्तीनी माताओ केटला महास्वप्न जोईने जागे । [उ०] हे गौतम!/६ ज्यारे चक्रवर्तीनो जीव गर्भमा अवतरे त्यारे चक्रवर्तीनी माताओ ए त्रीस महास्वप्नोमांथी चौद महास्वप्नो तीर्थकरनी माताओनी पेठेज जुए छे अने पछी जागे , ते चौद स्वप्न पूर्व प्रमाणे जाणवा, यावत्-अमि. [प्र०] एज प्रमाणे वासुदेवनी मातानी स्वप्नसंबन्धे पृच्छा। [30] हे गौतम! ज्यारे वासुदेवनो जीव गर्ममा अवतरे त्यारे वासुदेवनी माताओ ए चौद महास्वप्नोमांथी कोई पण सात महास्वप्नो जोईने जागे छे. [प्र.] ए प्रमाणे बलदेवनी माताओ संबन्धे स्वप्ननो प्रश्न. [उ०] हे गौतम बलदेवनी माताओ ए चौद महास्वप्नोमाथी कोई पण चार महास्वप्नो जोईने जागे छे. [प्र.] मांडलिक राजानी माताना स्वप्ननी एज प्रमाणे पृच्छा करवी. [उ०] हे गौतम! मांडलिक राजाओनी माताओ ए चौद स्वप्नोमांथी कोई पण एक महास्वप्नने जोईने जागे ॥५७९॥
समणे भ० महावीरे छउमस्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दम महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे,तं..एगंच णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसाय सुविणे पराजियं पासित्ताण पडिबुद्धे १ एगं च णं महं सुकिल्लपक्वगं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३९६ ।।
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पुंसको सुविणे पासि० २एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्वगं पुंसकोइलगं सुविधे पासित्ताणं पडिबुद्धे ३ एवं चणं महं दामदुर्ग सव्वरयणामगं सुविणे पासिता० ४ एगं च णं महं सेयगोवग्गं सुविणे पा० ५ एगं महं | पउमसरं सब्बओ समता कुसुमिय० सुविणे० ६ एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भुगाहिं तिनं सुविणे पासित्ता ०७ एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलतं सुविणे पासि० ८ एगं च णं महं हरिवे रुलियवन्नाभेणं नियगेणं अंसेणं माणुसुत्तरं पव्त्रयं सव्वओ समंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ९ एगं चणं महं मंदरे पच्चए मंदर बूलियाए उबरिं सीहासणवरगयं अध्याणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे १० ।
दयारे श्रमण भगवंत महावीर छद्यस्थपणामां हता त्यारे तेओ एक रात्रिमा छल्ला प्रहरमां आ दश महास्वप्नो जोईने जाग्या. ते आ प्रमाणे - (१) एक मोटा भयंकर अने तेजस्वी रूपवाळा ताड जेवा पिशाचने पराजित कर्यो' एवं स्वप्न जोईने तेओ जाग्या. (२) एक मोटा धोळी पांखवाळा पुंस्कोकिलने (नरजातिना कोयलने ) तेओए स्वप्नमां जोयो अने जोईने जाग्या. (३) एक मोटा चित्रविचित्र पांखवाळा पुंस्कोकिलने स्वभमां जोई सेओ जाग्या. (४) एक महान् सर्वरत्नमय मालायुगलने स्त्रममा जोईने जाग्या. (५) एक मोटा अने घोळा गायना घणने स्वशमां जोई तेओ जाग्या. (६) चारे बाजुथी कुसुमित थएला एक गोटा पद्मसरोवर ने स्वमा जोईने जाग्या. (७) 'हजारो तरंग अने कल्लोलथी व्याप्त एक महासागरने पोते हाथवडे तयों एवं स्वप्न जोई तेओ जाग्या. (८) तेजथी जळहळता एक मोटा सूर्यने स्वममां जोईने जाग्या. (९) एक मोटा मानुषोचर पर्बतने लीला वैडूर्यना वर्ण जेवा पोताना आंतरडावडे सर्व बाजुएथी आवेष्टित अने परिवेष्टित थयेला स्वप्नमां जोईने जाग्या. (१०) अने एक महान मंदर (मेरु) पर्वतनी
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१६ इतके उद्देशः ६
।। १३९६॥
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१६शतके
व्याख्या
उद्देशः६
॥१३९७॥
*SARAKAR
मंदर चूलिका उपर सिंहासनमा बेठेल पोताना आत्माने जोई तेओ जाग्या.
जपणं समणं भगवं म० एगं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पा० जाव पडिबुद्ध तणं समणेणं भगवया महा. मोहणिले कम्मे मूलाओ उग्धापिए १ जन्नं समणे भ० म०पगं महं सुकिल्लजाय पडिबुद्धे तण्णं | समणे म.म. सुकन्झाणोवगए विहरति२ जण समणे भ०म० एग महं चित्तविचित्तजाव पडिबुद्धे तणं समणे भ. म. विचित्त ससमयपरसमइयं दुवालसंग गणिपिडगं आघवेति पनवेति परवेति सेति निदंसेति उवदसेति, तंजहा-आयारं सूयगडं जाव दिहिवायं ३, जपणं समणे भ० म० एणं महं दामदुगं सम्बरपणामयं सुविणे पासित्ताण पडिबुद्धे तण्णं समणे भ०म० दुविहं धम्म पन्नवेति, तं०-आगारधम्म वा अणागारधम्म वा ४, जपणं समणे भ० म० एणं महं सेयगोवरगं जाव पडिवुद्धे तपणे समणस्स भ० म० चाव्वण्णाइन्ने समणसंघे, तं०समणा समणीओ साविया सावियाओ५, जपणं समणे भ० म० एग महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तणं समणे जाव वीरे चउठिबहे देवे पनवेनि, तं०-भवावासी वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए ६, जन्नं समणे भग०म०
एग महं सागरं जाव पडिबुद्धे तन्नं समणेणं भगवया महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे जाव संसारकतारे तिन्ने २७, जन्न समणे भगवं म० एग महंदिणयरंजाव पडिबुद्धे तन्नं समणस्स भ०म० अणंते अणुत्तरे [नि० नि० क. पिडि० केवल दस०] (जाव) समुप्पने ८, जपणं समणे जाव वीरे एग महं हरिवेरुलिय जाव पडिबु० तणं सम
स्स भ० म० ओराला कित्तिवन्नसहसिलोया सदेवमणुयासुरे लोए परिभमंति-इति खलु समणे भगवं महा
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१६वके
प
वीरे इति०९, जन्नं समणे भगवं महावीरे मंदरे पच्चए मंदरचूलियाए जाव पडिबुद्धे तणं समणे भगवं महावीरे व्याख्याप्रज्ञप्तिः 18 सदेवमणुासुराए परिसाए मझगए केवली धम्मं आघवेति जाव उवदंसेति ॥ (सूत्रं ५८०)॥
उमेशा दा (१) श्रमण भगवंत महावीर (प्रथम स्खममा ) जे भयंकर अने तेजस्वी रूपवाळा तथा ताडना जेचा एक पिशाचने पराजित
करेलो जोईने जाग्या तेथी (तेना फळरूपे) श्रमण भगवंत महावीरे मोहनीय कर्मने मूलथी नष्ट कयु. (२) श्रमण भगवंत महावीरे (बीजा स्वप्नमा) जे एक मोटो धोळी पांखवाळो यावत-पुस्कोकिल जोयो अने जाग्या तेथी तेना फळरूपे श्रमण भगवंत महावीर
शुक्ल ध्यान प्राप्त करी विहर्या. (३) श्रमण भगवंत महावीर (वीजा स्वप्नमा) जे एक मोटो चित्र विचित्र पांखवाळो यावत्-पुस्को. |किल जोईने जाग्या नेवी श्रमणभगवंत महावीरे विचित्र स्खसमय अने परसमयना (विविध विचारयुक्त) द्वादशांग गणिपिटक कबु. का प्रज्ञाप्यु, दर्शाब्यु. निदव्युं अने उपदर्शव्यू. ते द्वादशांगना नाम आ प्रमाणे छे-(१) आचार (२) सूत्रकृत, यावत्-(१२) दृष्टिवाद.४
(४) श्रमण भगवंत महावीरे (चोथा स्वप्नमां) जे एक महान् सर्वरत्नमय मालायुगल जोडे अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे वे प्रकारनो धर्म कहो, ते आ प्रमाणे-सामार धर्म अने अनगार धर्म. (५) श्रमण भगवंत महावीर (पांचमा स्वप्नमा) जे एक धोळी गायोनुं महान् धण जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरनो चार प्रकारको संघ थयो, ते आ प्रमाणे-१ साधु, २ साध्वी. ३ श्रावक अने ४ श्राविका. (६) श्रमण भगवंत महावीरे (छट्ठा स्वप्नमा) जे एक मोटुं यावत्-पम सरोवर जोईने जाग्या तेथी श्रमण | भगवंत महावीरे भवनवासी, वानव्यं तर, ज्योतिषिक, अने वैमानिक एवा चार प्रकारना देवोने प्रतिबोध को. (७) श्रमण भगवंत महावीरे (सातमा स्वप्नमा) जे एक मोटा यावद महासागरने पोते हाथ वडे तरेलो जोयो अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे181
CARRI
BREAKERG
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क्षतिः ॥। १३९९ ।।
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अनादि अने अनन्त यावत्-संसाररूप कांतारने पार कर्यो. (८) श्रमण भगवंत महावीरे (आठमा स्वप्नमां) जे तेजथी जळहळतो एक मोटो सूर्य जोयो अने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरने अनंत, अनुत्तर, निरावरण, निर्व्याघात, समग्र अने प्रतिपूर्ण एवं केवळ | ज्ञान अने केवळ दर्शन उत्पन्न थयुं. (९) श्रमण भगवंत महावीरे (नवमा स्वप्नमां) एक मोटा मानुषोत्तर पर्वतने नील बैडूर्यना वर्ण जेवा, पोताना आंतरडाथी चारे बाजुए आवेष्टित अने परिवेष्टित करेलो जोयो अने जोइने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरनी देवलोक, मनुष्यलोक अने असुरलोकमां- "आ श्रमण भगवंत महावीर के" एवी उदार कीर्ति, स्तुति, सन्मान अने यश व्याप्त थया. (१०) श्रमण भगवंत महावीरे (दशमा स्वप्नमां) पोताना आत्माने मंदरपर्वतनी चूलिका परना सिंहासनमां बेठेलो जोयो अने जोईने जाग्या तेथी श्रमण भगवंत महावीरे केवळी थई देव, मनुष्य अने असुर युक्त परिषदमां बेसी धर्म कह्यो, यावत् - उपदर्शायो ५८० इत्थी वा पुरिसे वा सुबिर्णते एगं महं पंति वा गयपति वा जाव वसमपति वा पासमाणे पासति दुरु हमाणे दुरूहति दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति तग्वणामेव बुज्झति तेणेव भवरगहणेणं सिज्झति जात्र अंत करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एवं महं दामिणिं पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे पुढं पासमाणे पासति संवेलेमाणे संवेल्ले संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति तेणेव भवग्गहणेणं जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसेना एवं महं रज्जु पाईणपडिणायतं दुहओ लोगंते पुढं पासमाणे पासति छिंदमाणे छिंदति छिन्नमिति अपाण मन्नति तखणामेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुबिर्णते एगं महं किन्हसुत्तगं वा जाब सुकिल्लत्तगं वा पासमाणे पासति उग्गोवेमाणे उग्गोवेह उग्गोवितमिति अध्पाणं मन्नति तक्वणामेव जाव
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१६ शतके
उद्देशः६ ॥१३९९ ॥
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www.kobatirth.org अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुषिणते एग महं अपरासिंवा तंबरासिं या तउयरासिंवा सीसगरासि वा व्याख्या
पासमाणे पासति दुरूहमाणे दुरूहति दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तक्वणामेव वुज्झति दोचे णं भवग्गहणे णं प्रज्ञप्तिः
शतके
उमेशा ॥१४.०॥
सिज्झति जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते पगं महं हिरन्नरासि वा सुकन्नरासिं वा रयणरामि 12.01 वा वहररासि वा पासमाणे पासइ दुरूहमाणे दुरूहह दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तक्रवणामेव बुज्झति तेणेष 5 भवग्गहणेणं सिजाति जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे था सुविणते एग महं तणरासिं चा जहा तेयनिसग्गे जाव अवकररासि वा पासमाणे पासति विक्खिरमाणे विक्खिरइ विकिण्णमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति ।
कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटी अश्वपंक्ति, गजपंक्ति, यावद-वृषम (बलद) पंक्तिने जुए अने तेना उपर चढे तथा |ते उपर पोते चढयो के एम पोताने माने, अने ए प्रमाणे जोई जो तुरत जाग जागे तो ते तेज मधमां सिद्ध थाय, यावन-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वमने अन्ते समुद्र ने बने पडखे अडकेलु तथा पूर्व अने पश्चिम तरफ लावु एक मोढुं दामण जुए, अने तेने वींटाळे अने ते पोते वींटाळयु छ एम पोताने माने तथा ते प्रकारे जोई शीघ्र जागे तो तेज भवमां सिद्ध थाय, यावत
सर्व दुःखोनो नाश करे. कोइ स्त्री अथवा पुरुष ( स्वप्नने अन्ते ) बन्ने बाजुए लोकान्तने स्पशेलु तथा पूर्व अने पश्चिम लांबु एक MIमोटु दोरडं जुए, अने तेने कापी नाखे अने ते पोते कापी नास्यु छ एम पोताने माने तथा ते प्रकारे जोद शीघ्र जागे तो ते यावर
सर्व दुःखोनो नाश करे. कोइ स्त्री अथवा पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटुं काळु सूतर, यावल-धोलू स्तर जुए तथा तेने उकेले अने ||
REMEMORRH545
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तेने पोते उकेल्यु छ एम पोताने माने अने एम जोई पछी ने तुरत जागे तो ते यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री अथवा व्याख्या
१६ शतके | पुरुष स्वमने अन्ते एक मोटा लोढाना ढगलाने, तांबाना ढगलाने, कथीरना ढगलाने अने सीसाना ढगलाने जुए अने ते उपर चढे प्रशतिः
उद्देशः 51 अने पोते ते उपर चढयो छे एम पोताने माने तथा एम जोई शीघ्र जागे तो ते याक्त-चे भवमा सिद्ध थाय, यावत्-सर्व दुःखोनो ॥१४०१॥
१४.१॥ नाश कर. कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वमने वेडे एक मोटा हिरण्य-रूपाना ढगलाने, मृवर्णना ढगलाने, रत्नना ढगलाने अने वज्रना दमलाने जुए अने ते उपर चढे अने पोते ते उपर चढयो एम पोताने माने तथा तुरत जागे तो ते तेज भवमां सिद्ध थाय, यावत्सर्व दुःखनो नाश करे. कोई स्त्री के पुरुष खप्नने अन्ते एक मोटा घासना ढगलाने, तेजोनिसर्ग नामना पंदरमा प्रतकमा कडा प्रमाणे यावत्-कचराना ढगलाने जुए अने तेने विखेरे अने पोते विखेयों के एम पोताने माने अने जो तुरत जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे.
इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते पगं महं सरथंभं वा वीरणिथंभं वा वंसीमूलथंभं वा वल्लीमूलभं वा पासमाणे पासह उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ उम्मूलितमिति अप्पाण मन्नइ तवणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंनं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते पगं महं ग्वीरकुंभं वा दधिकुंभ वा घयकुंभं वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासति उ. पाडेमाणे उप्पाडेइ उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नतितक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसे चा सुविणं ते एग महं सुरावियडकुंभ वा सोवीरवियडकुंभं वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे पासति भि-15 दमाणे भिदति भित्रमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति दोघेणं भव. जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे
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| वा सुविणंने एगं महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति ओगाहमाणे ओगाहति ओगादमिति अप्पाणं मन्नव्याख्या
१६ ६ ति तक्खभामेव० तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा जाव सुविणंते एग महं सागरं उम्मीचीयीजाव कलियं प्रज्ञप्तिः
| उमेशा ॥१४ ॥
है पासमागे पासति तरमाणे तरति तिन्नमिति अपाणं मन्मति तक्वणामेव ७० तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी PHREn
वा जाब सृविणते एगं महं भवणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासति [दुरूहमाणे दुरूहति दुरूढमिति०] अणु-18 पविसमाणे अणुप्पविमति अणुप्पविट्ठमिति अप्पाण मन्नति तखणामेव वुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा मुविणंते एग महं विमाणं सव्वरयणामयं पासमाणे पामइ दुरूहमाणे दुरूहति दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तावणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति ॥ (सूत्रं ५८१)॥
कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटा शरस्तंभने, वीरणस्तंभने, वंशीमूलस्तंभने वा वल्लिमूलस्तंभने जुए अने तेने उखेडे अने पोते तेने उखेडयो के एम पोताने माने अने पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री या पुरुष खप्नने वेडे एक मोटा श्रीरकुंभने, दधिकुंभने, घृतकुंभने अने मधुकुंभने जुए अने तेने उपाडे तथा पोते तेने उपाइयो छ एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत् सर्व दुःखनो नाश करे, कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते एक मोटा सुराना विकट 2 (मोटा) कुंभने, सौवीरना मोटा कुंभने तैलकुंभने, के वसाकुंभने जुए, तेने भेदे अने पोते तेने भेदी नांख्यो छे एम पोताने माने, पछी तुरत जागे तो चे भवमां यावत-सर्व दुःखोनो नाश करे, कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते कुसुमित एना एक मोटा पद्म सरोवरने जुए, तमा प्रवेश करे अने पोते तेमा प्रवेश कयों छे एम पोताने माने, पछी तुरत जाने तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नाथ
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१६ शतके
व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥१४०३॥
॥१४.३॥
FREGROUGUAGAR
करे, कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते तरंगो अने कल्लोलोथी व्याप्त एक मोटा सागरने जुए अने तरे, तथा पोते तेने तरी गयो के एम पोताने मान, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करे. कोई स्त्री के पुरुष खप्नने अन्ते सर्व रत्नमय बनेलं एक मोटुं भवन जुए अने तेमा प्रवेशे, पोते तेमा प्रवेश कयों के एम पोताने माने, पछी शीघ्र जागे तो तेज भवमा यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे. कोई स्त्री के पुरुष स्वप्नने अन्ते सर्व रत्नमय एक मोटुं विमान जुए, तेना उपर चढे अने पोते ते उपर चढयो के एम पोताने माने. त्यारपछी शीघ्र जागे तो तेज भवमां यावत्-सर्व दुःखनो नाश करे.॥ ५८१ ॥
अह भंते ! कोहपुडाण वा जाव केयतीपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिज्जमाणाण वा जाव ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोहे वाति जाव केयई वाइ, गोयमा! नो कोटे वाति जाव नो केयई वाती घाणसहगया पोग्गला वाति । सेवं भंते २ त्ति ( सूत्रं ५८२ ) ॥ १६-६ ॥
[प्र.] हे भगवन् ! कोष्ठपुटो, यावत्-केतकीपुटो यावत्-एक स्थानथी स्थानान्तरे लई जवाता होय त्यारे पवनानुसारे जे (मनो गंध) वाय छे तो ते कोष्ठ वाय छे के यावत्-केतकी वाय छे ? [उ०] हे गौतम! कोष्ठपुटो के केतकी पुटो वाता नथी, पण मंधना जे पुद्गलो छे ते वाय छे. 'हे भगवन् ! ते एमज के, हे भगवन् ! ते एमज थे.' ॥ ५८२॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १६ मा शतकमा छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
*HASIRKल
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
१४०४ ।।
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शतक १६. (उद्देशक ७.)
तित्रिणं भंते! उनओगे पत्ते १, गोयमा ! दुविहे उपओगे पत्ते एवं जहा उपयोग पदं पद्मवणाए तहेब निरवसेसं भाणिगव्वं, पासणयापदं च निरवसेसं नेयव्वं । सेवं भंते 1 सेवं भंतेति ॥ (सूत्रं ५८३) ।। १६-७ ॥
[०] हे भगवन् ! केटला प्रकारनो उपयोग को है ? [उ०] हे गौतम ! उपयोग वे प्रकारनो को छे, जेम प्रज्ञापना सूत्रमांना उपयोग पदामां कहेवामां आच्युं छे तेम अहीं बधुं कहेतुं तेमज अहीं श्रीसम्मुं 'पश्यत्तापद' पण समग्र कहेतुं. 'हे भगवन् ! ते एमज से, हे भगवन् ! ते एमज . ॥ ५८३ ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १६ मा शतक्रमां सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १६. ( उद्देशक ८.)
किंमहालणं ते! लोए पन्नत्ते १, गोयमा ! महतिमहालए जहा बारसमसए तहेब जाव असंखेज्जाओ ओयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं, लोपम्स णं भंते ! पुरच्छिमिले चरिमंते किं जीवा जीवदेसा जीवपपसा अ जीवा अजीवदेसा अजीव पएमा ?, गोगमा ! नो जीवा जीवदेसावि जीवपएसावि अजीवावि अजीब देसाव अजीव परसाव || जे जीवदेसा ते नियमं एर्गिदियदेसा अहवा एगिंदियदेसा य बेदियस्स य देसे एवं जहा
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१६
उद्देशः७ ॥१४४॥
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दसमसए अग्गेधीदिसा तहेव नवरं देसेसु अणिदियाणं आइल्लविरहिओ। जे अरूधी अजीवा ते छबिहा, अ. व्याख्या
४ि१६ शतक |द्धासमयो नत्थि, सेसं सं चेव सव्वं निरवसेसं। लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले परिमंते किं जीवा ?, एवं चेव, 10 प्रशतिः
उद्देश: एवं पञ्चतिमिल्लेवि, उत्तरिल्लेवि, लोगस्सणं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा? पुच्छा, गोषमा! मो जीवा ॥१४०५॥
४॥१४०५॥ जीवदेसावि जाव अजीवपएसावि । जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेमा य अणिदियदेसा प अहवा एगिदियदेसा य अणिदिय० दियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेमा य अणिदियदेमा य बेंदियाण य देसा, एवं मजिझ ल्लविरहिओ जाव पंचिंदि०, जे जीवप्पएसा ते नियम एगिदियप्पएसा य अणिदियप्पएसा य अहवा एगिदियप्पएमा य अगिंदियप्पएमा प दियस्सप्पदेसा य अहवा एगिदियपएसा य अणिंदिगप्पएसा य बेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिओ जाच पंचिंदियाणं, अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं ॥
[प्र०] हे भगवन् ! लोक केटलो मोटो को छ ? [उ.] हे गौतम! लोक अत्यन्त मोटो कह्यो छे. जेम बारमा शतकमां कडं द्री छे तेम अहीं पण लोक संबंधी बधी हकीकत कहेवी, यावत्-ते लोकनो परीक्षेप-परिधि असंख्येय कोटाकोटी योजन . [प्र०] हे
भगवन् ! लोकना पूर्व चरमांतमा (पूर्व बाजुना छेडाना अंते ) १ जीवो छ, २ जीवदेशो छे, ३ जीवप्रदेशो छ, ४ अजीवो छ, ५ | अजीवदेशो छ, ६ के अजीवप्रदेशो के ? [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी, पण जीवदेशो छ, जीवप्रदेशो छ, अजीवो छ, अजी-15 वदेशो छ अने अजीवप्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो के ते अवश्य एकेन्द्रिय जीवना देशो छ, अथवा एकेंद्रियना देशी अने अनिन्द्रियनो (एक) देश -इत्यादि अधुं दशमा शतकमां कहेल आयी दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे कहे. विशेष ए के, देशोना विष.
RAICRACMCANCE
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यमा अनिद्रियो माटे प्रथम भांगो न कहेवो. त्यां जे अरूपी अजीवो रहेला छे ते छ प्रकारना छ अने अद्धासमय ( काळ) नथी.13 व्याख्याप्रशतिः
४ बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना दक्षिण दिशाना चरमांतमा (दक्षिण बाजुना छेडाने अंते) जीवो छ
इत्यादि सर्व पूर्व प्रमाणे पूछवु . [उ०] पूर्व प्रमाणेज वधु कहे, अने ए प्रमाणे पश्चिम चरमांतमा तथा उत्तर चरमतिमा पण सम॥१४०६॥
उमेश
C२४०६ | जg. [प्र०] हे भगवन् ! लोकना उपरना चरमांतमा जीवो छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नधी, पण जीवदेशो छे, जीवप्रदेशो छे, यावत्-अजीवप्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो छ ते अवश्य एकेंद्रियोना देशोअने अनिद्रियोना देशो छे. १ अथवा
एकेंद्रियोना देशो, अनिद्रियोना देशो अने बेइंद्रियनो एक देश छे. २ अथवा एकेंद्रियोना देशो अनिद्रियोना देशो अने बेइंद्रियोना &| देशो छे, एम वचला भांगा सिवायना त्रिकसंयोगी वीजा बधा भांगा कहेवा. ए प्रमाणे यावत्-पंचेंद्रियो सुधी कहे. त्या जे
जीवप्रदेशो छ ते अवश्य एकेंद्रियोना प्रदेशो अने अनिद्रियोना प्रदेशो छे. १ अथवा एकेंद्रियोना प्रदेशो, अनिद्रियोना प्रदेशो अने एक बेइंद्रियना प्रदेशो छे. २ अथवा एकेंद्रियोना प्रदेशो, अनिद्रियोना प्रदेशो अने बेइंद्रियोना प्रदेशो छे. ए प्रमाणे प्रथम मांगा सिवायना बीना बधा भांगा कहेवा. तथा ए प्रमाणे यावत्-पंचेंद्रिय सुधी जाणवु. अने दशमा शतकमां कहेल तमा दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे अहीं अजीवोनी वक्तव्यता कहेवी.
