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१७शत
व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥१४३७॥
उद्देशा४ ॥१४३७॥
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[३०] हे भगवन् ! जीवोने जे दुःख छे ते शुं आत्मकृत छ, पस्कृत छे के उभयकृत छे ? [उ०] हे गौतम जीवोने जे दुःख ले ते आत्तकृत ठे, परकृत नथी, तेम उभयकच पण नथी, प प्रमाणे दंडकना क्रमथी यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. [प्र०] है |
चवमानका सुधा जाण: [ भगवन् ! नीवो शुं आत्मकृत दुःख वेदे छे, परकत दुःख वेदे छे के तदुभयकृत दुःख वेदे छ ? [30] हे गौतम ! जीवो आत्मकृत दुःख वेदे छे; परकृत के उभयकृत दुःख वेदता नथी. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाण. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने जे वेदना छे ते शुं आत्मकृत छ, परकत छे-इत्यादि प्रश्न. [उ. हे गौतम ! वेदना आत्मकृत छ, परकृत के उभयकृत नथी. ए प्रमाणे | यावत्-वैमानिको सुधी जणवं. [१०] हे भगवन् ! जीवो शु आत्मकृत वेदनाने वेदे छे, परकृत वेदनाने वेदे छे के उभयकृत वेदनाने वेदे छ ? [उ०] हे गौतम ! जीवो आत्मकृत वेदनाने वेदे छे; परकृत के उभयकृत वेदनाने वेदता नथी.ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी जाणवू. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ॥ ६.३॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १७ मा शतकमां चोथा उद्देशानो मलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक ५) कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पपणत्ता, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पच-15 यस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्प. पुढ० बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिमसूरिय जहा ठाणपदे जाव मन ईसाणव.सए महाविमाणे से णं ईसाणवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस जोयणसपसहस्साई एवं जहा दस
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