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व्याख्या प्राप्तिः
www.kobatirth.org मध्य भागमा थई ज्यां राजगृह नगर के त्या आव्यो. राजगृह नगरमा उच्च, नीच अन मध्यम कुळमां यावत्-आहार माटे फरता में | विजयनामे गाथापतिना घरमा प्रवेश कयों. ते वखते ते विजयनामे गाथापतिए मने आवतां जोयो, मने आवता जोईने प्रसन्न
जा१५शतके
उदेश | अने संतुष्ट थइ ते तुरत आसनथी उठ्यो, उठीने जल्दी सिंहासनथी उतरी पादुकानो त्याग करी एक साडीवाल्लं उतरासंग करी,
६।१२६८० अंजलिवडे हाथ जोडी सात आठ पगलां मारी सामो आव्यो, मारी सामो आवीने मने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, वंदन अने नस्मकार कर्या. वंदन अने नमकार करी 'मने पुष्कळ अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारथी प्रतिलाभिश-सत्कारीश'-एम विचारी ते संतुष्ट थयो, प्रतिलाभतां पण संतुष्ट थयो, प्रतिलाम्या बाद पण संतुष्ट थयो, अने त्यार पछी ते विजयगाथापतिए द्रव्यनी शुद्धिथी, दायकनी शुद्धिथी अने पात्रनी शुद्धिथी तथा त्रिविध-मन, वचन, कायानी शुद्धिथी अने त्रिकरण शुद्धिथी दानवडे मने प्रतिलाभवाथी देवतुं आयुष बांध्यू, संसार अल्प को अने तेना घरमां आ पांच दिव्यो प्रगट थयां, ते आ प्रमाणे-१ वसुधारानी | दृष्टि, २ पांच वर्णना पुष्पोनी वृष्टि, ३ बजारूप वस्त्रनी वृष्टि, ४ देवदुंदुभिनु वागवू अने ५ आकाशने विषे 'आश्चर्यकारी दान,
आश्चर्यकारी दान'-एवी उत्घोषणा. त्यार बाद राजगृह नगरमा शृंगाटक-त्रिकमार्ग, यावत्-राजमार्गमा घणा माणसो परस्रप एम कहे , यावत् एवी प्ररूपणा करेके के 'हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति धन्य के, हे देवानुप्रिय! विजयगाथापति कृतार्थ छे,
हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति पुण्यशाली छे, हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापति कृतलक्षण छे, हे देवानुप्रिय ! विजयगाथापतिना A उभय लोक सार्थक छे अने विजयगाथापतिनुं मनुष्यसंबन्धी जन्म अने जीवितर्नु फल प्रशंसनीय छ, जेना घरने विषे तेवा प्रकारना
साधु-उत्तम अने सौम्य आकारवाला-श्रमणने प्रतिलाभवाथी आ पांच दिव्यो प्रगट थयां; ते पांच दिव्यो आ प्रमाणे-१ वमु-13
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