लोगस्स णं भंते ! हेडिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा ?, गोयमा! नो जीवा जीवदेसावि जाव अजीवप्पएसावि, जे जीयदेसा ते नियम एगिदियदेसा अहवा एगिदियदेमा य बेइंदियस्स देसे अहवा एमिंदियदेसा य बेंदियाण य देमा एवं मज्झिल्लविरहिओजार अणिदियाण पदेमा आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरि
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मंते तहेव, अजीया जहेव उवरिल्ल चरिमंते तहेव ॥ इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते ! व्याख्या किं जीवा ? पुच्छा, गोयमा! नो जीवा एवं जहेब लोगस्स तहेव चत्तारिवि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले, उवरिल्ले:
1४१६ शतके प्रज्ञप्ति
है। उद्देशः८ ॥१४०७०
| जहा दम मसए विमला दिसा तहेव निरवसेसं, हेडिल्ले चरिमंते तहेव नवरं देसे पंचिंदिसु तियभंगोत्ति सेसं तं चेव, एवं जहा स्यणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सकरप्पभागवि उवरिमहेडिल्ला जहा रयणप्पभाए हेडिल्ले। एवं जाव अहे सत्तमाए, एवं सोहम्मस्सवि जाच अच्चुयस्स गेविजविमाणाणं एवं चेव, नवरं उवरिमहेडिल्लेसु चरमंतेसु देसेसु पंचिंदियाणवि मज्झिल्लविरहिओ चेव एवं जहा गेवेजविमाणा तहा अणुत्तरविमाणावि ईसिपम्भारावि (मत्रं ५८४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! लोकना हेठलना चरमांतमा शुं जीवो छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी, जीवदेशो छे. जीवप्रदेशो छ, यावत्-[ अजीवो, अजीवना देशो अने] अजीवना प्रदेशो पण छे. जे जीवदेशो छे ते अवश्य एकेंद्रियना देशो छ १ अथवा एकेंद्रियोना देशो अने बेइंद्रियनो देश छे. २ अथवा एकेंद्रियोना देशो अने बेइंद्रियोना देशो छे. ए प्रमाणे वचला भांगा शिवाय वीजा बधा भांमा कहेवा, अने ते यावत्-अनिद्रियो मुधी जाणवू. सर्वना प्रदेशोनी बाबतमा पूर्व चरमांतना प्रश्नोत्तर प्रमाणे जाणवं, पण तेमा प्रथम भांगो न कहेवो. अजीवोनी बावतमां उपरना चरमांतमां कह्या प्रमाणे बंधु कहे. [प्र०] हे भगवन् ! आ
रजप्रमा पृथ्वीना पूर्व चरमांतमा जीवो छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! त्यां जीवो नथी. जेम लोकना चार चरमांत कया| है| तेम रत्नप्रभाना पण चारे चरमांत यावत्-उत्तरना चरमांत सुधी जाणवा. दशमा शतकमां कहेल विमला दिशानी वक्तव्यता प्रमाणे
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www.kobatirth.org आ रत्नप्रभाना उपरना चरमांनी पण वक्तव्यता जाणवी. तथा रत्नप्रभा पृथ्वीनो नीचलो चरमांत पण लोकनी नीचेना चरमांतनी व्याख्या
पेठे जाणवो. परन्तु विशेष ए के जीवदेशोना संबंधे पंचेंद्रियोमा त्रण भांगा कहेवा. बाकीनु बधु तेज प्रमाणे कहेवु. रत्नप्रभा पृथ्वीना प्रज्ञप्तिः
उशा८ ॥१४०८॥ चार चरमांतनी पेठे शर्करानभा पृथिवीना पण चार चरमांत कहेवा. अने रत्नप्रभा पृथिवीना नीचेना चरमांतनी पेठे शर्कराप्रभानो
( १४०८1 उपलो तथा नीचेलो चरमांत समनवो. ए प्रमाणे यावत्-सातमी पृथिवी सुधी जाणवु तथा सौधर्म दिवलोक] यावत्-अच्युत (देवलोक] संबंधे पण एज प्रमाणे समजवु. 7वेयक विमानो संबंधे पण तेज प्रमाणे जाणवू पण तेमा विशेष ए छे के उपला अने हेठला चरमांत विषे देशो संबंधे पंचेंद्रियोमा पन वचलो भांगो न कहेवो. बाकीनु बधु पूर्व प्रमाणे ज कहेचु, तथा अवेयक विमा ननी पेठे अनुत्तर विमाननी अने ईषत्प्राग्मारा पृथिवीनी पण वक्तन्यता कडेवी. ।। ५८४ ॥
परमाणुपोग्गले णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? पञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं जाव गच्छति ? उत्सरिल्लाओ दाहिणिल्लं जाव गच्छति ? उवरिल्लाओ चरमंताओ हेहिलं चरिमंतं एग जाय गच्छति ! हेडिल्लाओ चरिमंताओ उपरिलं चरिमंतं एगममएणं गच्छति ?, हंता गोयमा! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरछिमिलंत चेव जाव उपरिहं चरिमंतं गच्छति ॥ (सूत्रं ५८५)॥
[प्र.] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल एक समयमा लोकना पूर्व चरमांतथी-डाथी पश्चिम चरमांतमा, पश्चिम चरमांतथी पूर्व IPघरमांतमा दक्षिण चरमांलथी उत्तर चरमांतमा, उत्तर चरमांतथी दक्षिण चरमांतमां उपरना चरमतिथी नीचेना चरमांतमां, अने|31
AMROGRAM
MAGE
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नीचेना चरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय ? [उ.] हे गौतम! हा, परमाणु पुद्गल एक समये लोकना पूर्व चरमान्तथी पश्चिम व्याख्या चरमांवमा, यावन-नीचेना घरमांतथी उपरना चरमांतमा जाय. ॥ ५८५ ।।
१६ शतके प्रज्ञप्ति
पुरिसे गंभंते ! वासं वामति ? नो वासं वामतीति ? इत्थं वा पायं वा पाहुं वा ऊ वा आउद्यावेमाणे वा प-18| उद्देशः८ ॥१४०९॥
१४.९॥ सारेमाणे वा कतिकिरिए ?, गोयना ! जावं च ण से पुरिसे वासं वासति वासं नो वासतीति हत्थं वा जाच ऊर वा आउट्टावेति वा पसारेति या तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे (सूत्रं ५८६)॥
प्र०] हे भगवन । 'वरसाद बरसे के नथी बरसतो'ए [जाणवाने ] माटे कोई पुरुष पोतानो हाथ, पग, बाहु, के उरु संकोचे के पसारे बो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम ! 'बरसाद बरसे के के नथी वरसतो'ए जाणवाने माटे जे
पुरुष पोतानो हाथ, यावत्-उरु संकोचे के पसारे ते पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे. ॥ ५८६ ॥ का देवे णं भंते। महडिए जाच महेमक्खे लोगते ठिच्चा पभू अलोगसि हत्थं वा आच ऊरं वा आउंटावेत्तए या
| पसारेत्तए वा !, णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुदइ देवे णं महड्डीए जाव लोगते ठिच्चा णो पभू अलो. है। गंसि हत्थं वा जाय पमारेत्तए चा?, गोयमा! जीवाणं आहारोबचिया पोग्गला बोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया
पोग्गला पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिजइ, अलोए ण नेवस्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला से तेण?णं जाच पसारेत्तए वा ।। सेवं भंते ! २त्ति ॥ (सूत्रं ५८७ ) ॥ १६-८॥
[प्र.] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवालो यावत्-मोटा सुखवाळो देव लोकांतमा रहीने अलोकमां पोताना हाथने, यावत्-उरुने |
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥२४१०॥
संकोचवा के पसारवा समर्थ के ? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के ' मोटी ऋद्धिवाळो देव लोकान्तमा रहीने अलोकमा पोताना हाथने, यावत्-उरुने पसारवा समर्थ नथी' [उ०] हे गौतम! जीवोने (अनुगत एवा) आहारोपचित, शरीरोपचित अने कलेवरोपचित पुद्गलो होय छे, तथा पुद्गलोने आश्रयीनेज जीवोनो अने अजीवोनो (पुद्गलोनो) गतिपर्याय कहेवाय के. अलोकमां तो जीवो नथी. तेम पुद्गलो पण नथी माटे ते हेतुथी पूर्वोक्त देव यावत्| पसारवा समर्थ नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ॥५८७ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १६ मा शतकमा आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
है १६ शतके
उशा दा॥२१॥
शतक १६. (उद्देशक ९.) कहिन्नं भंते ! यलिस्म बहरोपणिदस्स बहरोयणरन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्म उत्तरेणं तिरियमसंखेने जहेव चमरस्स जाव बायालीसं जोयणसहस्सा ओगाहित्ता एत्थ ण चलिस्स वइरोयणि दस्स वड. २ रुयगिंदे नाम उप्पायपव्वए पन्नत्ते सत्तरस एकवीसे जोयणसए एवं पमाणं जहेव तिगिच्छकूडस्स पासायवडेंसगस्सवि तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परियारेणं अहो तहेव नवरं यगिंदप्पभाई ३ सेसं तं चेव जाव बलिचंचाए रायहाणीए अन्नसिं च जाव रुयगिंदस्स णं उप्पायपव्वयस्स
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उत्सरेणं छोडिसा तहेव जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं बलिस्स वइरोयणिस्स वइरोयव्याख्या
होणरन्नो पलिचंचा नाम रायहाणी पन्नत्ता एग जोयणसयसहस्सं पमाण तहेव जाव बलिपेढस्स उववाओ जाव १६ शतके प्राप्तिः ॥१४११॥
| आपरक्खा सम्वं तहेव निरवसेसं नवरं सातिरेगं सागरोवमं ठिती पन्नत्ता संसं तं चेव जाव वली वइरोयणिदे उदेशः९ ६ वली २॥ सेवं भंते!२ जाय विहरति ।। (सूत्रं ५८८) ।। १६-९॥
P१४१२॥ * [४०] हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र अने वैरोचन राजा एवा बलिनी सुधर्मा ममा क्या कहेली (आवेली) छे ? [उ०] हे गौतम! 31 जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मंदर पर्वतनी उत्तरे तिरहुं असंखेय (डीप-समुद्रो ओलंगीन)--इत्यादि जेम चमरनी हकीकतमां कई छे तेम
अरुणवर वीपनी बाह्यवेदिकाथी अरुणवर समुद्रमा तालीश हजार योजन अवगाह्या पछी पैरोचनेन्द्र अने वैरोचनराजा एवा बलिनो रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत कह्यो . ते उत्पात पर्वत १७२१ योजन उंचो छे. बाकीनु बधुं तेनुं प्रमाण तिमिच्छिकूट पर्वतनी | पेठे जाणवू तेना प्रामादावतंसकर्नु पण प्रमाण तेज प्रमाणे जाणवू. तथा बलिना परिवार साथे सपरिवार सिंहासन पण ते प्रमाणे
कहेवु. रुचकेन्द्र नामनो अर्थ पण ते प्रमाणे कडेवो. विशेष ए के अहिं रुचकेन्द्र (पनविशेष) नी प्रभावाळां उत्पलादि जाणवां. बाकी है। बधुं तेज प्रमाणे यावत्-ते बलिचंचा राजधानी तथा अन्योनु (आधिपत्य करतो विहरे ने.) त्यांसूधी कहे. ते रुचकेन्द्र उत्पात P पर्वतनी उत्तरे छ सो (पंचावन कोड, पांत्रीश लाख, पचास हजार योजन अरुणोदय समुद्रमां तिरछु जइने नीचे रत्नप्रभा पृथ्वीमां) | इत्यादि पूर्ववत् यावत्-चालीस हजार योजन गया पछी त्यां वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजा एवा पलिनी 'बलिचंचा' नामनी राजधानी | कही (आवेली) छे. ते राजधानीनो विष्कंभ-विस्तार एक लाख योजन छे, याकीनु पधुं प्रमाण पूर्व प्रमाणे जाणवू, अने ते यावत्-है।
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KAK
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बलिपीठ सुधी समजबूतथा उपपात, यावत्-आत्मरक्षको-ए बधुपूर्ववत् समजवू. विशेष ए के वैरोचनेन्द्र वैरोचन राजा एवा व्याख्याप्रज्ञप्तिः
बलिनी स्थिति सागरोपम करतां कइंक अधिक कही छे. अने बाकी बधु ते संबंधे पूर्व प्रमाणेज जाणवू. यावत्-'वैरोचनेन्द्र पलि छे, ॥१४१२॥ हा वैरोचनेन्द्र बलि छ' त्या सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज वे, हे भगवन् ! ते एमज के.' ॥ ५८८ ॥
भगवत सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १६ मा शतकमा नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
१६ शतके | उशा.
शतक १६. (उद्देशक १०.) कति विहे गं भंते ! ओही पन्नत्ते?, गोयमा! दुविहा ओही प०, ओहीपदं निरवसेसं भाणियव्वं ॥ सेवं भंते।। सेवं भंते! जाव विहरति ॥ (सूत्रं ५८९) ॥ १६-१०॥
[प्र०] हे भगवन ! अवधिज्ञान केटला प्रकारे कयु छ ? [उ०] हे गौतम ! अवधिज्ञान के प्रकारे कर्तुं छे. अहिं 'प्रज्ञापना' ॐ सूत्रनुं तेत्रीसमु अवधिषद संपूर्ण कहे. हे भगवन् ! ते एमज , हे भमवन् ! ते एमज छे-एम कही यावद्-विहरे छे. ॥ ५८९ ॥
भगवत् सुधर्म स्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीउत्रना १६ मा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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शतक १६. (उद्देशक ११-१२-१३-१४.) व्याख्या
१६ शतके प्रज्ञप्ति
उमेश दीवकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा सब्वे समुस्सासनिस्सासा?, णो तिणद्वे ममढे, एवं जहा पढमसएट्रा१४१३॥
वितिय उद्देसए दीवकुमाराणं वत्तब्बया तहेब जाव समाउया समुस्सासनिस्मासा । दीवकुमाराणं भंते! कति ॥११॥ लेस्साओ पन्नत्ताओ!, गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा जाव तेउलेस्सा । एएसिणं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साण जाव तेउलेस्साण य कयरे २ हितो जाव विसेमाहिया वा?, गोयमा! सब्व त्थोवा दीपकुमारा तेउलेस्सा काउलेस्सा असंखेनगुणा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया। एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे २ हितो अप्पड्डिया वा महडिया वा?, गोयमा!
कण्हलेस्साहितो नीललेस्सा महाडिया जाव सब्वमहड्डिया तेउलेस्सा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरति । ६ उदहिकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा० एवं चेव, सेवं०१६-१२॥ एवं दिसाकुमारावि ॥१६-१३ ॥ एवं धणियकुमाराऽवि, सेवं भंते सेवं भंते ! जाव विहरइ ॥१६-१४ ॥ सोलसमं सयं समत्तं (सूत्रं ५९०) ॥१६-१४ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! द्वीपकुमारो बधा समानआहारवाला छे, समानउच्छ्वास-निःश्वासचाळा ३१ [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ टू समर्थ नथी. अहिं जेम प्रथम शतकना द्वितीय उद्देशकमा दीपकुमारोनी वक्तव्यता कहेली छे ते बधी कहेवी, यावत्-समान आयुष्य
बाळा अने समान उच्छ्वास-निःश्वासवाळा (नथी) त्या सुधी जाणवू [प्र.] हे भगवन् ! दीपकमारोने केटली लेश्याओ कही छे!
AGRAA
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क उमेश:
P
P॥१४१५॥
[उ०] हे गौतम ! तेओने चार लेश्याओ कही थे. ते आ प्रमाणे-१ कृष्णलेश्या, यावत्-४ तेजोलेश्या. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णव्याख्या-पूालेश्यावाळा यावत-तेजोलेश्यामाद्वीपकुमारोमां कोण कोनाथी यावत-विशेषाधिक छ? [उ०] हे गौतम! सौथी थोडा द्वीप
प्रज्ञप्तिः ॥१४१४॥
दकुमारो तेजोलेश्यावाला के, कापोतलेश्यावाळा असंखेयगुणा छे, तेथी नीललेझ्यावाळा विशेषाधिक छे, अने तेना करतां कृष्णलेश्या
वाळा विशेषाधिक के. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला, यावत तेजोलेश्यावाळा-ए द्वीपकुमारोमां कोण कोनाथी अल्पर्षिक छे 31 अने महाधिक के ? [उ०] हे गौतम ! कृष्णलेश्यावाला करतो नीललेश्यागाळा द्वीपकुमारो महर्षिक छै; यावत्-तेजोलेश्यावाळा सौथी
महर्षिक छे. 'हे भगवन् ! ते एमज छ हे भगवन् ! ते एमज है'-एम कही यावद विहरे छे.-(१६-११) [३०] हे भगवन् ! शु उदधिकुमारो बधा समान आहारवाला छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणेज बधुजाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-(१६-१२) ए प्रमाणे दिक्कुमारो विपे तेरमो उद्देशक जाणवो अने ए प्रमाणे स्तनितकुमारो विषे चौदमो उद्देशक समजबो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एमज छे-एम कही याबद्-विहरे छे. ॥ ५९० ॥
भगवन् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १६ मा शतकमा ११-१२-१३-१४ उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
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M101019
इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे योदशं शतं समाप्तम् ॥
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शतक १७. (उद्देशक १.) व्याख्या-1
५१७शतके
उद्देशः नमो सुगदेवयाए भगवईए ॥ कुंजर १ संजय २ सेलेसि ३ किरिय ४ ईसाण ५ पुढवि ६-७ दग ८-९ वाज
१४१५॥ १०-११ । एगिदिय १२ नाग १३ सुबन्न १४ विज्जु १५ गयु १६ ऽग्गि१७ सत्तरसे ॥ ७७ ।।
(उद्देशक संग्रह-) १ कुंजर-कोणिकना प्रधान हस्ती संबन्धे प्रथम उद्देशक, २ संयतादि संबन्धे बीजो उद्देशक, ३ शैलेशी प्राप्त 31 अनगार संबन्धे त्रीजो उद्देशक, ४ किया-कर्म संबन्धे चोथो उद्देशक, ५ ईशानेन्द्रनी सुधर्मासभा संबन्धे पांचमो उद्देशक, ६-७
पृथिवीकायिक संवन्धे उट्ठो अने सातमो उदेशक, ८-९ अकायिक संबन्धे आठमो अने नवमो उद्देशक, १०-११ वायुकायिक | संबन्धे दशमो अने अगीयारमो देशक, १२ एकेन्द्रिय जीव संबन्चे बारमो उद्देशक, १३-१७ नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार 5 अने अग्निकुमार संबन्धे अनुक्रमे तेस्थी आरंभी सत्तर उद्देशको-ए प्रमाणे सत्तरमा शतकमां सत्तर उद्देशको कहवामां आवशे.
