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१५वाव
व्याख्याप्राप्ति ॥१२७०॥
उशा ५॥१२७००
एवो ते विजयगृहपतिना घेर आग्यो. आवीने तेणे विजयगृहपतिना घरने विषे वर्षेली वसुधारा, नीचे पडेला पांच वर्णोना पुष्पो, तथा परथी बहार नीकळतां मने अने विजयगृहगतिने जोगा; जोईने प्रसन्न अने संतुष्ट थइ ते गोशालक ज्यां हु हतो त्यां आध्यो, त्यां आवी मने प्रणवार प्रदक्षिणा करी, वंदन अने नमस्कार करी तेणे या प्रमाणे का 'हे भगवान! तमे मारा धर्माचार्य छो अने हुं तमारो धर्मशिष्य छु.' ते वखते हे गौतम ! में मंखलिपुत्र गोशालकनी आ वातनो आदर न कर्यो, तेम स्वीकार न कयों परन्तु हुं मौन रह्यो. त्यार बाद हे गौतम ! हुं राजगृह नगर थकी नीकळी नालंदाना बहारना मध्य भागमा थई ज्यां तंतुवायनी शाला छे त्यां आव्या, त्यां आवी बीजा मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो. त्यार पछी हे गौतम ! बीजा मासक्षमणना पारणाने विषे तंतुवायनी शालाथी नीकळी नालंदाना बहारना मध्य भागमा थई ज्यां राजगृह नगर छे त्यां यावद भिक्षा माटे जतां आनंदगृहपतिना घेर प्रवेश कों. त्यार बाद ते आनंदगृहपति मने आवतो जोई-इत्यादि बधो वृत्तांत विजयगृहपतिनी पेठे [० ३.] जाणवो, परन्तु एटलो विशेष छे के 'मने अनेक प्रकारनी भोजन विधिर्थी प्रतिलामिश-एम विचारी ते आनंदगृहपति संतुष्ट थयो-इत्यादि बाकीर्नु वृत्तान्त पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू, यावत्-हुं त्रीजा मासक्षमणनो स्वीकार करी विहरवा लाग्यो.
तए णं अहं गोयमा! तच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवापमालाओपडिनिक्खमामि तं.२ तहेव जाव अ. डमाणे सुणंदरस गाहावइस्स गिहं अणुपविटे, तए णं से सुणंदे गाहायती एवं जहेव विजयगाहादती नवरं मम सब्धकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलामेति सेंसं तं चेव जाब चउत्थं मासरखमणं उवसंपनित्ताणं विहरामि, तीसे णं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते एत्य णं कोल्लाए नाम सन्निवेसे होत्था सन्निवेसवनओ, तत्थ णं को
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