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व्याख्याप्रशतिः ॥११३२॥
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दियोवउत्ता प० एवं जाव फासिंदियो उत्ता, नोइंदियोवउत्ता जहा असन्नी, संखेजा मणजोगी प० एवं जाव अणागारोवउत्ता, अनंत रोववन्नगा सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहा असन्नी, संखेजा परंपरोववन्न० प०, एवं जहा अणतरोषवनगा तहा अणंतरोगाढगा अनंतराहारगा अनंतर पञ्चत्तगा, परंपरोगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववनगा ॥
[0] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभापृथिवीना श्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावामोने विषे १ | केटला नारक जीवो कहेला छे १२ केटला कापोतळेश्यावाळा, यावत्-३९ केटला अनाकारोपयोगवाळा कहेला छे. १ केटला अनन्तरोपपन्न प्रथम समये उत्पन्न थयेला होय छे, अने केटला परंपरोपन - उत्पत्ति समयनी अपेक्षाए वे इत्यादि समयोने विषे उत्पन्न थयेला होय छे. केटला अनंतरावगाढ- विवक्षित क्षेत्रने विषे प्रथम समयमा रहेला के, केटला परंपरावगाढ-विवक्षित क्षेत्रमां द्वितीयादि समयने विषे रहेला छे, केटला अनंतराहार- प्रथम समये आहार करवावाळा छे, केटला परंपराहार - द्वितीयादि समये आहार करवावाळा छे, केटला अनन्तरपर्याप्ता - प्रथम समये पर्याप्ता होय छे, अने केटला परंपरपर्याप्ता-द्वितीयादि समये पर्याप्ता होय छे, केटला चरम-जेने छेलो तेज नारकभव बाकी छे एवा होय छे, अथवा केटला नारकभवना चरम बेल्ले समये वर्ते के, १० अने केटला अचरम-चरमधको विपरीत होय छे ? [अ०] हे गौतम! आ रत्नप्रभा पृथिवीना श्रीश लाख नरकावासोमांना संख्याता योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे १ संख्याता नारक जीवो कहेला छे, २ संख्याता कापोतलेश्यावाळा कहेला छे, ए प्रमाणे यावत्संख्याता संज्ञी जीवो कहेला छे. असंज्ञी जीवो कदाचित् होय के अने कदाचित् होता नथी. जो होय छे तो जघन्यथी एक, वे के
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उद्देशः १
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