रायगिहे जाय एवं वयासी-उदायी णं भंते ! हथिराया क ओहिंतो अणंतरं उब्वहित्ता उदायिह स्थिरायत्ताए उववनो?, गोयमा! असुरकुमारेहिंतो देवहितो अणंतरं उब्वहिता उदायिहत्थिरायत्ताए उववन्ने, उदायी भंते! हस्थिराया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति कहिं उपजिहिति? गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमठितीयंसि निरयावासंसि नेरहयत्ताए उववजिहिति, से ण भंते ! तओहितो अणंतरं उचहत्ता कहिं ग० कहिं उ०१, गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति ॥ भूयाणंदे णं भंते ! हत्थिराया
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥ १४१६ ।।
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कओहिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता भूगाणंदे हस्थिरायत्ताए एवं जहेब उदायी जाव अंतं काहिति ॥ (सूत्रं ५९९) ॥ [प्र० ] राजगृह नगरमा भगवान् गौतम यावत्-आ प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! उदायी नामे प्रधान हस्ती कई गतिमांथी मरण पामी तुरत अहीं उदायी नामे प्रधान हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे ? [उ०] हे गौतम! ते असुरकुमार देव थकी मरण पामी तुरत अहीं उदायी नामे प्रधान हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे. [प्र० ] हे भगवन् ! आ उदाथी नामे हस्ती मरणसमये मरी क्यां जशे, क्यां उत्पन्न थशे ? [30] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीने विषे एक सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थितिवाळा नरकावासमा नैरयिकपणे उत्पन्न थशे. [प्र०] हे भगवन् ! ते (उदायी हस्ती) त्यांथी मरण पामी तुरत क्यों जशे क्यों उत्पन्न थशे ? [अ०] हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमां उत्पन्न थई सिद्ध थशे, सर्व दुःखोनो अन्त करशे. [प्र० ] हे भगवन् ! भूतानंद नामे प्रधान हस्ती कई गतिमांथी मरण पामी तुरत अहिं भूतानंद नामे हस्तीपणे उत्पन्न थयो छे ? [उ० ] जेम उदायी नामे हस्तीनी वक्तव्यता कही तेम भूतानंदनी पण वक्तव्यता अहिं जाणवी. याच सर्व दुःखोनो अन्त करशे ।। ५९१ ।।
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पुरिसे णं भंते! तालमारुहइ ता० २ तालाओ तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ?, गोयमा जावं च णं से पुरिसे तालमारुहह तालमा० २ तालाओ तालफलं पयालेइ वा पवालेह वा तावं च णं से पुरिसे काइगाए जाब पंचहि किरियाहिं ! ट्ठे, जेसिंपिग णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए तलफले निव्वत्तिए | तेऽवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरिया हि पुट्ठा ॥ अहे णं भंते ! से तालप्फले अप्पणी गरुयत्ताए जाव पश्चोत्रयमाणे जाई तस्थ पाणाई जाव जीविद्याओ ववशेवेति तए णं भंते । से पुरिसे कति किरिए ?, गोधमा !
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१७ शतके
उद्देशः १ ||| १४१६॥
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व्याख्याप्रक्षप्तिः ॥ १४१७॥
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जायं च णं से पुरिसे तलप्फले अप्पणी गरुयत्ताए जाव जीविपाओ वधरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाब चउहि किरियाहिं पुट्ठे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जाब चउहिं किरियाहि पुढा, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो तालष्फले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा जाव पंचहि किरिया हिं पुट्टा, जेबिन से जीवा अहे बीससाए पश्चोत्रयमाणस्स उबग्गड़े बहंति तेऽवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरिगाहिं पुट्ठा ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! कोई पुरुष वाडना झार उपर चढे, अने ते ताडना झाड उपर चढी त्यां रहेला ताडना फळने हलावे के नीचे पाडे तो ते पुरुषने केटली क्रियाओ लागे ? [अ०] हे गौतम ! जेटलामा पुरुष ताड उपर चढी ताडना फळने इलावे के नीचे पाडे, तेटलामां ते पुरुषने कायिकी बगेरे पांच क्रियाओ लागे. जे जीवशेना शरीरद्वारा वाड वृक्ष तथा ताडनुं फळ उत्पन्न थयुं छे ते जीवोने पण कायिकी बगेरे पांच क्रियाओ लागे. [प्र०] हे भगवन् ! (ते पुरुषे इलाव्या के तोडघा पछी) ते ताडनुं फळ पोताना भारने लधे यावत्-नीचे पढे, अने नीचे पडता ते ताडना फळद्वारा जे जीवो हणाय, यावत्-जीवितथी जूदा थाय, तो तेथी ते फळ तोडनार पुरुषने केटली क्रियाओ लागे ? [अ०] हे गौतम! जेटलामां ते पुरुष ताडना फळने तोडे अने पछी ते फळ पोताना मारने लीघे नीचे पडता जीवोने यावत्-जीवितधी जूदा करे तो वेटलामां (तोडनार) पुरुषने कायिकी बगेरे चार क्रियाओ लागे, जे जीवोना शरीरथी ताडनुं वृक्ष नीपज्युं के वे जीवोने यावत् चार क्रियाओ लागे, अने, जे जीवोना शरीरथी साडनुं फळ नीपज्यं छे ते जीत्रोने तो कायिकी यावद यांचे क्रियाओ लागे. तथा जे जीवो स्वाभाविक रीते नीचे पडता ताडना फळना उपकारक थाय
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१७ शतके उद्देशः१
॥१४१७॥
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व्याख्याअज्ञप्तिः
॥ १४१८॥
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के ते जीवोने पण कायिक यावत्-पांचे क्रियाओ लागे.
१,
पुरिसे षणं भंते! रुवस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए !, गोपमा ! जावं चणं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुढे, जेसिंपिय णं जीवाणं सरीरेहिंनो मूले निव्वत्तिए जाब बीए निव्वत्तिए तेविय णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा, अहे णं भंते! से मूले अप्पणी गरुयत्ता जाव जीविधाओ ववशेवेह तओ णं भंते! से पुरिसे safare, गोमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाब बबरोवेह तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहिं किरियाहिं पुढे, जेसिंपिंग णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्यत्तिए जाब बीए निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जात्र चउहिं पुट्ठा, जेसिंपिंग णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरि याहि कंदे, जेविय णं से जीवा अहे बीमसाए पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे वर्हति तेवि णं जीवा काएयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा || पुरिसे णं भंते! रुक्खस्स कंदं पचा लेह, गो० तावं च णं मे पुरिसे जान पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए तेवि णं जीवा जाव पंचाहिँ किरियाहिं पुट्ठा, अहे णं भंते ! से कंदे अप्पणो जान चउहिं पुढे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए खंधे नि० जाव चाहिं पुट्ठा, जेसिंपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे निव्वत्तिए सेवि य णं जीवा जाब पंचहि पुट्ठा, जेवि य से जीवा अहे वीससार पञ्चोवयमाणस्स जाव पंचहि पुट्ठा जहा खंधी एवं जाव बीयं (सूत्रं ५९२ ) ।।
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|१७ उद्देशः१ ॥१४८॥
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ती प्र०) हे भगवन् ! कोइ पुरुष झाडना मूळने हलाये के नीचे पाडे तो ते पुरुषने केटली क्रिया लागे ? [३०] हे गौतम! |P! व्याख्या
साडना मूळने इलावनार के नीचे पाडनार पुरुषने कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे, अने जे जीवोना शरीरथी मूल यावत् बीजावा प्राप्ति
18नीपज्यां छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांचे क्रियाओ लागे. [प्र.] हे भगवन् ! त्यार पछी ते मूळ पोताना मारने लीधे नीचे ॥१४१९॥
१४१९॥ दोपडे अने बीजा जीवोनु घातक थाय तो तेथी मूळने हलावनार के तोडनार ते पुरुपने केटली क्रिया लागे ! [उ०] हे गौतम! जेट-1*
लामा ते मुळ पोताना भारने लीधे नीचे पडे अने वीजा जीवोनु घातक थाय तेटलामा ते पुरुषने कायिकी वगेरे चार क्रियाओ, लाग. तथा जे जीवोना शरीरथी कंद नीपज्यो छे, यावत्-धीज नीप, छे ते जीवोने कायिकी यावत् - चार क्रियाओ लागे. बळी जे जीयोना शरीरथी मूळ नीपज्यूछे ते जीवोने कायिकी यात-पांच क्रियाओ लागे. तथा जे जीयो स्वाभाविक रीते नीचे पडता मूलना उपग्राहक-उपकारक छे ते जीवोने पण कायिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे के. [प्र.] हे भगवन् ! कोई पुरुष वृक्षना कंदने इलावे तो तेने केटली क्रिया लागे ? [उ.] हे गौतम ! कंदने इलावनार ते पुरुषने याव-पांच कियाओ लागे. तथा जे जोबोना शरीरथी मृळ यावत् बीज नीपज्यू के ते जीवोने पण पांच क्रियाओ लागे के. [प्र०] हे भगवन् ! त्यार पछी ते कन्द पोताना भारने
लीधे नीचे पडे अने यावत्-जीवोनो घात करे तो ते पुरुषने केटली क्रियाओ लागे? [उ.] ते पुरुषने यानन-चार कियाओ लागे. 21(साक्षात् घातक नहि दोषाथी प्राणातिपातक्रिया न लागे.) तथा जे जीवोना शरीरोधी मृळ, स्कंध वगेरे नीपज्यां छे ते जीवोने
परमपराए घातक होवाथी प्राणातिपात क्रिया सिवाय चार क्रियाओ लागे अने जे जीवोना शरीरोथी कंद नीपज्यो ते जीवोने यावत् पांचे क्रियाओ लागे. वळी जे जीवो स्वाभाविक रीते नीचे पडना ते कंदना उपकारक होय ते जीवोने पण पांचे क्रियाओ
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S a rsuri Gyanmandir लागे. जम कंद संबन्धे वक्तव्यता कही तेम यावद-बीज संबन्धे पण जाणवी. ॥ ५९२ ।। व्याख्याकति भंते ! सरीरगा पण्णता ?, गोयमा! पंच सरीगंगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालियजावकम्मए । कति ।
७ि प्राप्तिः भंते ! इंदिया पं०१, गोयमा! पंच इंदिया पं०,०-सोइंदिए जाब फासिदिए। कतिविहे गं भंते ! जोए प०१,
१ उद्देशा ॥१४२०॥
ममता जाए ५
१५२०॥ | गोयमा! तिविहे जोए प०, तं-मणजोए चयजोए कायजोए । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निम्वत्तेमाणे कति 131 किरिए ?, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, एवं पुढधिकाइपथि एवं जाव मणुस्से। जीवाणं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कति किरिया:, गोयमा! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि, एवं पुढाविकाइया एवं जाव मणुस्सा, एवं वेउब्वियसरीरेणचि दो दंडगा, नवरं जस्स अस्थि वेउब्वियं, एवं जाव कम्मगसरीरं, एवं मोइंदियं जाव फासिदियं, एवं मणजोगं बयजोगं कायजोगं जस्स जे अस्थि तं भाणियवं, एए एगत्तपुहुत्तेणं गच्चीसं दंडगा (सूत्रं ५९३)।
[प्र.] हे भगवन् ! केटला शरीरो कहाँ छ ? [उ०] हे गौतम ! पांच शरीरो का छे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिक, यावत्१५ कार्मण. [प्र०] हे भगवन् ! केटली इन्द्रीयो कही । [उ०] हे गौतम ! पांच इन्द्रियो कही छे, ते आ प्रमाणे-१ श्रोत्रेन्द्रिय, टूयावत-५ स्पर्शेन्द्रिय. [म०] हे भगवर! योग केटला प्रकारनो कझो छ ? [उ.] हे गौतम ! योग त्रण प्रकारनो को छे, ते आ
प्रमाणे-मनयोग, वचनयोग अने काययोग. [म.] हे भगवन् ! औदारिक शरीरने बांधतो जीव केटली क्रिायवाळो होय? [उ०] महे गौतम ! औदारिक शरीरने बांधतो जीव कोइवार त्रण क्रियावाळो, कोइवार चारक्रियावाळी अने कोइबार पांच क्रियात्राळो होय. 18
का प्रकारको
रीरने बांधताने कोइवार पा
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४/१७शतके
उशार ॐ॥१५२१
एरीते पृथिवीकायिक संबन्धे कहेचुं, तथा ए प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-मनुष्य सुधी जाणq. [प्र०] हे भगवन् ! औदारिक व्याख्या
| शरीरने बांधता अनेक जीवोने केटली क्रियाओ लागे ! [उ०] हे गौतम ! तेओने कदाचित् त्रण क्रियाओ, कदाचिन् चार क्रियाओ प्रज्ञप्तिः ॥१४२१॥
