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Shri Mahavir Jain
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व्याख्या-1 प्रज्ञप्तिः ॥१०८०॥
१२वतके | उद्देश:५ १०८०॥
परिणामवडे परिणमे ? [उ०] हे गौतम ! ते पांच वर्णवाळा, पांच रसवाळा, वे गंधवाळा अने आठ स्पर्शवाळा परिणामवडे परिणमे. ॥ ४५१॥ | कम्मओ ण भंते ! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह, कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह, हंना गोयमा! कम्मओ णं तं चेव जाव परिणमइ, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह, सेवं
भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्र ४५२) ॥१२-५ । | [प्र०] हे भगवन ! जीव कर्मवडे विविधरूपे-मनुष्य-तिर्यचादि अनेकरूपे-परिणमे छे ? कर्म शिवाय विविधरूपे परिणमतो नथी तथा जगत् कर्मवडे विविधरूपे परिणमे छे ? कर्म विना परिणमतुं नथी? [उ.] हा गौतम! कर्मथी जीव अने जगत्-- जीवनो समूह विविधरूपे परिणमे छे, कर्म विना परिणमतुं नथी. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज '-एम कही भगवान् गौतम यावद् विहरे छे. ॥ ४५३ ॥
भगवत सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १२ मा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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