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शतक १७. (उद्देशक ११) व्याख्यावाउकाइए णं भंते! सोहम्मे कप्पे समोहए स०२ जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए तणुवाए
१७शतके प्रज्ञप्तिः
का उद्देशः११ ॥१४४४॥ घणवायवलएसुतणुगयवलएसु बाउकाइयत्ताए उववजेत्तए से णं भंते ! सेसं तं चेव एवं जहा सोहम्मे बाउ
५१४४४॥ काइओ सत्तसुवि पुढचीसु उववाहओ एवं जाव ईसिपम्भाराए वाउचाइओ अहेसत्तमाए जाय उववाएयवो, सेवं भंते!२॥ (सूत्रं ६१०)॥१७-११॥
[प्र.] हे भगवन् ! जे वायुकायिक जीव सौधर्मकल्पमा समुद्घात करी आ रनप्रभा पृथिवीना धनवात, तनुवात, घनत्रातब&लयो के तनुवातवलयोमा वायुकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य ते हे भगवन् !-इत्यादि प्रश्न. [उ.] बाकी वर्षा पूर्व प्रमाणे जाणवं.
अने जेम सौधर्मकल्पना वायुकायिकनो साते पृथिवीमा उपपात करो ते प्रमाणे यावत्-ई-प्राग्मारा पृथिवीना वायुकायिकनो यावत्-अधःसप्तय पृथिवीपर्यत उपपात कहेवो. 'हे भगवन् ! ते एमज, हे भगवन् ! ते एमज छे.' ।। ६१ ॥
__ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीन श्रीमद् भगवतीस्त्रना १७ मा शतकमां अगीयारमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतक १७. (उद्देशक १२) एगिदियाणं भंते! सम्वे समाहारा सच्चे समसरीरा एवं जहा पढमसए वितियउद्देसए पुढविकाइयाणं वित्तव्यया भणिया सा चेव एगिदियाणं इह भाणियव्वा जाव समाउया समोववनगा । एगिदिया णं भंते! क-18
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