अने कदाचित् पांच क्रियाओ लागे ए प्रमाणे यावत् दंडकना क्रमथी पृथिवीकायिको सुधी जाणवू. तथा ए क्रमथी यावत्-मनुष्यो सुधी जण. ए प्रमाणे बैंक्रिय शरीर संबन्धे पण एक वचन अने बहुवचनने आश्रयी बे दंडको कहेवा. परन्तु जे जीवोने वैक्रिय शरीर होय ते जीवोने आश्रयी कहेवु ए प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीर सुधी समजवु. श्रोत्रेन्द्रियथी आरंभी यावत्-स्पोन्द्रिय सुधी पण एज क्रमथी जाणवु. वळी मनयोग, वचनयोग अने काययोग विषे पण ए प्रमाणे कहेवु, परन्तु जेने जे योग होय तेने ते योगसंचन्धे कई. एम वधा मळीने एकवचन अने बहुवचनने अश्रयी छब्बीश दंडको कहेवा. ।। ५९३ ।। । कतिविहे णं भंते ! भावे पण्णत्ते?, गोयमा! छविहे भावे प०,०-उदइए उवसमिए जाव सन्निवाहए, |से किं तं उदहए ?, उदए भावे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा--उदइए उदयनिप्फन्ने य, एवं एएणं अभिलावेणं जहा अणुओगदारे छन्नाम तहेव निरवसेसं भाणियब्वं जाव से तं सन्निवाइए भावे ।। सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ।। (सू० ५९४ ) ॥ १७-१॥ | [प्र०] हे भगवन् ! भाव केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम ! भाव छ प्रकारना कह्या . ते आ प्रमाणे-१ औदहायिक, २ औपशमिक, यावत्-६ सांनिपातिक. [प्र०] हे भगवन् ! औदयिक भाव केटला प्रकारे कह्यो छे. [उ०] हे गौतम! औद
यिक भाव वे प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-औदायिक अने उदयनिष्पन्न. ए प्रमाणे आ अमिलाप बडे अनुयोगद्वारमा जेम छ
।
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नामनी वक्तव्यता कही के ते बघी अहिं कहेवी. यावत-ए प्रमाणे सांनिपातिक भाव सुधी कडेवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे। व्याख्या४ा भगवन् ! ते एमज छे'. ॥ ५९४ ॥
दात प्रज्ञप्तिः भगषत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १७ मा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उमेश ॥१४२२॥
४१४२२॥ शतक १७. (उद्देशक २) से नूणं भंते ! संयतविरतपडिहयपञ्चवायपावकम्मे धम्मे ठिए अस्संजयअविरय अपडिहयपचक्खायपावकम्मे अधम्मे ठिते संजयासंजए धम्माधम्मे ठिते?, हंता गोयमा! संजयविरयजाव धम्माधम्मे ठिए, एएसिणं भंते ! धम्मसि वा अहम्मंसि वा धम्माधम्मसि वा चकिया केइ आमहत्तए वा जाव तुयहित्तए वा?, गोयमा! णो तिणढे समढे, से केणं ग्बाइ अटेणं भंते ! एवं वुचइ जाव धम्माधम्मे ठिते !, गोयमा! संजयविरयजाव पावकम्मे धम्मे ठिले धम्म चेव उवसंपत्तिाणं विहरति, असंयतजाव पावकम्मे अधम्मे ठिए अधम्म चेव उवसंपजित्ताणं विहरह, संजयासंजए धम्माधम्मे ठित धम्माधम्मं चेव उवसंपज्जित्ताणं विहरति, से तेणटेणं जाव ठिए ॥ जीवा णं भंते ! किं धम्मे ठिया अधम्मे ठिया धम्माधम्मे ठिया ?, गोयमा! जीवा धम्मेवि ठिता अध. म्मेवि ठिता धम्माधम्मेवि ठिना, नेरह० पु०१, गोयमा! णेरड्या णो धम्मे ठिता अधम्मे ठिता णो धम्माधम्मे ठिता, एवं जाव चउरिदिया, पंचिंदियतिरिक्खजो पुच्छा, गोयमा! पंचिंवियतिरिक्खजोणि नो धम्मे ठिया
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व्याख्या
प्रतिः ॥ १४२३ ॥
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अधम्मेठिया धम्मात्रम्मेवि ठिया, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइस वेमाणिया जहा नेर० (सू० ५९५) ।।
[प्र० ] हे भगवन् । संयत, प्राणातिपातादिथी विरतिवाळो अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कर्तुं छे एवो जीव चारित्र धर्ममां स्थित होय, असंगत, अविरत अने जेणे पापकर्मनो प्रतिघात अने प्रत्याख्यान कर्तुं नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित होय, तथा संयतासंयत जीव धर्माधर्ममां स्थित होय ? [अ०] हे गौतम! हा, संयत अने विरत जीव धर्ममां स्थित होय, संयतासंयत जीत्र यावत्-धर्माधर्ममां स्थित होय. [प्र० ] हे भगवन् ! ए धर्ममा, अधर्ममा अने धर्माधर्ममां कोइ जीव बेसवाने यावद| आळोटवाने समर्थ के ? [30] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी (अर्थात्-ते जीवनो स्वभाव होवाथी धर्ममां, अधर्ममां के धर्माधर्ममां कोड़ जीव बेसी शकतो नथी.) [प्र०] हे भगवन् ! या कारणथी आप एम कहो छो के— 'यावद-धर्माधर्ममां स्थित होय' ? [३०] हे गौतम! संयत, विरत अने जेणे पापकर्मनुं प्रत्याख्यान कयूँ छे एवो जीव धर्ममां स्थित होय एटले धर्मनो आश्रय करी स्वीकार करीने विहरे ए प्रमाणे असंगत, अविरत अने जेणे पापकर्मनुं प्रत्यख्यान कर्तुं नथी एवो जीव अधर्ममां स्थित होय - एटले अधर्मनो आश्रय करी विहरे, तथा संयतासंयत जीव धर्माधर्ममां स्थित होय- एटले जीव धर्माधर्मनो देश विरतिनो आश्रय करी विहरे, ते माटे हे गौतम! यावत्- 'स्थित होय'. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीवो धर्ममां स्थित होप, अधर्ममां स्थित होय के धर्माधर्ममां स्थित होय ? [उ०] हे गौतम! जीवो धर्ममां पण स्थित होय, अधर्ममां पण स्थित होय अने धर्माधर्ममां पण स्थित होय. [ प्र० ] हे | भगवन् ! ए प्रमाणे नैरयिक संबन्धे पृच्छा करवी. [३०] हे गौतम! नैरयिको धर्ममां स्थित न होय, तेम धर्माधर्ममां स्थित न होय, पण अधर्ममां स्थित होय. ए प्रमाणे यावत्-चउरिन्द्रिय जीवो सुधी जाणवुं [प्र० ] पंचेन्द्रिय तिर्येच जीवो संबन्धे पृच्छा.
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| १७ शतके उar
||| १४२३ ॥
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पालपंडिया |
CO
हमेयं भंते
Acharya Shri garsuri Gyanmandir उ.] गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यच जीवो धर्ममा स्थित नथी, पण तेओ अधर्ममां अने धर्माधर्ममा स्थित छे. मनुष्योने विषे सामान्य व्याख्या४ाजीवोनी पेठे वक्तव्यता कडेची. वानव्यंतरो, ज्योतिषिको अने वैमानिको विषेनी वक्तव्यता नैरयिकोनी पेठे कहेगी. ॥ ५९५॥
१७ प्रज्ञप्ति ॥१४२४॥ अन्नउस्थिया णं भंते ! एकमाइक्वंति जाव परूवेति-एवं खलु समणा पंडिया समणोवासपा पालपंडिया
॥२५२ जम्स णं एगपाणाएवि दंडे अणिक्वित्ते से णं पगंतवालेत्ति वत्तव्वं सिया, से कहमेयं भंते ! एवं , गोयमा! जपणं ते अन्नउत्थिया एकमाइक्वंति जाय वत्तवं मिया, जे ते एकमाइंसुमिच्छ ते एवमा०, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्वामि जाय परवेमि एवं खलु ममणा पंडिया समतोवासगा बालपंडिया जस्स णं एगपाणाएवि दंडे निश्वित्ते से गं नो एगनबालेत्ति वत्तब्वं सिया ॥ जीवाणं भंते। किं याला पडिया वालपंडिया', गोयमा! जीवा यालावि पंडियावि बालपंडियावि, नेरल्याण पुच्छा, गोयमा! नेरइया बाला नो पंडिया नो बालपंडिया, एवं जाव चउरिदिगाणं, पंचिंदियतिरिक्व० पुच्छा, गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया बाला नो पंडिया बालपडियाधि, मणुस्मा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया (सूत्रं ५९६)।
०] हे भगवन् ! अन्यतीथिको एम कहे , यावत् एम प्ररूपे के के 'श्रमणो' पंडित कहेवाय के अने श्रमणोपासको बालपंडित कवाय हे, पण जे जीवने एक पण जीवना बधनी अविरति छे ते जीव 'एकांत बाल' कडेवाय, तो हे भगवन् ! आ (अन्यतार्थिकोर्नु कथन) सत्य केम होय ! [उ.] हे गौतम! जे अन्यतीथिको आ प्रमाणे कहे ? के यावत्-एकान्त बाल' कडेवाय, परन्तु | जेओए एम कयं तेओए मिथ्या-असत्य का छे, हे गौतम! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु-यावत् प्ररूपंछ के-ए प्रमाणे खरेखर 181
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RECECRECRU
. १७ शतक
उमेश ॥१४२५॥
R
है श्रमणो पंडित के अने श्रमणोपासको बालपंडित है, पण जे जीवे एक पण प्राणिना वधनी विरति करी के ते जीव 'एकांतवल' न व्याख्या
कवाय, ( परन्तु 'बालपंडित' कहेवाय) [प्र०] हे भगवन् ! शु जीवो बाल-विरतिरहित छ, पंडित-सर्वविरतिवाळा छ के बालपंप्रक्षतिः
डित-देवविरति युक्त छे? [उ०] हे गौतम! जीवो वाल पण छे, पंडित पम छे अने वालपंडित पण छे (म०] नरयिको संबन्धे २४२५॥
दाए प्रमाणे प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! नैरपिको बाल छ, पण पंडित नथी, तेम बालपंडित पण नथी. ए प्रमाणे दंडकना
क्रमथी यावत्-चउरिद्रियो सुधी जाणवु. [३०] पंचेन्द्रिय तिर्यचो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यचो पाल अने
पालपंडित होय छे, पण पंडित होता नथी. मनुष्यो संबंधे सामान्य जीवोनी वक्तव्यता कहेवी. तथा वानव्यतर, ज्योतिषिक अने है। वैमानिक संबंधे नैरयिकनी वक्तव्यता (सू० ७) कहेवी. ॥ ५९६ ॥ | अबउत्थिया णं भंते ! एचमाइक्खंति जाव परूवेति-वं खलु पाणातिवाए मुसावाए जाव मिच्छादसण. | सल्ले वट्टमास्स अन्न जीवे अने जीवाया पाणावायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाप मिच्छादंस
सल्लविवेगे वहमाणस्स अन्ने जीवे अन्ने जीवाया, उपपत्तियाए जाव परिणामियाए वहमाणस्म अन्ने जीवे अन्ने जीवाश, उपपत्तियाए उग्गहे ईहा अवाए धारणाए वहमाणस्स जाव जीवाया, उहाणे जाव परक्कमे बद्दमाणस्स जाव जीवराया, नेरइयत्त, तिरिवखमणुस्सदेवत्ते वद्यमाणस्स जाव जीवाया, नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए वट्टमा| जस्स जाव जीवाया, एवं कण्हलेस्साए जाव सुकलेस्साए, सम्मदिट्टीए ३ एवं चरखुदंसणे ४ आभिणियोहिय. नाणे ५ मतिअनाणे ३ आहारसन्नाए ४ एवं ओरालियसरीरे ५ एवं मणजोए ३ सागारोवओगे अणागारोवओगे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१४२६
RAKAKAR
वदृमाणस्स अपणे जीवे अन्ने जीवाया, से कहमेयं भंते! एवं ?, गोयमा ! जपणं ते अन्नउत्थिया एइमाइक्खंति | जाव मिच्छ ते एबमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु पाणातिवाए जाब मि- १७ शतके च्छादमणमल्ले बदमाणस्म सञ्चेव जीवे सच्चेव जीवाया जाव अणागारोबओगे बद्दमाणस्स सच्चेच जीवे सच्चेच Pउद्देशार
२४२६॥ जीवाया ।। (सूत्रं ५९७)॥
[प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीथिको आ प्रमाणे कहे , यावत् प्ररूपे छे के प्राणातिपातमां, मृषावादमां यावत्-मिथ्यादर्शनश ल्यमां वर्तता प्राणीनो जीव अन्य के अने जीवात्मा तेथी अन्य छ, प्राणातिपातविरमणमां, यावद-परिग्रहविरमणमां, क्रोधना त्यागमां-यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यना त्यागमा वर्तता प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी तेनो जीवात्मा अन्य छे. औत्पत्तिकी बुद्धिमां, यावत्-पारिणामिकी बुद्धिमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छ; अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणामां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेशी अन्य छे उत्थानमा, यावत्-पुरुषकार-पराक्रममा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे नैरयिकपणामां, पंचेंद्रियतिर्यचपणामां, मनुष्यपणामां तथा देवपणामां वर्तमान जीव अन्य छे अने जीवात्मा अन्य छे; ज्ञानावरणीयमा यावत-अंतरायमां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छे; कृष्णलेश्यामां, यावत्-शुक्ल लेश्यामां, तथा सम्यग्रष्टि मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिथ्याष्टिमां, १ चक्षुदर्शन २ अचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन अने ४
केवल दर्शनमां, ५ आभिनिवोधिकजान, श्रुनज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवळज्ञानमां, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने भविभंगज्ञानमा, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, निद्रासंत्रा अने मैथुनसंज्ञामां, अने एज प्रमाणे औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक ||
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है शरीर, तेजस शरीर अने कार्मण शरीरमां, तथा मनोयोग, वचनयोग, अने काययोगमां, साकारोपयोग अने अनाकारोपयोगमा व्याख्या वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेनो जीवात्मा अन्य छे. तो हे भगवन् ! ते केम सत्य होय ? [उ०] हे गौतम ! जे अन्य
१७ शतके प्रज्ञप्ति
उद्देशार ॥१४२७॥ तीथिको ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-तेओ मिथ्या कहे छ. हे गौतम ! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपुंटुं-"प्राणातिपात
११४२७॥ यावत्-मिथ्यादर्शनमा वर्तमान प्रामीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे यावत्-अनाकारोपयोगमा वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे." ॥ ५९७ ॥ ॥ देवे णं भंते ! महड्डीए जाव महेस. पुवामेव रूवी भवित्ता पभू अरूवि विउब्वित्ताणं चिहित्तए १, जो दैनिणहे समढे, से केणट्टेणं भंते! एवं वुचइ-देवे णं जाव नो पभू अरूवि विउवित्ताणं चिट्टित्तए?, गोयमा!
