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व्याख्या-1 प्रज्ञप्ति ॥१४३५॥
एणं किरिया कब ति एवं चेव जाव परिग्गहेणं, एवं एतेवि पंच दंडगा १५ । जंपएसन्नं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते ! किं पुट्ठा कजति एवं तहेव दण्डओ एवं जाव परिग्गहेणं २०, एवं एए वीसं31
१७वतक दंडगा ॥ (सूत्रं ६०२)॥
* उमेशा [प्र०] ते काळे ते समये राजगृह नगरमा (भगावन् गौतम) यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के, हे भगवन् ! जीवो बडे प्राणातिपातद्वारा क्रिया-कर्म कराय छ। [उ.] हा कराय . [म.] हे भगवन् ! ते क्रिया (कर्म) रपृष्ट-आत्माए स्पर्शली कराय के अ. स्पृष्ट-आत्माना स्पर्श विना कराय ? [उ०] हे गौतम ! ते स्पृष्ट कराय, पण अस्पृष्ट न कराय-इत्यादि बधु प्रथम शतकना छट्टा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहेवु'; यावत्-ते क्रिया (कर्म) अनुक्रमे कराय के, पण अनुक्रम विना कगती नयी. ए प्रमाणे दंडकना क्रमथी यारत-वैमानिको सुधी जाण. परन्तु विशेष ए के जीवो अने एकेन्द्रियो व्याघात-प्रतिबंध सिवाय छ ए दिशामाथी आवेलां | कर्म करे छे, अने जो व्याघात होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, कदाच चार दिशामांथी अने कदाच पांच दिशामांथी, आवेला कर्म करे छे. (जे एकेन्द्रियो लोकान्ते रहेला छे, तेने उपरनी अने आसपासनी दिशाथी कर्म आववानो संभव नथी, तेथी तेओ कचित् त्रण दिशामाथी कदाचिद चार दिशामांथी, अने कदाचित् पांच दिशामांथी आवेलु कर्म करे छे अने बाकीना जीवो लोकना | मध्य भागमा होत्राथी व्याघातना अभाव छ ए दिशामांथी आवेलु कर्म करे छे. ते सिवाय बाकीना जीवो तो अवश्य छ ए दिशा-15) माथी आवेला कर्म करे छे.) [प्र०] हे भगवन् ! जीवो मृषावादद्वारा कर्म करे ? [उ०] हा, करे छे. [प्र.] हे भगवन् ! भुते क्रिया-कर्म स्पृष्ट कराय-इत्यादि प्रश्न. [उ०] जेम प्राणातिपात संबंन्धे दंडक कझो के तेम मृषावाद संबन्धे पण दंडक कद्देवो. एम ।
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