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व्याख्या प्रज्ञप्तिः । ११.९८॥
१वतके उद्देश: १०९८॥
गंसि नेरइयत्ताए उववजेज्जा?। समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववजमाणे उववन्नेत्ति वत्तव्वं सिया। अह भंते ! सीहे वग्घे जहा उस्मप्पिणीउद्दसए जाव परस्सरे एए णं निस्सीला एवं चेव जाव बत्तव्वं सिया, अह भंते ! ढंके कंके विलए मरगुए सिखीए, एएणं निस्सीला०, सेसं तं चेव जाव बत्तब्वं सिया।सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरह ।। (सूत्र ४६०) १२-८॥
[प्र०] हे भगवन् ! वानरवृषभ-मोटो वानर, मोटो कुकडो, अने मोटो देडको-ए बधा शीलरहित, व्रतरहित, गुणरहित, मर्यादारहित, प्रत्याख्यान अने पौषधोपवासरहित मरणसमये काल करी आ रत्नप्रभा पृथिवीमा उत्कृष्टथी सागरोपमनी स्थितिवाळा नरकमां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय ? [उ.] श्रमण भगवंत महावीर कहे छे के ( हा नैरयिकरूपे उत्पन्न थाय, ) कारण के जे उपजतुं होय ते उत्पन्न थथु' एम कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! सिंह, वाघ-वगेरे अबसपिणी उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-परासर|ए बधा शीलरहित-इत्यादि यावत् (उ०) पूर्व प्रमाणे जाणवू. (प्र०) हे भगवन् ! कागडो, गीध, वीलक, देडको अने मोर-ए बधा शीलरहित-इत्यादि प्रश्न. (उ०) उत्तर पूर्ववत् जाणवू. हे भगवन् ! 'ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज '-एम कही यावद्विहरे छे. ।। ४६०॥
भगवत् सूधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना १२ मा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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