| अहमेयं जाणामि अहमेयं पामामि अहमेयं बुज्झामि अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि, मए एयं नायं मए एयं दिटुं हामा एयं वुद्धं मए एयं अभिसमन्नागयं जपणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स मकम्मस्स सरागस्स सवेद[स्स
समोहस्स मलेसस्स मसरीरस्स ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पन्नायति, तंजहा-कालत्ते वा जाव सुकिहैल्लत्ते वा सुम्मिगंधत्ते या दुन्भिगंधत्ते वा तित्ते वा जाव महुर० कक्खडत्ते जाव लुक्खत्ते, से तेणटेणं गोयमा ! | जाव चिट्टित्तए ॥ मचेच णं भंते ! से जीवे पुत्वामेच अरूवी भवित्ता पभू रूवि विउब्वित्ताणं चिहित्तए !, णो
तिगट्टे जाव चि०, गो! अहमेयं जाणामि जाव जन्नं तहागयस्स जीवस्स अरूवस्स अकम्मस्स अरागस्स IMI अवेदस्स अमोहस्म अलेसम्म अमरीरस्म ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स णो एवं पन्नायति, तं०-कालत्ते वा जाव ।
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व्याख्या-16
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Acharya Shri r agarsuri Gyanmandir लुक्खत्ते वा, से तेणट्टेणं जाव निद्वित्तए वा ।। सेवं भंते ! ति (सूत्रं ५९८ ) ॥ १७-२॥ 151 [३०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिबाळो, यावत्-मोटा सुखवाळो देव पहेलो रूपी होईने-मूर्त स्वरूप धारण करी पछी अरूपी रूप प लके प्रज्ञप्तिः
है (अमूर्त रूप) विकुम्ने रहेवा समर्थ छ ? [उ०] ते अर्थ समर्थ नथी. प्रि०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के उद्देशा२ ॥१४२८४
'मोटी ऋद्धिघालो देव यावत्-अरूपी रूप विकुर्वीने रहेका समर्थ नथी'' [उ०] गौतम! हु ए जाणुं छु, हुए जोउं छु, हुंए नि- ४ ॥१४२८॥ चित जाणु छु, हुंए सर्वथा जाणु छु, में ए जाण्युं छे, में ए जोयु छ, में निश्ति जाण्यु छ अने में ए सर्वथा जाण्यु छ के, तेवा प्रकारना रूपवाळा, कर्मवाळा, रागबाळा, वेदवाळा, मोहवाळा, लेश्यामाळा, शरीरवाला अने ते शरीरथी नहि मुकायेला-जूदा नहीं थयेला जीवने विषे एम जगाय छ, से आ प्रमाणे-ते शरीरयुक्त जीवमा-काळापणु, यावत्-धोळापणुं, सुगंधिपणु के दुर्गधिषणु, कडवाणु के याव-मधुरपणु, तथा कर्कशपणुं के याचच-रुक्षपणुं होय छे, माटे हे गौतम ! ते हेतुथी ते देव पूर्व प्रमाणे यावत्अरूपी रूप विकुर्ववा समर्थ नथी. [१०] हे भगवन् ! तेज देवरूप जीव पहेला अरूपी थईने पछी रूपी आकार विकृर्ववा समर्थ छ? [उ.] ए अर्थ समर्थ नधी-इत्यादि यावत्-'विकुर्वबा समर्थ नथी' त्यांसुधी जाणवू. कारण के हे गौतम ! हुए जाणुं छु के, यावत्रूप विनाना, कर्म विनाना, राग विनाना, वेद विनाना, मोह विनाना, लेश्या विनाना, शरीर विनाना अने शरीरथी जूदा थयेला तेवा प्रकारना जीवने विषे एम जणातुं नथी के, ते जीवमा काळापणुं यावत्-लुखापणुं छे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी यावत्-ते देव | पूर्व प्रमाणे चिकुवा समर्थ नथी. "हे भगवन् । ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे." ।। ५९८ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १६ मा शतकमां चीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्यास्याप्रजाति
॥१४२९॥
RECR
UIRUCRI
शतक १७. (उद्देशक ३)
१७श्तके
नरेशा सेलेसि पडिवएणं भंते ! अणगारे मया समियं पयति वेयति जावतंभावं परिणमति, णो तिणद्वे
१५२९॥ समढ, णण्णत्थेगेण परप्पयोगेण । कतिविहाणं भंते ! एयणा पण्णत्ता, गोयमा! पंचविहा एयणा पण्णत्ता,
जहा-दग्वेयणा खेतमा कालेयणा भायणा भवेयणा, दन्वेयणा णं भंते! कतिथिहा प०१, गोयमा! चउ विहा प०, तंजहा-नेरइयवेयणा तिरिक्ख० मणुस्स० देवदब्वेयणा, से केण एवं बुच्च-नेहयदवेयणा २१, गोयमा ! जन्नं नेरड्या नेरहमदब्वे वहिंसु वा वदति वा वहिस्संति वा ते णं तत्थ नेरतिया नेरतियदवे वट्टमाणा नेहयदम्वेयणं पसु वा एडम्संति या, से तेणटेणं जान बब्वेयणा, से केणद्वेणं भंते एवं वुच तिरिक्वजोणियदन्वेषणा एवं चेव, नवरं निरिक्वजोणियब्वे भाणियध्वं, सेसं तं चेच, एवं जाव देवकन्वेयणा । खेत्तेयणा णं
भंते ! कतिविहा पण्णता ?, गोयमा! चउबिहा प०, तं-नेरइयखेत्तेपणा जाव देवखेत्तयणा, से केणद्वेणं भंते ! हैं। एवं बुबह नेरइयखेत्तयणा ०२१, एवं चेव नवरं नेरहरखेत्तेयणा भाणियच्या, एवं जाप देवखेत्तयणा, एवं का
| लेपणावि, एवं भवेयणावि, भावेयणावि जाच देवभावेयणा (सूत्रं ५९९)॥ हा प्र०] हे भगवन् ! शैलेशी अवस्थाने प्राप्त धयेल अनगार शं सदा निरन्तर कंपे, विशेष कंपे, अने यावत-ते ते भावे परिणमे ?
[उ.] ए अर्थ समर्थ नी, मात्र एक परप्रयोग विना (अर्थान-शैलेशी अवस्थामां आत्मा अत्यन्त स्थिरताने प्राप्त थयेल होवायी।
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परप्रयोग सिवाय न कं.). [प्र.] हे भगवन् ! एजना (कंपन) केटला प्रकारनी कही छ ? [उ०] हे गौतम! एजना पांच प्रकारनी व्याख्या- 18| छे, ते आ प्रमाणे-१ द्रव्यएजना, २ क्षेत्रएजना, ३ कालएजना, ४ भावएजना अने ५ भवएजना. [H०] हे भगवन् ! द्रव्यएजना १७ शतके प्रज्ञप्तिः दि केटला प्रकारनी कही छे ? [उ.] हे गौतम! ते चार प्रकारनी कही है, ते आ प्रमाणे-१ नैरयिकद्रव्यएजना, २ तिर्यंचयोनिक
2 उमेशा ॥१४३. द्रव्यएजना, ३ मनुष्यद्रव्यएजना अने ४ देवद्रव्यएजना. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी 'नैरयिकद्रव्यएजना' २ कडेवामां आवे
| १ [उ०] हे गौतम ! जे माटे नैरयिको नैरयिकद्रव्यमा वर्तता हता, वर्ते के अने वर्तशे, ते नैरयिकोए नैरयिकद्रव्यमा चर्तता
नैरयिकद्रव्यनी एजना करी हती, करे के अने करशे, ते माटे यावत्-नैरयिकद्रव्यएजना कहेवामां आवे छे. [१०] हे भगवन् ! | तिर्यचयोनिकद्रव्यएजना २ कहेवाय के तेनुं शुं कारण ? [उ०] पूर्व प्रमाणेज जाणवु. विशेष ए के नैरयिकद्रव्यने बदले तिर्यंचयो
निकद्रव्य कहे यु. बाकी वधुं तेज प्रमाणे जाणवू. तथा ए प्रमाणे मनुष्यद्रव्यएजना अने देवद्रव्यएजना पण जाणवी. [प्र०] हे भग|वन् ! क्षेत्रएजना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! ते चार प्रकारनी कही छे. ते आ प्रमाणे-१ नैरयिकक्षेत्रएजना, यावत् | ४ देवक्षेत्रएजना. [प्र.] हे भगवन् ! नैरयिक क्षेत्रएजना २ कदेवानुं शुं कारण ! [उ.] पूर्व प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के नैरयिक-13 द्रव्यएजनाने बदले नैरयिकक्षेत्रएजना कहेवी. अने एम यावत्-देव क्षेत्रएजना सुधी जाणवू. तथा कालएजना, भवएजना अने भाव एजना विषे पण ए प्रमाणे जाणवू. यावत्-देवभावएजना मृधी समज. ।। ५९९ ।। | कतिविहा णं भंते ! चलणा पण्णत्ता !, गोयमा ! तिविहा चलणा प०, तं०-सरीरचलणा इंदियचलणा जोग चलणा, सरीरचलणाणं भंते ! कतिविहा प.?, गोयमा! पंचविहा प०, तं०-ओरालियसरीरचलणा जाव क-18
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व्याख्या.
प्रज्ञप्तिः
॥१४३१॥
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म्मगसरीरचलणा, इंदियचलणा णं भंते ! कतिविहा प०१, गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, संजहा- सोइंदियचलणा जाव फासिंदियचलणा, जोगचलणा णं भंते ! कतिविहा प० १, गो० ! निथिहा पं० तं०-मणजोगचलणा वहजोगचलणा कायजोगचरणा, से केणट्टेणं भंते! एवं बुम्बइ ओरालियसरीरचलणा ओ० २१, गोयमा ! जंणं जीवा ओरालियसरीरे वहमाना ओरालियसरीरणयोगाई दबाई ओरालियसरीरत्ताए परिणामेमाणा ओरालि| यसरीरचलणं चलि वा चलति वा चलिस्संति वा से तेणद्वेणं जाब ओरालिय सरीरचलणा० ओ० २, से केणद्वेणं भंते ! एवं वु वेडविषयसरीरचलणा वेड, एवं चेत्र नवरं वेडब्बियसरीरे वद्यमाणा एवं जाव कस्मगसरीरचलणा, से केणट्टेणं भंते ! एवं बु० सोइंदियचलणा २१, गोयमा ! जन्नं जीवा सोइंदिए बट्टमाणा सोइंदियाओगाई दबाई सोइंदिग्रत्ताए परिणामेमाणा सोइंदियचलणं चलिसु वा चलति वा चलिस्संति वा से तेणद्वेणं जाब सोतिंदियचलणा सो० २, एवं जाब फासिंदिपचलणा, से केणद्वेणं एवं बुच्चइ गणजोगचलणा २१, गोयमा ! | जपणं जीवा मणजोए वहमाणा मणजोगप्पा ओगाई दवाई मणजोगत्ताए परिणामेमाणा मणजोगचलणं चलिंसु वा चलिति वा चलिस्संति वा से तेणद्वेणं जाव मणजोगचलणा मण० २, एवं वइजोगचलणावि, एवं कायजोगचलणावि || (सू० ६०० ) ।।
[प्र० ] हे भगवन् ! चलना केटला प्रकारनी कही छे १ [अ०] हे गौतम चलना ऋण प्रकारनी कही के. ते आ प्रमाणे- शरीरचलना, इन्द्रियचलना अने योगचलना. [ प्र० ] हे भगवन् ! शरीरचलना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! शरीरचलना
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१७ शतके उद्देशः३ ।। १४३१ ॥
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७ उद्देशा३ १५३२॥
CCCC
पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ औदारिकभरीरचलना, यावद-५ कार्मणशरीरचलना. [३०] हे भगवन् ! इन्द्रियचलना व्याख्या-18 केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! पांच प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे-१ भोत्रेन्द्रियचलना, यावत्-५ स्पशेन्द्रियचलना. प्रज्ञप्तिः 15[म.] हे भमवन् ! योगचलना केटला प्रकारनी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! योगचलना त्रण प्रकारनी कही जे, ते आ प्रमाणे॥१४३२।। 20
मनोयोगचलना, वचनयोगचलना अने काययोगचलना. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी औदारिकशरीरचलना २ कवाय के ? ठा[उ०] हे गौतम! जे माटे औदारिक शरीरमां वर्तता जीवोए औदारिकशरीरयोग्य द्रव्योने औदारिकशरीरपणे परिणमावता औदा
रिकशरीरनी चलना करी , करे के अने करशे, ते कारणथी हे गौतम ! औदारिकशरीरचलना २ कहेवामां आवे छे. [प्र.] हे भगवन् ! शा कारणथी वैक्रियशरीरचलना २ कहेवामां आवे के? [उ०] पूर्व प्रमाणे धु' जाण. विशेष ए के वैक्रियशरीरने विषे वर्तता' इत्यादि कहे. (अर्थात्-औदारिकने बदले बधे वैक्रिय कहे.) अने एज प्रमाणे यावत्-कार्मणशरीरचलना सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी श्रोत्रेन्द्रियचलना २ कहेवामां आवे के ? [उ०] हे गौतम श्रोत्रेन्द्रियने धारण करता
जीवीए श्रोत्रेन्द्रिययोग्य द्रव्योने श्रोत्रेन्द्रियपणे परिणमावता श्रोत्रेन्द्रियनी चलना करी, करे के अने करशे, ते कारणथी श्रोत्रेमान्द्रियचलना २ कहेवामां आवे . ए प्रमाणे यावत्-स्पर्शेन्द्रिय चलना सुधी जाणवू. [40] हे भगवन् ! शा कारणथी मनोयोग-18
चलना २ कहेवामां आवे छे ? [उ.] हे गौतम ! जे कारणथी मनयोगने धारण करता जीवोए मनयोग्य जीवोए मनयोग्य द्रव्योने
मनयोगपणे परिणमावता मनोयोगनी चलना करी, करे के अने करशे, ते कारणथी मनोयोगचलना २ कहेवामां आवे छे. ए 12 प्रमाणे वचनयोगचलना तथा काययोगचलना पण जाणवी. ॥ ६०० ॥
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व्याख्या प्रज्ञप्ति
॥१४॥३॥
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अह भंवे! संबेगे निब्वेए गुरुसाहम्मियसुस्मृमणया आलोयणया निंदणया गरहणया खमावणया सुयसहायता विठसमणया भावे अप्पडिबद्धया यिणिवणया विचित्तसयाणासणसेवणया सोइंदियसंवरे जाव फासिं
१७ शतक
उमेश वियसंबरे सोमपच्चरवाणे सरीरपञ्चक्रवाणे कसायपञ्चग्वाणे संभोगपञ्चक्खाणे उवहिपचक्रवाणे भत्तपञ्चक्रवाणे
१४३३॥ स्त्रमा विरागया भावसच्चे जोगसच्चे करणसच्चे मणसमण्णाहरणया वयसमन्नाहरणया कायममन्नाहरणया कोह|विवेगे जावमिच्छादसणसल्लविवेगे गाणसंपन्नया सणस. चरित्तसं वेदणअहियासणया मारणंतियअहियास
या एएणं भंते ! पया किंपज्जवसाणफला पण्णता? समणाउसो, गोयमा! संवेगे निब्वेगे जाव मारणतियअहियास एए णं सिद्धिपज्जवसाणफला पं० समणाउसो।। सेवं भंते ! २ जाच विहरति (सू०६०१)॥१७-३॥
[H०] हे भगवन् ! संवेग-मोक्षनो अभिलाप, निर्वेद-संसारथी विरक्तता, गुरुओनी तथा साधर्मिकोनी सेवा, पापोनी आलो। चना-गुरु समक्ष कथन, निंदा-आत्मद्वारा दोपोनी निन्दा, गर्दा-परसमक्ष पोताना दोपो प्रगट करवा, क्षमापना, उपशांतता, श्रुतस
हायता-श्रुताभ्यास, मावाप्रतिवद्धता-हास्वादि भावोने विये अप्रतिबंध, पापस्थानोथी निवृत्त वु, विविक्तशयनासता-च्यादिरहित है। वसति अने आसननो उपयोग, श्रोत्रेन्द्रियसंवर, यावत्-स्पर्शेन्द्रियसंबर, योगप्रत्याख्यान, शरीरप्रत्याख्यान, कषायप्रत्याख्यान, 17
संभोगप्रत्याख्यान, उपधिप्रत्याख्यान, भक्तप्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य-प्रतिलेखनादि क्रियानु यथार्थ करवू, मनःसमन्बाहरण-मननुं संगोपन, वचःसमन्बाहरण-वचनसंगोपन, कायसमन्दाहरण-कायसंगोपन, क्रोधनो त्याग, यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यनो त्याग, ज्ञानसंपन्नता, दर्शनसंपन्नता, चारित्रसंपन्नता, क्षुधादि वेदनामां सहनशीलता अने मारणान्तिक
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कष्टमां सहनशीलता-ए बघा पदोनुं हे आयुष्मान् श्रमण ! अन्तिम फळ शुंक । [उ०] हे गौतम ! संवेग, निर्वेद, यावत्-मारव्याख्या-15 णांतिक कष्टमां सहनशीलता-ए बधा पदोतुं अंतिम फळ मोक्ष का छे. "हे भगवन् ! ते एमज . हे भगवन् ! ते एमज छै."॥६०१॥ प्रज्ञप्ति
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां वीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. ॥१४॥४॥
१७शतके उद्देशः४ १३४॥
शतक १७. (उद्देशक ४) तेणं कालेण २ रायगिहे नगरे जाव एवं बयासी-अस्थि णं भंते । जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कला, हंता अस्थि, सा भंते ! किं पुट्टा कन्नइ अपुट्ठा कन्जह ?, गोयमा ! पुट्ठा कन्जइ नो अपुट्ठा कजइ, एवं जहा पढमसए छटुद्देसए जाच नो अणागुपुब्धिकडाति वत्सब्वं सिया, एवं जाव वेमाणियाण, नवरं जीवाणं एगिदियाण य निवाघाएणं छहिसि वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि सेसाणं नियम छक्षिसि । अस्थि भंते जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजइ, हंता अस्थि, मा भंते ! किं पुट्ठा. कजा जहा पाणाइवाएणं दंडओ एवं मुमावाएणवि, पवं अदिन्नादाणेणवि मेहुणेणवि परिग्गहेणवि, एवं एए पंच दंडगा ५। समयन्नं | भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज़ह सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ अपुट्ठा कजइ, एवं तहेव जाव वत्तव्वं सिया जाव वेमाणियाण, एवं जाय परिग्गहेणं, एवं एतेवि पंच दंडगा १० । जंदेसेणं भंते ! जीवाणं पाणाइबा
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एणं किरिया कजति एवं चेव जाव परिग्गहेणं, एवं एतेवि पंच दंडगा १५ । जंपएसन्नं भंते! जीवाणं पाणाव्याख्या
१७वतक इवाएणं किरिया कन्जइ सा भंते ! किं पुट्ठा कजति एवं तहेव दण्डओ एवं जाव परिग्गहेणं २०, एवं एए वीसं3 प्रज्ञप्ति
* उमेश ॥१४३५॥
दंडगा ॥ (सूत्रं ६०२)॥
[प्र०] ते काळे ते समये राजगृह नगरमा ( भगावन् गौतम) यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! जीवो रडे प्राणातिपातद्वारा क्रिया-कर्म कराय छ । [उ.] हा कराय . [म.] हे भगवन् ! ते क्रिया (कर्म) रपृष्ट-आत्माए स्पर्शली कराय के अ.
स्पृष्ट-आत्माना स्पर्श विना कराय ? [उ०] हे गौतम ! ते स्पृष्ट कराय, पण अस्पृष्ट न कराय-इत्यादि बधु प्रथम शतकना छट्टा 5 उद्देशकमां कया प्रमाणे कहे; यावत्-ते क्रिया (कर्म) अनुक्रमे कराय के, पण अनुक्रम विना कगती नयी. ए प्रमाणे दंढकना
क्रमथी याक्त-वैमानिको सुधी जाण. परन्तु विशेष ए के जीवो अने एकेन्द्रियो व्याघात-प्रतिबंध सिवाय छ ए दिशामांथी आवेलां का कर्म करे छे, अने जो व्याघात होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, कदाच चार दिशामांथी अने कदाच पांच दिशामांथी, आवेला
कर्म करे छे. (जे एकेन्द्रियो लोकान्ते रहेला छे, तेने उपरनी अने आसपासनी दिशाथी कर्म आववानो संभव नथी, तेथी तेओ कचित् त्रण दिशामांथी कदाचिद चार दिशामांथी, अने कदाचित् पांच दिशामांथी आवेलुं कर्म करे छे अने बाकीना जीवो लोकना | मध्य भागमा होत्राथी व्याघातना अभावे छ ए दिशामांथी आवेलु कर्म करे छे. ते सिवाय बाकीना जीवो तो अवश्य छ ए दिशा-15) माथी आवेला कर्म करे छे.) [प्र०] हे भगवन् ! जीवो मृषावादद्वारा कर्म करे ? [उ०] हा, करे छे. [प्र.] हे भगवन् ! भुते क्रिया-कर्म स्पृष्ट कराय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम प्राणातिपात संबंन्धे दंडक कझो के तेम मृषावाद संबन्धे पण दंडक कद्देवो. एम ।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥ १४३६ ।।
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अदत्तादान, मैथुन अने परिग्रहसंबन्धे पांचे दंडको कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! जे समये जीवो प्राणातिपातद्वारा (कर्म) करे छे ते समये हे भगवन् ! ते स्पृष्ट कर्म करे के के अस्पृष्ट कर्म करे छे ? [अ०] पूर्व प्रमाणे जाणवु यावत्-ते 'अनानुपूर्वीकृत नथी' त्यां सुधी कहे. ए प्रमाणे- याचत्-दंडकना क्रमथी वैमानिको सुधी यावत् परिग्रह संबन्धे जाणवु बधा मळीने पूर्ववत् पांचे दंडको मृपाबाद संबन्धे कहेवा. [प्र० ] हे भगवन् ! जे क्षेत्रमां जीवो प्राणातिपात द्वारा कर्म करे छे ते क्षेत्रमां स्पृष्ट के अस्पृष्ट करे - इत्यादि प्रश्न. [ उ० ] पूर्व प्रमाणे उत्तर कहेवो. यावत्-परिग्रह सुधी जाणवु. एम पांचे दंडको कहेबा. [प्र० ] हे भगवन् ! जे प्रदे शमां जीवो ग्राणातिपात द्वारा कर्म करे छे ते प्रदेशमां शुं स्पृष्ट कर्म करे छेके अस्पृष्ट कर्म करे छे-इत्यादि पूर्व प्रमाणे दंडक कहेवो. [अ०] ए प्रमाणे यावत्-परिग्रह सुधी जाणवुं एम वधा मळीने वीश दंडको कहेवा. ।। ६०२ ।।
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जीवाणं भंते! किं अत्तकडे दुक्खे परकडे दुक्खे तदुभयकडे दुक्खे ?, गोयमा ! अत्तकडे दुक्खे नो परकडे दुक्खे नो तदुभयकडे दुक्खे, एवं जाव बेमाणियाणं, जीवा णं भंते! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति परकडे दुक्खं वेदेति तदुभयकडे दुक्खं वेदेति १, गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेदेति नो परकडं दुक्खं वेदेति नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति, एवं जाव वैमाणियाणं | जीवाणं भंते! किं अत्तकडा बेयणा परकडा वेयणा पुच्छा, गोपमा ! अतकडा वेयणा णो परकडा वेयणा णो तदुभयकडा वेधणा एवं जाव वेमाणियाणं, जीवा णं भंते! किं अत्तकडे वेदणं वेदेति परक० वे० दे० तदुभयक० वे बे० ? गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेग० वे० नो परक० नो तदुभय० एवं जाव बेमाणियाणं । सेवं भंते । सेवं भंनेति (सूत्रं ६०३) ।। १७-४ ।।
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१७ शतके उद्देशः ४ ॥१४३६॥
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१७शत
व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥१४३७॥
उद्देशा४ ॥१४३७॥
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[३०] हे भगवन् ! जीवोने जे दुःख छे ते शुं आत्मकृत छ, पस्कृत छे के उभयकृत छे ? [उ०] हे गौतम जीवोने जे दुःख ले ते आत्तकृत ठे, परकृत नथी, तेम उभयकच पण नथी, प प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. [प्र०] है |
चवमानका सुधा जाण: [ भगवन् ! नीवो शुं आत्मकृत दुःख वेदे छे, परकत दुःख वेदे छे के तदुभयकृत दुःख वेदे छ ? [30] हे गौतम ! जीवो आत्मकृत दुःख वेदे छे; परकृत के उभयकृत दुःख वेदता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाण. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने जे वेदना छे ते शुं आत्मकृत छ, परकत छे-इत्यादि प्रश्न. [उ. हे गौतम ! वेदना आत्मकृत छ, परकृत के उभयकृत नथी. ए प्रमाणे | यावत्-वैमानिको सुधी जणवं. [१०] हे भगवन् ! जीवो शु आत्मकृत वेदनाने वेदे छे, परकृत वेदनाने वेदे छे के उभयकृत वेदनाने वेदे छ ? [उ०] हे गौतम ! जीवो आत्मकृत वेदनाने वेदे छे; परकृत के उभयकृत वेदनाने वेदता नथी.ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ॥ ६.३॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १७ मा शतकमां चोथा उद्देशानो मलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ५) कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पपणत्ता, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पच-15 यस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्प. पुढ० बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिमसूरिय जहा ठाणपदे जाव मन ईसाणव.सए महाविमाणे से णं ईसाणवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस जोयणसपसहस्साई एवं जहा दस
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४८
| मसए सविमाणवत्तव्यथा सा इहवि ईसाणस्स निरक्सेसा भाणियब्बा जाव आयरक्खा, ठिती सातिरेगाई दो सागरोवमाई, सेसचेच जाय ईसाणे देविंदे देवराया ई०२, सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति (सूत्र ६०४)॥१७-५॥ १७ शतके [प्र.] हे भमवर 1 देवेंद्र देवराज ईशाननी सुधर्मा सभा क्यों कही छे! [उ०] हे गौतम! जंबूद्वीप नामे द्वीपमा मंदरपर्वतनी
उदेश:५
G॥१५३८ उत्तरे आ रत्नप्रभा पृथिवीना अत्यन्त सम अने रमणीय भूमिमामयी उपर चंद्र अने सूर्यने मूकीने आगळ गया पछी-पावत्-(प्रज्ञा पनासत्रना बीजा) स्थान पदमा कह्या प्रमाणे मध्यभागमा ईशानावतंसक विमान आवे छे. ते ईशानावतंसक नामे महाविमान साडा बार काख योजन लांबु अने पहोळ छ-इत्यादि यावत्-दशम शतकमां शक्रविमाननी वक्तव्यता कही छे ते बधी अहीं ईशान संबंधे | यावत्-आत्मरक्षकनी वक्तव्यता सुधी कहेवी. ते ईशानेन्द्रनुं आयुष किंचित् अधिक बे सागरोपमर्नु छ, बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू. मायावत-देवेंद्र देवराज ईशान छ २. 'हे भगवन् ! ते एमज डे, हे भगवन् ! ते एमज छे'.॥ ६०४॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीम्बना १७ मा शतकमा पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ६.) पुद विकाइए भंते ! इमीसे रय० पुढ० समोहए २ जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढ विक्काइयत्ताए उववज्जित्तए से भंते । किं पुनि उववलित्ता पच्छा संपाउणेजा पुचि वा संपाउणित्ता पच्छा उवव.१, गोयमा! पुचि वा उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा पुचि वा संपाउणित्ता पच्छा उववजेजा, से केगटेणं जाव पच्छा उवचनेजा,81
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तू गोयमा! पुढविकाइयाचं तओ समुग्घाया पं०, तं०-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्याए मारणंतियसमुग्याए, मार-1PI व्याख्या | पतियससुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणति सम्वेग वा समोहणनि देसणं समोहन्नमाणे पुलिंब संपा
५१७ शतके प्रज्ञप्तिः
| उद्देश६ ॥१४३९॥ उणित्ता पच्छा उचवजिन्ना, सब्वेणं समोहणमाणे पुब्धि उववजेत्ता पच्छा संपाउणेजा, से तेजडेणं जाद उवव
४१४३९॥ जिजा। पुढविताइए ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाच समोहए स० २ जे भविए ईसाणे कप्पे पुढवि एवं चेव ईसाणाव, एवं जाव अच्यगेविजविमाणे, अणुत्तरविमाणे ईसिपम्भाराए य एवं चेव । पुढविकाइए णं भंते! सकरप्पभाए पुढचीए समोहए २ स. जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवि० एवं जहा रयणप्पभाए पुढविकाइए उवबाइओ एवं सकारप्पभाएवि पुदबिकाइओ उववाएयव्वो जाव ईसिपम्भाराए, एवं जहा रयणप्पभाए वत्तब्बया भणिया एवं जाव अहेमत्तमाए समोहए ईसीपम्भाराए उववाएयबो। सेवं भंते ! २ त्ति (सूत्रं ६०५) ॥ १७-६॥
[प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव आ रत्नप्रभा पृथिवीमां मरण समुद्घात करीने सौधर्मकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न धवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! शुं प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-पुद्गल ग्रहण करे के प्रथम पुद्गल ग्रहण करे अने पछी उत्पन्न थाय! [उ०] हे गौतम! ते प्रथम उत्पन्न याय अने पछी पुद्गल ग्रहण करे; अथवा प्रथम पुगल ग्रहण करे अने पछी उत्पन्न थाय. [प्र०] ते शा कारणथी यावत्-पछी उत्पन्न थाय ? [३०] हे गौतम पृथिवीकायिकोने त्रण समुद्घातो कमा छ। ते आ प्रमाणे-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात अने मारणांतिक समुद्घात. ज्यारे जीव मारणांतिक समुद्घात करे छे त्यारे देशथी पण समुद्घात करे छे अने सर्वथी पण समुद्घात करे छे. ज्यारे देशथी समृद्घात करे छे त्यारे प्रथम पुद्गल ग्रहण करे छे अने*
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१७ शतके
Acharya Shrir agarsuri Gyanmandir Pा पछी उत्पम थाय छे, ज्यारे सर्वयी समुद्घात करे छे त्यारे प्रथम उत्पन्न थाय छे अने पछी पुद्गल ग्रहण करे छे. ते कारणथी। व्याख्या
18 यावत-पछीथी उत्पन थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव आ रनप्रभा पृथिवीमां यावत्-मरणसमुद्घात करी जे प्रज्ञप्तिः
उद्देशः६ ईशानकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि पृच्छा. [उ.] पूर्व प्रमाणे ईशानकल्पसंचन्थे जागा. एम पावत्॥१४४०॥
L ॥१४४०।अच्युत, वेयक विमान, अनुत्तर विमान अने ईषत्प्राग्भारा पृथिवी संबन्धे पण जण. [प्र०] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव
आ शराप्रभा पृथिवीमां मरण समुद्घात करीने सौधर्भकल्पमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] | जेम रत्नप्रभा पृथिवीना पृथिवीकायिकनो उत्पाद कह्यो छे तेम शर्कराप्रभाना पृथिवीकायिकनो उत्पाद कहेवो. यावत्-ए प्रमाणे ईष
साम्भारा पृथिवी सुधी जाणवं, तथा जेम रत्नप्रभाना पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही तेम यावत्-सातमी नरक पृथिवी मुधीमां मरणसमुद्घातथी समवहत थयेला जीवनो ईषत्प्राग्मारामां उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ६०५ भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमा छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ७) पुढविकाइए ण भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढीए पुढ Kधीकाइयत्ताए उवववजिराए से णं भंते ! किं पुब्बि सेसं तं चेव जहा रयणप्पभापुढ विकाइए सब्वकप्पेसु जाव का ईसिपम्भाराए ताव उववाइओ एवं सोहम्मपृढ विकाइओवि सत्तसुवि पुढवीसु उववाएयचो जाव अहेसत्तमाए, 181
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व्याख्या प्राप्ति १४४२॥
हा एवं जहा सोहम्मपुढ विकाइओ सव्वपुढवीसु उबवाइओ एवं जाव ईसिपम्भारापुढ विकाइओ सब्बपुढवीसु उववा| एयब्यो जाव अहेसत्तमाए, सेवं भंते! २॥ (सूत्र ६०६) ॥ १७-७॥
(५१७शतके [प्र.] हे भगवन् ! जे पृथिवीकायिक जीव सौधर्मकल्पमा मरणसमुद्घात करी आ रखममा पृथिवीमां पृथिवीकायिकपणे Known
1* उमेश | उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन ! प्रथम उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम रत्नप्रभापृथिवीना पृथिवीकायिक जीवनो बधा कल्पोमां, यावत-ईषत्प्राग्भारा पृथिवीमा उपपात कहेवामां आव्यो के तेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनो पण साते नरकपृथिवीमा यावत्-सप्तम नरक सुधी उपपात कहेचो. तथा जेम सौधर्मकल्पना पृथिवीकायिक जीवनी सर्व पृथिवीओमा उपपात कयो के तेम बधा खगों, यात्रत्-ईषत्प्रारभारा पृथिवीमां पृथिवीकायिक जीवनो पण सर्व पृथिवीओमां यावतमातमी नरकपृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज , हे भगवन् ! से एमज छ.' ।। ६०६ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां मातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
शतक १७. (उद्देशक ८.) आउकाइए गंभंते! हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोह.२ जे भविए सोहम्मे ऋप्पे आउकाइयत्ताए उव-| टू वजित्तए एवं जहा पुढ विकाइओतहा आउकाइओवि सम्बकप्पेसुनाव ईसिपम्भाराए तहेव उववाएयचो एवं है| जहा रयणप्पभााउकाइओ उदवाइओ तहा जाच अहेसत्तमापुढविआउकाइओ उवषाएयब्वो जाव ईसिपम्भाः
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राए, सेवं भंते!२॥ (सूत्रं ६०७) ॥ १७-८।। व्याख्या 81 प्र०] हे भगवन् ! जे अकायिक जीव आरतप्रभा पृथिवीमा मरणसमुद्घात करीने सौधर्मकल्पमा अकायिकपणे उत्पन्न बावाने १७शतके प्रज्ञप्ति | योग्य छे- इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम पृथिवीकायिकसंबन्धे कछुके तेम अप्कायिकसंबन्धे पण बघा कल्पोमा कहेQ, यावत् ईषत्प्राग्मारा
उदेवा-९ ॥१४४२॥
C९५४२ पृथिवीमां पण ते प्रमाणे उपपात कहेवो. तथा जेम रसप्रभाना अकायिक जीवनो उपपात करो छ तेम यावत्-सातमी पृथिवीना 51 अप्कायिकजीवनो पण यावद-ईषत्प्राम्भारा पृथिवी सुधी उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छ, हे भगवन् ! ते एमज के.' ॥६०७॥
भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १७ मा शतकमा आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
छन्
शतक १७. (उद्देशक ९) आउकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोह जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवल. एसु आउकाइयत्ताए उजव जित्तए से गं भंते ! सेसं तं चेव एवं जाब अहेसत्तमाए जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव ईसिपन्भाराआउकाइओ जाव अहेसत्तमाए उबवाएपव्वो, सेवं भंते ! २ ।। (सूत्र ६०८) ।। १७-९॥
[प्र.] हे भगवन ! जे अकायिक जीव सौधर्मकल्पमा मरणसमुद्घातने प्राप्त थईने आरसप्रभाना घनोदधिवलयोमा अकायि. कपणे उत्पन्न बचाने योग्य छे, ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ.] बाकी बधु पूर्व प्रमाणे जाण. एम यावत्-अधःसप्तम पृथिवी 13 मधी जाणवू, जेम सौधर्मकल्पना अप्कायिकनो (नरक पृधिवीमां) उपपात करो तेम यावत्-ईषत्प्राग्भारापृथिवीना अकायिक
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MC
व्याख्या प्राप्ति ॥१४४३॥
१७ शतके उमेशार. ॥१४॥
जीवनो यावत्-अधःसलम पृथिवी सुधी उपपात कडेचो. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छ. ॥ ६०८ ॥ भगवद सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां नत्रमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
शतक १७. (उद्देशक १०) वाउक्काइए ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कम्मे वाउक्काइयक्षाए उववजित्तए से णं जहा पुढ विकाइओ तहा धाउकाइओवि नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्धाया पं०, तं०-वेदणासमुग्घाए जाव बेउब्धियसमुग्घाए, मारणतियसमुग्घाए समोहणमाणे देसेण वा समो० सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समो. हओ ईसिपम्भाराए एचवायव्यो, सेवं भंते ! २ (सूत्रं ६०९) ॥ १७-१०॥
[प्र.] हे भगवन् ! जे वायुकायिक जीव आरसप्रभामां मरणसमुद्घातने प्राप्त थइने सौधर्मकल्पमा बायकायिकपणे उत्पनथवाने योग्य ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ.] जेम पृथिवीकायिकसंबन्धे कहेवामा आन्यु छे तेम वायुकायिकसंबन्धे पण जाण. विशेष ए के वायुकायिकने चार समुद्धात होय; अने ते आ प्रमाणे-वेदनासमुद्धात, यावत्-वैक्रियसमुद्घात. ते वायुकायिक मार
णांतिक समुद्घातबडे समवहत थई देशथी समुद्घात करे -इत्यादि बाकी बधुं तेज प्रमाणे जाणवू; यावत्-सातमी नरकपृथिवीमां | समुद्घातने प्राप्त थयेल वायुकायिकनो ईषत्वाम्मारामा उपपात कडेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज .' ६०१
भगवन् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूचना १७ मा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
ॐ
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥१४४४ ॥
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शतक १७. (उद्देशक ११)
बाउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए स० २ जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए हथुवाए वायवल तणुवाद्यवलएसु बाउकाइयत्ताए उबवजेत्तर से णं भंते! सेसं तं वेब एवं जहा सोहम्मे बाउकाइओ सत्तवि पुढीसु उवबाइओ एवं जाव ईसिप भाराए वाउक्काइओ अहेसत्तमाए जाय उबवायचो, सेवं भंते ! २ ।। (सूत्रं ६१० ) ।। १७-११ ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! जे वायुकायिक जीव सौधर्मकल्पमां समुद्धात करी आ रत्नप्रभा पृथिवीना घनवाद, तनुवाद, घनत्रातव लयो के तनुवातवलयोमां वाकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य के ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [30] बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. अने जेम सौधर्मकल्पना वायुकायिकनो साते पृथिवीमां उपपात कह्यो छे ते प्रमाणे यावत्-ईषत्प्राग्मारा पृथिवीना वायुकायिकनो यावत्-अधःसमय पृथिवीपर्यंत उपपात कडेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज से, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ॥ ६१० ॥
मग सुधर्मस्वामणी श्रीमद् भगवतीसूत्रना १७ मा शतकमां अगीयारमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक १२)
एनिंदियाणं भंते! सच्चे समाहारा सच्चे समसरीरा एवं जहा पढमसए बितिषउद्देसर पुढविकाइयाणं | वत्वा भणिया सा चैव एर्गिदियाणं इह भाणियव्त्रा जात्र समाउया समोववनगा । एगिंदिया णं भंते! क
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१७ शतके उद्देशः ११ ॥१४४४७
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भ्याख्या प्रज्ञप्ति ॥१४४५॥
KRUAR
| तिलेस्साओ प.?, गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पं०, तं०-कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । एएसिणं भंते ! एगिदि याणं कण्हलेसाणं जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्योवा एगिदियाणं तेउलेस्मा काउलेस्मा अणतगुणा
१७शतके
उरेशा१२ | णीललेस्सा विसेमाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया। एएसिणं भंते ! पगिदियाणं कण्हलेस्सा इड्डी जहेव दीवकु.
१४४५॥ माराणं, सेवं भंते ! २॥ (सूत्रं ६११) १७-१२ ॥
[प्र.] हे भगवन् ! बधा एकेन्द्रिय जीवो समान आहारवाळा छ, समान शरीरवाळा छे-इत्यादि प्रश्न. [उ.] जेम प्रथम शत-13 कना द्वितीय उद्देशकमां पृथिवीकायिकनी वक्तव्यता कही छे तेम अहीं एकेन्द्रियो संबन्धे पण कहेवी. यावत-समान आयुष्यवाळा नथी, तेम साथे उत्पन यता पण नथी. [प्र.] हे भगवन् ! एकेन्द्रियोने केटली लेश्याओ कही छे १ [उ०] हे गौतम ! तेओने चार* लेश्याओ कही है. ते आ प्रमाणे-१ कृष्णलेश्या, यावत्-४ तेजोलेश्या. [म०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाला, यावत्-(तेजोलेश्या वाळा ए एकेन्द्रियोमा) कोण कोनाथी यावत् विशेषाधिक! [उ०] हे गौतम ! सौथी थोडा तेजोलेश्यावाळा एकेन्द्रियो थे, तेथी अनंतगुण अधिक कापोतलेश्यावाला छे, तेथी विशेषाधिक नीललेश्यावाला छ, अने तेथी विशेषाधिक कृष्णलेश्यावाळा छे. [प्र.] हे भगवन् ! ए कृष्ण लेश्यावाला, यावत्-तेजोलेश्यावाला एकेन्द्रियोनी ऋद्धि-सामर्थ्य संबन्धे प्रश्न.-एटले कृष्णलेश्यावाळा यावत्तेजोलेश्याबाळा एकेन्द्रियोमा कोण अल्पऋद्धिवाळो अने कोण महर्षिक छ ? [उ०] जेम द्वीपकुमारोनी ऋद्धि कही ले तेम एकेन्द्रियोनी कईबी. हे भगवन् ! ते एमज, हे भगवन् ! ते एमज छे. ॥ ६११ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १७ मा प्रतकमां पारमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥१४४६ ॥
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शतक १७. (उद्देशक १३)
नागकुमाराणं भंते! सब्बे समाहारा जहा सोलसममए दीवकुमारुद्देसे तहेव निरवसेसं भाणियन्वं जाव हड्डीति, सेवं भंते! सेवं भंते ! जाव विहरति ॥ (सूत्रं ६१२) ।। १७-१३ ।
[प्र० ] हे भगवन् ! बघा नागकुमारो समान आहारवाळा - इत्यादि प्रश्न. [अ०] जेम सोळा शतकना द्वीपकुमार उद्देशकमा कहेवामां आव्युं छे तेम यावत्-ऋद्धि सुधी कहे. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'- एम कही यावत्-विहरे छे. ६१२ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १७ मा शतकमां तेरमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक १४ )
सुवन्नकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा एवं चैव, सेवं भंते ! २ ॥ सूत्रं ६१३) । १७-१४ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! बधा] सुवर्णकुमारो समान आहारवाळा छे इत्यादि प्रश्न. [३०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवुं. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ।। ६१३ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना १७ मा शतकमां चौदमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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१७ शतके उद्देशः १३ १४ ॥२४४६०
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः
॥१४४७
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शतक १७. (उद्देशक १५.)
विज्जुकुमारा णं भंते! सच्वे समाहारा एवं चेव, सेवं भंते । २ ।। सूत्रं ६१४) ।। १७-१५ ।। [प्र० ] हे भगवन् ! बघा विद्युत्कुमारो समान आहारवाळा छे- इत्यादि प्रश्न. [ उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवु 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् । ते एभज छे.' ।। ६१४ ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रमा १७ मा शतक्रमां पंदरमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक १६ )
वायुकुमारा णं भंते! सच्चे समाहारा एवं चेव, सेवं भंते । २ ॥ सूत्रं ६१५) ।। १७-१६ ।। [प्र०] हे भगवन् ! बधा वायुकुमारो समान आहारवाळा छे- इत्यादि प्रश्न [उ०] पूर्व प्रमाणे बधुं जाणवु हे भगवन् ! ते एमन छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ।। ६१५ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवंतीसूत्रना १७ मा शतक्रमां सोळा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण धयो.
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११७ शतके उद्देशः १५
॥१४४७॥
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ब्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४४८॥
शतक १७. (उदेशक १७) अग्गिकुमारा भंते सवे समाहारा एवं चेब, सेवं भंते!२॥ (सूत्रं ६१६) १७-१७॥ सत्तरसम सयं समता १०
उशः१७ [प.] हे भगवन् ! बधा अग्निकुमारी समान आहारवाला छे-इत्यादि प्रश्न. [उ०] पूर्व प्रमाणे पधु जाणवं. हे भगवन् ! ते
"G१४८ एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे. ॥ ६१६ ॥ भगवत सुधर्मस्त्रामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां सत्तरमा उद्देशनो मूलार्थ
संपूर्ण थयो अने सत्तरमा शतकनी पूर्णाहुति थइ.
RAMAEX
॥ इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे गूर्जरभाषानुवादसहिता
पंचमो भागः समाप्तः ॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (CCHAYAN 60 - R VAD इति श्रीमदभगवतीसूत्रे पंचमो भागः समाप्तः।। 23RDAVAROORNANCH A YESH KARO HARAY-TNSie.sxey SINESSMESSA LEASKESAROKASARIES For Private And Personal